गीत:
फहरा नहीं तिरंगा...
संजीव
*
झुका न शासन-नेत्र शर्म से सुन लें हिंदुस्तान में
फहरा नहीं तिरंगा...
संजीव
*
झुका न शासन-नेत्र शर्म से सुन लें हिंदुस्तान में
फहरा नहीं तिरंगा सोची खेलों के मैदान में...
*
*
आज़ादी के संघर्षों में जन-गण का हथियार था 
शीश चढ़ाने हेतु समुत्सुक लोगों का प्रतिकार था 
आज़ादी के बाद तिरंगा आम जनों से दूर हुआ 
शासन न्याय प्रशासन गूंगा अँधा बहरा  क्रूर हुआ 
झंडा एक्ट बनाकर झंडा ही जनगण से दूर किया 
बुझा न पाये लेकिन चाहा बुझे तिरंगा-प्रेम-दिया 
नेता-अफसर स्वार्थ साधते खेलों के शमशान में...
*
*
कमर तोड़ते कर आरोपित कर न घटाते खर्च हैं 
अफसर-नेताशाही-भर्रा लोकतंत्र का मर्ज़ हैं
भत्ता नहीं खिलाड़ी खातिर, अफसर करता मौज है 
खेल संघ या परम भ्रष्ट  नेता-अफसर की फ़ौज है 
नूरा कुश्ती मैच करा जनता को ठगते रहे सभी 
हुए जाँच में चोर सिद्ध पर शर्म न आयी इन्हें कभी 
बिका-बिछा है पत्रकार भी भ्रष्टों के सम्मान में...
*
*
ससुर पुत्र दामाद पुत्रवधु बेटी पीछे कोई नहीं
खेले नहीं कभी खेलों के आज मसीहा बने वही 
लगन परिश्रम त्याग समर्पण तकनीकों की पूछ नहीं 
मौज मजा मस्ती अधनंगापन की बिक्री खूब हुई 
मुन्नी-शीला बेच जवानी गंदी बात करें खो होश 
संत पादरी मुल्ला ग्रंथी बहे भोग में किसका दोष?  
  
खुद के दोष भुला कर ढूँढें दोष 'सलिल' भगवान में...
*
 
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें