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सोमवार, 4 मार्च 2024

४ मार्च, सॉनेट, नवगीत, तुम, होली, राधेश्याम बंधु, जगदीश पंकज, मुक्तिका

सलिल सृजन ४ मार्च 
*
मार्च  - कब क्या ?
२ - सरोजनी नायडू दिवस, ब्योहार राजेंद्र सिंह निधन १९८८।
३ - फ़िराक़ गोरखपुरी निधन।
४ - सुरक्षा दिवस, रेणु जयंती।
७ - गोविन्द वल्लभ पंत दिवस, अज्ञेय जयंती।
८ - अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस।
१०. सावित्रीबाई फुले पुण्यतिथि।
११ - वैद्यनाथ जयंती, लोधेश्वर दिवस।
१२- क्रांतिकारी भगवानदास माहौर निधन।
१४ - स्वामी भारती कृष्णतीर्थ जयंती।
१५ - विश्व उपभोक्ता संरक्षण दिवस, विश्व विकलांग दिवस, रामकृष्ण परमहंस जयंती, कवि इंद्रमणि उपाध्याय निधन।
२० - रानी अवंती बाई बलिदान दिवस।
२१ - विश्व वानिकी दिवस, विश्व आनंद दिवस, विश्व गौरैया दिवस, ओशो संबोधि दिवस, दादूदयाल जयंती, बिस्मिल्लाखाँ जन्म, शिवानी निधन।
२२ - विश्व जल दिवस, राष्ट्रीय शक संवत १९४३ आरंभ। ।
२३ - भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव शहादत दिवस, शहीद हेम कालाणी जन्म, राममनोहर लोहिया जयंती।
२४ - विश्व क्षय रोग दिवस, नवल पंथ योगेश्वर दयाल जयंती।
२५ - गणेश शंकर विद्यार्थी बलिदान दिवस।
२६ - महीयसी महादेवी जयंती।
२७ - सम्राट अशोक जयंती।
२८ - मैक्सिम गोर्की जन्म।
३० - तुकाराम जयंती।
***
सॉनेट 
तितलियाँ 
*
तितलियों में हौसला है कम नहीं,
पंख फैला उड़ रही हैं तितलियाँ,
नाप नभ झुक मुड़ रही हैं तितलियाँ, 
तितलियों में कौन कहता दम नहीं। 
तितलियों की आँख कब नत नम नहीं,
ऊषा से लें नित उजाला तितलियाँ, 
धरा को दें नव उजाला तितलियाँ,
तितलियाँ भँवरे कहो क्यों सम नहीं।
परकटी होकर न सिसकें तितलियाँ,
तितलियों के स्वप्न हों साकार सब,
साधना करतीं अहर्निश तितलियाँ। 
प्रेम-पंकिल हो न फिसलें तितलियाँ,
तितलियाँ हों सफलता-आगार अब,
कीर्ति पा हँसतीं विनत हो तितलियाँ।  
४.३.२०२४  
***
सॉनेट
क्या?
खुदी से खुद रहे छिपाते क्या?
आँख फूटी नयन मिलाते क्या?
झूठ को सच रहे बताते क्या?
आग घर में रहे लगाते क्या?
डर से डरते, कभी डराते क्या?
हाथ आकर, न हाथ आते क्या?
स्वार्थ बिन सिर कभी झुकाते क्या?
माथ माटी कभी लगाते क्या?
साथ जो जाए, वही लाते क्या?
देह को गेह कह जलाते क्या?
खो गये जो न याद आते क्या?
साथ जो दिल वही दुखाते क्या?
जो लिखा, 'सलिल' समझ पाते क्या?
बिना समझे ही लिख छपाते क्या?
४-३-२०२२
•••
मुक्तिका
जो गये, याद वही आते क्या?
दर्द पा मौन, मुस्कुराते क्या?
तालियाँ बज रहीं बिना जाने
कोयलें मौन, काग गाते क्या?
बात जन की न कोई सुनता है
बात मन की न सच, सुनाते क्या?
जो निबल लो दबोच उसको तुम
बल सबल पे भी आजमाते क्या?
ऑनलाइन न भूख मिटती है
भुखमरी में तुम्हें खिलाते क्या?
४-३-२०२२
•••
द्विपदी
इश्क है तो जुबां से कुछ न कहें
बोले बिन भी निगाह बोलेगी।
४-३-२०२१
***
मुक्तक:
फूल फूला तो तभी जब सलिल ने दी है नमी
न तो माटी ने, न हवाओं ने ही रखी है कमी
सारे गुलशन ने महककर सुबह अगवानी की
सदा मुस्कान मिले, पास मतआए गमी
४-३-२०१८
***
नवगीत
तू
*
पल-दिन,
माह-बरस बीते पर
तू न
पुरानी लगी कभी
पहली बार
लगी चिर-परिचित
अब लगती
है निपट नई
*
खुद को नहीं समझ पाया पर
लगता तुझे जानता हूँ
अपने मन की कम सुनता पर
तेरी अधिक मानता हूँ
मन को मन से
प्रीति पली जो
कम न
सुहानी हुई कभी
*
कनखी-चितवन
मुस्कानों ने
कब-कब
क्या संदेश दिए?
प्राण प्रवासी
पुलके-हरषे
स्नेह-सुरभि
विनिवेश लिये
सार्थक अर्थशास्त्र
जीवन का
सच, न
कहानी हुई कभी
***
नवगीत
तुम
*
पल-दिन,
माह-बरस बीते पर
तुम न
पुरानी लगी कभी
पहली बार
लगी चिर-परिचित
हर दिन लगती
निपट नई
*
खुद को नहीं समझ पाया पर
लगता तुम्हें जानता हूँ
अपने मन की कम सुनता पर
तुमको अधिक मानता हूँ
मन ही मन में
प्रीति पली जो
कम न
सुहानी हुई कभी
*
कनखी-चितवन
मुस्कानों ने
कब-कब
क्या संदेश दिए?
प्राण प्रवासी
पुलके-हरषे
स्नेह-सुरभि
विनिवेश लिये
सार्थक अर्थशास्त्र
जीवन का
सच, न
कहानी हुई कभी
***
नवगीत -
याद
*
याद आ रही
याद पुरानी
*
फेरे साथ साथ ले हमने
जीवन पथ पर कदम धरे हैं
धूप-छाँव, सुख-दुःख पा हमको
नेह नर्मदा नहा तरे हैं
मैं-तुम हम हैं
श्वास-आस सम
लेखनी-लिपि ने
लिखी कहानी
याद आ रही
याद पुरानी
*
ज्ञान-कर्म इन्द्रिय दस घोड़े
जीवन पथ पर दौड़े जुत रथ
मिल लगाम थामे हाथों में
मन्मथ भजते अंतर्मन मथ
अपनेपन की
पुरवाई सँग
पछुआ आयी
हुलस सुहानी
*
कोयल कूकी, बुरा अमुआ
चहकी चिड़िया, महका महुआ
चूल्हा-चौके, बर्तन-भाँडे
देवर-ननदी, दद्दा-बऊआ
बीत गयी
पल में ज़िंदगानी
कहते-सुनते
राम कहानी
४-३-२०१६
***
होली की कुण्डलियाँ:
मनाएँ जमकर होली
*
होली हो ली हो रही होगी फिर-फिर यार
मोदी राहुल ममता केजरि लालू हैं तैयार
लालू हैं तैयार, ठाकरे शरद न बच्चे
फूँक फूँक रख पाँव, दाँव नहिं चलते कच्चे
कहे 'सलिल' कवि जनता को ठगती हर टोली
जनता बचकर रहे चुनावी भंग की गोली
*
होली अनहोली न हो, खाएँ अधिक न ताव.
छेड़-छाड़ सीमित करें, अधिक न पालें चाव..
अधिक न पालें चाव, भाव बेभाव बढ़े हैं.
