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शनिवार, 29 अगस्त 2015

book review

कृति चर्चा:
'थोड़ा लिखा समझना ज्यादा' : सामयिक विसंगतियों का दस्तावेज
चर्चाकार: संजीव
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[कृति विवरण: थोड़ा लिखा समझना ज्यादा, नवगीत संग्रह, जय चक्रवर्ती, २०१५, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ११९, ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ, संपर्क: एम १/१४९ जवाहर विहार रायबरेली २२९०१० चलभाष ९८३९६६५६९१, ईमेल: jai.chakrawarti@gmail.com ]
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'बचपन में अक्सर दिन भर के कामों से निवृत्त होकर शाम को पिता जी मुझे अपने पास बिठाते और कबीर, तुलसी, मीरा के भजन तथा उस समय की फिल्मों के चर्चित धार्मिक गीत सुनाते.… गीतों में घुले पिता जी के स्वर आज उनके निधन के पच्चीस वर्षों बाद भी मेरे कान में ज्यों के त्यों गूँजते हैं.' १५ नवंबर १९५८ को जन्मे यांत्रिकी अभियंत्रण तथा हिंदी साहित्य से सुशिक्षित जय चक्रवर्ती पितृ ऋण चुकाने का सारस्वत अनुष्ठान इन नवगीतों के माध्यम से कर रहे हैं. दोहा संग्रह 'संदर्भों की आग' के माध्यम से समकालिक रचनाकारों में अपनी पहचान बना चुके जय की यह दूसरी कृति उन्हें साहित्य क्षेत्र में चक्रवर्तित्व की प्रतिष्ठा दिलाने की दिशा में एक और कदम है. निस्संदेह अभी ऐसे कई कदम उन्हें उठाने हैं.
नवगीत समय के सफे पर धड़कते अक्षरों-शब्दों में जन-गण के हृदयों की धड़कनों को संवेदित कर पाठकों-श्रोताओं के मर्म को स्पर्श ही नहीं करता अपितु उनमें अन्तर्निहित सुप्त संवेदनाओं को जाग्रत-जीवंत कर चैतन्यता की प्रतीति भी कराता है. इन नवगीतों में पाठक-श्रोता अपनी अकही वेदना की अभिव्यक्ति पाकर चकित कम, अभिभूत अधिक होता है. नवगीत आम आदमी की अनुभूति को शब्द-शब्द, पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त करता है. इसलिए नवगीत को न तो क्लिष्ट-आभिजात्य संस्कार संपन्न भाषा की आवश्यकता होती है, न ही वह आम जन की समझ से परे परदेशी भाषा के व्याल जाल को खुद पर हावी होने देता है. नवगीत के लिये भाषा, भाव की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है. भाव की प्रतीति करने के लिये नवगीत देशज-विदेशज, तत्सम,-तद्भव, नये-पुराने, प्रचलित-अल्प प्रचलित शब्दों को बिना किसी भेद-भाव के अंगीकार करता है. विद्वान लक्षण-व्यंजना के चक्रव्यूह रचते रहे किन्तु नवगीत जमीन से जुड़े कवि की कलम से निकलकर सीधे जन-मन में पैठ गया. गीत के निधन की घोषणा करनेवाले महामहिमों का निधन हो गया किन्तु गीत-नवगीत समय और परिवेश के अनुरूप चोला बदलकर जी गया. नवगीत के उद्भव-काल के समय की भंगिमा को अंतिम मानकर उसके दुहराव के प्रति अति आग्रही कठघरों की बाड़ तोड़कर नवगीत को जमीन से आकाश के मध्य विचरण करने में सहायक कलमों में से एक जय की भी है. ' पेशे से अभियंता अपना काम करे, क्या खाला का घर समझकर नवगीत में घुस आता है?' ऐसी धारणाओं की निस्सारता जय चक्रवर्ती के इन नवगीतों से प्रगट होती है.
अपनी अम्मा-पिताजी को समर्पित इन ५१ नवगीतों को अवधी-कन्नौजी अंचल की माटी की सौंधी महक से सुवासित कर जय ने जमीनी जड़ें होने का प्रमाण दिया है. जय जनानुभूतियों के नवगीतकार हैं.
