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गुरुवार, 7 जुलाई 2011

दोहा मुक्तिका सलिला: चाँद १ संजीव 'सलिल'

दोहा मुक्तिका सलिला:                                                      
संजीव 'सलिल'
*
चाँद १

नीलांगन में खेलता, मन-भाता है चाँद.
संग चन्द्रिका धवल पा, इठलाता है चाँद..

ऊषा,संध्या,निशा को, भरमाता है चाँद.
दिवा स्वप्न मिथ्या दिखा, छल जाता है चाँद..

सूरज थानेदार से, भय खाता है चाँद.
बदली चिलमन में सहम, छिप जाता है चाँद..

अंधों का राजा हुआ, काना करे घमंड.
तारों का सरदार बन, इतराता है चाँद..

वसुधा घास न डालती, चक्कर काटे नित्य.
प्रीत-संदेसा पवन से, भिजवाता है चाँद..

ऊँचा ऊँट पहाड़ के, नीचे आकर मौन.
देख नवग्रह शर्म से, गड़ जाता है चाँद..

संयम तज सुरपति सदृश, करता भोग-विलास.
जर्जर पीला तन लिये, पछताता है चाँद..

सती चाँदनी तप करे, सावित्री सी मौन.
पतिव्रता के पुण्य से, तर जाता है चाँद..

फिर-फिर मर,फिर-फिर जिए, हरदम खाली हाथ.
ज्यों की त्यों चादर 'सलिल', धर जाता है चाँद..
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