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मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

अप्रैल ३०, रासलीला, गीत, ग़ज़ल, लघुकथा, कोरोना, सॉनेट, परीक्षा, आदिमानव

सलिल सृजन अप्रैल ३०
सोनेट (इटेलीयन)
यह मेहनत करता, वह खाता,
यह पानी पी भूख मिटाता,
वह बोटी खा मौज मनाता,
यह मुश्किल से रोटी पाता।

यह मत दे, वह सत्ता पाता,
यह सरहद पर जान गँवाता,
वह घड़ियाली अश्रु बहाता,
यह उसके हित जान गँवाता।

यह श्रम; वह पूँजीपति; चित-पट,
इसे रौंदकर ठठा रह वह,
यह-वह दो पर अंत एक है।

यह बेरंग और वह गिरगिट,
बना रहा यह; मिटा रहा वह,
यह भी; वह भी राख शेष है।
३०.४.२०२४
•••
सॉनेट
आदिमानव
आदिमानव भूमिसुत था
नदी माता, नभ पिता कह
पवन पावक पूजता था
सलिल प्रता श्रद्धा विनत वह
उषा संध्या निशा रवि शशि
वृक्ष प्रति आभार माना
हो गईं अंबर दसों दिशि
भूख मिटने तलक खाना
छीनने या जोड़ने की
लत न उसने सीख पाली
बम बनाने फोड़ने की
उठाई थी कब भुजाली?
पुष्ट था खुश आदिमानव
तुष्ट था हँस आदिमानव
३०-४-२०२२
•••
सॉनेट
परीक्षा
पल पल नित्य परीक्षा होती
उठे बढ़े चल फिसल सम्हल कर
कदम कदम धर, विहँस पुलककर
इच्छा विजयी धैर्य न खोती।
अकरणीय क्या, क्या करना है?
खुद ही सोचो सही-गलत क्या?
आगत-अब क्या, रहा विगत क्या?
क्या तजना है, क्या वरना है?
भाग्य भोगना या लिखना है
कब किसके जैसे दिखना है
अब झुकना है, कब अड़ना है?
कोशिश फसल काटती-बोती
भाग्य भरोसे रहे न रोती
पल-पल नित्य परीक्षा होती।
ज्ञानगंगा
३०-४-२०२२
•••
***
कोरोना क्षणिका
*
काहे को रोना?
कोरो ना हाथ मिला
सत्कार सखे!
कोरोना झट
भेंट शत्रु को कर
उद्धार सखे!
*
को विद? पूछे
कोविद हँसकर
विद जी भागे
हाथ समेटे
गले न मिलते
करें नमस्ते!
*
गीत-अगीत
प्रगीत लिख रहे
गद्य गीत भी
गीतकार जी
गीत करे नीलाम
नवगीत जी
*
टाटा करते
हाय हाय रुचता
बाय बाय भी
बाटा पड़ते
हाय हाय करते
बाय फ्रैंड जी
*
केक लाओ जी!
फरमाइश सुन
पति जी हैरां
मी? ना बाबा
मीना! बाहर खड़ा
सिपाही मोटा
*
रस - हास्य, छंद वार्णिक षट्पदी, यति ५७५५७५, अलंकार - अनुप्रास, यमक, पुनरुक्ति, शक्ति - व्यंजना।
३०-४-२०२०
***
मुक्तक:
पाँव रख बढ़ते चलो तो रास्ता मिल जाएगा
कूक कोयल की सुनो नवगीत खुद बन जाएगा
सलिल लहरों में बसा है बिम्ब देखो हो मुदित
ख़ुशी होगी विपुल पल में, जन्म दिन मन जाएगा
२६-१०-२०१५
***
लघुकथा
अंगार
*
वह चिंतित थी, बेटा कुछ दिनों से घर में घुसा रहता, बाहर निकलने में डरता। उसने बेटे से कारण पूछा। पहले तो टालता रहा, फिर बताया उसकी एक सहपाठिनी भयादोहन कर रही है।
पहले तो पढ़ाई के नाम पर मिलना आरंभ किया, फिर चलभाष पर चित्र भेज कर प्रेम जताने लगी, मना करने पर अश्लील संदेश और खुद के निर्वसन चित्र भेजकर धमकी दी कि महिला थाने में शिकायत कर कैद करा देगी। बाहर निकलने पर उस लड़की के अन्य दोस्त मारपीट करते हैं।
स्त्री-विमर्श के मंच पर पुरुषों को हमेशा कटघरे में खड़ा करती आई थी वह। अभी भी पुत्र पर पूरा भरोसा नहीं कर पा रही थी। बेटे के मित्रों तथा अपने शुभेच्छुओं से- विमर्श कर उसने बेटे को अपराधियों को सजा दिलवाने का निर्णय लिया और बेटे को महाविद्यालय भेजा। उसके सोचे अनुसार उस लड़की और उसके यारों ने लड़के को घेर लिया। यह देखते ही उसका खून खौल उठा। उसने आव देखा न ताव, टूट पड़ी उन शोहदों पर, बेटे को अपने पीछे किया और पकड़ लिया उस लड़की को, ले गई पुलिस स्टेशन। उसने वकील को बुलाया और थाने में अपराध पंजीकृत करा दिया। आधुनिका का पतित चेहरा देखकर उसका चेहरा और आँखें हो रही थीं अंगार।
***
लघुकथा
भवानी
*
वह महाविद्यालय में अध्ययन कर रही थी। अवकाश में दादा-दादी से मिलने गाँव आई तो देखा जंगल काटकर, खेती नष्ट कर ठेकेदार रेत खुदाई करवा रहा है। वे वृक्ष जिनकी छाँह में उसने गुड़ियों को ब्याह रचाए थे, कन्नागोटी, पिट्टू और टीप रेस खेले थे, नौ दुर्गा व्रत के बाद कन्या भोज किया था और सदियों की शादी के बाद रो-रोकर उन्हें बिदा किया था अब कटनेवाले थे। इन्हीं झाड़ों की छाँह में पंचायत बैठती थी, गर्मी के दिनों में चारपाइयाँ बिछतीं तो सावन में झूल डल जाते थे।
हर चेहरे पर छाई मुर्दनी उसके मन को अशांत किए थी। रात भर सो नहीं सकी वह, सोचता रही यह कैसा लोकतंत्र और विकास है जिसके लिए लोक की छाती पर तंत्र दाल दल रहा है। कुछ तो करना है पर कब, कैसे?
सवेरे ऊगते सूरज की किरणों के साथ वह कर चुकी थी निर्णय। झटपट महिलाओं-बच्चों को एकत्र किया और रणनीति बनाकर हर वृक्ष के निकट कुछ बच्चे एकत्र हो गए। वृक्ष कटने के पूर्व ही नारियाँ और बच्चे उनसे लिपट जाते। ठेकेदार के दुर्गेश ने बल प्रयोग करने का प्रयास किया तो अब तक चुप रहे पुरुष वर्ग
का खून खौल उठा। वे लाठियाँ लेकर निकल आए।
उसने जैसे-तैसे उन्हें रोका और उन्हें बाकी वृक्षों की रक्षा हेतु भेज दिया। खबर फैला अखबारनवीस और टी. वी. चैनल के नुमाइंदों ने समाचार प्रसारित कर दिया।
एक जग-हितकारी याचिका की सुनवाई को बाद न्यायालय ने परियोजना पर स्थगन लगा गिया। जनतंत्र में जनमत की जीत हुई।
उसने विकास के नाम पर किए जा रहे विनाश का रथ रोक दिया था और जनगण ने उसे दे दिया था एक नया नाम भवानी।
***
मुक्तिका
पंच मात्रिक राजीव छंद
गण सूत्र: तगण
मापनी २२१
*
दो तीन
क्यों दीन?
.
खो चैन
हो चीन
.
दो झेल
दे तीन
.
पा नाग
हो बीन
.
दीदार
हो लीन
.
गा रोज
यासीन
.
जा बोल
आमीन
.
यासीन कुरआन की एक आयत
***
संवस
३०-४-२०१९
***
मुक्तिका
छंद: साधना छंद
विधान: पंचमात्रिक, पदांत गुरु।
गण सूत्र: रगण
*
एक दो
मूक हो
भक्त हो?
वोट दो
मन नहीं?
नोट लो
दोष ही
'कोट' हो
हँस छिपा
खोट को
विमत को
सोंट दो
बात हर
चोट हो
३०-४-२०१९
***
मुक्तिका: ग़ज़ल
*
निर्जीव को संजीव बनाने की बात कर
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर


'भू माफिये'! भूचाल कहे: 'मत जमीं दबा
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर'


'आँखें मिलायें' मौत से कहती है ज़िंदगी
आ मारने के बाद जिलाने की बात कर
'
तूने गिराये हैं मकां बाकी हैं हौसले
काँटों के बीच फूल खिलाने की बात कर


हे नाथ पशुपति! रूठ मत तू नीलकंठ है
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर


पत्थर से कलेजे में रहे स्नेह 'सलिल' भी
आ वेदना से गंग बहाने की बात कर


नेपाल पालता रहा विश्वास हमेशा
चल इस धरा पे स्वर्ग बसाने की बात कर
३०-४-२०१५
***
गीत:
समय की करवटों के साथ
*
गले सच को लगा लूँ मैँ समय की करवटों के साथ
झुकाया, ना झुकाऊँगा असत के सामने मैं माथ...
*
करूँ मतदान तज मत-दान बदलूँगा समय-धारा
व्यवस्था से असहमत है, न जनगण किंतु है हारा
न मत दूँगा किसी को यदि नहीं है योग्य कोई भी-
न दलदल दलोँ की है साध्य, हमकों देश है प्यारा
गिरहकट, चोर, डाकू, मवाली दल बनाकर आये
मिया मिट्ठू न जनगण को तनिक भी क़भी भी भाये
चुनें सज्जन चरित्री व्यक्ति जो घपला प्रथा छोड़ें
प्रशासन को कसे, उद्यम-दिशा को जमीं से जोड़े
विदेशी ताकतों से ले न कर्जे, पसारे मत हाथ.…
*
लगा चौपाल में संसद, बनाओ नीति जनहित क़ी
तजो सुविधाएँ-भत्ते, सादगी से रहो, चाहत की
धनी का धन घटे, निर्धन न भूखा कोई सोयेगा-
पुलिस सेवक बने जन की, न अफसर अनय बोयेगा
सुनें जज पंच बन फ़रियाद, दें निर्णय न देरी हो
वकीली फ़ीस में घर बेच ना दुनिया अँधेरी हो
मिले श्रम को प्रतिष्ठा, योग्यता ही पा सके अवसर
न मँहगाई गगनचुंबी, न जनता मात्र चेरी हो
न अबसे तंत्र होगा लोक का स्वामी, न जन का नाथ…
३०-४-२०१४
***
रासलीला :
*
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.
झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.
कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.
अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.
नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.
खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.
कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.
सिर्फ तू ही तो नहीं; मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.
चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.
अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.
भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.
कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है?
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?
पग युगल द्वय कब धरा पर, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब, किसकी नजर में?
कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?
क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?
कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाए.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाए.
जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?
ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?
थाप में आलाप कब देता सुनायी?
हर किसी में आप वह देता दिखायी?
अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?
कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?
कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?
कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.
भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?
द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?
कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?
अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.
नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.
आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.
अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् में दिगंत जैसे था समाया.
कंकरों में शंकरों का वास देखा.
और रज में आज बृज ने हास देखा.
मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.
रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.
रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.
रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.
रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.
रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.
रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..
रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.
राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.
नटी नट की प्रणय पोथी बाँचती थीं.
'सलिल' की हर बूँद ने वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्रीबाँकेबिहारी.
३०-४-२०१०
***

रविवार, 28 अप्रैल 2024

अप्रैल २८, कुण्डलिनी, नव गीत, दोहा, मुक्तिका, छंद चोका, कोरोना, गीत गोविंद, भोजन,

सलिल सृजन अप्रैल २८
*
सॉनेट
सुधि वातायन
सुधि वातायन से जब हेरूँ,
झलक तुम्हारी पड़े दिखाई,
पलक झपकते मति चकराई,
कहीं न दिखते ज्यों पग फेरूँ।
विरह विकल हो खोजूँ टेरूँ,
सुधि सलिला विहँसी लहराई,
कली मोगरा की मुस्काई,
सिकता पर प्रिय नाम उकेरूँ।
जहँ देखूँ तहँ तुम ही तुम हो,
नयन भीगते अधर लरजते,
वाक् छंद रच पुलकित होती।
कौन कह रहा है तुम गुम हो,
सुमिरन करने से तुम मिलते,
सुधि नव फसलें लुक-छिप बोती।
२८.४.२०२४
•••
विमर्श : भोजन करिये बाँटकर
ऋग्वेद निम्नानुसार बाँटकर भोजन करने को कहता है-
१. जमीन से चार अंगुल भूमि का
२. गेहूँ के बाली के नीचे का पशुओं का
३. पहले पेड़ की पहली बाली अग्नि की
४. बाली से गेहूं अलग करने पर मूठ्ठी भर दाना पंछियो का
५. गेहूं का आटा बनाने पर मुट्ठी भर आटा चीटियो का
६. फिर आटा गूथने के बाद चुटकी भर गुथा आटा मछलियो का
७. फिर उस आटे की पहली रोटी गौमाता की
८. पहली थाली घर के बुज़ुर्ग़ो की और फिर हमारी
९. आखिरी रोटी कुत्ते की
***
दोहा अठपदी :
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजाकर, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत माँ का ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
भारत माँ को सुहाती, लालित्यमय बिंदी
जनगण जिव्हा विराजती, विश्ववाणी हिंदी
२८-४-२०२१
***
गीत गोविंद : जयदेव
*
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ग्रहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुमं राधमाधवयोर्जयंति यमुनाकूले रह: केलय:।।
*
नील गगन पर श्यामल बादल, वन्य भूमि पर तिमिर घना है।
संध्या समय भीति भव; राधा एकाकी; घर दूर बना है।।
नंद कहें 'घर पहुँचाओ' सुन, राधा-माधव गये कुंज में-
यमुना तट पर केलि करें, जग माया-ब्रह्म सुस्नेह सना है।।
*
वाग्देवताचरितचित्रितचित्तसद्मापद्मावतीचरणचारण चक्रवर्ती।
श्रीवासुदेवरतिकेलिकथासमेतंमेतं करोति जयदेवकवि: प्रबंधम्।।
यदिहरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकांतपदावलीं श्रणु तदा जयदेवसरस्वतीम्।।
*
वाग्देव चित्रित करें चित लगा, कमलावती पद-दास चक्रधारी।
श्री वासुदेव की सुरति केलि कथा, जयदेव कवि प्रबंध रच बखानी।।
यदि मन में हरि सुमिरन की है चाह, यदि कौतूहल जानें कला विलास।
सुनें सुमधुरा कोमलकांत पदावलि, जयदेव सरस्वती संग लिये हुलास।।
*
भावानुवाद : संजीव
***
कोरोना की जयकार करो
*
कोरोना की जयकार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
*
घरवाले हो घर से बाहर
तुम रहे भटकते सदा सखे!
घरवाली का कब्ज़ा घर पर
तुम रहे अटकते सदा सखे!
जीवन में पहली बार मिला
अवसर घर में तुम रह पाओ
घरवाली की तारीफ़ करो
अवसर पाकर सत्कार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
जैसी है अपनी किस्मत है
गुणगान करो यह मान सदा
झगड़े झंझट बहसें छोडो
पाई जो उस पर रहो फ़िदा
हीरोइन से ज्यादा दिलकश
बोलो उसकी हर एक अदा
हँस नखरे नाज़ उठाओ तुक
चरणों कर झुककर शीश धरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
झाड़ू मारो, बर्तन धोलो
फिर चाय-नाश्ता दे बोलो
'भोजन में क्या तैयार करूँ'
जो कहें बना षडरस घोलो
भोग लगाकर ग्रहण करो
परसाद' दया निश्चय होगी
झट दबा कमर पग-सेवा कर
उनके मन की हर पीर हरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
२८-४-२०२०
***
छंद सलिला
जापानी वार्णिक छंद चोका :
*
चोका एक अपेक्षाकृत लम्बा जापानी छंद है।
जापान में पहली से तेरहवीं सदी में महाकाव्य की कथा-कथन की शैली को चोका कहा जाता था।
जापान के सबसे पहले कविता-संकलन 'मान्योशू' में २६२ चोका कविताएँ संकलित हैं, जिनमें सबसे छोटी कविता ९ पंक्तियों की है। चोका कविताओं में ५ और ७ वर्णों की आवृत्ति मिलती है। अन्तिम पंक्तियों में प्रायः ५, ७, ५, ७, ७ वर्ण होते हैं
बुन्देलखण्ड के 'आल्हा' की तरह चोका का गायन या वाचन उच्च स्वर में किया जाता रहा है। यह वर्णन प्रधान छंद है।
जापानी महाकवियों ने चोका का बहुत प्रयोग किया है।
हाइकु की तरह चोका भी वार्णिक छंद है।
चोका में वर्ण (अक्षर) गिने जाते हैं, मात्राएँ नहीं।
आधे वर्ण को नहीं गिना जाता।
चोका में कुल पंक्तियों का योग सदा विषम संख्या में होता है ।
रस लीजिए कुछ चोका कविताओं का-
*
उर्वी का छौना
डॉ. सुधा गुप्ता
*
चाँद सलोना
रुपहला खिलौना
माखन लोना
माँ का बड़ा लाडला
सब का प्यारा
गोरा-गोरा मुखड़ा
बड़ा सजीला
किसी की न माने वो
पूरा हठीला
‘बुरी नज़र दूर’
करने हेतु
ममता से लगाया
काला ‘दिठौना’
माँ सँग खेल रहा
खेल पुराना
पेड़ों छिप जाता
निकल आता
किलकता, हँसता
माँ से करे ‘झा’
रूप देख परियाँ
हुईं दीवानी
आगे-पीछे डोलतीं
करे शैतानी
चाँदनी का दरिया
बहा के लाता
सबको डुबा जाता
गोल-मटोल
उजला, गदबदा
रूप सलोना
नभ का शहज़ादा
वह उर्वी का छौना
***
ये दु:ख की फ़सलें
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
*
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे ।
***
पड़ोसी मोना
मनोज सोनकर
*
आँखें तो बड़ी
रंग बहुत गोरा
विदेशी घड़ी
कुत्ते बहुत पाले
पड़ोसी मोना
खुराक अच्छी डालें
आजादी प्यारी
शादी तो बंधन
कहें कुंवारी
अंग्रेज़ी फ़िल्में लाएं
हिन्दी कचरा
खूब भुनभुनाएं
ब्रिटेन भाए
बातचीत उनकी
घसीट उसे लाए
***
पेड़ निपाती
सरस्वती माथुर
*
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पत्ते फिर फूटेंगे ।
***
विछोह घडी
भावना कुँवर
*
बिछोह -घड़ी
सँजोती जाऊँ आँसू
मन भीतर
भरी मन -गागर।
प्रतीक्षारत
निहारती हूँ पथ
सँभालूँ कैसे
उमड़ता सागर।
मिलन -घड़ी
रोके न रुक पाए
कँपकपाती
सुबकियों की छड़ी।
छलक उठा
छल-छल करके
बिन बोले ही
सदियों से जमा वो
अँखियों का सागर।
-0-
***
मुक्तिका
चाँदनी फसल..'
*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
***
द्विपदी
*
शूल दें साथ सदा फिर भी बदनाम हुए
फूल दें साथ छोड़ फिर भी सुर्खरू क्यों हैं?
*
२८-४-२०१५
***
दोहा दुनिया
बात से बात
*
बात बात से निकलती, करती अर्थ-अनर्थ
अपनी-अपनी दृष्टि है, क्या सार्थक क्या व्यर्थ?
*
'सर! हद सरहद की कहाँ?, कैसे सकते जान?
सर! गम है किस बात का, सरगम से अनजान
*
'रमा रहा मन रमा में, बिसरे राम-रमेश.
सब चाहें गौरी मिले, हों सँग नहीं महेश.
*
राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
*
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही?, करले इसका लेख..
*
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
*
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
*
'डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज मचाए शोर..'
*
'एक-एक कर बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत.'.
*
'कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछे प्रश्न मन, उत्तर पाया मौन.'.
*
तनखा ही तन खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम.
*
२८-४-२०१४
***
नवगीत: मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, आभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल परस नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
***
नव गीत:
झुलस रहा गाँव..... ...
*
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा माल में नक़ल..
गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..
'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
***
एक चैट चर्चा:
Sanjay bhaskar:
AAP YE DEKHEN CHOTI SI RACHNAAA:
'जारी है अभी सिलसिला सरहदों पर.'
मैं:
'हद सर करती है हमें, हद को कैसे सर करें,
कोई यह बतलाये?' 'रमे रमा में सब मिले,
राम न चाहे कोई.
'सलिल' राम की चाह में
काम बिसर गयो मोई'.
Sanjay: 'ARE WAAAAHHHHH'
मैं:
राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
***
कार्यशाला - काव्य प्रश्नोत्तर
संजय:
'आप तो गुरु हो.'
मैं:
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख
चाह कहाँ कितनी रही, करले इसका लेख..'
Sanjay:
'बढ़िया'
मैं:
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल।
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
Sanjay:
'क्या बात है लाजवाब।'
मैं:
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब।
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.एक दोहा
*
जय हो सदा नरेन्द्र की, हो भयभीत सुरेन्द्र.
साधन बिन कर साधना, भू पर आ देवेंद्र
*
तनखा तन को खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम..
***
कुण्डलिनी :
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजा दे, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत मान ता ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
२८-४-२०१० ***

शनिवार, 27 अप्रैल 2024

अप्रैल २७, चित्रगुप्त, सॉनेट, गोपी छंद, हाइकु, मुक्तक, मुक्तिका, नवगीत, छंद कुंडली,

सलिल सृजन अप्रैल २७
*
विमर्श :
चित्रगुप्त माहात्मय
*
जो भी प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है, यही विधि का विधान है। चित्रगुप्त जी की जयंती मनाने का रथ है कि उनका जन्म हुआ, तब मृत्यु होना भी अटल है। क्या चित्रगुप्त जी की पुण्य तिथि किसी को ज्ञात है?
चित्रगुप्त जी परात्पर परब्रह्म हैं जो निराकार है। आकार नाहें है तो चित्र नहीं हो सकता, इसलिए चित्र गुप्त है। चित्रगुप्त जी और कायस्थों का उल्लेख ऋग्वेद आदि में है। सदियों तक कायस्थ राजवंशों ने शासन किया, कायस्थ महामंत्री रहे, महान सेनापति रहे, विखयात वैद्य रहे, महान विद्वान रहे, धनपति भी रहे पर चित्रगुप्त जी को केंद्र में रख मंदिर, मूर्ति, चालीसा, आदि नहीं बनाए। वे अशक्त नहीं थे, सत्य जानते थे। कायस्थ निराकार ब्रह्म के उपासक हैं, जबसे कायस्थों ने दूसरों की नकल कार साकार मूर्तिपूजा आरंभ की वे अशक्त होते गए।
पुराण कहता है- ''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनां'' चित्रगुप्त सब देवताओं में सबसे पहले प्रणाम करने के योग्य हैं क्योंकि वे सभी देहधारियों में आत्मा के रूप में स्थित हैं।
क्या आत्मा का आकार या चित्र है? आत्मा परमात्मा का अंश है। इसलिए सृष्टि में हर देहधारी की काया में आत्मा स्थित होने के कारण वह कायस्थ है। इसी कारण कायस्थ किसी एक धर्म, जाति, पंथ, संप्रदाय या देवता तक सीमित कभी नहेने रहे। वे देश-काल-परिस्थिति की आवश्यकतानुसार जनगण का नेत्रत्व कार अग्रगण्य रहे।
वर्तमान में यदि पुन: नेतृत्व पाना है तो अपनी जड़ों को, विरासत को पहचान-समेटकर बढ़ना होगा।
***
इतिहास - फ्रंटियर मेल
बल्लार्ड पियर मोल स्टेशन (बॉम्बे) से प्रस्थान करने वाली बॉम्बे पेशावर फ्रंटियर मेल। आप शेड पर स्टेशन का नाम देख सकते हैं।
यह ट्रेन इंग्लैंड से आने वाले अधिकारियों और सैनिकों को दिल्ली, लाहौर, रावलपिंडी और पेशावर की विभिन्न छावनियों में ले जाती थी।
विक्टोरिया टर्मिनस और चर्चगेट रेलवे स्टेशनों के निर्माण के बाद, बलार्ड पियर टर्मिनस को छोड़ दिया गया था। इसके बाद फ्रंटियर मेल को चर्चगेट (अब मुंबई सेंट्रल पर समाप्त) पर समाप्त किया जाता था।
सबसे प्रतिष्ठित ट्रेन होने के नाते, इसके आगमन पर, चर्चगेट स्टेशन को उज्ज्वल रूप से रोशन किया जाता था और इसकी त्रुटिहीन समयबद्धता के कारण लोग अपनी घड़ियाँ सेट करते थे!
***
अभिनव प्रयोग
गोपी छंदीय सॉनेट
*
घोर कलिकाल कठिन जीना।
हाय! भू पर संकट भारी।
घूँट खूं के पड़ते पीना।।
समर छेड़े अत्याचारी।।
सबल नित करता मनमानी।
पटकता बम नाहक दिन-रात।
निबल के आँसू भी पानी।।
दिख रही सच की होती मात।।
स्वार्थ सब अपना साध रहे।
सियासत केर-बेर का संग।
सत्य का कर परित्याग रहे।।
रंग जीवन के हैं बदरंग।।
धरा का छलनी है सीना।
घोर कलिकाल कठिन जीना।
२७-४-२०२२
***
***
मुक्तिका
*
जनमत मत सुन, अपने मन की बात करो
जन विश्वास भेज ठेंगे पर घात करो
*
बीमारी को हरगिज दूर न होने दो
रैली भाषण सभा नित्य दिन रात करो
*
अन्य दली सरकार न बन या बच पाए
डरा खरीदो, गिरा लोक' की मात करो
*
रोजी-रोटी छीन, भुखमरी फैला दो
मुट्ठी भर गेहूँ जन की औकात करो
*
जो न करे जयकार, उसे गद्दार कहो
जो खुद्दार उन्हीं पर अत्याचार करो
*
मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर को लड़वाओ
लिखा नया इतिहास, सत्य से रार करो
*
हों अपने दामाद यवन तो जायज है
लव जिहाद कहकर औरों पर वार करो
२७-४-२०२१
***
ज्योति ज्योति ले हाथ में, देख रही है मौन
तोड़ लॉकडाउन खड़ा, दरवाजे पर कौन?
कोरोना के कैरियर, दूँगी नहीं प्रवेश
रख सोशल डिस्टेंसिंग, मान शासनादेश
जाँच करा अपनी प्रथम, कर एकाकीवास
लक्षण हों यदि रोग के, कर रोगालय वास
नाता केवल तभी जब, तन-मन रहे निरोग
नादां से नाता नहीं, जो करनी वह भोग
*
बेबस बाती जल मरी, किन्तु न पाया नाम
लालटेन को यश मिला, तेल जला बेदाम
२७.४.२०२०
***
गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
**
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम् को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रूकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मन भाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
***
मुक्तिका
नारी और रंग
*
नारी रंग दिवानी है
खुश तो चूनर धानी है
लजा गुलाबी गाल हुए
शहद सरीखी बानी है
नयन नशीले रतनारे
पर रमणी अभिमानी है
गुस्से से हो लाल गुलाब
तब लगती अनजानी है।
झींगुर से डर हो पीली
वीरांगना भवानी है
लट घुँघराली नागिन सी
श्याम लता परवानी है
दंत पंक्ति या मणि मुक्ता
श्वेत धवल रसखानी है
स्वप्नमयी आँखें नीली
समुद-गगन नूरानी है
ममता का विस्तार अनंत
भगवा सी वरदानी है
२७-४-२०१९
***
नवगीत:
.
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
पर्वत, घाटी या मैदान
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणासागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डँसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
कभी नहीं मारे भूकंप
कभी नहीं हांरे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति के अनुकूल जिओ
मात्र एक उपचार
.
नींव कूटकर खूब भरो
हर कोना मजबूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलाता अफवाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
बिजली-अग्नि बुझाओ तुरत
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमजोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
***
नवगीत:
.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
वसुधा मैया भईं कुपित
डोल गईं चट्टानें.
किसमें बूता
धरती कब
काँपेगी अनुमाने?
देख-देख भूडोल
चकित क्यों?
सीखें रहना साथ.
अनसमझा भूकम्प न हो अब
मानवता का काल.
पृथ्वी पर भूचाल
हुए, हो रहे, सदा होएंगे.
हम जीना सीखेंगे या
हो नष्ट बिलख रोएँगे?
जीवन शैली गलत हमारी
करे प्रकृति से बैर.
रहें सुरक्षित पशु-पक्षी, तरु
नहीं हमारी खैर.
जैसी करनी
वैसी भरनी
फूट रहा है माथ.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
टैक्टानिक हलचल को समझें
हटें-मिलें भू-प्लेटें.
ऊर्जा विपुल
मुक्त हो फैले
भवन तोड़, भू मेटें.
रहे लचीला
तरु ना टूटे
अड़ियल भवन चटकता.
नींव न जो
मजबूत रखे
वह जीवन-शैली खोती.
उठी अकेली जो
ऊँची मीनार
भग्न हो रोती.
वन हरिया दें, रुके भूस्खलन
कम हो तभी विनाश।
बंधन हो मजबूत, न ढीले
रहें हमारे पाश.
छूट न पायें
कसकर थामें
'सलिल' हाथ में हाथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
***
हाइकु सलिला:
.
सागर माथा
नत हुआ आज फिर
देख विनाश.
.
झुक गया है
गर्वित एवरेस्ट
खोखली नीव
.
मनमानी से
मानव पराजित
मिटे निर्माण
.
अब भी चेतो
न करो छेड़छाड़
प्रकृति संग
.
न काटो वृक्ष
मत खोदो पहाड़
कम हो नाश
.
न हो हताश
करें नव निर्माण
हाथ मिलाएं.
.
पोंछने अश्रु
पीड़ितों के चलिए
न छोड़ें कमी
***
कल और आज :
कल का दोहा
प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर
चीटी ले शक्कर चली, हाथी के सर धूर
.
आज का दोहा
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता लघु हो हीन
'सलिल' लघुत्तम चाहता, दैव महत्तम छीन
एक षट्पदी:
.
प्रेमपत्र लिखता गगन, जब-तब भू के नाम
आप न आता क्रुद्ध भू, काँपे- सके न थाम
काँपे- सके न थाम, कहर से गिरते हैं घर
नाश देखकर रोता गगन न चुप होता फिर
आँधी-पानी से से बढ़ती है दर्द के अगन
आता तब भूकम्प जब प्रेमपत्र लिखता गगन
***
दोहा सलिला:
.
रूठे थे केदार अब, रूठे पशुपतिनाथ
वसुधा को चूनर हरी, उढ़ा नवाओ माथ
.
कामाख्या मंदिर गिरा, है प्रकृति का कोप
शांत करें अनगिन तरु, हम मिलकर दें रोप
.
भूगर्भीय असंतुलन, करता सदा विनाश
हट संवेदी क्षेत्र से, काटें यम का पाश
.
तोड़ पुरानी इमारतें, जर्जर भवन अनेक
करे नये निर्माण दृढ़, जाग्रत रखें विवेक
.
गिरि-घाटी में सघन वन, जीवन रक्षक जान
नगर बसायें हम विपुल, जिनमें हों मैदान
.
नष्ट न हों भूकम्प में, अपने नव निर्माण
सीखें वह तकनीक सब, भवन रहें संप्राण
.
किस शक्ति के कहाँ पर, आ सकते भूडोल
ज्ञात, न फिर भी सजग हम, रहे किताबें खोल
.
भार वहन क्षमता कहाँ-कितनी लें हम जाँच
तदनसार निर्माण कर, प्रकृति पुस्तिका बाँच
***
नवगीत:
.
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
भूगर्भी चट्टानें सरकेँ,
कांपे धरती.
ऊर्जा निकले, पड़ें दरारें
उखड़े पपड़ी
हिलें इमारत, छोड़ दीवारें
ईंटें गिरतीं
कोने फटते, हिल मीनारें
भू से मिलतीं
आफत बिना बुलाये आये
आँख दिखाये
सावधान हो हर उपाय कर
जान बचायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
द्वार, पलंग तले छिप जाएँ
शीश बचायें
तकिया से सर ढाँकें
घर से बाहर जाएँ
दीवारों से दूर रहें
मैदां अपनाएँ
वाहन में हों तुरत रोक
बाहर हो जाएँ
बिजली बंद करें, मत कोई
यंत्र चलायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
बाद बड़े झटकों के कुछ
छोटे आते हैं
दिवस पाँच से सात
धरा को थर्राते हैं
कम क्षतिग्रस्त भाग जो उनकी
करें मरम्मत
जर्जर हिस्सों को तोड़ें यह
अतिआवश्यक
जो त्रुटिपूर्ण भवन उनको
फिर गिरा बनायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
है अभिशाप इसे वरदान
बना सकते हैं
हटा पुरा निर्माण, नव नगर
गढ़ सकते हैं.
जलस्तर ऊपर उठता है
खनिज निकलते
भू संरचना नवल देख
अरमान मचलते
आँसू पीकर मुस्कानों की
फसल उगायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
२७-४-२०१५
***
छंद सलिला:
कुंडली छंद
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु गुरु (यगण, मगण), यति ११-१०।
लक्षण छंद:
छंद रचें इक्कीस / कला ले कुडंली
दो गुरु से चरणान्त / छंद रचना भली
रखें ग्यारह-दस पर, यति- न चूकें आप
भाव बिम्ब कथ्य रस, लय रहे नित व्याप
उदाहरण:
१. राजनीति कोठरी, काजल की कारी
हर युग हर काल में, आफत की मारी
कहती परमार्थ पर, साधे सदा स्वार्थ
घरवाली से अधिक, लगती है प्यारी
२. बोल-बोल थक गये, बातें बेमानी
कोई सुनता नहीं, जनता है स्यानी
नेता और जनता , नहले पर दहला
बदले तेवर दिखा, देती दिल दहला
३. कली-कली चूमता, भँवरा हरजाई
गली-गली घूमता, झूठा सौदाई
बिसराये वायदे, साध-साध कायदे
तोड़े सब कायदे, घर मिला ना घाट
२७-४-२०१४
***
तेवरी :
हुए प्यास से सब बेहाल
*
हुए प्यास से सब बेहाल.
सूखे कुएँ नदी सर ताल..
गौ माता को दिया निकाल.
श्वान रहे गोदी में पाल..
चमक-दमक ही हुई वरेण्य.
त्याज्य सादगी की है चाल..
शंकाएँ लीलें विश्वास.
डँसते नित नातों के व्याल..
कमियाँ दूर करेगा कौन?
बने बहाने हैं जब ढाल..
मौन न सुन पाए जो लोग.
वही बजाते देखे गाल..
उत्तर मिलते नहीं 'सलिल'.
अनसुलझे नित नए सवाल..
***
मुक्तिका
*
ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..
२७-४-२०१०
*

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

अप्रैल २६, प्लवंगम् छंद, हास्य, गीत, नेपाल भूकंप, लघुकथा, सॉनेट

सलिल सृजन अप्रैल २६
*
सॉनेट (इंग्लिश शैली)
जो सत्ता पर वह स्वामी है,जन गुलाम जयकार करे,
धर्म-देश की दे न दुहाई, स्वार्थ साधना मकसद है,
लोकतंत्र की नाकामी है,सच कहने से अगर डरे,
जो विपक्ष में वह भी दोषी, नहीं पतन की कुछ हद है।
दलदल दल का दाल दल रहा, नित जन-गण की छाती पर,
भुला देश-हित दल-हित साधे,   संविधान को बिसराकर,
नव पीढ़ी को गर्व नहीं है, परंपरा या माटी पर,
दूर जड़ों से भाग रहे हैं, संस्कार निज ठुकराकर।
वृद्धाश्रम-बालाश्रम बढ़ते, घटते हैं कुटुंब-परिवार,
जल-जंगल-जमीन पर काबिज, होते जाते धन्ना सेठ,
वनवासी मजदूर किसानों का जीना भी है दुश्वार,
अस्सी प्रतिशत धन के मालिक, आठ फी सदी फूले पेट।
रौंद रहे कुदरत को, मौसम बदल रहा पर फिक्र नहीं,
कहते नव इतिहास लिखेंगे, सच का होगा जिक्र नहीं।
२६.४.२०२४
•••
सॉनेट (इटेलियन शैली)
सफर-ए-जिंदगी
*
खुशगवार है बहुत सफर-ए-जिंदगी,
हँसी-खुशी से साथ-साथ रह गुजारिए,
जो करे मदद; न कभी भी बिसारिए,
गैर की मदद करें यही है बंदगी।
जूझिए-मिटाइए सभी दरिंदगी,
निकालिए कभी न जिसे मन-बसाइए,
जाने-जां पे जान भी हँसकर लुटाइए,
बार-बार बदल मत अपनी पसंदगी।
कशिश कोशिशों की कभी कम नहीं हुई,
धूप-छाँव फूल-शूल हमसफ़र रहे,
रुके नहीं; गिरे-उठे कदम सदा बढ़े।
मन्नतों की; मिन्नतों की चाहतें मुई,
मुश्किलों से हाथ लगीं; हाथ है गहे,
हासिलों के पाठ हमने साथ मिल पढ़े।
२६.४.२०२४ 
***
सॉनेट
ओ तू
ओ तू कितना सदय-निठुर है?
बिन माँगे सब कुछ दे देता।
बिना बताए ले भी लेता
अपना-गैर न, कृपा-कहर है।।
मिलकर मिले न, जुदा न होता
सब करते हैं तेरी बातें।
मंदिर-मस्जिद में शह-मातें
फसल काटता, फिर फिर बोता।।
ओ तू क्या है? कभी बता दे?
ओ तू मुझसे मुझे मिला दे।
ओ तू मुझको राह दिखा दे।।
मुझे नचा खुश है क्या ओ तू?
भेज-बुला खुश है क्या ओ तू?
तुझमें मैं, मुझमें क्या ओ तू??
२६-४-२०२२
•••
लघुकथा
सुख-दुःख
*
गुरु जी को उनके शिष्य घेरे हुए थे। हर एक की कोई न कोई शिकायत, कुछ न कुछ चिंता। सब गुरु जी से अपनी समस्याओं का समाधान चाह रहे थे। गुरु जी बहुत देर तक उनकी बातें सुनते रहे। फिर शांत होने का संकेत कर पूछा - 'कितने लोग चिंतित हैं? कितनों को कोई दुःख है? हाथ उठाइये।
सभागार में एक भी ऐसा न था जिसने हाथ न उठाया हो।
'रात में घना अँधेरा न हो तो सूरज ऊग सकेगा क्या?'
''नहीं'' समवेत स्वर गूँजा।
'धूप न हो तो छाया अच्छी लगेगी क्या?'
"नहीं।"
'क्या ऐसा दिया देखा है जिसके नीचे अँधेरा न हो"'
"नहीं।"
'चिंता हुई इसका मतलब उसके पहले तक निश्चिन्त थे, दुःख हुआ इसका मतलब अब तक दुःख नहीं था। जब दुःख नहीं था तब सुख था? नहीं था। इसका मतलब दुःख हो या न हो यह तुम्हारे हाथ में नहीं है पर सुख हो या हो यह तुम्हारे हाथ में है।'
'बेटी की बिदा करते हो तो दुःख और सुख दोनों होता है। दुःख नहीं चाहिए तो बेटी मत ब्याहो। कौन-कौन तैयार है?' एक भी हाथ नहीं उठा।
'बहू को लाते हो तो सुखी होते हो। कुछ साल बाद उसी बहु से दुखी होते हो। दुःख नहीं चाहिए तो बहू मत लाओ। कौन-कौन सहमत है?' फिर कोई हाथ नहीं उठा।
'एक गीत है - रात भर का है मेहमां अँधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा? अब बताओ अँधेरा, दुःख, चिंता ये मेहमान न हो तो उजाला, सुख और बेफिक्री भी न होगी। उजाला, सुख और बेफिक्री चाहिए तो अँधेरा, दुःख और चिंता का स्वागत करो, उसके साथ सहजता से रहो।'
अब शिष्य संतुष्ट दिख रहे थे, उन्हें पराये नहीं अपनों जैसे ही लग रहे थे सुख-दुःख।
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मुक्तक
नभ के दिल में आग लगी या उषा विहँस शरमाई है
सूरज छैला ने लैला से अँखियाँ झूम मिलाई है
चढ़ा पेड़ पर बाँका खुद या आसमान से कूद पड़ा
शोले बीरू और बसंती, कथा गई दोहराई है
***
लेख
मुक्तक और मुक्तिका
*
हिंदी काव्य में वे समान पदभार के वे छंद जो अपने आप में पूर्ण हों अर्थात जिनका अर्थ उनके पहले या बाद की पंक्तियों से संबद्ध न हो उन्हें मुक्तक छंद कहा गया है। इस अर्थ में दोहा, रोला, सोरठा, उल्लाला, कुण्डलिया, घनाक्षरी, सवैये आदि मुक्तक छंद हैं।
कालांतर में चौपदी या चतुष्पदी (चार पंक्ति की काव्य रचना) को मुक्तक कहने का चलन हो गया। इनके पदान्तता के आधार पर विविध प्रकार हैं। १. चारों पंक्तियों का समान पदांत -
हर संकट को जीत
विहँस गाइए गीत
कभी न कम हो प्रीत
बनिए सच्चे मीत (ग्यारह मात्रिक पद)
२. पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति का समान तुकांत -
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें (तेरह मात्रिक पद)
३. पहली-दूसरी पंक्ति का एक तुकांत, तीसरी-चौथी पंक्ति का भिन्न तुकांत -
चूं-चूं करती है गौरैया
सबको भाती है गौरैया
चुन-चुनकर दाना खाती है
निकट गए तो उड़ जाती है (सोलह मात्रिक)
४. पहली-तीसरी-चौथी पंक्ति का समान तुकांत -
भारत की जयकार करें
दुश्मन की छाती दहले
देश एक स्वीकार करें
ऐक्य भाव साकार करें (चौदह मात्रिक)
५. पहली-दूसरी-तीसरी पंक्ति का समान तुकांत -
भारत माँ के बच्चे
झूठ न बोलें सच्चे
नहीं अकल के कच्चे
बैरी को मारेंगे (बारह मात्रिक)
६. दूसरी, तीसरी, चौथी पंक्ति की समान तुक -
नेता जी आश्वासन फेंक
हर चुनाव में जाते जीत
धोखा देना इनकी रीत
नहीं किसी के हैं ये मीत (पंद्रह मात्रिक)
७. पहली-चौथी पंक्ति की एक तुक दूसरी-तीसरी पंक्ति की दूसरी तुक -
रात रानी खिली
मोगरा हँस दिया
बाग़ में ले दिया
आ चमेली मिली (दस मात्रिक)
८. पहली-तीसरी पंक्ति की एक तुक, दुसरी-चौथी पंक्ति की अन्य तुक -
होली के रंग
कान्हा पे डाल
राधा के संग
गोपियाँ निहाल (नौ मात्रिक)
*
इनमें से दूसरे प्रकार के मुक्तक अधिक लोकप्रिय हुए हैं ।
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें
यह तेरह मात्रिक मुक्तक है।
इसमें तीसरी-चौथी पंक्ति की तरह पंक्तियाँ जोड़ें -
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें
प्रगति देखकर अन्य की
द्वेष अग्नि में मत दहें
पीर पराई बाँट लें
अपनी चुप होकर सहें
याद प्रीत की ह्रदय में
अपने हरदम ही तहें

यह मुक्तिका हो गयी। इस शिल्प की कुछ रचनाओं को ग़ज़ल, गीतिका, सजल, तेवरी, पूर्णिका आदि भी कहा जाता है।
*
कार्यशाला : कुंडलिया
दोहा - बसंत, रोला - संजीव
*
सिर के ऊपर बाज है, नीचे तीर कमान |
खतरा है, फिर भी भरे, चिड़िया रोज उड़ान ||
चिड़िया रोज उड़ान, भरे अंडे भी सेती
कभी ना सोचे पाऊँगी, क्या-क्यों मैं देती
काम करे निष्काम, रहे नभ में या भू पर
तनिक न चिंता करे, ताज या आफत सिर पर
******
धरती माता
धरती माता विपदाओं से डरी नहीं
मुस्काती है जीत उन्हें यह मरी नहीं
आसमान ने नीली छत सिर पर तानी
तूफां-बिजली हार गये यह फटी नहीं
अग्नि पचाती भोजन, जला रही अब भी
बुझ-बुझ जलती लेकिन किंचित् थकी नहीं
पवन बह रहा, साँस भले थम जाती हो
प्रात समीरण प्राण फूँकते थमी नहीं
सलिल प्रवाहित कलकल निर्मल तृषा बुझा
नेह नर्मदा प्रवहित किंचित् रुकी नहीं
पंचतत्व निर्मित मानव भयभीत हुआ?
अमृत पुत्र के जीते जी यम जीत गया?
हार गया क्या प्रलयंकर का भक्त कहो?
भीत हुई रणचंडी पुत्री? सत्य न हो
जान हथेली पर लेकर चलनेवाले
आन हेतु हँसकर मस्तक देनेवाले
हाय! तुच्छ कोरोना के आगे हारे
स्यापा करते हाथ हाथ पर धर सारे
धीरज-धर्म परखने का है समय यही
प्राण चेतना ज्योति अगर निष्कंप रही
सच मानो मावस में दीवाली होगी
श्वास आस की रास बिरजवाली होगी
बमभोले जयकार लगाओ, डरो नहीं
हो भयभीत बिना मारे ही मरो नहीं
जीव बनो संजीव, कहो जीवन की जय
गौरैया सँग उषा वंदना कर निर्भय
प्राची पर आलोक लिये है अरुण हँसो
पुष्पा के गालों पर अर्णव लाल लखो
मृत्युंजय बन जीवन की जयकार करो
महाकाल के वंशज, जीवन ज्वाल वरो।
***
मुक्तक
कलियाँ पल पल अनुभव करतीं मकरंदित आभास को
नासापुट तक पहुँचाती हैं किसलय के अहसास को
पवन प्रवह रह आत्मानंदित दिग्दिगंत तक व्याप रहा
नीलगगन दे छाँव सभी को, नहीं चीह्नकर खास को
२६-४-२०२०
***
एक रचना
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
२४-४-२०१७
***
हास्य रचना
हरदोई में मिल गये, हरि हर दोई संग।
रमा उमा ने कर दिया जब दोनों को तंग।।
जब दोनों को तंग, याद तब विधि की आई।
गए बिरंचि समीप विकल हो पीर बताई।।
'जान बचाएँ दैव, हमें दें रक्षा का वर।'
विधि बोले- 'ब्रम्हाणी से पीड़ित हम हरिहर।
नारद ने तब तीनों की मुश्किल सुलझाई।
विधि-शिव ने पुष्कर-पर्वत पर धुनी रचाई।
हरि ने झट से ले लिया धरती पर अवतार।
नाच नाचती गोपियाँ माखन दे बलिहार।।
२६-४-२०१६
***
नेपाल में भूकंपजनित महाविनाश के पश्चात रचित
हाइकु सलिला:
.
सागर माथा
नत हुआ आज फिर
देख विनाश.
.
झुक गया है
गर्वित एवरेस्ट
खोखली नीव
.
मनमानी से
मानव पराजित
मिटे निर्माण
.
अब भी चेतो
न करो छेड़छाड़
प्रकृति संग
.
न काटो वृक्ष
मत खोदो पहाड़
कम हो नाश
.
न हो हताश
करें नव निर्माण
हाथ मिलाएं.
.
पोंछने अश्रु
पीड़ितों के चलिए
न छोड़ें कमी
.
२६.४.२०१५
नवगीत:
.
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
पर्वत, घाटी या मैदान
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणासागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डँसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
कभी नहीं मारे भूकंप
कबि नहीं हांरे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति अनुकूल जिओ
मात्र एक उपचार
.
नींव कूटकर खूब भरो
हर कोना मजबूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलता अफवाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
बिजली-अग्नि बुझाओ तुरत
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमजोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
***
नवगीत:
.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
वसुधा मैया भईं कुपित
डोल गईं चट्टानें.
किसमें बूता
धरती कब
काँपेगी अनुमाने?
देख-देख भूडोल
चकित क्यों?
सीखें रहना साथ.
अनसमझा भूकम्प न हो अब
मानवता का काल.
पृथ्वी पर भूचाल
हुए, हो रहे, सदा होएंगे.
हम जीना सीखेंगे या
हो नष्ट बिलख रोएँगे?
जीवन शैली गलत हमारी
करे प्रकृति से बैर.
रहें सुरक्षित पशु-पक्षी, तरु
नहीं हमारी खैर.
जैसी करनी
वैसी भरनी
फूट रहा है माथ.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
टैक्टानिक हलचल को समझें
हटें-मिलें भू-प्लेटें.
ऊर्जा विपुल
मुक्त हो फैले
भवन तोड़, भू मेटें.
रहे लचीला
तरु ना टूटे
अड़ियल भवन चटकता.
नींव न जो
मजबूत रखे
वह जीवन-शैली खोती.
उठी अकेली जो
ऊँची मीनार
भग्न हो रोती.
वन हरिया दें, रुके भूस्खलन
कम हो तभी विनाश।
बंधन हो मजबूत, न ढीले
रहें हमारे पाश.
छूट न पायें
कसकर थामें
'सलिल' हाथ में हाथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
२६-४-२०१५
***
छंद सलिला:
प्लवंगम् छंद
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), यति ८-१३।
लक्षण छंद:
प्लवंगम् में / रगण हो सदा अन्त में
आठ - तेरह न / भूलें यति हो अन्त में
आरम्भ करे / गुरु- लय न कभी छोड़िये
जीत लें सभी / मुश्किलें मुँह न मोड़िए
उदाहरण:
१. मुग्ध उषा का / सूरज करे सिंगार है
भाल सिंदूरी / हुआ लाल अंगार है
माँ वसुधा नभ / पिता-ह्रदय बलिहार है
बंधु नाचता / पवन लुटाता प्यार है
२. राधा-राधा / जपते प्रति पल श्याम ज़ू
सीता को उर / धरते प्रति पल राम ज़ू
शंकरजी के / उर में उमा विराजतीं
ब्रम्ह - शारदा / भव सागर से तारतीं
३. दादी -नानी / कथा-कहानी गुमे कहाँ?
नाती-पोतों / बिन बूढ़ा मन रमें कहाँ?
चंदा मामा / गुमा- शेष अब मून है
चैट-ऐप में / फँसा बाल-मन सून है
***
गीत
हे समय के देवता!
*
हे समय के देवता!
गर दे सको वरदान दो तुम...
*
श्वास जब तक चल रही है,आस जब तक पल रही है,
अमावस का चीरकर तम-प्राण-बाती जल रही है.
तब तलक रवि-शशि सदृश हम रौशनी दें तनिक जग को-
ठोकरों से पग न हारें-करें ज्योतित नित्य मग को.
दे सको हारे मनुज को, विजय का अरमान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
नयन में आँसू न आये,हुलसकर हर कंठ गाए.
कंटकों से भरे पथ पर-चरण पग धर भेंट आए.
समर्पण विश्वास निष्ठांसिर उठाकर जी सके अब.
मनुज हँसकर गरल लेकर-शम्भु-शिववत पी सकें अब.
दे सको हर अधर को मुस्कान दो, मधुगान दो तुम..
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
सत्य-शिव को पा सकें हम' गीत सुन्दर गा सकें हम.
सत-चित-आनंद घन बन-दर्द-दुःख पर छा सकें हम.
काल का कुछ भय न व्यापे,अभय दो प्रभु!, सब वयों को.
प्रलय में भी जयी हों-संकल्प दो हम मृण्मयों को.
दे सको पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
२६-४-२०१०
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