'तुम्हारी दृष्टि को छूकर / फिरे दिन / फिर गुलाबों के
तुम्हारा स्पर्श पाकर / तन हवाओं का / हुआ चंदन
लगे फिर देखने सपने / कुँवारी / खुशबुओं के मन
फ़िज़ाओं में / छिड़े चर्चे / सवालों के-जवाबों के '
यौगिक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कवि हिंदी-उर्दू शब्दों के गंगो-जमुनी प्रवाह से अपनी बात कहता है.जीवन के मूल श्रृंगार रस से आप्लावित इस नवगीत में जय की भाषा का सौंदर्य किसी अंकुर और कली के निर्मल लगाव और आकांक्षा की कथा को सर्वग्राही बनाता है.
'लिखे खत तितलियों को / फूल ने / अपनी कहानी के
खनक कर पढ़ गये / कुछ छंद / कंगन रातरानी के
तुम्हारी आहटों से / पर खुले / मासूम ख्वाबों के'
जय के नवगीत माता-पिता को सुमिरकर माँ जैसा होना, पिता तथा खुद से हारे मगर पिता आदि नवगीतों में वात्सल्य रस की नेह-नर्मदा प्रवाहित करते हैं. इनमें कहीं भी लिजलिजी भावुकता या अतिरेकी महत्ता थोपने का प्रयास नहीं है. ये गीत बिम्बों और प्रतीकों का ऐसा ताना-बाना बुनते हैं जिसमें आत्मज की क्षणिक स्मृतियों की तात्विक अभिव्यक्ति सनातनता की प्रतीति कर पाती है:
'माँ होना ही / हो सकता है / माँ जैसा होना' में जय माँ की प्रशंसा में बिना कुछ कहे भी उसे सर्वोपरि कह देते हैं. यह बिना कहे कह दें की कला सहज साध्य नहीं होती.
धरती , नदिया, / धूप, चाँदनी, खुशबू, / शीतलता
धैर्य, क्षमा, करुणा, / ममता, / शुचि-स्नेहिल वत्सलता
किसके हिस्से है / उपमा का / यह अनुपम दोना
माँ को विशेषणों से न नवाज़कर उससे प्राप्त विरासत का उल्लेख करते हुए जय महाभागवत छंद में रचित इस नवगीत के अंत में और किसे आता है / सपनों में / सपने बोना' कहकर बिना कहे ही जय माँ को सृष्टि में अद्वितीय कह देते हैं.
पिता को समर्पित नव गीत में जय 'दुनिया भर से जीते / खुद से- / हारे मगर पिता', 'घर की खातिर / बेघर भटके / सारी उमर पिता', 'किसे दिखाते / चिंदी-चिंदी / अपना जिगर पिता' आदि अभिव्यक्तियों में सिर्फ अंतर्विरोध के शब्द चित्र उपस्थित नहीं करते अपितु पिता से अपेक्षित भूमिका और उस भूमिका के निर्वहन में झेली गयी त्रासदियों के इंगित बिना विस्तार में गये, पाठक को समझने के लिये छोड़ देते हैं. 'चिंदी-चिंदी' शब्द का प्रयोग सामान्यत: कपड़े के साथ किया जाता है, 'जिगर' के साथ 'टुकड़े-टुकड़े' शब्द अधिक उपयुक्त होता।
सजावट, बनावट और दिखावट की त्रित्रासदियों से आहत इस युग की विडम्बनाओं और विसंगतियों से हम सबको प्राय: दिन दो-चार होना होता है. जय गीत के माध्यम से उन्हें चुनौती हैं:
मौत से मत डराओ मुझे / गीत हूँ मैं / मरूँगा नहीं
जन्म जब से हुआ / सृष्टि का
मैं सृजन में हूँ, विध्वंस में / वास मेरा है हर
सांस में / मैं पला दर्द के वंश में
आँखें दिखाओ मुझे / गीत हूँ मैं / डरूँगा नहीं
समय से सवाल करनेवाला गीतकार अपने आप को भी नहीं बख़्शता. वह गीतकार बिरादरी से भी सवाल करता है की जो वे लिख रहे हैं वह वास्तव में देखा है अथवा नहीं? स्पष्ट है की गीतकार कोरी लफ़्फ़ाज़ी को रचनाओं में नहीं चाहता।
आपने जितना लिखा, / दिखा? / सच-सच बताना
शब्द ही तो थे / गये ले आपको / जो व्योम की ऊँचाईयों पर
और धरती से / मिला आशीष चिर सम्मान का / अक्षय-अनश्वर
आपको जितना मिला / उतना दिया? / सच-सच बताना
विशव के पुरातनतम और श्रेष्ठतम संस्कृति का वाहक देश सिर्फ सबसे बड़ा बाजार बनकर इससे अधिक दुखद और क्या हो सकता है? सकल देश के सामाजिक वातावरण को उपभोक्तावाद की गिरफ्त में देखकर जय भी विक्षुब्ध हैं:
लगीं सजने कोक, पेप्सी / ब्रेड, बर्गर और पिज्जा की दुकानें
पसरे हुए हैं / स्वप्न मायावी प्रकृति के / छात्र ताने
आधुनिकता का बिछा है / जाल मेरे गाँव में
लोकतंत्र में लोक की सतत उपेक्षा और प्रतिनिधियों का मनमाना आचरण चिंतनीय है. जब माली और बाड़ ही फसल काटने-खाने लगें तो रक्षा कौन करे?
