दोहा सलिला:
दोहे का रंग कविता के संग
संजीव
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बाहर कम भीतर अधिक जब-जब झाँकें आप
तब कविता होती प्रगट, अंतर्मन में व्याप
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औरों की देखें कमी, दुनिया का दस्तूर
निज कमियाँ देखो बजे, कविता का संतूर
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कविता मन की संगिनी, तन से रखे न काम
धन से रहती दूर यह, प्रिय जैसे संतान
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कविता सविता तिमिर हर, देते दिव्य प्रकाश
महक उठे मन-मोगरा, निकट लगे आकाश
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काव्य -कामिनी ने कभी, करी न कोई चाह
बैठे चुप थक-हारकर, कांत न पाएं थाह
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