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सोमवार, 17 मार्च 2014

vyangikayen: -ompraksh tiwari

ऊँ
व्यङ्गिकाएं 
ओमप्रकाश तिवारी
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नरेंद्र मोदी
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गंगा जी में घोलकर टेसू वाला रंग,
सिलबट्टे पर पीसकर असी घाट की भंग।
असी घाट की भंग मिठाई उस पर सोंधी,
आज बनारस बीच कहें सब मोदी - मोदी। 
हर हर बम बम बोल कीजिए मन को चंगा,
बाकी नैया पार करेंगी मैया गंगा। 

एन.डी.तिवारी
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पिचकारी ले हाथ में चाची हैं तैनात, 
तारकोल की बाल्टी है बेटे के हाथ। 
है बेटे के हाथ घात में हैं माँ-बेटा,
बुढ़ऊ को किस भांति जाय इस बार लपेटा। 
छुपे-छुपे हैं घूम रहे श्रीमान तिवारी,
कहीं न जाए छूट उज्ज्वला की पिचकारी। 

ममता बनर्जी- अन्ना
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साड़ी इधर सफेद है कुर्ता उधर सफेद,
शुद्ध-सात्विक प्रेम का यही अनोखा भेद।
यही अनोखा भेद मिल गए बन्नी-बन्ना,
जोड़ी सीता-राम लग रही ममता-अन्ना। 
दुनिया का दुख ओढ़ रह गए आप अनाड़ी,
अब तो दे दो गिफ्ट बनारसवाली साड़ी। 

नीतीश कुमार
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फागुन का रंग देखने आओ चलें बिहार,
जहां बैठकर कुढ़ रहे हैं नीतीश कुमार।
हैं नीतीश कुमार संभाले अपना कुर्ता,
मोदी यहां न आय बना दें अपना भुर्ता।
रहें संभलकर आप गाइए अपनी ही धुन,
जो खुद ही बदरंग करे क्या उसका फागुन। 

राखी सावंत
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बीजेपी दफ्तर गईं जब राखी सावंत,
उन्हें देख फगुवा गए कई संघ के संत। 
कई संघ के संत छोड़कर भगवा चोला,
गावैं अरर कबीर भांग का खाकर गोला। 
छोड़ि चुनावी जंग आपके रंग में बेबी,
रंग न जाए आज यहां पूरी बीजेपी। 

अखिलेश यादव
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होली में हैरान से दिखते हैं अखिलेश,
शायद फिर से खो गई है चच्चू की भैंस।
है चच्चू की भैंस यहां हर हफ्ते खोती,
उनको करके याद बिचारी चाची रोती।
चापलूस की फौज साथ में है हमजोली,
बापू जी नाराज राम निपटाएं होली। 

रामविलास पासवान
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पीकर बारह साल तक सेक्युलरिज़्म की भांग,
भगवा रंग के हौज में कूदे लगा छलांग।
कूदे लगा छलांग दिलाए जो भी सत्ता,
बोलें रामविलास टेकिए उसको मत्था।
फूले इनकी सांस बिना सत्ता के जीकर,
ग़र सत्ता हो हाथ मस्त ठंडाई पीकर। 

लालू यादव
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चारा खाकर घर पड़े लड़ ना सकें चुनाव,
लालू जी की आज तो दिखे अधर में नाव।
दिखे अधर में नाव आज होली की बेला,
गायब उनके द्वार कार्यकर्ता का मेला। 
भौजी लेकर हाथ खड़ीं गोबर का गारा,
लालू गावै फाग अकेले ही बे-चारा। 

आम आदमी पार्टी
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दिल्लीवाले हाथ में लेकर सूखा रंग,
ढूंढ रहे हैं ‘आप’ को करें उसे बदरंग।
करें उसे बदरंग किया पानी का वादा,
बोलो कहां नहायं आज मिलता ना आधा। 
होली के दिन आज हुए सब पीले-काले,
हैं यमुना की ओर भागते दिल्लीवाले। 

डिनर डिप्लोमेसी
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भोजन करवाएं इन्हें जा फाइव स्टार,
फिर दें इनको दक्षिणा वह भी कई हजार।
वह भी कई हजार अजब हैं अपने नेता,
भर पाएंगे आप अगर ये बने विजेता। 
अगर गरम है जेब कीजिए आप प्रयोजन,
नेता हैं तैयार करेंगे आकर भोजन। 

