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बुधवार, 6 जुलाई 2011

एक गीत: हार चढ़ाने आये... संजीव 'सलिल;

एक गीत:
हार चढ़ाने आये...
संजीव 'सलिल;
*
हार चढ़ाने आये दर पर, बोझिल दिल ले हार कर.
सजल नयन ले देख रहे सब, हमें टँगा दीवार पर...

कर्म-अकर्म किये अगणित मिल, साथ कभी रह दूर भी.
आँखें रहते सत्य न देखा, देख लजाते सूर भी.
निर्दय-सदय काल का बंधन, उठा-गिरा था रहा सिखा-
ले तम का आधार जला करता, दीपक ले नूर भी..
किया अस्वीकारों ने भी, स्वीकार नयन जल ढार कर...

नायक, खलनायक, निर्देशक, दर्शक, आलोचक बनकर.
रहे बजाते ताली झुककर, 'सलिल' कभी अकड़े तनकर.
योग-भोग साकार हमीं में, एक साथ हो जाते थे-
पहनी, फाड़ी, बेची चादर, ज्यों की त्यों आये धरकर..
खिझा, रुला, चुप करा, मनाया, नित जग ने मनुहार कर...

संबंधों के अनुबंधों ने, प्रतिबंधों से बाध्य किया.
साधन कभी बनाया हँसकर, कभी रुलाकर साध्य किया.
जग ने समझा ठगा, सोचते हम थे हमसे ठगा गया-
रहे पूजते जिसे उसी ने, अब हमको आराध्य किया.
सोग जताने आयी तृष्णा फिर सोलह सिंगार कर...

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

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