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सोमवार, 25 मार्च 2024

होली, खुसरो, मीरा, नजीर, भारतेन्दु, प्रसाद, निराला, नज़रुल, बच्चन, शकील , 'रेणु,

महाकवियों की होली कविताएँ
*
अमीर खुसरो (१२५३-१३२५)
*
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।

जिसके कपरे रंग दिए सो धन-धन वाके भाग
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।

मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब-ए-इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया
वो तो दोनों बसंती रंग दे।

जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरवी रख ले
आन पारी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब रख ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे।
***

मीराबाई (१४९८-१५४७)
सील सन्तोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल बलिहार रे॥
***

नजीर अकबराबादी (१७३५-१८३०)
*
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की

हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुल-रू रंग-भरे
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग-भरे
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग-भरे कुछ ऐश के दम मुँह-चंग भरे
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों तब देख बहारें होली की

सामान जहाँ तक होता है उस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहय्या हो और बाग़ खिला हो ख़्वाबों का
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में एक ग़ोल खड़ा महबूबों का
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिले हों परियों के और मज्लिस की तय्यारी हो
कपड़ों पर रंग के छींटों से ख़ुश-रंग अजब गुल-कारी हो
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग-भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की

उस रंग-रंगीली मज्लिस में वो रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिस का चाँद का टुकड़ा हो और आँख भी मय के प्याली हो
बद-मसत बड़ी मतवाली हो हर आन बजाती ताली हो
मय-नोशी हो बेहोशी हो ''भड़वे'' की मुँह में गाली हो
भड़वे भी, भड़वा बकते हों तब देख बहारें होली की

और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवय्यों के लड़के
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट घट के कुछ बढ़ बढ़ के
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के कुछ होली गावें अड़ अड़ के
कुछ लचके शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन भड़के
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की

ये धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा-खींच घसीटी पर भड़वे रंडी का फक्कड़ हो
माजून, शराबें, नाच, मज़ा, और टिकिया सुल्फ़ा कक्कड़ हो
लड़-भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों तब देख बहारें होली की
*
जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।

जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।

गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।
***

भारतेन्दु हरिश्चंद्र (९ सितंबर १८५०-६ जनवरी १८८५)
*
गले मुझको लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में।

नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में।

गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में।

है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुमी कुछ है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ मिरे दिलदार होली में।

रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीली आंख दिखाकर करो सरशार होली में।
*
कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥

तुन्हें कछु लाज न आई।
***

जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८८९-१५ नवंबर १९३७)

बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन।

चांदनी धुली हुई है आज बिछलते है तितली के पंख
सम्हलकर, मिलकर बजते साज मधुर उठती हैं तान असंख्य।

तरल हीरक लहराता शान्त सरल आशा-सा पूरित ताल।
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त बिछा है सेज कमलिनी जाल।

पिये, गाते मनमाने गीत टोलियों मधुपों की अविराम।
चली आती, कर रहीं अभीत कुमुद पर बरजोरी विश्राम।

उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय अरे अभिलाषाओं की धूल
और ही रंग नही लग लाय मधुर मंजरियां जावें झूल।

विश्व में ऐसा शीतल खेल हृदय में जलन रहे, क्या हात
स्नेह से जलती ज्वाला झेल, बना ली हां, होली की रात॥

***

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (२१ फ़रवरी १८९९-१५अक्तूबर १९६१)
*
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरे, खेली होली!
जागी रात सेज प्रिय पति-संग रति सनेह-रंग घोली,
दीपित दीप-प्रकाश, कंज-छवि मंजु-मंजु हँस खोली—
मली मुख-चुंबन-रोली।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस, कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मंद हँस, अधर-दशन, अनबोली—
कली-सी काँटे की तोली।

मधु-ऋतु-रात, मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खो ली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल; श्रम-सुख की हद हो ली—
बनी रति की छबि भोली।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल; मुख-लट, पट, दीप बुझा, हँस बोली—
रही यह एक ठठोली।
***

काज़ी नज़रुल इस्लाम (२४ मई १८९९-२९ अगस्त १९७६)
*
यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,

आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
***

डॉ. हरिवंश राय बच्चन (२७ नवंबर १९०७-१८ जनवरी२००३)
*
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
अंबर ने ओढ़ी है तन पर
चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में
सरसों पीली-पीली,
सिंदूरी मंजरियों से है
अंबा शीश सजाए,
रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
*
यह मिट्टी की चतुराई है, रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं, ढाल अलग है ढंग अलग,
आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के शासन से मत घबराओ,
आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का, वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में सदा सफलता जीवन की,
जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाँहों में भर लो!
***

शकील बदायूँनी (३ अगस्त १९१६-२० अप्रैल १९७०)

होली आई रे कन्हाई
रंग छलके
सुना दे ज़रा बांसरी
बरसे गुलाल, रंग मोरे अंगनवा

अपने ही रंग में रंग दे मोहे सजनवा।

हो देखो नाचे मोरा मनवा
तोरे कारन घर से, आई हूं निकल के
सुना दे ज़रा बांसरी
होली आयी रे!

होली घर आई, तू भी आजा मुरारी
मन ही मन राधा रोये, बिरहा की मारी
हो नहीं मारो पिचकारी
काहे! छोड़ी रे कलाई संग चल के
सुना दे ज़रा बांसरी
होली आई रे!

***


फणीश्वर नाथ 'रेणु' (४ मार्च १९२१-११ अप्रैल१९७७)
*
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा
ले आई... ई... ई... ई
मेरे दर्द की दवा!

आँगनऽऽ बोले कागा
पिछवाड़े कूकती कोयलिया
मुझे दिल से दुआ देती आई
कारी कोयलिया-या
मेरे दर्द की दवा
ले के आई-ई-दर्द की दवा!

वन-वन गुन-गुन बोले भौंरा
मेरे अंग-अंग झनन
बोले मृदंग मन मीठी मुरलियाँ!
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा लेके आई

कारी कोयलिया!
अग-जग अँगड़ाई लेकर जागा
भागा भय-भरम का भूत
दूत नूतन युग का आया
गाता गीत नित्य नया
यह फागुनी हवा...!
***

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