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शनिवार, 9 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी १४ ब्रह्मजीत गौतम

साहित्य त्रिवेणी १४ 
छंद-बह्‌र क्या एक हैं?
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम 
*
परिचय: जन्म: २८.१०.१९४०, ग्राम गढ़ी नन्दू, जिला मथुरा (अब हाथरस), कबीर काव्य में प्रतीक विधान पर शोध, से. नि. प्राध्यापक हिंदी, प्रकाशन: कबीर काव्य में प्रतीक विधान शोधग्रंथ, कबीर प्रतीक कोष, अंजुरी काव्य संग्रह, जनक छंद: एक शोधपरक विवेचन, वक्त के मंज़र (गजल संग्रह), जनक छंद की साधना, दोहा-मुक्तक माल (मुक्तक संग्रह), दृष्टिकोण समीक्षा संग्रह। उपलब्धि: तलस्पर्शी लेखन हेतु प्रतिष्ठित, संपर्क: डॉ. ब्रह्मजीत गौतम, युक्का २०६, पैरामाउण्ट सिंफनी, क्रॉसिंग रिपब्लिक, ग़ाज़ियाबाद २०१०१६, चलभाष: ९७६०००७८३८, ९४२५१०२१५४, ईमेल: bjgautam2007@gmail.com 
संस्कृत की 'छद्' धातु में 'असुन्' प्रत्यय लगाने से ‘छंद’ शब्द की सिद्धि होती है, जिसका अर्थ है: प्रसन्न, आच्छादन या बंधन करने वाली वस्तु। वस्तुतः कविता में हमारे भाव और विचार वर्ण, मात्रा, यति, गति, चरण, गण आदि की एक निश्चित व्यवस्था में बँधे रहते हैं, अतः ऐसे संघटन को 'छंद' का नाम दिया गया है। हिंदी कविता प्रारंभ से ही छंदोबद्ध रही है, जबकि उर्दू शाइरी बह्र-बद्ध है। सहज ही प्रश्न उठता है कि 'छंद' और 'बह्र' दोनों शब्द समानार्थी हैं या इनमें कुछ अंतर है? निस्संदेह दोनों का कोशगत अर्थ एक ही है, दोनों का मूल आधार भी लय है, किंतु हिंदी तथा उर्दू-अरबी-फारसी आदि भाषाओं की प्रकृति, व्याकरणगत संरचना तथा वर्णों और मात्राओं की गणना-पद्धति में यत्किंचित् भेद होने से 'छंद' और 'बह्र' में भी भेद होना स्वाभाविक है| वस्तुत: इस गूढ़ता को समझना ही इस लेख का मुख्य उद्देश्य है। छंद दो प्रकार के हैं: मात्रिक तथा वर्णिक। मात्रिक छंदों की रचना मात्राओं की गणना पर तथा वर्णिक छंदों की रचना वर्णों की गणना पर आधारित होती है। मात्रिक छंदों में प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है, वर्ण कम या अधिक हो सकते हैं किंतु वर्णिक छंदों में न केवल वर्णों की संख्या निश्चित रहती है, अपितु उनका लघ-गुरु क्रम भी तय रहता है। इसके विपरीत, बह्रों की रचना केवल वर्णों के लघु-गुरु क्रम से बने हुए रुक्नों (गणों) पर आधारित होती है। इस प्रकार बह्रें वर्णिक छंदों के अधिक निकट होती हैं जो बह्रें मात्रिक छंदों से मेल खाती हैं, उन्हें भी रुक्नों की सहायता से वर्णिक रूप दे दिया गया है। 
गण: 
छंदों में प्रयुक्त तीन वर्णों के लघु-गुरु क्रम-युक्त समूह को ‘गण’ कहते हैं, जो संख्या में आठ हैं। ‘यमाताराजभानसलगा’ सूत्र के अनुसार इनके नाम और लक्षण निम्नानुसार है: १. यगण आदि लघु ISS भवानी, २. मगण तीनों गुरु SSS मेधावी, ३. तगण अंत्य लघु SSI नीरोग, ४. रगण मध्य लघु SIS भारती, ५. जगण मध्य गुरु ISI गणेश, ६. भगण आदि गुरु SII राघव, ७. नगण तीनों लघु III कमल
८. सगण अंत्य गुरु IIS कमला। 
रुक्न या अरकान: 
बह्रों में प्रयुक्त वर्णों के लघु-गुरु क्रम को ‘रुक्न’(बहुवचन अरकान) कहते हैं। मुख्य अरकान कुल सात हैं, किंतु इनमें जिहाफ़ (काट-छाँट) देकर दो मात्राओं से लेकर सात मात्राओं तक के अन्य अनेक रुक्न बनाये गए हैं। इन सब रुक्नों की संख्या लगभग पचास है। मुख्य सात रुक्नों के नाम और उनके वर्णिक लघु-गुरु क्रम की जानकारी निम्नानुसार ल और गा के रूप में दर्शायी गयी है: १. फ़ऊलुन लगागा ISS नगीना, २. फ़ाइलुन गालगा SIS आदमी, ३. मुस्तफ़्इलुन गागालगा SSIS जादूगरी, ४. मफ़ाईलुन लगागागा ISSS अदाकारी, ५. फ़ाइलातुन गालगागा SISS साफ़गोई, ६. मुतफ़ाइलुन ललगालगा IISIS अभिसारिका, ७. मफ़्ऊलात गागागाल SSSI वीणापाणि। 
अब हम उन मूल बिंदुओं पर प्रकाश डालेंगे, जिनके कारण छंद और बह्र में अंतर जैसा प्रतीत होता है। निकटस्थ दो लघु = एक गुरु।  हिन्दी व्याकरण के अनुसार अ, इ, उ तथा ऋ, ये चार लघु स्वर हैं जिनमें एक-एक मात्रा होती है।  ये जिस व्यंजन पर लगते हैं, वह भी लघु अर्थात् एक मात्रावाला माना जाता है इसी प्रकार आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, तथा औ दीर्घ स्वर हैं, जिनमें दो मात्राएँ होती हैं। ये जिस व्यंजन पर लगते हैं, वह भी गुरु अर्थात् दो मात्राओंवाला होता है।  अनुस्वार तथा विसर्गयुक्त अक्षर भी गुरु कहे जाते हैं। छंदों में हर अक्षर की स्वतंत्र सत्ता होती है, किंतु बह्र में अनिवार्य लघु को छोड़कर दो निकटस्थ लघु वर्णों को एक गुरु के बराबर मान लिया जाता है। जैसे, ‘गगन’ शब्द हिंदी के वर्णिक छंद में III अर्थात् नगण के अंतर्गत आता है, जबकि बह्र में उसे IS अर्थात् 'फ़अल' रुक्न कहा जाता है| एक शे’र के माध्यम से इसे और अच्छी तरह समझ सकते हैं –महल का / सफ़र छो / ड़ कर आ / ज कल ( I S S / I S S / I S S / I S ) = १८ मात्राएँ ग़ज़ल कह / रही है / कुटी की / कथा ( I S S / I S S / I S S / I S ) = १८ मात्राएँ,  -स्वरचित
इस शे’र के अरकान 'फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल' हैं तथा लय पूरी तरह हिंदी के वर्णिक छंद ‘भुजंगी’ (तीन यगण + लघु गुरु) एवं मात्रिक छंद ‘शक्ति’ से मिलती है, जिसमें प्रति चरण पहली, छठी, ग्यारहवीं तथा सोलहवीं मात्रा को अनिवार्यत: लघु रखते हुए कुल अठारह मात्राएँ होती हैं। छंद में जो यगण (ISS) है, वही बह्र में 'फ़ऊलुन' है। उक्त शे’र के शब्दों में हल, फ़र, कर, कल तथा ज़ल को एक गुरु-तुल्य मानकर 'फ़ऊलुन' रुक्न की सिद्धि की गयी है। 
मात्रा-पातन: 
हिंदी में मात्रिक और वर्णिक दोनों प्रकारके छंद पाये जाते हैं।हिंदी भाषा में यह बंधन या विशेषता है कि उसमें जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है और उसीके अनुसार शब्द या अक्षर की मात्रा निश्चित होती है| उर्दू की तरह हिंदी  में किसी भी अक्षर की मात्रा गिराने या बढाने की छूट नहीं है। यदि ऐसा किया जाता है, तो वह छंद अशुद्ध माना जाता है| उदाहरण के लिए, किसी छंद में यदि ‘कोई’ शब्द का प्रयोग होता है तो उसमें SS के क्रम से चार मात्राएँ होंगीं जबकि बह्‌र में उसकी माँग के अनुसार इसी शब्द का उच्चारण कोइ (SI), कुई (IS) या कुइ (II) भी हो सकता है और तदनुसार ही उसका मात्रा-भार निश्चित होगा। निष्कर्ष यह है कि छंदों में अक्षर के लिखित रूप के अनुसार तथा बह्‌र में उसके उच्चरित रूप के अनुसार मात्राएँ तय होती हैं। जैसे:
