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मंगलवार, 25 नवंबर 2025

नवंबर २५, प्रेमा छंद, बुंदेली, सरस्वती, सड़गोड़ासनी, छंद, नवगीत, समीक्षा

सलिल सृजन नवंबर २५ 
बुंदेली
सरस्वती वंदना
*
छंद - सड़गोड़ासनी।
पद - ३, मात्राएँ - १५-१२-१५।
पहली पंक्ति - ४ मात्राओं के बाद गुरु-लघु अनिवार्य।
गायन - दादरा ताल ६ मात्रा।
*
मैया शारदे! पत रखियो
मोखों सद्बुधि दइयो
मैया शारदे! पत रखियो
जा मन मंदिर मैहरवारी
तुरतइ आन बिरजियो
मैया शारदे! पत रखियो
माया-मोह राच्छस घेरे
झट सें मार भगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
अनहद नाद सुनइयो माता!
लागी नींद जगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
भासा-आखर-कवित मोय दो
लय-रस-भाव लुटइयो
मैया शारदे! पत रखियो
मात्रा-वर्ण; प्रतीक बिम्ब नव
अलंकार झलकइयो
मैया शारदे! पत रखियो
२५-११-२०१९
०००
पुरोवाक
''कागज़ के अरमान'' - जमीन पर पैर जमकर आसमान में उड़ान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मानव सभ्यता और कविता का साथ चोली-दामन का सा है। चेतना के विकास के साथ मनुष्य ने अन्य जीवों की तुलना में प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण-पर्यवेक्षण कर, देखे हुए को स्मृति में संचित कर, एक-दूसरे को अवगत कराने और समान परिस्थितियों में उपयुक्त कदम उठाने में सजगता, तत्परता और एकजुटता का बेहतर प्रदर्शन किया। फलत:, उसका न केवल अनुभव संचित ज्ञान भंडार बढ़ता गया, वह परिस्थितियों से तालमेल बैठने, उन्हें जीतने और अपने से अधिक शक्तिशाली पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं पर भी विजय पाने और अपने लिए आवश्यक संसाधन जुटाने में सफल हो सका। उसने प्रकृति की शक्तियों को उपास्य देव मानकर उनकी कृपा से प्रकृति के उपादानों का प्रयोग किया। प्रकृति में व्याप्त विविध ध्वनियों से उसने परिस्थितियों का अनुमान करना सीखा। वायु प्रवाह की सनसन, जल प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, मेघों का गर्जन, विद्युतपात की तड़ितध्वनि आदि से उसे सिहरन, आनंद, प्रसन्नता, आशंका, भय आदि की प्रतीति हुई। इसी तरन सिंह-गर्जन सुनकर पेड़ पर चढ़ना, सर्प की फुंफकार सुनकर दूर भागना, खाद्य योग्य पशुओं को पकड़ना-मारना आदि क्रियाएँ करते हुए उसे अन्य मानव समूहों के अवगत करने के लिए इन ध्वनियों को उच्चरित करने, अंकित करने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस तरह भाषा और लिपि का जन्म हुआ।
कोयल की कूक और कौए की काँव-काँव का अंतर समझकर मनुष्य ने ध्वनि के आरोह-अवरोह, ध्वनि खण्डों के दुहराव और मिश्रण से नयी ध्वनियाँ बनाकर-लिखकर वर्णमाला का विकास किया, कागज़, स्याही और कलम का प्रयोगकर लिखना आरंभ किया। इनमें से हर चरण के विकास में सदियाँ लगीं। भाषा और लिपि के विकास में नारी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। प्रकृति प्रदत्त प्रजनन शक्ति और संतान को जन्मते ही शांत करने के लिए नारी ने गुनगुनाना आरम्भ कर प्रणयनुभूतियों और लाड़ की अभिव्यक्ति के लिए रूप में प्रथम कविता को जन्म दिया। आदि मानव ने ध्वनि का मूल नारी को मानकर नाद, संगीत, कला और शिल्प की अधिष्ठात्री आदि शक्ति पुरुष नहीं नारी को मान जिसे कालान्तर में 'सरस्वती (थाइलैण्ड में सुरसवदी बर्मा में सूरस्सती, थुरथदी व तिपिटक मेदा, जापान में बेंज़ाइतेन, चीन में बियानचाइत्यान, ग्रीक सभ्यता में मिनर्वा, रोमन सभ्यता में एथेना) कहा गया। बोलने, लिखने, पढ़ने और समझने ने मनुष्य को सृष्टि का स्वामी बन दिया। अनुभव करना और अभिव्यक्त करना इन दो क्रियाओं में निपुणता ने मनुष्य को अद्वितीय बना दिया।
भाषा मनुष्य की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के साथ मनन, चिंतन और अभिकल्पन का माध्यम भी बनी। गद्य चिंतन और तर्क तथा पद्य मनन और भावना के सहारे उन्नत हुए। हर देश, काल, परिस्थिति में कविता मानव-मन की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम रही। इस पृष्ठभूमि में डॉ. अग्निभ मुखर्जी 'नीरव' की कविताओं को पढ़ना एक आनंददायी अनुभव है। सनातन सामाजिक मूल्यों को जीवनाधार मानते हुए सनातन सलिला नर्मदा के तट पर भारत के मध्यम श्रेणी के संस्कारधानी विशेषण से अलंकृत शहर जबलपुर में संस्कारशील बंगाली परिवार में जन्म व शालेय शिक्षाके पश्चात साम्यवाद के ग्रह, विश्व की महाशक्ति रूस में उच्च अध्ययन और अब जर्मनी में प्रवास ने अग्निभ को विविध मानव सभ्यताओं, जीवन शैलियों और अनुभवों की वह पूंजी दी, जो सामान्य रचनाकर्मी को नहीं मिलती है। इन अनुभवों ने नीरव को समय से पूर्व परिपक्व बनाकर कविताओं में विचार तत्व को प्रमुखता दी है तो दूसरी और शिल्प और संवेदना के निकष पर सामान्य से हटकर अपनी राह आप बनाने की चुनौती भी प्रस्तुत की है। मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता है कि अग्निभ की सृजन क्षमता न तो कुंठित हुई, न नियंत्रणहीन अपितु वह अपने मूल से सतत जुड़ी रहकर नूतन आयामों में विकसित हुई है।
अग्निभ के प्रथम काव्य संग्रह 'नीरव का संगीत' की रचनाओं को संपादित-प्रकाशित करने और पुरोवाक लिखने का अवसर मुझे वर्ष २००८ में प्राप्त हुआ। ग्यारह वर्षों के अंतराल के पश्चात् यह दूसरा संग्रह 'कागज़ के अरमान' पढ़ते हुए इस युवा प्रतिभा के विकास की प्रतीति हुई है। गुरुवर श्री मुकुल शर्मा जी को समर्पण से इंगित होता है की अग्निभ गुरु को ब्रह्मा-विष्णु-महेश से उच्चतर परब्रह्म मानने की वैदिक, 'बलिहारी गुरु आपकी जिन गोविंद दियो बताय' की कबीरी और 'बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ?' की समकालिक विरासत भूले नहीं हैं। संकलन का पहला गीत ही उनके कवि के पुष्ट होने की पुष्टि करता है। 'सीना' के दो अर्थों सिलना तथा छाती में यमक अलंकार का सुन्दर प्रयोग कर अग्निभ की सामर्थ्य का संकेत करता है।
जिस दिन मैंने उजड़े उपवन में
अमृत रस पीना चाहा,
उस दिन मैंने जीना चाहा!
काँटों से ही उन घावों को
जिस दिन मैंने सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!
जिस दिन मैंने उत्तोलित सागर
सम करना सीना चाहा
उस दिन मैंने जीना चाहा!
पुनरावृत्ति अलंकार का इतना सटीक प्रयोग काम ही देखने मिलता है -
एक न हो हालात सभी के
एक हौसला पाया है,
एक एक कर एक गँवाता,
एक ने उसे बढ़ाया है।
कहा जाता है कि एक बार चली गोली दुबारा नहीं चलती पर अग्निभ इस प्रयोग को चाहते और दुहराते हैं बोतल में -
महफ़िल में बोतलों की
बोतल से बोतलों ने
बोतल में बंद कितने
बोतल के राज़ खोले।
पर सभी बोतलों का
सच एक सा ही पाया-
शीशे से तन ढका है,
अंदर है रूह जलती,
सबकी अलग महक हो
पर एक सा नशा है।
बोतल से बोतलें भी
टूटी कहीं है कितनी।
बोतल से चूर बोतल
पर क्या कभी जुड़ी है?
दिलदार खुद को कहती
गुज़री कई यहाँ से,
बोतल से टूटने को
आज़ाद थी जो बोतल।
हर बार टूटने पर
एक हँसी भी थी टूटी।
किसके नसीब पर थी
अब समझ आ रहा है।
बोतल में बोतलों की
तकदीर लिख गयी है।
बोतल का दर्द पी लो,
चाहे उसे सम्हालो।
पर और अब न यूँ तुम
भर ज़हर ही सकोगे।
हद से गुज़र गए तो
जितना भी और डालो
वो छलक ही उठेगा,
रोको, मगर बहेगा।
उस दिन जो बोतलों से
कुछ अश्क भी थे छलके
वे अश्क क्यों थे छलके
अब समझ आ रहा है।
नर्मदा को 'सौंदर्य की नदी' कहा जाता है। उसके नाम ('नर्मदा' का अर्थ 'नर्मंम ददाति इति नर्मदा' अर्थात जो आनंद दे वह नर्मदा है), से ही आनंदानुभूति होती है। गंगा-स्नान से मिलनेवाला पुण्य नर्मदा के
दर्शन मात्र से मिल जाता है। अग्निभ सात समुन्दर पार भी नर्मदा के अलौकिक सौंदर्य को विस्मृत न कर सके, यह स्वाभाविक है -
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत।
महाघोष सुनाती बह चलती
नर्मदा तीर पर आज मिला,
चिर तर्ष, हर्ष ले नाच रही
जो पाषाणों में प्राण खिला ।
पाषाण ये मुखरित लगते हैं,
सोये हों फिर भी जगते हैं,
सरिता अधरों में भरती उनके आज नवल यह गीत ।
सुन ले जीवन एक बार ज़रा तू नीरव का संगीत ।।
अग्निभ के काव्य संसार में गीत और कविता अनुभूति की कोख से जन्मे सहोदर हैं।वे गीत, नवगीत और कविता सम्मिश्रण हैं। अग्निभ की गीति रचनाओं में छान्दसिकता है किन्तु छंद-विधान का कठोरता से पालन नहीं है। वे अपनी शैली और शिल्प को शब्दित लिए यथावश्यक छूट लेते हुए स्वाभाविकता को छन्दानुशासन पर वरीयता देते है। अन्त्यानुप्रास उन्हें सहज साध्य है।
लंबे विदेश प्रवास के बाद भी भाषिक लालित्य और चारुत्व अग्निभ की रचनाओं में भरपूर है। हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, रूसी और जर्मनी जानने के बाद भी शाब्दिक अपमिश्रण से बचे रहना और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर व्याकरणिक अनाचार न करने की प्रवृत्ति ने इन रचनाओं को पठनीय बनाया है। भारत में हिंगलिश बोलकर खुद को प्रगत समझनेवाले दिशाहीन रचनाकारों को अभिनव से निज भाषा पर गर्व करना सीखना चाहिए।
अग्निभ ने अपने प्रिय कवि रवींद्र नाथ ठाकुर की कविताओं का अनुवाद भी किया है। संकलन में गुरुदेव रचित विश्व विख्यात प्रार्थना अग्निभ कृत देखिये-
निर्भय मन जहाँ, जहाँ रहे उच्च भाल,
ज्ञान जहाँ मुक्त रहे, न ही विशाल
वसुधा के आँगन का टुकड़ों में खण्डन
हो आपस के अन्तर, भेदों से अगणन ।
जहाँ वाक्य हृदय के गर्भ से उच्चल
उठते, जहाँ बहे सरिता सम कल कल
देशों में, दिशाओं में पुण्य कर्मधार
करता संतुष्ट उन्हें सैकड़ों प्रकार।
कुरीति, आडम्बरों के मरू का वह पाश
जहाँ विचारों का न कर सका विनाश-
या हुआ पुरुषार्थ ही खण्डों में विभाजित,
जहाँ तुम आनंद, कर्म, चिंता में नित,
हे प्रभु! करो स्वयं निर्दय आघात,
भारत जग उठे, देखे स्वर्गिक वह प्रात ।
''कागज़ के अरमान'' की कविताएँ अग्निभ के युवा मन में उठती-मचलती भावनाओं का सागर हैं जिनमें तट को चूमती साथ लहरों के साथ क्रोध से सर पटकती अगाध जल राशि भी है, इनमें सुन्दर सीपिकाएँ, जयघोष करने में सक्षम शङख, छोटी-छोटी मछलियाँ और दानवाकार व्हेल भी हैं। वैषयिक और शैल्पिक विविधता इन सहज ग्राह्य कविताओं को पठनीय बनाती है। अग्निभ के संकलन से आगामी संकलनों की उत्तमता के प्रति आशान्वित हुआ जा सकता है।
२५.११.२०१९
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, भारत
चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
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दोहा मुक्तिका
*
स्नेह भारती से करें, भारत माँ से प्यार।
छंद-छंद को साधिये, शब्द-ब्रम्ह मनुहार।।
*