बचें, करेले सभी, नीम पर साथ चढ़े हैं..
कहे 'सलिल' कविराय, न भोली है अब भोली.
बचकर रहिये आप, खेलिए बचकर होली..
*
होली जो खेले नहीं, वह कहलाये बुद्ध.
माया को भाए सदा, सत्ता खातिर युद्ध..
सत्ता खातिर युद्ध, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, स्मृति का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल.
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रमित है जनता भोली.
एक साथ मिल खर्चे बढ़वा खेलें होली..
***
कृति चर्चा:
एक गुमसुम धूप : समय की साक्षी देते नवगीत
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: एक गुमसुम धूप, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी जेकेटयुक्त, पृष्ठ ९६, मूल्य १५०/-, प्रकाशक कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, नवगीतकार संपर्क ९८६८४४४६६६, rsbandhu2@gmail.com]
नवगीत को ‘स्व’ से ‘सर्व’ तक पहुँचाकर समाज कल्याण का औजार बनाने के पक्षधर हस्ताक्षरों में से एक राधेश्याम बंधु की यह कृति सिर्फ पढ़ने नहीं, पढ़कर सोचने और सोचकर करनेवालों के लिये बहुत काम की है. बाबा की / अनपढ़ बखरी में / शब्दों का सूरज ला देंगे, जो अभी / तक मौन थे / वे शब्द बोलेंगे, जीवन केवल / गीत नहीं है / गीता की है प्रत्याशा, चाहे / थके पर्वतारोही / धूप शिखर पर चढ़ती रहती जैसे नवाशा से भरपूर नवगीतों से मुदों में भी प्राण फूँकने का सतत प्रयास करते बंधु जी के लिये लेखन शगल नहीं धर्म है. वे कहते हैं: ‘जो काम कबीर अपनी धारदार और मार्मिक छान्दस कविताओं से कर सके, वह जनजागरण का काम गद्य कवि कभी नहीं कर सकते..... जागे और रोवे की त्रासदी सिर्फ कबीर की नहीं है बल्कि हर युग में हर संवेदनशील ईमानदार कवि की रही है... गीत सदैव जनजीवन और जनमानस को यदि आल्हादित करने का सशक्त माध्यम रहा है तो तो वह जन जागरण के लिए आम आदमी को आंदोलित करनेवाला भी रहा है.’
‘कोलाहल हो / या सन्नाटा / कविता सदा सृजन करती है’ कहनेवाला गीतकार शब्द की शक्ति के प्रति पूरी तरह आश्वस्त है: ‘जो अभी / तक मौन थे / वे शब्द बोलेंगे’. नवगीत के बदलते कलेवर पर प्रश्नचिन्ह उपस्थित करनेवालों को उनका उत्तर है: ‘शब्दों का / कद नाप रहे जो/ वक्ता ही बौने होते हैं’.
शहर का नकली परिवेश उन्हें नहीं सुहाता: ‘शहरी शाहों / से ऊबे तो / गीतों के गाँव चले आये’ किन्तु विडम्बना यह कि गाँव भी अब गाँव से न रहे ‘ गाँवों की / चौपालों में भी / होरीवाला गाँव कहाँ?’ वातावरण बदल गया है: ‘पल-पल / सपनों को महकाती / फूलों की सेज कसौली है’, कवि चेतावनी देता है: ‘हरियाली मत / हरो गंध की / कविता रुक जाएगी.’, कवि को भरोसा है कल पर: ‘अभी परिंदों / में धड़कन है / पेड़ हरे हैं जिंदा धरती / मत उदास / हो छाले लखकर / ओ माझी! नदिया कब थकती?.’ डॉ. गंगाप्रसाद विमल ठीक ही आकलन करते हैं :’राधेश्याम बंधु ऐसे जागरूक कवि हैं जो अपने साहित्यिक सृजन द्वारा बराबर उस अँधेरे से लड़ते रहे हैं जो कवित्वहीन कूड़े को बढ़ाने में निरत रहा है.’