कोई तो बा / त है जो सुब् / ह से ही (I S S S / I S S S / I S S)
नयन उनके / अँगारे हो / रहे हैं (I S S S / I S S S / I S S)      -स्वरचित
यह शे’र 'मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन फ़ऊलुन' की बह्र में है, जो हिन्दी के मात्रिक छंद ‘सुमेरु’ से पूर्णत: मिलती है| सुमेरु में प्रति चरण १२-७ या १०-९ के क्रम से १९ मात्राएँ होती हैं जिसमें पहली, आठवीं और पंद्रहवीं मात्रा लघु होनी चाहिए| उक्त शे’र के प्रथम मिसरे को बह्र में लाने के लिए ‘कोई’ शब्द में ‘को’ (S) की दीर्घ मात्रा गिराकर उसे हृस्व (I) उच्चरित किया गया है। 
अर्धाक्षर: छंदों में संयुक्त व्यंजन में प्रयुक्त आधे अक्षर की कोई मात्रा नहीं गिनी जाती। उसकी भूमिका केवल इतनी है कि यदि उसके पूर्व का वर्ण लघु है और उसके उच्चारण में बल पड़ रहा है तो लघु होने पर भी उसे गुरु माना जाता है। जैसे सत्य, दग्ध, वज्र आदि में स, द और व गुरु माने जायेंगे और इनमें दो मात्राएँ गिनी जायेंगी। अपवाद स्वरूप कुम्हार, मल्हार, तुम्हारा जैसे शब्दों के कु, म और तु में एक ही मात्रा रहेगी, क्योंकि इनके उच्चारण में बल नहीं पड़ता| इसके विपरीत, बह्र में आधे अक्षर को भी आवश्यकतानुसार पूर्णवत मानकर उसकी एक मात्रा गिन ली जाती है| जैसे रास्ता, आस्था, ख़ात्मा, आत्मा, धार्मिक, आर्थिक जैसे शब्द छंद में प्रयुक्त होने पर SS के वज़्न मे आयेंगे किंतु बह्‌र में SIS के वज़्न में भी हो सकते हैं।  जैसे:
छंद: अर्थ दोस्ती का किसीको हम बतायें किस तरह ( S I S S S I S S S I S S S I S )
बह्‌र: दोस्ती का अर्थ हम उसको बतायें किस तरह ( S I S S S I S S S I S S S I S )  -स्वरचित
‘गीतिका’ छंद की इस पहली पंक्ति में (जिसकी बह्‌र ‘फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन’ है), ‘दोस्ती’ शब्द को S S के वज़्न में बाँधा गया है, जबकि बह्र वाली पंक्ति में S I S के वज़्न में। फाइलुन का रुक्न पूरा करने के लिए ‘दोस्ती’ का उच्चारण ‘दोसती’ जैसा किया गया है। यह पद्धति बह्र में तो ठीक है, किन्तु छंद में नहीं।  इसी प्रकार आचार्य भगवत दुबे के एक दोहे की यह पंक्ति देखिये – 'ईश्वर के प्रति आस्था, बढ़ जाती है और'।  इसमें ‘आस्था’ शब्द को बह्‌र की तर्ज़ पर फाइलुन अर्थात् S I S के वज़्न में बाँधा गया है।  मूलत: इस चरण में १३ के स्थान पर १२ मात्राएँ ही रह गयी हैं, जिससे दोहा अशुद्ध होगया है| डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’ की दोहा-पंक्ति ‘अमराई की आत्मा, झेल रही संताप’ में ‘आत्मा’ की भी यही स्थिति है। 
स्वर संधि या अलिफ़ वस्ल: जब किसी स्वर का अपने सामने के किसी अन्य स्वर से मेल होता है, तब उसे स्वर-संधि कहते हैं।  उर्दू में इसे अलिफ़-वस्ल कहा जाता है। हिन्दी व्याकरण में ऐसे शब्दों के मिलन की एक निश्चित वैधानिक प्रक्रिया है।  जैसे: राम+अवतार = रामावतार, सर्व+ईश्वर = सर्वेश्वर, पर+उपकार = परोपकार। अरबी, फारसी, उर्दू में ये शब्द लिखित रूप में तो ‘राम अवतार’, ‘सर्व ईश्वर’, ‘पर उपकार’ ही रहेंगे, किंतु उच्चारण में क्रमश: रामवतार, सर्वीश्वर और परुपकार हो जायेंगे| उदाहरण के लिए एक मिसरा देखिये: 
हम उठ गए तो तेरी अंजुमन का क्या होगा – आलोक श्रीवास्तव
यह मिसरा ‘मफ़ाइलुन फ़इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन’ (I S I S I I S S I S I S S S) की बह्‌र में है, जिसमें ‘हम उठ गये’ का उच्चारण ‘हमुठ गये’ जैसा करके 'मफ़ाइलुन' रुक्न में बाँधा गया है।  इसी प्रकार मिर्ज़ा ग़ालिब का मशहूर मिसरा ‘आख़िर इस दर्द की दवा क्या है’ बह्र में लाने के लिए ‘आख़िरिस दर्द की दवा क्या है’ पढ़ा जाता है। उल्लेख्य है कि छंद में न तो इस प्रकार की संधियाँ मान्य हैं और न उच्चारण। 
उचित मात्रा-विधान: जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मात्रिक छंदों के प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है।  निर्दोष लय लाने के लिए उन मात्राओं में लघु-गुरु का उचित क्रम रखना भी आवश्यक होता है, जैसे त्रिकल के बाद त्रिकल या द्विकल के बाद द्विकल। कई बार हिंदी के छंदकार मात्राओं की संख्या तो पूरी कर देते हैं, किन्तु यह क्रम सही नहीं रख पाते| उदाहरणार्थ, तीन मात्राओं के लिए लघु-गुरु या गुरु-लघु का कोई भी क्रम उन्हें मान्य होता है। छंदशास्त्र में भी ऐसे प्रयोगों पर कोई प्रतिबंध नहीं है किंतु बह्र में इस प्रकार की छूट लेना वर्जित है| इससे बह्र ख़ारिज़ हो जाती है। देखिये:
ज़मीं तपती हुई थी और अपने पाँव नंगे थे / हुई है जेठ के दोपहर से तक़रार पहले भी
श्री ज्ञानप्रकाश विवेक की ये पंक्तियाँ मफ़ाईलुन x ४ की बह्‌र में हैं, जो हिंदी के विधाता छंद पर आधारित है।  विधाता के प्रत्येक चरण में कुल २८ मात्राएँ होती हैं, जिसमें पहली, आठवीं, पंद्रहवीं तथा बाईसवीं मात्रा का लघु होना आवश्यक है।  इस विधान के अनुसार उक्त शे’र छंद की दृष्टि से तो शुद्ध है, किन्तु बह्र की दृष्टि से ख़ारिज़ है क्योंकि रचनाकार ने ‘दोपहर’ शब्द को S I S के बजाय S S I में बाँध लिया है। इस कारण सानी मिसरे में' मफाईलुन' का दूसरा रुक्न पूरा नहीं हो सका है। 
अब हम उन बह्रों पर दृष्टिपात करेंगे जो हिंदी वर्णिक छंदों पर आधारित हैं।  अपने ग़ज़ल-संग्रह ‘एक बह्‌र पर एक ग़ज़ल’ की रचना के समय मैंने पाया कि ग़ज़ल कि लगभग साठ बह्रें ऐसी हैं जिनकी लय हू-ब-हू छंदों से मिलती है अगर खोज की जाए तो यह संख्या बहुत अधिक भी हो सकती है। यहाँ सब का उल्लेख तो सम्भव नहीं, किंतु कुछ मुख्य बह्रें सोदाहरण प्रस्तुत हैं:
१. बह्र: फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल ( I S S I S S I S S I S ) मेरे खूँ में चीते हैं लेटे हुए / किसी तर’ह इनका सुकूँ भंग हो  -सादिक़
आधार : मात्रिक छंद ‘शक्ति’ ( मात्राएँ प्रति चरण, १, ६, ११, १६वीं लघु) 
२. बह्र: फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन ( I S S I S S I S S I S S ) गुलाबों की दुनिया बसाने की ख्वाहिश / लिये दिल में जंगल से हर बार निकले -शेरजंग गर्ग, आधार : वर्णवृत्त ‘भुजंगप्रयात’, (चार यगण (I S S) प्रति चरण, २० मात्राएँ)
३. बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन ( S I S S I S S I S S I S ) यक्ष प्रश्नों के उत्तर दिए बिन हमें / सुख के तालाब से कुछ कमल चाहिए-चंद्रसेन विराट, आधार : वर्णवृत्त ‘स्रग्विणी’, (चार रगण प्रति चरण, मात्रिक छंद अरुण – २० मात्राएँ)
४. बह्र: मुस्तफ़्इलुन मुस्तफ़्इलुन ( S S I S S S I S ) अब किसलिए पछता रहा / जैसा किया, वैसा भरा -दरवेश भारती, आधार : मात्रिक छंद ‘मधुमालती’ (प्रति चरण, ७-७ के क्रम से १४ मात्राएँ, अंत S I S)
५. बह्र: फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन ( S I S S S I S S S I S ) साँस जाती है मगर आती नहीं / कुछ बताने से हवा लाचार है -रामदरश मिश्र, आधार : मात्रिक छंद ‘पीयूषवर्ष’, ‘आनंदवर्धक’  (१९ मात्राएँ, ३, १०, १७वीं लघु)
६.बह्र: फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन ( S I S S I S I S S S ) मन में सपने अगर नहीं होते / हम कभी चाँद पर नहीं होते -उदयभानु हंस, आधार : मात्रिक छंद ‘चंद्र’ (१७ मात्राएँ प्रति चरण)
७. बह्र: फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन ( S I S S I I S S S S ) हक़ बयानी की सज़ा देता है / मेरा क़द और बढ़ा देता है -हस्तीमल ‘हस्ती’, आधार : मात्रिक छंद ‘चंद्र’ (१७ मात्राएँ प्रति चरण)
८. बह्र: फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन ( S I S S S I S S S I S S ) सामना सूरज का वो कैसे करेंगे / डर गये जो जुगनुओं की रौशनी से -राजेश आनंद ‘असीर’, आधार : मात्रिक छंद ‘कोमल’ (२१ मात्राएँ प्रति चरण, यति १०,११ )
९. बह्र – फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ा ( S I S S S I S S S I S S S )  घेरकर आकाश उनको पर दिए होंगे / राहतों पर दस्तखत यों कर दिए होंगे -- रामकुमार कृषक, आधार : वर्णवृत्त राधा – (रगण, तगण, मगण, यगण + एक गुरु, कुल २३ मात्राएँ
१०. बह्र: फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन ( S I S S S I S S S I S S S I S ) एक दरिया कल मिला था राजधानी में हमें / आदमी के खून से अपना बदन धोता हुआ -अश्वघोष, आधार : मात्रिक छंद ‘गीतिका’ (२६ मात्राएँ प्रति चरण| ३, १०, १७, २४वीं मात्रा लघु)
११. बह्र: फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन ( S I S S I I S S I I S S S S ) अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई / मेरा घर छोड़ के कुल शह्‌र में बरसात हुई -नीरज, आधार : मात्रिक छंद ‘मोहन’, (२३ मात्राएँ प्रति चरण, यति ५, ६, ६, ६)। 
१२. बह्र: फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन (I S I S S I S I S S) दिया ख़ुदा ने भी खूब हमको / लुटाई हमने भी पाई-पाई -नरेश शांडिल्य, आधार : वर्णवृत्त ‘यशोदा’ (जगण + दो गुरु वर्ण, एक मिसरे में दो बार, १६ मात्राएँ)
१३. बह्र: मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन फ़ऊलुन (I S S S I S S S I S S) करीब आये तो हमने ये भी जाना / मुहब्बत फ़ासला भी चाहती है - कुँवर बेचैन, आधार : मात्रिक छंद ‘सुमेरु’, प्रति चरण १९ मात्राएँ| १, ८, १५ वीं अनिवार्यत: लघु। 
१४. बह्र: मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन (I S S S / I S S S / I S S S) ख़ुदा से भी मैं बाज़ी जीत जाता पर / ख़ुदाई को न शर्मिंदा किया मैंने - ओमप्रकाश चतुर्वेदी, ‘पराग’ आधार : मात्रिक छंद ‘सिंधु’ (प्रति चरण २१ मात्राएँ| १, ८, १५वीं अनिवार्यत: लघु
१५. बह्र: मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन (I I S I S x ४ ) मैं जहाँ हूँ सिर्फ़ वहीँ नहीं, मैं जहाँ नहीं हूँ वहाँ भी हूँ/ मुझे यूँ न मुझमें तलाश कर, कि मेरा पता कोई और है – राजेश रेड्डी, आधार : वर्णवृत्त ‘गीता’ (सगण, जगण, जगण, भगण, रगण, सगण + एक गुरु)
१६. बह्र: मफ़्ऊल मफ़ाईलुन मफ़्ऊल मफ़ाईलुन ( S S I I S S S S S I I S S S ) हर एक सिकंदर का अंजाम यही देखा / मिट्टी में मिली मिट्टी, पानी में मिला पानी -सूर्यभानु गुप्त, आधार – वर्णवृत्त ‘भक्ति’ (तगण, यगण + एक गुरु, एक मिसरे में दो बार, २४ मात्राएँ)
१७. बह्र: मफ़्ऊल मफ़ाईल मफ़ाईल फ़ऊलुन ( S S I I S S I I S S I I S S ) शादी न करें, साथ में रहने के मज़े लें / इस दौर में औलाद हरामी नहीं होती -राम मेश्राम, आधार : मात्रिक छंद ‘बिहारी’ (प्रति चरण २२ मात्राएँ, यति १३ – ९)
१८.बह्र: मफ़्ऊल फ़ाइलातुन मफ़्ऊल फ़ाइलातुन (S S I S I S S S S I S I S S) आ जा कि दिल की नगरी, सूनी-सी हो चली है / टाला बहुत है तूने वादों पे आज-कल के -उपेंद्र कुमार, आधार : मात्रिक छंद ‘दिगपाल’ (प्रति चरण २४ मात्राएँ, यति १२, १२)
१९. बह्र: फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन ( S S S S S S S S) उसके घर जो दुनिया भर है / उस दुनिया में कितना घर है - विज्ञान व्रत, आधार : मात्रिक छंद ‘पादाकुलक’ (चार चतुष्कल के क्रम से १६ मात्राएँ प्रति चरण)
२०. बह्र: साढ़े सात बार फ़ेलुन (S S S S S S S S S S S S S S S ) हम पर दुख का परबत टूटा, तब हमने दो-चार कहे / उस पे भला क्या बीती होगी जिसने शे’र हजार कहे -बालस्वरूप राही, आधार : ‘लावनी’, ‘ताटंक’ ( १६-१४ के क्रम से ३० मात्राएँ प्रति चरण)
स्पष्ट है कि छंद और बह्‌र 'लय' की दृष्टि से एक ही हैं जो अंतर है वह मात्रा-पातन, अर्धाक्षर को पूर्णाक्षर मानने, अथवा अलिफ़-वस्ल आदि के कारण है। उक्त उद्धरणों में कई शे’र पूर्णत: छंद में हैं, क्योंकि उनमें मात्रा-पातन या अलिफ़-वस्ल आदि नहीं हुआ है, जैसे दरवेश भारती, रामदरश मिश्र, रामकुमार कृषक, अश्वघोष, विज्ञान व्रत आदि के शे’र। आजकल हिंदी कवियों में ग़ज़ल कहने का शौक ख़ूब बढ़ा हुआ है, जिसकी रचना में मात्रा गिराना-बढ़ाना या अलिफ़-वस्ल करना आम बात है इसका प्रभाव उनके गीतों, कविताओं और छंदों में भी दिखाई देने लगा है। वे गीतों और दोहा जैसे छंदों में भी मात्रा गिराकर या आधे अक्षर को पपूर्णवत मानकर लय बनाने लगे हैं, जिससे छंद दूषित हो रहे हैं। कहते हैं कि पानी सदैव नींचाई की ओर बहता है।  मनुष्य का स्वभाव भी ऐसा ही है, तभी तो आज के कवि इन सुविधाओं का लाभ लेने में कोई संकोच नहीं करते किंतु छंदाधारित रचनाओं में इस प्रवृत्ति से जितना बचा जाय, उतना ही श्रेयस्कर है। 
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शुक्रवार, 8 जून 2018

