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मंगलवार, 10 अगस्त 2021

गीत

गीत 
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कह रहे सपने कथाएँ
.
सुन सको तो सुनो इनको
गुन सको तो गुनो इनको
पुराने हों तो न फेंको
बुन सको तो बुनो इनको
छोड़ दोगे तो लगेंगी
हाथ कुछ घायल व्यथाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
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कर परिश्रम वरो फिर फिर
डूबना मत, लौट तिर तिर
साफ होगा आसमां फिर
मेघ छाएँ भले घिर घिर
बिजलियाँ लाखों गिरें
हम नशेमन फिर भी बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
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कभी खुद को मारना मत
अँधेरों से हारना मत
दिशा लय बिन गति न वरना
प्रथा पुरखे तारना मत
गतागत को साथ लेकर
आज को सार्थक बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.................
salil.sanjiv@gmail.com

गीत

गीत :
संजीव
*
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
बम भोले है अपनी जनता
देती छप्पर फाड़ के.
जो पाता वो खींच चीथड़े
मोल लगाता हाड़ के.
नेता, अफसर, सेठ त्रयी मिल
तीन तिलंगे कूटते.
पत्रकार चंडाल चौकड़ी
बना प्रजा को लूटते.
किससे गिला शिकायत शिकवा
करें न्याय भी बंदी है.
पुलिस नहीं रक्षक, भक्षक है
थाना दंदी-फंदी है.
काले कोट लगाये पहरा
मनमर्जी करते भाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
पण्डे डंडे हो मुस्टंडे
घात करें विश्वास में.
व्यापम झेल रहे बरसों से
बच्चे कठिन प्रयास में.
मार रहे मरते मरीज को
डॉक्टर भूले लाज-शरम.
संसद में गुंडागर्दी है
टूट रहे हैं सभी भरम.
सीमा से आतंक घुस रहा
कहिए किसको फ़िक्र है?
जो शहीद होते क्या उनका
इतिहासों में ज़िक्र है?
पैसे वाले पद्म पा रहे
ताली पीट रहे दाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
सेवा से मेवा पाने की
रीति-नीति बिसरायी है.
मेवा पाने ढोंग बनी सेवा
खुद से शरमायी है.
दूरदर्शनी दुनिया नकली
निकट आ घुसी है घर में.
अंग्रेजी ने सेंध लगा ली
हिंदी भाषा के स्वर में.
मस्त रहो मस्ती में, चाहे
आग लगी हो बस्ती में.
नंगे नाच पढ़ाते ऐसे
पाठ जां गयी सस्ते में.
आम आदमी समझ न पाये
छुरा भौंकते हैं ताऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
१०-८-२०१५ 
*

अनामिका तिवारी

अनामिका तिवारी: रंगकर्मी से कृषि वैज्ञानिक तक का सफ़र
#पंकज स्वामी
*
अनामिका तिवारी के कई परिचय हो सकते हैं और उन्हें कई रूपों में पहचाना जाता है। वे रंगकर्मी, गायिका, नाटककार, ग़ज़लकार हैं। उन्‍होंने साहित्‍यकार के रूप में कविताएं व व्यंग्य लिखे हैं। नाटकों की समीक्षा वे सूक्ष्‍मता से करती हैं। अनामिका ने संगीत निर्देशन करते हुए सैकड़ों गीत कंपोज किए हैं। एक कृषि वैज्ञानिक के रूप में वर्षों तक उनहोंने बड़ी भूमिका निभाई है। वे प्रतिष्ठ‍ित साहित्यकार रामानुज लाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ की सबसे छोटी पुत्री हैं। जबलपुर के सात बार महापौर व दो बार सांसद रहे एवं रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि का हिन्दी में भावानुवाद करने वाले कवि, पत्रकार, कथाकार पद्मश्री भवानी प्रसाद तिवारी की पुत्रवधु हैं-अनामिका तिवारी। अनामिका तिवारी के अग्रज विनोद श्रीवास्तव खस्ता व बड़ी बहिन साधना उपाध्याय और पति सतीश तिवारी से इस श्रृंखला को पढ़ने वाले परिचित हो गए हैं। इसे इतफ़ाक ही कहेंगे कि अनामिका सहित सातों बहिनों के एकमात्र भाई विनोद श्रीवास्तव खस्ता और सतीश तिवारी पाँच बहिनों के एकमात्र भाई थे।


रामानुज लाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ की सबसे छोटी पुत्री के रूप में जब अनामिका का जन्म हुआ, उसके कुछ दिन पश्चात् कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सुभद्रा कुमारी चौहान से मिलने जबलपुर आए हुए थे। एक दिन जब उनकी मुलाकात ऊंट साहब से हुई और निराला को जानकारी मिली कि घर में पुत्री का जन्म हुआ है, तब उन्होंने बातचीत में पूछा कि बेटी का नाम क्या रखा है ? ऊंट साहब ने अपने चिर परिचित विनोदपूर्ण अंदाज में कहा-‘’एटम बम’’। निराला ने कहा-‘’नहीं यह अनामिका है।‘’ इस तरह ऊंट साहब की सबसे छोटी पुत्री का नाम विधिवत अनामिका हो गया। उस समय शायद ही किसी लड़की का नाम अनामिका होता था, लेकिन ऊंट साहब की पुत्री अनामिका के नाम के बाद कई दंपतियों ने अपनी बेटियों के नाम अनामिका रखना शुरू कर दिए। अनामिका को घर में ही साहित्य‍िक व कला का वातावरण मिला। रामानुज लाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ के रंगकर्म के अंश पुत्र व पुत्रियों को संस्कार में मिले थे। ऊंट साहब राजनांदगांव रियासत में थे, तब वहां का जीवन राममय, कृष्णमय और इन्दर सभामय था। ऊंट साहब ने राजमहल में कृष्ण और मोहल्लों में इन्दरसभा, जिसमें सब्जपरी से ले कर राजा इन्दर के सारे पात्र निभाए थे। स्त्री पार्ट में पटु होते-होते ऊंट साहब के सवा छह फुट के कद ने विघ्न डाल दिया था। वे भारतेंदु के ‘नीलदेवी’ नाटक में पहरेदार के रूप में दो गीत प्रस्तुत करते थे। इस नाटक के दूसरे दिन हवा फैल गई-पहरेदार की भूमिका करने वाले पात्र ने खूब हाथ पैर हिला कर गीत गाए। चलते फिरते पैर दिखे। गाने सुनाई दिए। परन्तु चेहरा स्टेज के ऊपर होने से पता ही नहीं चला कि वह कलाकार कौन था ? दरअसल ऊंट साहब का सवा छह फुट कद होने से उनका सिर पर्दे के ऊपर चला गया था और सिर्फ उनका धड़ व हाथ-पैर ही दर्शकों को दिख रहे थे। भवानी प्रसाद तिवारी ने भी ‘कीचक वध’ नाटक का मराठी से हिन्दी में अनुवाद कर नाटक विधा से स्वयं को जोड़ा था।


अनामिका की पढ़ाई-लिखाई जबलपुर के सेंट नॉर्बट स्कूल से शुरू हुई। इस स्कूल में उनकी बड़ी बहिन साधना भी पढ़ चुकी थीं। बड़ी बहिन की विपरीत अनामिका कम बात करती थीं। लगभग शांत ही रहती थीं। जब कोई दस वाक्य बोलता था, तब वे सिर्फ हां या ना में उत्तर देती थीं। अनामिका को बचपन में नृत्य करने का बहुत शौक था। वे स्कूल में नृत्य में भाग लेती थीं। एक बार जब वे नृत्य में भाग लेने वाली थीं, तब एक शिक्षिका ने उनके मासूम चेहरे को देखते हुए, उन्हें ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक नाटक में ईसा मसीह की मुख्य भूमिका के लिए चयन कर लिया था। नाटक का मंचन अच्छा रहा, लेकिन अनामिका के लिए नाटक में अभिनय करने का मौका स्वभावगत कोई उत्तेजना का विषय नहीं बना। यहां महत्वपूर्ण बात यह रही कि सेंट नार्बट स्कूल में परम्परानुसार किसी भी छात्रा को एक विधा में भाग लेने की अनुमति थी, लेकिन अनामिका इस मामले में अपवाद रहीं। उन्हें नाटक के साथ नृत्य करने का अवसर मिला। घर के पास स्थि‍त भातखंडे महाविद्यालय में अन्य बहिनों की तरह अनामिका संगीत शिक्षा लेने लगीं। उन्होंने मध्यमा तक संगीत की शिक्षा ली।


ग्यारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् अनामिका ने जबलपुर के होमसाइंस कॉलेज में एडमिशन ले लिया। शालेय जीवन से अनामिका मिलन संस्था के कार्यक्रमों में अपना गायन प्रस्तुत करने लगी थीं। होम साइंस कॉलेज में पढ़ने के दौरान अनामिका यूथ फेस्टीवल में भाग नहीं ले पाईं। इसका कारण कॉलेज की प्राचार्य कुसुम मेहता बहुत कड़क व अनुशासन पसंद सवभाव था। उनका साफ कहना था कि कॉलेज की कोई भी छात्रा यूथ फेस्टीवल में भाग नहीं लेगी। अनामिका को प्रतियोगिता में भाग लेने नहीं मिला। अनामिका के हम उम्र विद्यार्थी यूथ फेस्टीवल में भाग ले कर और जीत कर नेहरू जी के साथ फोटो खिंचवा रहे थे। अनामिका को महसूस हुआ कि प्राचार्य की पाबंदियों के चलते वे विद्यार्थी जीवन में यूथ फेस्टीवल में कभी भाग ही नहीं ले पाएंगी। विज्ञान की पढ़ाई करते हुए उनका वर्ष 1964 में मेडिकल कॉलेज में चयन हो गया, लेकिन कुछ कारणों से वे एडमिशन नहीं ले पाईं। अनामिका ने अपनी कला प्रतिभा को विस्तार व व्यापकता देने की दृष्ट‍ि साइंस कॉलेज में बी.एससी. द्वितीय वर्ष में प्रवेश ले लिया। उन्होंने उस समय तक अपने भविष्य व कैरियर के बारे में कुछ नहीं सोचा था। वर्ष 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध का असर जबलपुर के सांस्कृतिक क्षेत्र व खासतौर से रंगकर्म पर पड़ा। उस समय यूथ फेस्टीवल जैसे आयोजन को रद्द करना पड़ा। उस दौरान अनामिका ने नेशनल डिफेंस फंड में राशि एकत्रित करने के लिए रार्बट्सन कॉलेज के सभागार में देशभक्त‍ि गीत व सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए। के. के. उपाध्याय हारमोनियम व सतीश तिवारी तबले पर संगत देते थे। अनामिका को उस समय जुनून सा चढ़ा हुआ था। दिन भर वे साथी कलाकारों के साथ अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करती रहती थीं। इन कार्यक्रमों में सुंदर ट्रूमेन की भी सहभागिता रहती थी। अनामिका ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गीत को जबलपुर के विभिन्‍न स्थानों में साथियों के साथ प्रस्‍तुत करती थीं। गीत सुन कर लोगों में जोश जाग जाता था।