कर सारस्वत साधना, तनहा रहें न यार।
जीव अगर संजीव हों, होगा तब उद्धार।।
*
मंदिर-मस्जिद बन गए, सत्ता हित हथियार।।
मन बैठे श्री राम जी, कर दर्शन सौ बार।।
*
हर नेता-दल चाहता, उसकी हो सरकार।।
नित मनमानी कर सके, औरों को दुत्कार।।
*
सलिला दोहा मुक्तिका, नेह-नर्मदा धार।
जो अवगाहे हो सके, भव-सागर से पार।।
२५.११.२०१८
०००
द्विपदी
यायावर मन दर-दर भटके,
पर माया मृग हाथ न आए,
नर नारायण तन नारद को,
कर वानर शापित हो जाए.
*
क्षणिका
गीत क्या?,
नवगीत क्या?
बोलें, निर्मल बोलें
बात मन की करें
दिल के द्वार खोलें.
*
एक दोहा निर्मल है नवगीत का, त्रिलोचनी संसार.
निहित कल्पना मनोरम, ज्यों संध्या आगार.
२५.११.२०१७
***
नवगीत महोत्सव लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना:
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आये हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाये हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोयें-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसायें
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पायें
मतभेदों को विहँस पचायें
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
२५.११.२०१५
***
नवगीत:
*
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
हम-तुम
देख रहे खिड़की के
बजते पल्ले
मगर चुप्प हैं.
दरवाज़ों के बाहर
जाते डरते
छाये तिमिर घुप्प हैं.
अन्तर्जाली
सेंध लग गयी
शयनकक्ष
शिशुगृह में आया.
जसुदा-लोरी
रुचे न किंचित
पूजागृह में
पैग बनाया.
इसे रोज
उसको दे टॉफी
कर प्रपोज़ नित
किसी और को,
संबंधों के
अनुबंधों को
भुला रही सीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
*
पशुपति व्यथित
देख पशुओं से
व्यवहारों की
जय-जय होती.
जन-आस्था
जन-प्रतिनिधियों को
भटका देख
सिया सी रोती.
मन 'मॉनीटर'
पर तन 'माउस'
जाने क्या-क्या
दिखा रहा है?
हर 'सीपीयू'
है आयातित
गत को गर्हित
बता रहा है.
कर उपयोग
फेंक दो तत्क्षण
कहे पूर्व से
पश्चिम वर तम
भटकावों को
अटकावों को
भुना रही चीत्कारें जब-तब.
वैलेंटाइन
चक्रवात में
तिनका हुआ
वसन्तोत्सव जब,
घर की नींव
खोखली होकर
हिला रही दीवारें जब-तब.
२५.११.२०१५
०००
कृति चर्चा-
जीवन मनोविज्ञान : एक वरदान
[कृति विवरण: जीवन मनोविज्ञान, डॉ. कृष्ण दत्त, आकार क्राउन, पृष्ठ ७४,आवरण दुरंगा, पेपरबैक, त्र्यंबक प्रकाशन नेहरू नगर, कानपूर]
वर्तमान मानव जीवन जटिलताओं, महत्वाकांक्षाओं और समयाभाव के चक्रव्यूह में दम तोड़ते आनंद की त्रासदी न बन जाए इस हेतु चिंतित डॉ. कृष्ण दत्त ने इस लोकोपयीगी कृति का सृजन - प्रकाशन किया है. लेखन सेवानिवृत्त चिकित्सा मनोवैज्ञानिक हैं.
असामान्यता क्या है?, मानव मन का वैज्ञानिक विश्लेषण, अहम सुरक्षा तकनीक, हम स्वप्न क्यों देखते हैं?, मन एक विवेचन एवं आत्म सुझाव, मां पेशीय तनावमुक्तता एवं मन: शांति, जीवन में तनाव- कारण एवं निवारण,समय प्रबंधन, समस्या समाधान, मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता के शीलगुण, बुद्धि ही नहीं भावना भी महत्वपूर्ण, संवाद कौशल, संवादहीनता: एक समस्या, वाणी: एक अमोघ अस्त्र, बच्चे आपकी जागीर नहीं हैं, मांसक स्वास्थ्य के ३ प्रमुख अंग, मन स्वस्थ तो तन स्वस्थ, संसार में समायोजन का मनोविज्ञान,जीवन में त्याग नहीं विवेकपूर्ण चयन जरूरी, चेतना का विस्तार ही जीवन, जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, क्रोध क्यों होता है?, ईर्ष्या कहाँ से उपजती है?, संबंधों का मनोविज्ञान, संबंधों को कैसे संवारें?, सुखी दांपत्य जीवन का राज, अवांछित संस्कारों से कैसे उबरें?, अच्छे नागरिक कैसे बनें? तथा प्रेम: जीवन ऊर्जा का प्राण तत्व २९ अध्यायों में जीवनोपयोगी सूत्र लेखन ने पिरोये हैं.
निस्संदेह गागर में सागर की तरह महत्वपूर्ण यह कृति न केवल पाठकों के समय का सदुपयोग करती है अपितु आजीवन साथ देनेवाले ऐसे सूत्र थमती है जिनसे पाठक, उसके परिवार और साथियों का जीवन दिशा प्राप्त कर सकता है.
स्वायत्तशासी परोपकारी संगठन 'अस्मिता' मंदगति प्रशिक्षण एवं मानसिक स्वास्थ्य केंद्र, इंदिरानगर,लखनऊ १९९५ से मंदमति बच्चों को समाज की मुख्यधारा में संयोजित करने हेतु मानसोपचार (साइकोथोरैपी) शिविरों का आयोजन करती है. यह कृति इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे दूरस्थ जान भी लाभ ले सकते हैं. इस मानवोपयोगी कृति के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं.
२५.११.२०१४
***
छंद सलिला
प्रेमा छंद
*
यह दो पदों, चार चरणों, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं का छंद है. इसका पहला, दूसरा और चौथा चरण उपेन्द्रवज्रा तथा दूसरा चरण इंद्रवज्रा छंद होता है.
१. मिले-जुले तो हमको तुम्हारे हसीं वादे कसमें लुभायें
देखो नज़ारे चुप हो सितारों हमें बहारें नगमे सुनाये
*
२. कहो कहानी कविता रुबाई लिखो वही जो दिल से कहा हो
देना हमेशा प्रिय को सलाहें सदा वही जो खुद भी सहा हो
*
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
मेला लगा है चल घूम आयें बना न बातें भरमा रे!
२५.११.२०१३
***
मुक्तिका:
सबब क्या ?
*
सबब क्या दर्द का है?, क्यों बताओ?
छिपा सीने में कुछ नगमे सुनाओ..