किसकी कौन सुने / लंका में / सब बावन गज के
राजा जी की / मसनद है / परजा छाती पर
रजधानी का / भाग बाँचते / चारण और किन्नर
ध्वज का विक्रय-पत्र / लिए है / रखवाले ध्वज के
पोर-पोर से बिंधी / हुयी हैं / दहशत की पर्तें
स्वीकृतियों का ताज / सम्हाले / साँपों की शर्तें
अँधियारों की / मुट्ठी में हैं / वंशज सूरज के
शासकों का 'मस्त रहो मस्ती में, आग लगे बस्ती में' वाला रवैया गीतकार को उद्वेलित करता है.
वृन्दावन / आग में दहे / कान्हा जी रास में मगन
चाँद ने / चुरा लीं रोटियाँ / पानी खुद पी गयी नदी
ध्वंस-बीज / लिये कोख में / झूमती है बदचलन नदी
वृन्दावन / भूख से मरे / कान्हा जी जीमते रतन
'कान्हा जी जयंती रातें जीमते रतन' में तथ्य-दोष है. रतन को जीमा (खाया) नहीं जा सकता, रत्न को सजाया या जोड़ा-छिपाया जाता है.
संविधान प्रदत्त मताधिकार के बेमानी होते जाने ने भी कवि को चिंतित किया है. वह नागनाथ-साँपनाथ उम्मीदवारी को प्रश्न के कटघरे में खड़ा करता है:
कहो रामफल / इस चुनाव में / किसे वोट दोगे?
इस टोपी को / उस कुर्ते को / इस-उड़ झंडे को
दिल्ली दुखिया / झेल रही है / हर हथकंडे को
सड़सठ बरसों तक / देखा है / कब तक कब तक देखोगे?
खंड-खंड होती / आशाएँ / धुआँ - धुआँ सपने
जलते पेट / ठिठुरते चूल्हे / खासम-खास बने
गणित लगाना / आज़ादी के / क्या-क्या सुख भोगे?
चलो रैली में, खतरा बहुत नज़दीक है, लोकतंत्र है यहाँ, राजाजी हैं धन्य, ज़ख्म जो परसाल थे, लोकतंत्र के कान्हा, सब के सब नंगे, वाह मालिक ,फिर आयी सरकार नयी आदि नवगीत तंत्र कार्यपद्धति पर कटाक्ष करते हैं.
डॉ. भारतेंदु मिश्र इन नवगीतों में नए तुकांत, नई संवेदना की पड़ताल, नए कथ्य और नयी संवेदना ठीक ही रेखांकित करते हैं. डॉ. ओमप्रकाश सिंह मुहावरों, नए , नए बिम्बों को सराहते हैं. स्वयं कवि 'ज़िंदगी की जद्दोजहद में रोजाना सुबह से शाम तक जो भोगा उसे कागज़ पर उतारते समय इन गीतों के अर्थ ज़ेहन में पहले आने और शब्द बाद में देने' ईमानदार अभिव्यक्ति कर अपनी रचना प्रक्रिया का संकेत करता है. यही कारण है कि जय चक्रवर्ती के ये नवगीत किसी व्याख्या के मोहताज़ नहीं हैं. जय अपने प्रथम नवगीत संग्रह के माध्यम से सफे पर निशान छोड़ने के कामयाब सफर पर गीत-दर-गीत आगे कदम बढ़ाते हुए उम्मीद जगाते हैं.
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