दोहे पानीदार

दोहा सलिला

दोहा
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सोनपरी भू पर उतर, नाच रही; हो धूप।
उषा राजरानी मुदित, रवि नृप हेरे रूप।।
*
सूर्य रश्मि शर छोड़ता, तम भागा ले प्राण।
कीर्ति-कथा कहते विहग, सुन हो जग संप्राण।।
*
कोयल शहनाई बजा, गौरैया कर नृत्य।
मिट्ठू जीजा से कहें, मन भाया शुभ कृत्य।।
*
कौआ पंडित पढ़ रहा, काँव-काँव कर मंत्र।
टर्र-टर्र मेंढक करे, बजा बैंड के यंत्र।।
*
जुही-चमेली सरहजें, नमक चाय में घोल।
इठलातीं; जीजा विवश, पिएँ मौन बिन बोल।।
*
आ देवर जासौन ने, खूब जमाया रंग।
गारी गाती भौजियाँ, हुए बराती तंग।।
*
बेला-वेणी पा हुई, चंपा साली मौन।
प्रणयपत्रिका दे गया, आँख बचाकर कौन।।
*
लाल गुलाबी कली के, हुए गुलाबी गाल।
छेड़े भँवरा बावरा, चंपा करे धमाल।
*
झरबेरी मौसी हँसी, सुना गीत ज्यौनार।
पीपल चाचा झूमते, मन ही मन मन हार।।
*
दोहा मन को मोहता, चौपाई चितचोर।
छप्पय छूता हृदय को, बाँध सवैया डोर।।
*
षटपदी
चैन हर रहा त्रिभंगी, उल्लाला दिल लूट।
कुंडलिया का कर लिए, रोला करता हूट।।
रोला करता हूट, शूट कर रहा माहिया।
गिद्धा-टप्पा नचें, विकल सोरठा को किया।।
आल्हा पर स्रग्विणी, रीझकर रही न चंगी।
गया हाथ से हृदय, चैन हर रहा त्रिभंगी।।
*
8.6.2018, 7999559618

गुरुवार, 7 जून 2018

श्री श्री चिंतन

श्री श्री चिंतन: दोहा गुंजन 
जो पाया वह खो दिया, मिला न उसकी आस। जो न मिला वह भूलकर, देख उसे जो पास*हर शंका का हो रहा, समाधान तत्काल।  जिस पर गुरु की हो कृपा, फल पाए हर हालधन-समृद्धि से ही नहीं, मिल पाता संतोष। काम आ सकें अन्य के, घटे न सेवा कोष*गुरु जी से जो भी मिला, उसका कहीं न अंत गुरु में ही मिल जायेंगे, तुझको आप अनंत*जीवन यात्रा शुरू की, आकर खाली हाथ जोड़-तोड़ तज चला चल, गुरु-पग पर रख माथ*लेखन में संतुलन हो, सत्य-कल्पना-मेल लिखो सकारात्मक सदा, शब्दों से मत खेल*गुरु से पाकर प्रेरणा, कर खुद पर विश्वास। अपने अनुभव से बढ़ो, पूरी होगी आस.*गुरु चरणों का ध्यान कर, हो जा भव से पार गुरु ही जग में सार है, बाकी जगत असार*मन से मन का मिलन ही, संबंधों की नींव।  मन न मिले तो, गुरु-कृपा, दे दें करुणासींव*वाणी में अपनत्व है, शब्दों में है सत्य दृष्टि अमिय बरसा रही, बन जा गुरु का भृत्य*नस्ल, धर्म या लिंग का, भेद नहीं स्वीकार उस प्रभु को जिसने किया, जीवन को साकार*है अनंत भी शून्य भी, अहं ईश का अंश डूब जाओ या लीन हो, लक्ष्य वही अवतंश*शब्द-शब्द में भाव है, भाव समाहित अर्थ।  गुरु से यह शिक्षा मिली, शब्द न करिए व्यर्थ*बिंदु सिंधु में समाहित, सिंधु बिंदु में लीन गुरु का मानस पुत्र बन, रह न सकेगा दीन*सद्विचार जो दे जगा, वह लेखन है श्रेष्ठ। लेखक सत्यासत्य को, साध बन सके ज्येष्ठ
७.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

सड़गोड़ासनी 4: सखी री! गाओ

सड़गोड़ासनी 4: 
सखी री! गाओ
*
सखी री! गाओ सड़गोड़ा,
सीखें मोंड़ी-मोंड़ा।
सखी री!...
*
हिरा नें जाएँ छंद कहूँ जे,
मन खों रुचे निगोड़ा।
सखी री!...
*
'राइम' रट रय, अरथ नें समझें
जैसें दौड़े घोड़ा।
सखी री!...
*
घटे नें अन-धन दान दिए सें,
देखो दें कें थोड़ा।
सखी री!...
*
लालच-दंभ, चैन कें दुसमन,
मारे, गिनें नें कोड़ा।
सखी री!...
*
आधी छोड़ एक खों धावा,
पाएँ नें हिंसा छोड़ा।
सखी री?...
*
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salil.sanjiv@gmail.com

बुधवार, 6 जून 2018

आम दोहावली

दोहा सलिला

आम खास का खास है......

संजीव 'सलिल'

*

आम खास का खास है, खास आम का आम.

'सलिल' दाम दे आम ले, गुठली ले बेदाम..

आम न जो वह खास है, खास न जो वह आम.

आम खास है, खास है आम, नहीं बेनाम..

पन्हा अमावट आमरस, अमकलियाँ अमचूर.

चटखारे ले चाटिये, मजा मिले भरपूर..

दर्प न सहता है तनिक, बहुत विनत है आम.

अच्छे-अच्छों के करे. खट्टे दाँत- सलाम..

छककर खाएं अचार, या मधुर मुरब्बा आम .

पेड़ा बरफी कलौंजी, स्वाद अमोल-अदाम..

लंगड़ा, हापुस, दशहरी, कलमी चिनाबदाम.

सिंदूरी, नीलमपरी, चुसना आम ललाम..

चौसा बैगनपरी खा, चाहे हो जो दाम.

'सलिल' आम अनमोल है, सोच न- खर्च छदाम..

तोताचश्म न आम है, तोतापरी सुनाम.

चंचु सदृश दो नोक औ', तोते जैसा चाम..

हुआ मलीहाबाद का, सारे जग में नाम.

अमराई में विचरिये, खाकर मीठे आम..

लाल बसंती हरा या, पीत रंग निष्काम.

बढ़ता फलता मौन हो, सहे ग्रीष्म की घाम..

आम्र रसाल अमिय फल, अमिया जिसके नाम.

चढ़े देवफल भोग में, हो न विधाता वाम..

'सलिल' आम के आम ले, गुठली के भी दाम.

उदर रोग की दवा है, कोठा रहे न जाम..

चाटी अमिया बहू ने, भला करो हे राम!.

सासू जी नत सर खड़ीं, गृह मंदिर सुर-धाम..

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१४-६-२०११ 

स्वास्थ्य दोहावली 2 आँवला

स्वास्थ्य दोहावली 2
आँवला
*
हरड़ बेड़ा आँवला, भाग तीन दो एक।
मिला आँख में आँजिए, रोहा रहे न एक।।
*
त्रिफला-घृत सेवन करें,  मिले देह को शक्ति।
संयम से नव स्वास्थ्य पा, रखें ईश प्रति भक्ति।।
*                                                                  केसर आँवला पीस लें, जल-गुलाब के साथ।        आधा सीसी मिटा दे, सिर पर लेपे हाथ।।            *
तोला-तोला लीजिए, बच अरु बायबिडंग।
त्रिफला तोले तीन लें, सेंधा नमक सुसंग।।
चाँदी-ताँबा-लौह की, दो-दो माशा भस्म।
दो रत्ती लें शहद सँग, लौटे याद सुरस्म।।
*
रोग टिटेनस का विकट, या बहता हो खून।
टपका दें आँवला-रस, मिलता शीघ्र सुकून।।
*

सड़गोड़ासनी 3 श्री श्री आइए

सड़गोड़ासनी 3
श्री श्री आइए
*
श्री श्री आइए मन-द्वारे,
चित पल-पल मनुहारे।

सब जग को देते प्रकाश नित,
हर लेते अँधियारे।

मृदु मुसकान अधर की शोभा,
मीठा वचन उचारे।

नयनों में है नेह-नर्मदा,
नहा-नहा तर जा रे!

मेघ घटा सम छाओ-बरसो,
चातक प्राण पुकारे।

अंतर्मन निर्मल करते प्रभु,
जै-जैकार गुँजा रे।

श्री-चरणों की रज पाना तो,
खुद को धरा बना रे।

कल खोकर कल सम है जीवन,
व्याकुल पार लगा रे।

लोभ मोह माया तृष्णा तज
गुरु का पथ अपना रे!

श्री-वचनों का अमिय पानकर
जीवन सफल बना रे!
***
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मंगलवार, 5 जून 2018

स्वास्थ्य दोहावली 1

स्वास्थ्य दोहावली
*
अमृत फल है आँवला, कर त्रिदोष का नाश।
आयुवृद्धि कर; स्वस्थ रख,  कहता छू आकाश।।
*
नहा आँवला नीर से,  रखें चर्म को नर्म।
पौधा रोपें; तरु बना, समझें पूजा-मर्म।।
*
अमित विटामिन सी लिए, करता तेज दिमाग।
नेत्र-ज्योति में वृद्धि हो, उपजा नव अनुराग।।
*
रक्त-शुद्धि-संचार कर, पाचन करता ठीक।
ओज-कांति को बढ़ाकर, नई बनाता लीक।।
*
जठर-अग्नि; मंदाग्नि में,  फँकें आँवला चूर्ण।
शहद और घी लें मिला,  भोजन पचता पूर्ण।।
*
भुनी पत्तियाँ फाँक लें, यदि मेथी के साथ।
दस्त बंद हो जाएंगे, नहीं दुखेगा माथ।।
*
फुला आँवला-चूर्ण को,  आँख धोइए रोज।
त्रिफला मधु-घी खाइए, तिनका भी लें खोज।।
*
अाँतों में छाले अगर, मत हों अाप निराश।
शहद आँवला रस पिएँ, मिटे रोग का पाश।।
*
चूर्ण आँवला फाँकिए,  नित भोजन के बाद।
आमाशय बेरोग हो, मिले भोज्य में स्वाद।।
*
खैरसार मुलहठी सँग, लघु इलायची कूट।
मिली अाँवला गोलियाँ, कंठ-रोग लें लूट।।
*
बढ़े पित्त-कफ; वमन हो, मत घबराएँ आप।
शहद-आँवला रस पाएँ, शक्ति सकेगी व्याप।।
*
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सोमवार, 4 जून 2018

सड़गोड़ासनी 2

सड़गोड़ासनी 2
रेवा माइ 
*
रेवा माइ पत रख लइयो,
कलकल कलकल बइयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
*
मात-पिता, गुरु, बंधु-सखा तुम,
कब का करना; कइयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
*
गौरा-बौरा औढरदानी,
किरपा तनक दिलइयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
*
अमरकंटकी! संकट हरियो, 
बरखा खूब करइयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
*
परबत-परबतजंगल-दूबा,
भू खों बसन उढ़इयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
*
पुरबैया-पछुवा-मलयज सँग
मिल बंबुलिया गइयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
*
कोदों-कुटकी; ज्वार-बाजरा,
महुआ-मका पकइयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
*
मोंड़ा-मोंड़ी, डुकरा-डुकरी,
डौकी सँग हँस रइयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
*
टिमकी-मादल, झाँझ-मँजीरा,
बाजे; नाच-नचइयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
*
कोउ नें अफरे, कोई नें भूखा
सोए; बात बनइयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
*
गिरे-परे की कछू नें चिंता, 
मंजिल लौं पहुँचइयौ।
रेवा माइ पत रख लइयो... 
*
तुम बिन कौन सहारा जग में
नैया पार करइयो।
रेवा माइ पत रख लइयो...
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4.6.2018, 7999559618
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रविवार, 3 जून 2018

लघुकथा: लक्ष्यवेध

लघुकथा: लक्ष्यवेध

आयकर विभाग में जमकर कमाई करने के बाद,  सेवानिवृत्ति पश्चात उसी विभाग में वकालत कर,  कभी मातहत रहे और अब निर्णायक पदों पर आसीन मित्रों के भरोसे वकालत करने लगे वे। धनपतियों को कर-चोरी के तरीके सुझाने, मन-मुताबिक फैसले कराने और इसकी एवज में येन-केन-प्रकारेण आदान-प्रदान के बाद मनचाहे फैसले कराकर कमाने-बाँटने का खेल खुल्लमखुल्ला होने लगा।
दो नंबर के धन से जेब भरी हो तो दो के चार खर्च करने में अपने बाप का क्या जाता है? अपनी इस दूरदर्शी सोच से पड़ोसियों को उपकृत कर वे अपने अपार्टमेंट की सोसायटी के अध्यक्ष बन बैठे। कुछ साल बाद कार खरीदी तो खुली जमीन के एक भाग पर शेड तान लिया। कुछ साल निकले, धन बड़ी मात्रा में एकत्र हो गया। कर देने के बजाय फ्लैट के मूल्य से अधिक धन उसकी मरम्मत में खर्च कर छाती फैलाकर घूमते रहे। लगा हुए हर सामान को सबसे अधिक मंहगा बताते समय उनकी छाती फूल और फैल जाती। पड़ोसियों को शहर के महँगे होटल में रात्रिभोज देकर, अगले ही दिन अपार्टमेंट के पीछे की जमीन पर एक शेड तानकर कर लिया उन्होंने लक्ष्यवेध ।
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3.6.2018, 7999559618

शनिवार, 2 जून 2018

नवलेखन: सड़गोड़ासनी

नवलेखन: सड़गोड़ासनी
परिचय:
सड़गोड़ासनी बुंदेली भाषा का छंद है जिसे आधुनिक हिंदी में नहीं लिखा गया है। 'षड्' अर्थात छ:, षडानन, षड् राग आदि सर्वविदित हैं। लोकभाषा में 'ष' का उच्चारण 'स' या 'ख' किया जाता है। तभी सावन, खडानन, खटरागी जैसे शब्द बनते हैं। 'गोड़' अर्थात 'पैर' या 'पद'। सड़ + गोड़' + आसनी अर्थात छ: पंक्तियों पर आसीन छंद 'षड्पदी'। दोहा तथा रोला के सम्मिलन से बनी कुंडलिया भी 'षड्पदी' है।
विधान:
सड़गोड़ासनी मात्रिक छंद है। इसके मुखड़े में पंद्रह - बारह मात्रा पर यति का विधान है। शेष पंक्तियों में सोलह - बारह की यति होती है। प्रथम अर्धाली हर पंक्ति-युग्म के बाद दोहराई जाती है। प्रथम अर्धाली में पाँचवी-छठी मात्रा गुरु तथा सातवीं मात्रा लघु रखना आवश्यक है।
विशेष:
सड़गोड़ासनी दादरा ताल,  छ: मात्रा की बंदिश में  गाया जाता है। सड़गोड़ासनी वसंत का छंद होते हुए भी हर मौसम-पर्व पर गाया जाता है। सड़गोड़ासनी नृत्य-गीत है। इसके साथ मृदंग,  टिमकी, झांझ,  मँजीरा आदि लोकवाद्य बजाए जाते हैं । यह पुरुष तथा महिला दोनों के लिए है।
दादरा के बोल हैं ''धा धी ना ता ती ना'' जबकि सड़गोड़ासनी के बोल हैं ''धन ग्ग धन ग न,  ति क्क ति क न''। सड़गोड़ासनी में  प्रयुक्त बोल का आवर्त, दादरा में प्रयुक्त आवर्तों का दोगुना है। सामान्यतः महिलाएँ भक्ति व श्रंगारपरक सड़गोड़ासनी शुद्ध दादरा में गाती हैं तथा ढोलक,  मजीरा, पीतल का लोटा आदि वाद्य प्रयोग करती हैं। पुरुष नृत्य की भावमुद्राओं को प्रमुखता देते हुए सड़गोड़ासनी में प्राण फूँक देते हैं।
उदाहरण:
भारत देश, हमको प्यारा,
सब जग से है न्यारा।
भारत देश हमको प्यारा...
*
ध्वजा तिरंगी फहरे फर-फर,
मेघ करें जयकारा।
भारत देश हमको प्यारा...
*
मन मोहे सिर ताज हिमालय,
सागर चरण पखारा।
भारत देश हमको प्यारा...
*
बहे नदी नरमदा मध्य में, 
जीवन दे जलधारा।
भारत देश हमको प्यारा...
*
हम हैं एक; अनेक भले ही,
भाषा-वसन हमारा।
भारत देश हमको प्यारा...
*
धर्म कला साहित्य मनोहर,
शाश्वत ग्यान हमारा।
भारत देश हमको प्यारा...
***
2.6.2018, 7999559618
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शुक्रवार, 1 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी ११. चंद्रकांता अग्निहोत्री हरियाणवी लोकगीतों में छंद-छटा