- ओमप्रकाश तिवारी

रविवार, 16 मार्च 2014

chhand salila: rajiv chhand -sanjiv


छंद सलिला:
होली रंग : छंद के संग 
 
संजीव   
* 
राजीव (माली) छंद
लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १८ मात्रा, यति ९ - ९ 
लक्षण छंद:
प्रति चरण मात्रा, अठारह रख लें
नौ-नौ पर रहे, यति यह परख लें
राजीव महके, परिंदा चहके
माली-भ्रमर सँग, तितली निरख लें

उदाहरण:
१. आ गयी होली, खेल हमजोली 
   भीगा दूं चोली, लजा मत भोली

    भरी पिचकारी, यूँ न दे गारी,
    फ़िज़ा है न्यारी, मान जा प्यारी    


    खा रही टोली, भांग की गोली 
    मार मत बोली,व्यंग्य में घोली
   
   
तू नहीं हारी, बिरज की नारी 
    हुलस मतवारी, डरे बनवारी

    पोल क्यों खोली?, लगा ले रोली
    प्रीती कब तोली, लग गले भोली
२. कर नमन हर को, वर उमा वर को
    जीतकर डर को, ले उठा सर को
    साध ले सुर को, छिपा ले गुर को
    बचा ले घर को, दरीचे-दर को
३. सच को न तजिए, श्री राम भजिए
    सदग्रन्थ पढ़िए, मत पंथ तजिए
    पग को निरखिए, पथ भी परखिए
    कोशिशें करिए, मंज़िलें वरिये

(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, मानव, माली, माया, माला, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
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fguaa geet : bramhani veena

, होली का फगुआ गीत
ब्रह्माणी वीणा

*********************
फगुआ में छाई बहार आली
आई बसंत बहार आली ।
धरती ने ली अंगड़ाई,
मधुर मधुर सपनों में खोई
हरीतिमा का अनुपम श्रंगार
गगन देता धरणी को प्यार,
संग मे बासंती उपहार आली ,
फगुआ में छाई बहार आली,,,,,,,,,,,,,,,,,
कण कण में जगी उमंगें
नव पराग कण नई तरंगें
भौंरे गूँज रहे फूलों पर ,
खिले पलाश , कचनार आली
फगुआ में छाई बहार आल,,,,,,,, ,,,,,,,,,,,
नीले पीले रंग बसंती
उड़े रंग गुलाल मधुमती
कृष्ण राधिका छक छक भीजैं
सब गोपियन के तन मन भीजै
पिचकारी छोड़ें सखियन पर ,
ग्वालन की तकरार आली ,
फगुआ में छाई बहार आली,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
***************************(**************

शनिवार, 15 मार्च 2014

holi

तस्वीर

chhand salila: manav chhand -sanjiv

छंद सलिला:
चौदह मात्रीय मानव छंद
 
संजीव   
*  
लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४, मात्रा बाँट ४-४-४-२ या ४-४-४--१-१, मूलतः २-२ चरणों में तुक साम्य किन्तु प्रसाद जी ने आँसू में तथा गुप्त जी ने साकेत में२-४ चरण में तुक साम्य रख कर इसे नया आयाम दिया। आँसू में चरणान्त में दीर्घ अक्षर रखने में विविध प्रयोग हैं. यथा- चारों चरणों में, २-४ चरण में, २-३-४ चरण, १-३-४ चरण में, १-२-४ चरण में। मुक्तक छंद में प्रयोग किये जाने पर दीर्घ अक्षर के स्थान पर दीर्घ मात्रा मात्र की साम्यता रखी जाने में हानि नहीं है. उर्दू गज़ल में तुकांत/पदांत में केवल मात्रा के साम्य को मान्य किया जाता है. मात्र बाँट में कवियों ने दो चौकल के स्थान पर एक अठकल अथवा ३ चौकल के स्थान पर २ षटकल भी रखे हैं. छंद में ३ चौकल न हों और १४ मात्राएँ हों तो उसे मानव जाती का छंद कहा जाता है जबकि ३ चौकल होने पर उपभेदों में वर्गीकृत किया जाता है.  
लक्षण छंद:
चार चरण सम पद भुवना, 
अंत द्विकल न शुरू रगणा 
तीन चतुष्कल गुरु मात्रा, 
मानव पग धर कर यात्रा

उदाहरण:
१. बलिहारी परिवर्तन की, फूहड़ नंगे नर्त्तन की    
   गुंडई मौज मज़ा मस्ती, शीला-चुन्नी मंचन की
 