न बाँटा जा सकेगा दर्द किंचित.
लुटाओ हर्ष, सब जग को बुलाओ..

हसीं अधरों पे जब तुम हँसी देखो.
बिना पल गँवाये, खुद को लुटाओ..

न दामन थामना, ना दिल थमाना.
किसी आँचल में क्यों खुद को छिपाओ?

न जाओ, जा के फिर आना अगर हो.
इस तरह जाओ कि वापिस न आओ..

खलिश का खज़ाना कोई न देखे.
'सलिल' को भी 'सलिल' ठेंगा दिखाओ..
२५.११.२०१० 
***

सोमवार, 24 नवंबर 2025

पुरोवाक्, कर्नाटक की शेरनियाँ, अंबुजा, ओबव्वा, अब्बक्का, चेन्नम्मा, मल्लम्मा, वीरगाथा काव्य

पुरोवाक्
'कर्नाटक की शेरनियाँ' - वीरांगनाओं की अप्रतिम शौर्य गाथाएँ  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
वीरगाथा काव्य का उद्भव लोक में            

            यह निर्विवाद है कि लिपि के उद्भव के पूर्व विश्व की सभी अन्य भाषाओं की तरह विश्ववाणी हिंदी का साहित्य भी लोक द्वारा मौखिक रूप में ही सृजित हुआ। तत्कालीन अशिक्षित किंतु समझदार आशुकवियों ने कहने-सुनने-सुमिरने की परंपरा में काव्य सृजन किया जो अगणित लोगों के गले में विराजकर कालजयी हो गया। कोटि-कोटि कंठों से गाए जाते समय स्थानीय भाषिक परंपरा, सांगीतिक आवश्यकता तथा मति-भ्रम के कारण इन लोककाव्य रचनाओं के विविध पाठ प्रचलित हुए किंतु उन सबमें तथ्य, कथ्य और वर्णन लगभग समान रहे। लोक साहित्य का उद्देश्य केवल मन-रंजन नहीं अपितु जनगण को प्रेरित करना, आपातकाल में धैर्य बँधाना, लोक-आचरण को मर्यादित रखना, नीति ज्ञान देना तथा आक्रमण आदि के समय संघर्ष व शौर्य भाव जागृत करना था। भारत में लोकगीतों में वीरगाथा काव्य की चिरकालिक समृद्ध और जीवंत परंपरा हर अंचल और भाषा में है। इनमें स्थानीय संघर्षों में अप्रतिम पराक्रम दिखानेवाले शूरवीरों व वीरांगनाओं के शौर्य और बलिदान का गायन मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आता रहा है। वीरगाथा (Ballads) लोक-साहित्य की एक प्रमुख विधा है। वीरगाथाएँ ओज गुण और वीर रस से भरपूर होती हैं। वीरगाथा काव्य  गीत लोक संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। इन्हें चारण, भाट या लोकगायक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाते रहे हैं, जिससे ये जनमानस में गहराई तक पैठ सके।

