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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

मुक्तक

मुक्तक 
जो मुश्किलों में हँसी-खुशी गीत गाते हैं वो हारते नहीं; हमेशा जीत जाते हैं मैं 'सलिल' हूँ; ठहरा नहीं बहता रहा सदा जो अंजुरी में रहे, लोग रीत जाते हैं. *

लघुकथा


लघुकथा
बर्दाश्तगी
*
एक शायर मित्र ने आग्रह किया कि मैं उनके द्वारा संपादित किये जा रहे हम्द (उर्दू काव्य-विधा जिसमें परमेश्वर की प्रशंसा में की गयी कवितायेँ) संकलन के लिये कुछ रचनाएँ लिख दूँ, साथ ही जिज्ञासा भी की कि इसमें मुझे, मेरे धर्म या मेरे धर्मगुरु को आपत्ति तो न होगी? मैंने तत्काल सहमति देते हुए कहा कि यह तो मेरे लिए ख़ुशी का वायस (कारण) है।
कुछ दिन बाद मित्र आये तो मैंने लिखे हुए हम्द सुनाये, उन्होंने प्रशंसा की और ले गये।
कई दिन यूँ ही बीत गये, कोई सूचना न मिली तो मैंने समाचार पूछा, उत्तर मिला वे सकुशल हैं पर किताब के बारे में मिलने पर बताएँगे। एक दिन वे आये कुछ सँकुचाते हुए। मैंने कारण पूछा तो बताया कि उन्हें मना कर दिया गया है कि अल्लाह के अलावा किसी और की तारीफ में हम्द नहीं कहा जा सकता जबकि मैंने अल्लाह के साथ- साथ चित्रगुप्त जी, शिव जी, विष्णु जी, ईसा मसीह, गुरु नानक, दुर्गा जी, सरस्वती जी, लक्ष्मी जी, गणेश जी व भारत माता पर भी हम्द लिख दिये थे। कोई बात नहीं, आप केवल अल्लाह पर लिख हम्द ले लें। उन्होंने बताया कि किसी गैरमुस्लिम द्वारा अल्लाह पर लिख गया हम्द भी क़ुबूल नहीं किया गया।
'किताब तो आप अपने पैसों से छपा रहे हैं फिर औरों का मश्वरा मानें या न मानें यह तो आपके इख़्तियार में है' -मैंने पूछा।
''नहीं, अगर उनकी बात नहीं मानूँगा तो मेरे खिलाफ फतवा जारी कर हुक्का-पानी बंद दिया जाएगा। कोई मेरे बच्चों से शादी नहीं करेगा'' -वे चिंताग्रस्त थे।
'अरे भाई! फ़िक्र मत करें, मेरे लिखे हुए हम्द लौटा दें, मैं कहीं और उपयोग कर लूँगा।' मैंने उन्हें राहत देने के लिए कहा।
''उन्हें तो कुफ्र कहते हुए ज़ब्त कर लिया गया। आपकी वज़ह से मैं भी मुश्किल में पड़ गया'' -वे बोले।
'कैसी बात करते हैं? मैं आप के घर तो गया नहीं था, आपकी गुजारिश पर ही मैंने लिखे, आपको ठीक न लगते तो तुरंत वापिस कर देते। आपके यहाँ के अंदरूनी हालात से मुझे क्या लेना-देना?' मुझे थोड़ा गरम होते देख वे जाते-जाते फिकरा कस गये 'आप लोगों के साथ यही मुश्किल है, बर्दाश्तगी का माद्दा ही नहीं है।'
***

नवगीत

नवगीत :

धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
***

विरासत : दिनकर

विरासत : दिनकर
(२३-९-१९०८ सिमरिया, बेगूसराय - २४-४-१९७४)



काव्य संग्रह : प्रणभंग १९२९, रेणुका १९३५, हुंकार १९३८, रसवंती १९३९, द्वन्द्गीत १९४०, कुरुक्षेत्र १९४६, धूपछाँह १९४६, सामधेनी १९४७, बापू १९४७, इतिहास के आंसू १९५१, धूप और धुआँ १९५१, रश्मिरथी १९५४, नीम के पत्ते १९५४, दिल्ली १९५४, नीलकुसुम १९५५, सूरज का ब्याह १९५५, नए सुभाषित १९५७,सीपी और शंख १९५७, परशुराम की प्रतीक्षा १९५७, कविश्री १९५७, कोयला और कवित्व १९६४, मृत्तितिलक १९६४, हारे को हरिनाम १९७०। अनुवाद : आत्मा की आँखें - डी. एच. लारेंस १९६४। खंड काव्य :  उर्वशी १९६१। रचना संग्रह : चक्रवाल १९५६, सपनों का धुंआ, रश्मिमला, भग्नवीणा, समर निंद्य है, समानांतर, अमृत मंथन, लोकप्रिय दिनकर १९६०, दिनकर की सूक्तियाँ १९६४, दिनकर के गीत १९७३, संचयिता १९७३। बाल काव्य : चाँद का कुरता, नमन करून मैं, सूरज का ब्याह, चूहे की दिल्ली यात्रा, मिर्च का मजा। प्रतिनिधि रचनाएँ : सिंहासन खली करो की जनता आती है, जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे,  परंपरा, परिचय, दिल्ली, झील, वातायन, समुद्र का पानी, कृष्ण की चेतावनी, ध्वज वंदना, आग की भीख, बालिका से वधु, जियो अय हिंदुस्तान, कुंजी, परदेशी, एक पात्र, एक विलुप्त कविता, गाँधी, आशा का दीपक, कलम आज उनकी जय बोल, शक्ति और क्षमा, हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों, गीत-अगीत, लेन-देन, निराशावादी, रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, लोहे के मर्द, विजयी के सदृश जियो रे, समर शेष है,  पढ़क्कू की सूझ, वीर, मनुष्यता, पर्वतारोही, करघा, चाँद एक दिन, भारत, भगवन के डाकिए, भारत, जनतंत्र का जन्म, शोक की संतान, जब आग लगे, पक्षी और बादल, राजा वसंत वर्ष ऋतुओं की रानी, मेरे नगपति! मेरे विशाल!, लोहे के पेड़ हरे होंगे, सिपाही, रोटी और स्वाधीनता, अवकाशवाली सभ्यता, व्याल-विजय,  माध्यम, स्वर्ग, कलम या कि तलवार, हमारे कृषक। 
*
वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की ?
और तब सम्मान से जाते गिने
नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
देश की इज्जत बचाने के लिए
या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।
ईश जानें, देश का लज्जा विषय
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र ,भूखे बालक अकुलाते हैं;
माँ की हड्डी से चिपक ,ठिठुर जाड़ो की रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा-वसन बेच,जब ब्याज चुकाये जाते हैं;
मालिक जब -फुलेलों पर,पानी सा द्रव्य बहाते हैं।
'जब तक मनुज मनुज का
यह सुख-भाग नहीं सम होगा।
शमित न होगा कोलाहल,
संघर्ष नहीं कम होगा।
लोहे के पेड़ हरे होंगे
गान प्रेम का गाता चल
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर
आंसू के कण बरसाता चल।
'ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है;
अपना सुख उसने अपने भुज बल से पाया है।
दिनकर जी ने जनजागरण को प्रखर करने का काम किया।उनकी कविताओं में ओज, तेज है,अग्नि समान तीव्र ताप है।उसमें यौवन का हुंकार है,नव निर्माण की भावना है,कर्म का सन्देश है,आशावाद के स्वर हैं,दिनकर जी अद्वितीय हैं।

नवगीत

नवगीत 
*
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
जीवन-पथ में
मिले चले संग
हुआ रंग में भंग.
मन-मुटाव या
गलत फहमियों
ने, कर डाला तंग.
लहर-लहर के बीच
आ गयी शिला.
लहर बढ़ आगे,
एक साथ फिर
बहना चाहें
बोल न इन्हें अभागे.
भंग हुआ तो
कहो न क्यों फिर
हो अभंग हर छंद?
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
रोक-टोंक क्यों?
कहो तीसरा
अड़ा रहा क्यों टाँग?
कहे 'हलाला'
बहुत जरूरी
पिए मजहबी भाँग.
अनचाहा सम्बन्ध
सहे क्यों?
कोई यह बतलाओ.
सेज गैर की सजा
अलग हो, तब
निज साजन पाओ.
बैठे खोल
'हलाला सेंटर'
करे मौज-आनंद
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
हलाला- एक रस्म जिसके अनुसार तलाक पा चुकी स्त्री अपने पति से पुनर्विवाह करना चाहे तो उसे किसी अन्य से विवाह कर दुबारा तलाक लेना अनिवार्य है.

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
बदलावों से क्यों भय खाते?
क्यों न
हाथ, दिल, नजर मिलाते??
.
पल-पल रही बदलती दुनिया
दादी हो जाती है मुनिया
सात दशक पहले का तेवर
हो न प्राण से प्यारा जेवर
जैसा भी है सैंया प्यारा
अधिक दुलारा क्यों हो देवर?
दे वर शारद! नित्य नया रच
भले अप्रिय हो लेकिन कह सच
तव चरणों पर पुष्प चढ़ाऊँ
बात सरलतम कर कह जाऊँ
अलगावों के राग न भाते
क्यों न
साथ मिल फाग सुनाते?
.
भाषा-गीत न जड़ हो सकता
दस्तरखान न फड़ हो सकता
नद-प्रवाह में नयी लहरिया
आती-जाती सास-बहुरिया
दिखें एक से चंदा-तारे
रहें बदलते सूरज-धरती
धरती कब गठरी में बाँधे
धूप-चाँदनी, धरकर काँधे?
ठहरा पवन कभी क्या बोलो?
तुम ठहरावों को क्यों तोलो?
भटकावों को क्यों दुलराते?
क्यों न
कलेवर नव दे जाते?
.
जितने मुँह हैं उतनी बातें
जितने दिन हैं, उतनी रातें
एक रंग में रँगी सृष्टि कब?
सिर्फ तिमिर ही लखे दृष्टि जब
तब जलते दीपक बुझ जाते
ढाई आखर मन भरमाते
भर माते कैसे दे झोली
दिल छूती जब रहे न बोली
सिर्फ दिमागों की बातें कब
जन को भाती हैं घातें कब?
अटकावों को क्यों अपनाते?
क्यों न
पथिक नव पथ अपनाते?
***
२१.४.२०१५

मुक्तक

मुक्तक:
संजीव
*
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके!
नित प्रात हो; हम साथ हों नत माथ हो जगवंदिते!!
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोई भी दुखी
*
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों जिन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें
*
तज दे सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें-
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों
*
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा
कर दो कृपा वर दो जया! हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होकर गा सकें
*
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
***
२२-४-२०१५

मुक्तक

मुक्तक:
संजीव
.
आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
*
२३-४-२०१५

कविता

कविता:
अपनी बात:
संजीव
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है
पल दो पल की खुशियाँ है
आभासी जीवन जीते हम
नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया
वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता-पीता-सोता है जग
हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है
हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर
गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना
श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी
साथ रास कब आता है
नोक-झोक, खींचा-तानी ही
मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी
जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा
सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें
न रोएँ, संग-संग मुस्काना है
*
२३-४-२०१५

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
सबके अपने-अपने कारण
कोई करता नहीं निवारण
चोर-चोर मौसेरे भाई
राजा आप; आप ही चारण
सचमुच अच्छे दिन आये हैं
पहले पल में तोला
दूजे पल में माशा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
करो भरोसा तनिक न इस पर
इन्हें लोक से प्यारे अफसर
धनपतियों के हित प्यारे हैं
पद-मद बोल रहा इनके सर
धृतराष्ट्री दरबार न रखना
तनिक न्याय की आशा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
चौपड़ इनकी पाँसे इनके
छल-फरेबमय झाँसे इनके
जन-हित की करते नीलामी
लोक-कंठ में फाँसे इनके
सत्य-धर्म जो स्वारथ साधे
यह इनकी परिभाषा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.**
२४-४-२०१५

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
.
चल रहे पर अचल हैं हम
गीत भी हैं, गजल हैं हम
आप चाहें कहें मुक्तक
नकल मत कह, असल हैं हम
हैं सनातन, चिर पुरातन
सत्य कहते नवल हैं हम
कभी हैं बंजर अहल्या
कभी बढ़ती फसल हैं हम
मन-मलिनता दूर करती
काव्य सलिला धवल हैं हम
जो न सुधरी आज तक वो
आदमी की नसल हैं हम
गिर पड़े तो यह न सोचो
उठ न सकते निबल हैं हम
ठान लें तो नियति बदलें
धरा के सुत सबल हैं हम
'सलिल' कहती हमें दुनिया
जानते 'संजीव' हैं हम
२३-४-२०१५
***

मुक्तिका

मुक्तिका
*
हँस इबादत करो .
मत अदावत करो
मौन बैठो न तुम
कुछ शरारत करो
सो लिये हो बहुत
जग बगावत करो
अब न फेरो नजर
मिल इनायत करो
आज शिकवे सुनो
कल शिकायत करो
छोड चलभाष दो
खत किताबत करो
२४-४-२०१६
***

मंजुतिलका छंद

छंद सलिला:
मंजुतिलका छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत लघु गुरु लघु (जगण)।
लक्षण छंद:
मंजुतिलका छंद रचिए हों न भ्रांत
बीस मात्री हर चरण हो दिव्यकांत
जगण से चरणान्त कर रच 'सलिल' छंद
सत्य ही द्युतिमान होता है न मंद
लक्ष्य पाता विराट
उदाहरण:
१. कण-कण से विराट बनी है यह सृष्टि
हरि की हर एक के प्रति है सम दृष्टि
जो बोया सो काटो है सत्य धर्म
जो लाए सो ले जाओ समझ मर्म
२. गरल पी है शांत, पार्वती संग कांत
अधर पर मुस्कान, सुनें कलरव गान
शीश सोहे गंग, विनत हुए अनंग
धन्य करें शशीश, विनत हैं जगदीश
आम आये बौर, हुए हर्षित गौर
फले कदली घौर, मिला शुभ को ठौर
अमियधर को चूम, रहा विषधर झूम
नर्मदा तट ठाँव, अमरकंटी छाँव
उमाघाट प्रवास, गुप्त ईश्वर हास
पूर्ण करते आस, न हो मंद प्रयास
२४.४.२०१४
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com

कुण्डलिया

कुण्डलिया :
संजीव 'सलिल'
*
भारत के गुण गाइए, ध्वजा तिरंगी थाम.
सब जग पर छा जाइये, सब जन एक समान..
सब जन एक समान प्रगति का चक्र चलायें.
दंड थाम उद्दंड शत्रु को पाठ पढ़ायें..
बलिदानी केसरिया, मिल जयकार करें शत.
हरियाली कृषि प्रगति, श्वेत सुख-चैन रहे नित..
२४-४-२०११
********

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
माँ गौ भाषा मातृभू, प्रकृति का आभार.
श्वास-श्वास मेरी ऋणी, नमन करूँ शत बार..
*
भूल मार तज जननि को, मनुज कर रहा पाप.
शाप बना जीवन 'सलिल', दोषी है सुत आप..
*
दो माओं के पूत से, पाया गीता-ज्ञान.
पाँच जननियाँ कह रहीं, सुत पा-दे वरदान..
*
रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार.
है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार..
*
माँ से, का, के लिए है, 'सलिल' समूचा लोक.
मातृ-चरण बिन पायेगा, कैसे तू आलोक?
२४-४-२०१०
***

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

पुस्तक दिवस (२३ अप्रैल) पर मुक्तिका

पुस्तक दिवस (२३ अप्रैल) पर
मुक्तिका
*
मीत मेरी पुस्तकें हैं
प्रीत मेरी पुस्तकें हैं

हार ले ले आ जमाना
जीत मेरी पुस्तकें हैं

साँस लय है; आस रस है
गीत मेरी पुस्तकें हैं

जमातें लाईं मशालें
भीत मेरी पुस्तकें हैं

जग अनीत-कुरीत ले ले
रीत मेरी पुस्तकें हैं
*
संजीव
२३-४-२०२० 

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

पहेली

पहेली :
साहित्यकारों के नाम खोजिए।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: अंदर

उत्तर
पहेली - खोजिए साहित्यकारों के नाम
उत्तर
बाएं से दाएं
महादेवी - महादेवी वर्मा म
देवी - आशापूर्णा देवी (बांग्ला)
वीर - वीर सावरकर (मराठी), क्षेत्रि वीर (मणिपुरी)
पंत गोविंद वल्लभ, सुमित्रानंदन पंत,
वृन्दावन- वृन्दावन लाल वर्मा
विराट - विष्णु विराट, चन्द्रसेन विराट,
रावी - रामप्रसाद विद्यार्थी
काका - काका हाथरसी, काका कालेलकर (मराठी)
शानी - गुलशेर खां शानी
नीरज - गोपाल प्रसाद सक्सेना नीरज,
सारथी - ओ. पी. शर्मा सारथी (डोगरी), रंजीत सारथी (सरगुजिहा)
गुरु - कामता प्रसाद, रामेश्वर प्रसाद गुरु, गुरु अन्नक-गुरु गोबिंद सिंह (पंजाबी)
रील - गुरुनाम सिंह रील, दिलजीत सिंह रील,
शिवानी - गौरा पंत शिवानी,
चक्र - सुदर्शन सिंह चक्र, कुम्भार चक्र (उड़िया), चक्रधर अशोक,
सुभद्रा - सुभद्रा कुमारी चौहान,
अमृत लाल - अमृत लाल नागर, अमृत लाल वेगड़, अमृता प्रीतम (पंजाबी)
लाल - लक्ष्मी नारायण लाल, श्रीलाल शुक्ल, लाल पुष्प (सिंधी)
ऊपर से नीचे
महावीर - महावीर रवांल्टा
महावीर प्रसाद - महावीर प्रसाद द्वुवेदी, महावीर प्रसाद जोशी (राजस्थानी)
प्रसाद - जय शंकर प्रसाद, महावीर प्रसाद, हजारी प्रसाद, शत्रुघ्न प्रसाद,
प्रभा - प्रभा खेतान
प्रभाकर - विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे , प्रभाकर बैगा, प्रभाकर श्रोत्रिय
ऊँट - रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी'
चोंच - कांतानाथ पांडेय 'चोंच'
तनूजा - तनूजा चौधरी, तनूजा मुंडा, तनूजा मजूमदार, तनूजा शर्मा 'मीरा' तनूजा सेठिया, तनूजा चंद्रा
चौधरी - बदरीनारायण चौधरी उपाध्याय "प्रेमधन, राजकमल चौधरी, रघुवीर चौधरी (गुजराती),
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
तुलसी - गोस्वामी तुलसीदास, आचार्य तुलसी, तुलसी बहादुर क्षेत्री (नेपाली), डॉ, तुलसीराम,
निराला - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,
माखन लाल - माखनलाल चतुर्वेदी 'एक भारतीय आत्मा'
दाएं से बाएं
प्रेमचंद - धनपत राय 'प्रेमचंद'
आड़ा
लाला - लाला भगवान दीन, लाला श्रीनिवास दास, लाला पूरणमल, लाला जगदलपुरी
रघुवीर - डॉ. रघुवीर, रघुवीर सहाय, रघुवीर चौधरी (गुजराती)

रामकथा : राम यजमान - रावण आचार्य

विमर्श : 
रामकथा : राम यजमान - रावण आचार्य 

भारत के अनेक स्थानों की तरह लंका में भी श्री लंका रावण को खलनायक नहीं एक विद्वान पंडित अजेय योद्धा, प्रतिभा संपन्न, वैभवशाली एवं समृद्धिवान सम्राट माना जाता है। 
श्री राम ने समुद्र पर सेतु निर्माण के बाद लंका विजय की कामना से विश्वेश्वर महादेव के लिंग विग्रह स्थापना के अनुष्ठान हेतु वेदज्ञ ब्राह्मण और शैव रावण को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने का विचार किया क्योंकि रावण के सदृश्य शिवभक्त, कर्मकांड का जानकार और विद्वान् अन्य नहीं था। रावण को आमंत्रित करने के लिए जामवंत को रावण के पास भेजा गया।रावण ने उनका बहुत सम्मान ( अपने दादा महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई वशिष्ठ के यजमान के दूत होने के कारण) किया तथा पूछा कि क्या वे लंका विजय हेतु यह अनुष्ठान करना चाहते हैं? जामवंत ने कहा, बिल्कुल ठीक, उनकी शिव जी के प्रति आस्था है, उनकी इच्छा है कि आप आचार्य पद स्वीकार कर अनुष्ठान संपन्न कराएँ। आपसे अधिक उपयुक्त शिव भक्त आचार्य अन्य कोई नहीं।
रावण ने विचार किया कि वह अपने आराध्य देव के विग्रह की स्थापना को अस्वीकार नहीं करेगा। जीवन में पहली बार किसी ने ब्राह्मण माना है और आचार्य योग्य जाना, वह भी वशिष्ठ जी के यजमान ने।  अत: रावण ने जामवंत को स्वीकृति देते हुए कहा कि यजमान उचित अधिकारी हैं, अनुष्ठान हेतु आवश्यक सामग्री का संग्रह करें ।
इसके बाद वनवासी राम के पास आवश्यक पूजा सामग्री का अभाव जानते हुए अपने सेवकों को भी सामग्री संग्रह में सहयोग करने का निर्देश दिया। इतना हे इन्हीं रावण ने अशोक वाटिका पहुँचकर सीता जी को सब समाचार देते हुए अनुष्ठान हेतु साथ चलने को कहा। विदित हो बिना अर्धांगिनी गृहस्थ का पूजा-अनुष्ठान अपूर्ण रहता है।आचार्य का दायित्व होता है कि यजमान का अनुष्ठान हर संभव पूर्ण कराए। इसलिएरावण ने कहा कि विमान आने पर उसमें बैठ जाना और स्मरण रहे वहाँ भी तुम मेरे अधीन रहोगी, पूजा संपन्न होने के बाद वापस लौटने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना। सीता जी ने भी इसे स्वामी श्री राम  का कार्य समझकर विरोध न कर मौन रखा और स्वामी तथा स्वयं का आचार्य मानकर हाथ जोड़कर सिर झुका दिया, रावण ने भी सौभाग्यवती भव कह कर आशीर्वाद दिया।
रावण के सेतु बंध पहुँचने पर राम ने स्वागत करते हुए प्रणाम किया तो रावण ने आशीर्वाद देते हुए कहा "दीर्घायु भव, विजयी भव"। इसपर वहाँ सुग्रीव, विभीषण आदि आश्चर्यचकित रह गए। रावणाचार्य ने भूमि शोधन के उपरांत राम से कहा, यजमान! अर्धांगिनी कहाँ है उन्हें यथास्थान दें। राम जी ने मना करते हुए कहा आचार्य कोई उपाय करें ।रावण ने कहा यदि तुम अविवाहित, परित्यक्त या संन्यासी होते अकेले अनुष्ठान कर सकते थे, परंतु अभी संभव नहीं।
एक उपाय यह है कि अनुष्ठान के बाद आचार्य सभी पूजा साधन-उपकरण अपने साथ वापस ले जाते हैं, यदि स्वीकार हो तो यजमान की पत्नी विराजमान है, विमान से बुला लो। राम जी ने इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार करते हुए रावणाचार्य को प्रणाम किया।" अर्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्धयजमान" कह कर रावणाचार्य ने कलश स्थापित कर विधिपूर्वक अनुष्ठान कराया। बालू का लिंगविग्रह (हनुमान जी के कैलाश से लिंगविग्रह लाने में बिलंब होने के कारण) बनवाकर शुभ मूहूर्त मे ही स्थापना संपन्न हुई।
अब रावण ने अपनी दक्षिणा की माँग की तो सभी उपस्थित लोग चौकें, रावण के शब्दों में "घबरायें नहीं यजमान, स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति तो नहीं हो सकती"। आचार्य जानते हैं कि यजमान की स्थिति वर्तमान में वनवासी की है। राम ने फिर भी आचार्य की दक्षिणा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की ।रावण ने कहा "मृत्यु के समय आचार्य के समक्ष हो यजमान" और राम जी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हुए रावण के मृत्यु शैय्या ग्रहण करने पर सामने उपस्थित रहे। 

दोहा-दोहा राम

दोहा-दोहा राम
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भीतर-बाहर राम हैं, सोच न तू परिणाम
भला करे तू और का, भला करेंगे राम
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विश्व मित्र के मित्र भी, होते परम विशिष्ट
युगों-युगों तक मनुज कुल, सीख मूल्य हो शिष्ट
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राम-नाम है मरा में, जिया राम का नाम
सिया राम का नाम है, राम सिया का नाम
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उलटा-सीधा कम-अधिक, नीचा-ऊँच विकार
कम न अधिक हैं राम-सिय, पूर्णकाम अविकार
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मन मारुतसुत हो सके, सुमिर-सुमिर सिय-राम
तन हनुमत जैसा बने, हो न सके विधि वाम
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मुनि सुतीक्ष्ण मति सुमति हो, तन हो जनक विदेह
धन सेवक हनुमंत सा, सिया-राम का गेह
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शबरी श्रम निष्ठा लगन, सत्प्रयास अविराम
पग पखर कर कवि सलिल, चल पथ पर पा राम
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हो मतंग तेरी कलम, स्याही बन प्रभु राम
श्वास शब्द में समाहित, गुंजित हो निष्काम
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अत्रि व्यक्ति की उच्चता, अनुसुइया तारल्य
ज्ञान किताबी भंग शर, कर्मठ राम प्रणम्य
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निबल सरलता अहल्या, सिया सबल निष्पाप
गौतम संयम-नियम हैं, इंद्र शक्तिमय पाप
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नियम समर्थन लोक का, पा बन जाते शक्ति
सत्ता दण्डित हो झुके, हो सत-प्रति अनुरक्ति
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जनगण से मिल जूझते, अगर नहीं मतिमान.
आत्मदाह करते मनुज, दनुज करें अभिमान.
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भंग करें धनु शर-रहित, संकुच-विहँस रघुनाथ.
भंग न धनु-शर-संग हो, सलिल उठे तब माथ.
२२-४-२०१९
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श्री श्री चिंतन दोहा मंथन इंद्रियाग्नि

श्री श्री चिंतन दोहा मंथन
इंद्रियाग्नि:
24.7.1995, माँट्रियल आश्रम, कनाडा
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जीवन-इंद्रिय अग्नि हैं, जो डालें हो दग्ध।
दूषित करती शुद्ध भी, अग्नि मुक्ति-निर्बंध।।
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अग्नि जले; उत्सव मने, अग्नि जले हो शोक।
अग्नि तुम्हीं जल-जलाते, या देते आलोक।।
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खुद जल; जग रौशन करें, होते संत कपूर।
प्रेमिल ऊष्मा बिखेरें, जीव-मित्र भरपूर।।
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निम्न अग्नि तम-धूम्र दे, मध्यम धुआँ-उजास।
उच्च अग्नि में ऊष्णता, सह प्रकाश का वास।।
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करें इंद्रियाँ बुराई, तिमिर-धुआँ हो खूब।
संयम दे प्रकृति बदल, जा सुख में तू डूब।।
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करें इंद्रियाँ भलाई, फैला कीर्ति-सुवास।
जहाँ रहें सत्-जन वहाँ, सब दिश रहे उजास।।
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12.4.2018