हरियाणवी-पंजाबी लोकगीतों में छंद-छटा
- चंद्रकांता अग्निहोत्री
*
परिचय: जन्म: पंजाबआत्मजा: श्रीमती लाजवन्ती जी-श्री सीताराम जीजीवनसाथी: श्री केवलकृष्ण अग्निहोत्रीकाव्य गुरु: डॉ. महाराजकृष्ण जैन, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी, ॐ नीरव जीलेखन विधा: लेखन, छायांकन. पेंटिंगप्रकाशित: ओशो दर्पण,वान्या काव्य संग्रह, सच्ची बात लघुकथा संग्रह, गुनगुनी धूप के साये गीत-ग़ज़ल।पत्र-पत्रिकाओं में कहानी , लघुकथा, कविता , गीत, आलोचना आदिउपलब्धि: लघुकथा संग्रह सच्ची बात पुरस्कृत संप्रति: से.नि. प्रध्यापक/पूर्वाध्यक्ष हिंदी विभाग, राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,सेक्टर 11,चंडीगढ़संपर्क: ४०४ सेक्टर ६, पंचकूला, १३४१०९ हरियाणाचलभाष: ०९८७६६५०२४८, ईमेल: agnihotri.chandra@gmail.com
*
भारतीय संस्कृति और धर्म की शिखर पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता' की रचनास्थली और धर्माधर्म की रणभूमि रहा हरयाणा प्रांत देश के अन्य प्रांतों की तरह लोककला और लोकसंस्कृति से संपन्न और समृद्ध है। हरयाणवी जीवन मूल्य मेल-जोल, सरलता, सादगी, साहस, मेहनत और कर्मण्यता जैसे गुणों पर भी आधारित है। हरियाणा की उच्च सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषताएँ होने के कारण विकास और जनकल्याण के संबंध में हरियाणा आज भी अग्रणी राज्यों में से एक है। इस प्रांत के ग्राम्यांचलों में साँझी माई की पूजा की जाती है। साँझी माई की पूजा के लिए सभी लड़कियाँ व महिलायें एकत्र हो साँझी माई की आरती उतारती हैं। उनके मधुर लोक गीतों से पूरा वातावरण गूँज उठता है। सांझा माई का आरता २२१२ २१२ की लय में निबद्ध होता है ( आदित्य जातीय छंद, ७-५ पदांत गुरु -सं.)
आरता हे आरता/साँझी माई! आरता/आरता के फूलां /चमेली की डाहली/नौं नौं न्योरते/नोराते दुर्गा या सांझी माई
हरियाणा के लोक गीतों में लोरी का बहुत महत्व है। लोरी शब्द संस्कृत भाषा से आया है। यह 'लील' शब्द का अपभ्रंश है, इसका अर्थ झूला झुलाते हुए, मधुर गीत गाकर बच्चे को सुलाना है। इन गीतों को सुनकर हृदय ममता से भर जाता है। (निम्न लोरी गीत का २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद है, जिसमें वाचिक परंपरानुसार यति-स्थान बदलता रहता है, अंत में २८-१३ मात्रिक पंक्तियाँ हैं। इसे दो छंदों का मिश्रण कहा जा सकता है -सं.)
लाला लाला लोरी, ढूध की कटोरी २२ /दूध में बताशा, लाला करे तमाशा २२ / चंदा मामा आएगा, दूध-मलाई खाएगा २८ / लाला को खिलाएगा१३
ममता भरे हृदय से नि:सृत मनमोहक स्वर-माधुर्य लोरी शब्द को सार्थक कर देता है। (निम्न लोरी ३० मात्रिक महातैथिक जातीय रुचिरा छंद में निबद्ध है जिसमें १४-१६ पर यति तथा पदांत गुरु का विधान है- सं.)
पाया माsह पैजनियाँ १४, लल्ला छुमक–छुमक डोलेगा १६/ दादा कह के बोलेगा १४, दादी की गोदी खेलेगा १६।
हरयाणवी लोकगीतों का वैशिष्ट्य भावों की सहज अभिव्यक्ति है तो आधुनिक रचनाओं में शासन-प्रशासन के प्रति आक्रोश की भावनाएँ मुखरित हुई हैं। कवि छैला चक्रधर बहुगुणा हरियाणवी (जयसिंह खानक) ने प्रस्तुत गीत में आज की राजनीति पर करारा व्यंग्य किया है। कवि का आक्रोश उसके हृदय की व्यथा पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त है। (३१ मात्रिक छंद में १६-१५ पर यति व पदांत में दो गुरु का विधान रखते हुए अश्वावतारी जातीय छंद में इसे रचा गया है -सं.)
कदे हवाले कदे घुटाले, एक परखा नई चला दी
लूट-लूट के पूंजी सारी, विदेशां मैं जमा करादी
निजीकरण और छंटणी की, एक नइये चाल चला दी
सरकार महकमें बेच रही, या किसनै बुरी सला' दी
या नींव देश की हिला दी, कोण डाटण आळे होगे
हो लिया देश का नाश, आज ये मोटे चाळे होगे
हरियाणवी भाषा अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी ऐसी नहीं है कि अन्य भाषा-भाषियों को समझ में न आए। निम्न रचना में नायिका के मन की सूक्ष्म तरंगों को कवि कृष्ण चन्द ने सुंदर शब्दों में ढाला है। अति सुंदर भाव, शब्द संयोजन तथा व्यंजनात्मक शैली हृदयग्राही है। (विधान ३१ मात्रिक, १७-१४ पर यति, गुरुलघु या लघुगुरु (संभवत:३ लघु या २ गुरु वर्जित, अश्वावतारी जातीय छंद -सं.)
आज सखी म्हारे बाग मैं हे१७ किसी छाई अजब बहार १४
हे ये हंस पखेरू आ रहे | १७
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं,१७ ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै १७ मिलैं कर आपस मैं प्यार १४
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे १७
बड़ी प्यारी सुरत हे इसी, जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे.....
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं, ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै हे मिलैं कर आपस मैं प्यार
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे
बड़ी प्यारी सुरत हे इसी, जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं, ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै हे मिलैं कर आपस मैं प्यार
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे बड़ी प्यारी सुरत हे इसी,
जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे
विवाह-शादी में एक से एक बढ़कर गीत गाये जाते हैं। देखिये एक २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद की एक झलक:
मैं तो गोरी-गोरी, बालम काला-काला री! १२-१४
मेरे जेठ की बरिये, सासड़ के खाया था री! १३-१४
वा तो बरफियाँ की मार, जिबे धोला-धोला री! १३-१३
जेठ के स्थान पर ससुर, बालम, देवर आदि रखकर बहू अपनी सास से सबके बारे में पूछती है। इन लोकगीतों में हास-परिहास तथा चुहुलबाजी का पुट प्रधान होता है।
देश में हो रही बँटवारा नीति पर कई कवियों की कलम चली है। प्रस्तुत है संस्कारी छंद में एक गीत:
देश में हो रइ बाँटा-बाँट / बनिया बामन अर कोइ जाट १६-१६
सावन के महीने में मैके की याद आना स्वाभाविक है। यौगिक छंद (यति १५-१३) में रचित इस लोकगीत में बाबुल के घर की मौज-मस्ती का सजीव चित्रण हुआ है:
नाना-नानी बूँदिया सा,वण का मेरा झूलणा १५-१३
एक झूला डाला मन्ने, बाबल जी के राज में १५-१३
सँग की सखी-शेली है सा,वण का मेरा झूलना १५-१३
एक झूला डाला मन्ने, भैया जी के राज में १५-१३
गोद-भतीजा है मन्ने सा,वण का मेरा झूलना १५-१३
यौगिक छंद (यति १४-१४) में एक और मधुर गीत का रसामृत पान करें:
कच्चे नीम की निमोली सावण कदकर आवै रे
बाबल दूर मत व्याहियो, दादी नहीं बुलावण की
बाब्बा दूर मत व्याहियो, अम्मा नहीं बुलावण की
मायके का सुख भुलाए नहीं भूलता, इसलिए हरियाणा की लड़की सबसे प्रार्थना करती है की उसका विवाह दूर न किया जाए। ऐसा न हो कि वह सावन के महीने में मायके न आ सके।

हरियाणावी गीतों में लयबद्धता, गीतिमयता, छंदबद्धता व् मधुरता के गुण पंक्ति-पंक्ति में अन्तर्निहित हैं। इस अंचल की सभ्यता व संस्कृति को इन लोकगीतों में पाया जा सकता है। इन गीतों में सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य भी देखा जा सकता है। करतार सिंह कैत रचित निम्न गीत में दलितोद्धार के क्षेत्र में अग्रणी रहे आंबेडकर जी को याद किया गया है:
बाबा भीम को करो प्रणाम रे १८ / बोलो भीम भीम भीम भीम रे...टेक / भारत का संविधान बनाया, १७ / सभी जनों को गले लगाया १६ / पूरा राख्या ध्यान रे... १३ बोलो भीम भीम... / इनका मिशन घणा लाग्या प्यारा १८ / भीम मिशन तै मिल्या सहारा १७ / सब सुणो करकै ध्यान रे १४ बोलो भीम भीम.../ बाबा साहब की ज्योत जगाओ, १८ / इनके मिशन को सफल बनाओ १७ / थारा हो ज्यागा कल्याण रे १७ / बोलो भीम भीम.../ करतार सिंह ने शबद बनाया १७ / सभा बीच मैं आकै गाया १६ / जिसका कोकत गांव रे १३ / बोलो भीम भीम...
पंजाबी काव्य में छंद छटा:
लोकगीत मिट्टी की सौंधी खुशबू की तरह होते हैं, जैसे अभी-अभी बरसात ने धरती को अपनी रिमझिम से सहलाया हो, जैसे हवा के झोंको ने अभी अभी कोई सुंदर गीत गाया हो या पेड़ों से गुजरती मधुर बयार ने हर पत्ते को नींद से जगाया हो तो फिर क्यों न बज उठे पत्तों की पाजेब। ऐसा ही हमारा लोक साहित्य, साहित्य तो साहित्य है लेकिन लोकसाहित्य जनमानस के अति निकट है, उसकी धड़कन जैसा, उसकी हर सांस जैसा, ऐसे कि जैसे हर दर्द, सबका दर्द, हर ख़ुशी, सबकी ख़ुशी। पंजाबी लोककाव्य जैसे माहिया, गिद्दा, टप्पे, बोलियाँ आदि प्रदेश की सीमा लाँघकर देश-विदेश में पहचाने और गाये जाते हैं:
माहिया:
माहिया पंजाब का सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकगीत है। प्रेमी या पति को 'माहिया वे' सम्बोधित किया जाता है। इस छंद में श्रृंगार रस के दोनों पक्ष होते हैं। अब अन्य रस भी सम्मिलित किये जाने लगे हैं। इस छंद में प्रायः प्रेमी-प्रेमिका की नोक-झोंक रहती है। जो अभिव्यक्तियाँ हैं जो कभी न कही जा सकीं, जो दिल के किसी कोने मे पड़ी रह गईं, जिन्हें समाज ने नहीं समझावही व्यथा कई रूपों में प्रकट होती है। पत्नी को ससुराल, अपने माही के साथ ही जाना है, वह अपने आकर्षण-विकर्षण को छिपाती नहीं है:
पैली-पैली वार मैनू नाई लैण आ गया(तीन बार) / नाई दे नाल मेरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए, मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोल्या न जाए। नाई वे... नाई ते बड़ा शुदाई, मैं एहदे नाल नईजाणा ३
दूजी-दूजी बार मैनू सौरा लैण आ गया। सौरे दे नाल मेंरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए, मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोलया न जाए। सौरा वे....सौरा मुहं दा कौड़ा, मैं एहदे नाल नई जाणा ३
तीजी-तीजी वार मैनू जेठ लैण आ गया ३,जेठे दे नाल मेरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए ,मुंहों बोल्या न जाए।, कुंडा खोलया न जाए (घूंघट उठाना )
जेठ वे.... जेठ दा मोटा पेट , मैं अहदे नाल नई जाणा
चौथी-चौथी वार मैनू दयोर लैण आ गया।, दयोर दे नाल मेरी जांदी ए बलां (मुसीबत)
घुंड चकया न जाए ,मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोलया न जाए
दयोर वे ..दयोर दिल दा चोर ....मैं अहदे नाल नई जाणा (देवर)
पंजवी वार मैनू आप लैण आ गया, माहिये दे नाल मैं टुर जाणा
घुंड चकया वि जाय ,मुंहों बोल्या वि जाय ,कुंडा खोल्या वि जाए
माहिया वे.... माहिया ढोल सिपाहिया मैं तेरे नाल टुर जाणा |
माहिया: यह पंजाबी का सर्वाधिक लोकप्रिय छंद है। यह एक मात्रिक छंद है। इसकी पहली और तीसरी पंक्ति में १२-१२ मात्राएं (२२११२२२) तथा दूसरी पंक्ति में १० (२११२२२) मात्राएँ रहती हैं। तीनों पंक्तियों में सभी गुरु भी आ सकते हैं। पहले और तीसरे चरण में तुकांत से चारुत्व वृद्धि होती है। प्रवाह और लय अर्थात माहिया का वैशिष्ट्य है। इस छंद में लय और प्रवाह हेतु अंतिम वर्ण लघु नहीं होना चाहिए। सगाई-विवाह आदि समारोहों में माहिया छंद पर आधारित गीत गाए जाते हैं।
तुम बिन सावन बीते १२ / आना बारिश बन १० / हम हारे तुम जीते १२
कजरा यह मुहब्बत का / तुमने लगाया है / आँखों में कयामत का। -सूबे सिंह चौहान ..
खुद तीर चलाते हो / दोष हमारा क्या / तुम ही तो सिखाते हो। -कृष्णा वर्मा
अहसास हुए गीले / जुगनू सी दमकी / यादों की कंदीलें।
स्व. श्री प्राण शर्मा जी लन्दन के इस माहिए में संसार की नश्वरता का वर्णन है:
कुछ ऐसा लगा झटका / टूट गया पल में / मिट्टी का इक मटका।
पारंपरिक माहिया को नयी जमीन देते हुए संजीव सलिल जी ने सामयिक-सामाजिक माही लिखे हैं:
हर मंच अखाडा है / लड़ने की कला गायब / माहौल बिगाड़ा है.
सपनों की होली में / हैं रंग अनूठे ही / सांसों की झोली में.
पत्तों ने पतझड़ से / बरबस सच बोल दिया / अब जाने की बारी
चुभने वाली यादें / पूँजी हैं जीवन की / ज्यों घर की बुनियादें
है कैसी अनहोनी? / सँग फूल लिये काँटे / ज्यों गूंगे की बोली
भावी जीवन के ख्वाब / बिटिया ने देखे हैं / महके हैं सुर्ख गुलाब
चूनर ओढ़ी है लाल / सपने साकार हुए / फिर गाल गुलाल हुए
मासूम हँसी प्यारी / बिखरी यमुना तट पर / सँग राधा-बनवारी
देखे बिटिया सपने / घर-आँगन छूट रहा / हैं कौन-कहाँअपने?
हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार-छन्दाचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने माहिया का प्रयोग गीत लेखन में करते हुए मुखड़ा और अंतरा दोनों माहिया छंद में रचकर सर्वप्रथम यह प्रयोग किया है:
मौसम के कानों में / कोयलिया बोले / खेतों-खलिहानों में।........मौसम के कानों में वाह !
आओ! अमराई से / आज मिल लो गले, / भाई और माई से।....बहुत खूब
आमों के दानों में / गर्मी रस घोले, बागों-बागानों में--- सुंदर चित्रात्मकता
होरी, गारी, फगुआ / गाता है फागुन, / बच्चा, बब्बा, अगुआ।...अनमोल फागुन
सलिल जी ने एक और आयाम जोड़ा है माहिया ग़ज़ल का:
माहिया ग़ज़ल:
मापनी: ३ x ( १२-१०-१२)
मत लेने मत आना / जुमला, वादों को / कह चाहा बिसराना
अब जनता की बारी / सहे न अय्यारी / जन-मत मत ठुकराना
सरहद पर सर हद से / ज्यादा कटते क्यों? / कारण बतला जाना ​
मत संयम तुम खोओ / मत काँटे बोओ / हो गलत, न क्यों माना?
मंदिर-मस्जिद झगड़े / बढ़ने मत देना / निबटा भी दो लफड़े
भाषाएँ बहिनें हैं / दूरी क्यों इनमें? / खुद सीखो-सिखलाना
जड़ जमी जमीं में हो / शीश रहे ऊँचा / मत गगनबिहारी हो
परिवार न टूटें अब / बच्चे-बूढ़े सँग / रह सकें न अलगाना
अनुशासनखुद मानें / नेता-अफसर भी / धनपति-नायक सारे ​
बह स्नेह-'सलिल' निर्मल / कलकल-कलरव सँग / कलियों खिल हँस-गाना
टप्पे:
कोठे ते आ माइया / मिलना तां मिल आ के / नईं तां खसमां नूं खा माइया। (एक गाली )
की लैणा ए मित्रां तों / मिलन ते आ जांवा / डर लगदा ए छितरां तों। (जूते )
चिट्टा कुकड़ बनेरे ते (मुर्गा ) / बांकिये लाडलिए (सुंदर) / दिल आ गया तेरे ते |
१२-१३ मात्राओं व समान तुकांत की तथा दूसरी पंक्ति २ कम मात्राओं व भिन्न तुकांत की होती है. कुछ महियाकारों ने तीनों पंक्तियों का समान पदभार रखते हुए माहिया रचे हैं. डॉ. आरिफ हसन खां के अनुसार 'माहिया का दुरुस्त वज़्न पहले और तीसरे मिसरे के लिये फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलान्] मुतदारिक मख़बून /मख़बून मज़ाल] और दूसरे मिसरे के लिए फ़ेलु .. फ़ऊल्.. फ़अल्/फ़ऊल् [मुतक़ारिब् असरम् मक़्बूज़् महज़ूफ़् /मक़सूर्] है। इन दोनों औजान [वज़्नों] पर बित्तरतीब [क्रमश:] तकसीन और तख़नीक़ के अमल हैं। मुख़तलिफ़ मुतबादिल औज़ान [वज़न बदल-बदल कर विभिन्न वज़्न के रुक्न] हासिल किये जा सकते हैं. [तफ़सील के लिये मुलाहिज़ा कीजिए राकिम उस्सतूर (इन पंक्तियों के लेखक) की किताब ’मेराज़-उल-अरूज़’ का बाब (अध्याय) माहिए के औज़ान]।'
बोलियाँ:
बारी बरसी खटन गया सी खट के लियांदी लाची |(कमाने,फल )
गिद्दा तां सजदा जे नचे मुंडे दी चाची (लड़का ,दूल्हा )
मेरे जेठ दा मुंडा नी बड़ा पाजी / नाले मारे अखियां नाले आखे चाची
नी इक दिन शहर गया सी / औथों कजल लियाया (वहां से )
फिर कहंदा / की (क्या) कहंदा? / नी कजल पा चाची, / नी अख मिला चाची २
बल्ले-बल्ले नि तोर पंजाबन दी (चाल )/ जुत्ती खल दी मरोड़ा नइयों झलदी / तोर पंजाबन दी। (चाल)
बल्ले- बल्ले कि तेरी मेरी नहीं निभणी।/ तूँ तेलण मैं सुनियारा / तेरी मेरी नईं निभणी
बल्ले-बल्ले तेरी मेरी निभ जाऊगी / सारे तेलियां दी जंज बना दे /के तेरी-मेरी निभ जाऊगी |
एक समय सब अपने रिश्तों के प्रति समर्पित थे। पति कैसा भी हो पत्नी के लिए वही सब कुछ होता था। प्रस्तुत गीत में सास के प्रति उपालम्भ है क्योंकि वह तो अपने सभी बच्चों से प्रेम करती है, जबकि बहू को तो अपना पति ही सबसे प्रिय है |
काला शा काला, / मेरा काला ए सरदार,गौरयाँ नूं दफा करो |
मैं आप तिले दी तार गौरयां नूं दफा करो |(अर्थात काले रंग पर सुनहरी बहुत जचता है )
ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, / दो एबी दो शराबी, / जेहड़ा मेरे हान दा ओह खिड़िया फुल गुलाबी|
काला शा काला / ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, / दो टीन दो कनस्तर / जेहड़ा मेरे हान दा ओह चला गया है दफ्तर |
काला शा काला ओह काला शा काला
ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, /दो कम्बल ते दो खेस | जेहड़ा मेरे हान दा ओह चला गया परदेस |
काला शा काला....ओह काला शा काला / मेरा काला ए सरदार,गौरयाँ नूं दफा करो |
मैं आप तिले दी तार गौरयां नूं दफा करो
पंजाबी लोकगीतों माहिया, टप्पे,बोलियां, गिद्दा, भांगड़ा आदि में मन की हर इच्छा को सहजता-सरलता व ईमानदारी से प्रस्तुत किया जाता है।
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ओशो चिंतन: दोहा गुंजन