वीरगाथा काव्य सामाजिक एकता की कारक 

            लोकगाथाएँ वास्तविक ऐतिहासिक घटनाओं, युद्धों और वीरों के जीवन-संघर्ष पर आधारित होती हैं।  कुछ लोकगाथाओं में पौराणिक पात्रों की वीरता का वर्णन मिलता है। लोकगाथाओं का मूल भाव वीर रस होता है, जिसका स्थायी भाव उत्साह है। ये लोगों में निडरता, आत्मविश्वास, दृढ़ संकल्प और देशभक्ति की भावना जागृत करते हैं। लोकगाथाएँ  किसी विशेष क्षेत्र या समुदाय की सामूहिक चेतना और पहचान स्थापित करती हैं। लोकगाथाएँ न केवल मनोरंजन करने के समानांतर सामाजिक मूल्यों और पूर्वजों के संघर्षों की कहानियों और सामाजिक गौरव तथा एकता को भी जीवित रखती हैं। लोकगीतों में वीरगाथा काव्य की परंपरा भारतीय संस्कृति की उस विरासत का हिस्सा है, जो वीरों का सम्मान करती है और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती है। लोक गीत मुख्य रूप से मौखिक रूप से प्रसारित होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे प्राचीन काल में चारण और भाट समुदाय वीरों की गाथाओं को जनमानस तक पहुँचाते थे। लोकगाथाओं में गेयता (लयात्मक गायन) और कथा तत्व का संतुलित सामंजस्य होता है। इन्हें अक्सर विशेष लोक वाद्यों (जैसे ढोल, नगाड़ा, टिमकी, तुरही, मँजीरा, ढोलक आदि ) की संगत में गाया जाता है। वीर गाथाओं के गायन-नर्तन में स्त्री-पुरुष दोनों ही सहभागी होते रहे, कलाकारों की जाति-धर्म नहीं, प्रवीणता का महत्व होता था इसलिए सामाजिक एकता सेतु सुदृढ़ करने में वीरगाथाओं ने महती भूमिका का निर्वहन किया। कालांतर में लिपि का आविष्कार होने पर वीरगाथाएँ विजयदशमी जैसे पर्वों,  रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों के सृजन का आधार बनीं। वीर गाथाओं के पराक्रमी नायक-नायिकाएँ आदर्श के रूप में स्थापित होकर भावी पीढ़ी के प्रेरणा-स्तोत्र बने। 

हिंदी साहित्य में वीर गाथाएँ 
 
            आल्हखंड- हिंदी साहित्य का उद्गम लोक साहित्य से ही हुआ है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में अनेक वीरगाथाएँ  लोकगीत में गूँथ कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी गाई जाती रही हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र में आल्हा और उदल नामक दो महावीरों की वीरता की गाथाएँ बहुत लोकप्रिय हैं। महकवि जगणिक ने इन्हें 'आल्हखंड' शीर्षक महाकाव्य का विषय बनाया। सकल बुंदेलखंड और बघेलखंड के ग्राम्यांचलों में वर्षाकाल में सार्वजनिक आल्हा-गायन की परंपरा है। 'अल्हैत' (आल्हा-गायक) आल्हा-ऊदल द्वारा लड़े गए युद्धों में उनके अद्भुत पराक्रम का वर्णन ओजभरी वाणी में ''आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया जिनसें हार गई तलवार'' तथा ''एक को मारें दो मारी जावें, तीजा गिरे कुलाटी खाय'' कहकर इस तरह करते हैं कि कायर भी जान की बाजी लगाने को तैयार हो जाए- 

"बारह बरस लौ कूकर जीवै, अरु सोरह लौ जियै सियार। 
बरस अठारह क्षत्री जीवै, आगे जीवै को धिक्कार।।" 

            ढोला-मारवणी : राजस्थान में प्रचलित 'ढोला-मारू की गाथा' प्रेम और वीरता से ओतप्रोत महत्वपूर्ण कथा  पूरे उत्तर-पश्चिमी भारत (राजस्थान,पंजाब, बुंदेलखंडउत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि) में गाई जाती रही है। राजिस्थानी ढोला-मारू कथा नरवर के कछवाहा राजकुमार ढोला और पूगल की राजकुमारी मारू की प्रेम कहानी में खलनायिका 'मालवणी' है जबकि छत्तीसगढ़ी कथा में ढोला राजा नल और माता दमयंती का पुत्र और खलनायिका 'रीवा' है। दोनों कथाओं का घटना-क्रम भी भिन्न है।

वीरगाथा काल / आदिकाल 

            आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के आदिकाल  1050 से 1375 विक्रमी / 993 ई० से 1318 ई०) को इसी वीरगाथात्मक प्रवृत्ति के आधार पर "वीरगाथा काल" नाम दिया था। इस काल को डॉ॰ ग्रियर्सन, रामकुमार वर्मा ने चारणकाल, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने वीरकाल, राहुल संकृत्यायन ने सिद्ध सामंत युग, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीजवपन काल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल, मिश्रबंधु ने आरम्भिक काल तथा हरिश्चंद्र वर्मा ने संक्रमण काल कहा है। वीरगाथाओं में किसी क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक पहचान और इतिहास की झलक होती है। इनमें सामान्य जनजीवन की भावनाओं और आदर्शों का चित्रण होता है। लोकगाथाएँ लोकगीतों का ही एक विस्तृत रूप हैं, जिनमें कथा तत्व (कहानी) और गेयता (गायन की विशेषता) का संतुलित सामंजस्य होता है। चंदबरदायी रचित 'पृथ्वीराज रासो' (1600 वि. सं. के आसपास) वीरगाथाकाल / आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध काव्य है। रासो में पृथ्वीराज के विभिन्न युद्धों और विवाहों के साथ नायिका का नख-शिख वर्णन, सेना के प्रयाण, युद्ध, षड्ऋतुओं आदि का सुंदर समायोजन है। चंदबरदाई अनेक मन:स्थितियों का संश्लिष्ट चित्र खींचने में सिद्ध हैं। रासो के एक खंड 'कैमास बध' का छप्पय इस प्रकार है-

एकु वान पुहवी नरेस कयमासह मुक्कउ।
उर उपरि परहरिउ वीर कष्षतर चुक्कउ।।
बीउ बान संधानि हनउ सोमेसुरनंदन।
गाडउ करि निग्गहउ पनिव षोदउ संभरि धनि ।
थर छडि न जाइ अभागरउ गारइ गहउ जुगुन परउ।
इम जंपइ चंद विरदिया सु कहा निमिट्टिइ इह प्रलउ।। 
हिंदी वीरगाथा काव्यों में नारी 

