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रविवार, 9 मई 2021

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
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गंगा के वट निरखते, सलिल पखारे पैर।
केवट पी भव समुद को, पार कर गया तैर।।
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पत्नी
 ने तन-मन लुटा, किया तुझे स्वीकार.
तू भी क्या उस पर कभी, सब कुछ पाया वार?
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अगर नहीं तो यह बता, किसका कितना दोष.
प्यार न क्यों दे-ले सका, अब मत हो मदहोश..
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बने-बनाया कुछ नहीं, खुद जाते हम टूट.
दोष दे रहे और को, बोल रहे हैं झूठ.
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वह क्यों तोड़ेगा कभी, वह है रचनाकार.
चल मिलकर कुछ रचें हम, शून्य गहे आकार..
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अमर नाथ वह मर्त्य हम, व्यर्थ बनाते मूर्ति
पूज रहे बस इसलिए, करे स्वार्थ की पूर्ति
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छिपी वाह में आह है, इससे बचना यार.
जग-जीवन में लुटाना, बिना मोल नित प्यार.
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वह तो केवल बनाता, टूट रहे हम आप.
अगर न टूटें तो कहो, कैसें सकते व्याप?
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बिंदु सिन्धु हो बिखरकर, सिन्धु सिमटकर बिंदु.
तारे हैं अगणित मगर, सिर्फ एक है इंदु..
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जो पैसों से कर रहा, तू वह है व्यापार.
माँ की ममता का दिया, सिला कभी क्या यार.
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बहिना ने तुझको दिया, प्रतिपल नेह-दुलार.
तू दे पाया क्या उसे?, कर ले तनिक विचार
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शंका समाधान:
उसने क्यों सिरजा मुझे, मकसद जाने कौन?
जिससे पूछा वही चुप, मैं खुद तोडूँ मौन.
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मकसद केवल एक है, मिट्टी ले आकार
हर कंकर शंकर बने, नियति करे स्वीकार
हाथों की रेखा कहे, मिटा न मुझको मीत
अन्यों से ज्यादा बड़ी, खींच- सही है रीत..
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९-५-२०१० 

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