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मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

दोहा मुक्तिका

दोहा मुक्तिका
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झुरमुट से छिप झाँकता, भास्कर रवि दिननाथ।
गाल लाल हैं लाज से, दमका ऊषा-माथ।।
*
कागा मुआ मुँडेर पर, बैठ न करता शोर।
मन ही मन कुछ मानता, मना रहे हैं हाथ।।
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आँख टिकी है द्वार पर, मन उन्मन है आज।
पायल को चुप हेरती, चूड़ी कंडा पाथ।।
*
गुपचुप आ झट बाँह में, भरे बाँह को बाँह।
कहे न चाहे 'छोड़ दो', देख न ले माँ साथ।।
*
कुकड़ूँ कूँ ननदी करे, देवर देता बाँग।
बीरबहूटी छुइमुई, छोड़ न छोड़े हाथ।।
***
संवस, ९.४.२०१९
७९९९५५९६१८

भोजपुरी दोहा

भोजपुरी दोहा:
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खेत खेत रउआ भयल, 'सलिल' सून खलिहान।
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट भी सुनसान।।
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खनकल-ठनकल बाँह-पग, दुबुकल फउकल देह।
भूख भूख से कहत बा, कित रोटी कित नेह।।
*
बालारुण के सकारे, दीले अरघ जहान।
दुपहर में सर ढाँकि ले, संझा कहे बिहान।।
*
काट दइल बिरवा-बिरछ, बाढ़ल बंजर-धूर।
आँखन ऐनक धर लिहिल, मानुस आँधर-सूर।।
*
सुग्गा कोइल लुकाइल, अमराई बा सून।
शूकर-कूकुर जस लड़ल, है खून सँग खून
***
संवस, ७९९९५५९६१८
९.४.२०१९

दोहा मुक्तिका

दोहा मुक्तिका
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सत्य सनातन नर्मदा, बाँच सके तो बाँच.
मिथ्या सब मिट जाएगा, शेष रहेगा साँच..
*
कथनी-करनी में कभी, रखना तनिक न भेद.
जो बोया मिलता वही, ले कर्मों को जाँच..
*
साँसें अपनी मोम हैं, आसें तपती आग.
सच फौलादी कर्म ही सह पाता है आँच..
*
उसकी लाठी में नहीं, होती है आवाज़.
देख न पाते चटकता, कैसे जीवन-काँच..
*
जो त्यागे पाता 'सलिल', बनता मोह विछोह.
एक्य द्रोह को जय करे, कहते पांडव पाँच..
***
संवस, ७९९९५५९६१८

द्विपदी

द्विपदी 
*
परवाने जां निसार कर देंगे. 
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में भटको न तुम. 
फूल बन महको चली आएँगी ये..
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी.
मर गया तो तेरहीं में दावतें हुईं..
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते 
अफसरों की लात भी परसाद है..
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता..
*
संवस

सोमवार, 8 अप्रैल 2019

दोहा

दोहा सलिला
दो कौड़ी का आदमी, पशु का थोड़ा मोल।
नायक सबका खुदा है, धन्य-धन्य हम झेल।।
*
तू मारे या छोड़ दे, है तेरा उपकार।
न्याय-प्रशासन खड़ा है, हाथ बाँधकर द्वार।।
*
आज कदर है उसी की, जो दमदार दबंग।
इस पल भाईजान हो, उस पल हो बजरंग।।
*
सवा अरब है आदमी, कुचल घटाया भार।
पशु कम मारे कर कृपा, स्वीकारो उपकार।।
*
हम फिल्मी तुम नागरिक, आम न समता एक।
खल बन रुकते हम यहाँ, मरे बने रह नेक।।
*

पानी-पानी हो गया, पानी मिटी न प्यास।
जंगल पर्वत नदी-तल, गायब रही न आस।।

8.4.2018

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.

नवगीत बाँस

नवगीत:
संजीव
.
बाँस हैं हम 
.
पत्थरों में उग आते हैं
सीधी राहों पर जाते हैं
जोड़-तोड़ की इस दुनिया में
काम सभी के हम आते हैं
नहीं सफल के पीछे जाते
अपने ही स्वर में गाते हैं
यह न समझो
नहीं कूबत
फाँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
चाली बनकर चढ़ जाते हैं
तम्बू बनकर तन जाते हैं
नश्वर माया हमें न मोहे
अरथी सँग मरघट जाते हैं
वैरागी के मन भाते हैं
लाठी बनकर मुस्काते हैं
निबल के साथी
उसीकी
आँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
बन गेंड़ी पग बढ़वाते हैं
अगर उठें अरि भग जाते हैं
मिले ढाबा बनें खटिया
सबको भोजन करवाते हैं
थके हुए तन सो जाते हैं
सुख सपनों में खो जाते हैं
ध्वज लगा
मस्तक नवाओ
नि-धन का धन
काँस हैं हम
बाँस हैं हम
*

नवगीत

नवगीत  
धत्तेरे की
*
धत्तेरे की 
चप्पलबाज। 
*
पद-मद चढ़ा, न रहा आदमी
है असभ्य मत कहो आदमी
चुल्लू भर पानी में डूबे
मुँह काला कर
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
हाय! जंगली-दुष्ट आदमी
पगलाया है भ्रष्ट आदमी
अपना ही थूका चाटे फिर
झूठ उचारे
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
गलती करता अगर आदमी
क्षमा माँगता तुरत आदमी
गुंडा-लुच्चा क्षमा न माँगे
क्या हो बोलो
चप्पलबाज?
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*

समीक्षा: सरे राह कहानियाँ सुमन श्रीवास्तव



पुस्तक सलिलां-
‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।] 
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‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।
इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना, कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।
कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी, सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।
किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है।
सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।
अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।
सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है। 
.............................. 
- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ , salil.sanjiv@gmail.com