२. नवता डूबे नस्ती में, जनता के कष्ट अकथ हैं
    संसद बेमानी लगती, जैसे खुद को ही ठगती
   
३. विपदा न कोप है प्रभु का, वह लेता मात्र परीक्षा 
    सह ले धीरज से हँसकर, यह ही सच्ची गुरुदीक्षा 
   
४.
चुन ले तुझको क्या पाना?, किस ओर तुझे है जाना 
    जो बोया वह पाना है, कुछ संग न ले जाना है 

(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, मानव, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)

holi ki kundaliyan: sanjiv


होली की कुण्डलियाँ:
मनायें जमकर होली
संजीव 'सलिल'
*
होली हो ली हो रही होगी फिर-फिर यार
मोदी राहुल ममता माया जयललिता तैयार
जयललिता तैयार न जीवनसाथी-बच्चे
इसीलिये तो दाँव न चलते कोई कच्चे
कहे 'सलिल' कवि बच्चेवालों की जो टोली
बचकर रहे न गीतका दें ये भंग की गोली
*
होली अनहोली न हो, खायें अधिक न ताव.
छेड़-छाड़ सीमित करें, अधिक न पालें चाव.. 
अधिक न पालें चाव, भाव बेभाव बढ़े हैं.
बचें करेले सभी, नीम पर साथ चढ़े हैं..
कहे 'सलिल' कविराय, न भोली है अब भोली.
बचकर रहिये आप, मनायें जम भी होली..
*
होली जो खेले नहीं, वह कहलाये बुद्ध.
माया को भाये सदा, सत्ता खातिर युद्ध..
सत्ता खातिर युद्ध, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, सुषमा का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल. 
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रमित है जनता भोली.
एक साथ मिल खर्चे बढ़वा खेलें होली..
*
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​​
lil'


गुरुवार, 13 मार्च 2014

chhand salila: shiv chhand -sanjiv

छंद सलिला:
शिव (समानिका) छंद
 
संजीव   
*  
लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, ३ री, ६ वी, ९ वी मात्र लघु, मात्रा बाँट ३-३-३-२, चरणान्त लघु लघु गुरु (सगण), गुरु गुरु गुरु (मगण) या लघु लघु लघु  (नगण), तीव्र प्रवाह। 
लक्षण छंद:
शिव-शिवा रहें सदय, रूद्र जग करें अभय 
भक्ति भाव से नमन, माँ दया मिले समन 
(संकेत: रूद्र = ११ मात्रा, समन = सगण, मगण, नगण)
उदाहरण:
१. हम जहाँ रहें सनम, हो वहाँ न आँख नम
   कुछ न याद हो 'सलिल', जब समीप आप-हम
 
२. आज ना अतीत के, हार के  न जीत के
    आइये रचें विहँस, मीत! गीत प्रीत के
    नीत में अनीत में, रीत में कुरीत में
    भेद-भाव कर सकें, गीत में अगीत में
    
३. आप साथ हों सदा, मोहती रहे अदा 
    एक मैं नहीं रहूँ, आप भी रहें फ़िदा 
   
४. फिर चुनाव आ रहे, फिर उलूक गा रहे
    मतदाता आज फिर, हाय ठगे जा रहे 
    केर-बेर साथ हैं, मैल भरे हाथ हैं 
    झूठ करें वायदे, तोड़ें खुद कायदे 
    सत्ता की चाह है, आपस में डाह है 
    रीति-नीति भूलते, सपनों में झूलते
टीप: श्यामनारायण पाण्डेय ने अभिनव प्रयोग कर शिव छंद को केवल ९ वीं मात्रा लघु रखकर रचा है. इससे छंद की लय में कोई अंतर नहीं आया. तदनुसार प्रस्तुत है उदाहरण ४.


(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
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बुधवार, 12 मार्च 2014

chhand salila: bhav chhand -sanjiv


छंद सलिला:
भव छंद
संजीव  * लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु गुरु या गुरु

लक्षण छंद:
एकादश पग रखो,
भवसिंधु पार करो
चरण आदि मन चाहा, चरण अंत गुरु से हो

उदाहरण:
१. आशा का बीज बो, कोशिश से फसल लो
   श्रम सीकर नर्मदा, भव तारें वर्मदा  
 
२. सूर्य चन्द्र सितारा, सकल जगत निखारा
    भव को जब निहारा, खुद को भी बिसारा
    रूप-रंग सँवारा, असुंदर न गवारा
    सच जिसने बिसारा, रण न लड़ रण हारा
    
३. समय शिला पर लिखो, सबसे आगे दिखो 
    शब्द नये उकेरो, नव उजास बिखेरो 
   
४. नित्य हरि गुण गाओ, मन में शांति पाओ
    छन्दों में मन रमा, कष्टों को दो भुला
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
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मंगलवार, 11 मार्च 2014

holi haiku -sanjiv


हाइकु के रँग
संजीव
*
धरने पर
बैठा मुख्यमंत्री
आँखें चुराये
*
रंग-बिरंगे
नमो गुजरात को
रोज भुनाएं
*
ममो का मौन
अनकहनी कह
होली मनाये
*
झोपड़ी में जा
शहजादा लालू को
गले लगाये
*
नारी बेचारी
ममता की मारी है
ख्वाब सजाये
*
अन्ना हजारे
मुसीबत के मारे
खोजें सहारे
*
माया की काया
दे न किसी को कभी
थोड़ी भी छाया
*
बाल्टी का रंग
अम्मा को पड़े कम
करुणा दंग
*

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muktika: khuli aankh sapne -sanjiv

मुक्तिका:
खुली आँख सपने…
संजीव
*
खुली आँख सपने बुने जा रहे हैं
कहते खुदी खुद सुने जा रहे हैं
वतन की जिन्हें फ़िक्र बिलकुल नहीं है
संसद में वे ही चुने जा रहे हैं
दलतंत्र मलतंत्र है आजकल क्यों?
जनता को दल ही धुने जा रहे हैं
बजा बीन भैसों के सम्मुख मगन हो
खुश है कि कुछ तो सुने जा रहे हैं
निजी स्वार्थ ही साध्य सबका हुआ है
कमाने के गुर मिल गुने जा रहे हैं
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lupt hote lokgeet -dr. jenny shabnam


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लुप्त होते लोकगीत

डॉ. जेन्नी शबनम


हमारी लोक-संस्कृति हमेशा से हमारी परम्पराओं के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रही है| कुछ दशक पूर्व तक आम भारतीय इसकी कीमत भी समझते थे और इसको संजो कर रखने का तरीका भी जानते थे| लेकिन आज ये चोटिल है, आर्थिक उदारवाद से उपजे सांस्कृतिक संक्रमण ने सब कुछ जैसे ध्वस्त कर दिया है| हम नक़ल करने में माहिर हो चुके हैं, वहीं अपनी स्वस्थ परंपरा का निर्वहन करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं| आश्चर्य की बात है कि हर व्यक्ति यही कहता कि हमारी संस्कृति नष्ट हो गई है, उसे बचाना है, पाश्चात्य संस्कृति ने इसे ख़त्म कर दिया है| लेकिन शायद लोक परम्पराओं के इस पराभव में वो ख़ुद शामिल है| कौन है जो हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है? हमारी हीं संस्कृति क्यों प्रभावित हो रही दूसरे देशों की क्यों नहीं? आज भी दुनिया के तमाम देश अपनी लोक परम्पराओं को जतन से संजोये रखे हैं| दोष हर कोई दे रहा लेकिन इसके बचाव में कोई कदम नहीं, बस दोष देकर कर्त्तव्य की इतिश्री|


लोक संस्कृति के जिस हिस्से ने सर्वाधिक संक्रमण झेला है वो है लोकगीत| आज लोकगीत गाँव, टोलों, कस्बों से गायब हो रहे हैं| कान तरस जाते हैं नानी दादी से सुने लोकगीतों को दोबारा सुनने के लिए|
हमारे यहाँ हर त्यौहार और परंपरा के अनुरूप लोकगीत रहे हैं और आज भी ग्रामीण और छोटे शहरी क्षेत्रों में रहने वाले बड़े बुज़ुर्गों में इनकी अहमियत बनी हुई है| विवाह के अवसर पर राम-सीता और शिव-पार्वती के विवाह-गीत के साथ हीं हर विधि के लिए अलग अलग गीत, शिशु जन्म पर सोहर, बिरहा, कजरी, सामा-चकवा, तीज, भाई दूज, होली पर होरी, छठ पर्व पर छठी मइया के गीत, रोपाई बिनाई के गीत, धान कूटने के गीत, गंगा स्नान के गीत आदि सुनने को मिलते थे| जीवन से जुड़े हर शुभ अवसर, महत्वपूर्ण अवसर के साथ हीं रोज़मर्रा के कार्य केलिए भी लोक गीत रचे गए हैं|


