मुक्तिका
संजीव
*
अच्छे दिन आयेंगे सुनकर जी लिये
नोट भी पायेंगे सुनकर जी लिये
सूत तजकर सूट को अपना लिया
फ्लैग फहरायेंगे सुनकर जी लिये
रोज झंडा विदेशी फहरा रहे
मन वही भायेंगे सुनकर जी लिये
मौन साधा भाग, हैं वाचाल अब
भाग अजमायेंगे सुनकर जी लिये
चोर-डाकू स्वांग कर हैं एक अब
संत बन जायेंगे सुनकर जी लिये
बात अंग्रेजी में हिंदी की करें
काग ही गायेंगे सुनकर जी लिये
आम भी जब ख़ास बन लड़ते रहें
लोग पछतायेंगे सुनकर जी लिये
१६-६-२०१५
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
बुधवार, 16 जून 2021
मुक्तिका
मुक्तिका
*
सूरज संध्या के संग डूबा वाकिफ हो ना
ऊषा के संग फिर ऊगेगा वाकिफ हो ना
राम नाम पर लूट हुई कर भू घोटाला
दो के हुए अठारह पल में वाकिफ हो ना
नदी तटों पर लाशों के उत्तरदायी जो
कुचल रहे हैं माया ममता वाकिफ हो ना
मन की बातों में जन-मन का दर्द न किंचित
अहंकार है, मृगतृष्णा है, वाकिफ हो ना
यह अमावसी निशा न हरदम रह पाएगी
शरद पूर्णिमा फिर आएगी वाकिफ हो ना
गीत ग़ज़ल लघुकथा व्यंग्य कह सत्य हमेशा
परिवर्तन लाने में सक्षम वाकिफ हो ना
*
मंगलवार, 15 जून 2021
गीत
गीत :
भाग्य निज पल-पल सराहूँ.....
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाग्य निज पल-पल सराहूँ,
जीत तुमसे, मीत हारूँ.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एटक तुमको निहारूँ.....
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूँ...
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ है.
विदेहित है देह त्रिभुवन,
मन मुखर काकातुआ है.
अछूते प्रतिबिम्ब की,
अँजुरी अनूठी विहँस वारूँ...
बाँह में ले बाँह, पूरी
चाह कर ले, दाह तेरी.
थाह पाकर भी न पाये,
तपे शीतल छाँह तेरी.
विरह का हर पल युगों सा,
गुजारा, उसको बिसारूँ...
बजे नूपुर, खनक कँगना,
कहे छूटा आज अँगना.
देहरी तज देह री! रँग जा,
पिया को आज रँग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ, पी कँह? पुकारूँ...
पंचशर साधे निहत्थे पर,
कुसुम आयुध चला, चल.
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चाँदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूँ...
*****
नवगीत
आ गयीं तुम
*
आ गयीं तुम
संग लेकर
सुनहरी ऊषा-किरण शत।
*
परिंदे शत चहचहाते
कर रहे स्वागत।
हँस रहा लख वास्तु
है गृह-लक्ष्मी आगत।
छा गयी हैं
रख अलंकृत
दुपहरी-संध्या, चरण शत।
*
हीड़ते चूजे, चुपे पा
चौंच में दाना।
चाँद-तारे छा गगन पर
छेड़ते गाना।
भा गयी है
श्याम रजनी
कर रही निद्रा वरण शत।
*
बंद नयनों ने बसाये
शस्त्रों सपने।
सांस में घुल सांस ही
रचती नए सपने।
गा रहे मन-
प्राण नगमे
वर रहे युग्मित तरुण शत।
*
आ गयीं तुम
संग लेकर
सुनहरी ऊषा-किरण शत।
*
गीत
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
नवगीत :
संजीव
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा
कोयल का स्वर रुद्ध
कर रहेे रक्षित
कागा काँव
***
भाग्य निज पल-पल सराहूँ.....
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाग्य निज पल-पल सराहूँ,
जीत तुमसे, मीत हारूँ.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एटक तुमको निहारूँ.....
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूँ...
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ है.
विदेहित है देह त्रिभुवन,
मन मुखर काकातुआ है.
अछूते प्रतिबिम्ब की,
अँजुरी अनूठी विहँस वारूँ...
बाँह में ले बाँह, पूरी
चाह कर ले, दाह तेरी.
थाह पाकर भी न पाये,
तपे शीतल छाँह तेरी.
विरह का हर पल युगों सा,
गुजारा, उसको बिसारूँ...
बजे नूपुर, खनक कँगना,
कहे छूटा आज अँगना.
देहरी तज देह री! रँग जा,
पिया को आज रँग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ, पी कँह? पुकारूँ...
पंचशर साधे निहत्थे पर,
कुसुम आयुध चला, चल.
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चाँदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूँ...
*****
नवगीत
आ गयीं तुम
*
आ गयीं तुम
संग लेकर
सुनहरी ऊषा-किरण शत।
*
परिंदे शत चहचहाते
कर रहे स्वागत।
हँस रहा लख वास्तु
है गृह-लक्ष्मी आगत।
छा गयी हैं
रख अलंकृत
दुपहरी-संध्या, चरण शत।
*
हीड़ते चूजे, चुपे पा
चौंच में दाना।
चाँद-तारे छा गगन पर
छेड़ते गाना।
भा गयी है
श्याम रजनी
कर रही निद्रा वरण शत।
*
बंद नयनों ने बसाये
शस्त्रों सपने।
सांस में घुल सांस ही
रचती नए सपने।
गा रहे मन-
प्राण नगमे
वर रहे युग्मित तरुण शत।
*
आ गयीं तुम
संग लेकर
सुनहरी ऊषा-किरण शत।
*
गीत
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
नवगीत :
संजीव
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा
कोयल का स्वर रुद्ध
कर रहेे रक्षित
कागा काँव
***
सोमवार, 14 जून 2021
हास्य रचना: मेरी श्वास-श्वास में कविता
हास्य रचना:
मेरी श्वास-श्वास में कविता
*
मेरी श्वास-श्वास में कविता
छींक-खाँस दूँ तो हो गीत।
युग क्या जाने खर्राटों में
मेरे व्याप्त मधुर संगीत।
पल-पल में कविता कर देता
पहर-पहर में लिखूँ निबंध।
मुक्तक-क्षणिका क्षण-क्षण होते
चुटकी बजती काव्य प्रबंध।
रस-लय-छंद-अलंकारों से
लेना-देना मुझे नहीं।
बिंब-प्रतीक बिना शब्दों की
नौका खेना मुझे यहीं।
धुंआधार को नाम मिला है
कविता-लेखन की गति से।
शारद भी चकराया करतीं
हैं; मेरी अद्भुत मति से।
खुद गणपति भी हार गए
कविता सुन लिख सके नहीं।
खोजे-खोजे अर्थ न पाया
पंक्ति एक बढ़ सके नहीं।
एक साल में इतनी कविता
जितने सर पर बाल नहीं।
लिखने को कागज़ इतना हो
जितनी भू पर खाल नहीं।
वाट्स एप को पूरा भर दूँ
अगर जागकर लिख दूँ रात।
गूगल का स्पेस कम पड़े,
मुखपोथी की क्या औकात?
ट्विटर, वाट्स एप, मेसेंजर
मुझे देख डर जाते हैं।
वेदव्यास भी मेरे सम्मुख
फीके से पड़ जाते हैं।
वाल्मीकि भी पानी भरते
मेरी प्रतिभा के आगे।
जगनिक और ईसुरी सम्मुख
जाऊँ तो पानी माँगे।
तुलसी सूर निराला बच्चन
से मेरी कैसी समता?
अब के कवि खद्योत सरीखा
हर मेरे सम्मुख नमता।
किस्में क्षमता है जो मेरी
प्रतिभा का गुणगान करे?
इसीलिये मैं खुद करता हूँ,
धन्य वही जो मान करे.
विन्ध्याचल से ज्यादा भारी
अभिनंदन
के पत्र हुए।
स्मृति-चिन्ह अमरकंटक सम
जी से प्यारे लगें मुए।
करो न चिता जो व्यय; देकर
मान पत्र ले, करूँ कृतार्थ।
लक्ष्य एक अभिनंदित होना,
इस युग का मैं ही हूँ पार्थ।
***
१४.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
मेरी श्वास-श्वास में कविता
*
मेरी श्वास-श्वास में कविता
छींक-खाँस दूँ तो हो गीत।
युग क्या जाने खर्राटों में
मेरे व्याप्त मधुर संगीत।
पल-पल में कविता कर देता
पहर-पहर में लिखूँ निबंध।
मुक्तक-क्षणिका क्षण-क्षण होते
चुटकी बजती काव्य प्रबंध।
रस-लय-छंद-अलंकारों से
लेना-देना मुझे नहीं।
बिंब-प्रतीक बिना शब्दों की
नौका खेना मुझे यहीं।
धुंआधार को नाम मिला है
कविता-लेखन की गति से।
शारद भी चकराया करतीं
हैं; मेरी अद्भुत मति से।
खुद गणपति भी हार गए
कविता सुन लिख सके नहीं।
खोजे-खोजे अर्थ न पाया
पंक्ति एक बढ़ सके नहीं।
एक साल में इतनी कविता
जितने सर पर बाल नहीं।
लिखने को कागज़ इतना हो
जितनी भू पर खाल नहीं।
वाट्स एप को पूरा भर दूँ
अगर जागकर लिख दूँ रात।
गूगल का स्पेस कम पड़े,
मुखपोथी की क्या औकात?
ट्विटर, वाट्स एप, मेसेंजर
मुझे देख डर जाते हैं।
वेदव्यास भी मेरे सम्मुख
फीके से पड़ जाते हैं।
वाल्मीकि भी पानी भरते
मेरी प्रतिभा के आगे।
जगनिक और ईसुरी सम्मुख
जाऊँ तो पानी माँगे।
तुलसी सूर निराला बच्चन
से मेरी कैसी समता?
अब के कवि खद्योत सरीखा
हर मेरे सम्मुख नमता।
किस्में क्षमता है जो मेरी
प्रतिभा का गुणगान करे?
इसीलिये मैं खुद करता हूँ,
धन्य वही जो मान करे.
विन्ध्याचल से ज्यादा भारी
अभिनंदन
के पत्र हुए।
स्मृति-चिन्ह अमरकंटक सम
जी से प्यारे लगें मुए।
करो न चिता जो व्यय; देकर
मान पत्र ले, करूँ कृतार्थ।
लक्ष्य एक अभिनंदित होना,
इस युग का मैं ही हूँ पार्थ।
***
१४.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
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हास्य रचना मेरी श्वास-श्वास में कविता
बाल गीत सूरज
बाल गीत
सूरज
*
पर्वत-पीछे झाँके ऊषा
हाथ पकड़कर आया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
धूप संग इठलाया सूरज।
*
योग कर रहा संग पवन के
करे प्रार्थना भँवरे के सँग।
पैर पटकता मचल-मचलकर
धरती मैडम हुईं बहुत तँग।
तितली देखी आँखमिचौली
खेल-जीत इतराया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
नाक बहाता आया सूरज।
*
भाता है 'जन गण मन' गाना
चाहे दोहा-गीत सुनाना।
झूला झूले किरणों के सँग
सुने न, कोयल मारे ताना।
मेघा देख, मोर सँग नाचे
वर्षा-भीग नहाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
झूला पा मुस्काया सूरज।
*
खाँसा-छींका, आई रुलाई
मैया दिशा झींक-खिसियाई।
बापू गगन डॉक्टर लाया
डरा सूर्य जब सुई लगाई।
कड़वी गोली खा, संध्या का
सपना देख न पाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
कॉमिक पढ़ हर्षाया सूरज।
***
सूरज
*
पर्वत-पीछे झाँके ऊषा
हाथ पकड़कर आया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
धूप संग इठलाया सूरज।
*
योग कर रहा संग पवन के
करे प्रार्थना भँवरे के सँग।
पैर पटकता मचल-मचलकर
धरती मैडम हुईं बहुत तँग।
तितली देखी आँखमिचौली
खेल-जीत इतराया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
नाक बहाता आया सूरज।
*
भाता है 'जन गण मन' गाना
चाहे दोहा-गीत सुनाना।
झूला झूले किरणों के सँग
सुने न, कोयल मारे ताना।
मेघा देख, मोर सँग नाचे
वर्षा-भीग नहाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
झूला पा मुस्काया सूरज।
*
खाँसा-छींका, आई रुलाई
मैया दिशा झींक-खिसियाई।
बापू गगन डॉक्टर लाया
डरा सूर्य जब सुई लगाई।
कड़वी गोली खा, संध्या का
सपना देख न पाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
कॉमिक पढ़ हर्षाया सूरज।
***
गीत कुसुम वीर
अतिथि रचना
'कौन संकेत देता रहा'
कुसुम वीर
*
भोर में साथ उषा के जागा रवि, साँझ आभा सिन्दूरी लिए थी खड़ी
कौन संकेत देता रहा रश्मि को, रास धरती से मिलकर रचाती रही
पलता अंकुर धरा की मृदुल कोख में, पल्लवित हो सृजन जग का करता रहा
गोधूलि के कण को समेटे शशि,चाँदनी संग नभ में विचरता रहा
सागर से लेकर उड़ा वाष्पकण, बन कर बादल बरसता-गरजता रहा
मेघ की ओट से झाँकती दामिनी, धरती मन प्रांगण को भिगोता रहा
उत्तालित लहर भाव के वेग में तट के आगोश से थी लिपटती रही
तरंगों की ताल पे नाचे सदा, सागर के संग-संग थिरकती रही
स्मित चाँदनी की बिखरती रही, आसमां' को उजाले में भरती रही
कौन संकेत देता रहा रात भर, सूनी गलियों की टोह वो लेती रही
पुष्प गुञ्जों में यौवन सरसता रहा, रंग वासन्त उनमें छिटकता रहा
कौन पाँखुर को करता सुवासित यहाँ, भ्रमर आ कर मकरन्द पीता रहा
झड़ने लगे शुष्क थे पात जो, नई कोंपल ने ताका ठूँठी डाल को
शाख एक-दूजे से पूछने तब लगी, क्या जीवन का अंतिम प्रहर है यही
साँसों के चक्र में ज़िंदगी फिर रही, मौत के साये में उम्र भी घट रही
कब किसने सुना वक़्त की थाप को, रेत मुट्ठी से हर दम फिसलती रही
'कौन संकेत देता रहा'
कुसुम वीर
*
भोर में साथ उषा के जागा रवि, साँझ आभा सिन्दूरी लिए थी खड़ी
कौन संकेत देता रहा रश्मि को, रास धरती से मिलकर रचाती रही
पलता अंकुर धरा की मृदुल कोख में, पल्लवित हो सृजन जग का करता रहा
गोधूलि के कण को समेटे शशि,चाँदनी संग नभ में विचरता रहा
सागर से लेकर उड़ा वाष्पकण, बन कर बादल बरसता-गरजता रहा
मेघ की ओट से झाँकती दामिनी, धरती मन प्रांगण को भिगोता रहा
उत्तालित लहर भाव के वेग में तट के आगोश से थी लिपटती रही
तरंगों की ताल पे नाचे सदा, सागर के संग-संग थिरकती रही
स्मित चाँदनी की बिखरती रही, आसमां' को उजाले में भरती रही
कौन संकेत देता रहा रात भर, सूनी गलियों की टोह वो लेती रही
पुष्प गुञ्जों में यौवन सरसता रहा, रंग वासन्त उनमें छिटकता रहा
कौन पाँखुर को करता सुवासित यहाँ, भ्रमर आ कर मकरन्द पीता रहा
झड़ने लगे शुष्क थे पात जो, नई कोंपल ने ताका ठूँठी डाल को
शाख एक-दूजे से पूछने तब लगी, क्या जीवन का अंतिम प्रहर है यही
साँसों के चक्र में ज़िंदगी फिर रही, मौत के साये में उम्र भी घट रही
कब किसने सुना वक़्त की थाप को, रेत मुट्ठी से हर दम फिसलती रही
चिप्पियाँ Labels:
गीत कुसुम वीर
लघुकथा एकलव्य, मुक्तक
मुक्तक
पलकें भिगाते तुम अगर बरसात हो जाती
रोते अगर तो ज़िंदगी की मात हो जाती
ख्वाबों में अगर देखते मंज़िल को नहीं तुम
सच कहता हूँ मैं हौसलों की मात हो जाती
*
लघुकथा:
एकलव्य
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
- आचार्य संजीव 'सलिल' संपादक दिव्य नर्मदा समन्वयम , २०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाऊन, जबलपुर ४८२००१ वार्ता:०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४
१४-६-२०१४
*
पलकें भिगाते तुम अगर बरसात हो जाती
रोते अगर तो ज़िंदगी की मात हो जाती
ख्वाबों में अगर देखते मंज़िल को नहीं तुम
सच कहता हूँ मैं हौसलों की मात हो जाती
*
लघुकथा:
एकलव्य
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
- आचार्य संजीव 'सलिल' संपादक दिव्य नर्मदा समन्वयम , २०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाऊन, जबलपुर ४८२००१ वार्ता:०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४
१४-६-२०१४
*
चिप्पियाँ Labels:
मुक्तक,
लघुकथा एकलव्य
दोहा मुक्तिका
सामयिक दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
संजीव 'सलिल
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..
योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..
आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..
बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..
राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..
अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..
जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?
सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..
सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..
लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..
'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..
१४-६-२०११
*************
संदेहित किरदार.....
संजीव 'सलिल
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..
योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..
आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..
बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..
राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..
अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..
जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?
सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..
सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..
लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..
'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..
१४-६-२०११
*************
चिप्पियाँ Labels:
दोहा मुक्तिका
मुक्तक
चंद मुक्तक
संजीव 'सलिल'
*
*
कलम तलवार से ज्यादा, कहा सच वार करती है.
जुबां नारी की लेकिन सबसे ज्यादा धार धरती है.
महाभारत कराया द्रौपदी के व्यंग बाणों ने-
संजीव 'सलिल'
*
*
कलम तलवार से ज्यादा, कहा सच वार करती है.
जुबां नारी की लेकिन सबसे ज्यादा धार धरती है.
महाभारत कराया द्रौपदी के व्यंग बाणों ने-
नयन के तीर छेदें तो न दिल की हार खलती है..
*
कलम नीलाम होती रोज ही अखबार में देखो.
खबर बेची-खरीदी जा रही बाज़ार में लेखो.
न माखनलाल जी ही हैं, नहीं विद्यार्थी जी हैं-
रखे अख़बार सब गिरवी स्वयं सरकार ने देखो.
*
बहाते हैं वो आँसू छद्म, छलते जो रहे अब तक.
हजारों मर गए पर शर्म इनको आई ना अब तक.
करो जूतों से पूजा देश के नेताओं की मिलकर-
करें गद्दारियाँ जो 'सलिल' पाएँ एक भी ना मत..
*
वसन हैं श्वेत-भगवा किन्तु मन काले लिए नेता.
सभी को सत्य मालुम, पर अधर अब तक सिए नेता.
सभी दोषी हैं इनको दंड दो, मत माफ़ तुम करना-
'सलिल' पी स्वार्थ की मदिरा सतत, अब तक जिए नेता..
*
जो सत्ता पा गए हैं बस चला तो देश बेचेंगे.
ये अपनी माँ के फाड़ें वस्त्र, तन का चीर खीचेंगे.
यही तो हैं असुर जो देश से गद्दारियाँ करते-
कहो कब हम जागेंगे और इनको दूर फेंकेंगे?
*
तराजू न्याय की थामे हुए हो जब कोई अंधा.
तो काले कोट क्यों करने से चूकें सत्य का धंधा.
खरीदी और बेची जा रही है न्याय की मूरत-
'सलिल' कोई न सूरत है न हो वातावरण गन्दा.
*
*
कलम नीलाम होती रोज ही अखबार में देखो.
खबर बेची-खरीदी जा रही बाज़ार में लेखो.
न माखनलाल जी ही हैं, नहीं विद्यार्थी जी हैं-
रखे अख़बार सब गिरवी स्वयं सरकार ने देखो.
*
बहाते हैं वो आँसू छद्म, छलते जो रहे अब तक.
हजारों मर गए पर शर्म इनको आई ना अब तक.
करो जूतों से पूजा देश के नेताओं की मिलकर-
करें गद्दारियाँ जो 'सलिल' पाएँ एक भी ना मत..
*
वसन हैं श्वेत-भगवा किन्तु मन काले लिए नेता.
सभी को सत्य मालुम, पर अधर अब तक सिए नेता.
सभी दोषी हैं इनको दंड दो, मत माफ़ तुम करना-
'सलिल' पी स्वार्थ की मदिरा सतत, अब तक जिए नेता..
*
जो सत्ता पा गए हैं बस चला तो देश बेचेंगे.
ये अपनी माँ के फाड़ें वस्त्र, तन का चीर खीचेंगे.
यही तो हैं असुर जो देश से गद्दारियाँ करते-
कहो कब हम जागेंगे और इनको दूर फेंकेंगे?
*
तराजू न्याय की थामे हुए हो जब कोई अंधा.
तो काले कोट क्यों करने से चूकें सत्य का धंधा.
खरीदी और बेची जा रही है न्याय की मूरत-
'सलिल' कोई न सूरत है न हो वातावरण गन्दा.
*
१४-६-२०१०
मैं भारत हूँ
मैं भारत हूँ
सुमन पुष्पा भी न था, तूफान आया
विनत था हो प्रबल सँग सैलाब लाया
बिजलियाँ दिल पर गिरीं, संसार उजड़े
बेरहम कह सफलता फिर मुस्कुराया
सोचता है जीत मुझको वह लिखेगा
फिर नया इतिहास देवों सम दिखेगा
सदा दानव चाहते हैं अमर होना
मिले सत्ता तो उसे चाहें न खोना
सोच यह लिखती पतन की पटकथा है
चतुर्दिक जातीं बिखर बेबस व्यथा है
मैं भारत हूँ, देखता जन जागता है
देश को ही इष्ट अपना मानता है
आह हो एकत्र, बनती आग सूरज
शिखर होते धूसरित, झट रौंदती रज
मैं भारत हूँ, भाग्य अपना आप लिखता
मैं भारत हूँ, जगत् गुरु फिर श्रेष्ठ दिखता
काल जन को टेरता है जाग जाओ
करो फिर बदलाव भारत को बचाओ
***
चिप्पियाँ Labels:
मैं भारत हूँ
रविवार, 13 जून 2021
दोहा सलिला
दोहा सलिला
*
पैर जमा कर भूमि पर, छू सकते आकाश
बाधाओं के तोड़ दो, संकल्पों से पाश
*
बाधाओं से रुक सकी, आभा कभी न मीत
बादल आकर दूर हों, कोशिश गाए गीत
*
बाधाओं से रुक सकी, आभा कभी न मीत
बादल आकर दूर हों, कोशिश गाए गीत
*
बाधाओं के तोड़ दो, संकल्पों से पाश
*
बाधाओं से रुक सकी, आभा कभी न मीत
बादल आकर दूर हों, कोशिश गाए गीत
*
बाधाओं से रुक सकी, आभा कभी न मीत
बादल आकर दूर हों, कोशिश गाए गीत
*
१३-६-२०१८
चिप्पियाँ Labels:
दोहा सलिला
नवगीत
नवगीत
दोहा गीत
*
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार,
व्यथा-कथा का है नहीं
कोई पारावार।
*
लोरी सुनकर कब हँसी?
खेली बाबुल गोद?
कब मैया-कैयां चढ़ी
कर आमोद-प्रमोद?
मलिन दृष्टि से भीत है
रुचता नहीं दुलार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
*
पर्वत - जंगल हो गए
नष्ट, न पक्षी शेष
पशुधन भी है लापता
नहीं शांति का लेश
दानववत मानव करे
अनगिन अत्याचार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
*
कलकल धारा सूखकर
हाय! हो गयी मंद
धरती की छाती फ़टी
कौन सुनाए छंद
पछताए, सुधरे नहीं
पैर कुल्हाड़ी मार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
***
१०-६-२०१६
तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी
जबलपुर
दोहा गीत
*
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार,
व्यथा-कथा का है नहीं
कोई पारावार।
*
लोरी सुनकर कब हँसी?
खेली बाबुल गोद?
कब मैया-कैयां चढ़ी
कर आमोद-प्रमोद?
मलिन दृष्टि से भीत है
रुचता नहीं दुलार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
*
पर्वत - जंगल हो गए
नष्ट, न पक्षी शेष
पशुधन भी है लापता
नहीं शांति का लेश
दानववत मानव करे
अनगिन अत्याचार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
*
कलकल धारा सूखकर
हाय! हो गयी मंद
धरती की छाती फ़टी
कौन सुनाए छंद
पछताए, सुधरे नहीं
पैर कुल्हाड़ी मार
प्रवहित थी अवरुद्ध है
नेह नदी की धार
***
१०-६-२०१६
तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी
जबलपुर
सामयिक त्रिपदियाँ
सामयिक त्रिपदियाँ :
संजीव 'सलिल'
*
खोज कहाँ उनकी कमर,
कमरा ही आता नज़र,
लेकिन हैं वे बिफिकर..
*
विस्मय होता देखकर.
अमृत घट समझा जिसे
विषमय है वह सियासत..
*
दुर्घटना में कै मरे?
गैस रिसी भोपाल में-
बतलाते हैं कैमरे..
*
एंडरसन को छोड़कर
की गद्दारी देश से
नेताओं ने स्वार्थ वश..
*
भाग गया भोपाल से
दूर कैरवां जा छिपा
अर्जुन दोषी देश का..
*
संजीव 'सलिल'
*
खोज कहाँ उनकी कमर,
कमरा ही आता नज़र,
लेकिन हैं वे बिफिकर..
*
विस्मय होता देखकर.
अमृत घट समझा जिसे
विषमय है वह सियासत..
*
दुर्घटना में कै मरे?
गैस रिसी भोपाल में-
बतलाते हैं कैमरे..
*
एंडरसन को छोड़कर
की गद्दारी देश से
नेताओं ने स्वार्थ वश..
*
भाग गया भोपाल से
दूर कैरवां जा छिपा
अर्जुन दोषी देश का..
*
चिप्पियाँ Labels:
जनक छंद,
त्रिपदियाँ
त्रिपदिक गीत
जनकछंदी गीत
*
ब्यूटी पार्लर में गई
वृद्धा बाहर निकलकर
युवा रूपसी लग रही..
*
नश्वर है यह देह रे!
बता रहे जो भक्त को
रीझे भक्तिन-देह पे..
*
संत न करते परिश्रम
भोग लगाते रात-दिन
सर्वाधिक वे ही अधम..
*
गिद्ध भोज, बारात में
टूटो भूखें की तरह
अब न मान-मनुहार है..
*
पितृ-देहरी छिन गई
विदा होटलों से हुईं
हाय! हमारी बेटियाँ..
*
करते कन्या-दान जो
पाते हैं वर-दान वे
दे दहेज़ वर-पिता को..
१३-६-२०१०
*
ब्यूटी पार्लर में गई
वृद्धा बाहर निकलकर
युवा रूपसी लग रही..
*
नश्वर है यह देह रे!
बता रहे जो भक्त को
रीझे भक्तिन-देह पे..
*
संत न करते परिश्रम
भोग लगाते रात-दिन
सर्वाधिक वे ही अधम..
*
गिद्ध भोज, बारात में
टूटो भूखें की तरह
अब न मान-मनुहार है..
*
पितृ-देहरी छिन गई
विदा होटलों से हुईं
हाय! हमारी बेटियाँ..
*
करते कन्या-दान जो
पाते हैं वर-दान वे
दे दहेज़ वर-पिता को..
१३-६-२०१०
*
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गीत जनकछंदी,
जनकछंदी गीत,
त्रिपदिक गीत
कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर दोहानुवाद
कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर
दोहानुवाद:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
**
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
दोहानुवाद:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
**
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
१३-६-२०१०
***
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रवींद्रनाथ ठाकुर दोहानुवाद
शनिवार, 12 जून 2021
नवगीत शिरीष के फूल
नवगीत
शिरीष के फूल
शिरीष के फूल
*
फूल-फूल कर बजा रहे हैं
बीहड़ में रमतूल,
धूप-रूप पर मुग्ध, पेंग भर
छेड़ें झूला झूल
न सुधरेंगे
शिरीष के फूल।
*
तापमान का पान कर रहे
किन्तु न बहता स्वेद,
असरहीन करते सूरज को
तनिक नहीं है खेद।
थर्मामीटर नाप न पाये
ताप, गर्व निर्मूल
कर रहे हँस
शिरीष के फूल।।
*
भारत की जनसँख्या जैसे
खिल-झरते हैं खूब,
अनगिन दुःख, हँस सहे न लेकिन
है किंचित भी ऊब।
माथे लग चन्दन सी सोहे
तप्त जेठ की धूल
तार देंगे
शिरीष के फूल।।
*
हो हताश एकाकी रहकर
वन में कभी पलाश,
मार पालथी, तुरत फेंट-गिन
बाँटे-खेले ताश।
भंग-ठंडाई छान फली संग
पीकर रहते कूल,
हमेशा ही
शिरीष के फूल।।
*
जंगल में मंगल करते हैं
दंगल नहीं पसंद,
फाग, बटोही, राई भाते
छन्नपकैया छंद।
ताल-थाप, गति-यति-लय साधें
करें न किंचित भूल,
नाचते सँग
शिरीष के फूल।।
*
संसद में भेजो हल कर दें
पल में सभी सवाल,
भ्रमर-तितलियाँ गीत रचें नव
मेटें सभी बबाल।
चीन-पाक को रोज चुभायें
पैने शूल-बबूल
बदल रँग-ढँग
शिरीष के फूल।।
१२-६-२०१६
*****
बीहड़ में रमतूल,
धूप-रूप पर मुग्ध, पेंग भर
छेड़ें झूला झूल
न सुधरेंगे
शिरीष के फूल।
*
तापमान का पान कर रहे
किन्तु न बहता स्वेद,
असरहीन करते सूरज को
तनिक नहीं है खेद।
थर्मामीटर नाप न पाये
ताप, गर्व निर्मूल
कर रहे हँस
शिरीष के फूल।।
*
भारत की जनसँख्या जैसे
खिल-झरते हैं खूब,
अनगिन दुःख, हँस सहे न लेकिन
है किंचित भी ऊब।
माथे लग चन्दन सी सोहे
तप्त जेठ की धूल
तार देंगे
शिरीष के फूल।।
*
हो हताश एकाकी रहकर
वन में कभी पलाश,
मार पालथी, तुरत फेंट-गिन
बाँटे-खेले ताश।
भंग-ठंडाई छान फली संग
पीकर रहते कूल,
हमेशा ही
शिरीष के फूल।।
*
जंगल में मंगल करते हैं
दंगल नहीं पसंद,
फाग, बटोही, राई भाते
छन्नपकैया छंद।
ताल-थाप, गति-यति-लय साधें
करें न किंचित भूल,
नाचते सँग
शिरीष के फूल।।
*
संसद में भेजो हल कर दें
पल में सभी सवाल,
भ्रमर-तितलियाँ गीत रचें नव
मेटें सभी बबाल।
चीन-पाक को रोज चुभायें
पैने शूल-बबूल
बदल रँग-ढँग
शिरीष के फूल।।
१२-६-२०१६
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नवगीत शिरीष,
शिरीष
हास्य कविता ठेंगा
हास्य कविता
ठेंगा
👍👍👍
ठेंगे में 'ठ', ठाकुर में 'ठ', ठठा हँसा जो वह ही जीता
कौन ठठेरा?, कौन जुलाहा?, कौन कहाँ कब जूते सीता?
बिन ठेंगे कब काम चला है?, लगा, दिखा, चूसो या पकड़ो
चार अँगुलियों पर भारी है ठेंगा एक, न उससे अकड़ो
ठेंगे की महिमा भारी है, पूछो ठकुरानी से जाकर
ठेंगे के संग जीभ चिढ़ा दें, हो जाते बेबस करुणाकर
ठेंगा हाथों-लट्ठ थामता, पैरों में हो तो बेनामी
ठेंगा लगता, इसकी दौलत उसको दे देता है दामी
लोक देखता आया ठेंगा, नेता दिखा-दिखा है जीता
सीता-गीता हैं संसद में, लोकतंत्र को लगा पलीता
राम बाग़ में लंका जैसा दृश्य हुआ अभिनीत, ध्वंस भी
कान्हा गायब, यादव करनी देख अचंभित हुआ कंस भी
ठेंगा नितीश मुलायम लालू, ममता माया जया सोनिया
मौनी बाबा गुमसुम-अण्णा, आप बने तो मिले ना ठिया
चाय बेचकर छप्पन इंची, सीना बन जाता है ठेंगा
वादों को जुमला कहता है, अंधे को कहता है भेंगा
लोकतंत्र को लोभतंत्र कर, ठगता ठेंगा खुद अपने को
ढपली-राग हो गया ठेंगा, बेच रहा जन के सपने को
ठेंगे के आगे नतमस्तक, चतुर अँगुलियाँ चले न कुछ बस
ठेंगे ठाकुर को अर्पित कर भोग लगाओ, 'सलिल' मिले जस
ठेंगा
👍👍👍
ठेंगे में 'ठ', ठाकुर में 'ठ', ठठा हँसा जो वह ही जीता
कौन ठठेरा?, कौन जुलाहा?, कौन कहाँ कब जूते सीता?
बिन ठेंगे कब काम चला है?, लगा, दिखा, चूसो या पकड़ो
चार अँगुलियों पर भारी है ठेंगा एक, न उससे अकड़ो
ठेंगे की महिमा भारी है, पूछो ठकुरानी से जाकर
ठेंगे के संग जीभ चिढ़ा दें, हो जाते बेबस करुणाकर
ठेंगा हाथों-लट्ठ थामता, पैरों में हो तो बेनामी
ठेंगा लगता, इसकी दौलत उसको दे देता है दामी
लोक देखता आया ठेंगा, नेता दिखा-दिखा है जीता
सीता-गीता हैं संसद में, लोकतंत्र को लगा पलीता
राम बाग़ में लंका जैसा दृश्य हुआ अभिनीत, ध्वंस भी
कान्हा गायब, यादव करनी देख अचंभित हुआ कंस भी
ठेंगा नितीश मुलायम लालू, ममता माया जया सोनिया
मौनी बाबा गुमसुम-अण्णा, आप बने तो मिले ना ठिया
चाय बेचकर छप्पन इंची, सीना बन जाता है ठेंगा
वादों को जुमला कहता है, अंधे को कहता है भेंगा
लोकतंत्र को लोभतंत्र कर, ठगता ठेंगा खुद अपने को
ढपली-राग हो गया ठेंगा, बेच रहा जन के सपने को
ठेंगे के आगे नतमस्तक, चतुर अँगुलियाँ चले न कुछ बस
ठेंगे ठाकुर को अर्पित कर भोग लगाओ, 'सलिल' मिले जस
१२-६-२०१६
***
***
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हास्य कविता
ठेंगा
समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर
समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर द्वारा प्रकाशित
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा लिखित - संपादित साहित्य
०१. कलम के देव, भक्ति गीत, वर्ष १९९७, ISBN ८१-८७७२७-००-४, अनुपलब्ध
०२. भूकंप के साथ जीना सीखें, १९९७, ISBN ८१-८७७२७-००-४ लोकोपयोगी, अनुपलब्ध
०३. लोकतंत्र का मक़बरा, कवितायेँ, २००१, ISBN ८१-८७७२७-०७-१अनुपलब्ध
०४. मीत मेरे, कवितायेँ, २००३, ISBN ८१-८७७२७-११-x, १५०/-, सीमित प्रतियाँ
०५. काल है संक्रांति का, नवगीत, २०१६, ISBN ८१-७७६१-०००-७, ३००/-, सीमित प्रतियाँ
०६. राम नाम सुखदाई, भक्तिगीत, शांति देवी वर्मा, १९९९, ISBN ८१-८७७२७-००-४, २००८ ISBN ८१-८७७२७-००-४, अनुपलब्ध
०७. मता-ए-परवीन, ग़ज़ल संग्रह, परवीन हक़, १९९९, ISBN ८१-८७७२७-००-४, ८०/-, अनुपलब्ध
०८. उमर की पगडंडियों पर, गीत, राजेंद्र श्रीवास्तव, २०००, ISBN ८१-८७७२७-००-४१२०/-, अनुपलब्ध
९. पहला कदम, कविताएँ, डॉ. अनूप निगम, २००२, ISBN ८१-८७७२७-०८-x, १००/-, सीमित प्रतियाँ
१०. कदाचित, कवितायेँ, सुभाष पांडेय, २००२, ISBN ८१-८७७२७-१०-१, सीमित प्रतियाँ
११. Off and On, अंग्रेजी ग़ज़ल,अनिल जैन,२००१, ISBN ८१-८७७२७-१९-५, ८०/-
१२. यदा-कदा, उक्त ११ का हिंदी काव्यानुवाद, डॉ. बाबू जोसेफ-स्टीव विंसेंट, २००५, ISBN ८१-८७७२७-१५-२, ८०/-,
१३. नीरव का संगीत, कविताएँ, अग्निभ, २००८, ISBN ६१-८७७२९-१९-s, ८०/-, अनुपलब्ध
१४. समयजयी साहित्यशिल्पी भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'- व्यक्तित्व-कृतित्व, २००५, ISBN SI-७७६१-०४०-६०, ५००/-, सीमित प्रतियाँ
१५. निर्माण के नूपुर, सामूहिक काव्य संग्रह,१९८३, ५/-, अनुपलब्ध,
१६. नींव के पत्थर, सामूहिक काव्य संग्रह,१९८५, १०/-, अनुपलब्ध,
१७. तिनका-तिनका नीड़, सामूहिक काव्य संग्रह,२०००, ISBN ६१-८७७२९-१९-s,२५०/-, सीमित प्रतियाँ,
१८. कुरुक्षेत्र गाथा, प्रबंध काव्य, २०१६, ISBN ८१-७७६१-००२-३, ३००/-, सीमित प्रतियाँ
१९. सड़क पर, गीत-नवगीत संग्रह, २०१८, ISBN ८१-७७६१-०१०-४, २५०/-
२०. काव्य कालिंदी, डॉ. संतोष शुक्ला, २०२०, ISBN ८१-७७६१-०१३-९, २५०/-
२१. The second thought, अंग्रेजी कविता, अनिल जैन,२०१९, ISBN ८१-८७७२७-०११-२, १५०/-
२२. हस्तिनापुर की बिथा कथा (बुंदेली संक्षिप्त महाभारत), डॉ. एम. एल. खरे, २५०/-, सीमित प्रतियाँ,
२३. शब्द वर्तमान नवगीत संग्रह - जयप्रकाश श्रीवास्तव, १२०/-
२४. बुधिया लेता टोह - बसंत कुमार शर्मा - १८०/-
२५. पोखर ठोंके दावा नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १८०/-
२६. मौसम अंगार है नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १६०/-
२७. कोयल करे मुनादी नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार २००/-
२८. अंधी पीसे कुत्ते खाँय व्यंग्य काव्य संग्रह - अविनाश ब्योहार १००/-
२९. काव्य मंदाकिनी काव्य संग्रह - ३२५/-
***
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा लिखित - संपादित साहित्य
०१. कलम के देव, भक्ति गीत, वर्ष १९९७, ISBN ८१-८७७२७-००-४, अनुपलब्ध
०२. भूकंप के साथ जीना सीखें, १९९७, ISBN ८१-८७७२७-००-४ लोकोपयोगी, अनुपलब्ध
०३. लोकतंत्र का मक़बरा, कवितायेँ, २००१, ISBN ८१-८७७२७-०७-१अनुपलब्ध
०४. मीत मेरे, कवितायेँ, २००३, ISBN ८१-८७७२७-११-x, १५०/-, सीमित प्रतियाँ
०५. काल है संक्रांति का, नवगीत, २०१६, ISBN ८१-७७६१-०००-७, ३००/-, सीमित प्रतियाँ
०६. राम नाम सुखदाई, भक्तिगीत, शांति देवी वर्मा, १९९९, ISBN ८१-८७७२७-००-४, २००८ ISBN ८१-८७७२७-००-४, अनुपलब्ध
०७. मता-ए-परवीन, ग़ज़ल संग्रह, परवीन हक़, १९९९, ISBN ८१-८७७२७-००-४, ८०/-, अनुपलब्ध
०८. उमर की पगडंडियों पर, गीत, राजेंद्र श्रीवास्तव, २०००, ISBN ८१-८७७२७-००-४१२०/-, अनुपलब्ध
९. पहला कदम, कविताएँ, डॉ. अनूप निगम, २००२, ISBN ८१-८७७२७-०८-x, १००/-, सीमित प्रतियाँ
१०. कदाचित, कवितायेँ, सुभाष पांडेय, २००२, ISBN ८१-८७७२७-१०-१, सीमित प्रतियाँ
११. Off and On, अंग्रेजी ग़ज़ल,अनिल जैन,२००१, ISBN ८१-८७७२७-१९-५, ८०/-
१२. यदा-कदा, उक्त ११ का हिंदी काव्यानुवाद, डॉ. बाबू जोसेफ-स्टीव विंसेंट, २००५, ISBN ८१-८७७२७-१५-२, ८०/-,
१३. नीरव का संगीत, कविताएँ, अग्निभ, २००८, ISBN ६१-८७७२९-१९-s, ८०/-, अनुपलब्ध
१४. समयजयी साहित्यशिल्पी भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'- व्यक्तित्व-कृतित्व, २००५, ISBN SI-७७६१-०४०-६०, ५००/-, सीमित प्रतियाँ
१५. निर्माण के नूपुर, सामूहिक काव्य संग्रह,१९८३, ५/-, अनुपलब्ध,
१६. नींव के पत्थर, सामूहिक काव्य संग्रह,१९८५, १०/-, अनुपलब्ध,
१७. तिनका-तिनका नीड़, सामूहिक काव्य संग्रह,२०००, ISBN ६१-८७७२९-१९-s,२५०/-, सीमित प्रतियाँ,
१८. कुरुक्षेत्र गाथा, प्रबंध काव्य, २०१६, ISBN ८१-७७६१-००२-३, ३००/-, सीमित प्रतियाँ
१९. सड़क पर, गीत-नवगीत संग्रह, २०१८, ISBN ८१-७७६१-०१०-४, २५०/-
२०. काव्य कालिंदी, डॉ. संतोष शुक्ला, २०२०, ISBN ८१-७७६१-०१३-९, २५०/-
२१. The second thought, अंग्रेजी कविता, अनिल जैन,२०१९, ISBN ८१-८७७२७-०११-२, १५०/-
२२. हस्तिनापुर की बिथा कथा (बुंदेली संक्षिप्त महाभारत), डॉ. एम. एल. खरे, २५०/-, सीमित प्रतियाँ,
२३. शब्द वर्तमान नवगीत संग्रह - जयप्रकाश श्रीवास्तव, १२०/-
२४. बुधिया लेता टोह - बसंत कुमार शर्मा - १८०/-
२५. पोखर ठोंके दावा नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १८०/-
२६. मौसम अंगार है नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १६०/-
२७. कोयल करे मुनादी नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार २००/-
२८. अंधी पीसे कुत्ते खाँय व्यंग्य काव्य संग्रह - अविनाश ब्योहार १००/-
२९. काव्य मंदाकिनी काव्य संग्रह - ३२५/-
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समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर
मुक्तक
मुक्तक
नेह नर्मदा में अवगाहो, तन-मन निर्मल हो जाएगा।
रोम-रोम पुलकित होगा प्रिय!, अपनेपन की जय गाएगा।।
हर अभिलाषा क्षिप्रा होगी, कुंभ लगेगा संकल्पों का,
कोशिश का जनगण तट आकर, फल पा-देकर तर जाएगा।।
७-६-२०१६
नेह नर्मदा में अवगाहो, तन-मन निर्मल हो जाएगा।
रोम-रोम पुलकित होगा प्रिय!, अपनेपन की जय गाएगा।।
हर अभिलाषा क्षिप्रा होगी, कुंभ लगेगा संकल्पों का,
कोशिश का जनगण तट आकर, फल पा-देकर तर जाएगा।।
७-६-२०१६
विधाता/शुद्धगा छंद
छंद सलिला:
विधाता/शुद्धगा छंद
संजीव
*
छंद लक्षण: जाति यौगिक, प्रति पद २८ मात्रा,
यति ७-७-७-७ / १४-१४ , ८ वीं - १५ वीं मात्रा लघु
विशेष: उर्दू बहर हज़ज सालिम 'मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन' इसी छंद पर आधारित है.
लक्षण छंद:
विधाता को / नमन कर ले , प्रयासों को / गगन कर ले
रंग नभ पर / सिंधु में जल , साज पर सुर / अचल कर ले
सिद्धि-तिथि लघु / नहीं कोई , दिखा कंकर / मिला शंकर
न रुक, चल गिर / न डर, उठ बढ़ , सीकरों को / सलिल कर ले
संकेत: रंग =७, सिंधु = ७, सुर/स्वर = ७, अचल/पर्वत = ७
सिद्धि = ८, तिथि = १५
उदाहरण:
१. न बोलें हम न बोलो तुम , सुनें कैसे बात मन की?
न तोलें हम न तोलो तुम , गुनें कैसे जात तन की ?
न डोलें हम न डोलो तुम , मिलें कैसे श्वास-वन में?
न घोलें हम न घोलो तुम, जियें कैसे प्रेम धुन में?
जात = असलियत, पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात
२. ज़माने की निगाहों से , न कोई बच सका अब तक
निगाहों ने कहा अपना , दिखा सपना लिया ठग तक
गिले - शिकवे करें किससे? , कहें किसको पराया हम?
न कोई है यहाँ अपना , रहें जिससे नुमायाँ हम
३. है हक़ीक़त कुछ न अपना , खुदा की है ज़िंदगानी
बुन रहा तू हसीं सपना , बुजुर्गों की निगहबानी
सीखता जब तक न तपना , सफलता क्यों हाथ आनी?
कोशिशों में खपा खुदको , तब बने तेरी कहानी
४. जिएंगे हम, मरेंगे हम, नहीं है गम, न सोचो तुम
जलेंगे हम, बुझेंगे हम, नहीं है तम, न सोचो तुम
कहीं हैं हम, कहीं हो तुम, कहीं हैं गम, न सोचो तुम
यहीं हैं हम, यहीं हो तुम, नहीं हमदम, न सोचो तुम
*********
१२-६-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अनुगीत, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामरूप, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गीता, गीतिका, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मदनाग, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विधाता, विरहणी, विशेषिका, विष्णुपद, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, शुद्धगा, शंकर, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
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