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शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

सॉनेट, कवि, नवगीत, समीक्षा, कृष्ण दत्त, प्रेमा छंद, मुक्तिका,

सॉनेट
कवि  
कवि प्रकृति का पूत मुखर है
कण-कण में ईश्वर को देखे
शब्द-सूर्यवत परम प्रखर है
हो आकारित विधि के लेखे

उसको सम भू गह्वर शिखर है
नेह नर्मदा की रेती वह
कलकल करती चपल लहर है
भावों की करता खेती वह

रस बिन श्वासा लगे जहर है
लय सध जाए, ताल न टूटे
रचनारत रह नित; रब रहबर है
अलंकार का हाथ न छूटे

मिथक-बिंब का साथ सुघर है
कवि को कम यह आठ प्रहर है  
२५-११-२०२२
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कार्यशाला ।  

सद्गुण हिय में धारिए,नित करिए उपकार ‌।
अवगुण से मुॅंह मोड़िए, दूर रखो तलवार।।९८८

= धारिए, करिए तथा मोड़िए में अनुरोध है, रखो में आज्ञा। इस विसंगति को हटाएँ।

सद्गुण हिय में धारिए,नित करिए उपकार ‌।
अवगुण से मुॅंह मोड़िए, समझ लीजिए सार।।९८८
© प्रो.मीना श्रीवास्तव 'पुष्पांशी'

सुझाव

= सद्गुण हिय में धारिए,नित करिए उपकार ‌।
अवगुण से मुॅंह मोड़िए, तजिए प्रिय तलवार।।९८८

इस परिवर्तन से विसंगति हटी, 'त' की आवृत्ति तथा प्रिय में 'श्लेष' होने से लालित्य वृद्धि हुई।
'प्रिय तजिए तलवार, हो तो श्लेष नहीं रहता।
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आये छुपके छुपाके, धरके मोहन वेश।
राधा निहारे शशिमुख, सजाये किशन केश।।
डॉ. आलोक रंजन कुमार