एक प्यारे से गीत के बोल याद आ रहे हैं जो अपने गाँव में बचपन में सुनी हूँ…
चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी,                      
पुआ के बड़ाई अपन फुआ से कहिय,
ललन सुखदायी,
चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी,
कचौड़ी के बड़ाई अपन भउजी से कहिय,
ललन सुखदायी …
खाना पर बना ये गीत बड़ा मज़ा आता था सुनने में| इसमें सभी नातों और खाने को जोड़ कर गाते हैं, जिसमें दुल्हा अपने ससुराल आया हुआ है और उसे कहा जा रहा कि यहाँ जो कुछ भी स्वागत में खाने को मिला वो सभी इतना स्वादिष्ट था कि अपने घर जाकर अपने सभी नातों से यहाँ के खाने की बड़ाई करना|


एक और गीत है जिसे भाई दूज के अवसर पर गाते हैं| इसमें पहले तो बहनें अपने भाई को श्राप देकर मार देती हैं फिर जीभ में काँटा चुभा कर स्वयं को कष्ट देती हैं कि इसी मुंह से भाई को श्राप दिया और फिर भाई की लम्बी आयु के लिये  आशीष देती हैं…
जीय जीय ( भाई का नाम) भईया लाख बारिस
(बहन का नाम लेकर) बहिनी देलीन आसीस हे…
मुझे याद है गाँव में आस पास की सभी औरतें इकठ्ठी हो जाती थीं और सभी मिलकर एक एक कर अपने अपने भाइयों केलिए गाती थीं| मैं तो कभी ये की नहीं, लेकिन मेरे बदले मेरी मईयाँ (बड़ी चाची) शुरू से करती थी| अब तो सब विस्मृत हो चुका, मेरे ज़ेहन से भी और शायद इस लोक गीत को गाने वाले लोगों की पीढ़ी के ज़ेहन से भी|

पारंपरिक लोकगीत न सिर्फ अपनी पहचान खो रहा है बल्कि मौज़ूदा पीढ़ी इसके सौंदर्य को भी भूल रही है| हर प्रथा, परंपरा और रीति-रिवाज के अनुसार लोक गीत होता है, और उस अवसर पर गाया जाने वाला गीत न सिर्फ महिलाओं को बल्कि पुरुष को भी हर्षित और रोमांचित करता रहा है| लेकिन जिस तरह किसी त्योहार या प्रथा का पारंपरिक स्वरुप बिगड़ चुका है उसी तरह लोकगीत कह कर बेचे जाने वाले नए उत्पादों में न तो लोकरंग नज़र आता है न गीत| जहाँ सिर्फ लोक गीत होते थे अब उनकी जगह फ़िल्मी धुन पर बने अश्लील गीत ले चुके हैं| अब सरस्वती पूजा हो या दुर्गा पूजा, पंडाल में सिर्फ फ़िल्मी गीत हीं बजते हैं| होली पर गाये जाने वाला होरी तो अब सिर्फ देहातों तक सिमट चूका है| गाँव में भी रोपनी या कटनी के समय अब गीत नहीं गूंजते| सोहर, विरही, झूमर, आदि महज़ टी.वी चैनल के क्षेत्रीय कार्यक्रम में दीखता है| विवाह हो या शिशु जन्म या फिर कोई अन्य ख़ुशी का अवसर फ़िल्मी गीत और डी.जे का हल्ला गूंजता है| यहाँ तक कि छठ पूजा जो कि बिहार का सबसे बड़ा पर्व माना जाता, उसमें भी लाउड स्पीकर पर फ़िल्मी गाना बजता है| यूँ औरतें अब भी छठी मइया का हीं पारंपरिक गीत गातीं हैं| अब तो आलम ये है कि भजन भी अब किसी प्रचलित फ़िल्मी गाना की धुन पर लिखा जाने लगा है| किसी के पास इतना समय नहीं कि सम्मिलित होकर लोकगीत गायें| विवाह भी जैसे निपटाने की बात हो गई है| पूजा-पाठ हो या फिर त्योहार, करते आ रहे इसलिए करना है और जिसका जितना बड़ा पंडाल, जितना ज्यादा खर्च वो सबसे प्रसिद्द| लोक गीतों का वक़्त अब टी.वी ने ले लिया है| गाँव गाँव में टी.वी पहुँच चुका है, भले हीं कम समय केलिए बिजली रहे पर जितनी देर रहे लोग एक साथ होकर भी साथ नहीं होते, उनकी सोच पर टी.वी हावी रहता है| अब तो कुछ आदिवासी क्षेत्र को छोड़ दें तो कहीं भी हमारी पुरानी परंपरा नहीं बची है न पारंपरिक लोकगीत| अब अगर जो बात की जाए कि कोई लोकगीत सुनाओ तो बस भोजपुरी अश्लील गाना सुना दिया जाता, जैसे कि ये लोकगीत का पर्याय बन चुका हो|न मालूम लोकगीत का पुनरागमन होगा कि नहीं, लेकिन पूर्वी भारत में लोक गीतों का लुप्त होना इस सदी का सबसे बड़ा सांस्कृतिक क्षय है क्योंकि परिवार और समाज की टूटन कहीं न कहीं इससे हीं प्रभावित है| गाँव से पलायन, शहरीकरण और औद्द्योगीकरण इस सांस्कृतिक ह्रास का बहुत बड़ा कारण है| हम किसी संस्कृति को दोष नहीं दे सकते कि उसके प्रभाव से हमारी संस्कृति नष्ट हुई है| बल्कि हम स्वयं इन सबको छोड़ रहे और जिंदगी को जीने केलिए नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धा में झोंक रहे हैं| पारंपरिक लोकगीत गाने वाले अब बहुत कम लोग बचे हैं और आज की पीढ़ी सीखना भी नहीं चाहती| ऐसे में लोक गीत का भविष्य क्या होगा? क्या यूँ हीं अपनी पहचान खोकर कहीं किसी कोने में पड़े पड़े अपने हीं लिए गाये शोक गीत?
आभार: साँझा संसार
************************************