राहुल सांकृत्यायन

राहुल एक जिजीविषा  

-   सुनील दत्ता


Rahul_Sankrityayan_shabdankan_birthday_02    आज के इस विराट पृथ्वी के फलक पर प्रकृति अपने गर्भ में अनेको रहस्य छुपाये रहती है | प्रकृति समय- समय पर इस खुबसूरत कायनात को नये- नये उपहारों से नवाजती आई है |कभी बड़े वैज्ञानिक, ऋषि, महर्षि, दर्शन वेत्ता साहित्य सृजन शिल्पी और इस खुबसूरत कायनात में रंग भरने वाले व्यक्तित्व से सवारती चली आ रही है | ऐसे ही एक बार सवारा था जनपद आज़मगढ़ को ९ अप्रैल १८९३ को केदार पांडेय ( राहुल सांकृत्यायन ) के रूप में। राहुल सांकृत्यायन विश्व- विश्रुत विद्वान् और अनेको भाषाओं के ज्ञाता हुए थे |ज्ञान के विविध क्षेत्रो में उनका अवदान अतुलनीय है | भाषा और साहित्य के अज्ञात गुहाधकारो को आलोकित करने, इतिहास और पुरातत्व के अछूते क्षेत्रो को उदघाटित करने, विश्व- भ्रमण का कीर्तिमान बनाते हुए यात्रा वृतान्तो का विपुल साहित्य- सृजन और यात्रा- वृत्त को “ घुमक्कड़ शास्त्र “ के रूप में शास्त्र- प्रतिष्ठा देने, इसके साथ ही अपनी जीवन- यात्रा के पांच भागो में एक अनुपम आत्मकथा लिखने और अनेको महत्वपूर्ण ज्ञात- अज्ञात महापुरुषों की जीवनी प्रस्तुत करने से लेकर पुरातत्व, इतिहास, समाज दर्शन और अर्थशास्त्र के जीवंत पहलुओ को उदघाटित करने वाली विश्व प्रसिद्द कहानियों और उपन्यासों के सृजन, दर्शन एवं राजनीति पर समर्थ साहित्य रचना के साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी, किसान- आन्दोलन की अगुवाई, राष्ट्रभाषा हिन्दी और जनपदीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए एक सिपाही की भाँती सक्रिय संघर्ष करते हुए उन्होंने विदेशो के विश्वविद्यालयों के प्रतिष्ठापूर्ण आचार्य के रूप में अध्यापन और अपने समर्थ पद- संचरण से देश और विदेश के दुर्गम क्षेत्रो को अनवरत देखा- परखा |  गुरुदेव के “ एकला चलो रे “ का भाव इनके समग्र जीवन पर था |इतने कार्यो को एक साथ सम्पन्न करना एक साधारण आदमी के वश का कार्य नही हो सकता | वे चलते- फिरते विश्वकोश थे और कर्म शक्ति के कीर्तिमान थे | ऐसे महामानव शताब्दियों के विश्व- पटल पर अवतरित होते है राहुल उन्ही महापुरुषों की श्रृखला में एक थे |


     राहुल जी के पूर्वज सरयूपार गोरखपुर जनपद के मलाव के पाण्डेय थे “ जो कभी आजमगढ़ के इस अंचल में आ बसे थे | मलाव से सर्वप्रथम गयाधर पाण्डेय आये और वह बस गये जिसे चक्रपाणीपुर कहते है | चक्रपाणी पाण्डेय उन्ही के पूर्वज थे जिनके नाम पर इस गाँव का नाम चक्रपाणीपुर पड़ा | सरयूपारीण ब्राह्मणों में सोलह प्रतिष्टित गोत्र है |राहुल की माता का नाम कुलवन्ती देवी और पिता गोवर्धन पाण्डेय एक बहन तथा चार भाइयो में सबसे बड़े राहुल जी निजामाबाद से मिडिल स्कुल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद वे आजमगढ़ के क्रिश्चियन मिशन स्कूल ( वेस्ली कालेज ) में अंग्रेजी पढने गये | उनका मन वहा नही लगा इसी कारण उन्होंने वाराणसी के डी. ए. वी स्कूल में प्रवेश लिया, परन्तु वहा भी वे अधिक दिन टिक न सके | राहुल जी का बचपन उनके ननिहाल पन्दहां में बीता | नाना रामशरण पाठक फौजी रह चुके थे | इसीलिए वो अपने सैनिक जीवन के किस्से- कहानिया उन्हें सुनाया करते थे | बाल्यावस्था के राहुल को विभिन्न देशो- प्रदेशो के वर्णनों के किस्सागोई को सुनकर, उन्हें अपनी आँखों से देखने की इच्छा ने ही उनमे यायावरी का मानसिक आधार तैयार किया |
     सैर की दुनिया की गाफिल, जिन्दगानी फिर कहा
    जिन्दगानी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहा | 
    शायद इस शेर ने ही केदार पाण्डेय को राहुल का स्वरूप प्रदान किया |

    केदार से राहुल

उनकी जीवन यात्रा का सबसे बड़ा आकर्षण है, कनैला के केदार पांडे का महापंडित राहुल साकृत्यायन में रूपांतरण | जीवन की यह यात्रा अन्य यात्राओं से कितनी लम्बी है ! कितनी दुर्गम ! कितनी साहसिक ! कितनी रोमांचक ! और कितनी सार्थक ! लेकिन यह यात्रा कोरी “ यात्रा “ नही है और न ही “ यायावरी “ या “घुमक्कड़ी “ ! राहुल जी बहुत बड़े घुमक्कड़ थे, इसमें कोई संदेह नही | कभी- कभी लगता है की उन्होंने अपने चारो ओर कवच की तरह घुमक्कड़ी का एक मिथक गढ़ लिया था | केदार पांडे घुमक्कड़ी के कारण महापंडित राहुल सांकृत्यायन नही बने ! घुमक्कड़ होने से पहले केदार पांडे घर के भगोड़े थे | सिद्धार्थ की तरह केदार नाथ भी एक दिन घर से भाग निकले | कारण निश्चय ही और था, लेकिन वह नही जिसका अत्यधिक प्रचार किया है : “ बचपन में “नवाजिन्दा बाजीन्दा की कहानी ( खुदाई का नतीजा ) पढ़ी | उसमे बाजीन्दा के मुँह से निकले “सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहा “ इस शेर ने मन और भविष्य के जीवन पर बहुत गहरा असर डाला, यद्धपि वह लेखक के अभिप्राय के बिलकुल विरुद्ध था | “ यह घटना १९०३ की है | उस समय केदारनाथ की उम्र दस वर्ष की थी |