अनामिका ने मिलन संस्था के मंचीय नाटकों ‘बेबात की बात’ व ‘उधार का पति’ और रेडियो नाटक ‘फातिहा’ से शुरूआत की थी। ‘फातिहा’ प्रेमचंद की कथा का नाट्य रूपांतरण था। इसे सतीश तिवारी ने रूपांतरित किया था। वर्ष 1965 में अनामिका ने रेडियो नाटक में प्रमुख पात्र की भूमिका निभाई थी। इस नाटक को अंतर्महाविद्यालयीन रेडियो नाटक प्रतियोगिता के लिए तैयार किया गया था। कॉलेज में नाटकों व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों की रिहर्सल करते समय देर शाम हो जाती थी। अंधेरा होने से वे घबड़ा जाती थीं। तब चहल-पहल नहीं रहती थी। सड़कें सुनसान रहती थीं। सिविल लाइंस से राइट टाउन तक पहुंचने काफ़ी समय लगता था। उस समय अनामिका को घर जाने का कोई साधन नहीं मिलता था। देर शाम को आखि‍री बस आती थी, तब उससे अनामिका राइट टाउन स्थि‍त घर वापस पहुंच पाती थीं। मिलन संस्था के कार्यक्रमों में अनामिका को गीत गाने के अवसर व प्रोत्साहन के. के. उपाध्याय ने दिलवाए थे। उस समय जबलपुर के आसपास के आंचलिक क्षेत्रों में एक कार्यक्रम में गीत प्रस्तुति देने के लिए अनामिका को पचास रूपए प्रोत्साहन राशि‍ के रूप में मिलने लगे थे। यह राशि अनामिका के काम बहुत आई। इससे वे कभी अपनी पढ़ाई की पुस्तकें खरीद लेती थीं, तो कभी दीगर कामों में इस राशि का उपयोग कर लिया जाता था। इस समय तक अनामिका की माँ ने रात का भोजन बनाना छोड़ दिया था । अनामिका की बड़ी बहिन साधना अपनी इच्छाओं या शौक को ले कर स्पष्ट थीं। साधना अपनी डांस क्लास, म्यूजिक क्लास और अपनी रिहर्सल में शाम से व्यस्त हो जातीं थीं । अनामिका शाम का भोजन जोर-जोर से फिल्मी गीत गा गाकर बनाया करतीं थीं । उन्हें यह भी चिन्ता रहती थी कि खस्ता भैया भी सात बजे के आसपास एक ग्लास पानी पीने चौके तक अवश्य आते हैं, सात बहनों के चहेते भाई। उन्हें अपने हाथ से लेकर पानी न पीना पड़े। इस चिंता से अनामिका को घर में रहना और चौके में खाना बनाना रुचिकर लगता था। धीरे-धीरे वे भोजन बनाने में सिद्धहस्त हो गईं। पाककला प्रतियोगिता में भी उन्‍होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसी सिद्धहस्तता से भविष्य में उनके जीवन में नया मोड़ भी आया। दैनिक जीवनचर्या के बीच अनामिका को मिलन की प्रस्तुति ‘उधार का पति’ नाटक में राजेन्द्र दुबे के साथ मुख्य भूमिका निभाने का मौका मिला। बड़े भाई विनोद श्रीवास्तव ने उन्हें ‘बेबात की बात’ नाटक में अभिनय का मौका दिया। एक बड़े भाई द्वारा छोटी बहिन को नाटक में अभिनय करने का मौका देना और इस क्षेत्र में प्रोत्साहित करना, इस दृष्ट‍ि से बड़ी व विशिष्‍ट बात थी, क्योंकि उस ज़माने में लड़कियों व महिलाओं का नाटक से जुड़ने के लिए कोई भी व्यक्त‍ि या परिवार अनुमति नहीं देता था।


वर्ष 1968 में अनामिका ने आंतोन चेखव के ‘द एनिवर्सरी’ के हिन्दी रूपांतरण ‘रजतजयंती’ नाटक में प्रमुख भूमिका निभाई। इस नाटक के मंचन की कुछ विशेषताएं रहीं। नाट्य का मंचन जबलपुर विश्वविद्यालय के ग्यारहवें दीक्षांत समारोह के अवसर हुआ था। नाटक के मंचन के समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मुख्य अतिथि‍ के रूप में उपस्थि‍त थे। नाट्य मंचन का संयोजन रामेश्वर प्रसाद शुक्ल ‘अंचल’ ने किया था। नाटक का निर्देशन रतनप्रकाश व कैलाश नारद ने संयुक्त रूप से किया था। नाटक में अनामिका के साथ रत्ना, सूरज, सुरेन्द्र शर्मा, जगदीश गुप्ता मोती व कैलाश नारद ने अभिनय किया था। जबलपुर में चेखव का नाटक दूसरी बार हुआ था। इससे पूर्व सागर से विजय चौहान ने आ कर चेखव का नाटक ‘भालू’ का निर्देशन किया था। चेखव का रजतजयंती (एनिवर्सरी) वर्ष 1891 में लिखा गया एक मनोरंजक नाटक है। नाटक में बैंक की 15 वीं वर्षगांठ समारोह के अवसर पर बैंकर अपने कुछ सम्मानीय शेयर धारकों से मिलने की तैयारी कर रहा है। नाटक में चार मुख्य चरित्र हैं। इस नाटक में अनामिका ने बैंकर की पत्नी की भूमिका निभाई थी। नाटक में अनामिका के अभिनय को देखने वाले सभी लोग प्रभावित हुए थे।


वर्ष 1969 में अनामिका ने बॉटनी विषय में एम.एससी. की परीक्षा उत्‍तीर्ण की। सतीश तिवारी अनामिका के गायन, उनके बनाए गए भोजन व रूप से इतने मोहित हुए कि उन्होंने विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे अनामिका ने स्वीकार कर लिया। दोनों ने परिवार की असहमति के बीच लखनऊ में जा कर विवाह किया। दोनों वहां से दिल्ली पहुंचे। उस समय सतीश तिवारी के पिताजी भवानी प्रसाद तिवारी राज्यसभा के सांसद थे। उस समय संसद का सत्र चल रहा था। भवानी प्रसाद तिवारी को जब दोनों के विवाह की जानकारी मिली तो उन्होंने पुत्र सतीश को निर्देश दिया-‘’तुम तो जबलपुर जाओ और बहुरानी हमारे पास दिल्ली में ही रहेगी।‘’ अनामिका अपने श्वसुर भवानी प्रसाद तिवारी के पास दिल्ली में ही रूक गईं। अनामिका ने एक माह के भीतर अपने व्‍यवहार व सेवाभाव से श्वसुर जी का दिल जीत लिया। लगभग एक माह तक संसद का सत्र चला, तब तक अनामिका दिल्ली में ही रहीं। एक माह में ही अनामिका को महसूस हुआ कि वे श्वसुर जी के पास नहीं बल्क‍ि अपने पिता के साथ रह रहीं हैं। भवानी प्रसाद तिवारी ने पुत्रवधु को आंखों की पलकों पर बैठा कर रखा। सत्र समाप्त होने के बाद भवानी प्रसाद तिवारी ने जबलपुर में घर पर तार किया अरेंज शहनाई, हम लोग जबलपुर पहुंच रहे हैं। इसके बाद जब भी दिल्ली में संसद का सत्र होता, तब हर बार अनामिका उनके साथ दिल्ली जाती थीं। भवानी प्रसाद तिवारी को अनामिका के साथ शतरंज खेलने में बहुत आनंद मिलता था। जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि‍ विश्वविद्यालय के पौध रोग (प्लांट पेथोलॉजी) विभाग में सीनियर रिसर्च असिस्‍टेंट के पद का विज्ञापन निकला। अनामिका की एक मित्र ने उस विज्ञापन को देख कर आवेदन भर दिया। मित्र की सलाह पर अनामिका ने भी इस पद के लिए आवेदन भर दिया। अनामिका के मन में उस समय नौकरी करने का कोई विचार नहीं था और न ही कोई चाह भी। इतफ़ाक से अनामिका का इंटरव्यू अच्छा रहा और वर्ष 1971 में वे सीनियर रिसर्च असिस्‍टेंट के पद पर चुन ली गईं। उस समय कृषि विश्वविद्यालय में अकादमिक पदों पर महिलाएं नाममात्र को कार्यरत थीं। अनामिका ने विश्वविद्यालय में सांस्कृतिक गतिविधियों के संचालन का दायित्व संभाल लिया।


सतीश तिवारी से विवाह के पश्चात् अनामिका ने जबलपुर के कई नाट्य प्रस्तुतियों में पार्श्व गायन किया। वर्ष 1972 में उन्होंने श्याम खत्री निर्देशित ‘पराजित’ नाटक में नरेन्द्र चंदेल के साथ सतीश तिवारी-मदन गुप्ता के संगीत निर्देशन में गायन किया। ‘पराजित’ नाटक के गीत श्याम श्रीवास्तव ने लिखे थे। इसी वर्ष ‘अनुकृति’ संस्था की नाट्य प्रस्तुति ‘लंगड़ी टांग’ में अनामिका ने बड़ी बहिन साधना उपाध्याय व हरिनाथ यादव के साथ पार्श्व गायन किया। विश्वभावन देवलिया के निर्देशन में प्रस्तुत किया गया यह नाटक हरिशंकर परसाई की रानी नागफनी की कहानी व अन्य रचनाओं पर आधारित था। परसाई के व्यंग्य को इलाहाबाद के सरनबली श्रीवास्तव ने नाट्य रूपांतरित किया था। ‘लंगड़ी टांग’ में ध्वनि संकलन का दायित्व जबलपुर के प्रसि‍द्ध मिमिक्री कलाकार राजनीकांत त्रिवेदी ने निभाया था। वर्ष 1975 अनामिका तिवारी के लिए एक महत्वपूर्ण वर्ष था। इस वर्ष जहां उन्होंने ‘हयवदन’ नाटक के लिए पार्श्व गायन किया, वहीं गोविंद मिश्रा के निर्देशन में ‘इतिहास चक्र’ नाटक में मोहिनी की महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई थी। उस समय दर्शकों महसूस होता था कि ‘इतिहास चक्र’ की मोहिनी की भूमिका संभवत: अनामिका को देख कर ही लिखी गई हो। ‘इतिहास चक्र’ में उस समय के जबलपुर में अभिनय के दिग्गज माने जाने वाले महेश गुरू, रावेन्द्र मोरे, कामता मिश्रा व कुमार किशोर जैसे कलाकारों ने अभिनय किया था। इन कलाकारों के बीच में अनामिका अपने विशिष्‍ट अभिनय के कारण पूरी नाट्य प्रस्तुति में अलग ही दिखी थीं। अखिल भारतीय रेल नाट्य प्रतियोगिता में अनामिका को इस नाटक में अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ कलाकार का पुरस्कार मिला था। ‘हयवदन’ नाट्य प्रस्तुति के लिए श्याम श्रीवास्तव ने चार गीत विशेष रूप से लिखे थे। बन आई सोन चिरैया, उजले से घोड़े पे हो के सवार आया रे आया राजकुमार, चंदन डुलिया बैठी रे दुल्हनियां जाना है उस पार और तन मन को बांधे क्यों सिर्फ एक देह के साथ जैसे गीत में सतीश तिवारी के संगीत ने चार चांद लगा दिए थे। इन गीतों को अनामिका तिवारी के साथ नरेन्द्र चंदेल, आभा तिवारी, साधना उपाध्याय व प्रदीप मिश्रा ने अपने स्वर दिए थे। नाटक के ये गीत उन दिनों जबलपुर में खूब लोकप्रिय हुए थे। गीतों में आभा तिवारी ने सितार, तेजराज मावजी ने सेक्साफोन क्लांरनेट, रत्नाकर कुंडले ने वायलिन और अल्हाद पंडित ने तबले पर संगत दी थी। तेजराज मावजी जबलपुर में कुशल बैंड वादक माने जाते थे। इस दौरान पारिवारिक जिम्‍मेदारियों व इंदौर स्‍थानांतरण हो जाने से अनामिका की जबलपुर के रंगकर्म में सक्रियता धीरे-धीरे कम होने लगी। लगभग बीस वर्ष बाद वर्ष 1995 में अनामिका तिवारी ने पार्वती पांडे के साथ संस्कृत के महान ग्रंथ त्र‍िपुरा रहस्यम् पर आधारित ‘श्री त्र‍िपुर सुंदरी विजयम्’ नाटक में मुख्य पार्श्व गायन किया था। नाटक में जबलपुर की उस समय की महापौर कल्याणी पांडे ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। नाटक का निर्देशन महेश गुरू व रामेन दत्ता ने किया था। संगीत पृथ्वीराज का था। इस नाटक के कलकत्ता के अलग-अलग सभागार में पांच मंचन हुए थे।


जबलपुर में कृषि विश्वविद्यालय में कार्यरत रहने के दौरान अनामिका तिवारी ने वर्ष 1972 से वर्ष 1976 तक आकाशवाणी के जबलपुर केन्द्र के लिए कृषि पर आधारित इंटरव्यू लिए। उन्होंने ‘कृषि‍ विश्वविद्यालय से खेतों तक’ के कार्यक्रम के लिए सैकड़ों इंटरव्यू लिए थे। यहां उन्होंने आकाशवाणी के नियमित स्टॉफ के स्थान पर इस कार्य को बहुत तन्मयता से किया था। अनामिका का वर्ष 1976 में इंदौर स्थानांतरण हो गया। यहां वे विजय नाट्य मंच से जुड़ गईं। एक दिन इंदौर में अनामिका को अचानक ही बाजार में जबलपुर के कीर्ति गोस्वामी मिल गए। कीर्ति गोस्‍वामी नाटकों में हास्य-व्यंग्य अभिनय करने में माहिर थे। जबलपुर में दोनों कई नाटकों में साथ काम कर चुके थे। कीर्ति गोस्‍वामी ने अनामिका का परिचय विजय दीक्षित से करवाया। जबलपुर के दोनों कलाकारों से प्रभावित विजय दीक्षित ने ‘विजय नाट्य मंच’ की स्थापना की। इस संस्‍था में वियज दीक्षित ने अनामिका को कई जिम्‍मेदारियां भी सौंपी। संस्‍था के छोटे-मोटे आयोजनों के साथ बड़े आयोजन के लिए जबलपुर की नाट्य संस्‍था ‘कचनार’ के दो नाटक ‘सगुन पंछी’ व ‘सिंहासन खाली है’ का मंचन इंदौर में करवाने की योजना बनी। नाटकों के मंचन के पूर्व ‘कचनार’ संस्था के कुमार किशोर व्‍यवस्‍थाओं के जायजे के लिए इंदौर आए। विजय दीक्षित नाटक संबंधी बातों को तय करने उपरांत जब कुमार किशोर को रेलवे स्टेशन छोड़ने गए, तब अचानक ट्रेन चलने से विजय दीक्षित डिब्‍बे डिब्बे से कूदे। गनीमत है उनकी जान बच गई, परन्‍तु पैर में फ्रैक्चर हो गया। इस हादसे के उपरांत अचानक ही अनामिका पर नाटक करवाने का सारा दारोमदार आ गया। उन्होंने इंदौर में नाटक के मंचन की जिम्मेदारी उठाते हुए जबलपुर से आने वाली ‘कचनार’ की टीम को होटल की बजाए कृषि महाविद्यालय के गेस्‍ट हाउस में ठहराने की व्‍यवस्‍था की। पूरी टीम की खाने की व्‍यवस्‍था स्‍वयं के घर में की। नाटकों के मंचन का प्रचार-प्रसार रिक्‍शे में भोंपू लगा कर मुनादी तक पिटवाई। नाटक के टिकट बिकवाने में अनामिका के महाविद्यालय के स्टाफ ने उनको सहयोग दिया। दोनों नाटकों का सफल मंचन रवीन्‍द्र नाट्य गृह में हुआ। इन नाटकों में अनामिका की बड़ी बहिन साधना ने भी अभिनय किया। इंदौर में ही उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने के मौके मिले। अनामिका ने अकेले नाटक का आयोजन करने से मिले आत्मविश्वास की बदौलत जबलपुर के कुलकर्णी बंधु (हेमंत व दत्तात्रेय) का कार्यक्रम इंदौर में आयोजित किया। इंदौर में अनामिका को रंगकर्म में नया आयाम निर्देशक के रूप में मिला। यहां उन्‍होंने सीता स्‍वयंवर, पुरस्‍कार, दर्दे-ए-आयात और रानी दुर्गावती जैसे नाटकों में अभिनय के साथ उनका निर्देशन भी किया। ये नाटक जबलपुर व इंदौर के कृषि‍ महाविद्यालयों के विद्यार्थ‍ियों ने प्रस्तुत किए थे। अनामिका ने इंदौर के कृषि महाविद्यालय में नाटक व सांस्‍कृतिक गतिविधि को बढ़ावा देने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई।


वर्ष 1977 में अनामिका ने आकाशवाणी केन्‍द्र इंदौर से नाटकों का और वर्ष 1978 में सुगम गानों का ऑडीशन पास किया। आकाशवाणी के इंदौर केन्द्र में अनामिका को रणजीत सतीश, भारत रत्न भार्गव, स्वतंत्र कुमार ओझा, संतोष जोशी व इंदू आनंद से रेडियो नाटक व उनके प्रस्तुतिकरण के बारे में काफ़ी सीखने को मिला। इन्हीं लोगों के मार्गदर्शन में अनामिका ने वर्ष 1977 में ‘अदालत में महिला गवाह’ व ‘दृष्टिकोण’, वर्ष 1979 में ‘उपेक्षित’ व वर्ष 1980 में ‘तथागत के चरणों’ रेडियो नाटक में काम किया। रेडियो के लिए उन्‍होंने रामानुज लाल श्रीवास्‍तव ऊंट की कहानी (हम इश्‍क के बंदे हैं) ‘कहानी चक्र’ का नाट्य रूपांतरण ‘शक का भूत’ के नाम से किया। भवानी प्रसाद तिवारी की स्‍वतंत्रता संग्राम जीवनी का नाट्य रूपांतरण ‘आज़ादी के पथिक भवानी प्रसाद तिवारी’ के नाम से किया। अनामिका तिवारी ने इसके अलावा ‘लगी सुख सावन की झिरियां’ व ‘मैं तो हो गई पानी राजा हो गए पपीहरा’ रेडियो नाटक रूपक लिखे। ‘मैं तो हो गई पानी राजा हो गए पपीहरा’ का प्रसारण एक साथ आकाशवाणी के 19 केन्द्रों द्वारा किया गया। अनामिका लिखित रेडियो नाटक अमृत और विष, आईना व परछाई काफ़ी लोकप्रिय रहे। परछाई रेडियो नाटक का प्रसारण भी 19 आकाशवाणी केन्द्रों से एक साथ किया गया। उनका लिखा रेडियो नाटक ‘प्रत्‍यागमन’ अभी अप्रसारित है। विवाह के पश्चात् अनामिका ने जबलपुर के शारदा प्रसाद भट्ट व मधुकर राव पाठक से गायन में सिद्धहस्त होने के लिए संगीत सीखा। अनामिका ने शारदा प्रसाद भट्ट से विशेष रूप से ठुमरी व दादरा सीखा।


अनामिका तिवारी ने वर्ष 2018 में एक पूर्णकालिक नाटक ‘शूर्पणखा’ लिखा। यह नाटक पुस्‍तक के रूप में प्रकाशित हुआ है। उनका एक पूर्णकालिक नाटक ‘आग और फूस’ छप कर आने वाला है। उन्‍होंने कुछ व्‍यंग्‍य नाटक भी लिखे हैं, जिसमें ‘चन्‍द्र खिलौना लै हों बापू’ चर्चित हुआ है। अनामिका की व्‍यंग्‍य पुस्‍तक ‘दरार बिना घर सूना’ के विमोचन के अवसर उनके दो व्‍यंग्‍य- ‘हमको उनसे वफ़ा की है उम्‍मीद’ व ‘राजकाज’ का नाट्य रूपांतरण जबलपुर की ‘रंग टोली’ संस्‍था द्वारा किया गया था। ‘शूर्पणखा’ नाटक लेखन के लिए अनामिका तिवारी को गिरजादेवी स्‍मृति पुरस्‍कार व सेठ गोविंददास स्‍मृति पुरस्‍कार प्रदान किए गए। उन्‍होंने कृषि विश्‍वविद्यालय में सांस्‍कृतिक समन्‍वय के रूप में कई वर्षों तक युवा संसद (मॉक पार्लियामेंट) हेतु लेखन, स्क्रिप्‍ट, निर्देशन व संचालन किया। अनामिका ने इस विषय पर एक पुस्‍तक भी लिखी है। अभी यह पांडुलिपी स्‍वरूप में है। यदि इसका प्रकाशन संभव होता है, तो निश्चित रूप से संसदीय प्रक्रिया को समझने के लिए यह पुस्‍तक विद्यार्थियों के लिए उपयोगी साबित होगी।


अनामिका तिवारी ने रंगकर्म, पारिवारिक जिम्‍मेदारियों व नौकरी के मध्‍य संतुलन बनाए रखते हुए वर्ष 1993 में डाक्‍टरेट किया। कृषि वैज्ञानिक के रूप में फसल व पौधों की बीमारियों पर किए गए उनके शोध कार्यों व शोध पत्रों को राष्‍ट्रीय व अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर की संस्‍थाओं से मान्‍यता व पुरस्‍कार मिले। इन्‍हीं व्‍यस्‍तताओं के कारण अनामिका ‘अंधा युग’ में कुंती की भूमिका नहीं निभा पाईं थीं। उनकी अनुपलब्‍धता के कारण निर्देशक विश्‍वभावन देवलिया ने इस नाटक का मंचन ही नहीं किया। अनामिका तिवारी लंबे समय तक जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्‍वविद्यालय की सांस्‍कृतिक समन्‍वयक रहीं। इस भूमिका को निभाते हुए उन्‍होंने कई राष्‍ट्रीय प्रतियोगिताओं में विश्‍वविद्यालय को स्‍वर्णिम सफलताएं दिलवाईं। अनामिका तिवारी मध्‍यप्रदेश की प्रथम पौध रोग वैज्ञानिक के रूप में कृषि विश्‍वविद्यालय के पौध रोग विभाग के प्रोफेसर व विभागाध्‍यक्ष पद से वर्ष 2007 में सेवानिवृत्‍त हुईं।


वर्तमान में अनामिका तिवारी साहित्‍यिक रूप से सक्रिय हैं। उनकी पुत्री विजयश्री खन्‍ना एक गायिका व रंगकर्मी हैं। विजयश्री के पति व अनामिका के दामाद संजय खन्‍ना की पहचान एक उत्‍कृष्‍ट नाट्य अभिनेता के रूप में रही है, लेकिन कुछ वर्ष पूर्व उनका आकस्मिक निधन हो गया। बड़े पुत्र अनिमेष युवा संगीतकार के रूप में कुछ नाट्य प्रस्‍तुतियों में संगीत दे चुके हैं। छोटे पुत्र अभि‍षेक की नाटकों में अभिनय करने में रूचि है। पुत्री व पुत्रों के पास माता-पिता की भरपूर विरासत है। अनामिका तिवारी ने कभी सोचा ही नहीं था कि गायन, रंगकर्म से होता हुआ उनका जीवन एक कृषि वैज्ञानिक तक पहुंचेगा।
***

सोमवार, 9 अगस्त 2021

कुण्डलिया, मुक्तक

कुण्डलिया
दशरथनंदन दुलारे, सिया न आईं याद
बलिहारी है समय की, करें कहाँ फरियाद
करें कहाँ फरियाद, सिया बिन राम अधूरे
रमा बिना हरि कहें, किस तरह होंगे पूरे
प्रभु को कम निज माथ, लगाते ज्यादा चंदन
भोग खा रहे भक्त, न पाते दशरथनंदन
***
मुक्तक
वही अचल हो सचल समूची सृष्टि रच रहा
कण-कणवासी किन्तु दृष्टि से सदा बच रहा
आँख खोजती बाहर वह भीतर पैठा है
आप नाचता और आप ही आप नच रहा
*
श्री प्रकाश पा पाँव पलोट रहा राधा के
बन महेश-सिर-चंद्र, पाश काटे बाधा के
नभ तारे राकेश धरा भू वज्र कुसुम वह-
तर्क-वितर्क-कुतर्क काट-सुनता व्याधा के
*
राम सुसाइड करें, कृष्ण का मर्डर होता
ईसा बन अपना सलीब वह खुद ही ढोता
बने मुहम्मद आतंकी जब-जब जय बोलें
तब-तब बेबस छिपकर अपने नयन भिगोता
*
पाप-पुण्य क्या? सब कर्मों का फल मिलना है
मुरझाने के पहले जी भरकर खिलना है
'सलिल' शब्द-लहरों में डूबा-उतराता है
जड़ चेतन होना चाहे तो खुद हिलना है
९-८-२०२०
*

दोहा है रस-कोष

दोहा है रस-कोष
रसः काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला अलौकिक आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस को साहित्य की आत्मा तथा ब्रम्हानंद सहोदर रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं।
विभिन्न संदर्भों में रस का अर्थ: एक प्रसिद्ध सूक्त है- 'रसौ वै स:' अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनंद है। 'कुमारसंभव' में प्रेमानुभूति, पानी, तरल और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृति' मदिरा के लिए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चौबीस गुणों में एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय। स्वाद, रुचि और इच्छा के अर्थ में भी कालिदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'रघुवंश', आनंद व प्रसन्नता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में किसी कविता की भावभूमि को रस कहते हैं। रसपूर्ण वाक्य को काव्य कहते हैं।
भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुर्वेद' में शरीर के संघटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणि को रसरत्न कहते हैं। मान्यता है कि पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उत्तररामचरित' में इसके लिए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भर्तृहरि काव्यमर्मज्ञ को रससिद्ध कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रसप्रबन्ध' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
रस प्रक्रिया: विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से मानव-ह्रदय में रसोत्पत्ति होती है। ये तत्व ह्रदय के स्थाई भावों को परिपुष्ट कर आनंदानुभूति करते हैं। रसप्रक्रिया न हो मनुष्य ही नहीं सकल सृष्टि रसहीन या नीरस हो जाएगी। संस्कृत में रस सम्प्रदाय के अंतर्गत इस विषय का विषद विवेचन भट्ट, लोल्लट, श्न्कुक, विश्वनाथ कविराज, आभिंव गुप्त आदि आचार्यों ने किया है। रस प्रक्रिय के अंग निम्न हैं-
१. स्थायी भाव- मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस श्रृंगार हास्य करुण रौद्र वीर भयानक वीभत्स अद्भुत शांत वात्सल्य
स्थायी भाव रति हास शोक क्रोध उत्साह भय घृणा विस्मय निर्वेद संतान प्रेम
२. विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार अ. आलंबन व आ. उद्दीपन हैं। ‌
अ. आलंबन: आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌श्रृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
आ. उद्दीपन विभाव- आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। कभी-कभी प्रकृति भी उद्दीपन का कार्य करती है। यथा पावस अथवा फागुन में प्रकृति की छटा रस की सृष्टि कर नायक-नायिका के रति भाव को अधिक उद्दीप्त करती है। न सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
३. अनुभावः आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना या हास्य रसाधीन व्यक्ति का जोर-जोर से हँसना, नाईक के रूप पर नायक का मुग्ध होना आदि।
४. संचारी (व्यभिचारी) भावः आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रसों पर दोहा
श्रृंगार: स्थाई भाव रति, आलंबन विभाव नायक-नायिका, उद्दीपन विभाव एकांत, उद्यान, शीतल पवन, चंद्र, चंद्रिकाक आदि। अनुभाव कटाक्ष, भ्रकुटि-भंग, अनुराग-दृष्टि आदि । संचारी भाव उग्रता, मरण, आलस्य, जुगुप्सा के आलावा शेष सभी।
संयोग श्रृंगार: नायक-नायिका का सामीप्य या मिलन।
।।चली मचलती-झूमती, सलिला सागर-अंक। द्वैत मिटा अद्वैत वर, दोनों हुए निशंक।।
वियोग श्रृंगार: नायक-नायिका का दूर रह के मिलन हेतु व्याकुल होना।
।।चंद्र चंद्रिका से बिछड़, आप हो गया हीन। खो सुरूप निज चाँदनी, हुई चाँद बिन दीन ।।
हास्य : स्थाई भाव विकृत रूप या वाणीजनित विकार। आलंबन विकृत वस्तु या व्यक्ति। अनुभव आँखें मींचना, मुँह फैलाना आदि। संचारी भाव निद्रा, आलस्य, चपलता, उद्वेग आदि।
।।दफ्तर में अफसर कहे, अधीनस्थ को फूल। फूल बिना घर गए तो, कहे गए खुद फूल।।
(फूल = मूर्ख, पुष्प)
व्यंग्य: स्थाई भाव विकृत रूप या वाणीजनित विकार। आलंबन विकृत वस्तु या व्यक्ति। अनुभव आँखें मींचना, मुँह फैलाना, तिलमिलाना आदि। संचारी भाव निद्रा, आलस्य, चपलता, उद्वेग आदि।
।।वादा कर जुमला बता, झट से जाए भूल। जो नेता वह हो सफल, बाकी फाँकें धूल।।
करुण रस: स्थाई भाव शोक, दुःख, गम। आलंबन मृत या घायल व्यक्ति, पतन, हार। उद्दीपन मृतक-दर्शन, दिवंगत की स्मृति, वस्तुएँ, चित्र आदि। अनुभाव धरती पर गिरना, विलाप, क्रुन्दन, चीत्कार, रुदन आदि। संचारी भाव निर्वेद, मोह, अपस्मार, विषाद आदि।
।।माँ की आँखों से बहें, आँसू बन जल-धार। निज पीड़ा को भूलकर, शिशु को रही निहार।।
रौद्रः स्थाई भाव क्रोध, गुस्सा। आलंबन अपराधी, दोषी आदि। उद्दीपन अपराध, दुष्कृत्य आदि। अनुभाव कठोर वचन, डींग मारना, हाथ-पैर पटकना। संचारी भाव अमर्ष, मद, स्मृति, चपलता,गर्व, उग्रता आदि।
।।शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌. जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।।
वीरः स्थाई भाव उत्साह, वीरता। आलंबन शत्रु याचक, धर्म, कर्तव्य आदि। आश्रय उत्साही, वीर आदि। उद्दीपन रण-वाद्य, यशेच्छा, धर्म-ग्रंथ, कर्तव्य-बोध, रुदन आदि। अनुभाव भुजा फडकना, नेत्र लाल होना, मुट्ठी बाँधना, ताल ठोंकना, मूँछ उमेठना, उदारता, धर्म-रक्षा, सांत्वना आदि। संचारी भाव उत्सुकता, संतोष, हर्ष, शांति, धैर्य, हर्ष आदि।
।।सीमा में बैरी घुसा, उठो, निशाना साध। ह्रदय वेध दो वीर तुम, मृग मारे ज्यों व्याध।।
भयानकः स्थाई भाव भय, डर आदि। आलंबन प्राणघातक प्राणी शेर आदि। उद्दीपन आलंबन की हिंसात्मक चेष्टा, डरावना रूप आदि। अनुभाव शरीर कांपना, पसीना छूटना, मुख सूखना आदि। संचारी भाव देनी, सम्मोह आदि।
।। लपट कराल गगन छुएँ, दसों दिशाएँ तप्त। झुलस जले खग वृंद सब, जीव-जंतु संतप्त।।
वीभत्सः स्थाई भाव जुगुप्सा, घृणा आदि। आलंबन दुर्गंधमय मांस-रक्त, घृणित पदार्थ। उद्दीपन घृणित वस्तुएँ व रूप। अनुभाव नाक=भौं सिकोड़ना, मुँह बनाना, नाक बंद करना आदि। संचारी भाव आवेग, शंका, मोह आदि।
।। हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध। हँसते जन-का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।।
अद्भुतः स्थाई भाव विस्मय, आश्चर्य, अचरज। आलंबन आश्चर्यजनक वस्तु, घटना आदि। उद्दीपन अलौकिकतासूचक तत्व। अनुभव प्रशंसा, रोमांच, अश्रु आदि। संचारी भाव हर्ष, आवेग, त्रास आदि।
।। खाली डब्बा दिखाया, पलटा पक्षी-फूल। उड़े-हाथ में देख सब, चकित हुए क्या मूल।।
शांतः स्थाई भाव निर्वेद। आलंबन ईश-चिंतन, वैराग, नश्वरता आदि। उद्दीपन सत्संग, पुण्य, तीर्थ-यात्रा आदि। अनुभाव समानता, रोमांच, गदगद होना। संचारी भाव मति, हर्ष, स्मृति आदि।
।।घर में रह बेघर हुआ, सगा न कोई गैर। श्वास-आस जब तक रहे, कर प्रभु सँग पा सैर।।
वात्सल्यः स्थाई भाव ममता। आलंबन शिशु आदि। उद्दीपन शिशु से दूरी। अनुभाव शिशु का रुदन। संचारी भाव लगाव।
।। छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल। पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल।।
भक्तिः स्थाई भाव ईश्वर से प्रेम। आलंबन मूर्ति, चित्र आदि। उद्दीपन अप्राप्ति। अनुभाव सांसारिकता। संचारी भाव आकर्षण।
।।करुणासींव करें कृपा, चरण-शरण यह जीव। चित्र गुप्त दिखला इसे, करिए प्रभु संजीव।।
विरोध: स्थायी भाव आक्रोश। आलंबन कुव्यवस्था, अवांछनीय तत्व। उद्दीपन क्रूर व्यवहार। अनुभाव सुधर या परिवर्तन की चाह। संचारी भाव दैन्य, उत्साहहीनता, शोक, भय, जड़ता, संताप आदि। (श्री रमेश राज, अलीगढ़ प्रणीत नया रस)
दोहा लेखन के सूत्र:
१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं।
२. हर पद में दो चरण होते हैं।
३. विषम (१-३) चरण में १३-१३ तथा सम (२-४) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. विषम चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है। कबीर, तुलसी, बिहारी जैसे कालजयी दोहकारों ने ग्यारहवीं मात्रा लघु रखे बिना भी अनेक उत्तम दोहे कहे हैं।
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं।
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि जैसे देशज क्रिया रूपों का उपयोग न करें।
८. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग न करें।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके।
१२. दोहे में कारक का प्रयोग कम से कम हो।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहा सम तुकांत छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
१६. दोहा में एक ही शब्द को भिन्न-भिन्न मात्रा भार में प्रयोग किया जा सकता है बशर्ते उतनी कुशलता हो। यथा कैकेई ६, कैकई ५, कैकइ ४ के रूप में तुलसीदास जी ने प्रयोग किया है।
१७. दोहा पदांत में एक वर्ग के भिन्न अक्षर भी लिए जा सकते हैं। 
काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ। 
सब परिहरि रघुबीरहि, भजहु भजहि जेहि संत।। (तुलसीदास, सुन्दरकाण्ड दोहा ३८)
१८. दोहा में पदांत के शब्दों में एक में लघु मात्रा हो, दूसरे में न हो तो भी ग्राह्य है, यदि गुरु लघु हो। 
अहोभाग्य मम अमित अति, राम कृपा सुख पुंज। 
देखेउँ नयन बिरंचि सिव, सेबी जुगल पद कंज।।  (तुलसीदास, सुन्दरकाण्ड दोहा ४७)
९-८-२०१८
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सावनी घनाक्षरियाँ

सावनी घनाक्षरियाँ :
सावन में झूम-झूम
संजीव वर्मा "सलिल"
*
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
*
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*

चित्र पर मुक्तक



संलग्न चित्र को देखकर मन में उमड़ते भावों को टिप्पणी में प्रस्तुत करें-
चित्र पर मुक्तक
आँखों में जिज्ञासा, आमंत्रण या वर्जन?
मौन धरे अधरों ने पैदा की है उलझन
धनुष भौंह पर तीर दृष्टि के चढ़े हुए हैं-
नागिन लट मोहे, भयभीत करे कर नर्तन

मुक्तक

मुक्तक
वही अचल हो सचल समूची सृष्टि रच रहा
कण-कणवासी किन्तु दृष्टि से सदा बच रहा
आँख खोजती बाहर वह भीतर पैठा है
आप नाचता और आप ही आप नच रहा
*
श्री प्रकाश पा पाँव पलोट रहा राधा के
बन महेश-सिर-चंद्र, पाश काटे बाधा के
नभ तारे राकेश धरा भू वज्र कुसुम वह-
तर्क-वितर्क-कुतर्क काट-सुनता व्याधा के
*
राम सुसाइड करें, कृष्ण का मर्डर होता
ईसा बन अपना सलीब वह खुद ही ढोता
बने मुहम्मद आतंकी जब-जब जय बोलें
तब-तब बेबस छिपकर अपने नयन भिगोता
*
पाप-पुण्य क्या? सब कर्मों का फल मिलना है
मुरझाने के पहले जी भरकर खिलना है
'सलिल' शब्द-लहरों में डूबा-उतराता है
जड़ चेतन होना चाहे तो खुद हिलना है
९-८-२०१७
*

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
दुनिया रंग रँगीली
बाबा
दुनिया रंग रँगीली रे!
*
धर्म हुआ व्यापार है
नेता रँगा सियार है
साध्वी करती नौटंकी
सेठ बना बटमार है
मैया छैल-छबीली
बाबा
दागी गंज-पतीली रे!
*
संसद में तकरार है
झूठा हर इकरार है
नित बढ़ते अपराध यहाँ
पुलिस भ्रष्ट-लाचार है
नैतिकता है ढीली
बाबा
विधि-माचिस है सीली रे!
*
टूट रहा घर-द्वार है
झूठों का सत्कार है
मानवतावादी भटके
आतंकी से प्यार है
निष्ठां हुई रसीली
बाबा
आस्था हुई नशीली रे!
९-८-२०१५
***

रविवार, 8 अगस्त 2021

तमाशा

शब्द सलिला : तमाशा
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हिंदी तमाशा - संस्कृत, पुल्लिंग, संज्ञा, मन को प्रसन्न करने वाला दृश्य; मनोरंजक दृश्य, वह खेल जिससे मनोरंजन होता है, अद्भुत व्यापार या कार्य; अनोखी बात, खेलकूद, हँसी आदि की कोई घटना, ।
मराठी तमाशा -
महाराष्ट्र की एक लोककला, लोक नाट्य, निर्लज्जता भरा काम या व्यवहार या उलटी-पुलटी हरकत, खेल का प्रदर्शन, वह दृश्य जिसके देखने से मनोरंजन हो, मन को प्रसन्न करने वाला दृश्य।
तमाश: تماشا. फ़ारसी, पुल्लिंग , तमाशा अरबी पुलिंग
सैर, तफ़रीह, दीदार, लुत्फ़, वाज़ीगरों या मदारियों का खेल, नाटक, अजूबापन, हँसी-मज़ाक, भाँड़ों या बहुरूपियों की नक़ल या स्वाँग।
तमाशाई - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = तमाशा देखनेवाला।
तमाशाकुनां - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = सैर से दिल बहलाता हुआ।
तमाशाखानम - अरबी, तुर्की, स्त्रीलिंग, = हँसने-हँसानेवाली महिला।
तमाशागर - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = तमाशा करनेवाला, कौतुकी।
तमाशागाह - अरबी, फ़ारसी, स्त्रीलिंग = वहजगह जहाँ तमाशा होता है, लीलागृह, कौतुकागार, क्रीड़ास्थल।
तमाशाबीं - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = तमाशा देखनेवाला, कौतुकदर्शी।
तमाश गीर / बीन हिंदी पुल्लिंग = तमाशा देखनेवाला, कौतुकदर्शी, अय्याश।
तमाशबीनी हिंदी पुल्लिंग = अय्याशी।
English Tamasha - noun, spectacle, pageant, show, entertainment, exhibition, amusement.
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काव्य पंक्तियाँ / अशआर
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दोहे - संजीव वर्मा 'सलिल'
कौन तमाशा कर रहा, देख रहा है कौन
पूछ आईने से लिया, उत्तर पाया मौन
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आप तमाशागर करे, यहाँ तमाशा रोज
किसे तमाशाई कहें, करिये आकर खोज
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मंदिर-मस्जिद हो गए, हाय! तमाशागाह
हैरत में भगवान है, मुश्किल में अल्लाह
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आप तमाशागर यहाँ, आप तमाशागीर
करें तमाशा; बाप की, संसद है जागीर
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तमाशा देख रहे थे जो डूबने का मिरे
मिरी तलाश में निकले हैं कश्तियाँ ले कर - अज्ञात
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चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
जा तमाशा देख उस रुख़्सार का - वली मोहम्मद वली
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इश्क़ और अक़्ल में हुई है शर्त
जीत और हार का तमाशा है - सिराज औरंगाबादी
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है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
इक तुर्फ़ा तमाशा है 'हसरत' की तबीअत भी - हसरत मोहानी
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कभी उनका नहीं आना ख़बर के ज़ैल में था
मगर अब उनका आना ही तमाशा हो गया है -अरशद कमाल
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शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है -बशीर बद्र
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जो कुछ निगाह में है हक़ीक़त में वो नहीं
जो तेरे सामने है तमाशा कुछ और है - आफ़ताब हुसैन
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ये मोहब्बत है इसे देख तमाशा न बना
मुझ से मिलना है तो मिल हद्द-ए-अदब से आगे - ज़करिय़ा शाज़
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ज़िंदगी टूट के बिखरी है सर-ए-राह अभी
हादिसा कहिए इसे या कि तमाशा कहिए - दाऊद मोहसिन
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हमारे इश्क़ में रुस्वा हुए तुम
मगर हम तो तमाशा हो गए हैं - अतहर नफ़ीस
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तब्अ तेरी अजब तमाशा है
गाह तोला है गाह माशा है - शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो
जुदा हो दीं सियासत से तो रह जाती है चंगेज़ी - अल्लामा इक़बाल
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ये मेरे गिर्द तमाशा है आँख खुलने तक
मैं ख़्वाब में तो हूँ लेकिन ख़याल भी है मुझे - मुनीर नियाज़ी
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वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
कुछ लोग बिखर कर भी तमाशा नहीं होते - ज़ेहरा निगाह
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हक़ीक़त को तमाशे से जुदा करने की ख़ातिर
उठा कर बारहा पर्दा गिराना पड़ गया है - मुस्तफ़ा शहाब
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ग़म अपने ही अश्कों का ख़रीदा हुआ है
दिल अपनी ही हालत का तमाशाई है देखो - ज़ेहरा निगाह
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रोती हुई एक भीड़ मिरे गिर्द खड़ी थी
शायद ये तमाशा मिरे हँसने के लिए था - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
८-८-२०२०
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चिकित्सा सलिला

चिकित्सा सलिला
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नुस्खे
गैंग्रीन (अंग का सड़ जाना) Osteomyelitis, कटे-पके घाव का इलाज
मधुमेह रोगी (डाईबेटिक पेशेंट) की चोट जल्दी ठीक ही नही हो तो धीरे धीरे गैंग्रीन (अंग का सड़ जाना) में बदल जाती है अंत में वह अंग काटना पड़ता है। गैंग्रीन माने अंग का सड़ जाना, जहाँ पे नए कोशिका विकसित नही होते। न तो मांस में और न ही हड्डी में और सब पुराने कोशिका मरते चले जाते हैं। Osteomyelitis में भी कोशिका कभी पुनर्जीवित नही होती, जिस हिस्से में हो वहाँ बहुत बड़ा घाव हो जाता है और वो ऐसा सड़ता है कि काटने केअलावा और कोई दूसरा उपाय नही रहता।
एक औषधि है जो गैंग्रीन को भी ठीक करती है और Osteomyelitis (अस्थिमज्जा का प्रदाह) को भी ठीक करती है।इसे आप अपने घर में तैयार कर सकते हैं। औषधि है देशी गाय का मूत्र (आठ परत सूती कपड़े में छानकर) , हल्दी और गेंदे का फूल। पीले या नारंगी गेंदे के फुल की पंखुरियाँ निकालकर उसमें हल्दी मिला दें फिर गाय मूत्र में डालकर उसकी चटनी बना लें। यह चटनी घाव पर दिन में दो बार लगा कर उसके ऊपर रुई रखकर पट्टी बाँधिए। चटनी लगाने के पहले घाव को छाने हुए जो मूत्र से ही धो लें। डेटोल आदि का प्रयोग मत करिए।
यह बहुत प्रभावशाली है। इस औषधि को हमेशा ताजा बनाकर लगाना है। किसी भी प्रकार का ज़ख्म जो किसी भी औषधि से ठीक नही हो रहा है तो यह औषधि आजमाइए। गीला सोराइसिस जिसमेँ खून भी निकलता है, पस भी निकलता है उसको यह औषधि पूर्णरूप से ठीक कर देती है। दुर्घटनाजनित घाव पर इसे अलगते ही रक्त स्राव रुक जाता है। ऑपरेशन के घाव के लिए भी यह उत्तम औषधि है। गीले एक्जीमा में यह औषधि बहुत काम करती है, जले हुए जखम में भी लाभप्रद है।
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हाथ, पैर और तलुओं की जलन
हाथ-पैर, तलुओं और शरीर में जलन की शिकायत हो तो ५ कच्चे बेल के फलों के गूदे को २५० मिली लीटर नारियल तेल में एक सप्ताह तक डुबाये रखने के बाद में छानकर जलन देने वाले शारीरिक हिस्सों पर मालिश करनी चाहिए, अतिशीघ्र जलन की शिकायत दूर हो जाएगी।
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दस्त - डायरिया
नींबू का रस निकालने के बाद छिलके छाँव में रखकर सुखा लें। कच्चे हरे केले का छिल्का उतारकर बारीक-बारीक टुकड़े करें और इसे भी छाँव में सुखा लें। केले में स्टार्च और नीबू के छिल्कों मे सबसे ज्यादा मात्रा में पेक्टिन होता है। दोनों अच्छी तरह सूख जाएँ तो समान मात्रा लेकर बारीक पीस लें या मिक्सर में एक साथ ग्राइंड कर लें। यह चूर्ण दस्त और डायरिया का अचूक इलाज है। दो-दो घंटे के अंतराल से १ चम्मच चूर्ण खाइये। शीघ्र आराम मिलता है।

दोहा सलिलाः

दोहा सलिलाः
संजीव
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प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अन्तर्मन जागृत करें, सन्त बन सकें सन्त
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आशा पर आकाश है, कहते हैं सब लोग
आशा जीवन श्वास है, ईश्वर हो न वियोग
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जो न उषा को चाह्ता, उसके फूटे भाग
कौन सुबह आकर कहे, उससे जल्दी जाग
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लाल-गुलाबी जब दिखें, मनुआ प्राची-गाल
सेज छोड़कर नमन कर, फेर कर्म की माल
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गाल टमाटर की तरह, अब न बोलना आप
प्रेयसि के नखरे बढ़ें, प्रेमी पाये शाप.
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प्याज कुमारी से करे, युवा टमाटर प्यार
किसके ज्यादा भाव हैं?, हुई मुई तकरार
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८.८.२०१४

मुक्तक

मुक्तक

रंज ना कर मुक्ति की चर्चा न होती बंधनों में
कभी खुशियों ने जगह पाई तनिक क्या क्रन्दनों में?
जो जिए हैं सृजन में सच्चाई के निज स्वर मिलाने
'सलिल' मिलती है जगह उनको न किंचित वंदनों में
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मधु रहे गोपाल बरसा वेणु वादन कर युगों से
हम बधिर सुन ही न पाते, घिरे हैं छलिया ठगों से
कहाँ नटनागर मिलेगा,पूछते रणछोड़ से क्यों?
बढ़ चलें सब भूल तो ही पा सकें नन्हें पगों से
८-८-२०१७
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दोहा सलिला

दोहा सलिला:
अलंकारों के रंग-राखी के संग
संजीव 'सलिल'
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राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
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राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
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मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
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अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
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रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
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बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
बंध न = मुक्त रह, बंधन = मुक्त न रह
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हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
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कब आएगा बंधु? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, बंधु खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
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मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना.
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गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
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गीत

 गीत:

कब होंगे आजाद
संजीव 'सलिल'
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कब होंगे आजाद?
कहो हम कब होंगे आजाद?....
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गए विदेशी पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन.
भाषण देतीं सरकारें पर दे न सकीं हैं राशन..
मंत्री से संतरी तक कुटिल कुतंत्री बनकर गिद्ध-
नोच-खा रहे भारत माँ को ले चटखारे स्वाद.
कब होंगे आजाद?कहो हमकब होंगे आजाद?....
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नेता-अफसर दुर्योधन हैं, जज-वकील धृतराष्ट्र.
धमकी देता सकल राष्ट्र को खुले आम महाराष्ट्र..
आँख दिखाते सभी पड़ोसी, देख हमारी फूट-
अपने ही हाथों अपना घर करते हम बर्बाद.
कब होंगे आजाद?कहो हमकब होंगे आजाद?....
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खाप और फतवे हैं अपने मेल-जोल में रोड़ा.
भष्टाचारी चौराहे पर खाए न जब तक कोड़ा.
तब तक वीर शहीदों के हम बन न सकेंगे वारिस-
श्रम की पूजा हो समाज में, ध्वस्त न हो मर्याद.
कब होंगे आजाद?कहो हमकब होंगे आजाद?....
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पनघट फिर आबाद हो सकें, चौपालें जीवंत.
अमराई में कोयल कूके, काग न हो श्रीमंत.
बौरा-गौरा साथ कर सकें नवभारत निर्माण-
जन न्यायालय पहुँच गाँव में विनत सुनें फ़रियाद-
कब होंगे आजाद?कहो हम कब होंगे आजाद?....
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रीति-नीति, आचार-विचारों, भाषा का हो ज्ञान.
समझ बढ़े तो सीखें रुचिकर, धर्म प्रीति विज्ञान.
सुर न असुर, हम आदम यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग 'सलिल' हो पायेगा तब धरती पर आबाद.
कब होंगे आजाद?कहो हम कब होंगे आजाद?....
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८-९-२०१० 

जयप्रकाश श्रीवास्तव, समीक्षा

 कृतिचर्चा :

'रेत हुआ दिन' गीत के बिन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण : रेत हुआ दिन, नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण अगस्त २०२०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., पृष्ठ संख्या १२४, आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १५०/-, युगधारा प्रकाशन लखनऊ, गीतकार संपर्क : ७८६९१ ९३९२७, ९७१३५ ४४६४२।] 
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मनुष्य का गीत से प्रथम परिचय माँ की लोरी के मध्यम से होता है। गर्भ में लोरता (करवट बदलता)  गुनगुनाहट की प्रतीति से हर्षित होता है। अभिमन्यु ने चक्रव्यूह प्रवेश की विद्या माँ सुभद्रा के गर्भ में ही सीखी थी। इस पौराणिक आख्यान की पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी करता है। श्वास-प्रश्वास की लय के साथ माँ के कंठ से नि:सृत गीत को शिशु जन्म पूर्व ही पहचान लेता है और जन्मोपरांत सुन कर रोते-रोते चुप हो जाता है। वाचिक लय बद्ध गीतिकाव्य लिपिबद्ध होने पर वार्णिक-मात्रिक छंद के रूप में पहचाना जाकर 'गीत' कहलाता है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, रस, छंद, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक, मिथक, शैली आदि हैं। गीत के किसी तत्व में 'नवता' होने पर उसे 'नवगीत' कहा जाना चाहिए जैसे यौवन में प्रवेश करते युवा को 'नवयुवक' कहा जाता है। 'नवता' रूढ़ नहीं हो सकती, वह सतत परिवर्तित होती चेतना है। हिंदी में नवगीत को आंदोलन की तरह अधिरोपित करने का प्रयास साम्यवाद के प्रति प्रतिबध्द गीतकारों ने लगभग आठ दशक पूर्व किया। तब जिसने जैसी परिभाषा प्रस्तुत की उसे रूढ़ मानकर आज भी नवगीत रचे जा रहे हैं। अंतर मात्र यह है कि आरंभ में जो विषय और विचार नए थे, वे अब घिसते-घिसते जराजीर्ण होकर नवता का उपहास करते प्रतीत होते हैं। सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं और टटकेपन के नाम पर नवगीत को नकारात्मक ऊर्जा का भंडार बना दिया गया है। भारतीय लोक मनीषा उत्सव धर्मी है। वह अभावों में भी हँसना जानती है, लोकदेवता शिव विष पीकर भी अमर हो जाते हैं। ऋतु परिवर्तन, कृषि जन्य बीज बोने, रोपे लगाने, फसल देखने-काटने आदि ही नहीं भोर और साँझ होने पर भी गीत गायन लोक जीवन का अंग है। सरस गीतों को गाकर जिजीविषाजयी होते लोक को तथाकथित नवगीतीय शोकमुद्रा रास नहीं आई। फलत:, नवगीत लोक से कटकर नवगीतकारों के खेमे तक सीमित रहकर दम तोड़ने लगा। 

नवगीत को इस विवशता से मुक्ति देकर नवजीवन देने के लिए सतत सृजनरत कलमों में एक कलम है जयप्रकाश श्रीवास्तव की। संयोगवश उनका नाम ही प्रकाश का जयघोष करता है और यह भी कि नवगीत को  'श्री' वास्तव में तभी मिल सकती है जब वह प्रकाश की जय बोले, जीवन में रस घोले, जिसे गुनगुनाकर कोई आमजन किसी नदी-निर्झर के किनारे डोले। रचनात्मक परिवर्तन एकाएक और पूरी तरह एक बार में नहीं होता, वह क्रमिक रूप से सामने आता है। पहली दो गीत कृतियों मन का साकेत और परिंदे संवेदना के में जयप्रकाश के गीत विविध रसों में स्नान करते प्रति होते हैं जबकि तीसरा संग्रह 'शब्द वर्तमान' के गीत विसंगति-विडंबना प्रधान हैं। जय प्रकाश का 'शिक्षक' जानता है उजाला और अँधेरा सहोदर होते हैं किंतु पर्व 'अँधेरे का नहीं, उजाले का मनाया जाता है और यह भी कि अँधेरा स्वयमेव हो जाता है, उजाला करना होता है। वे अपने चौथी गीत कृति 'रेत हुआ दिन' में गीतों के माध्यम से उजाला करने की ओर कदम बढ़ाते हैं। 

आँगनों की धूप 
छत की मुँडेरों पर 
बैठ दिन को भेज रही है। 

यहाँ किसी एक आँगन की नहीं, आँगनों की जा रही है,  धूप दिन को भज रही है, दिन कर्मठता का आह्वान करता है। गीतकार धूप के माध्यम से कर्मयोग का संकेत करता है।
 
सुबह की ठिठुरन  
रजाई में दुबकी
रात भरती उसाँसें 
लेती है झपकी 
सिहरते से रूप 
काजल कोर बहती 
आँख सपने तज रही है। 

यह अन्तरा विश्राम करती रात और सुबह की ठिठुरन से उबरकर आँख को सपने तजकर सच से साक्षात करने की प्रेरणा दे रहा है। अगले अन्तरे में कर्म-संदेश और उभरता है आलस अंगड़ाई लेकर हँसते हुए फटकने-बुहारने का काम करने को उद्यत होता है। 

अलस अँगड़ाई 
उठा घूँघट खड़ी है 
झटकती सी सिर 
हँसी होंठों जड़ी है 
फटकती है सूप 
झाड़ू से बुहारे 
भोर उजली सज रही है। 

अंतिम अंतरे में सुआ बटलोई चढ़ाकर चित्रकोटी पढ़ रहा है, कूप जग गए हैं, पनघट टेर रहा है और पायल छनक रही है। स्पष्ट: समूचा गीत, नकारात्मकता पर सकारात्मकता का विजय नाद गुँजा रहा है। यह नवता ही नवगीत को नवजीवन देने में समर्थ होगी।  अभिव्यक्ति ही जन-गण के मन को श्रम सीकर बहाने की प्रेरणा देगा। 

जयप्रकाश विसंगतियों का महिममण्डन नहीं करते, वे व्यवस्था के सामने सवाल उठाते हैं -

क्यों हैं चिड़िया गुमसुम बैठी? 
क्यों आँगन खामोश हुआ है?   

गीत की १४ पंक्तियाँ 'क्यों' के माध्यम से, बिना कहे पाठक के मन में बदलाव की चिंगारी सुलगाने के लिए ईंधन का काम करती हैं। घिसे-पिटे नवगीतों का वैषम्य-विलाप यहाँ नहीं है। 

नवगीतों के कलेवर को और अधिक स्पष्ट और प्रेरक हुए जयप्रकाश आशावादिता, हर्ष और हुलास को नवगीत का कलेवर बनाते हुए 'आओ तो' शीर्षक गीत में श्रृंगार सुरभि से नवगीत का सत्कार करते हैं- 

कुछ सपनों ने 
जन्म लिया है     
तुम आओ तो आँखें खोलें। 
नींद सुलाकर 
गई अभी है
चंदा ने गाई है लोरी 
रात झुलाती रही पालना 
दूध-भात की लिए कटोरी 
फूलों ने है 
गंध बिखेरी
तुम हँस दो तो दर्पन बोलें। 

किरन डोर से बँधे उजाले लेकर आती भोर, धूप उगाता सूरज, मंदिर में बजती घंटियाँ, पंछियों के कलरव, सुवासित समीर में अमृत घोलते भजन-आरती आदि को प्रतिबद्ध विचारधारा के बंदी मठाधीशों ने बहिष्कृत कर रखा था। 'काल है संक्रांति का' से नवगीतों की जमीन में लोक छंदों और लोक गीतों को रोपने के जिस कार्य का श्री गणेश किया गया था, उसे जयप्रकाश जी ने आगे बढ़ाया है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर की नवगीत कार्यशालाओं के अभिन्न अंग के रूप में जयप्रकाश जी नवगीत के जमीनी जुड़ाव को भाषिक टटकापन तक सीमित न रखकर लोक जीवन से संश्लिष्ट रखने के पक्षधर रहे हैं। 

जीतने की ज़िद और जीने की जिजीविषा को नवगीत में लाता है नवगीत 'एक जंगल'-

एक जंगल 
खड़ा है चुपचाप 
पीकर आग का दरिया    
है अभी जीवित 
सदी मुझमें  
हरापन बोलता है 
जड़ों से लेकर 
शिराओं में  
लहू बन डोलता है 
चहकती है 
सुन नई पदचाप 
आँगन गंध गौरैया। 

'फटेहाल / सी रहा ज़िंदगी / बैठ मेड़ पर रमुआ' कोशिश करते रहने का संदेश देता नवगीत है। 

नवगीत में 'जगती आस / पत्ते नयापन बुनते', 'डालियों पर / फुदकते संलाप', 'अंकुरित फिर से / हुआ है बीज'  शब्दावली मरुथल में ताजी सावनी बयार के झोंके की तरह जान में जान फूँकने में समर्थ है। 

नवगीत में प्रेम को वर्ज्य मानने की जड़ता पर शब्द प्रहार करते जयप्रकाश 'चलो प्रेम की ऊँगली थामें / कुछ दूरी तक साथ चलें', 'आओ, स्नेह भरे बालों से / मन के सब कल्मष धोलें', 'माटी सोंधी अपनेपन की / बोयें खुशियों की फसलें' पर ही न रुककर नवगीत को सकारात्मक सोद्देश्यता देते हुए 'घुट-घुटकर जीने से अच्छा / पल दो पल गालें। हँस लें' का जय घोष करते हैं। 

विसंगति और त्रासदी में भी जीवट और जिजीविषा को मरने न देना इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है। 

वह लड़की 
कचरे के ढेर में 
खोजे टुकड़े सपनों के।
काँधे पर लादे 
सूरज की गठरी 
परे हटा जागे 
अंधियारी कथरी 
बढ़ती कुछ 
पाने के फेर में 
काम आए जो अपनों के। 

नवगीतों में संदेशपरकता, बोधात्मकता तथा संप्रेषणीयता का सम्यक तालमेल जयप्रकाश कर सके हैं। 'हमने साथ / भीड़-भाड़ से/ हरकर चलना सीख लिया', 'मत डराओ / खौलती खामोशियों से / हमने कोलाहल पिया है', 'आओ मिल-बैठकर / सुलझाएँ गुत्थियाँ / धो डालें मन के सब मैल' आदि दृष्टव्य हैं। 

नवगीतों में पारिवारिक सहजता और स्नेहपरकता घोलकर उसे सहजग्राह्य बनाने में विनोद निगम का सानी नहीं है। जयप्रकाश भी पीछे नहीं है- 'तुम आँगन में / स्वेटर बुनती / मैं पढ़ता अखबार / वहीं धूप अठखेली करती', 'फिर यादों के / नीम झरोखे में आ बैठा / दादी का सपना', तुम नहीं आए / तुम्हारी याद आई / आँख से आँसू झरे'।

'रेत हुआ दिन' नवगीतकार जयप्रकाश श्रीवास्तव के नए तेवरों से समृद्ध ऐसा नवगीत संकलन है जो नई कलमों को नैराश्य के दंडकारण्य से निकाल कर उल्लास के सतपुड़ा-वनों में, हरसिंगारी पौधरोपण की प्रेरणा देकर नवगीत को 'स्यापा गीत' बनने से बचाकर, सोहर, चैती या राई के निकट ले जाएगा। इन नवगीतों में आह्वान गीत की छुअन, मिलन गीत का हुलास, बोध गीत की संदेशपरकता, जागरण गीत की सोद्देश्यता का परस इन्हें हर दिन छाप रहे नवगीतों की भीड़ से अलग खड़ा करता है। स्वाभाविक है कि लकीर के फकीर मठाधीशों को यह स्वर सहज स्वीकार न हो किन्तु बहुसंख्यक पाठक और  नवगीतकार इनमें डूब-उतरा कर फिर-फिर रसास्वादन करने के साथ-साथ अगले संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।
*** 

सुषमा स्वराज

 भावांजलि

*
शारद सुता विदा हुई, माँ शारद के लोक
धरती माँ व्याकुल हुई, चाह न सकती रोक
*
सुषमा से सुषमा मिली, कमल खिला अनमोल
मानवता का पढ़ सकीं, थीं तुम ही भूगोल
*
हर पीड़ित की मदद कर, रचा नया इतिहास
सुषमा नारी शक्ति का, करा सकीं आभास
*
पा सुराज लेकर विदा, है स्वराज इतिहास
सब स्वराज हित ही जिएँ, निश-दिन किए प्रयास
*
राजनीति में विमलता, विहँस करी साकार
ओजस्वी वक्तव्य से, दे ममता कर वार
*
वाक् कला पटु ही नहीं, कौशल का पर्याय
लिखे कुशलता के कई, कौशलमय अध्याय
*
राजनीति को दे दिया, सुषमामय आयाम
भुला न सकता देश यह, अमर तुम्हारा नाम
*
शब्द-शब्द अंगार था, शीतल सलिल-फुहार
नवरस का आगार तुम, अरि-हित घातक वार
*
कर्म-कुशलता के कई, मानक रचे अनन्य
सुषमा जी शत-शत नमन, पाकर जनगण धन्य
*
शब्दों को संजीव कर, फूँके उनमें प्राण
दल-हित से जन-हित सधे, लोकतंत्र संप्राण
*
महिमामयी महीयसी, जैसा शुचि व्यक्तित्व
फिर आओ झट लौटकर, रटने नव भवितव्य
*
चिर अभिलाषा पूर्ति से, होकर परम प्रसन्न
निबल देह तुमने तजी, हम हो गए विपन्न
*
युग तुमसे ले प्रेरणा, रखे लक्ष्य पर दृष्टि
परमेश्वर फिर-फिर रचे, नव सुषमामय सृष्टि
*
संजीव
७-८-२०१९

५ लघुकथाएँ - सलिल

लघुकथा
दूषित वातावरण
*
अपने दल की महिला नेत्री की आलोचना को नारी अपमान बताते हुए आलोचक की माँ, पत्नि, बहन और बेटी के प्रति अपमानजनक शब्दों की बौछार करते चमचों ने पूरे शहर में जुलूस निकाला। दूरदर्शन पर दृश्य और समाचार देख के बुरी माँ सदमें में बीमार हो गयी जबकि बेटी दहशत के मारे विद्यालय भी न जा सकी। यह देख पत्नी और बहन ने हिम्मत कर कुछ पत्रकारों से भेंट कर विषम स्थिति की जानकारी देते हुए महिला नेत्री और उनके दलीय कार्यकर्ताओं को कटघरे में खड़ा किया।
कुछ वकीलों की मदद से क़ानूनी कार्यवाही आरम्भ की। उनकी गंभीरता देखकर शासन - प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा, कई प्रतिबन्ध लगा दिए गए ताकि शांति को खतरा न हो। इस बहस के बीच रोज कमाने-खानेवालों के सामने संकट उपस्थित कर गया दूषित वातावरण।
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निज स्वामित्व
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आप लघुकथा में वातावरण, परिवेश या पृष्ठ भूमि क्यों नहीं जोड़ते? दिग्गज हस्ताक्षर इसे आवश्यक बताते हैं।
यदि विस्तार में जाए बिना कथ्य पाठक तक पहुँच रहा है तो अनावश्यक विस्तार क्यों देना चाहिए? लघुकथा तो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की विधा है न? मैं किसी अन्य विचारों को अपने लेखन पर बन्धन क्यों बनने दूँ। किसी विधा पर कैसे हो सकता है कुछ समीक्षकों या रचनाकारों का निज स्वामित्व?
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लघुकथा
शर संधान
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आजकल स्त्री विमर्श पर खूब लिख रही हो। 'लिव इन' की जमकर वकालत कर रहे हैं तुम्हारी रचनाओं के पात्र। मैं समझ सकती हूँ।
तू मुझे नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा?
अच्छा है, इनको पढ़कर परिवारजनों और मित्रों की मानसिकता ऐसे रिश्ते को स्वीकारने की बन जाए उसके बाद बताना कि तुम भी ऐसा करने जा रही हो। सफल हो तुम्हारा शर-संधान।
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लघुकथा
बेपेंदी का लोटा
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'आज कल किसी का भरोसा नहीं, जो कुर्सी पर आया लोग उसी के गुणगान करने लगते हैं और स्वार्थ साधने की कोशिश करते हैं। मनुष्य को एक बात पर स्थिर रहना चाहिए।' पंडित जी नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे।
प्रवचन से ऊब चूका बेटा बोल पड़ा- 'आप कहते तो ठीक हैं लेकिन एक यजमान के घर कथा में सत्यनारायण भगवान की जयकार करते हैं, दूसरे के यहाँ रुद्राभिषेक में शंकर जी की जयकार करते हैं, तीसरे के निवास पर जन्माष्टमी में कृष्ण जी का कीर्तन करते हैं, चौथे से अखंड रामायण करने के लिए कह कर राम जी को सर झुकाते हैं, किसी अन्य से नवदुर्गा का हवन करने के लिए कहते हैं। परमात्मा आपको भी तो कहता होंगे बेपेंदी का लोटा।'
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लघु कथा
काल्पनिक सुख
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'दीदी! चलो बाँधो राखी' भाई की आवाज़ सुनते ही उछल पडी वह। बचपन से ही दोनों राखी के दिन खूब मस्ती करते, लड़ते का कोई न कोई कारण खोज लेते और फिर रूठने-मनाने का दौर।
'तू इतनी देर से आ रहा है? शर्म नहीं आती, जानता है मैं राखी बाँधे बिना कुछ खाती-पीती नहीं। फिर भी जल्दी नहीं आ सकता।'
"क्यों आऊँ जल्दी? किसने कहा है तुझे न खाने को? मोटी हो रही है तो डाइटिंग कर रही है, मुझ पर अहसान क्यों थोपती है?"
'मैं और मोटी? मुझे मिस स्लिम का खिताब मिला और तू मोटी कहता है.... रुक जरा बताती हूँ.'... वह मारने दौड़ती और भाई यह जा, वह जा, दोनों की धाम-चौकड़ी से परेशान होने का अभिनय करती माँ डांटती भी और मुस्कुराती भी।
उसे थकता-रुकता-हारता देख भाई खुद ही पकड़ में आ जाता और कान पकड़ते हुई माफ़ी माँगने लगता। वह भी शाहाना अंदाज़ में कहती- 'जाओ माफ़ किया, तुम भी क्या याद रखोगे?'
'अरे! हम भूले ही कहाँ हैं जो याद रखें और माफी किस बात की दे दी?' पति ने उसे जगाकर बाँहों में भरते हुए शरारत से कहा 'बताओ तो ताकि फिर से करूँ वह गलती'...
"हटो भी तुम्हें कुछ और सूझता ही नहीं'' कहती, पति को ठेलती उठ पडी वह। कैसे कहती कि अनजाने ही छीन गया है उसका काल्पनिक सुख।
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salil.sanjiv@gmail.com
७-८-२०१७

सोरठा सलिला

सोरठा सलिला:बजे श्वास-संतूर...
संजीव 'सलिल'
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'तुम' जा बैठा दूर, 'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए।
आँखें रहते सूर, जो न देख पाया रहा।।
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अपने आप विलीन, 'मैं' में 'तुम' जब हो गया।
हर पल 'सलिल' नवीन, व्याप गई घर में खुशी।।
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है जी का जंजाल, 'तुम' से 'मैं' की गैरियत।
'हम' बन हों खुशहाल, 'सलिल' इसी में खैरियत।।
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याद नहीं उपहार, 'मैं' ने 'मैं' को कब दिया?
रूठीं 'सलिल' बहार, 'मैं' गुमसुम 'तुम' हो गई।।
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भू पर लाते स्वर्ग, 'मैं' 'तुम' 'यह' 'वह' प्यार से।
दूर रहे अपवर्ग, 'सलिल' करें तकरार यदि।।
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'तू' बनकर मधुमास, 'मैं' की आँखों में बसा।
आया सावन मास, जिस-तिस की क्यों फ़िक्र हो?
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गृह-वाहन गतिशील, 'तू' 'मैं' के दो चक्र पर।
बाधा सके न लील, 'हम' ईधन गति-दिशा दे।।
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हो न सके जब एक, 'तू' 'तू' है, 'मैं' 'मैं' रहा।
विपदा लिए अनेक, तू-तू मैं-मैं न्योत कर।।
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ह्रदय हर्ष से चूर, 'मैं' 'तुम' हँस हमदम हुए।
नत नयनों में नूर, गाल गुलाबी हैं सलज।।
*
'मैं'-तम करे समाप्त, 'मैं' में 'मैं' का मिलन ही।
हो घर भर में व्याप्त, 'हम'-रवि की प्रेमिल किरण।।
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'तू' शशि 'मैं' हो नूर, 'हम' बन करते बंदगी।
बजे श्वास-संतूर, शरत्पूर्णिमा ज़िंदगी।।
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नवगीत

नवगीत
संजीव
*
झुठलाता सच समय
झूठ को
सच बतलाता है।


कौन किसी का
कभी हुआ है?
भरम पालते लोग।
दुःख बो; फसल
चाहते खुशियाँ,
लाइलाज है रोग।


नफरत मोम;
लाड़ लोहा
चुप रह पिघलाता है।


घिग्घी बँधी
देख कृषकों को
भीत हुई सत्ता।
तूफानों को
देख काँपता
पीत पड़ा पत्ता।


पाहुन आता
कर्कश ध्वनि कर
गिद्ध बताता है।


बेटा बात न
सुने बाप की
नेहरू है दोषी।
नहीं नर्मदा
संसद अपनी
अभिशापित कोसी।


नित विपक्ष को
कोस-कोस
खबरें छपवाता है।
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७-८-२०२१