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रविवार, 11 जुलाई 2021

षट्पदिक कृष्ण-कथा

षट्पदिक कृष्ण-कथा
देवकी-वसुदेव सुत कारा-प्रगट, गोकुल गया
नंद-जसुदा लाल, माखन चोर, गिरिधर बन गया
रास-लीला, वेणु-वादन, कंस-वध, जा द्वारिका
रुक्मिणी हर, द्रौपदी का बन्धु-रक्षक बन गया
बिन लड़े, रण जीतने हित ज्ञान गीता का दिया
व्याध-शर का वार सह, प्रस्थान धरती से किया
११-७-२०१६
***
(महाभागवतजातीय गीतिका छंद, यति ३-१०-१७-२४, पदांत लघु गुरु)

मुक्तक

मुक्तक
*
आसमान पर भाव आम जनता का जीवन कठिन हो रहा
त्राहिमाम सब ओर सँभल शासन, जनता का धैर्य खो रहा
पूंजीपतियों! धन लिप्सा तज भाव घटा जन को राहत दो
पेट भर सके मेहनतकश भी, रहे न भूखा, स्वप्न बो रहा
११.७.२०१४

लघुकथा मोहनभोग

लघुकथा
मोहनभोग
*
'क्षमा करना प्रभु! आज भोग नहीं लगा सका.' साथ में बाँके बिहारी के दर्शन कर रहे सज्जन ने प्रणाम करते हुए कहा.
'अरे! आपने तो मेरे साथ ही मिष्ठान्न भण्डार से नैवेद्य हेतु पेड़े लिए था, कहाँ गए?' मैंने उन्हें प्रसाद देते हुए पूछा.
पेड़े लेकर मंदिर आ रहा था कि देखा कुछ लोग एक बच्चे की पिटाई कर रहे हैं और वह बिलख रहा है. मुझसे रहा नहीं गया, बच्चे को छुडाकर कारण पूछ तो हलवाई ने बताया कि वह होटल से डबल रोटी-बिस्कुट चुराकर ले जा रहा था. बच्चे ने बताया कि उसका पिता नहीं है, माँ बुखार से पीड़ित होने के कारण काम पर नहीं जा रही, घर में खाने को कुछ नहीं है, छोटी बहिन का रोना नहीं देखा गया तो वह होटल में चार घंटे से काम कर रहा है. सेठ से कुछ खाने का सामान लेकर घर दे आने को पूछा तो वह गाली देने लगा कि रात को होटल बंद होने के बाद ही देगा. बार-बार भूखी बहिन और माँ के चेहरे याद आ रहे थे, रात तक कैसे रहेंगी? यह सोचकर साथ काम करनेवाले को बताकर डबलरोटी और बिस्किट ले जा रहा था कि घर दे आऊँ फिर रात तक काम करूंगा और जो पैसे मिलेंगे उससे दाम चुका दूंगा.
दुसरे लड़के ने उसकी बात की तस्दीक की लेकिन हलवाई उसे चोर ठहराता रहा. जब मैंने पुलिस बुलाने की बात की तब वह ठंडा पड़ा.
बच्चे को डबलरोटी, दूध, बिस्किट और प्रसाद की मिठाई देकर उसके घर भेजा. आरती का समय हो गया इसलिए खाली हाथ आना पड़ा और प्रभु को नहीं लगा सका भोग' उनके स्वर में पछतावा था.
'ऐसा क्यों सोचते हैं? हम तो मूर्ति ही पूजते रह गए और आपने तो साक्षात बाल कृष्ण को लगाया है मोहन भोग. आप धन्य है.' मैंने उन्हें नमन करते हुए कहा.
***

मेघ की बात

दोहा सलिला:
मेघ की बात
*
उमड़-घुमड़ आ-जा रहे, मेघ न कर बरसात।
हाथ जोड़ सब माँगते, पानी की सौगात।।
*
मेघ पूछते गगन से, कहाँ नदी-तालाब।
वन-पर्वत दिखते नहीं, बरसूँ कहाँ जनाब।।
*
भूमि भवन से पट गई, नाले रहे न शेष।
करूँ कहाँ बरसात मैं, कब्जे हुए अशेष।।
*
लगा दिए टाइल अगिन, भू है तृषित अधीर।
समझ नहीं क्यों पा रहे, तुम माटी की पीर।।
*
स्वागत तुम करते नहीं, साध रहे हो स्वार्थ।
हरी चदरिया उढ़ाओ, भू पर हो परमार्थ।।
*
वर्षा मंगल भूलकर, ठूँस कान में यंत्र।
खोज रहे मन मुताबिक, बारिश का तुम मंत्र।।
*
जल प्रवाह के मार्ग सब, लील गया इंसान।
करूँ कहाँ बरसात कब, खोज रहा हूँ स्थान।।
*
रिमझिम गिरे फुहार तो, मच जाती है कीच।
भीग मजा लेते नहीं, प्रिय को भुज भर भींच।।
*
कजरी तुम गाते नहीं, भूले आल्हा छंद।
नेह न बरसे नैन से, प्यारा है छल-छंद।।
*
घास-दूब बाकी नहीं, बीरबहूटी लुप्त।
रौंद रहे हो प्रकृति को, हुई चेतना सुप्त।।
*
हवा सुनाती निरंतर, वसुधा का संदेश।
विरह-वेदना हर निठुर, तब जाना परदेश।।
*
प्रणय-निमंत्रण पा करूँ, जब-जब मैं बरसात।
जल-प्लावन से त्राहि हो, लगता है आघात।।
*
बरसूँ तो संत्रास है, डूब रहे हैं लोग।
ना बरसूँ तो प्यास से, जीवनांत का सोग।।
*
मनमानी आदम करे, दे कुदरत को दोष।
कैसे दूँ बरसात कर, मैं अमृत का कोष।।
*
नग्न नारियों से नहीं, हल चलवाना राह।
मेंढक पूजन से नहीं, पूरी होगी चाह।।
*
इंद्र-पूजना व्यर्थ है, चल मौसम के साथ।
हरा-भरा पर्यावरण, रखना तेरा हाथ।।
*
खोद तलैया-ताल तू, भर पानी अनमोल।
बाँध अनगिनत बाँध ले, पानी रोक न तोल।।
*
मत कर धरा सपाट तू, पौध लगा कर वृक्ष।
वन प्रांतर हों दस गुना, तभी फुलाना वक्ष।।
*
जूझ चुनौती से मनोज, श्रम को मिले न मात।
स्वागत कर आगत हुई, ले जीवन बरसात
***
११-७-२०१८ / ७९९९५५९६१८ 


