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गुरुवार, 10 नवंबर 2022

हाइबन, हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका, हाइगा, ककुप, माहिया, कहमुकरी, मुक्तिका, दोहा, नवगीत, षट्पदी, लघुकथा,

हाइबन
*
'विश्वैक नीड़म्' (संसार एक घोंसला है), 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (पृथ्वी एक कुटुंब है) आदि अभिव्यक्तियाँ भारतीय मनीषा की उदात्तता की परिचायक हैं। विश्ववाणी हिंदी इसी पृष्ठभूमि में विश्व की हर भाषा-बोली के शब्दों और साहित्य को गले लगाती है। हिंदी साहित्य लेखन को मुख्यत: गद्य-पद्य दो वर्गों में रखे जाने के साथ ही दोनों मिलाकर अथवा दोनों विधाओं के गुण-धर्म युक्त साहित्य रचा जाता रहा है। 'गद्य ग़ीत', 'अगीत' आदि ऐसी ही काव्य-विधाएँ हैं। गद्य गीत वह गद्य है जिसमें आंशिक गीतात्मकता हो। अगीत ऐसे गीत हैं जिनमें गीत के बंधन शिथिल कर आंशिक गद्यात्मकता को आत्मसात किया गया हो। इन दोनों विधाओं की रचनाएँ कथ्यानुसार आकार ग्रहण करती हैं। हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका, स्नैर्यू आदि काव्य विधाएँ हिंदी में ग्रहण की जा चुकी हैं। जापानी काव्य विधा 'हाईकु' के रचना विधान (तीन पंक्तियों में ५-७-५ उच्चार) में पद्य-गद्य का मिश्रित रूप है 'हाइबन'।
डॉ. हरदीप कौर संधू के अनुसार- ''हाइबन' जापानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है 'काव्य-गद्य'। हाइबन गद्य तथा काव्य का संयोजन है। १७ वीं शताब्दी के कवि बाशो ने इस विधा का आरंभ १६९० में आपने एक दोस्त को खत में सफरनामा /डायरी के रूप में 'भूतों वाली झोंपड़ी' लिखकर किया। इस खत के अंत में एक हाइकु लिखा गया था। हाइबन की भाषा सरल, मनोरंजक तथा बिंबात्मक होती है। इस में आत्मकथा, लेख , लघुकथा या यात्रा का ज़िक्र आ सकता है। पुरातन समय में हाइबन एक सफरनामे या डायरी के रूप में लिखी जाता था। यात्रा करने के बाद बौद्ध भिक्षु पूरी दिनचर्या को वार्ता के रूप में लिख लेता था और अंत में एक हाइकु भी''
चढ़ती लाली
पत्ती -पत्ती बिखरा
सुर्ख गुलाब।
(यह हाइकु विकलांग बच्चों के माता -पिता के मन की दशा को ब्यान करता है। इन बच्चों की जिंदगी तो अभी शुरू ही हुई है अभी तो दिन चढ़ा ही है। सूर्य की लालिमा ही दिखाई दे रही है…मगर सुर्ख गुलाब …ये बच्चे …पत्ती-पत्ती हो बिखर भी गए। इनको तमाम जिंदगी इनके माता -पिता ही सँभालेंगे। स्कूल ऑफ़ स्पेशल एजुकेशन -"चिल्ड्रन विथ स्पेशल नीड्स "… का अनुभव ब्यान करता )
कुछ और उदाहरण-
बहेतू हवा
लाई धूनी की गंध
देव द्वार से।
(अभी अभी बाहर टहलने निकली तो वातावरण में धूप अगरबत्ती फूल सबका मिला जुला गंध बहुत ही मोहक लगा.... लेकिन कहीं पास में ना तो कोई माता पंडाल है और ना कोई मन्दिर है)
*
अट्टा जो मिले
ढूँढें झिर्री जीवन
रश्मि हवा भी
(अगर जोड़ते है इसे एक लड़की के अरमानों से...जिसकी गरीब मोहब्बत की झोपड़ी को कुचल कर उसके ऊपर बना दिया गया है... एक महल... उसे थमा दिया गया है सोने का एक महल... जिसमे कैद है वो... अपने अरमानों के साथ... नहीं है एक धड़कता दिल जो बन सके एक झरोखा... उसकी कैद जिन्दगी में... जिससे आ सके थोड़ी सी रोशनी और खुली हवा...चरों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें है... जिनसे टकराकर दुआए भी लौट जाती हैं ... हैं तो बस दीवारें और अँधेरा ... और ढूँढती रहती है वो एक झरोखा... उन दीवारों में)
*
नभ बिछुड़ा
बेसहारों का आस
उडु भू संगी ।
*
कुछ अन्य जापानी काव्य विधाएँ-
हाइकु (३ पंक्तियों में ५-७-५ उच्चार) भूल न जाना झाड़ियों में खिले ये बेर के फूल -बाशो
. नश्वर संसार में छोटी सी चिड़िया भी बनाती है नीड़ -इस्सा
. मंदिर के घंटे पर चुपचाप सोई है एक तितली -बुसोन
.
आकाश बड़ा
हौसला हारिल का
उससे बड़ा -नलिनिकान्त
. ईंट-रेत का 
मंदिर मनहर 
देव लापता -संजीव वर्मा 'सलिल' .
जेरीली हवा
हमनेज करीदी
अबे भुगतां -मालवी हाइकु, ललिता रावल
*
ताँका (५ पंक्तियों में ५-७-५-७-७ उच्चार)
जापानी काव्य विधा ताँका (短歌) को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान प्रसिद्धि मिली। इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ।[1] इसकी संरचना ५+७+५+७+७=३१ वर्णों से होती है। एक कवि प्रथम ५+७+५=१७ भाग की रचना करता था तो दूसरा कवि दूसरे भाग ७+७ की पूर्त्ति के साथ शृंखला को पूरी करता था। फिर पूर्ववर्ती ७+७ को आधार बनाकर अगली शृंखला में ५+७+५ यह क्रम चलता; फिर इसके आधार पर अगली शृंखला ७+७ की रचना होती थी। इस काव्य शृंखला को रेंगा कहा जाता था।
इस प्रकार की शृंखला सूत्रबद्धता के कारण यह संख्या १०० तक भी पहुँच जाती थी। ताँका पाँच पंक्तियों और ५+७+५+७+७=३१ वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव है। इसमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इसकी पहली तीन पंक्तियाँ कोई स्वतन्त्र हाइकु है। इसका अर्थ पहली से पाँचवीं पंक्ति तक व्याप्त होता है।
ताँका का शाब्दिक अर्थ है लघुगीत अथवा छोटी कविता। लयविहीन काव्यगुण से शून्य रचना छन्द का शरीर धारण करने मात्र से ताँका नहीं बन सकती। साहित्य का दायित्व बहुत व्यापक है। अत: ताँका को किसी विषय विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता।
रो रही रात
बुला रही चाँद को
तारों को भी
डरती- सिसकती
अमावस्या है आज - डॉ. अनीता कपूर
.
मदन गंध
कहाँ से आ रही है?
तुम आए क्या?
महके हैं
घर-आँगन मेरे -आचार्य भगवत दुबे
.
मन बैरागी
हुआ है आज बागी
तुम्हें देख के
बुनता नए स्वप्न
जीन की आस जागी -मंजूषा 'मन'
*
सेदोका (६ पंक्तियों में ५-७-७, ५-७-७ उच्चार)
जापान में ८वीं सदी में प्रचलित रहा छंद जिसमें प्रेमी या प्रेमिका को सम्बोधित कर ५-७-७, ५-७-७ दो अधूरी काव्य रचनाएँ (प्रश्नोत्तर / संवाद भी) संगुफित होती हैं। इसे कतौता (katauta = kah-tah-au-tah) कहते हैं। इसमें विषयवस्तु, ३८ वर्ण, पंक्ति संख्या या तुक बंधन रूढ़ नहीं होता। सेदोका का वैशिष्ट्य संवेदनशीलता है।
ले जाओ सब
वो जो तुमने दिया
शेष को बचाना है
सँभालने में
आधी चुक गई हूँ
भ्रम को हटाना है -डॉ. अनीता कपूर .
क्या पूछते हो रास्ता जाता कहाँ है? बताऊँ सच सुनो। जाता नहीं है रास्ता कोई कहीं भी हमेशा जाते हमीं। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चोका
चोका उच्चार पर आधारित उच्च स्वर में गाई जाने वाली एक लम्बी कविता (नज़्म) है। चुका में ५ और ७ वर्णों के क्रम में यथा ५+७+५ +७+५+ ....... पंक्तियों को व्यवस्थित करते हैं और अन्त में एक ताँका अर्थात ७ वर्ण की एक और पंक्ति जोड़ देते हैं। इसमें पंक्ति संख्या या विषय बंधन नहीं है।
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे । -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' *
हाइगा (चित्र कविता)
एक छोटा लड़का जिसे हाइगा के लिए मार्गदर्शन दिया जा रहा है।


हाइगा शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है 'हाइ' और 'गा'। हाइ शब्द का अर्थ है हाइकु और 'गा' का तात्पर्य है चित्र। इस प्रकार हाइगा का अर्थ है चित्रों के समायोजन से वर्णित किया गया हाइकु। वास्तव में हाइगा’ जापानी पेण्टिंग की एक शैली है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-’चित्र-कविता’। हाइगा की शुरुआत १७ वीं शताब्दी में जापान में हुई। तब हाइगा रंग-ब्रुश से बनाया जाता था।
*
भारतीय लघु काव्य विधाएँ
ककुप
मिल पौधे लगाइए
वसुंधरा हरी-भरी बनाइये
विनाश को भगाइए
*
माहिया
फागों की तानों से
मन से मन मिलते
मधुरिम मुस्कानों से
*
जनक छंद (३ पंक्तियाँ १३-१३-१३ मात्राएँ)
सबका सबसे हो भला
सभी सदा निर्भय रहें
हो मन का शतदल खिला
.
कहमुकरी
सृष्टि रचे प्रभु खेल कर रहा
नित्य अशुभ-शुभ मेल कर रहा
रसवर्षा ही है अरमान
आसमान है?, नहिं अभियान
***
यह भी खूब रही
सुहागरात में आलू भूनना
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कवि कब क्या कर बैठे, कोई नहीं कह सकता। कवी होता ही है अपने मन का मालिक, धुन का पक्का, प्रचलित नियमें-क़ायदों-मूल्यों को तहस-नहस कर अपनी तरह से जीवन जीनेवाला, सारी वर्जनाओं को ठेंगा दिखानेवाला, 'मेरी मुर्गी की एक टाँग' को माननेवालावाला।
विश्वास न हो तो पढ़िए एक रोचक प्रसंग सोवियत रूस के सुप्रसिद्ध कवि ओसिप मन्देलश्ताम और उसकी पत्नी चित्रकार नाद्‍या हाज़िना का, कैसे उन दोनों ने मनाई सुहागरात।

मिख़ाइल मठ के बाहर बने बाज़ार से उन्होंने एक-एक पैसे वाली दो नीली अँगूठियाँ ख़रीद लीं, पर वे अँगूठियाँ उन्होंने एक-दूसरे को पहनाई नहीं। मन्देलश्ताम ने वह अँगूठी अपनी जेब में ठूँस ली और नाद्या हाज़िना ने उसे अपने गले में पहनी ज़ंजीर में पिरो लिया।

मन्देलश्ताम ने इस अनोखी शादी के मौक़े पर शरबती आँखों वाली अपनी अति सुन्दर व आकर्षक प्रेमिका को उसी बाज़ार से एक उपहार भी ख़रीदकर भेंट किया। यह उपहार था - लकड़ी की एक हस्तनिर्मित ख़ूबसूरत कँघी, जिस पर लिखा हुआ था - 'ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे।' हनीमून की जगह मन्देलश्ताम नाद्या को द्‍नेपर नदी में नौका-विहार के लिए ले गए और उसके बाद नदी किनारे बने कुपेचिस्की बाग़ में अलाव जलाकर उसमें आलू भून-भून कर खाते हुए दोनों ने अपने विवाह की सुहागरात मनाई।
***
मुक्तिका:
कौन चला वनवास रे जोगी?
*
कौन चला वनवास रे जोगी?
अपना ही विश्वास रे जोगी.
*
बूँद-बूँद जल बचा नहीं तो
मिट न सकेगी प्यास रे जोगी.
*
भू -मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी.
*
फिक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
*
गीता वह कहता हो जिसकी
श्वास-श्वास में रास रे जोगी.
*
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
*
माली बाग़ तितलियाँ भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
*
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों हुआ उदास रे जोगी.
*
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
*
राग-तेल, बैराग-हाथ ले
रब का 'सलिल' खवास रे जोगी.
*
नेह नर्मदा नहा 'सलिल' सँग
तब ही मिले उजास रे जोगी.
***
दोहा सलिला
अदरक थोड़ी चूसिये, अजवाइन के साथ
हो खराश से मुक्ति यदि, कॉफ़ी भी हो हाथ
स्वास्थ्य संपदा है सलिल, सचमुच ही अनमोल
वह खाएँ जो पच सके, रखें याद यह बोल
*
सुख पाने के हेतु कर, हर दिन नया उपाय.
मन न पराजित हो अगर, विपदा हो निरुपाय.
*
मन प्रशांत हो तो करे, पूर्ण शक्ति से काम.
मन अशांत हो यदि 'सलिल', समझें विधना वाम.
*
मिश्र न हो सुख-दुख अगर, जीवन हो रसहीन.
बने 'सलिल' रसखान यदि, रहे सदा रसलीन.
१०-११-२०१७
***
एक मुक्तक
कविता उबालें, भूनें, तलें तो, धोना न भूलें, यही प्रार्थना है
छौंकें-बघारें तो हो आँच मद्दी, जला दिल न लेना यही कामना है
जो चटनी सी पीसो तो मिर्ची भी डालो, मगर हो न ज्यादा खटाई तनिक भी
पुदीना मिला लो, ढेली हो गुड़ की, चटखारे लेना सफल साधना है
***
एक षट्पदी
*
संजीवनी मिली कविता से सतत चेतना सक्रिय है
मौन मनीषा मधुर मुखर, है, नहीं वेदना निष्क्रिय है
कभी भावना, कभी कामना, कभी कल्पना साथ रहे
मिली प्रेरणा शब्द साधना का चेतन मन हाथ गहे
व्यक्त तभी अभिव्यक्ति करो जब एकाकार कथ्य से हो
बिम्ब, प्रतीक, अलंकारों से रस बरसा नव बात कहो
१०-११-२०१६
***
दोहा दीप
*
अच्छे दिन के दिए का, ख़त्म हो गया तेल
जुमलेबाजी हो गयी, दो ही दिन में फेल
*
कमल चर गयी गाय को, दुहें नितीश कुमार
लालू-राहुल संग मिल, खीर रहे फटकार
*
बड़बोलों का दिवाला, छुटभैयों को मार
रंग उड़े चेहरे झुके, फीका है त्यौहार
*
मोदी बम है सुरसुरी, नितिश बाण दमदार
अमित शाह चकरी हुए, लालू रहे निहार
*
पूँछ पकड़ कर गैर की, बिसरा मन का बैर
मना रही हैं सोनिया, राहुल की हो खैर
*
शत्रु बनाकर शत्रु को, चारों खाने चित्त
हुए, सुधारो भूल अब. बात बने तब मित्त
*
दूर रही दिल्ली हुआ, अब बिहार भी दूर
हारेंगे बंगाल भी, बने रहे यदि सूर
*
दीवाला तो हो गया, दिवाली से पूर्व
नर से हार नरेंद्र की, सपने चकनाचूर
*
मीसा से विद्रोह तब, अब मीसा से प्यार
गिरगिट सम रंग बदलता, जब-तब अजब बिहार
***
दोहा:
दया उसी पर कीजिए, जो मन से विकलांग
तन तो माटी में मिले, कोई रचा ले स्वांग
*
माटी है तो दीप बन, पी जा सब अँधियार
इंसां है तो ते सीप सम, दे मुक्ता हर बार
*
व्यर्थ पटाखे फोड़कर, क्यों करता है शोर
मौन-शांति की राह चल, ऊगे उज्जवल भोर
***
लघु कथा:
चन्द्र ग्रहण
*
फेसबुक पर रचनाओं की प्रशंसा से अभिभूत उसने प्रशंसिका के मित्रता आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। एक दिन सन्देश मिला कि वह प्रशंसिका उसके शहर में आ रही है और उससे मिलना चाहती है। भेंट के समय आसपास के पर्यटन स्थलों का भ्रमण करने का प्रस्ताव उसने सहज रूप से स्वीकार कर लिया। नौकाविहार आदि के समय कई सेल्फी भी लीं प्रशंसिका ने। लौटकर वह प्रशंसिका को छोड़ने उसके कमरे में गया ही था की कमरे के बाहर भाग-दौड़ की आवाज़ आई और जोर से दरवाजा खटखटाया गया।
दरवाज़ा खोलते ही कुछ लोगों ने उसे घेर लिया। गालियाँ देते हुए, उस पर प्रशंसिका से छेड़छाड़ और जबरदस्ती के आरोप लगाये गए, मोबाइल की सेल्फ़ी और रात के समय कमरे में साथ होना साक्ष्य बनाकर उससे रकम मांगी गयी, उसका कीमती कैमरा और रुपये छीन लिए गए। किंकर्तव्यविमूढ़ उसने इस कूटजाल से टकराने का फैसला किया और बात मानने का अभिनय करते हुए द्वार के समीप आकर झटके से बाहर निकलकर द्वार बंद कर दिया अंदर कैद हो गई प्रशंसिका और उसके साथी।
तत्काल काउंटर से उसने पुलिस और अपने कुछ मित्रों से संपर्क किया। पुलिसिया पूछ-ताछ से पता चला वह प्रशंसिका इसी तरह अपने साथियों के साथ मिलकर भयादोहन करती थी और बदनामी के भय से कोई पुलिस में नहीं जाता था किन्तु इस बार पाँसा उल्टा पड़ा और उस चंद्रमुखी को लग गया चंद्रग्रहण।
***
मुक्तिका
छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष छंद
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
*
मीत था जो गीत सारे ले गया
ख्वाब देखे जो हमारे ले गया
.