नवगीतों में छ्न्दमुक्ति के नाम पर छंदहीनता का जयघोष कर कहन को तराशने का श्रम करने से बचने की प्रवृत्तिवाले कलमकारों के लिये बंधु जी के छांदस अनुशासन से चुस्त-दुरुस्त नवगीत एक चुनौती की तरह हैं. बंधु जी के सृजन-कौशल का उदहारण है नवगीत ‘वेश बदल आतंक आ रहा’. सभी स्थाई तथा पहला व तीसरा अंतरा संस्कारी तथा आदित्य छंदों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं जबकि दूसरा अंतरा संस्कारी छंद में है.
‘जो रहबर
खुद ही सवाल हैं,
वे क्या उत्तर देंगे?
पल-पल चुभन बढ़ानेवाले
कैसे पीर हरेंगे?
गलियों में पसरा सन्नाटा
दहशत है स्वच्छंद,
सरेशाम ही हो जाते हैं
दरवाजे अब बंद.
वेश बदल
आतंक आ रहा
कैसे गाँव जियेंगे?
बस्ती में कुहराम मचा है
चमरौटी की लुटी चाँदनी
मुखिया के बेटे ने लूटी
अम्मा की मुँहलगी रौशनी
जब प्रधान
ही बने लुटेरे
वे क्या न्याय करेंगे?
जब डिग्री ने लाखों देकर
नहीं नौकरी पायी
छोटू कैसे कर्ज़ भरेगा
सोच रही है माई?
जब थाने
ही खुद दलाल हैं
वे क्या रपट लिखेंगे?
.
यह कैसी सिरफिरी हवाएँ शीर्षक नवगीत के स्थाई व अंतरे संस्कारी तथा मानव छंदों की पंक्तियों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं. ‘उनकी खातिर कौन लड़े?’ नवगीत में संस्कारी तथा दैशिक छन्दों का क्रमिक प्रयोग कर रचे गये स्थायी और अंतरे हैं:
उनकी खातिर
कौन लड़े जो
खुद से डरे-डरे?
बचपन को
बँधुआ कर डाला
कर्जा कौन भरे?
जिनका दिन गुजरे भट्टी में
झुग्गी में रातें,
कचरा से पलनेवालों की
कौन सुने बातें?
बिन ब्याही
माँ, बहन बन गयी
किस पर दोष धरे?
परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार: ‘राधेश्याम बंधु प्रगीतात्मक संवेदना के प्रगतिशील कवि हैं, जो संघर्ष का आख्यान भी लिखते हैं और राग का वृत्तान्त भी बनाते हैं. एक अर्थ में राधेश्याम बंधु ऐसे मानववादी कवि हैं कि उन्होंने अभी तक छंद का अनुशासन नहीं छोड़ा है.’
इस संग्रह के नवगीत सामयिकता, सनातनता, सार्थकता, सम्प्रेषणीयता, संक्षिप्तता, सहजता तथा सटीकता के सप्त सोपानों पर खरे हैं. बंधु जी दैनंदिन उपयोग में आने वाले आम शब्दों का प्रयोग करते हैं. वे अपना वैशिष्ट्य या विद्वता प्रदर्शन के लिये क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ अथवा न्यूनज्ञात उर्दू या ग्राम्य शब्दों को खोजकर नहीं ठूँसते... उनका हर नवगीत पढ़ते ही मन को छूता है, आम पाठक को भी न तो शब्दकोष देखना होता है, न किसी से अर्थ पूछना होता है. ‘एक गुमसुम धूप’ का कवि युगीन विसंगतियों, और विद्रूपताओं जनित विडंबनाओं से शब्द-शस्त्र साधकर निरंतर संघर्षरत है. उसकी अभिव्यक्ति जमीन से जुड़े सामान्य जन के मन की बात कहती है, इसलिए ये नवगीत समय की साक्षी देते हैं.
