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सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

अक्टूबर १२, बुंदेली, मुक्तिका, सोरठे, चंद्र विजय, जिकड़ी, लँगड़ी, लघुकथा, नर्मदा नामावली,

 सलिल सृजन अक्टूबर १२

मुक्तक
बड़े भक्त हैं, बना रहे हैं देवों को भी दैत्य समान।
देख सहम जाए बच्चा मन, है सम्मान या कि अपमान।।
नहीं स्मरण रहा इन्हें क्या, कंकर-कंकर में शंकर-
वेद-पुराण युगों से कहते, कण-कण में रहते भगवान।।
ग्रंथ बताते जला विभीषण ने रावण को दिया
राम-बाण से जलवाते क्यों प्रथा रची मिथ्या
रावण वध की तिथि न दशहरा, लीला करती भ्रांत-
मर्यादा कर भंग न कंपित होता क्यों कर हिया?
हिंदी दिवस मनाने का अंग्रेजी में आदेश
तंत्र कर दमन जन गण-मन का देता क्या संदेश?
या तो अंग्रेजी बोले या हिंदी संस्कृत घोल-
सरल-सहज बोली से पाले क्यों यह पाले बैर हमेश?
१२.१०.२०२५
०००
मुक्तिका (बुंदेली)
*
कर धरती बर्बाद चाँद पै जा रओ है
चंदा डर सें पीरो, जे बर्रा रओ है
एक दूसरे की छाती पै फेंकें बम्म
लोग मरें, नेता-अफसर गर्रा रओ है
करे अमंगल धरती को मंगल जा रओ
नव ग्रह जालम आदम सें थर्रा रओ है
छुरा पीठ में भोंखें; गले मिलें जबरन
गिरगिट हेरे; हैरां हो सरमा रओ है
मैया कह रओ लूट-लूट खें धरती खों
चंदा मम्मा लूटन खों हुर्रा रओ है
***
सोरठे
चंद्रमुखी जी रूठ, जा बैठी हैं चाँद पर।
कहा न मैंने झूठ, तुम चंदा सी लग रहीं।।
चाँद
झुकें दिखा दें चाँद, निकला है नभ पर नहीं।
तोड़ूँ व्रत निष्पाप, कहे चाँदनी चाँद से।।
प्रज्ञानिन जा चाँद, अर्ध्य धरा को दे रही।
भागा कक्षा फाँद, विक्रम को आई हँसी।।
रोवर पढ़ता पाठ, कक्षा में कक्षा लगी।
लैंडर का है ठाठ, गोल मारकर घूमता।
१२-१०-२०२३
मुक्तिका
गम के बादल अंबर पर छाते जब भी
प्रियदर्शी को देख हवा हो जाते हैं
हुए गमजदा गम तो पाने छुटकारा
आँखों से झर मन का ताप मिटाते हैं
रखो हौसला होता है जब तिमिर घना
तब ही दिनकर-उषा सवेरा लाते हैं
तूफानों से नीड़ उजड़ जाए चाहे
पंछी आकर सरस प्रभाती गाते हैं
दिया शारदा ने वर गीतों का अनुपम
गम हरने वे मन-कुंडी खटकाते हैं
अमरकंटकी विष पीने की परंपरा
शब्दामृत पी विष को अमिय बनाते हैं
बे-गम हुई जिंदगी तो क्या जीतें हम
गम आ मिल मिट हमको जयी बनाते हैं
अंबर का विस्तार नहीं गम नाप सके
बारिश बन बह, भू को हरा बनाते हैं
१२-१०-२०१९
***
अभिनव प्रयोग:
प्रस्तुत है पहली बार खड़ी हिंदी में बृजांचल का लोक काव्य भजन जिकड़ी
जय हिंद लगा जयकारा
(इस छंद का रचना विधान बताइए)
*
भारत माँ की ध्वजा, तिरंगी कर ले तानी।
ब्रिटिश राज झुक गया, नियति अपनी पहचानी।। ​​​​​​​​​​​​​​
​अधरों पर मुस्कान।
गाँधी बैठे दूर पोंछते, जनता के आँसू हर प्रात।
गायब वीर सुभाष हो गए, कोई न माने नहीं रहे।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
रास बिहारी; चरण भगवती; अमर रहें दुर्गा भाभी।
बिन आजाद न पूर्ण लग रही, थी जनता को आज़ादी।।
नहरू, राजिंदर, पटेल को, जनगण हुआ सहारा
जय हिंद लगा जयकारा।।
हुआ विभाजन मातृभूमि का।
मार-काट होती थी भारी, लूट-पाट को कौन गिने।
पंजाबी, सिंधी, बंगाली, मर-मिट सपने नए बुने।।
संविधान ने नव आशा दी, सूरज नया निहारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
बनी योजना पाँच साल की।
हुई हिंद की भाषा हिंदी, बाँध बन रहे थे भारी।
उद्योगों की फसल उग रही, पञ्चशील की तैयारी।।
पाकी-चीनी छुरा पीठ में, भोंकें; सोचें: मारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
पल-पल जगती रहती सेना।
बना बांग्ला देश, कारगिल, कहता शौर्य-कहानी।
है न शेष बासठ का भारत, उलझ न कर नादानी।।
शशि-मंगल जा पहुँचा इसरो, गर्वित हिंद हमारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
सर्व धर्म समभाव न भूले।
जग-कुटुंब हमने माना पर, हर आतंकी मारेंगे।
जयचंदों की खैर न होगी, गाड़-गाड़कर तारेंगे।।
आर्यावर्त बने फिर भारत, 'सलिल' मंत्र उच्चारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
६.७.२०१८
***
बाल गीत:
लँगड़ी खेलें.....
*
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*************
मुक्तक:
शीत है तो प्रीत भी है.
हार है तो जीत भी है.
पुरातन पाखंड हैं तो-
सनातन शुभ रीत भी है
***
छंद में ही सवाल करते हो
छंद का क्यों बवाल करते हो?
है जगत दन्द-फन्द में उलझा
छंद देकर निहाल करते हो
१२-१०-२०१७
***
दोहा सलिला
*
हर सिक्के में हैं सलिल, चित-पट दोनों साथ
बिना पैर के मंज़िलें, कैसे पाए हाथ
*
पुत्र जन्म हित कर दिया, पुत्री को ही दान
फिर कैसे हम कह रहे?, है रघुवंश महान?
*
सत्ता के टकराव से, जुड़ा धर्म का नाम
गलत न पूरा दशानन, सही न पूरे राम
*
मार रहे जो दशानन , खुद करते अपराध
सीता को वन भेजते, सत्ता के हित साध
*
कैसी मर्यादा? कहें, कैसा यह आदर्श?
बेबस को वन भेजकर, चाहा निज उत्कर्ष
*
मार दिया शम्बूक को, अगर पढ़ लिया वेद
कैसा है दैवत्व यह, नहीं गलत का खेद
१२-१०-२०१६
***
लघुकथा
स्वजन तन्त्र
*
राजनीति विज्ञान के शिक्षक ने जनतंत्र की परिभाषा तथा विशेषताएँ बताने के बाद भारत को विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र बताया तो एक छात्र से रहा नहीं गया। उसने अपनी असहमति दर्ज करते हुए कहा- ' गुरु जी! भारत में जनतंत्र नहीं स्वजन तंत्र है।
"किताब में ऐसे किसी तंत्र का नाम नहीं है" - गुरु जी बोले।
"कैसे होगा? यह हमारी अपनी खोज है और भारत में की गयी खोज को किताबों में इतनी जल्दी जगह मिल ही नहीं सकती। यह हमारे शिक्षा के पाठ्य क्रम में भी नहीं है लेकिन हमारी ज़िन्दगी के पाठ्य क्रम का पहला अध्याय यही है जिसे पढ़े बिना आगे का कोई पाठ नहीं पढ़ा जा सकता।" छात्र ने कहा।
"यह स्वजन तंत्र होता क्या है? यह तो बताओ" - सहपाठियों ने पूछा।
"स्वजन तंत्र ऐसा तंत्र है जहाँ चंद चमचे इकट्ठे होकर कुर्सी पर लदे नेता के हर सही-ग़लत फैसले को ठीक बताने के साथ-साथ उसके वंशजों को कुर्सी का वारिस बताने और बनाने की होड़ में जी-जान लगा देते हैं। जहाँ नेता अपने चमचों को वफादारी का ईनाम और सुख-सुविधा देने के लिए विशेष प्राधिकरणों का गठन कर भारी धन राशि, कार्यालय, वाहन आदि उपलब्ध कराते हैं जिनका वेतन, भत्ता, स्थापना व्यय तथा भ्रष्टाचार का बोझ झेलने के लिये आम आदमी को कानून की आड़ में मजबूर कर दिया जाता है। इन प्राधिकरणों में मनोनीत किये गये चमचों को आम आदमी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं होता पर वे जन प्रतिनिधि कहलाते हैं। वे हर काम का ऊँचे से ऊँचा दाम वसूलना अपना हक मानते हैं और प्रशासनिक अधिकारी उन्हें यह सब कराने के उपाय बताते हैं।"
"लेकिन यह तो बहुत बड़ी परिभाषा है, याद कैसे रहेगी?" छात्र नेता के चमचे ने परेशानी बताई।
"चिंता मत कर। सिर्फ़ इतना याद रख जहाँ नेता अपने स्वजनों और स्वजन अपने नेता का हित साधन उचित-अनुचित का विचार किए बिना करते हैं और जनमत, जनहित, देशहित जैसी की परवाह नहीं करते वही स्वजन तंत्र है लेकिन किताबों में इसे जनतंत्र लिखकर आम आदमी को ठगा जाता है ताकि वह बदलाव की माँग न करे।"
गुरु जी अवाक् होकर राजनीति के व्यावहारिक स्वरूप का ज्ञान पाकर धन्य हो रहे थे।
१२-१०-२०१५
***
नर्मदा नामावली
*
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा.
शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा.
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला.
अमरकंटी शांकरी शुभ शर्मदा.
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी.
जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा.
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी.
कमलनयनी जगज्जननि हर्म्यदा.
शाशिसुता रौद्रा विनोदिनी नीरजा.
मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौंदर्यदा.
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा.
नेत्रवर्धिनि पापहारिणी धर्मदा.
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा.
रूपदा सौदामिनी सुख-सौख्यदा.
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला.
नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा.
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना.
विपाशा मन्दाकिनी चित्रोंत्पला.
रुद्रदेहा अनुसूया पय-अंबुजा.
सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा.
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा.
शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा.
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया.
वायुवाहिनी कामिनी आनंददा.
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना.
नंदना नाम्माडिअस भव मुक्तिदा.
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा.
विपथगा विदशा सुकन्या भूषिता.
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता.
मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा.
रतिमयी उन्मादिनी वैराग्यदा.
यतिमयी भवत्यागिनी शिववीर्यदा.
दिव्यरूपा तारिणी भयहांरिणी.
महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा.
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा.
कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा.
तारिणी वरदायिनी नीलोत्पला.
क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा.
साधना संजीवनी सुख-शांतिदा.
सलिल-इष्ट माँ भवानी नरमदा.
***
मुक्तिका
मुस्कान
*
जिस चहरे पर हो मुस्कान १५
वह लगता मितवा रस-खान..
अधर हँसें तो लगता है- १४
हैं रस-लीन किशन भगवान..
आँखें हँसती तो दिखते -
उनमें छिपे राम गुणवान..
उमा, रमा, शारदा लगें
रस-निधि रही नहीं अनजान..
'सलिल' रस कलश जन जीवन
सुख देकर बन जा इंसान..
***
लघु कथा
समय का फेर
गुरु जी शिष्य को पढ़ना-लिखना सिखाते परेशां हो गए तो खीझकर मारते हुए बोले- ' तेरी तकदीर में तालीम है ही नहीं तो क्या करुँ? तू मेरा और अपना दोनों का समय बरबाद कर रहा है. जा भाग जा, इतने समय में कुछ और सीखेगा तो कमा खाएगा.'
गुरु जी नाराज तो रोज ही होते थे लेकिन उस दिन चेले के मन को चोट लग गई. उसने विद्यालय आना बंद कर दिया.'
गुरु जी कुछ दिन दुखी रहे कि व्यर्थ ही नाराज हुए, न होते तो वह आता ही रहता और कुछ न कुछ सीखता भी. धीरे-धीरे गुरु जी वह घटना भूल गए.
कुछ साल बाद गुरूजी एक अवसर पर विद्यालय में पधारे मंत्री जी का स्वागत कर रहे थे. तभी अतिथि ने पूछा- 'आपने पहचाना मुझे?'
गुरु जी ने दिमाग पर जोर डाला तो चेहरा और घटना दोनों याद आ गईं किंतु कुछ न कहकर चुप ही रहे.
गुरु जी को चुप देखकर मंत्री जी बोले- 'आपने ठीक पहचाना. मैं वही हूँ. सच ही मेरे भाग्य में विद्या पाना नहीं है, आपने ठीक कहा था किंतु विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना मेरे भाग्य में है यह तो आपने नहीं बताया था.'
गुरु जी अवाक् होकर देख रहे थे समय का फेर.
१२-१०-२०१४
***
मुक्तक
मत कहो घर में महज मेहमान हैं ये बेटियाँ
मान-मर्यादा मृदुल मुस्कान हैं ये बेटियाँ
मोह, ममता, नाज़-नखरे, अदा भी, अंदाज़ भी-
मौन की आवाज़ हैं, अरमान हैं ये बेटियाँ
१२-१०-२०१३
***
बालगीत
(लोस एंजिल्स अमेरिका से अपनी मम्मी रानी विशाल सहित ददिहाल-ननिहाल भारत आई नन्हीं अनुष्का के लिए २०१० में रचा गया था यह गीत)
*
लो भारत में आई अनुष्का.
सबके दिल पर छाई अनुष्का.
यह परियों की शहजादी है.
खुशियाँ अनगिन लाई अनुष्का..
है नन्हीं, हौसले बड़े हैं.
कलियों सी मुस्काई अनुष्का..
दादा-दादी, नाना-नानी,
मामा के मन भाई अनुष्का..
सबसे मिल मम्मी क्यों रोती?
सोचे, समझ न पाई अनुष्का..
सात समंदर दूरी कितनी?
कर फैला मुस्काई अनुष्का..
जो मन भाए वही करेगी.
रोको, हुई रुलाई अनुष्का..
मम्मी दौड़ी, पकड़- चुपाऊँ.
हाथ न लेकिन आई अनुष्का..
ठेंगा दिखा दूर से हँस दी .
मन भरमा भरमाई अनुष्का..
***
गीत:
सहज हो ले रे अरे मन !
*
मत विगत को सच समझ रे.
फिर न आगत से उलझ रे.
झूमकर ले आज को जी-
स्वप्न सच करले सुलझ रे.
प्रश्न मत कर, कौन बूझे?
उत्तरों से कौन जूझे?
भुलाकर संदेह, कर-
विश्वास का नित आचमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
उत्तरों का क्या करेगा?
अनुत्तर पथ तू वरेगा?
फूल-फलकर जब झुकेगा-
धरा से मिलने झरेगा.
बने मिटकर, मिटे बनकर.
तने झुककर, झुके तनकर.
तितलियाँ-कलियाँ हँसे,
ऋतुराज का हो आगमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
स्वेद-सीकर से नहा ले.
सरलता सलिला बहा ले.
दिखावे के वसन मैले-
धो-सुखा, फैला-तहा ले.
जो पराया वही अपना.
सच दिखे जो वही सपना.
फेंक नपना जड़ जगत का-
चित करे सत आकलन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
सारिका-शुक श्वास-आसें.
देह पिंजरा घेर-फांसे.
गेह है यह नहीं तेरा-
नेह-नाते मधुर झाँसे.
भग्न मंदिर का पुजारी
आरती-पूजा बिसारी.
भारती के चरण धो, कर
निज नियति का आसवन.
सहज हो ले रे अरे मन !
*
कैक्टस सी मान्यताएँ.
शूल कलियों को चुभाएँ.
फूल भरते मौन आहें-
तितलियाँ नाचें-लुभाएँ.
चेतना तेरी न हुलसी.
क्यों न कर ले माल-तुलसी?
व्याल मस्तक पर तिलक है-
काल का है आ-गमन.
सहज हो ले रे अरे मन !
१२-१०-२०१०
***

अक्टूबर १३, सॉनेट, नयन, राजस्थानी, भाषा-गीत, मुक्तक, ग़ज़ल, गीत, वृन्दावन, हिंदी, अनन्वय अलंकार

 सलिल सृजन अक्टूबर १३

सॉनेट
नयन
नयन खुले जग जन्म हुआ झट
नयन खोजते नयन दोपहर
नयन सजाए स्वप्न साँझ हर
नयन विदाई मुँदे नयन पट
नयन मिले तो पूछा परिचय
नयन झुके लज बात बन गई
नयन उठे सँग सपने कई कई
नयन नयन में बसे मिटा भय
नयन आईना देखें सँवरे
नयन आई ना कह अकुलाए
नयन नयन को भुज में भरे
नय न नयन तज, सकुँचे-सिहरे
नयन वर्जना सुनें न बहरे
नयन न रोके रुके न ठहरे
१३•१०•२०२२
●●●
राजस्थानी मुक्तिका
*
आसमान में अटक्या सूरज
गेला भूला भटक्या सूरज
संसद भीतर बैठ कागलो
काँव-काँव सुन थकग्या सूरज
कोरोना ने रस्ता छेंका
बदरी पीछे छिपग्या सूरज
भरी दफेरी बैठ हाँफ़ र् यो
बिना मजूरी चुकग्या सूरज
धूली चंदण नै चपकेगी
भेळा करता भटक्या सूरज
चादर सीतां सीतां थाका
लून-तेल में फँसग्या सूरज
साँची-साँची कहें सलिल जी
नेता बण ग्यो ठग र् या सूरज
१३-१०-२०२०
***
मुक्तक
*
वन्दना प्रार्थना साधना अर्चना
हिंद-हिंदी की करिये, रहे सर तना
विश्व-भाषा बने भारती हम 'सलिल'
पा सकें हर्ष-आनंद नित नव घना
*
चाँद हो साथ में चाँदनी रात हो
चुप अधर, नैन की नैन से बात हो
पानी-पानी हुई प्यास पल में 'सलिल'
प्यार को प्यार की प्यार सौगात हो
*
चाँद को जोड़कर कर मनाती रही
है हक़ीक़त सजन को बुलाती रही
पी रही है 'सलिल' हाथ से किंतु वह
प्यास अपलक नयन की बुझाती रही
*
चाँद भी शरमा रहा चाँदनी के सामने
झुक गया है सिर हमारा सादगी के सामने
दूर रहते किस तरह?, बस में न था मन मान लो
आ गया है जल पिलाने ज़िंदगी के सामने
*
गगन का चाँद बदली में मुझे जब भी नज़र आता
न दिखता चाँद चेहरा ही तेरा तब भी नज़र आता
कभी खुशबू, कभी संगीत, धड़कन में कभी मिलते-
बसे हो प्राण में, मन में यही अब भी नज़र आता
*
मुक्तिका
*
अर्चना कर सत्य की, शिव-साधना सुंदर करें।
जग चलें गिर उठ बढ़ें, आराधना तम हर करें।।
*
कौन किसका है यहाँ?, छाया न देती साथ है।
मोह-माया कम रहे, श्रम-त्याग को सहचर करें।।
*
एक मालिक है वही, जिसने हमें पैदा किया।
मुक्त होकर अहं से, निज चित्त प्रभु-चाकर करें।।
*
वरे अक्षर निरक्षर, तब शब्द कविता से मिले।
भाव-रस-लय त्रिवेणी, अवगाह चित अनुचर करें।।
*
पूर्णिमा की चंद्र-छवि, निर्मल 'सलिल में निरखकर।
कुछ रचें; कुछ सुन-सुना, निज आत्म को मधुकर करें।।
करवा चौथ २७-१०-२०१८
***
नवगीत:
हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर
तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की
दिशाहीन
बहसें मुँहजोर
छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश
जाग उठो
फिर लाओ भोर
पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान
साथ चलो
फिर उगाओ भोर
***
मुक्तिका
*
ख़त ही न रहे, किस तरह पैगाम हम करें
आगाज़ ही नहीं किया, अंजाम हम करें
*
यकीन पर यकीन नहीं, रह गया 'सलिल'
बेहतर है बिन यकीन ही कुछ काम हम करें.
*
गुमनाम हों, बदनाम हों तो हर्ज़ कुछ नहीं
कुछ ना करें से बेहतर है काम हम करें.
*
हो दोस्ती या दुश्मनी, कुछ तो कभी तो हो
जो कुछ न हो तो, क्यों न राम-राम हम करें
*
मिल लें गले, भले ही ईद हो या दिवाली
बस हेलो-हाय का न ताम-झाम हम करे
*
क्यों ख़ास की तलाश करे कल्पना कहो
जो हमसफ़र हो साथ उसे आम हम करें
***
हिंदी ग़ज़ल -
बहर --- २२-२२ २२-२२ २२२१ १२२२
*
है वह ही सारी दुनिया में, किसको गैर कहूँ बोलो?
औरों के क्यों दोष दिखाऊँ?, मन बोले 'खुद को तोलो'
*
​खोया-पाया, पाया-खोया, कर्म-कथानक अपना है
क्यों चंदा के दाग दिखाते?, मन के दाग प्रथम धो लो
*
जो बोया है काटोगे भी, चाहो या मत चाहो रे!
तम में, गम में, सम जी पाओ, पीड़ा में कुछ सुख घोलो
*
जो होना है वह होगा ही, जग को सत्य नहीं भाता
छोडो भी दुनिया की चिंता, गाँठें निज मन की खोलो
*
राजभवन-शमशान न देखो, पल-पल याद करो उसको
आग लगे बस्ती में चाहे, तुम हो मगन 'सलिल' डोलो
***
***
भाषा-गीत
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें विधि जगवाणी की
संस्कृत-पुत्री को अपना गलहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
अवधी, असमी, कन्नड़, गढ़वाली, गुजराती
बुन्देली, बांगला, मराठी, बृज मुस्काती
छतीसगढ़ी, तेलुगू, भोजपुरी, मलयालम
तमिल, डोगरी, राजस्थानी, उर्दू भाती
उड़िया, सिंधी, पंजाबी गलहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
देश, विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
***
दोहा सलिला
सुधियों के संसार में, है शताब्दि क्षण मात्र
श्वास-श्वास हो शोभना, आस सुधीर सुपात्र
*
मृदुला भाषा-काव्य की, धारा, बहे अबाध
'सलिल' साधना कर सतत, हो प्रधान हर साध
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्वमय देह
ईश्वर का उपहार है, पूजा करें सनेह
*
हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल
'सलिल'संस्कृत सान दे,पुड़ी बने कमाल
*
जन्म ब्याह राखी तिलक,गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
*
बिन अपनों के हो सलिल', पल-पल समय पहाड़
जेठ-दुपहरी मिले ज्यों, बिन पाती का झाड़
*
विरह-व्यथा को कहें तो, कौन सका है नाप?
जैसे बरखा का सलिल, या गर्मी का ताप
*
कंधे हों मजबूत तो, कहें आप 'आ भार'
उठा सकें जब बोझ तो, हम बोलें 'आभार'
*
कविता करना यज्ञ है, पढ़ना रेवा-स्नान
सुनना कथा-प्रसाद है, गुनना प्रभु का ध्यान
*
कांता-सम्मति मानिए, हो घर में सुख-चैन
अधरों पर मुस्कान संग, गुंजित मीठे बैन
***
मुक्तक
वन्दना प्रार्थना साधना अर्चना
हिंद-हिंदी की करिये, रहे सर तना
विश्व-भाषा बने भारती हम 'सलिल'
पा सकें हर्ष-आनंद नित नव घना
*
नवगीत:
हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर
तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की
दिशाहीन
बहसें मुँहजोर
छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश
जाग उठो
फिर लाओ भोर
पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान
साथ चलो
फिर उगाओ भोर
***
एक रचना: मन-वृन्दावन
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
किस पग-रज की दिव्य स्वामिनी का मन-आँगन राज सखे!
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कलरव करता पंछी-पंछी दिव्य रूप का गान करे.
किसकी रूपाभा दीपित नभ पर संध्या अभिमान करे?
किसका मृदुल हास दस दिश में गुंजित ज्यों वीणा के तार?
किसके नूपुर-कंकण ध्वनि में गुंजित हैं संतूर-सितार?
किसके शिथिल गात पर पंखा झलता बृज का ताज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
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किसकी केशराशि श्यामाभित, नर्तन कर मन मोह रही?
किसके मुखमंडल पर लज्जा-लहर जमुन सी सोह रही?
कौन करील-कुञ्ज की शोभा, किससे शोभित कली-कली?
किस पर पट-पीताम्बरधारी, मोहित फिरता गली-गली?
किसके नयन बाणकान्हा पर गिरते बनकर गाज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
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किसकी दाड़िम पंक्ति मनोहर मावस को पूनम करती?
किसके कोमल कंठ-कपोलों पर ऊषा नर्तन करती?
किसकी श्वेताभा-श्यामाभित, किससे श्वेताभित घनश्याम?
किसके बोल वेणु-ध्वनि जैसे, करपल्लव-कोमल अभिराम?
किस पर कौन हुआ बलिहारी, कैसे, कब-किस व्याज सखे?
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
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किसने नीरव को रव देकर, भव को वैभव दिया अनूप?
किसकी रूप-राशि से रूपित भवसागर का कण-कण भूप?
किससे प्रगट, लीन किसमें हो, हर आकार-प्रकार, विचार?
किसने किसकी करी कल्पना, कर साकार, अवाक निहार?
किसमें कर्ता-कारण प्रगटे, लीन क्रिया सब काज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
१३-१०-२०१७
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दोहा
सुधियों के संसार में, है शताब्दि क्षण मात्र
श्वास-श्वास हो शोभना, आस सुधीर सुपात्र
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मृदुला भाषा-काव्य की, धारा, बहे अबाध
'सलिल' साधना कर सतत, हो प्रधान हर साध
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अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्वमय देह
ईश्वर का उपहार है, पूजा करें सनेह
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हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल
'सलिल'संस्कृत सान दे,पुड़ी बने कमाल
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जन्म ब्याह राखी तिलक,गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
१३-१०-२०१६
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अलंकार सलिला
: २१ : अनन्वय अलंकार
बने आप उपमेय ही, जब खुद का उपमान
'सलिल' अनन्वय है वहाँ, पल भर में ले जान
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किसी काव्य प्रसंग में उपमेय स्वयं ही उपमान हो तथा पृथक उपमान का अभाव हो तो अनन्वय अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. लही न कतहुँ हार हिय मानी। इन सम ये उपमा उर जानी।।
२. हियौ हरति औ' करति अति, चिंतामनि चित चैन।
वा सुंदरी के मैं लखे, वाही के से नैन ।।
३. अपनी मिसाल आप हो, तुम सी तुम्हीं प्रिये!
उपमान कैसे दे 'सलिल', जूठे सभी हुए।।
४. ये नेता हैं नेता जैसे, चोर-उचक्के इनसे बेहतर।
५. नदी नदी सम कहाँ रह गयी?, शेष ढूह है रेत के
जहाँ-तहाँ डबरों में पानी, नदी हो गयी खेत रे!
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कार्यशाला
पहचानिए अलंकार :
जाने बहार हुस्न तेरा बेमिसाल है
( गायक मो. रफ़ी, गीतकार शकील बदायूनी, संगीतकार रवि, चलचित्र प्यार किया तो डरना क्या, वर्ष १९६३)
पास बैठो तबियत बहल जाएगी
मौत भी आ गयी हो तो टल जाएगी
( गायक मो. रफ़ी, गीतकार इंदीवर, संगीतकार , चलचित्र पुनर्मिलन)
तोरा मन दरपन कहलाये
नहले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये
( गायक आशा भोंसले, गीतकार , संगीतकार रवि, चलचित्र काजल १९६५)
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एक रचना
*
जय हिंदी जगवाणी!
जय मैया भारती!!
*
क्षर जग को दे अक्षर
बहा शब्द के निर्झर
रस जल, गति-यति लहरें
भाव-बिंब बह-ठहरें
रूपक-उपमा ललाम
यमक-श्लेष कर प्रणाम
अनुप्रासिक छवि देखें
वक्र-उक्ति अवरेखें
शब्द-शक्ति ज्योत बाल
नित करती आरती
जय हिंदी जगवाणी!
जय मैया भारती!!