= दूसरी पंक्ति में लय भंग है। पदांत दोष भी है।

आए छुपके छुपाके, धरके सखि का भेस।
एक कृष्ण-राधा हुए, दरपन देखे केस।।
***
व्यंग्य रचना
राम भक्ति
(पदभार- १२२ x ४ x २ )
तमाम काम राम के, करें न भक्त जी कभी।
मिठाइयाँ दिखा-दिखा, उड़ा रहे विरक्त जी।।
भुला रमेश पूजते, रमा सदा वियुक्त जी।
सदा स्वस्वार्थ साधते, कहें रहे विमुक्त जी।।
कभी न झूठ बोलते, न सत्य ही कहा कभी।
अकाम काम चाहते, कहें करो सभी अभी।।
अनाम नाम माँगते, छदाम भी न त्यागते।
प्रभो! कमी रहे नहीं, मनोरथी न भागते।।
कहें न आप जोड़िए, न साथ धान्य जा सके।।
चढ़ा यहीं सुपुण्य लें, सुभाग्य आप पा सके।।
२५-११-२०२२
***
नवगीत:
*
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
हम-तुम
देख रहे खिड़की के
बजते पल्ले
मगर चुप्प हैं.
दरवाज़ों के बाहर
जाते डरते
छाये तिमिर घुप्प हैं.
अन्तर्जाली
सेंध लग गयी
शयनकक्ष
शिशुगृह में आया.
जसुदा-लोरी
रुचे न किंचित
पूजागृह में
पैग बनाया.
इसे रोज
उसको दे टॉफी
कर प्रपोज़ नित
किसी और को,
संबंधों के
अनुबंधों को
भुला रही सीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
पशुपति व्यथित
देख पशुओं से
व्यवहारों की
जय-जय होती.
जन-आस्था
जन-प्रतिनिधियों को
भटका देख
सिया सी रोती.
मन 'मॉनीटर'
पर तन 'माउस'
जाने क्या-क्या
दिखा रहा है?
हर 'सीपीयू'
है आयातित
गत को गर्हित
बता रहा है.
कर उपयोग
फेंक दो तत्क्षण
कहे पूर्व से
पश्चिम वर तम
भटकावों को
अटकावों को
भुना रही चीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
२५-११-२०१५
***
कृति चर्चा-
जीवन मनोविज्ञान : एक वरदान
[कृति विवरण: जीवन मनोविज्ञान, डॉ. कृष्ण दत्त, आकार क्राउन, पृष्ठ ७४,आवरण दुरंगा, पेपरबैक, त्र्यंबक प्रकाशन नेहरू नगर, कानपूर]
वर्तमान मानव जीवन जटिलताओं, महत्वाकांक्षाओं और समयाभाव के चक्रव्यूह में दम तोड़ते आनंद की त्रासदी न बन जाए इस हेतु चिंतित डॉ. कृष्ण दत्त ने इस लोकोपयीगी कृति का सृजन - प्रकाशन किया है. लेखन सेवानिवृत्त चिकित्सा मनोवैज्ञानिक हैं.
असामान्यता क्या है?, मानव मन का वैज्ञानिक विश्लेषण, अहम सुरक्षा तकनीक, हम स्वप्न क्यों देखते हैं?, मन एक विवेचन एवं आत्म सुझाव, मां पेशीय तनावमुक्तता एवं मन: शांति, जीवन में तनाव- कारण एवं निवारण,समय प्रबंधन, समस्या समाधान, मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता के शीलगुण, बुद्धि ही नहीं भावना भी महत्वपूर्ण, संवाद कौशल, संवादहीनता: एक समस्या, वाणी: एक अमोघ अस्त्र, बच्चे आपकी जागीर नहीं हैं, मांसक स्वास्थ्य के ३ प्रमुख अंग, मन स्वस्थ तो तन स्वस्थ, संसार में समायोजन का मनोविज्ञान,जीवन में त्याग नहीं विवेकपूर्ण चयन जरूरी, चेतना का विस्तार ही जीवन, जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, क्रोध क्यों होता है?, ईर्ष्या कहाँ से उपजती है?, संबंधों का मनोविज्ञान, संबंधों को कैसे संवारें?, सुखी दांपत्य जीवन का राज, अवांछित संस्कारों से कैसे उबरें?, अच्छे नागरिक कैसे बनें? तथा प्रेम: जीवन ऊर्जा का प्राण तत्व २९ अध्यायों में जीवनोपयोगी सूत्र लेखन ने पिरोये हैं.
निस्संदेह गागर में सागर की तरह महत्वपूर्ण यह कृति न केवल पाठकों के समय का सदुपयोग करती है अपितु आजीवन साथ देनेवाले ऐसे सूत्र थमती है जिनसे पाठक, उसके परिवार और साथियों का जीवन दिशा प्राप्त कर सकता है.
स्वायत्तशासी परोपकारी संगठन 'अस्मिता' मंदगति प्रशिक्षण एवं मानसिक स्वास्थ्य केंद्र, इंदिरानगर,लखनऊ १९९५ से मंदमति बच्चों को समाज की मुख्यधारा में संयोजित करने हेतु मानसोपचार (साइकोथोरैपी) शिविरों का आयोजन करती है. यह कृति इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे दूरस्थ जान भी लाभ ले सकते हैं. इस मानवोपयोगी कृति के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं.
२४-११-२०१४
***
छंद सलिला-
प्रेमा छंद
*
यह दो पदों, चार चरणों, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं का छंद है. इसका पहला, दूसरा और चौथा चरण उपेन्द्रवज्रा तथा दूसरा चरण इंद्रवज्रा छंद होता है.
१. मिले-जुले तो हमको तुम्हारे हसीं वादे कसमें लुभायें
देखो नज़ारे चुप हो सितारों हमें बहारें नगमे सुनाये
*
२. कहो कहानी कविता रुबाई लिखो वही जो दिल से कहा हो
देना हमेशा प्रिय को सलाहें सदा वही जो खुद भी सहा हो
*
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
मेला लगा है चल घूम आयें बना न बातें भरमा रे!
२५-११-२०१३
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मुक्तिका:
सबब क्या ?
*
सबब क्या दर्द का है?, क्यों बताओ?
छिपा सीने में कुछ नगमे सुनाओ..

न बाँटा जा सकेगा दर्द किंचित.
लुटाओ हर्ष, सब जग को बुलाओ..

हसीं अधरों पे जब तुम हँसी देखो.
बिना पल गँवाये, खुद को लुटाओ..

न दामन थामना, ना दिल थमाना.
किसी आँचल में क्यों खुद को छिपाओ?

न जाओ, जा के फिर आना अगर हो.
इस तरह जाओ कि वापिस न आओ..

खलिश का खज़ाना कोई न देखे.
'सलिल' को भी 'सलिल' ठेंगा दिखाओ..

२५-११-२०१०
***

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