            वीर गाथा काव्यों में नारी को प्रमुखता अपेक्षाकृत कम मिली है। इसका कारण भारतीय पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में नारी का पिता, पति अथवा पुत्र पर आश्रित होना, हो सकता है किंतु मातृ सत्तात्मक समाजों में भी लोक काव्य में वीरांगनाओं की अनुपस्थिति का कारण नारी के पत्नी और माता रूप की प्रतिष्ठा ही हो सकता है। वीरांगना के रूप में विष्पला (ऋग्वेद कालिक महिला योद्धा, युद्ध में पैर कट जाने के बाद, अश्विनी कुमारों ने उन्हें धातु का पैर लगाकर युद्ध में वापस लड़ने योग्य बनाया), मुद्गलानी (असुर सेना को पराक्रमपूर्वक परास्त कर पति मुद्गल ऋषि के गोधन को मुक्त कराया तथा इंद्र सेना का सारथ्य किया), दुर्गा और काली (महिषासुर, रक्तबीज, शुंभ, निशुंभ आदि असुरों का वध किया), कैकेयी (देवासुर संग्राम में दशरथ के साथ युद्ध करते समय रथ चक्र में अंगुली फँसाकर उनकी प्राण-रक्षा की तथा चारों पुत्रों को वीरोचित प्रशिक्षण दिलवाया), सत्यभामा (नरकासुर-वध में सारथी के रूप में कृष्ण का साथ देकरर स्वयं भी युद्ध किया) आदि उल्लेखनीय हैं। मुगल काल में रजिया सुलताना (1236 से 1240 ईस्वी गुलाम वंश की शासिका), गोंडवाना की पराक्रमी रानी दुर्गावती (मुगल सम्राट अकबर की सेना को कई बार हराया किंतु 24 जून 1564 को अंतिम लड़ाई में देवर बदनसिंग द्वारा विश्वासघात करने पर बंदी होने के स्थान पर  खुद को कटार मारकर शहीद हो गईं), अहमदनगर और बीजापुर सल्तनत की रीजेंट चाँद बीबी ने  1595 में अकबर की मुगल सेना से अहमदनगर किले को बचाया और मुगलों को शांति संधि के लिए मजबूर किया, बाद में विश्वासघाती सैनिकों ने उनकी हत्या कर दी), रानी ताराबाई (मराठा साम्राज्य की रानी ताराबाई ने मुगल बादशाह औरंगजेब के खिलाफ लंबे समय तक मराठा प्रतिरोध का नेतृत्व किया), माई भाग कौर (सिख संत योद्धा जिसने 1705 में मुगलों के खिलाफ सिख सैनिकों 'चली मुक्ते' के एक समूह का नेतृत्व किया), रानी कर्णावती (गढ़वाल की रानी कर्णावती ने मुगल-आक्रमणों का दृढ़ता से विरोध कर 1640 में शाहजहाँ की सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया) आदि उल्लेखनीय हैं।    

            अंग्रेजों के शासन काल में पहाड़िया विद्रोह (1772- 1789) के दौरान शहीद जिउरी पहाड़िन ने कड़ा संघर्ष किया था।  बिरसा मुंडा के उलगुलान में 3 झारखंडी महिलाओं तिनगी मुंडा (खूंटी के मुरहू प्रखंड स्थित जिउरी गांव में जन्म, बंकन मुंडा की पत्नी,  वर्ष 1895 में आंदोलन से जुड़ीं, लगातार सक्रिय रहीं,  9 जनवरी 1900 को डोंबारी (सईल रकब) में अपने पति के साथ शहीद हुईं), लोकोम्बा मुंडा (जन्म बाड़ कुबे गांव, चाईबासा जिला, जिउरी के वर्ष 1884 में माझिया मुंडा से विवाह, शादी के बाद अपने ससुराल जिउरी गाँव आ गईंबिरसा मुंडा की सभा में शामिल होती थीं, विद्रोह की रणनीति में भाग लेतीं थीं, महिलाओं को संबोधित करतीं थीं, जुड़वाँ बच्चों बेटा-बेटी सहित संघर्ष में जूझीं, डोंबारी में शहीद हुईं,  बेटे को अंग्रेज ले गए, बेटी पिता के साथ रही, शिलालेख पर नाम नहीं, सिर्फ मझिया मुंडा की पत्नी लिखा है),  जिउरी गांव निवासी दसकीर मुंडा डुन्डंग मुंडा की पत्नी, वर्ष 1900 में बिरसा मुंडा के आंदोलन के दौरान वह भी डोंबारी पहाड़ पर थीं. वह भी अंग्रेजों की गोलियों का शिकार हुईं थीं. शिलालेख पर अंकित है- डुन्डंग मुंडा की पत्नी), माकी मुंडा (गया मुंडा की पत्नी, 3 बेटियों और 2 बहुओं के साथ बहादुरी से अंग्रेजों का सामना किया, लाठी, कुल्हाड़ी और दौली से गया मुंडा को पकड़ने गये अंग्रेज सिपाहियों का सामना किया, 2 महिलाओं ने अपने बायें हाथों में छोटे बच्चों को पकड़ रखा था और दाहिने हाथ से कुल्हाड़ी चला रहीं थीं) आदि ने अद्भुत पराक्रम दिखाया।