    १९०४ की गर्मी चल रही थी |   बहसा- बहसी के बाद कई घंटा रात चढ़े तिलक चढा | व्याह भी हो गया | उस वक्त ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह तमाशा था | जब मैं सारे जीवन पर विचारता हूँ तो मालूम होता है, समाज के प्रति विद्रोह का प्रथम अंकुर पैदा करने में इसने पहला काम किया | १९०८ में जब मैं १५ साल का था, तभी से मैं इसे शंका की नजर से देखने लगा था, १९०९ के बाद से तो मैं गृहत्याग का बाकायदा अभ्यास करने लगा, जिसमे भी इस तमाशे  का थोड़ा- बहुत हाथ जरुर था | १९०९ के बाद घर शायद ही कभी जाता था, १९१३ के बाद को तो वह भी खत्म- सा हो गया, और १९१७ की प्रतिज्ञा के बाद तो आजमगढ़ जिले की भूमि पर पैर तक नही रखा | अपनी आत्म कथा “ मेरी जीवन यात्रा “ भाग एक में उन्होंने लिखा है - “ उस वक्त ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह “ तमाशा “ था | चार साल बाद ही जब मेरी उम्र १५ वर्ष हुई, तभी मैं “इस तमाशे“ को शक की नजर से देखने लग गया था | १९०९ में अर्थात एक साल बाद ही से मैंने इस बन्धन से निकल भागने के लिए घर को छोड़ देने का संकल्प और प्रयत्न शुरू किया | एक साल और बीतते- बीतते तो मैंने साफ़ तौर से और निश्चित रूप से यह मानना और कहना शुरू कर दिया कि मेरा विवाह हुआ ही नही |  बारह वर्ष की अवस्था से ही उनके मन में घर त्यागने के विचार आने लगे | उन्होंने कई बार गृह- त्याग का प्रयास किया भी परन्तु परिवार वालो द्वारा पकड लाये जाते | इसी प्रयास में १४ वर्ष की अवस्था में वे कलकत्ता चले गये | जहा से बड़ी मुश्किल से उन्हें लाया गया | काशी के अंग्रेजी स्कूल की मामूली शिक्षा के बाद वे वही संस्कृत का अध्ययन करने लगे | सन १९१२ में एक दिन अकस्मात भाग निकले तथा बिहार के सारण जिले के परसा- मठ में वैष्णव साधू बनकर रहने लगे | कुछ समय बाद वहा के महन्त के उत्तराधिकारी बने तथा वहा उनका नाम राम उदार बाबा पड़ गया |  मन न लगने पर रामानन्दी साधू हो गये तथा रामानन्द एवं रामानुज के दार्शनिक सिद्धान्तों के गहन अध्ययन के लिए १९१३-१४ में दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े |
Rahul_Sankrityayan_shabdankan_birthday_03
    विद्रोही मन वहा भी नही टिका तो आर्य समाज स्वीकार कर वाराणसी वापस आये तथा संस्कृत व्याकरण एवं काव्य का अध्ययन करने लगे | पुन: १९१५ ई. में आगरा भोजदन्त विद्यालय ( आर्य मुसाफिर खाना ) में मौलवी महेश प्रसाद से उर्दू, अरबी एवं लाहौर जाकर फारसी सहित अन्य कई भाषाओं का अध्ययन किया | १९१६ ई. में यहाँ की शिक्षा पूरी कर ली | यही पर आजमगढ़ के प्रसिद्ध समाजसेवी स्वामी सत्यानन्द ( बलदेव चौबे ) से उनकी दोस्ती हुई |राहुल १९१६ से १९१९ में लाहौर में संस्कृत अध्ययन की दृष्टि से रह रहे थे |  इसी दौरान गांधी जी ने १९१९ में रौलट एक्ट का विरोध शुरू किया | इसी समय अमृतसर में जालिया वाला बाग़ का खूनी काण्ड भी हुआ | लाहौर में रहने के कारण प्रत्यक्ष राहुल को इन बर्बर घटनाओं की अनुगूज सुनाई पड़ी | उन्होंने आजादी की लड़ाई के नागपुर प्रस्ताव तथा अन्य मसविदो को पढ़ना शुरू किया और स्वयं स्वतंत्रता संग्राम में एक सेनानी के रूप में कूद पड़े | १९२१ से १९२५ तक राहुल राजनैतिक बंदी के रूप में जेल में रहे | १९२२ में इन्हें छ: माह की सजा पर राजनैतिक कैदी के रूप में बक्सर जेल में रक्खा गया | १९२३ में ब्रिटिश सरकार विरोधी वक्तव्य देने के कारण उन्हें दो वर्ष की सजा पर हजारीबाग जेल में रक्खा गया | वहाँ से वो १९२५ में मुक्त हुए | इसके बाद राहुल का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर होने लगा |
घुमक्कड़ी जीवन
   १८२७-२८ के दौरान वे श्री लंका में संस्कृत अध्यापक नियुक्त हुए | वहा वे बौद्ध भिक्षु बन गये तथा पालि भाषा का अध्ययन कर बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर बौद्ध भिक्षु बन गये तथा भगवान बुद्ध के पुत्र “ राहुल “ के नाम को अपने नाम के साथ जोड़ लिया जो न केवल आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा बल्कि पहचान का एक मात्र पर्याय बन गया | उनका मूल गोत्र सांकृत था, अत: उससे अपना तादात्म्य स्थापित करते हुए उन्होंने नाम के आगे बौद्ध परम्परा के अनुसार सांकृत्यायन शब्द भी जोड़ लिया | बौद्ध धर्म ग्रंथो के गहन अध्ययन- मनन के कारण उन्हें “ त्रिपिटीकाचार्य “ की उपाधि प्रदान की गयी | लंका में उन्नीस माह रहने के बाद बौद्ध धर्म- ग्रंथो की खोज में वे १९२९ में नेपाल होते हुए तिब्बत गये |जहाँ भीषण कष्टों व बाधाओं को सहते हुए भी अनेक दुर्लभ बौद्ध- ग्रन्थो की खोज की | राहुल बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार हेतु १९३२-३३ में इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशो की यात्रा पर निकले | १९३६ में तिब्बत की तीसरी बार यात्रा करके १९३७ में पुन: रूस चले गये | कुछ ग्रन्थो की खोज में १९३८ में वे चौथी बार तिब्बत आये वही से वह पुन: सोवियत संघ लौट गये | सोवियत संघ अनेक बार जाने तथा निकट से मार्क्सवाद के प्रभाव को देखने से इनकी रुझान वामपन्थी विचार- धारा की तरफ हो गयी |
    भारत आ कर वे पुन: किसानो- मजदूरो से जुड़ गये तथा १९३९ में अमवारी सत्याग्रह के कारण जेल गये | वहाँ से छूटने के बाद पुन: गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेजे गये | जहा २९ माह तक कारावास में रहे | गृहत्याग के बाद उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी की पचास वर्ष की अवस्था के पहले वे अपने गाँव नही जायेंगे | जिसका पालन करते हुए १९४३ तक बाहर ही रहे | १९४४ से १९४७ तक लगभग २५ महीने वे सोवियत संघ के लेलिनग्राद विश्व विद्यालय में संस्कृत तथा पालि के प्रोफ़ेसर रहे | वहा उन्होंने एलना से विवाह कर लिया जिससे “ इगोर राहुलोविच्च “ नामक पुत्र का जन्म हुआ | १९४७ में जब वे भारत वापस लौटे तो उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मलेन के बम्बई अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया | हिन्दी के प्रश्न को लेकर विवाद हो जाने के कारण उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया |जिसे उन्होंने स्वीकार किया पर राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रश्न पर कोई समझौता उन्हें स्वीकार नही था।  सोवियत संघ की तत्कालीन व्यवस्था के कारण वे पत्नी एलना और पुत्र इगोर को भारत नही ला सके | राहुल जी ने मसूरी में हैपीविला के हार्नकिल्प नामक बंगले को खरीदकर वही रहने लगे | अपने एकाकीपन और अपने कार्य में सहयोग के लिए उन्होंने टंकक कमला पेरियार से विवाह कर लिया | जिससे १९५३ में पुत्री ज्या तथा १९५५ में पुत्र जेता का जन्म हुआ | कमला पेरियार के साथ उनकी तीसरी शादी थी |

