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शनिवार, 22 मई 2021

मुक्तिका

मुक्तिका:
 हो
संजीव 'सलिल'
*
बहुत दिनों में मुझसे मिलने आ
 हो.
यह जाहिर है तनिक भुला न पा
 हो..

मुझे भरोसा था-है, बिछुड़ मिलेंगे हम.
नाहक ही जा दूर व्यर्थ पछता
 हो..

खलिश शूल की जो हँसकर सह लेती है.
उसी शाख पर फूल देख मुस्का
 हो..

अस्त हुए बिन सूरज कैसे पुनः उगे?
जब समझे तब खुद से खुद शर्मा
 हो..

पूरी तरह किसी को कब किसने समझा?
समझ रहे यह सोच-सोच भरमा
 हो..

ढाई आखर पढ़ बाकी पोथी भूली.
जब तब ही उजली चादर तह पा
 हो..

स्नेह-'सलिल' में अवगाहो तो बात बने.
नेह नर्मदा कब से नहीं नहाए हो..
२२-५-२०११ 
*

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