शनिवार, 10 जुलाई 2021

भोजपुरी हाइकु

भोजपुरी हाइकु: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पावन भूमि / भारत देसवा के / प्रेरण-स्रोत.
भुला दिहिल / बटोहिया गीत के / हम कृतघ्न.
देश-उत्थान? / आपन अवदान? / खुद से पूछ.
अंगरेजी के / गुलामी के जंजीर / साँच साबित.
सुख के धूप / सँग-सँग मिलल / दुःख के छाँव.
नेह अबीर / जे के मस्तक पर / वही अमीर.
अँखिया खोली / हो गइल अंजोर / माथे बिंदिया.
भोर चिरैया / कानन में मिसरी / घोल गइल.
काहे उदास? / हिम्मत मत हार / करल प्रयास.
११-७-२०१० 
*

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका

 हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका

[रौद्राक जातीय, मोहन छंद, ५,६,६,६]
*
''दिलों के / मेल कहाँ / रोज़-रोज़ / होते हैं''
मिलन के / ख़्वाब हसीं / हमीं रोज़ / बोते हैं
*
बदन को / देख-देख / हो गये फि/दा लेकिन
न मन को / देख सके / सोच रोज़ / रोते हैं
*
न पढ़ अधि/क, ले समझ/-सोच कभी /तो थोड़ा
ना समझ / अर्थ राम / कहें रोज़ / तोते हैं
*
अटक जो / कदम गए / बढ़ें तो मि/ले मंज़िल
सफल वो / जो न धैर्य / 'सलिल' रोज़ / खोते हैं
*
'सलिल' न क/रिए रोक / टोक है स/फर बाकी
करम का / बोझ मौन / काँध रोज़ / ढोते हैं
***
९-७-२०१६

मुक्तिका

 एक मुक्तिका:

महापौराणिक जातीय, सुमेरु छंद
विधान: १९ मात्रिक, यति १०-९, पदांत यगण
*
न जिंदा है; न मुर्दा अधमरी है.
यहाँ जम्हूरियत गिरवी धरी है.
*
चली खोटी; हुई बाज़ार-बाहर
वही मुद्रा हमेशा जो खरी है.
*
किये थे वायदे; जुमला बताते
दलों ने घास सत्ता की चरी है.
*
हरी थी टौरिया; कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है.
*
हवेली गाँव की; हम छोड़ आए.
कुठरिया शहर में, उन्नति करी है.
*
न खाओ सब्जियाँ जो चाहता दिल.
भरा है जहर दिखती भर हरी है.
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है.
*
slil.sanjiv@gmail.com
९.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

एक रचना दो रचनाकार

कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार
सोहन परोहा 'सलिल'-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'सलिल!' तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास।
तन है मायाजाल में, मन में है सन्यास।। -सोहन परोहा 'सलिल'
मन में है सन्यास, लेखनी रचे सृष्टि नव।
जहाँ विसर्जन वहीं निरंतर होता उद्भव।।
पा-खो; आया-गया है, हँस-रो रीते हाथ ही।
अजब विरोधाभास है, 'सलिल' हमारे साथ भी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*
९.७.२०१८

दोहा जान

दोहा सलिला:
जान जान की जान है
*
जान जान की जान है, जान जान की आन.
जहाँ जान में जान है, वहीं राम-रहमान.
*
पड़ी जान तब जान में, गई जान जब जान.
यह उसके मन में बसी, वह इसका अरमान.
*
निकल गई तब जान ही, रूठ गई जब जान.
सुना-अनसुना कर हुई, जीते जी बेजान.
*
देता रहा अजान यह, फिर भी रहा अजान.
जिसे टेरता; रह रहा, मन को बना मकान.
*
है नीचा किरदार पर, ऊँचा बना मचान.
चढ़ा; खोजने यह उसे, मिला न नाम-निशान.
*
गया जान से जान पर, जान देखती माल.
कुरबां जां पर जां; न हो, जब तक यह कंगाल.
*
नहीं जानकी जान की, तनिक करे परवाह.
आन रहे रघुवीर की, रही जानकी चाह.
*
जान वर रही; जान वर, किन्तु न पाई जान.
नहीं जानवर से हुआ, मनु अब तक इंसान.
*
कंकर में शंकर बसे, कण-कण में भगवान.
जो कहता; कर नष्ट वह, बनता भक्त सुजान.
*
जान लुटाकर जान पर, जिन्दा कैसे जान?
खोज न पाया आज तक, इसका हल विज्ञान.
*
जान न लेकर जान ले, जो है वही सुजान.
जान न देकर जान दे, जो वह ही रस-खान.
*
जान उड़ेले तब लिखे, रचना रचना कथ्य.
जान निकाले ले रही, रच ना; यह है तथ्य.
*
कथ्य काव्य की जान है, तन है छंद न भूल.
अलंकार लालित्य है, लय-रस बिन सब धूल.
*
९.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

रस, छंद, अलंकार सलिला १

रस, छंद, अलंकार सलिला १
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सारांश 
रस
रस का शब्द का शब्दकोशीय अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने, दृश्य, चित्र, नाटक या नृत्य को देखने से जिस 'आनन्द' की प्रतीति होती है, उसे 'रस' कहा जाता है। आनंदानुभूति की प्रगाढ़ता के कारण ही कृष्ण की नृत्य लीला 'रास' कही गयी है। रास का अपभृंश 'रहस' है। 'रहस बधावा' का लोक पर्व ह्रदय में छिपा आनंद के प्रगटीकरण का माध्यम रहा है। श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण से जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही 'रस' है।

'रस' शब्द अनेक संदर्भों में प्रयुक्त होता है तथा प्रत्येक संदर्व में इसका अर्थ अलग–अलग होता है। पदार्थ की दृष्टि से रस का प्रयोग षडरस के रूप में तो , आयुर्वेद में शस्त्र आदि धातु के अर्थ में , भक्ति में ब्रह्मानंद के लिए तथा साहित्य के क्षेत्र में काव्य स्वाद या काव्य आनंद के लिए रस का प्रयोग होता है।

रस के भेद

इसके मुख्यतः ग्यारह भेद हैं :- १.वीभत्स, २.शृंगार, ३.करुण, ४.हास्य, ५.वीर, ६.रौद्र, ७.भयानक, ८.अद्भुत, ९.शांत, १०.वात्सल्य, और ११.भक्ति। 

छंद 

छंद का शाब्दिक अर्थ 'छाना' है। कक्षा के एक कोने में जलाई गयी अगरबत्ती की सुगंध पूरे कक्षा में छा जाती है। छंद को वेदों का चरण कहा गया है। चरण ही चलने और लक्ष्य तक पहुँचाने का माध्यम होते हैं। वेदों की रचना वैदिक छंदों में की गयी है जिन्हें जाने बिना वेदों को समजह नहीं जा सकता। तत्पर्य यह कि छंद को जाने बिना पद्य (कुछ अंश तक गद्य भी) को समझा नहीं जा सकता।  