दर्द से कोई नहीं नाता रखा
वस्ल के पैगाम प्यारे ले गया
.
हारने की दे दुहाई हाय रे!
जीत के औज़ान न्यारे ले गया
.
ताड़ मौका वार पीछे से किया
फोड़ आँखें अश्क खारे ले गया
.
रात में अच्छे दिनों का वासता
वायदों को ही सकारे ले गया
.
बोल तो जादूगरी कैसे करी
पूर्णिमा से ही सितारे ले गया
.
साफ़ की गंगा न थोड़ी भी कहीं
गंदगी जो थी किनारे ले गया
१०.११.२०१८
***
नवगीत :
बतलाओ तो
*
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
औंधे मुँह गिर पड़े हैं
वाग्मी जुमलेबाज।
तक्षशिला पर हो गया
फिर तिकड़म का राज।
संग सुशासन-घुटाले
करते बंदरबाँट।
मीसा सत्ता की सगी
हक़ छीने किस व्याज?
बिसर गयी सिद्धांत सब
हाय! सियासत आज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
केर-बेर के साथ पर
गर्व करें या लाज?
बेच-खरीद उसूल कह
खुद पर करते नाज।
बड़बोला हर शख्श है
कोई न जिम्मेदार।
दइया रे! हो गया है
आज कोढ़ संग खाज।
रक्षक बने कपोत के
क्रूर-शिकारी बाज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
अफसर हैं प्यारे इन्हें
चाहें करें न काज।
रैंक-पेंशन बन गिरी
अफसरियत पर गाज।
जनगण का शोषण करें
बढ़ा-थोपकर टैक्स।
सब्जी-दाल विलासिता
दूभर हुआ अनाज।
चाह एक न्यूज शीश पर
हो सत्ता का ताज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
१०-११-२०१५
***
नवगीत: 
जितनी रोटी खायी 
की क्या उतनी मेहनत?

मंत्री, सांसद मान्य विधायक 
प्राध्यापक जो बने नियामक
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता
व्यापारी, वकील मुँह खोलें
हुए मौन क्यों?
कहें न तुहमत
.
श्रमिक-किसान करे उत्पादन
बाबू-भृत्य कर रहे शासन
जो उपजाए वही भूख सह
हाथ पसारे माँगे राशन
कब बदलेगी परिस्थिति यह
करें सोचने की
अब ज़हमत
.
उत्पादन से वेतन जोड़ो
अफसरशाही का रथ मोड़ो
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा?
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा
सत्ता-धन की
फ़ैली दहशत
.

१६.१२.२०१४ 
***
नवगीत:
मौन सुनो सब, गूँज रहा है
अपनी ढपली
अपना राग
तोड़े अनुशासन के बंधन
हर कोई मनमर्जी से
कहिए कैसे पार हो सके
तब जग इस खुदगर्जी से
भ्रान्ति क्रांति की
भारी खतरा
करे शांति को नष्ट
कुछ के आदर्शों की खातिर
बहुजन को हो कष्ट
दोष व्यवस्था के सुधारना
खुद को उसमें ढाल
नहीं चुनौती अधिक बड़ी क्या
जिसे रहे हम टाल?
कोयल का कूकना गलत है
कहे जा रहा
हर दिन काग
संसद-सांसद भृष्ट, कुचल दो
मिले न सहमत उसे मसल दो
पिंगल के भी नियम न माने
कविपुंगव की नयी नसल दो
गण, मात्रा,लय,
यति-गति तज दो
शब्दाक्षर खुद
अपने रच लो
कर्ता-क्रिया-कर्म बंधन क्यों?
ढपली ले,
जो चाहो भज लो
आज़ादी है मनमानी की
हो सब देख निहाल
रोक-टोक मत
कजरी तज
सावन में गायें फाग
१०-११-२०१४
***

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