Rahul_Sankrityayan_shabdankan_birthday_01    राहुल जी १९५८ में साढे चार माह की यात्रा पर चीन गये | उसी वर्ष “ मध्य एशिया का इतिहास” नामक उनकी पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरूस्कार प्रदान किया गया | १९५९ में वे कमला जी के अनुरोध पर मसूरी छोड़कर दार्जिलिंग चले गये | उसी वर्ष उन्हें श्री लंका के विश्वविद्यालय में संस्कृत एवं बौद्ध दर्शन विभाग का अध्यक्ष बनाया गया जिस पद पर वे मृत्युपर्यन्त रहे |     हिन्दी की सेवा के लिए भागलपुर विश्व विद्यालय ने अपने प्रथम दीक्षान्त समारोह में उन्हें “ डाक्टरेट “ की मांड उपाधि से सम्मानित किया | राष्ट्रभाषा परिषद बिहार ने “ मध्य एशिया का इतिहास “ के लिए पुरस्कृत किया | काशी विद्वत सभा ने उन्हें “ महापंडित “ का अलंकरण दिया तो हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग ने “साहित्य वाचस्पति” का २६ जनवरी १९६१ को भारत सरकार ने पद्मभूषण का अलंकरण प्रदान किया | सरस्वती ने अपने हीरक जयन्ती समारोह के अवसर पर मानपत्र देकर सम्मानित किया | जो उनके बहुमुखी व्यक्तित्व को सामने लाता है |मानपत्र में लिखा था- “आपने इस शती के तीसरे दशक में जब सरस्वती में लेख लिखना प्रारम्भ किया तब आचार्य द्दिवेदी ने साश्चर्य जिज्ञासा की थी कि हिन्दी की यह नवीन उदीयमान प्रतिभा कौन है ? तब से आप बराबर सरस्वती की सेवा करते आ रहे है | आप संस्कृत, हिन्दी और पालि के विद्वान् है | तिब्बती, रुसी और चीनी भाषाओं में निष्ठात है | राजनीति, इतिहास और दर्शन शास्त्र के पंडित है | आपने तिब्बती भाषा में सैकड़ो अज्ञात संस्कृत ग्रंथो का उद्दार किया | हिन्दी के प्रमुख बौद्ध ग्रंथो का अनुवाद कर हिन्दी का भण्डार भरा | “ एशिया का वृहद इतिहास ( भाग एक व दो ) लिखकर हिन्दी के बड़े अभाव को पूरा किया | उपन्यास, कहानी, निबन्ध यात्रा- साहित्य लिखकर आपने अपनी बहुआयामी प्रतिभा का परिचय दिया | आपकी निष्ठा हम सबके लिए अनुकरणीय है | आप केवल हिन्दी संसार के ही नही बल्कि सारे देश के गौरव है इस अवसर पर सरस्वती के पुराने लेखक तथा देश के महान पण्डित एवं साहित्यकार के रूप में आपका सम्मान कर हम अपने को गौरवान्वित समझते है |
विराट व्यक्तित्व
     राहुल जी का व्यक्तित्व बहुआयामी तथा विविधापूर्ण था | कहा जाता है की उन्हें देशी- विदेशी ३६ भाषाओं का ज्ञान था | विभिन्न भाषाओं को सीखने के लिए उन्होंने दिन- रात परिश्रम किया तथा अनेक कष्ट शे | उन्हें बंजारों की भाषा सीखने के लिए उनकी भैस व मुर्गिया चरानी पड़ी व उनकी मार भी सहनी पड़ी | प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने एक प्रसंग में कहा था “ राहुल जी ने अपना सारा काम चाहे वह पालि सम्बन्धी हो या प्राकृत, अपभ्रंश सम्बन्धी हो या संस्कृत अपने सारे ज्ञान को हिन्दी में निचोड़ दिया था |  निराला के शब्दों में कहे तो- “हिन्दी के हित का अभिमान वह, दान वह” . प्रगतिशीलता का प्रश्न नामक निबन्ध में राहुल जी ने लिखा है | “ आज के साहित्यिक कलाकार या विचारक का लक्ष्य बिंदु जनता होनी चाहिए “ यह जनता उनका लक्ष्य बिंदु ही नही प्रस्थान बिंदु भी था | इसी के बीच से और इसी को ध्याम में रखकर उन्होंने साहित्य के विषय में अपने विचार व्यक्त किये तथा कुछ साहित्यकारों पर मूल्याकनपरक टिप्पणिया की | इस बात की उन्हें कभी चिंता नही रही, कि लोग उन पर प्रचारवादी होने का आरोप लगायेंगे | भाषा के सम्बन्ध में राहुल जी का विचार था की भाषा विशिष्ठ सम्पन्न कुछ लोगो की सर्जना नही है, बल्कि जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है | जनता द्वारा गढ़े गये शब्दों, मुहावरों और कहावतो को छोड़कर यदि साहित्य रचना का प्रयास किया गया तो वह साहित्य निष्प्राण होगा | इसे लेकर दो मत नही हो सकते है | यदि लेखक चाहता है कि उसकी भाषा अजनबी न हो उसमे विद्युत् धारा दौड़ती रहे तो उसे जनभाषा से सम्पर्क बनाकर रखना होगा | इसी कारण वे जनपदीय बोलियों के साहित्य और शब्दावली को आगे बढाने के पक्षधर थे | राहुल जी ने जिस प्रकार की विषम परिस्थितियों में रहकर हिन्दी के सेवा की वह अनुकरणीय है | एक ओर जहाँ उन्होंने विभिन्न विषयों पर पुस्तके लिखी, वही शासन शब्दकोश, तिब्बती- हिंदी शब्दकोश जैसे शब्दकोशों का निर्माण तथा तिब्बती, चीनी, रुसी आदि भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद का भी कार्य किया | हिन्दी उनके जीवन में स्थायी- भाव की तरह रची- बसी रही | उन्होंने इस बात को स्वंय भी स्वीकार किया है | “ अन्य बातो के लिए तो मैं बराबर परिवर्तन शील रहा, किन्तु मेरे जीवन में एक हिन्दी का स्नेह ही ऐसा है जो स्थायी रहा है “


    यह एक सामान्य नियम है कि हर महान व्यक्ति की तत्कालीन समाज द्वारा उपेक्षा तथा अवहेलना की जाती है और राहुल जी भी इससे बच नही सके | डा . मुल्कराज आनन्द ने लिखा है कि मैं रूस के कुछ कवियों को जानता हूँ जिन्होंने राहुल के शब्दों का दाय ग्रहण किया और उनकी वाणी जुल्म के विरुद्ध गूंज उठी तथा समतावादी समाज- निर्माण में सहायक हुई | राहुल के बहुआयामी विलक्षण व्यक्तित्व में बड़ी महानता थी | डा . भागवत शरण उपाध्याय के अनुसार वह स्वशिक्षित राहुल नियमित पाठशाला पाठ्यक्रम को तिलांजली देकर संस्कृत से अरबी, फ़ारसी से अंग्रेजी, सिंहली से तिब्बती भाषाओं में भ्रमण करता है | उनमे अदभुत ग्रहण शक्ति थी, जिससे उन्होंने इन भाषाओं के ज्ञान- भण्डार में घिसी- पिटी बातो को छोड़कर उनकी मेधावी प्रज्ञा के सर्वश्रेठ सर्वोत्तम और सबसे जटिल सारतत्वों का मधु संचय निचोड़ निकाला (राहुल स्मृति ४२७) अन्य सभी बातो को अलग कर दे तो तिब्बत से प्राचीन ग्रंथो की जो थाती राहुल भारत ले आये थे वे ही उनको अमरता प्रदान करने के लिए पर्याप्त है | राहुल की कहानिया अन्यो की भाँती व्यक्ति की कहानिया नही, अपितु जातियों और युगों की कहानिया है | जैसे अपने दो डग से राहुल ने धरती का कोना- कोना नाप डाला, उसी प्रकार अपनी अन्तर्प्रज्ञा से उन्होंने ८००० वर्ष के अतीत का भावबोध किया और अपने मांस- चक्षु से उस कालखण्ड के बदलते युगों के नर- नारी, परिवार- समाज, गण- समूह और राजशाही सामन्तशाही, खान- पान एवं संस्कृतियों का प्रत्यक्ष दर्शन किया | आधुनिक युग में केवल वे ही ऐसे अधिकारी व्यक्ति थे जो यह साधिकार कह सकते थे कि पिछले आठ हजार वर्षो के इतिहास को मैं अपनी आँखों से स्पष्ट देख रहा हूँ | इसी विराट दृष्टि का दर्शन उनकी “ वोल्गा से गंगा “ की बीस कहानियों में देखने को मिलता है | ” वोल्गा से गंगा” की कहानियों का फलक अन्तराष्ट्रीय है | मध्य एशिया से वोल्गा नदी के तटवर्ती भू- क्षेत्र से एशिया के ऊपरी भू- भाग, पामीर के पठार, ताजकिस्तान, अफगानिस्तान- ग्नाधार ( कंधार ) कुरु, पंचाल, श्रास्व्ती, अयोध्या, नालंदा, कन्नौज, अवन्ती ( मालवा ) दिल्ली, हरिहर क्षेत्र, मेरठ, खनु पटना के विस्तृत भू- खण्ड और ६००० ई . पूर्व से लेकर १९४२ ई की भारतीय सवतंत्रता की महाक्रान्ति तक के कालखण्ड को इसमें समेटा गया है | इस संग्रह में बीस कहानिया है जो सभी अपने में स्वतंत्र है पर वे कमश: एक ऐतिहासिक विकास का चित्र प्रस्तुत करती है जिसमे आर्य जाति के विकास की कथा अंकित है |

