कुल पेज दृश्य

शनिवार, 4 जुलाई 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
भीड़ जुटाता सदा मदारी
*
तरह-तरह के बंदर पाले,
धूर्त चतुर
कुछ भोले-भाले.
बात न माने जो वह भूखा-
खाये कुलाटी
मिले निवाले।
यह नव जुमले रोज उछाले,
वह हर बिगड़ी
बात सम्हाले,
यह तर को बतलाये सूखा,
वह दे छिलके
केले खाले।
यह ठाकुर वह बने पुजारी
भीड़ जुटाता सदा मदारी
*
यह कौआ कोयंल बन गाता।   
वह अरि दल में 
सेंध लगा लगाता।  
जोड़-तोड़ में है यह माहिर-
जिसको चाहे 
फोड़ पटाता।
भूखा रह पर डिजिटल बन तू-
हर दिन ख्वाब  
नया दिखलाता।
ठेंगा दिखा विरोधी दल को 
कर मनमानी 
छिप मुस्काता।
अपनी खुद आरती उतारी 
भीड़ जुटाता सदा मदारी
*
 




  

कोई टिप्पणी नहीं: