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रविवार, 5 अप्रैल 2020

श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् सानुवाद

॥श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् ॥
ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति।१। 
ॐ सब देव गये देवी निकट, पूछें : 'कौन महादेवी तुम?'।१।
ॐ सभी देवता देवीके समीप गये और नम्रता से पूछने लगे – हे महादेवि तुम कौन हो ? ।१।

साब्रवीत् - अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः
प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च।२।
वह बोली मैं ब्रह्मरूपिणी, मुझसे प्रकृति पुरुष जग जन्मा। शून्य भी मैं, अशून्य भी मैं।२।
उसने कहा – मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ । मुझसे प्रकृति – पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है।२।

अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये।
अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि। अहमखिलं जगत्।३।
मैं आनंद अनानन्द भी, मैं विज्ञान, अविज्ञान भी। 
ब्रह्म-अब्रह्म वेद कहते हैं, पंचभूत मैं अपंचभूत भी। मैं ही सकल जगत हूँ।३।
मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ । मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ । अवश्य जाननेयोग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ । पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ । यह सारा दृश्य –जगत् मैं ही हूँ।३।

वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। 
अजाहमनजाहम्। अधश्चोमर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्।४।
वेद हूँ मैं अवेद भी हूँ, विद्या हूँ मैं अविद्या भी। 
अज-अनज मैं, निम्न-ऊपर और चारों ओर मैं ही।४।
वेद और अवेद मैं हूँ । विद्या और अविद्या भी मैं , अज्ञा और अनजा ( प्रकृति और उससे भिन्न ) भी मैं , नीचे –ऊपर , अगल – बगल भी मैं ही हूँ।४।

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि। अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि। अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ।५। 
संचरित मैं रूद्र-वसु बन, सूर्य ऋतु मैं विश्वदेवा। 
मित्र वरुण इन्द्राग्नि अश्विनी, की मैं ही हूँ पोषणकर्ता।५।
मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ । मैं आदित्यों और विश्वदेवों के रूपों में फिरा करती हूँ । मैं मित्र और वरुण दोनों का , इन्द्र एवं अग्निका और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण-पोषण करती हूँ।५।

अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि।
अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि।६।
सोम त्वष्टा पोषण भग को, किया धारण मात्र मैंने।
सोम त्वष्टा पूषा भग को, करूँ धारण मैं सदा ही।
करूँ धारण विष्णु मुरुक्रम, ब्रह्माण्ड पालक विधि प्रजापति ।६।
मैं सोम, त्वष्टा , पूषा और भग को धारण करती हूँ । त्रैलोक्यको आक्रान्त करने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करनेवाले विष्णु , ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ ।६।

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते।
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे।
य एवं वेद। स दैवीं सम्पदमाप्नोति।७।
मैं धन देती यजमानों को, पा हवि-सोम करें सुर-अर्पित।
ऐक्य-शक्ति मैं हूँ स्वदेश की, यज्ञ योग्य देवों में पहली।
आत्म स्वरूपा पितर-बुद्धि मैं, ज्यों समुद्र में सीपी-मोती।

वेद कहें यह जान सके जो,  दैवी संपद उसको मिलती।७।  
मैं देवों को उत्तम हवि पहुँचानेवाले और सोमरस निकालनेवाले यजमान के लिये हविर्द्रव्योंसे युक्त धन धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देनेवाली,  ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों में ( यजन करने योग्य देवों में) मुख्य हूँ। मैं आत्मस्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करनेवाली बुद्धिवृति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति लाभ करता है ॥७॥

ते देवा अब्रुवन् - नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।८।
बोले देव : नमन देवी को, शिवा महादेवी वंदन लें।
नमन प्रकृति रूपा देवी को, नियमित हम करते प्रणाम हैं।८।
तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है । बड़े- बड़ों को अपने- अपने कर्तव्य में प्रवृत करनेवाली कल्याणकर्त्रीको सदा नमस्कार है । गुणासाम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी देवीको नमस्कार है । नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं।८।

तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः।९।
अग्निवर्णा तापसी दीप्तिवती कर्मफल प्रदात्री।
दुर्गा देवी! शरण गहें हम, असुर विनाशिनी तुम्हें नमन।९। 
उस अग्निके-से वर्णवाली , ज्ञान से जगमगानेवाली दीप्तिमती, कर्म फल प्राप्ति के हेतु सेवन की जानेवाली दुर्गादेवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करनेवाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है।९।

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वारूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु।१०।
देवी! देव दत्त वाणी जो बोल रहे हैं प्राणी जग में।
कामधेनु सम बलान्नदात्री हर्षद वाग्देवी समीप हों।१०।
प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते है । वह कामधेनुतुल्य आनन्दायक और अन्न तथा बल देनेवाली वाग् रूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये।१०।

कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम्।११।
कालरात्रि विधि द्वारा वंदित  माँ वैष्णवी स्कन्द जननि हे!
शारद अदिति प्रजापतितनया पावन शिवा नमन तुमको।११।   
कालका भी नाश करनेवाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं।११।

महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि।
तन्नो देवी प्रचोदयात्।१२।
महालक्ष्मी माँ विराजें, शक्तिरूपा ध्यान में आ।
देवी प्रवत्त करे ध्यान में।१२।
हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते है । वह देवी हमें उस विषय में (ज्ञान-ध्यान में) प्रवृत करें ।१२।

अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।१३।
अदिति प्रसूता हुई हैं, दक्षराज तव सुता जो।
जन्म देव को दिया उनने, जो अमर कल्याणप्रद।१३।
हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं , वे प्रसूता हुई और उनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न हुए ।१३।

कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वममातादिविद्योम्।१४।
काम योनि कमला शचींद्र, गुहा हसा पवनाभ्र इंद्र।
पुनर्गुहा माया सकल, जगमाता की परा विद्या।१४।
काम (क) , योनि (ए) , कमला (ई) , वज्रपाणि - इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं ), ह, स - वर्ण, मातरिश्वा - वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र (ल), पुन: गुहा (ह्रीं), स, क, ल - वर्ण और माया (ह्रीं ) - यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है।१४।

एषाऽऽत्मशक्तिः। एषा विश्वरमोहिनी। पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा।
एषा श्रीमहाविद्या। य एवं वेद स शोकं तरति।१५।
आत्मशक्ति जगमोहिनी पाशांकुश धनु-बाण मय।
यही हैं श्रीमहाविद्या, जो जाने वह शोकजयी हो।१५।
ये परमात्मा की शक्ति हैं । ये विश्वमोहिनी हैं । पाश , अंकुश , धनुष और बाण धारण करनेवाली हैं। ये ‘ श्रीमहाविद्या ’ हैं । जो ऐसा जानता है , वह शोकको पार कर जाता है ।१५।

नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः।१६।
नमस्कार है भगवती! माँ रक्षा कर सब प्रकार से।१६। 
भगवती ! तुम्हें नमस्कार है । माता ! सब प्रकारसे हमारी रक्षा करो।१६।

सैषाष्टौ वसवः। सैषैकादश रुद्राः। सैषा द्वादशादित्याः।
सैषा विश्वेवदेवाः सोमपा असोमपाश्चद।
सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः।
सैषा सत्त्वरजस्तमांसि। सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी।
सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः। सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि।
कलाकाष्ठादिकालरूपिणी। तामहं प्रणौमि नित्यम्॥
पापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम्।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम्।१७।
वही अष्ट वसु, रूद्र ग्यारहों, वह आदित्य बारहों हैं।
विश्वदेव हैं वही, सोमपानी - असोमपानी भी हैं।
यातुधान वे असुर राक्षसी, यक्ष-पिशाच सिद्ध वे ही।
वही सत्व-रज-तम, विधि हरि हैं, वही रूद्ररूपिणी हैं।
प्रजापति-इंद्र अरु मनु हैं वे, गृह-नक्षत्र-सितारे भी।
कला-काष्ठ वे कालरूपिणी, हम प्रणाम उनको करते।
पापहारिणी देवी मैया, भुक्ति-मुक्तिदायिनी हैं।
अंतरहित जयदा शुद्धा, सुशरण शिवा कल्याणी हैं।१७।
( मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं - ‌) वही ये अष्ट वसु है ; वही ये एकादश रुद्र हैं ; वही ये द्वादश आदित्य हैं ; वही ये सोमपान करनेवाले और सोमपान न करनेवाले विश्वदेव हैं ; वही ये यातुधान ( एक प्रकार के राक्षस ) , असुर , राक्षस , पिशाच , यक्ष और सिद्ध हैं ; वही ये सत्व – रज – तम हैं ; वही ये ब्रह्म-विष्णु – रूद्ररूपिणी हैं ; वही ये प्रजापति – इंद्र-मनु हैं ; वही ये ग्रह , नक्षत्र और तारे हैं ; वही कला- काष्ठादि कालरूपिणी हैं ; उन पाप नाश करनेवाली , भोग-मोक्ष देनेवाली , अंतरहित , विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष , शरण लेनेयोग्य , कल्याणदात्री और मंगलरूपिणी देवीको हम सदा प्रणाम करते हैं।१७।

वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम्।१८।
वियत् तथा ईकार युक्त जो, अग्निहोत्र संयुक्त हुआ।
अर्धचंद्र सज्जित देवी का बीज मनोरथदाता है।१८।
वियत् – आकाश (ह) तथा ‘ई’ कारसे युक्त , वीतिहोत्र – अग्नि ( र ) – सहित , अर्धचंद्र (ँ ) – से अलंकृत जो देवीका बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करनेवाला है।१८।

एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः।१९।
ह्रीं ब्रह्म एकाक्षरी, जिनका चित् है शुद्ध।
करें ध्यान आनंदप्रद ज्ञान-सिंधु संबुद्ध।१९।
इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं) – का ऐसे यति ध्यान करते हैं , जिनका चित्त शुद्ध है , जो निरतिशयानंदपूर्ण और ज्ञानके सागर हैं । ( यह मंत्र देवीप्रणव माना जाता है । ऊँकार के समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थसे भरा हुआ है । संक्षेप में इसका अर्थ इच्छा –ज्ञान – क्रियाधार , अद्वैत , अखण्ड , सच्चिदानन्द , समरसीभूत , शिवशक्तिस्फुरण है । ) ॥१८ - १९॥

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाकधरयुक् ततः।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः।२०।
वाक् माया ब्रह्मसू से समन्वित हो वक्त्र षट।
सूर्य दायां कान अनुस्वार संग ड  संयुक्त हो।
नारायण के साथ मिश्रित वायु-अधर विच्चै।
नवार्ण मंत्र आनंददाता ब्रह्म सायुज्य भी मिले।२०।
वाणी ( ऐं ) , माया (ह्रीं) , ब्रह्मसू – काम (क्लीं ) , इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च , वही वक्त्र अर्थात् आकारसे युक्त ( चा) , सूर्य ( म ) , ‘ अवाम क्षेत्र ’ – दक्षिण कर्ण ( उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं) , टकारसे तीसरा ड , वही नारायण अर्थात् ‘आ’ से मिश्र ( डा) , वायु ( य ) . वही अधर अर्थात् ‘ऐ’ से युक्त ( यै ) और ‘ विच्चे’ यह नवार्णमंत्र उपासकों को आनन्द और ब्रह्मसायुज्य देनेवाला है।२०।
[ इस मंत्र का अर्थ है – हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्दरूपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पाने के लिये हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं । हे महाकाली – महालक्ष्मी – महासरस्वती- स्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है । अविद्यारूप रज्जुकी दृढ़ ग्रंथि को खोलकर मुझे मुक्त करो । ]

हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम्।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम्।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे।२१।
हृतकमलवासी प्रात रवि की प्रभा के जैसे प्रकाशित।
पाश-अंकुश धारिणी  सौम्या अभय मुद्रा करोंयुत।
हे त्रिनेत्रा रक्तवसना  मनोरथपूर्णा भजूँ मैं ।२१।
हृत्कमल के मध्य में रहनेवाली, प्रात:कालीन सूर्यके समान प्रभावाली , पाश और अंकुश धारण करनेवाली, मनोहर रूपवाली , वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हाथोंवाली , तीन नेत्रोंसे युक्त , रक्तवस्त्र परिधान करनेवाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ पूर्ण करनेवाली देवीको मैं भजता हूँ।२१।

नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम्।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम्।२२।
नमन तुमको महादेवी! महाभयहन्ता तुम्हीं हो।
महासंकट शमनकर्त्री महा करुणारूपिणी हे।२२।
महाभय का नाश करनेवाली , महासंकट को शांत करनेवाली और महान् करूणाकी साक्षात् मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ।२२।

यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति।२३।
नहीं जानते ब्रह्म आदि भी, जिसका रूप वही अज्ञेया।
अंत नहीं मिलता है जिसका, एक वही है शक्ति अनंता।
लक्ष्य नाहने दिखता है जिसका, मान उसी को मिला अलक्ष्या।
जन्मा न जिसका पता किसी को, नाम उसी को मिला है अजा।
है सर्वत्र अकेली ही वह, कहते हैं सब उसको एका।
एकमात्र वह विश्वरूपिणी, कहता है जग उसको नैका।                                                                                                                      जो अज्ञेया वही अनंता, कहें अलक्ष्य उसको ही सब।
अजा वही है, एका भी वह, नायक नैका उसको कहता है जग।२३।
जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते – इसलिये जिसे अज्ञेया कहते हैं , जिसका अंत नहीं मिलता – इसलिये जिसे अनंता कहते हैं , जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता- इसलिये जिसे अलक्ष्या कहते हैं , जिसका जन्म समझ में नहीं आता – इसलिये जिसे अजा कहते हैं , जो अकेली सर्वत्र है – इसलिये जिसे एका कहते हैं , जो अकेली ही विश्वरूप में सजी हुई है – इसलिये जिसे नैका कहते हैं , वह इसीलियी अज्ञेया , अनंता , अलक्ष्या , अजा , एका और नैका कहाती हैं।२३।

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयातीता* शून्यानां शून्यसाक्षिणी।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता।२४।
सब मंत्रों में देवी मातृका, सब शब्दों में ज्ञान आप हैं।
ज्ञानों में चिन्मय अतीत हो, शून्य साक्षिणी हो शून्यों में।२४।
सब मंत्रों में ‘मातृका ’ – मूलाक्षररूपसे रहनेवाली , शब्दों में ज्ञान ( अर्थ ) – रूप से रहनेवाली , ज्ञानों में ‘चिन्मयातीता’ , शून्यों में ‘शून्यसाक्षिणी’ तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है , वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध है।२४।

तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम्।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम्।२५।
दुर्गा दुर्विज्ञेय सदा जो, नाशक हैं जो दुराचार की।
मैं जग से भयभीत बहुत माँ!, तुमको नमस्कार करता हूँ।२५।
उन दुर्विज्ञेय, दुराचारनाशक और संसारसागर से तारनेवाली दुर्गादेवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ।२५।

इदमथर्वशीर्षं योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति।
इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति - शतलक्षं प्रजप्त्वापि
सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति। शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः।
दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः।२६।
इस अथर्वशीर्ष का जप-फल, पाँच अथर्वशीर्ष सम मिलता।
जाने बिन प्रतिमा पूजन, सैंकड़ों लाख जप करो न फलता।
 जपें एक सौ आठ बार, तब पुरश्चरण पूरा होता है।
पाठ करे दस जो जन तत्क्षण पाप मुक्त निश्चय होता है।
कृपा प्रसाद महादेवी का, पा जय हर संकट होता है।२६।
इस अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है , उसे पाँचों अथर्वशीर्षों के जपका फल प्राप्त होता है । इस अथर्वशीर्ष को न जानकर जो प्रतिमास्थापन करता है , वह सैंकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता । अष्टोत्तरशत ( १०८) जप ( इत्यादि) इसकी पुरश्चरणविधि है । जो इसका दस बार पाठ करता है , वह उसी क्षण पापोंसे मुक्त हो जाता है और महादेवी के प्रसाद से बड़े दुस्तर संकटों को पार कर जाता है।२६।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति।
निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक् सिद्धिर्भवति।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति।
प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति।
भौमाश्वितन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति।
स महामृत्युं तरति य एवं वेद। इत्युपनिषत्॥

संध्या काल पाठ करने से, दिन में किये पाप मिट जाते।
पढ़ें भोर में पाप रात्रि में किये, नहीं बाकी रह पाते।
मध्य रात्रि जप तुरीय संध्या समय वाक् की सिद्धि दिलाती।
नव प्रतिमा सम्मुख जप करिये, मिले देव सानिंध्य हमेशा।
प्राण प्रतिष्ठा कर जप करिये, मिले शीघ्र ही प्राण प्रतिष्ठा।
भौम अश्विनी अमिय सिद्धि हित, महामृत्यु जप कर तर जाता।
विधि-विद्या यह हरे अविद्या,  सत्य उपनिषद सदा बताता।   
इसका सायंकाल में अध्ययन करनेवाला दिनमें किये हुए पापों का नाश करता है , प्रात:काल अध्ययन करनेवाला रात्रिमें किये हुए पापों का नाश करता है । दोनों समय अध्ययन करनेवाला निष्पाप होता है । मध्यरात्रि में तुरीय संध्या ( जो की मध्यरात्रि में होती है ) के समय जप करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है । नयी प्रतिमा पर जप करने से देवतासान्निध्य प्राप्त होता है । प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणोंकी प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है । जो इस प्रकार जानता है , वह महामृत्यु से तर जाता है । इस प्रकार यह अविद्या नाशिनी ब्रह्मविद्या है।

इति श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् सम्पूर्णम्।
अब श्रीदेव्यथर्वशीर्ष पूरा हुआ।

ग़ज़ल - अमीर खुसरो हिंदी अनुवाद - संजीव

ग़ज़ल - अमीर खुसरो
हिंदी अनुवाद - संजीव
*
काफ़िरे-इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नीस्त
हर रगे मन तार गश्ता हाजते जुन्नार नीस्त

हूँ इश्क़ में काफ़िर, मुसलमानी न मुझको चाहिए
हो गया मन तार, जनेऊ न मुझको चाहिए
अज़ सरे बालिने मन बर खेज ऐ नादाँ तबीब
मेरे सिरहाने से उठ जा, अब तो ऐ! नादां हकीम

दर्द मन्द इश्क़ रा दारो-बख़ैर दीदार नीस्त
इश्क़-मारे को न कुछ दीदार ही बस चाहिए
मा व इश्क़ यार, अगर पर किब्ला ,गर दर बुतकदा
मैं हूँ उसका प्रेम है तो क्या दर है, मंदिर है क्या

आशिकान दोस्त रा बक़ुफ़्रो- इमां कार नीस्त
आशिकों को यार दो, कुफ्रो-ईमां कब चाहिए?
ख़ल्क़ मी गोयद के खुसरो बुत परस्ती मी कुनद
कह रही दुनिया कहे, खुसरो तो मूरत पूजता

आरे -आरे मी कुनम बा ख़लको-दुनिया कार नीस्त
हाँ रे हाँ हूँ पूजता, दुनिया नहीं तू चाहिए
*
अर्थ
मैं इश्क़ का काफ़िर हूँ,मुझे मुसलमानी की ज़रूरत नहीं
मेरी हर रग तार बन गयी है,मुझे जनेऊ की ज़रूरत नहीं
ऐ नादाँ हकीम मेरे सिरहाने से उठ जा,
जिसको इश्क़ का दर्द लगा है,उसका इलाज
महबूब के दर्शन के सिवा कुछ नहीं।
हम हैं और महबूब का प्रेम है,चाहे काबा हो या बुतखाना,
प्रेमिका के प्रेमियों को कुफ़्र और ईमान से कोई काम नहीं।
दुनिया कहती है खुसरो मूर्ति पूजा करता है।
हाँ ,हाँ मैं करता हूँ, मेरा दुनिया से कोई सरोकार नहीं।
डॉ.यासमीन ख़ान

माखन लाल चतुर्वेदी जयंती

हिंदी साहित्य मंच
माखन लाल चतुर्वेदी जयंती काव्य सृजन प्रतियोगिता
*
विधा: गीत
सबसे पहले देश
*
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
रक्षा करी विदेशी से लड़
शस्त्र हाथ में लेकर
बापू के सत्याग्रह से जुड़
जूझे कमल उठाकर
पत्रकार-कवि तेजस्वी हे!
कसर न छोड़ी लेश
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
विद्यार्थी जी के पथ पर चल
जान हथेली पर ले
लक्ष्मण सिंह-सुभद्रा को पथ दिखलाया आशिष दे
हिम तरंगिणी, हिम किरीटनी
ने दी कीर्ति अशेष
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
सत्ता दल पद कभी न चाहा
करी स्वार्थ बिन सेवा
शर्म करें दल नेता चमचे
चाह रहे जो मेवा
नोटा चुने हराओ इनको
जागृत रहो विशेष
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
करी पुष्प ने अभिलाषा यह
बिछे राह पर जाकर
गुजरें माँ के सेवक पग धर
चाह नहीं प्रभु का सिर
त्यागी-बलिदानी अजरामर
कमी न छोड़ी लेश
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
५-३-२०१९
*
संवस, ७९९९५५९६१८
जबलपुर

कृति चर्चा: मैं हूँ एक भाग हिमालय का ममता शर्मा

कृति चर्चा:
मैं हूँ एक भाग हिमालय का : मन मंदाकिनी का काव्य प्रवाह
*
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: मैं हूँ एक भाग हिमालय का, काव्य संग्रह, ममता शर्मा, प्रथम संस्करण २०१८, आईएसबीएन ९७८०४६३६४४९६६, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य१८५ रु., प्रकाशक वर्जिन साहित्य पीठ दिल्ली)
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कविता की नहीं जाती, हो जाती है। अनुभूति के शिखर से अभिव्यक्ति सलिला प्रवाहित होकर कलकल निनाद करे तो कविता हो जाती है। मानव जीवन पल-पल परिवर्तन का साक्षी बनता है। भावात्म शब्द-तन मे वास कर परिवर्तनजनित प्रतिक्रिया के प्रागट्य का साक्षी बनता है। यह निर्विवाद सत्य है कि नारी मन पुरुष मन की तुलना में अधिक भाव प्रवण और ममतामय होता है। 'मैं हूँ भाग हिमालय का' की कविताएँ व्यष्टि और समष्टि के अंतर्संबंध की प्रतीति से उद्भूत हैं।
'आज धरा के आँगन में फिर
सूरज ऊषा लेकर आया
देख अचानक संग उन्हें
रजनी-नेत्रों में जल भर आया।
फट ले अपनी काली चूनर
झटपट वो विभावरी भागी
तभी अचानक पाँखें खोले
चिड़िया भी चूँ-चूँ कर जागी।'
प्रकृति के साथ तादात्म्य-स्थापन ब्रह्म-साक्षात का प्रथम चरण है। रंग उड़ा, रंग उड़ा, हर दिशा ही रंग उड़ा' हर दिशा में रंग दिखना लगे तो कबीर सब कुछ लुटा देता है पर लोई को घर में ही ब्रह्म का पारा पाँव पसारे मिल जाता है। उसे मम्मी के भाल, पूजा के थाल, गणपति और हाथी, मोती के बैल और पकवानों का कतारों में अर्थात यत्र-तत्र-सर्वत्र रंग ही रंग दिखता है। निराकुल मीरा कहती हैं 'मैं तो साँवरी के रँग राँची' ममता की प्रतीति भिन्न होना स्वाभाविक है। 'मन को लगाएँ किससे / मैं बतियाऊँ किससे' के गिले-शिकवे भुलाकर 'चंपकवन में एक रूपसी / गर्वीली मतवाली आली' होकर स्वरूप निहारती वह जान ही नहीं पाती 'आया कौन मन के दर्पण में....बिना रोके-टोके' लेकिन आ ही गया तो जाने का द्वार नहीं है। 'यही तो जीवन है अभिराम / यही तो जीवन है सुखधाम।' रंगरसिया साथ हो तो 'पीली-पीली सरसों फैली / फैली चारों ओर' का प्रतीति होनी ही है। यह प्रतीति संकुचन नहीं विस्तार और नव सृजन के पथ पर पग धरती है- 'है बस नियमों थोड़ा सा अहसास जागा / हाँ, मैं भी हूँ हिस्सा धरा का जरा सा', कामना जागती है 'भूमि पा अब बीज जाए / हो उजाला सूर्य का / चंदा का किरणें गुनगुनाएँ'।
सृजनाकांक्षी चेतना 'मुसाफिर हूँ मैं / हर क्षण चलती ही रहती हूँ' कहते हुए भी गंतव्य के प्रति सचेत रहती है-'रहा बचपन जवानी, सब में बेसुध / कुछ खबर ले-ले'।
'काठ का हाँडी चढ़ी तो पल में बात समझ गई'। कौन सी बात? यही कि 'जो करना आज ही कर लो'। क्योंकि 'हम क्या हैं? / केवल सितारों की राख / या हैं हम / संपूर्ण ब्रह्मांड'।
अनुभूतियों का इंद्रधनुषी रंग 'मैं हूँ एक भाग हिमालय का' में सर्वत्र व्याप्त है। गीत-सागर राकेश खंडेलवाल लिखित आमुख से समृद्ध
यह कृति कवयित्री की काव्य-सृजन प्रतिभा की प्रथम पुष्प है जो पूत के पाँव पालने में दिखते हैं कहावत को चरितार्थ करती है।
'ठुमुक चलत रामचंद्र' का पैंजनियों का रुनझुन ले आनंदित होते समय पुष्प-वाटिका, पंचवटी या लंकापुरी में राम की छवि न खोजें तो विवेच्य कृति बालारुणी ऊषा की रम्य छवि-दर्शन का सा आनंद देती है। कवयित्री की प्रतिभा आगामी काव्य संग्रहों में परवान पर चढ़कर विश्ववाणी हिंदी के साहित्य कोष को समृद्ध करेगी, यह विश्वास किया जा सकता है।
५-४-२०१९
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८।
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अनुप्रासिक दोहे

अनुप्रासिक दोहे
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दया-दफीना दे दिया, दस्तफ्शां को दान
दरा-दमामा दाद दे, दल्कपोश हैरान
(दरा = घंटा-घड़ियाल, दफीना = खज़ाना, दस्तफ्शां = विरक्त, दमामा = नक्कारा, दल्कपोश = भिखारी)
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दर पर था दरवेश पर, दरपै था दज्जाल
दरहम-बरहम दामनी, दूर देश था दाल
(दर= द्वार, दरवेश = फकीर, दरपै = घात में, दज्जाल = मायावी भावार्थ रावण, दरहम-बरहम = अस्त-व्यस्त, दामनी = आँचल भावार्थ सीता, दाल = पथ प्रदर्शक भावार्थ राम )
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दिलावरी दिल हारकर, जीत लिया दिलदार
दिलफरेब-दीप्तान्गिनी, दिलाराम करतार
(दिलावरी = वीरता, दिलफरेब = नायिका, दिलदार / दिलाराम = प्रेमपात्र)
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दोहा सलिला

दोहा सलिला
संजीव सलिल
ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन हुआ बसंत.
दूर हुईं पतझड़ हुआ, हेरूँ हर पल कन्त..
तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद.
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गाएँ छन्द.
तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक हों मन दूर.
तू-मैं ज्यों ही हम हुए, साँस हुई संतूर..
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दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ.
अधरों पर मुस्कान हो, तभी सार्थक साथ..
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नयन मिला छवि बंदकर, मूँदे नयना-द्वार.
जयी चार, दो रह गये, नयना खुद को हार..
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खबरदार कविता

खबरदार कविता:
खबर: हमारी सरहद इंच-इंच कर कब्ज़ा किया जा रहा है.
दोहा गजल:
असरकार सरकार क्यों?, हुई न अब तक यार.
करता है कमजोर जो, 'सलिल' वही गद्दार..
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अफसरशाही राह का, रोड़ा- क्यों दरकार?
क्यों सेना में सियासत, रोके है हथियार..
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दें जवाब हम ईंट का, पत्थर से हर बार.
तभी देश बच पायेगा, चेते अब सरकार..
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मानवता के नाम पर, रंग जाते अखबार.
आतंकी मजबूत हों, थम जाते हथियार..
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५-४-२०१०

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

लघुकथा

लघुकथा
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अँधा बाँटे रेवड़ी
संजीव
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जंगल में भीषण गर्मी पड़ रही थी। नदियों, झरनों, तालाबों, कुओं आदि में पानी लगातार कम हो रहा था। दोपहर में गरम लू चलती तो वनराज से लेकर भालू और लोमड़ी तक गुफाओं और बिलों में घुसकर ए.सी., पंखे आदि चलाते रहते। हाथी और बंदर जैसे पशु अपने कानों और वृक्षों की पत्तियों से हवा करते रहते फिर भी चैन न पड़ता। 
जंगल के प्रमुख विद्युत् मंत्री चीते की चिंता का ठिकाना नहीं था। हर दिन बढ़ता विद्युत् भार सम्हालते-सम्हालते उसके दल को न दिन में चैन था, न रात में। लगातार चलती टरबाइनें ओवरहालिंग माँग रही थीं। विवश होकर उसने वनराज शेर से परामर्श किया। वनराज ने समस्या को समझा पर समस्या यह थी कोई भी वनवासी सुधार कार्य के लिए स्वेच्छा से बिजली कटौती के लिए तैयार नहीं था और जबरदस्ती बिजली बंद करने पर जन असंतोष भड़कने की संभावना थी। 
महामंत्री गजराज ने गहन मंथन के बाद एक समाधान सुझाया। तदनुसार एक योजना बनाई गयी। वनराज ने जंगल के सभी निवासियों से अपील की कि वे एक दिन निर्धारित समय पर बिजली बंद कर सिर्फ मोमबत्ती, दिया, लालटेन, चिमनी आदि  जलाकर इंद्र देवता को प्रसन्न करें ताकि आगामी वर्ष वर्षा अच्छी हो। संचार मंत्री वानर सब प्राणियों को सूचित करने के लिए अपने दल-बल के साथ जुट गए।
वनराज के साथ के साथ विद्युत् मंत्री, विद्युत सचिव, प्रमुख विद्युत् अभियंता आदि कार्य योजना को अंतिम रूप देनेके लिए बैठे। अभियंता के अनुसार गंभीर समस्या यह थी कि जंगल के भिन्न-भिन्न हिस्सों में बिजली प्रदाय ग्रिड बनाकर किया जा रहा था। एकाएक ग्रिडों में बिजली की माँग घटने के कारण फ्रीक्वेंसी संतुलन बिगड़ने, रिले , कंडक्टर आदि पर असामान्य विद्युत् भार के कारण प्रणाली जर्क और  ग्रिड फेल होने की संभावना थी। ऐसा होने पर सुधार कार्य में अधिक समय लगता। मंत्री, सचिव आदि घंटों सिर खपकर भी कोई समाधान नहीं निकल सके। प्रमुख अभियंता के साथ आये  एक फील्ड इंजीनियर ने सँकुचाते हुए कुछ कहने के लिए हाथ उठाया। सचिव ने उसे घूरकर देखा तो उसने झट हाथ नीचे कर लिया पर वनराज ने उसे प्रोत्साहित करते हुए  कहा 'रुक क्यों गए? बेझिझक कहो, जो कहना है।"
फील्ड इंजीनियर ने कहा यदि हम लोगों को केवल बल्ब-ट्यूबलाइट आदि बंद करने के लिए कहें और पंखे, ए.सी. आदि बंद न करने के लिए कहें तो ग्रिड में फ्रीक्वेंसी संतुलन बिगड़ने की संभावना न्यूनतम हो जायेगी। विचार-विमर्श के बाद इस योजना को स्वीकार कर तदनुसार लागू किया गया। वन्य प्रजा को बिजली कम खर्च करने की प्रेरणा मिली। ग्रिड फेल नहीं हुआ। इस सफलता के लिए मंत्री और सचिव को सम्मान मिले, किसी को याद न रहा कि अभियंता की भी कोई भूमिका था। सम्मान समारोह में आया काला कौआ  बोलै पड़ा 'अँधा बाँटे रेवड़ी"
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४-४-२०२०
- विश्व वाणी हिंदी संस्थान,
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
९४२५१८३२४४

पुरोवाक लवाही : नवगीत संग्रह - सुनीता सिंह

पुरोवाक
लवाही : नवगीत की नई फसल की उगाही 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 

नवगीत मानवीय अनुभूतियों की जमीन से जुड़ी शब्दावली में काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। अनुभूति किसी युग विशेष में सीमित नहीं होती। यह अनादि और अनंत है। मानवेतर जीव इसकी अभिव्यक्ति व्यवस्थित और सर्व ज्ञात विधि से नहीं कर पाते। मानव ने ध्वनि के साथ रस और लय का सम्मिश्रण कर नाद को निनाद में परिवर्तित कर कलकल  और कलरव को शब्द में ढाल दिया। लोकगीतों और शिशुगीतों में पशु-पक्षियों की बोलिओं का समावेश साक्षी है कि गीत की रचना यात्रा में प्रकृति और परिवेश की महती भूमिका रही है। इन बोलिओं में ध्वनि का उतार-चढ़ाव और ध्वनि खंड की आवृत्ति करना सीखने के साथ ही मानव ने सार्थक शब्दों का प्रयोग कर अपनी अनुभूतियों को ही नहीं, भावनाओं को भी लयबद्ध कर वाचिक गीतों को जन्म दिया। आज भी ग्रामीण अंचलों में खेती की तकवारी करते अपरिचित स्त्री-पुरुष संध्या समय में बम्बुलिया लोकगीत गाते हैं। विस्मय यह की छंद शास्त्र से अनभिज्ञ और कभी कभी अनपढ़ भी एक पंक्ति सुनकर उसी लय पर तत्क्षण रची पंक्ति गाते हुए सुर में सुर मिलाते हैं। मेरे पिताश्री जेल अधीक्षक रहे।  हमारा आवास जेल परिसर में ही होता था। जेल की ऊँची दीवारों में कैद बंदी सावन-फागुन, राखी-दीवाली पर स्वजनों की याद में सुबह-शाम इसी तरह गीत गाते और उनमें पंक्तियाँ जोड़ते जाते थे।

'लवाही' के नवगीतों को पूर्वाग्रही दृष्टि के शिकार तथाकथित समीक्षक नवगीत के पूर्व रचित तथाकथित मानकों से भिन्न पाकर नाक-भौं सिकोड़ें यह स्वाभाविक है किन्तु लवाहीकार को इसकी चिंता किये बिना नवगीतों की संरचना में संलग्न रहना चाहिए। कोई  पूर्ववर्ती कलमकार अपनी मान्यताओं के पिंजरे में भावी रचनाधर्मियों को कैद कैसे कर सकता है? हर नया रचनाकार अपनी शैली, अपना भावबोध, अपने प्रतीक, अपने बिम्ब, अपना शब्द विन्यास लेकर गीत रचता है। नवगीत की परिभाषा रचने के जितने प्रयास किये जाते हैं, नवगीत उन्हें बेमानी सिद्ध करते हुए हर बार किसी नई कलम को माध्यम बना कर नव भावमुद्रा के साथ प्रगट होकर सबको चौंका देता है। गीतों की समीक्षा केवल पिंगलीय मानकों के निकष पर करना उचित नहीं है। इनमें भावनाओं की, कामनाओं की, आकांक्षाओं की, अरमानों की, पीड़ा की, एकाकीपन की असंख्य भावधाराएँ समाहित होती हैं। इनमें अदम्य जिजीविषा छिपी होती है, इनमें अगणित सपने बुने जाते हैं, इनमें शब्द-शब्द में भाव, रस, लय का प्रवाह होता है।

नवगीत का उद्भव १९५० के आस पास माननेवाले जब सूर. तुलसी और मीरां की रचनाओं को इसका प्रेरणास्रोत बताते हैं तो उनकी समझ पर हँसा ही जा सकता है क्योंकि वे ही दूसरी श्वास में छायावाद की समस्त रचनाओं को काल बाह्य बताने में संकोच नहीं करते। भक्तिकाल में नवगीत का उत्स खोजने-बतानेवाले आधुनिक गीत के साथ अस्पृश्य की तरह बर्ताव करते हैं। तब कहना पड़ता है "गीत और नवगीत / नहीं हैं भारत-पाकिस्तान।" विकिपीडिया के अनुसार 'गीत और नवगीत में काल (समय) का अन्तर है। आस्वादन के स्तर पर दोनों को विभाजित किया जा सकता है। जैसे आज हम कोई छायावादी गीत रचें तो उसे आज का नहीं मानना चाहिए। उस गीत को छायावादी गीत ही कहा जायेगा। इसी प्रकार निराला के बहुत सारे गीत, नवगीत हैं, जबकि वे नवगीत की स्थापना के पहले के हैं। दूसरा अन्तर दोनों में रूपाकार का है। नवगीत तक आते-आते कई वर्जनायें टूट गईं। नवगीत में कथ्य के स्तर पर रूपाकार बदला जा सकता है। रूपाकार बदलने में लय महत्वपूर्ण 'फण्डा' है। जबकि गीत का छन्द प्रमुख रूपाकार है। तीसरा अन्तर कथ्य और उसकी भाषा का है। नवगीत के कथ्य में समय सापेक्षता है। वह अपने समय की हर चुनौती को स्वीकार करता है। गीत की आत्मा व्यक्ति केन्द्रित है, जबकि नवगीत की आत्मा समग्रता में है। भाषा के स्तर पर नवगीत छायावादी शब्दों से परहेज करता दिखाई देता है। समय के जटिल यथार्थ आदि की वजह से वह छन्द को गढ़ने में लय और गेयता को ज्यादा महत्व देता है।'

देवकीनन्दन 'शांत' अपने नवगीत संग्रह 'नवता' में यही प्रश्न उठाते हैं कि गीत से नवगीत तक आते-आते जब कई वर्जनायें टूटीं तो नवगीत के उद्भव से ७० वर्ष बाद आ रहे नवगीतकार कुछ वर्जनाएँ तोड़ रहे हैं तो आपत्ति क्यों? 'लवाही' के नवगीत पढ़कर भी यही प्रतीत होगा कि ये  नवगीत निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं हैं। मेरा प्रश्न यही है कि हर नयी रचना को पुराने मानकों के अनुरूप क्यों होना चाहिए? नवता को गढ़ने का अधिकार नये को क्यों नहीं मिलना चाहिए? मानक के नाम पर पुराने अपनी दृष्टि क्यों थोपते रहें? वे, उन्हें अमान्य करनेवाली कलमों को अमान्य किस अधिकार से करते रहें? भारतीय पिंगल शास्त्रीय परंपरा कृति का आरंभ ईश वंदना से करना श्रेयस्कर मानती है। लवाहीकार सुनीता सिंह इसका अंधानुकरण नहीं करतीं, वे ईश को प्रेम और प्रकाश का पर्याय मानकर प्रेम और सूर्य पर केंद्रित रचनाओं को आरम्भ में रखती हैं, परंपरा को नवता का बाना पहनाती हैं। 'दीनानाथ' और 'दीनबंधु' एक ही तो हैं,  उन्हें दैन्य भाव नहीं, सखा भाव अधिक रुचता है इसलिए सुनीता सूर्य को बंधु कहती हैं- 


कमी नहीं   

अब रही नमी की 
सूरज प्यारे दिखो निकलकर 
अब तो प्रगटो, धूप तिहारी 
सब सीलन में सना बंधुवर!

सर्दी में  सूर्य 'संक्रान्ति' अर्थात अर्थात परिवर्तन का वाहक होता है। इसी भावभूमि पर मेरे गीत-नवगीत संग्रह "काल है संक्रांति का" में ९ नवगीतों में सूर्य को केंद्र में रखा गया था। सुनीता सिंह सूर्य को लोक से जोड़ते हुए गुड़. लैया, तिल के लड्डू, दही-चूड़ा, मूँगफली, लक्ठा, आलू, बथुआ-चना-सरसों के साग, चाय-सूप-कॉफी, ज्वार-बाजरे-मक्के की रोटी, स्वेटर-जैकेट-शाल से जोड़ते हुए मुफ़लिस की झोपड़ी तक पहुँचाने में देर नहीं लगातीं। 'प्रीत की नक्काशियाँ' शीर्षक गीत में 'मन-भवन की देहरी पर प्रीत की नक्काशियाँ' जैसी प्रांजल अभिव्यक्ति गीतकार में छिपी संभावनाओं का संकेत करती है। इस गीत में अलंकारों की मनहर छटा अवलोकनीय है- 

रूह करती, रूह से मिल 
चाहतों की बारिशें 
शुष्क सहसा हो धरा फिर 
बूंदों की गुजारिशें   (यमक अलंकार ) 

घने कारे घिरे बदरा घेर लें दुश्वारियाँ (अनुप्रास अलंकार )

सूरज प्यारे दिखो निकलकर (उपमा अलंकार)

मन-भवन की देहरी पर  (रूपक अलंकार)

मकर संक्रांति शीर्षक गीत में कवयित्री विविध प्रदेशों में भिन्न-भिन्न नामों का उल्लेख करते हुए बिना कहे राष्ट्रीय एकता का भाव उपजाने में समर्थ है। 
सुरभित मति है जन मानस की 
क्या अगड़ी, क्या पिछड़ी?
तिल गुड़ लैया की सौंधी सी 
देख रही है तिकड़ी 

नवधनाढय वर्ग में अत्याधुनिकता के आडंबरों पर आक्षेप करते हुए सुनीता 'मुखौटा कल्चर' नवगीत में जिस शब्दावली का प्रयोग करती हैं वह सटीक ही नहीं सार्थक भी है- 

गुलमोहर से अधिक मनोहर
दौर मुखौटा कल्चर का। 

टाइल से भी ज्यादा चिकनी  
स्टाइल की दीवारें 
गूढ़ अर्थ हैं छुपे हुए से 
स्माइल में बारी-बारी 
नाम बड़ा हो गया है अब 
बेख़ौफ़ उड़ते वल्चर का 

स्पष्ट है कि भाषा में शुद्धता के पक्षधरता समीक्षकों को उँगली उठाने का अवसर मिलेगा किन्तु सुनीता साहस के साथ चुन-चुनकर वही शब्द प्रयोग करती हैं जो उनके चाहे भाव और कथ्य के साथ न्याय कर सके। वे शब्दों को शब्द कोशीय अर्थ से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने की सामर्थ्य रखती हैं, यह असाधारण है- 

बदला लगता आर्किटेक्चर 
इस आधुनिक 'स्कल्पचर' का। 
गुलमोहर से अधिक मनोहर 
दौर मुखौटा कल्चर का। 
पेय पुराना देसी छोड़ा, 
दिल आया अंग्रेजी पर। 
अब प्रगतिशील की पहचान 
रहे नशे की रंगरेजी पर।।   
  
सुनीता जी के गीतों में  मुहावरों का प्रयोग अनूठे तरीके से हुआ है। मुहावरे अपने सही अर्थ में, स्वाभाविकता के साथ आये हैं. ठूँसे नहीं गये हैं। 'स्वाद अदरकी' शीर्षक नवगीत में किताबी विद्वता और लालफीताशाही पर व्यंग्य तथा व्यञजनात्मकता देखते ही बनती है- 

दहर अनोखी, स्वाद अदरकी 
तो अब जाने बंदर ही 

जोड़-तोड़कर डिग्री लेकर 
बने पोथियों के विद्वान् 
बगुलों में वो हंसा बनकर 
चौपाल की बनते शान 
ज्ञान समुन्दर भरा हुआ है 
जैसे उनके अंदर ही 

बनते दफ्तर राजनीति में 
धुरी खुशामद्कारी की 
साँसें भी हों गिरवी जैसे 
रख दी चंद उधारी की 
संझा देते शलजम भी तो 
होता एक चुकंदर ही 

'सड़क' आपाधापी से संत्रस्त जीवन की सशक्त प्रतीक है। नगरीकरण की मारी जनता की आधी ज़िंदगी सड़क पर ही बीतती है। मैंने अपने नवगीत संग्रह 'सड़क पर' में ९ नवगीत सड़क के विविध पहलुओं पर लिखे हैं. यह प्रतीक सुनीता जी को भी प्रिय है। 'भीड़ है भारी सड़क पर' नवगीत के शीर्षक में ही श्लेष अलंकार का प्रयोग हुआ है। यह नवगीत सड़कों पर हो रहे घटनाक्रम को जीवंत करता है- 

भीड़ पर भारी सड़क है 
या सड़क पर भारी भीड़? 

जिधर भी जाओ जाम मिलेगा 
भीड़-भाड़ का नाम मिलेगा 
पौं-पौं-पौं-पौं पम-पम भारी 
फटफटिया का झाम मिलेगा  
चींटी चाल कतार चले 
कुछ पल बने वहीं पर नीड़ 

इन नवगीतों का विषय वैविध्य व्यापक है। इनमें पर्यावरण, वृद्धावस्था, स्त्री विमर्श, सांस्कृतिक अधकचरापन, कृषि, ऋतु चक्र परिवर्तन, युवा-दिशाहीनता, प्रशासन में राजनैतिक हस्तक्षेप, मूल्यह्रास, आदि विविध पहलू गीतकार की चिंता के विषय हैं। काबिले-तारीफ़ है कि सुनीता अपनी चिंतन दृष्टि पर अपनी जीवन शैली, प्रशासनिक दायित्व या पद को हावी नहीं होने देतीं। यह प्रवृत्ति उनके रचनाकार के कद को बढ़ाता है। उनका शब्द भण्डार व्यापक है। हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू उनके लिए सहज हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों आदि का प्रयोग वे बखूबी कर लेती हैं। उन्हें भाषा की शुद्धता नहीं संस्कार की चिंता रहती है। छंद वैविध्य उनके इन गीतों में सहजता से प्राप्त है। वे कथ्य को लय पर वरीयता देती हैं। 

सबसे अधुक महत्वपूर्ण बात यह है कि वे बनी बनाई लीक का अंधानुकरण न कर अपनी डगर बनाकर उस पर बढ़ना जानती हैं। वे बिना कहे इन रचनाओं के माध्यम से जता देती हैं कि  वैचारिक प्रतिबद्धता का लट्ठ भाँज रहे मठाधीश यह समझ लें कि गीत (नवगीत भी) लोक की उपज है, विश्वविद्यालय, सचिवालय या दलीय विचारधाराओं के शिविरों की नहीं। "लवाही" की गीति रचनाओं में अंतर्निहित और अंतर्व्याप्त 'लय' और 'रस' से अभिषेकित पंक्तियाँ इस विश्वास की पुष्टि करती हैं कि गीतों में नवता के नाम पर राजनैतिक वैचारिक प्रतिबद्धताओं को परोस कर जनमत जुटाने का दिवास्वप्न खंडित होता रहेगा। अभिव्यक्ति विश्वम के  नवगीत महोत्सव २०१९ में जिस तरह साम्यवादी समूह के गीतकारों ने एकत्र होकर भारतीय सनातन मूल्यपरक गीत की पक्षधरता की बात करते वरिष्ठ गीतकार पर अशोभनीय वाक्प्रहार किये, उसे देखते हुए उसी नगरी में 'लवाही' की रचना होना यह सिद्ध करती है कि विचार-चेतना को तोड़ा नहीं जा सकता।

विशिष्टता यह भी कि जन सामान्य की शब्दावली, भावनाओं और अनुभूतियों को गीतायित करने का महत्वपूर्ण कार्य पुरुष नहीं महिला, वह भी दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं हेतु जूझती महिला द्वारा ही नहीं, उच्च प्रशासनिक दायित्व का निष्ठापूर्वक निर्वहन कर रही आत्मनिर्भर तरुणी द्वारा भी किया जा रहा है। यह कहना इसलिए आवश्यक है कि गीतोद्यान में अंकुरित हो रही नई  कलमें यह जान सकें कि गीत रचना हेतु आवश्यक भावप्रवणता किसी सर्वहारा वर्ग की बपौती नहीं है। बहुमूल्य खाद्य ग्रहणकर पचने के लिए हाजमोला और चूर्ण फाँक रहे श्रेष्ठि जन गीत में भुखमरी को ठूँसने का जो छद्म रच रहे हैं वह केवल पाखंड है। देश की अद्वितीय प्रगति की अनदेखी कर पिछड़ेपन के नवगीत लिखना समय और समाज दोनों के साथ अन्याय है।

पंकज परिमल परिमल के शब्दों में गीत "सायासता और अनायासता का एक आनुपातिक मिश्रण होता है। सायासता कविता में बिलकुल न होगी,यह मानना मुश्किल है। पर अमर्यादित सायासता कविता की सहजता को नष्ट करती है। देशज शब्द तद्भव शब्दों का साथ गहते हैं तो कभी -कभी क्रियापदों के ग्राम्य आचरण को खड़ी बोली की कविता में रोक पाना मुश्किल हो जाता है।" सुनीता सिंह के ये नवगीत जो स्वाभाविक रूप से गीत भी हैं, सहजता को सहज ही साध पाते हैं। 'बूढ़ी आँखें' शीर्षक नवगीत में सुनीता उस अनुभव को विषय बनती हैं जिससे वे अभी वर्षों पीछे हैं किन्तु उनकी सहृदयता परानुभूति को स्वानुभूति बनाकर कह पाती है- 

झुर्रियों में हैं कथानक 
धूप-छाँव के, अनुभव के 
लोच है मानो युगों की 
बिना बुलाये जो धमके 
उर्मियों के तप्त मंजर 
सावनों के भी समंदर 
सैलाब को थामे हुए 
भवों को हैं ताने हुए 
वंशबेल का सुख अनुपम  
बाकी सब नाचीज है। 

इन ७२ गीतों में सुनीता सिंह ने समय और समाज दोनों को पडतालने की ईमानदार कोशिश की है। उनमें लंबा सफर करने की काबलियत है। आगामी कृतियों में शिल्पगत बारीकियाँ और खूबियाँ और अधिक उभरें यह स्वाभाविक विकास क्रम है। मुझे युवा नवगीतकार की सृजन यात्रा में सहयात्री बनते हुए प्रसन्नता है। यह विश्वास है कि ये रचनाएँ पढ़ी और सराही जाएँगी तथा इनकी रचनाकार बहुविध समादृत होगी। 

                                                                                                                                                                संजीव 

संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com  















एक रचना

एक रचना
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रक्तबीज था हुआ कभी जो
लौट आया है।
राक्षस ने कोरोना का
नाम पाया है।

गिरेगी विष बूँद
जिस भी सतह पर
उसे छूकर मनुज जो
आगे बढ़ेगा
उसीको माध्यम बनाकर
यह चढ़ेगा

बढ़ा तन का ताप
देगा पीर थोड़ी
किन्तु लेगा रोक श्वासा
आस छोड़ी
अंतत: स्वर्गीय हो
चाहे न भाया है।

सीख दुर्गा माई से
हम भी तनिक लें
कोरोना जी बच सकें
वह जगह मत दें
रहें घर में, घर बने घर
कोरोना से कहें: 'जा मर'

दूरियाँ मन में न हों पर
बदन रक्खें दूर ही हम
हवा में जो वायरस हैं
तोड़ पंद्रह मिनिट में  दम
मर-मिटें मानव न यदि
आधार पाया है।

जलाएँ मिल दीप
आशा के नए हम
भगाएँ जीवन-धरा से
भय, न हो तम
एकता की भावधारा
हो सबल अब

स्वच्छता आधार
जीवन का बने अब
न्यून कर आवश्यकताएँ
सर तनें सब
विपद को जय कर
नया वरदान पाया है

रक्तबीज था हुआ कभी जो
लौट आया है।
राक्षस ने कोरोना का
नाम पाया है।
*
संजीव
४.४.२०२०
९४२५१८३२४४


पैरोडी

एक गीत -एक पैरोडी
*
ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा ३१
कहा दो दिलों ने, कि मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा ३०
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ये क्या बात है, आज की चाँदनी में २१
कि हम खो गये, प्यार की रागनी में २१
ये बाँहों में बाँहें, ये बहकी निगाहें २३
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा १९
*
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा २२
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा २१
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो २१
करे कोई दिल आरजू और क्या १९
*
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे २१
रहे सांस जब तक ये बंधन न टूटे २२
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है २१
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा १८
फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
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पैरोडी
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा ३०
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा ३१
*
ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा २२
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा २०
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले २१
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा १८
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अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा २२
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा २०
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे २१
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां २०
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लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की २१
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की २०
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको २१
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा १७
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कार्यशाला: दोहा से कुंडली

कार्यशाला:
दोहा से कुंडली
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ऊँची-ऊँची ख्वाहिशें, बनी पतन का द्वार।
इनके नीचे दब गया, सपनों का संसार।। - तृप्ति अग्निहोत्री,लखीमपुर खीरी
सपनों का संसार न लेकिन तृप्ति मिल रही
अग्निहोत्र बिन हवा विषैली आस ढल रही
सलिल' लहर गिरि नद सागर तक बहती नीची
कैसे हरती प्यास अगर वह बहती ऊँची - संजीव वर्मा सलिल
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