छंद की उत्पत्ति 'ध्वनि' से हुई है। मनुष्य ही नहीं अन्य पशु-पक्षी और जीव-जंतु भी ध्वनि से प्रभावित होते हैं। हमारे कानों में शेर की दहाड़ पड़े तो हम भयभीत हो जाते हैं, सर्प की फुफकार सुनकर सिहर जाते हैं, कोयल की कूक सुनकर प्रसन्न होते हैं। ध्वनियों के उच्चार की समयावधि अलग-अलग होती है। साहित्य की दृष्टि से अल्प काल में उच्चारित की जा सकनेवाली ध्वनियों  को लघु (छोटी) तथा अपेक्षाकृत अधिक समय में उच्चारित की जा सकनेवाली ध्वनियों को गुरु (दीर्घ या बड़ी) कहा जाता है। लोककाव्य इन ध्वनियों पर ही आधारित होते हैं। ध्वनि के उच्चार की समझ ग्रहण कर लेने पर अशिक्षित भी ध्वनिखंडों की आवृत्ति कर लोकगीत रच और गा लेते हैं।   
 
ध्वनियों की आवृत्ति से लयखण्ड बनते हैं। इन्हें साहित्य में गण (रुक्न) कहा जाता है। 

अलंकार 

मनुष्य और अन्य जीव-जंतुओं या पशु-पक्षियों में प्रमुख अंतर 'चेतना' का है। चेतना से 'समझ' उत्पन्न होती है। समझ से भले-बुरे, शुभ-अशुभ की प्रतीति होती है। मनुष्य में स्वच्छ रहने, सज-सँवर कर रहने की मूल प्रवृत्ति का कारण उसकी समझ ही है। यह समझ जिनमें कम होती है, उन्हें व्यंजना में पशु-पक्षी  (जानवर, गधा या उल्लू) कह दिया जाता है। सज-सँवर कर रहने की प्रवृत्ति को 'अलंकृत' होना कहा जाता है। इसी अर्थ में आभूषण को 'अलंकार' कहा जाता है। साहित्य में भाषा की सजावट, शब्दों की जमावट, कथ्य के लालित्य-चारुत्व की वृद्धि करनेवाले अलंकार कहा जाता है। 

कथ्य के लालित्य और चारुत्व के दो कारक शब्द और अर्थ हैं। शब्द उनमें अन्तर्निहित ध्वनि के माध्यम से और अर्थ उनमें अन्तर्निहित भाव के माध्यम से भाषा के अलंकरण का कार्य संपादित करते हैं। अलंकार की भूमिका पद्य में तो है ही, गद्य में भी अनुभव की जा सकती है। शब्द के माध्यम से उत्पन्न अलंकार को 

रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी ही साहित्य को सरल (सहज ग्राह्य), सरस और सारगर्भित बनाती है। 
                                                                                                                                                                                               - क्रमश: 

         

गुरुवार, 8 जुलाई 2021

मन के दोहे

दोहा सलिला:
मन के दोहे
*
मन जब-जब उन्मन हुआ, मन ने थामी बाँह.
मन से मिल मन शांत हो, सोया आँचल-छाँह.
*
मन से मन को राह है, मन को मन की चाह.
तन-धन हों यदि सहायक, मन पाता यश-वाह.
*
चमन तभी गुलज़ार हो, जब मन को हो चैन.
अमन रहे तब जब कहे, मन से मन मृदु बैन.
*
द्वेष वमन जो कर रहे, दहशत जिन्हें पसंद.
मन कठोर हो दंड दे, मिट जाए छल-छंद.
*
मन मँजीरा हो रहा, तन कीर्तन में लीन.
मनहर छवि लख इष्ट की, श्वास-आस धुन-बीन.
*
नेह-नर्मदा सलिल बन, मन पाता आनंद.
अंतर्मन में गोंजते, उमड़-घुमड़कर छंद.
*
मन की आँखें जब खुलीं, तब पाया आभास.
जो मन से अति दूर है, वह मन के अति पास.
*
मन की सुन चेता नहीं, मनुआ बेपरवाह.
मन की धुन पूरी करी, नाहक भरता आह.
*
मन की थाह अथाह है, नाप सका कब-कौन?
अंतर्मन में लीन हो, ध्यान रमाकर मौन.
*
धुनी धूनी सुलगा रहा, धुन में हो तल्लीन.
मन सुन-गुन सुन-गुन करे, सुने बिन बजी बीन.
*
मन को मन में हो रहे, हैं मन के दीदार.
मन से मिल मन प्रफुल्लित, सर पटके दीवार.
*
८.७.२०१८, ७९९९५५९६१८.