    ”मराठी लेखक डा प्रभाकर ताकवाले इन कहानियों के सम्बन्ध में लिखते है : ”वोल्गा से गंगा “ प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक ललित- कथा संग्रह की एक अनोखी कृति है | हिन्दी साहित्य में इतना विशाल आयाम लेकर लिखी यह प्रथम कृति है - - कामायनी में प्रसाद जी लाक्षणिक अवगुठन के प्रेमी होने के कारण उतने सुलझे हुए नही लगते, जितने राहुल जी “ वोल्गा से गंगा “ में है | राहुल जी आम आदमी की ऊँगली पकड़कर ठीक “आदम और इव “ तक पाठको को ले गये है - यह अदभुत कहानी- संग्रह एक नई दुनिया एक मटिरियल इन्टरप्रटेशन आफ हिस्ट्री- हमारे सामने उपस्थित करता है | कला, इतिहास, समाजशास्त्र, भूगोल, राजनीति, विज्ञान, दर्शन और न जाने कितने ज्ञान- विज्ञानों के अंगो का दोहन इन कहानियों में हमे मिलता है ( राहुल स्मृति पृष्ठ १६७ )
Rahul_Sankrityayan_shabdankan_birthday_04    राहुल जी का एक पुराना कहानी संग्रह “ सत्तमी के बच्चे “ है इसकी कहानिया भी उपयुक्त दोनों कहानी संग्रहों के सांचे में ढली है | इसमें राहुल जी ने अपने ननिहाल पन्दहां ग्राम की बाल स्मृतियों को कथा के रूप में चित्रित किया है | सत्तमी के बच्चे संग्रह की सबसे मार्मिक कहानी “ सत्तमी के बच्चे” ही है | उस गाँव की सत्तमी अहिरिन की दयनीय आर्थिक स्थिति का चित्रण किया गया है जो अपने बच्चो को भर पेट भोजन और दवा तक का प्रबन्ध नही कर पाती है और उसके चार बच्चे अकाल ही काल कलवित हो जाते है |     ”डीहबाबा “ की कहानी में जीता भर के माध्यम से भर जाती की कर्मठता और स्वामिभक्ति के साथ उनकी दयनीय स्थिति का चित्रण किया है | ”पाठक जी “ उनके नाना का चरित्रगत संस्मरण है और पुजारी जी इसी प्रकार का उनके पिता जी का संस्मरण है | इनका भी उद्देश्य उच्च वर्ग की ब्राह्मण जाती की ठसक और मिथ्या अंह भावना के साथ उनकी भी गरीबी का चित्रण करना है | “जैसिरी” भी पन्दहां के ही एक सच्चे चरित्र है जिनमे अदभुत प्रतिभा थी | पर गरीब परिवार में जन्म लेने के कारण उनकी प्रतिभा का विकास नही हो पाया |
    ”दलसिंगार” राहुल जी के रिश्ते में पड़ने वाले नाना थे | ...उनके रोचक स्मरण इसमें है | “सतमी के बच्चे “ कहानी संग्रह में पात्रो के जीवन संघर्ष और आर्थिक संघर्ष को चित्रित किया गया है | एक प्रकार से एक छोटे ग्राम्य जीवन के पट पर बुनी गयी ये कहानिया विश्व के विशाल फलक पर चित्रित होने वाली “ वोल्गा से गंगा “ की कहानियों की एक पृष्ठभूमि है |

    इस दृष्टि से चार कहानी संग्रहों के साथ उन्होंने नौ उपन्यास - १- बाईसवी सदी १९२३, २- जीने के लिए १९४०,  ३. सिंह सेनापति १९४४,  ४. जय यौधेय १९४४
५- भागो नही, दुनिया को बदलो १९४४, ६- मधुर वन १९४४, ७- राजस्थानी रनिवास १९५३, ८- विस्मृत यात्री १९५४, ९- दिवोदास १९६०, १०- निराले हीरे की खोज १९६५।  
     इनमे “ बाईसवी सदी “ और “ भागो नही दुनिया को बदलो “ में औपन्यासिक तत्व तो है पर वस्तुत: ये साम्यवाद के परचार्थ लिखी गयी पुस्तक है जिनका साहित्यिक दृष्टि से कम राजनितिक विचार धारणा की दृष्टि से अधिक महत्व है | अपने वैचारिक परिवर्तन की दिशाओं का संकेत तो उनकी जीवन- यात्रा के पृष्ठों पर मिलता ही है, साथ ही वे अपनी दुर्बलताओ को भी बेबाक ढंग से उसमे प्रगत करते चलते है | उसमे छिपाव और दुराव का बराबर अभाव मिलता है | वे अपनी सीमाओं को भी प्रगत करते है : वे व्यवहार में विनम्र एवं मृदुभाषी अवश्य थे पर अपनी वैचारिक मान्यताओं में इतने दृढ थे की उसमे अव्यवहारिकता का दोष लगना स्वाभाविक था ( खंड ४ पृष्ठ ४४९ )
    राहुल जी के सर्जनात्मक साहित्य में कथा और यात्रा साहित्य के पश्चात उनके जीवनी साहित्य का स्थान माना जा सकता है | हिन्दी में जब जीवनी साहित्य इस प्रकार हम यह कह सकते है की राहुल दर्शन, पुरातत्व और इतिहास के क्षेत्र में भी मौलिक लेखक है जो अनुसन्धान के लिए संदर्भ सामग्री छोड़ गये है | उनके विचारों से सहमत होना न सहमत होना, दूसरी बात है पर उनके ज्ञान का उपयोग तथा उन पर आगे कार्य करना विद्वत- जगत की महती आवश्यकता है | हमे गर्व है राहुल सर्व समाज और सम्पूर्ण दुनिया के तो थे है पर उनकी जन्मभूमि हमारे पास है |