***
***
कृति चर्चा :
‘सुनो मुझे भी’ नवगीत की सामयिक टेर
[कृति विववरण: सुनो मुझे भी, नवगीत संग्रह, जगदीश पंकज, आकार डिमाई, पृष्ठ ११२, मूल्य १२०/-, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, वर्ष २०१५, निहितार्थ प्रकाशन, एम् आई जी भूतल १, ए १२९ शालीमार गार्डन एक्सटेंशन II, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, ०९८१०८३७८१४, ०९८१०८३८८३२ गीतकार संपर्क:सोम सदन ५/४१ राजेन्द्र नगर, सेक्टर २ साहिबाबाद jpjend@hyahoo.co.in]
.
बहता पानी निर्मला... सतत प्रवाहित सलिल-धार के तल में पंक होने पर भी उसकी विमलता नहीं घटती अपितु निरंतर अधिकाधिक होती हुई पंकज के प्रगटन का माध्यम बनती है. जगदीश वही जो जग के सुख-दुःख से परिचित ही नहीं उसके प्रति चिंतित भी हो. भाई जगदीश पंकज अपने अंत:करण में सतत प्रवाहित नेह नर्मदा के आलोड़न-विलोड़न में बाधक बाधाओं के पंक को साफल्य के पंकज में परिवर्तित कर उनकी नवगीत सुरभि जन गण को ‘तेरा तुझको अर्पित क्या लागे मेरा’ के मनोभाव से सौंप सके हैं.
नवगीत के शिखर हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार: ‘ जगदीश पंकज के पास भी ऐसी बहुत कुछ कथ्य सम्पदा है जिसे वे अपने पाठकों तक संप्रेषित करना चाहते हैं. ऐसा आग्रह वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसके पास कहने के लिए कुछ विशेष हो, जो अभी तक किसी ने कहा नहीं हो- ‘अस्ति कश्चित वाग्विशेष:’ की भांति. यहाँ मुझे महाभारत की एक और उक्ति सहज ही याद आ रही है 'ऊर्ध्वबाहु: विरौम्यहम् न कश्चित्छ्रिणोतिमाम् ' मैं बाँह उठा-उठाकर चीख रहा हूँ किन्तु मुझे कोई सुन नहीं रहा.’ मुझे प्रतीत होता है कि इन नवगीतों में सर्वत्र रचनात्मक सद्भाव की परिव्याप्ति इसलिए है कि कवि अपनी बात समय और समाज को सामर्थ्य के साथ सुना ही नहीं मनवा भी सका है. शून्य से आरंभ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने का संतोष जगदीश जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों में बिम्बित है. इंद्र जी ने ठीक ही कहा है: ‘प्रस्तुत संग्रह एक ऐसे गीतकार की रचना है जो आत्मसम्मोहन की भावना से ग्रस्त न होकर बृहत्तर सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध संघर्षरत है, जो मानवीय आचरण की समरसता के प्रति आस्थावान है, जो हर किस्म की गैरबराबरी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है और जो अपने शब्दों में प्रगति की आग्नेयता छिपाए हुए है, क्रांतिधर्म होकर भी जो लोकमंगल का आकांक्षी है.’
जगदीश जी वर्तमान को समझने, बूझने और अबूझे से जूझने में विश्वास करते हैं और नवगीत उनके मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है:
गीत है वह
जो सदा आँखें उठाकर
हो जहाँ पर भी,
समय से जूझता है
अर्ध सत्यों के
निकलकर दायरों से
जिंदगी की जो
व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस
खुरदुरी झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़कर चू रहा है
गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच से टेढ़ी
पहेली बूझता है.
त्रैलोक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कथ्य की प्रवहमानता, कवि का मंतव्य, भाषा और बिम्ब सहजग्राह्य है. इसी छंद का प्रयोग निम्न नवगीत में देखिए:
चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज़
तुम तक आ रही है?
जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर-बहिष्कृत हम रहें
प्रतियोगिता से
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है
क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है
साधनसंपन्नों द्वारा साधनहीनों की राह में बाधा बनने की सामाजिक विसंगतियाँ महाभारत काल से अब तक ज्यों की त्यों हैं. कवि को यथार्थ को यथावत कहने में कोई संकोच या डर नहीं है:
जैसा सहा, वैसा कहा
कुछ भी कभी
अतिशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
आकाश के परिदृश्य में
निर्जल उगी है बादली
मेरी अधूरी कामना भी
अर्धसत्यों ने छली
सच्चा कहा, अच्छा कहा
इसमें मुझे
संशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
स्थाई में त्रैलोक और अन्तर में यौगिक छंद का सरस समायोजन करता यह संदेशवाही नवगीत सामायिक परिस्थितियों और परिदृश्य में कम शब्दों में अधिक बात कहता है.
जगदीश जी की भाषिक पकड़ की बानगी जगह-जगह मिलती है. मुखपृष्ठ पर अंकित गौरैया और यह नवगीत एक-दूसरे के लिये बने प्रतीत होते हैं. कवि की शब्द-सामर्थ्य की जय बोलता यह नवगीत अपनी मिसाल आप है:
डाल पर बैठी चिरैया
कूकती है
चंद दानों पर
नज़र है पेट की
पर गुलेलों में बहस
आखेट की
देखकर आसन्न खतरे
हूकती है
जब शिकारी कर रहे हों
दंत-नख पैने
वह समर सन्नद्ध अपने
तानकर डैने
बाज की बेशर्मियों पर
थूकती है
यहाँ कवि ने स्थाई में त्रैलोक, प्रथम अंतरे में महापौराणिक तथा दुसरे अंतरे में रौद्राक छंदों का सरस-सहज सम्मिलन किया है. नवगीतों में ऐसे छांदस प्रयोग कथ्य की कहन को स्वाभाविकता और सम्प्रेषणीयता से संपन्न करते हैं.
समाज में मरती संवेदना और बढ़ती प्रदर्शनप्रियता कवि को विचलित करती है, दो शब्दांकन देखें:
चीख चौंकाती नहीं, मुँह फेर चलते
देखकर अब बेबसों को लोग
.
घाव पर मरहम लगाना भूलकर अब
घिर रहे क्यों ढाढ़सों में लोग
नूतन प्रतिमान खोजते हुए / जीवन अनुमान में निकल गया, छोड़कर विशेषण सब / ढूँढिए विशेष को / रोने या हँसने में / खोजें क्यों श्लेष को?, आग में कुछ चिन्दियाँ जलकर / रच रहीं हैं शब्द हरकारे, मत भुनाओ / तप्त आँसू, आँख में ठहरे, कैसा मौसम है / मुट्ठी भर आँच नहीं मिलती / मिले, विकल्प मिले तो / सीली दियासलाई से, आहटें, / संदिग्ध होती जा रहीं / यह धुआँ है, / या तिमिर का आक्रमण, ओढ़ता मैं शील औ’ शालीनता / लग रहा हूँ आज / जैसे बदचलन जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक / श्रोता के मन को छूती ही नहीं बेधती भी हैं.
इन नवगीतों में आत्मालोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के धागे-सुई-सुमनों से माला बनायी गयी है. कवि न तो अतीत के प्रति अंध श्रृद्धा रखता है न अंध विरोध, न वर्त्तमान को त्याज्य मनाता है न वरेण्य, न भविष्य के प्रति निराश है न अति आशान्वित, उसका संतुलित दृष्टिकोण अतीत की नीव पर निरर्थक के मलबे में सार्थक परिवर्तन कर वर्तमान की दीवारें बनाने का है ताकि भविष्य के ज्योतिकलश तिमिर का हरण कर सकें. वह कहता है:
बचा है जो
चलो, उसको सहेजें
मिटा है जो उसे फिर से बनाएँ
गए हैं जो
उन्हें फिर ध्यान में ले
तलाशें फिर नयी संभावनाएँ.
४-३-२०१५
***

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