            वर्ष 1842 के बुंदेला विद्रोह में अनेक बुंदेला महिलाओं ने बलिदान दिए किंतु उनके नाम अंग्रेजों ने छिपा लिए ताकि जन विद्रोह न फैले। वर्ष 1857 के स्वातंत्र्य समर में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ महिला सेना 'दुर्गा दल' की सेनापति झलकारी बाई (रानी की पागपने सिर पर रखकर रानी को निकलने में सहायता की, खुद शहीद हुईं), मुंदर (खातून , रानी के साथ लड़ते हुए शहीद हुईं), जूही (रानी का अंतिम समय तक साथ दिया), काना (अंग्रेजी सेना पर कहर बरपाया), काशी बाई, मोती बाई, और अन्य कई महिलाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी। बांदा के नवाब की बेटी राबिया बेगम (या रजिया बेगम) ने भी अंग्रेजों के खिलाफ तलवार उठाई थी। रामगढ़ की रानी अवंतीबाई ने अपने आस-पास के राजाओं और ज़मींदारों को प्रेरित कार अंग्रेजों से संघर्ष किया। अवध की बेगम हजरत महल ने भी अंग्रेजों से युद्ध किया। लखनऊ के सिकंदरबाग में पीपल के पेड़ पर चढ़कर 36 अंग्रेज सैनिकों को ढेर करने वाली ऊदा देवी को कौन भुला सकता है? नाना साहब की 13 वर्षीय दत्तक पुत्री मैना देवी को अंग्रेज जनरल आउटरम ने जलाकर शहीद कर दिया था। भारत के कोने-कोने से स्वातंत्र्य समर में शहीद हुई अगणित वीरांगनाओं के नाम इतिहास में इसलिए नहीं आ सके कि भारत में महिलाओं को ससुर, पति या पुत्र के नाम से पहचान जाता था। स्वतंत्रता सत्याग्रहों में अनगिनत भरते नारी-रत्नों ने घर-ग्रहस्थी का मोह छोड़कर अंग्रेजों का दमन सहकर देश को स्वतंत्र कराने और देश का संविधान बनाने में सक्रिय अनुकरणीय भूमिका का निर्वहन किया। 

            इस पृष्ठभूमि में वर्तमान संक्रमण काल में जब नई पीढ़ी को आतंकवाद की चुनौती झेलकर देश को विश्व गुरु बनाने की चुनौती उपस्थित है, वीरांगनाओं की अप्रतिम शौर्य गाथाओं का गायन करने से अधिक पावन कर्तव्य और कुछ नहीं हो सकता। वीरगाथा काव्य की सनातन परंपरा में नूतन कड़ी जोड़ते हुए डॉ. अंबुजा एन. मळखेडकर 'सुवना' ने ''कर्नाटक की शेरनियाँ'' शीर्षक से 5 वीरांगनाओं का स्मरण कर 'लिव इन' के कुमार्ग पर भटकती पीढ़ी को देश के लिए सर्वस्व निछावर करने  प्रेरणा देने के लिए ऐसी पुस्तकों की महती आवश्यकता है। डॉ. अंबुजा साधुवाद की पात्र हैं कि उन्होंने समय की पुकार सुनते हुए 5 वीरांगनाओं रानी अब्बक्का ,कित्तूर चेन्नममा,  बेलवड़ी  मल्लम्मा, मूसल ओबव्वा और केलदी चन्नम्मा पर प्रामाणिक, वीर रस प्रधान लंबी 5गीति रचनाओं का न केवल सृजन किया अपितु उन्हें पुस्तक रूप में उपलब्ध करा रही हैं।

            अनेकता में एकता भारत की विशेषता है। भारत में 500 से अधिक भाषाएँ-बोलियाँ बोली जाती हैं।इन भाषाओं-बोलिओं मे मध्य सृजन- सेतु बनाने की प्रक्रिया निरंतर चलनी आवश्यक हैं। देश की कोई भाषा किसी से कम नहीं है। अंबुजा जी ने एक पंथ दो काज करते हुए दक्षिण भारत के कर्नाटक क्षेत्र की 5 वीरांगनाओं का प्रेरक जीवन चरित राजभाषा हिंदी में लिखकर उत्तर-दक्षिण सृजन-सेतु को सुदृढ़ किया है। इसके पूर्व अंबुजा जी कन्नड़ से हिंदी में पुण्यकोटि (बाल कहानियाँ), मादा का संघर्ष और अन्य कहानियाँ, अमर वीरांगनाएँ (2023), ज्ञान और  परिणाम कैसे बढ़ाएँ तथा मोहपुर (लघु उपन्यास 2025) आदि तथा अर्धसत्य हिंदी से कन्नड़ अनूदित कृति रचकर चर्चित हो चुकी हैं। उक्त के अतिरित 8 कन्नड कृतियों (प्रेम प.द.नि.स., मन हरी ध्यान मंदिर, राजन नंटु कन्नडिय गंटु, गोम्बेय जीवन, दड सेरीसेन हरीये, मडिल शृंगार, पुण्य नाम दिव्य नाम, एकांत मंथन आदि) तथा 8 हिंदी कृतियों (हाइकु संग्रह , पिरामिड, नाटक- दास-श्रेष्ठ पुरंदरदास, कविता संग्रह पुष्प  फल, लघुकथा संग्रह आनंद-पथ) व मन के धूप-छाँव, बालकाव्य संग्रह सुमन वाटिका, वेदना के स्वर तथा जीवन के रंग-तरंग द्वारा अंबुजा जी की कारयित्री प्रतिभा का परिचय साहित्य जगत को मिल चुका है। 

            'कर्नाटक की 5 शेरनियाँ' का श्री गणेश ओनके (मूसल) ओबव्वा  (1770–1779) के विरुद-गायन से हुआ है। एक दिन पति कट्टप्पा को भोजन कराने के पहले ओबव्वा पानी लेने गई तो उसने देखा की एक दहीवली को दुर्ग से निकलते देख हैदरअली के सैनिक मार्ग का पता पाकर दुर्ग में घुसने को उद्यत हैं। बिना देर की ओबव्वा घर से एक विराट मूसल ले आई और खिड़की में शत्रु-सैनिकों के प्रवेश करते ही एक-एक कर मारती रही। देर होने पर  पति ने आकर यह दृश्य देखते ही नगाड़ा बजा दिया, तत्काल सेना जुट गई और दुर्ग बचा लिया गया किंतु ओबव्वा शहीद हो गई। उसकी स्मृति में उस खाइडकी का नाम 'मूसल खिड़की रखा गया। 