    हम आभारी है जायसी के हस्ताक्षर डा. कन्हैया सिंह जी का जिन्होंने राहुल जी पे लिखने के लिए मुझे सामग्री उपलब्ध कराई |

मुक्तिका, अम्मी

मुक्तिका
अम्मी
*
माहताब की जुन्हाई में
झलक तुम्हारी पाई अम्मी
दरवाजे, कमरे आँगन में
हरदम पडी दिखाई अम्मी
कौन बताये कहाँ गयीं तुम
अब्बा की सूनी आँखों में
जब भी झाँका पडी दिखाई
तेरी ही परछाईं अम्मी
भावज जी भर गले लगाती
पर तेरी कुछ बात और थी
तुझसे घर अपना लगता था
अब बाकी पहुनाई अम्मी
बसा सासरे केवल तन है
मन तो तेरे साथ रह गया
इत्मीनान हमेशा रखना-
बिटिया नहीं परायी अम्मी
अब्बा में तुझको देखा है
तू ही बेटी-बेटों में है
सच कहती हूँ, तू ही दिखती
भाई और भौजाई अम्मी.
तू दीवाली, तू ही ईदी
तू रमजान फाग होली है
मेरी तो हर श्वास-आस में
तू ही मिली समाई अम्मी
*

सामयिक दोहे

सामायिक दोहे
*
बेचो घोड़े-गधे भी, सोओ होकर मस्त।
खर्राटे ऊँचे भरो, करो सभी को त्रस्त।।
*
दूर रहो उससे सदा, जो धोता हो हाथ।
झट पीछे पड़ गया तो, पीटोगे निज माथ।।
*
टाँग अड़ाना है 'सलिल', जन्म सिद्ध अधिकार।
समझ सको कुछ या नहीं, दो सलाह हर बार।।
*
देवी दर्शन कीजिए, भंडारे के रोज।
देवी खुश हो जब मिले, बिना पकाए भोज।।
*
हर ऊँची दूकान के, फीके हैं पकवान।
भाषण सुनकर हो गया, बच्चों को भी ज्ञान।।
*
नोट वोट नोटा मिलें, जब हों आम चुनाव।
फिर वोटर भूखा मरे, कहीं न मिलता भाव।।
*
देवी खड़ीं चुनाव में, नित रखती नौ रूप।
कहें भिखारी से हुई, मैं भिक्षुक तुम भूप।।
*
कौन किसी का सगा है, कहो पराया कौन?
प्रश्न किया जब भी मिला, उत्तर केवल मौन।।
*
ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन बना बसंत।
दूर गईं पतझड़ हुआ, मन बैरागी संत।।
*
तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद।
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गूँजे छंद।।
*
तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक मन थे दूर।
तू-मैं मिल ज्यों हम हुए, साँस हुई संतूर।।
*
दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ।
हँसें अधर मिल-लज नयन, कहें सार्थक साथ।।
*
नयन मिला छवि कैद कर, मूँदे नयन कपाट।
हुए चार दो रह गए, नयना खुद को हार।।
***

शिव स्तवन

शिव स्तवन

*

(तांडव छंद, प्रति चरण बारह मात्रा, आदि-अंत लघु)

।। जय-जय-जय शिव शंकर । भव हरिए अभ्यंकर ।।
।। जगत्पिता श्वासा सम । जगननी आशा मम ।।
।। विघ्नेश्वर हरें कष्ट । कार्तिकेय करें पुष्ट ।।
।। अनथक अनहद निनाद । सुना प्रभो करो शाद।।
।। नंदी भव-बाधा हर। करो अभय डमरूधर।।
।। पल में हर तीन शूल। क्षमा करें देव भूल।।
।। अरि नाशें प्रलयंकर। दूर करें शंका हर।।
।। लख ताण्डव दशकंधर। विनत वदन चकितातुर।।
।। डम-डम-डम डमरूधर। डिम-डिम-डिम सुर नत शिर।।
।। लहर-लहर, घहर-घहर। रेवा बह हरें तिमिर।।
।। नीलकण्ठ सिहर प्रखर। सीकर कण रहे बिखर।।
।। शूल हुए फूल सँवर। नर्तित-हर्षित मणिधर ।।
।। दिग्दिगंत-शशि-दिनकर। यश गायें मुनि-कविवर।।
।। कार्तिक-गणपति सत्वर। मुदित झूम भू-अंबर।।
।। भू लुंठित त्रिपुर असुर। शरण हुआ भू से तर।।
।। ज्यों की त्यों धर चादर। गाऊँ ढाई आखर।।
।। नव ग्रह, दस दिशानाथ। शरणागत जोड़ हाथ।।
।। सफल साधना भवेश। करो- 'सलिल' नत हमेश।।
।। संजीवित मन्वन्तर। वसुधा हो ज्यों सुरपुर।।
।। सके नहीं माया ठग। ममता मन बसे उमग।।
।। लख वसुंधरा सुषमा। चुप गिरिजा मुग्ध उमा।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। बलिपंथी हो नरेंद्र। सत्पंथी हो सुरेंद्र।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। सदय रहें महाकाल। उम्मत हों देश-भाल।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।