बुधवार, 7 जुलाई 2021

ग्रामीण संस्कृति नागर संस्कृति

परिचर्चा

आज की परिचर्चा का विषय ग्रामीण संस्कृति नागर संस्कृति बहुत समीचीन और सामाजिक विषय है भारत माता ग्रामवासिनी कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा था क्या आज हम यह कह सकते हैं क्या हमारे ग्राम अब वैसे ग्राम बचे हैं जिन्हें ग्राम कहा जाए गांव की पहचान पनघट चौपाल खलिहान वनडे घुंघरू पायल कंगन बेंदा नथ चूड़ी कजरी आल्हा पूरी राई अब कहां सुनने मिलते हैं इनके बिना गांव-गांव नहीं रहे गांव शरणार्थी होकर शहर की ओर आ रहा है और शहर क्या है जिनके बारे में अज्ञ लिखते हैं सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं शहर में बसना तुम्हें नहीं आया एक बात पूछूं उत्तर दोगे डसना कहां से सीखा जहर कहां से पाया तो शहर में जहां आदमी आदमी को डसना सीखता है जहां आदमी जहर पालना सीखता है तो वह गांव जो पुरवइया और पछुआ से संपन्न था वह गांव जो अपनेपन से सराबोर था वह गांव जो रिश्ते नातों को जीना जानता था वह गांव जहां एक कमाता वह खा लेते थे वह भागकर चेहरा रहा है कौन से शहर में जहां 6 काम आए तो 1 को नहीं पाल सकते जहां सांस लेने के लिए ताजी हवा नहीं है जहां रास्तों की मौत हो रही है जहां माता-पिता के लिए वृद्ध आश्रम बनाए जाते हैं जहां नौनिहालों के लिए अनाथालय बनाए जाते हैं जहां निर्मल ओं के लिए महिला आश्रम आश्रम रैन बसेरों की व्यवस्था की जाती है हम जीवन को कहां से कहां ले जा रहे हैं यह सोचने की बात है क्या हम इन चेहरों को वैसा बना पाएंगे जहां कोई राधा किसी का ना के साथ राजा पाए क्या यह शहर कभी ऐसे होंगे जहां किसी मीरा को कष्ट का नाम लेने पर विश्वास न करना पड़े शहरों में कोई पार्वती कवि किशन कर पाएगी हम ना करें लेकिन सत्य को भी ना करें हम अपनों को ऐसा शहर कब बना सकते हैं अपने गांव को शहर की ओर भागने से कैसे रोक सकते हैं यह हमारे चिंतन का विषय होना चाहिए हमारी सरकारें लोकतंत्र के नाम पर चन्द्र के द्वारा लोक का गला घोट रहे हैं जिनके नाम पर उनके द्वारा जनमत को कुचल रही हैं हमारे तंत्र की कोई जगह नहीं है हमारा को केवल गुलाम समझता है आप किसी भी सरकारी कार्यालय में जाकर देखें आपको एक मेज और कुर्सी मिलेगी कुर्सी पर बैठा व्यक्ति के सामने खड़े व्यक्ति को क्या अपना अन्नदाता समझता है यह व्यक्ति है उसके द्वारा दी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की तनखा का भुगतान होता है लेकिन मानसिकता की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने आपको राजा समझता है गुलाम शायद पराधीनता काल में हम इतने पराधीन नहीं थे जितने अभय हमारे गांव स्वतंत्रता पूर्वक ने बेबस नहीं थे जितने अब हैं स्वतंत्रता के पूर्व हमारे आदिवासी का वनों पर अधिकार था जो अब नहीं है पहले वह महुआ तोड़ कर बैठ सकता था पेट पाल सकता था अपराधी नहीं था अब वह वनोपज तोड़ नहीं सकता वह वन विभाग की संपत्ति है पहले सरकारी जमीन पर आप पेड़ होए तो जमीन भले सरकार की हो पेड़ की फसल आपकी होती थी आप का मालिकाना हक होता था अब नहीं पहले किसान फसल उगाता था घर के पन्नों में भर लेता था विजय बना लेता था जब जितने पैसे की जरूरत है उतनी फसल निकालकर भेजता था और अपना काम चलाता था अब किसान बीज नहीं बना सकता यह अपराधी अपनी फसल नहीं सकता बंधुआ मजदूर की तरह कृषि उपज मंडी में ले जाने के लिए विवश है जहां उसे फसल को गेहूं को खोलने के लिए रिश्वत देनी पड़ती जहां रिश्वत देने पर घटिया गेहूं के दाम ज्यादा लग जाते हैं जहां रिश्वत न देने पर लगते हैं हम हम शहरों की ओर जा सके हमारा शहरीकरण कम हो गांधी ने कहा था कि हम कुटीर उद्योगों की बात करें उद्योगों की बात करें हमारे गांव आत्मनिर्भर आज उन्होंने हमें यही सबक दिया कि गांव के शहरों में जाकर अपना पसीना बहाकर सेठ साहूकारों उद्योग पतियों की बिल्डिंग खड़ी करते हैं उन्हें अरबपति बनाते हैं उद्योगपति हैं कि संकट आने पर अपनों को अपनों को 2 महीने 4 महीने भी नहीं सकते गांव के बेटे को सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा उस गांव में रोजी-रोटी ना होने के कारण छोड़ कर गया था अब जब ढलान पर है उसे क्या काम मिलेगा लेकिन मुझे विश्वास है उसे पा लेगा क्योंकि गांव के मन में उदारता है शहर में पड़ता है शहर में कुटिलता है गांव में सरलता है लेकिन हमारे को भी राजनीति राजनीति सामाजिक जीवन सुखद हो पाएगा हमारे मन में बसे निर्मल हो

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
*
अधिक कोण जैसे जिए, नाते हमने मीत।
न्यून कोण हैं रिलेशन, कैसे पाएँ प्रीत।।
*
हाथ मिला; भुज भेंटिए, गले मिलें रह मौन।
किसका दिल आया कहाँ बतलायेगा कौन?
*
रिमझिम को जग देखता, रहे सलिल से दूर।
रूठ गया जब सलिल तो, उतरा सबका नूर।।
*
माँ जैसा दिल सलिल सा, दे सबको सुख-शांति।
ममता के आँचल तले, शेष न रहती भ्रांति।।
*
वाह, वाह क्या बात है, दोहा है रस-खान।
पढ़; सुन-गुण कर बन सके, काश सलिल गुणवान।।
*
आप कहें जो वह सही, एक अगर ले मान।
दूजा दे दूरी मिटा, लोग कहें गुणवान।।
*
यह कवि सौभाग्य है, कविता हो नित साथ।
चले सृजन की राह पर, लिए हाथ में हाथ।।
*
बात राज की एक है, दीप न हो नाराज।
ज्योति प्रदीपा-वर्तिका, अलग न करतीं काज।।
*
कभी मान-सम्मान दें, कभी लाड़ या प्यार।
जिएँ ज़िंदगी साथ रह, करें मान-मनुहार।।
*
साथी की सब गलतियाँ, विहँस कीजिए माफ़।
बात न दिल पर लें कभी, कर सच्चा इंसाफ।।
*
साथ निभाने का यही, पाया एक उपाय।
आपस में बातें करें, बंद न हो अध्याय।।
*
खुद को जो चाहे कहो, दो न और को दोष।
अपना गुस्सा खुद पियो, व्यर्थ गैर पर रोष।।
*
सबक सृजन से सच मिला, आएगा नित काम।
नाम मिले या मत मिले, करे न प्रभु बदनाम।।
*
जो न सके कुछ जान वह, सब कुछ लेता जान।
जो भी शब्दातीत है, सत्य वही लें मान।।
*
ममता छिप रहती नहीं, लिखा न जाता प्यार।
जिसका मन खाली घड़ा, करे शब्द-व्यवहार।।
*
७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

दिल के दोहे

दोहा सलिला:
*
दिल ने दिल को दे दिया, दिल का लाल सलाम।
दिल ने बेदिल हो कहा, सुनना नहीं कलाम।।
*
दिल बुजदिल का क्या हुआ, खुशदिल रहा न आप।
था न रहा अब जवां दिल, गीत न सुन दे थाप।।
*
कौन रहमदिल है यहाँ?, दिल का है बाज़ार।
पाया-खोया ने किया, हर दिल को बेज़ार।।
*
दिलवर दिल को भुलाकर, जब बनता दिलदार।
सह न सके तब दिलरुबा, कैसे हो आज़ार।।
*
टूट गया दिल पर न की, किंचित भी आवाज़।
दिल जुड़ता भी किस तरह, भर न सका परवाज़।।
*
दिल दिल ने ले तो लिया पर, दिया न दिल क्यों बोल?
दिल ही दिल में दिल रहा, मौन लगता बोल।।
*
दिल दिल पल-पल दुखता रहा, दिल चल-चल बेचैन।
थक-थककर दिल रुक गया, दिल ने पाया चैन।।
*
दिल के हाथों हो गया, जब-जब दिल मजबूर।
दिल ने अन्देखी करी, दिल का मिटा गुरूर।।
*
दिल के संग न संगदिल, का हो यारां साथ।
दिल को रुचा न तंगदिल, थाम न पाया हाथ।।
***
७.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

द्विपदी, गीत

द्विपदी
जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति.
तब ही 'उस' से मिलन हो, सबकी यही प्रतीति..
गीत 
रचना और रचयिता
संजीव 'सलिल'
*
किस रचना में नहीं रचयिता,
कोई मुझको बतला दो.
मात-पिता बेटे-बेटी में-
अगर न हों तो दिखला दो...
*
बीज हमेशा रहे पेड़ में,
और पेड़ पर फलता बीज.
मुर्गी-अंडे का जो रिश्ता
कभी न किंचित सकता छीज..
माया-मायापति अभिन्न हैं-
नियति-नियामक जतला दो...
*
कण में अणु है, अणु में कण है
रूप काल का- युग है, क्षण है.
कंकर-शंकर एक नहीं क्या?-
जो विराट है, वह ही तृण है..
मत भरमाओ और न भरमो-
सत-शिव-सुन्दर सिखला दो...
*
अक्षर-अक्षर शब्द समाये.
शब्द-शब्द अक्षर हो जाये.
भाव बिम्ब बिन रहे अधूरा-
बिम्ब भाव के बिन मर जाये.
साहुल राहुल तज गौतम हो
बुद्ध, 'सलिल' मत झुठला दो...
****************************

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

पुरोवाक 'सपनों की कश्ती' मनोहर चौबे 'आकाश'

पुरोवाक 
गीत सलिला में प्रवाहित 'सपनों की कश्ती'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कट्टरतावादी भावधारा से दूर रहते हुए साहित्य एवं कला की अपनी गहरी समझ से यथार्थवाद की प्रामाणिक व्याख्या उपस्थापित करनेवाले दार्शनिक-साहित्यिक हंगेरियन आलोचक जॉर्ज लुकाच के अनुसार - 'गीत-काव्य में केवल महान क्षण रहता है। यह वह क्षण होता है जिसमें प्रकृति और आत्मा की सार्थक एकता या उनका सार्थक लगाव जो आत्मा का सर्वस्वीकृत अकेलापन हुआ करता है, शाश्वत बन जाते हैं। .... गीतमय क्षण में आत्मा की शुद्धतम आभ्यंतरिकता अनिवार्यत: काल से पृथक कर दी जाती है, वस्तुओं की अस्पष्ट विविधता से ऊपर उठा दी जाती है और इस तरह पदार्थ से परिवर्तित कर दी जाती है ताकि चमकते हुए एक प्रतीक में बँध सके। आत्मा और प्रतीक के बीच स्थापित इस संबंध को केवल गीतमय क्षणों में ही निर्मित किया जा सकता है।'

भाई मनोहर चौबे 'आकाश' के गीत संग्रह को पढ़ते हुए जॉर्ज लुकाच के उक्त कथन की अपेक्षा रविरंजन का कथन अधिक सटीक प्रतीत हुआ - 'कविता से एक हद तक भिन्न गीत की एक अलग रचनात्मक शर्त एवं समझ होती है।'

                     हिंदी साहित्य में गीत की रचना देश-काल-परिस्थिति अनुरूप होती रही है। भारतीय आदिवासी समाज और ग्रामीण समाज ने गीत के सहारे दुर्दिनों में आत्मबल और जुझारुपन पाया है तो सुदिनों में आत्मानंद और संतोष की निधि संचित की है। गीत लोकमानस के सुख-दुःख के पलों में धूप-छाँव की तरह  अभिन्न साथी रहा है। व्युत्पत्ति के आधार पर 'गै + क्त' के योग से निर्मित 'गीत' सामान्यत: वह काव्य रचना है जिसे गाया जा सके, गाया गया हो। 'गीर्भि: वरुण सीमहि' - ऋग्वेद। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं 'गीतं शाब्दितगानयो:' . अमरकोश के अनुसार 'गीतं गाननिमे समे'। 'गेय' होना अर्थात 'गाया जा सकना' गीत होने की अनिवार्यता है तो क्या हर तुकबंदी 'गीत' है? ऐसा नहीं है। कहमुकरियाँ, माहिये, तसलीस, दोहा, रोला, सॉनेट, रुबाई आदि में गेयता होने पर भी वे गीत नहीं हैं। 

                     गीत की दूसरी अनिवार्यता उनका छांदस अर्थात छन्दाधारित होना है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या हर छंद को गीत कहा जा सकता है?, कदापि नहीं। सर्वमान्य है कि गीत में छंद का प्रयोग किया जाता है, एक छंद का भी और एकाधिक छंदों का भी। कब कहाँ कौन से और कितने छंदों का प्रयोग किया जाए यह गीतकार की छांदस समझ और रचना सामर्थ्य तथा गीत के कथ्य की आवश्यकता पर निर्भर करता है। श्रृंगार गीत में आल्हा छंद का प्रयोग नहीं किया जा सकता। 

                     गीत की तीसरी जरूरत उसका शिल्प है। शिल्पगत रूढ़ता के मद्देनज़र गीत में एक मुखड़ा और कुछ अंतरे होने चाहिए। मुखड़े में पंक्ति संख्या या पंक्तियों में शब्द संख्या का कोई प्रतिबंध नहीं होता। अंतरों की संख्या, अंतरों में पंक्तियों की संख्या या पंक्तियों में शब्दों या वर्णों की संख्या आवश्यकतानुरूप रखी जा सकती हैं। सामान्यत: हर अंतरे का अंत मुखड़े की प्रथम या अंतिम पंक्ति के समान भार की पंक्ति से होता है और उसके बाद अंतरे की समभारिक पंक्ति या पूरा अन्तरा पढ़ा जाता है। वस्तुत: गीतात्मक आंतरिकता की रूपात्मक अभिव्यक्ति ही गीत है। सभी अंतरों में समभारिक समान पंक्ति संख्या साहित्यिक गीतों का अनिवार्य अंग रही है किंतु लोकगीतों और चित्रपटीय गीतों में गीतकार इसका उल्लंघन भी करते रहे हैं। 

                     मनोहर चौबे 'आकाश  गीत के पारंपरिक विधानों का पालन करनेवाले गीतकार हैं। शिवशंकर मिश्र भले ही 'गेयता' को गीत की शर्त न मानें या ठाकुर प्रसाद सिंह कहें 'गीत, कुल मिलाकर गेयता का प्रभाव मन पर छोड़ता है, लेकिन यह गेयता भी बाहरी न होकर भीतरी तत्व है।' आकाश और मैं भी देवेंद्र कुमार से सहमत हैं -'अनुशासन से अलग गीत की संभावना हो ही नहीं सकती।' गीत में मुखड़ा-अंतरों का शैल्पिक अनुशासन,  छांदस अभिव्यक्ति और लयात्मकता का कथ्यानुशासन स्वैच्छिक नहीं अपरिहार्य है। कार्ल मार्क्स के अनुसार कविता  'मनुष्यता की मातृभाषा है' तो मेरे मत में 'गीत मानवात्मा की प्रकृतिजन्य अभिव्यक्ति है।' जर्मन दार्शनिक थियोडोर अडोर्नो की दृष्टि में 'गीत मनुष्य सभ्यता की धूप घड़ी है।' मुझे गीत के संबंध में सर्वाधिक सटीक अभिव्यक्ति बुआश्री महीयसी महादेवी जी की प्रतीत होती है - 'साधारणत: गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र सुख-दुखात्मक अनुभूतियों का वह शब्द-रूप है जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके। अनुभूति को तीव्र रखने के लिए तथा उसे दूसरे तक पहुँचाने के लिए कुछ संयम आवश्यक है।' इन गीतों के प्रकाश में गीतकार आकाश भी मुझे महीयसी के अनुगामी प्रतीत होते हैं।

                     आनुभूतिक आवेगों-संवेगों की लहरों-प्रतिलहरों के आघात-प्रतिघात, आरोह-अवरोह निरंतर सुनें तो उनमें गति-यति की प्रतीति, लय का आभास और गीत का अहसास होता है। गीतकार का तन कहीं भी रहे किन्तु मन जब-जब प्रकृति के अंचल का स्पर्श पाता है तब उसका अंतरमन गीत गा उठता है-

तुमने तो देखा नहीं था 
छा रहे नील नभ पर 
जब अँधेरी शाम के 
दीप जलने लग गए थे 
दिवस के विश्राम के 
तुमने तो देखा नहीं था 
मैं वहीं था, मैं वहीं था

                     हर अनुभूति की अभिव्यक्ति गीत नहीं हो सकती किन्तु जिन अनुभूतियों से प्राण संप्राणित होता है, उनकी अभिव्यक्ति स्वत: गीत में ढल जाती है। गीतकार आकाश के अनुसार -

अर्थ भावनाओं के जिनके शब्दों में ढल जाते हैं।  
अंतरतम के वे संवेदन, मीत! गीत बन जाते हैं ......
इस मन से उस मन तक जाते 
इंद्रधनुष से सेतु नए 
इस सुंदर धरती पर रहते 
जीवन के सब रूपों के 
कविजन चित्र बनाते इससे सूरज-चाँद-सितारों के 
सुधिजन को संभावनाओं के सब आकाश दिखाते हैं 

                     अपने साहित्यिक उपनाम को उसके शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कवि आकाश की रचना सामर्थ्य का परिचायक है। गीत में छंदहीनता के लिए कोई  स्थान नहीं है। वस्तुत: गीत क्या जिंदगी में भी छंदहीनता की कोई जगह नहीं है। 

जीवन छंदहीन कविता बन डूब रहा है 
साथी से जाने क्यों इतना ऊब रहा है?

                     छंदहीन गीत प्रभातीविहीन भोर की तरह बदरंग और नीरस हो जाता है। भोर बिना प्रभाती और प्रभाती बिना भोर दोनों खोई-खोई सी प्रतीत होती हैं। गीत और प्रीत का संबंध अन्योन्याश्रित है। प्रीत हो तो गीत फुट पड़े या गीत फूट पड़े तो प्रीत का वातावरण बन जाए दोनों स्थितियां अपनी-अपनी जगह सत्य हैं। सामने होते हुए भी ओझल रहना और ओझल रहते हुए भी संभावना का पाश बन जाना उसी के  लिए संभव है जो गीत को ओढ़ता-बिछाता रहा हो। दुष्यंत कहते हैं- 'मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ / वह ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।' आकाश गीत को ओढते-बिछाते ही नहीं श्वास हुए आस की तरह, जीते हैं - 

सामने हूँ किन्तु इसके बाद भी 
आँख से ओझल रहा आभास हूँ। 
मैं कहीं छूटी हुई, भूली हुई 
प्यार की संभावना का पाश हूँ 

                     अंग्रेजी कहावत है 'फर्स्ट इम्प्रेशन इस द लास्ट इम्प्रेशन', यह प्रथम प्रभाव साहित्यकारों विशेषकर गीतकारों के मानस पट पर अमिट छाप छोड़ जाया करता है। यह छाप मनोहर हो तब तो कहना ही क्या -

प्रथम मिलन का वह मधु स्मित 
वह स्नेहिल परिचय अपना 
नहीं मान सकता मैं सपना 
मैं उसको सच 
मान चुका हूँ 
और उसे पहचान चुका हूँ 

                     गीतकार का प्रेमी मन चाहता तो बहुत कुछ है पर सत्य यह है की एक किरण मात्र शेष है जबकि आपदाएँ अशेष हैं-

आकाश चाहता था, चंदा सूरज का देश 
पर सच ने कहा कि लो, बस एक किरण है शेष....
.... हैं अगिन आपदाएँ, जन्मों तक अभी अशेष 

                     ये अगिन आपदाएँ जिन दर्दों की भेंट देते देते नहीं थकतीं, वे दर्द, उनसे उपजी पीड़ा और पीड़ा से उपजी मधुरता गीतों में विरह श्रृंगार की करुणा घोल देती है।  

आज गूँथने बैठा हूँ जब, गठरी खोल देखता हूँ सब 
बने हुए निर्माल्य रखे हैं, गंधहीन मुरझाए हैं 

वैसे तो हर जीवन होता अपनी अपनी एक कहानी 
डुबा गया पर मेरा जीवन, मेरी ही आँखों का पानी 
टीस रहा है आज ह्रदय फिर कोई तरस खा रहा मुझ पर 
किन्तु नहीं स्नेह दे सकी मुझे किसी की दृष्टि अजानी 

                     गीत सलिला में सतत अवगाहन करते आकाश को मनोहरता इस तरह मुग्ध करती है कि हतप्रभ होकर अपनी बात कहकर भी नहीं कह पाता - 

जगमग रूप तुम्हारा, मेरे मन का सुंदर ताजमहल है 
प्यार भरी आँखें काशी हैं, नेह तुम्हारा गंगाजल है 

युग से बाट जोहते मेरे 
मन ने  जबसे तुमको पाया 
अचिर अतृप्त तृषा ने मेरी 
अनुपम मधुर सुधारस पाया 
विस्मित नयन तुम्हारी सूरत, 
हतप्रभ होकर रहे देखते 
चाहा मन ने बहुत मगर वह, 
अपनी बात नहीं कह पाया  

ह्रदय आज तक भी यह मेरा, नहीं कर सका कभी पहल है
जगमग रूप तुम्हारा, मेरे मन का सुंदर ताजमहल है 

                     गीत और गीतकार के अंतरसंबंध को अभियक्त करना जितना दुष्कर है, आकाश उसे उतनी ही सहजता से शब्द दे पाते हैं। बकौल ग़ालिब 'कहते हैं कि ग़ालिब जा अंदाज़े बयां और',  आकाश का अंदाज़े बयां 'और' नहीं 'ख़ास' है, और यह खासियत उसका 'आम' होना है। सरलता, सरसता और सहजता की त्रिवेणी प्रवाहित होती है इस गीत शतक में। आजकल जिस तरह लघु गीतों की पंक्तियाँ हर यति पर विभक्त कर संकलन प्रकाशित करने का चलन है, उसके अनुसार यह एक गीत संग्रह ही पाँच संग्रहों की सामग्री समेटे है। यह संकलन संख्या ही नहीं, गुणवत्ता की दृष्टि से भी वजनदार है। 

                     एक साथ रहते हुए भी दूर रहने की त्रासदी जनित पीड़ा किसी भी संवेदनशील ह्रदय को तोड़ सकती है पर आकाश इस  विषमता में भी चिरंतनता का प्रबल स्रोत पा लेते हैं-  

तुम मेरे अवचेतन में हो 
तुम मेरे अंतर्मन में हो 
किन्तु योजना की दूरी है  
कई युगों के अंतर पर हो 
तुम प्रतीक हो असामर्थ्य के 
दुर्भाग्यों के, परवशता के 
इस मेरी नश्वर काया की 
दो पल की क्षणभंगुरता के 
पर फिर भी आधार रहे हो 
औ' जीवंत प्रमाण रहे हो 
मेरी प्रबल चिरंतनता को 
जिससे स्रोत मिला वह तुम हो 

                     'इस अनुरागी मन का सोना जग में माटी मोल कहाया', 'निश-दिन नए विरागी स्वर / बहा रहा मन का निर्झर, बरसात नहीं है लेकिन / हैं फूट रहे आँखों के / जंगल में कितने झरने', 'कब तक और कल्पनाओं के प्रेमगीत मैं रचता जाऊँ', 'जब तक अभी रात बाकी है / तब तक मुझको जगना है', 'जब कोइ अनजान मिला है / एक नया संधान मिला है', 'मन करता है / दूर-दूर तक इन फैले अँधियारों में / सुख का सूरज बनकर आज उभर आऊँ' आदि अभवयक्तियाँ आकाश की कलम की सामर्थ्य की साक्षी हैं। 

                     युगीन विसंगतियाँ भी आकाश की दृष्टि से ओझल नहीं रह सकी हैं। वे नवगीतीय तेवर में विडंबनाओं पर शब्दाघात करते समय व्यंजना का प्रयोग करते हैं - 

हो रही गूंगों की अब आलोचना 
जान कर भी सत्य कह सकते नहीं 

                     वस्तुत: 'सपनों की कश्ती' गीतों की बगिया है जिसमें विविध सुरभियों के सुमन मन को सुवासित कर रहे हैं। इस गीत सलिला में बारंबार अवगाहन करने का मन होना ही गीतकार की सफलता है। आकाश का यह प्रथम गीत संकलन (प्रथम कृति भी) प्रकाशित होने के पूर्व ही संस्कारधानी में चिरकाल से प्रवाहित हो आ रही गीत परंपरा में उनका नाम प्रतिष्ठित हो चुका है। विश्वास है कि यह संकलन लंबे समय से बाट जोह रहे उनके प्रशंसकों को आश्वस्ति देने के साथ-साथ अगले संग्रह की प्रतीक्षा हेतु उकसाएगा। 
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१,  अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष : ९४२५१ ९८३२४४, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com 
  
 


  
  






आलोचना

आलोचना या समालोचना (Criticism) किसी वस्तु/विषय की, उसके लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, उसके गुण-दोषों एवं उपयुक्ततता का विवेचन करने वालि साहित्यिक विधा है। हिंदी आलोचना की शुरुआत १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेन्दु युग से ही मानी जाती है। 'समालोचना' का शाब्दिक अर्थ है - 'अच्छी तरह देखना'। 'आलोचना' शब्द 'लुच' धातु से बना है। 'लुच' का अर्थ है 'देखना'। समीक्षा और समालोचना शब्दों का भी यही अर्थ है। अंग्रेजी के 'क्रिटिसिज्म' शब्द के समानार्थी रूप में 'आलोचना' का व्यवहार होता है। संस्कृत में प्रचलित 'टीका-व्याख्या' और 'काव्य-सिद्धान्तनिरूपण' के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धान्तनिरूपण से स्वतंत्र चीज़ है। आलोचना का कार्य है किसी साहित्यक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गणु और अर्थव्यस्था का निर्धारण करना। डॉक्टर श्यामसुन्दर दास ने आलोचना की परिभाषा इन शब्दों में दी है: अर्थात् आलोचना का कर्तव्य साहित्यक कृति की विश्लेषण परक व्याख्या है। साहित्यकार जीवन और अनभुव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। साहित्य में जहाँ रागतत्व प्रधान है वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व। आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों और शिस्तयों का भी आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि से तभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे, वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।



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आलोचना

आलोचना या समालोचना (Criticism) किसी वस्तु/विषय की, उसके लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, उसके गुण-दोषों एवं उपयुक्ततता का विवेचन करने वालि साहित्यिक विधा है। हिंदी आलोचना की शुरुआत १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेन्दु युग से ही मानी जाती है। 'समालोचना' का शाब्दिक अर्थ है - 'अच्छी तरह देखना'। 'आलोचना' शब्द 'लुच' धातु से बना है। 'लुच' का अर्थ है 'देखना'। समीक्षा और समालोचना शब्दों का भी यही अर्थ है। अंग्रेजी के 'क्रिटिसिज्म' शब्द के समानार्थी रूप में 'आलोचना' का व्यवहार होता है। संस्कृत में प्रचलित 'टीका-व्याख्या' और 'काव्य-सिद्धान्तनिरूपण' के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धान्तनिरूपण से स्वतंत्र चीज़ है। आलोचना का कार्य है किसी साहित्यक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गणु और अर्थव्यस्था का निर्धारण करना। डॉक्टर श्यामसुन्दर दास ने आलोचना की परिभाषा इन शब्दों में दी है: अर्थात् आलोचना का कर्तव्य साहित्यक कृति की विश्लेषण परक व्याख्या है। साहित्यकार जीवन और अनभुव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। साहित्य में जहाँ रागतत्व प्रधान है वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व। आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों और शिस्तयों का भी आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि से तभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे, वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।



बहुआयामी प्रतिभा के धनी इंजी. संजीव वर्मा सलिल

बहुआयामी प्रतिभा के धनी इंजी. संजीव वर्मा सलिल
संजीव जी मेरे यांत्रिकी मित्र है,लोक निर्माण विभाग और विकास प्राधिकरण सामान विभाग होने से हमारा मित्रवत रिश्ता वर्षो पुराना है,आपका झुकाव हिंदी लेखन में होने से एव साहित्यिक होने से मुझे आपकी सराहना के कई मौके मिले है । अब पुन: आपको ट्रू मीडिया मासिक पत्रिका दिल्ली, प्रसंग ६८ वीं वर्ष ग्रंथि। सम्मानित कर आपकी और हमारी प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाए जा रहे है। आपने इंस्टीटूशन ऑफ़ इंजीनियर्स के लिए अभियंता बंधु का सफल संपादन किया व 'वैश्विकता को निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ' लेख लिखा जिसको अखिल भारतीय द्वितीय श्रेष्ठ पुरस्कार प्राप्त हुआ ।शुभकामना और धन्यवाद ।
तरुण कुमार आनंद
अध्यक्ष
इंस्टीटूशन ऑफ़ इंजीनियर्स लोकल सेंटर जबलपुर

विमर्श : धर्म

विमर्श :
धर्म
*
- धर्म क्या है?
- धर्म वह जो धारण किया जाए
- क्या धारण किया जाए?
- जो शुभ है
- शुभ क्या है?
- जो सबके लिए हितकारी, कल्याणकारी हो
- हमने जितना जीवन जिया, उसमें जितने कर्म किए, उनमें से कितने सर्वहितकारी हैं और कितने सर्वहितकारी? खुद सोचें गम धार्मिक हैं या अधार्मिक?
- गाँधी से किसी ने पूछा क्या करना उचित है, कैसे पता चले?
- एक ही तरीका है गाँधी' ने कहा। यह देखो कि उस काम को करने से समाज के आखिरी आदमी (सबसे अधिक कमजोर व्यक्ति) का भला हो रहा है या नहीं? गाँधी ने कहा।
- हमारे कितने कामों सो आखिरी आदमी का भला हुआ?
- अपना पेट तो पशु-पक्षी भी भर लेते हैं। परिंदे, चीटी, गिलहरी जैसे कमजोर जीव आपत्काल के लिए बताते भी हैं किंतु ताकतवर शेर, हाथी आदि कभी जोड़ते नहीं। इतना ही नहीं, पेट भरने के बाद खाते भी नहीं, अपने से कमजोर जानवरों के लिए छोड़ देते हैं जिसे खाकर भेजिए, सियार उनका छोड़ा खाकर बाज, चील, अवशिष्ट खाकर इल्ली आदि पाते हैं।
- हम तथाकथित समझदार इंसान इसके सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। खाते कम, जोड़ते अधिक हैं। यहाँ तक कि मरने तक कुछ भी छोड़ते नहीं।
- धार्मिक कौन है? सोचें, फकीर या राजा, साधु या साहूकार?, समय का अधिकारी?
- गम क्या बनना चाहते हैं? धार्मिक या अधार्मिक?
***

द्विपदियाँ

द्विपदियाँ 
प्रात नमन करता अरुण, नित अर्णव के साथ
कहे सत्य सारांश में, जिओ उठाकर माथ
जिओ उठाकर माथ, हाथ यदि थाम चलोगे
पाओगे आलोक, धन्य अखिलेश कहोगे
रमन अनिल में करो, विजय तब मिल पाएगी
श्रीधर दिव्य ज्योत्सना मुकुलित जय गाएगी
मीनाक्षी सपना चंदा नर्मदा नहाएँ
तारे हो संजीव, सलिल में भव तर जाएँ
शिव शंकर डमडम डिमडिम डमरू गुंजाएँ
शिवा गजानन कार्तिक से मन छंद लिखाएँ
जगवाणी हिंदी दस दिश हो सके प्रतिष्ठित
संग बोलियाँ-भाषाएँ सब रहें अधिष्ठित
कर उपासना सतत साधना सद्भावों की
होली जला सकें हम मिलकर अलगावों की
***
संजीव
६-७-२०

गीत : पौधा पेड़ बनाओ

गीत :
पौधा पेड़ बनाओ
*
काटे वृक्ष, पहाड़ी खोदी, खो दी है हरियाली, 
बदरी चली गई बिन बरसे,जैसे गगरी खाली,
*
खा ली किसने रेत नदी की, लूटे नेह किनारे?
पूछ रही मन-शांति, रहूँ मैं किसके कहो सहारे?
*
किसने कितना दर्द सहा रे!, कौन बताए पीड़ा?
नेता के महलों में करता, विकास क्यों क्रीड़ा?
*
कीड़ा छोड़ जड़ों को, नभ में बन पतंग उड़ने का.
नहीं बताता कट-फटकर, परिणाम मिले गिरने का.
*
नदियाँ गहरी करो, किनारे ऊँचे जरा उठाओ.
सघन पर्णवाले पौधे मिल, लगा तनिक हर्षाओ.
*
पौधा पेड़ बनाओ, पाओ पुण्य यज्ञ करने का.
वृक्ष काट क्यों निसंतान हो, कर्म नहीं मिटने का.
*
अगला जन्म बिगाड़ रहे क्यों, मिटा-मिटा हरियाली?
पाट रहा तालाब जो रहे , टेंट उसी की खाली.
*
पशु-पक्षी प्यासे मारे जो, उनका छीन बसेरा.
अगले जनम रहे बेघर वह, मिले न उसको डेरा.
*
मेघ करो अनुकंपा हम पर, बरसाओ शीतल जल.
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित, प्लावन करे न बेकल.
*
६.७.२०१८, ७९९९५५९६१८