क्षणिकाएँ
पूर्णिमा वर्मन
१
खिलखिलाते लुढ़कते दिन
बाड़ से- आँगन तलक
हँसकर लपकते रूप
झरती धूप
२
फुरफुराती
दूब पर चुगती चिरैया
चहचहाती झुंड में
लुकती प्रकटती
छोड़ती जाती
सरस आह्लाद के पदचिह्न
३
फिर मुँडेरों पर झुकी
गुलमोहर की बाँह,
फिर हँसी है छाँह
फिर हुई गुस्सा सभी पर धूप
क्या परवाह?
४
ताड़ के डुलते चँवर
वैशाख के दरबार
सड़कें हो रही सूनी
कि जैसे
आ गया हो कोई तानाशाह
५
रेत की आँधी
समंदर का किनारा
तप रहा सूरज
औ'
नन्हा फूल
कुम्हलाता बेचारा
६
एक आँगन धूप का
एक तितली रंग
एक भँवरा गूँजता दिनभर
एक खिड़की-
दूर जाती सी सड़क के साथ
जैसे गुनगुनाती आस
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4 टिप्पणियां:
संजीव जी,बहुत सुन्दर क्षणिकाएं हैं।बधाई स्वीकारें।
पूर्णिमा जी!
सभी क्षणिकाएँ अच्छी बन पडी हैं, गागर में सागर की तरह हैं.
nice one
badhiya
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