                         ***

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

देवी स्तवन

देवी स्तवन
तव च का किल न स्तुतिरंबिके सकल शब्दमयी किल ते तनु:।
निखिलमूर्तिषु मे भवदन्वयोमनसिजासु बहि: प्रसरासु च।।
इति विचिंत्य शिवे! शमिताशिवे! जगति जातमयत्नवशादिदिम्।
स्तुतिजपार्चनचिंतनवर्जिता न खलु काचन कालकलास्ति मे।।
*
भावानुवाद
किस ध्वनिस्तवन में न माँ,  सकल शब्दमय देह।
मन-अंदर-बाहर तुम्हीं, निखिल मूर्ति भव गेह।।

सोच-असोचे भी रहे, शिवे तुम्हारा ध्यान।
स्तुति-जप पूजार्चन रहित, पल न एक भी मान।।
*
कौन वांग्मय जो नहीं, करे तुम्हारा गान।
सकल शब्दमय मातु तुम,  तुम्हीं तान सुर गान।।

हर संकल्प-विकल्प में, मातु मिले दीदार।
हो भीतर-बाहर तुम्हीं, तुम ही बिंदु प्रसार।।

बिन प्रयास चिंतन बिना, शिवे! तुम्हारा ध्यान।
करे अमंगल ध्वंस हर, हो कल्याण सुजान।।

बिन प्रयास पल-पल रहे, मातु! तुम्हारा ध्यान।
पूजन चिंतन-मनन जप, स्तवन सतत तव गान।।
***
संवस
शक संवत् २०७६
५-४-२०१९

जागो माँ

विशेष रचना
जागो माँ
*
जागो माँ! जागो माँ!!
*
सीमा पर अरिदल ने भारत को घेरा है
सत्ता पर स्वार्थों ने जमा लिया डेरा है
जनमत की अनदेखी, चिंतन पर पहरा है
भक्तों ने गाली का पढ़ लिया ककहरा है
सैनिक का खून अब न बहे मौन त्यागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
जनगण है दीन-हीन, रोटी के लाले हैं
चिड़ियों की रखवाली, बाज मिल सम्हाले हैं
नेता के वसन श्वेत, अंतर्मन काले हैं
सेठों के स्वार्थ भ्रष्ट तंत्र के हवाले हैं
रिश्वत-मँहगाई पर ब्रम्ह अस्त्र दागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
जन जैसे प्रतिनिधि को औसत ही वेतन हो
मेहनत का मोल मिले, खुश मजूर का मन हो
नेता-अफसर सुत के हाथों में भी गन हो
मेहनत कर सेठ पले, जन नायक सज्जन हो
राजनीति नैतिकता एक साथ पागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
संवस
नवसंवत्सर, ५.४.२०१९

दोहा कृष्ण मृग हत्या

त्वरित प्रतिक्रिया
कृष्ण-मृग हत्याकांड 
*
मुग्ध हुई वे हिरन पर, किया न मति ने काम। 
हरण हुआ बंदी रहीं, कहा विधाता वाम ।।
*
मुग्ध हुए ये हिरन पर, मिले गोश्त का स्वाद।
सजा हुई बंदी बने, क्यों करते फ़रियाद?
*
देर हुई है अत्यधिक, नहीं हुआ अंधेर।
सल्लू भैया सुधरिए, अब न कीजिए देर।।
*
हिरणों की हत्या करी, चला न कोई दाँव।
सजा मिली तो टिक नहीं, रहे जमीं पर पाँव।।
*
नर-हत्या से बचे पर, मृग-हत्या का दोष।
नहीं छिप सका भर गया, पापों का घट-कोष।।
*
आहों का होता असर, आज हुआ फिर सिद्ध।
औरों की परवा करें, नर हो बनें न गिद्ध।।
*
हीरो-हीरोइन नहीं, ख़ास नागरिक आम।
सजा सख्त हो तो मिले, सबक भोग अंजाम ।।
*
अब तक बचते रहे पर, न्याय हुआ इस बार।
जो छूटे उन पर करे, ऊँची कोर्ट विचार।।
*
फिर अपील हो सभी को, सख्त मिल सके दंड।
लाभ न दें संदेह का, तब सुधरेंगे बंड।।
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न्यायपालिका से विनय करें न इतनी देर।
आम आदमी को लगे, होता है अंधेर।।
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सरकारें जागें न दें, सुविधा कोई विशेष।
जेल जेल जैसी रहे, तनहा समय अशेष।।

५.४.२०१८
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दोहा अनुप्रास उर्दू

अनुप्रासिक दोहे
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दया-दफीना दे दिया, दस्तफ्शां को दान
दरा-दमामा दाद दे, दल्कपोश हैरान
(दरा = घंटा-घड़ियाल, दफीना = खज़ाना, दस्तफ्शां = विरक्त, दमामा = नक्कारा, दल्कपोश = भिखारी)
*
दर पर था दरवेश पर, दरपै था दज्जाल
दरहम-बरहम दामनी, दूर देश था दाल
(दर= द्वार, दरवेश = फकीर, दरपै = घात में, दज्जाल = मायावी भावार्थ रावण, दरहम-बरहम = अस्त-व्यस्त, दामनी = आँचल भावार्थ सीता, दाल = पथ प्रदर्शक भावार्थ राम )
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दिलावरी दिल हारकर, जीत लिया दिलदार
दिलफरेब-दीप्तान्गिनी, दिलाराम करतार
(दिलावरी = वीरता, दिलफरेब = नायिका, दिलदार / दिलाराम = प्रेमपात्र)
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५.४.२०१७