*
हास्य करुण शांत वीर
वत्सल श्रृंगार नीर
अद्भुत वीभत्स रौद्र
जन-मन की हरें पीर
गोहा, चौपाई, गीत
अमिधा-लक्षणा प्रीत
व्यंजना उकेर चित्र
छंदों की बने मित्र
लघु-गुरु, गण, गुण तुम पर
शारद माँ वारती
*
लेख, कथा, उपन्यास,
व्यंग्य कहे मिटे त्रास
क्रिया संज्ञा सर्वनाम
कर अनाम को प्रणाम
कह रहे कहावतें
रच रुचिर मुहावरे
अद्भुत सामर्थ्यवान
दिग्दिगंत करे गान
स्नेह-'सलिल' गंग बहा
दे सुज्ञान तारती
जबलपुर बैठकी १३.१०.२०१५
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नवगीत:
हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर
तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की
दिशाहीन
बहसें मुँहजोर
छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश
जाग उठो
फिर लाओ भोर
पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान
साथ चलो
फिर उगाओ भोर
१३.१०-२०१४
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गीत:
वेदना पर.…
*
वेदना पर चेतना की जीत होगी
जिंदगी तब ही मधुर संगीत होगी…
*
दर्द है सौभाग्य यदि हँस झेल पाओ
पीर है उपहार यदि हँस खेल पाओ
निकष जीवट का कठिन तूफ़ान होता-
है सुअवसर यदि उसे हँस ठेल पाओ
विरह-पल में साथ जब-जब प्रीत होगी
वेदना पर चेतना की जीत होगी
जिंदगी तब ही मधुर संगीत होगी…
*
कशिश कोशिश की कहेगी कथा कोई
हौसला हो हमकदम-हमराज कोई
रति रमकती रात रानी रंग-रसमय
रास थामे रास रचती रीत कोई
रातरानी श्वास का संगीत होगी
वेदना पर चेतना की जीत होगी
जिंदगी तब ही मधुर संगीत होगी…
*
स्वेद-सीकर से सुवासित संगिनी सम
स्नेह-सलिला नर्मदा सद्भाव संगम
सियाही पर सिपाही सम सीध साधे-
सीर-सीता सुयोगित सोपान अनुपम
सभ्यता सुदृढ़ सफल संनीत होगी
वेदना पर चेतना की जीत होगी
जिंदगी तब ही मधुर संगीत होगी…
१३.१०.२०१३
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रासलीला :
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रासलीला दिव्य क्रीड़ा परम प्रभु की.
करें-देखें-सुन तरें, आराध्य विभु की.
चक्षु मूँदे जीव देखे ध्यान धरकर.
आत्म में परमात्म लेखे भक्ति वरकर.
जीव हो संजीव प्रभु का दर्श पाए.
लीन लीला में रहे जग को भुलाए.
साधना का साध्य है आराध्य दर्शन.
पूर्ण आशा तभी जब हो कृपा वर्षण.
पुष्प पुष्पा, किरण की सुषमा सुदर्शन.
शांति का राजीव विकसे बिन प्रदर्शन
वासना का राज बहादुर मिटाए.
रहे सत्य सहाय हरि को खोज पाए.
मिले ओम प्रकाश मन हनुमान गाए.
कृष्ण मोहन श्वास भव-बाधा भुलाए.
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.
झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.
कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.
अधर शतदल पाँखुरी से रस भरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.
नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.
खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.
कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.
सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.
चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.
अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.
भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.
कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?
पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?
कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?
क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?
कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाए.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाए.
जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?
ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?
थाप में आलाप कब देता सुनाई?
हर किसी में आप वह देता दिखाई?
अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?
कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?
कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?
कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.
भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?
द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?
कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?
अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.
नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.
आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.
अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् दिगादि दिगंत जैसे एक पाया.
कंकरों में शंकरों का वास देखा.
जमुन रज में आज बृज ने हास देखा.
मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.
रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.
रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.
रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.
रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.
रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.
रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..
रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.
राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचती थीं.
साधिका होकर साध्य को ही बाँचती थीं.
'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्री बांकेबिहारी.
नर्मदा सी वर्मदा सी शर्मदा सी.
स्नेह-सलिला बही ब्रज में धर्मदा सी.
वेणु झूमी, थिरक नाची, स्वर गुँजाए.
अर्धनारीश्वर वहीं साकार पाए.
रहा था जो चित्र गुप्त, न गुप्त अब था.
सुप्त होकर भी न आत्मन् सुप्त अब था.
दिखा आभा ज्योति पावन प्रार्थना सी.
उषा संध्या वंदना मन कामना सी.
मोहिनी थी, मानिनी थी, अर्चना थी.
सृष्टि सृष्टिद की विनत अभ्यर्थना थी.
हास था पल-पल निनादित लास ही था.
जो जहाँ जैसा घटित था, रास ही था.
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३०-४-२०१०