ओशो चिंतन 6: दोहा गुंजन *

गुरुओं-निर्देशित रहा, युग-युग से यह देश।
चाहें सत-विपरीत हों,  सब मानें आदेश।।
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मैं करता हूँ  निवेदन,  व्यर्थ न दूँ आदेश।
ढाँचे में बँधता नहीं, कभी न दूँ उपदेश।।
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निपट अकेला घूमता,  जो-जब लगता ठीक।
करूँ निवेदन मात्र वह,  फिक्र न क्या है लीक।।
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मित्र-शत्रु कोई नहीं, कभी बनाया सत्य।
काम न मेरा वह रहा, तरफ आपकी कृत्य।।
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जब-जो कहना; कह दिया, कहें न जिम्मेदार।
कल कह; कल ही मर गया, वक्ता आज न भार।।
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पल-पल मैं हूँ बदलता, पल-पल बदले बात।
नहीं बाँधकर देखिए,  प्रश्न न संगत तात।।
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मामूली कोई नहीं, अपने तईं विशेष।
हर जन है यह मानता,  असामान्य नि:शेष।।
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तुलना हिंसा कराती, कह दूजा सामान्य।
है विशेष हर एक ही,  सत्य अटल यह मान्य।।
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प्रभु इंसां को बनाकर, कहे कान में बात।
तुमसे बढ़कर बनाई, कोई नहीं जमात।।
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हर आता ले धारणा,  वह है खासुलखास।
शेष सभी सामान्य हैं, भले सहे उपहास।।
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या तो सब सामान्य हैं,  या हैं सभी विशेष।
कुछ को अधिक महत्व क्यों, क्यों कम पाएँ शेष।।
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करूँ विभाजन मैं नहीं, बातें करूँ न भिन्न।
यह मेरे वश का नहीं, करूँ प्रसन्न न खिन्न।।
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आप न हों; दीवाल हो,  श्रोता तब भी बात।
वही कहूँ; जो कह रहा,  अगर यही हालात।।
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मंडन या शंकर नहीं, बैठे सुनने ठीक।
मूल दुबारा हों नहीं,  प्रतिलिपि उचित न लीक।।
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एक एक है यथावत्, कब कोई पुनरुक्त?
जैसा है वैसा रहे, होगा तभी प्रयुक्त।।
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बुद्धू बुद्ध न हो सके, जितना है यह सत्य।
बुद्ध न बुद्धू हो सकें, यह भी नहीं असत्य।।
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1.6.2018, 7999559618
salil.sanjiv@gmail.com