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सोमवार, 3 मई 2021

श्रीमद्भगवद्गीता : अध्याय १

श्रीमद्भगवद्गीता : अध्याय १ का महत्व
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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गीता महाभारत महाकाव्य के मध्य स्थित उच्च ज्योतिस्तंभ पर प्रकाशित ज्योतिशिखा की तरह प्रकाशवान है। इसके एक ओर छह पर्व और दूसरी ओर बारह पर्व हैं। एक और साथ अक्षौहिणी सेना सहित नारायण हैं तो दूसरी ओर नारायणी सेना सहित ग्यारह अक्षौहिणी सेना है। 
व्यासदेव ने महाभारत में ग्रंथ रचना का उद्देश्य या अपना संदेश कहीं नहीं दिया है। इतना विशाल ग्रंथ बिना किसी उद्देश्य के अर्थात निरुद्देश्य कौन रचेगा? यदि कुछ कहना न हो तो लिखना क्यों? 'मुनियों में मैं व्यास हूँ' यह कहकर महाभारतकार ने अपनी बात, अपना संदेश, ग्रंथ रचना का उद्देश्य कथनकर्ता कृष्ण के मुँह से कहला दिया। इसलिए जब गीता कृष्ण कहते हैं तो यह मानना चाहिए कि महाभारतकार कहता है अर्थात यही महाभारत का सार है। कहनेवाला कृष्ण, कहलानेवाला कृष्ण (द्वैपायन), सुननेवाला कृष्ण (कृष्ण के प्रति अद्वैतभाव रखनेवाला)। गीता के पाठक, वाचक और श्रोता को इन्हीं तीन भूमिकाओं में होना होगा। 
वस्तुत: गीता आरंभ अध्याय २ के श्लोक ११ 'अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्' से होता है। इसके पूर्व तो भूमिका ही है। यह भूमिका न हो तो कथ्य यथावत रहने पर भी उसकी प्रासंगिकता स्पष्ट न हो सकेगी। भवन बनाने के पहले भूमि पर भवन की नींव का नक्शा (ले आउट) खींचा जाता है।यह भवन का भाग नहीं होता किंतु इसके बिना भवन बनाया भी नहीं जाता। अध्याय १ गीता के कथ्य का 'ले आउट' ही है। 
गीता कहने का उद्देश्य क्या है अर्थात गीता क्यों कही गई? महाभारत महाकाव्य गीता के बिना भी रचा जा सकता था किंतु तब वह एक सामान्य युद्ध काव्य बनकर रह जाता। भारत के अलावा अन्य देशों, भाषाओँ और सभ्यताओं में अनेक श्रेष्ठ महाकाव्य रचे गए हैं, महाकाव्य के लक्षण और मानकों के अनुसार वे सब श्रेष्ठ और कालजयी हैं किन्तु उनमें और महाभारत में अंतर यही है कि महाभारत में गीता है, अन्य में नहीं। 
गीता का उद्देश्य अर्जुन का क्लैव्य दूर करना या अर्जुन की अहिंसा वृत्ति दूर कर युद्ध में प्रवृत्त कराना, नहीं है।  गीता विशेषकर अध्याय १ का प्रयोजन अर्जुन में उपजे स्वधर्म विरोधी मोह का नाश कर, उचित कारण करने हेतु प्रवृत्त करना है। अर्जुन जन्म और कर्म दोनों से क्षत्रिय है।जन्म ले लेकर  जाने तक उसका हर कर्म क्षत्रिय के अनुकूल है। उसे कुरुक्षेत्र युद्ध का कारण और अनिवार्यता दोनों भली-भाँति ज्ञात होने पर ही उसने अपने भाइयों को युद्ध हेतु सहमति दी थी। वह कायर भी नहीं था कि प्राणभय से युद्ध न करना चाहता हो। इसके पहले अर्जुन कौरवों को छुड़ाने के लिए गंधर्वों से और अपने आश्रयदाता की गौएँ छुड़ाने के लिए भीष्म, द्रोण, कर्ण, कौरवों से युद्ध कर विजयी हो चुका था।  
'श्रेयान् स्वधर्मो विगुण:' यहाँ 'धर्म' का आशय किस धर्म से है? जन्मना या जातिगत धर्म, शिक्षागत धर्म, मनोवृत्तिजनित धर्म, वृत्तिपरक धर्म या कुल धर्म? अर्जुन किस धर्म से च्युत हो रहा है?  
'संकरौ नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च' वर्णसंकर अर्थात वर्ण से च्युत, वर्ण कौन सा? तन अनुसार, मन अनुसार, स्वभाव अनुसार, गुण अनुसार, परिस्थिति अनुसार या कोई अन्य?
इन दो बिंदुओं विचारकर अवगत कराएँ।     

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