            उल्लाल नगर पश्चिम करावली की रानी अब्बक्का (1550–1590) ने व्यापार करने आए पुर्तगलियों द्वारा शासन सूत्र सम्हालने के विरुद्ध संघर्ष किया।  पति लक्षमप्पा अरस द्वारा साथ न देने पर उसका त्याग कर,  पुर्तगलियों के स्थान पर वेंकटप्पा को कर देकर अपने राज्य को समृद्ध किया तथा कल्लीकोटे  के जमोरीन के साथ मैत्री कार ली। पुर्तगालियों द्वारा अपने जहाज कब्जाए जाने पर रानी ने वेंकटप्पा तथा जमोरीन के साथ मिलकर विदेशियों को नायकों चने चबवा दिए। दुर्भाग्यवश धोखे से रानी को शत्रु ने बंदी बना लिया। कारावास में भी रानी ने अपना सिर नहीं झुकाया तथा मौत का वर्ण किया। 

            मलेनाडु पर्वत के बीच केलदीनायक शिवप्पा के पुत्र सोमशेखर ने रामेश्वर मेले में सिद्धप्पा शेट्टर की रूपवती पुत्री रानी चेन्नम्मा (1671–1704) से विवाह किया। एक नर्तकी कलावती के रूप-जाल में फँसकर सोमशेखर रानी और राज-काज भूलकर भोग-विलास में डूब गया। सुअवसर देखकर बीजापुर के सुल्तान ने आक्रमण कर दिया। रानी द्वारा चेताए जाने पर भी राजा न माना, मंत्री आदि भी स्वार्थ साधने के लिए रानी से विमुख हो गए। साहसी रानी चेन्नम्मा ने बस्सप्पा नायक को गोद लेकर राज-काज सम्हाला। जनोपन्त राय ने संधि की आड़ में षड्यन्त्र कर राजा सोम शेखर का वध करवा दिया। शोकाकुल रानी  ने सिर नहीं झुकाया पिता को साथ लेकर किला छोड़ भुवनगिरी चली गई। सुलतान को किला जीतने पर भी कुछ न मिला। उसने भुवनगिरी पर हमला किया किंतु तिम्मन्ना नायक का साथ पाकर रानी ने विजय पाई। वेंकट नायक के उकसाने पर मैसूर नरेश चिक्कदेवराय ने हमला किया किंतु हार गया। मुगल सम्राट औरंगजेब से प्रताड़ित शिवाजी-पुत्र राजाराम को रानी ने शरण दी। मुगलों को भी रानी से हार माननी पड़ी। रानी के 25 वर्ष के शासनकाल में राज्य की सर्वतोमुखी प्रगति हुई। 

            बेलवड़ी जिला बेलगाम के राजा ईशप्रभु की पत्नी मल्लम्मा (1670–1690) ने गोकर्ण व महाबलेश्वर की यात्रा के पश्चात वन में सोते हुए पति की शेर के आक्रमण से रक्षा कर शेर को मार डाला। 500 महिलाओं को लेकर स्त्री सेना का गठन किया। शिवाजी की सेना हमला कर गायों को ले गई, मल्लम्मा ने गाएँ वापिस छीन लीं। शिवाजी के हमले में राजा ईशप्रभु शहीद हुए, रानी बंदी बना ली गई। पूरी जानकारी होने पर शिवाजी ने रानी से क्षमा याचना की था उन्हें बहिन मानकर राज्य लौट दिया।

        बेलगाम-धारवाड़ के बीच कित्तूर राज्य की रानी चेन्नम्मा (1778–1829) अपने पति राजा मल्लसरजा से राज्य-संचालन सीखा, पति का निधन होने पर सौत-पुत्रों को अपना कर, ज्येष्ठ पुत्र शिवलिंग को सत्ता सौंपी अस्वस्थ्य शिवलिंग का निधन होने पर दत्तक पुत्र शिवलिंगप्पा को राजा बनाकर राज्य का सुचारु संचालन किया। ब्रिटिश एजेंट थेकरे ने कित्तूर को अपने अधीन करना चाहा। रानी ने शिवलिंगप्पा को गद्दी पर बैठा दिया। अंग्रेजों ने भारी सनी बल सहित हमला कर दिया। अद्भुत पराक्रम के साथ लड़ने पर भी रानी की पराजय हुई, वे बंदी बना ली गईं। कैद में भी रानी ने अंग्रेजों के आगे सिर नहीं झुकाया और अंतत: शहीद हो गईं। 

            पाँच वीरांगनाओं की ये पराक्रम कथाएँ भारतीय संस्कृति की शौर्य पताका की तरह हैं। इनसे प्रेरित होकर नई पीढ़ी देश की माटी का कर्ज उतारने के लिए खुद को तैयार कर सकती है। अंबुजा जी ने इन गीति काव्यों की भाषा सरल, सुबोध, प्रवाहमयी राखी है। पाठक सहज ही कथ्य समझ सकता है। दक्षिणभाषी होते हुए भी हिंदी पर पूरा अधिकार है कवयित्री अंबुजा का। भारत की जल-थल-वायु सेनाओं और अर्ध सैन्य बालों, पुलिस आदि में महिला सैनिकों और अधिकारियों को पराक्रम दिखने के स्वर्णिम अवसर अब् सुलभ है। ऐतिहासिक महिला वीरांगनाओं की गाथाएँ शक्षणिक पाठ्यक्रमों में सम्मिलित की जाना चाहिए तथा सेनाओं में वितरित की जाना चाहिए। महिला वीरांगनाओं के नाम पर सैन्य ईकाइयों, छावनियों आदि का नामकरण किया जाए तथा शौर्य पदक आदि दिए जाएँ तो वीरांगनाओं के प्रति कृतज्ञ देश को गौरव की अनुभूति होगी। इस मांगलिक सारस्वत अनुष्ठान के लिए अंबुजा जी साधुवाद की पात्र हैं। 
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