samkalik sahitya men mahiya -sanjiv

माहिया सलिला:
समकालिक साहित्य में माहिया
संजीव
*
माहिया पंजाब की साहित्यिक विधा है। माहिया का शाब्दिक अर्थ प्रेमिका (beloved)] है. ग़ज़ल की तरह माहिया की विषयवस्तु (theme) हिज्र-[-वियोग ही है परन्तु anya vishayon par  माहिया कहना मना नहीं है । पंजाबी का एक लोकप्रिय माहिया देखें जिसे स्व. जगजीत सिंह ने गाया है:
"कोठे ते आ माहिया 
मिलणा ता मिल आ के
नहीं ता ख़स्मा नूँ खा माहिया"

उर्दू में माहिया-लेखन का श्री गणेश उर्दू शायर हिम्मतराय शर्मा ने फ़िल्म ’ख़ामोशी’ के लिये १९३६ में माहिया लिखकर किया।  
इक बार तो मिल साजन
आ कर देख ज़रा
टूटा हुआ दिल साजन
१९५३ में क़तील शिफ़ाई ने पाकिस्तानी फ़िल्म ’हसरत’ के लिये माहिए लिखे। 

भारत में क़मर जलालाबादी ने 1958 में फ़िल्म ’फ़ागुन’ के लिये माहिए लिखे जिन्हें मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले की आवाज़ों में ओ. पी. नय्यर के संगीत के साथ रिकॉर्डकर भारत भूषण और मधुबाला पर फिल्मांकन किया गया.

तुम रूठ के मत जाना
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना

यूँ हो गया बेगाना
तेरा मेरा क्या रिश्ता
ये तू ने नहीं जाना
कुछ और चलचित्रों में माहियों का  किन्तु क्रमशः यह विधा लुप्तप्राय हो गयी। लम्बे अंतराल के बाद हिंदी और उर्दू में लगभग एक साथ माहिये को फिर अपनाया गया. जर्मनी प्रवासी] पाकिस्तानी शायर हैदर क़ुरेशी ने न केवल खुद माहिये लिखे अपितु अन्यों को भी प्रेरित किया।   
फूलों को पीरोने में
सूई तो चुभनी थी
इस हार के होने में
मुरादाबाद, उ0प्र0 निवासी प्रसिद्ध उर्दू शायर डा0 आरिफ़ हसन खां ने अपने माहिया संग्रह ’ख़्वाबों की किरचें’में ११७ माहिया प्रकाशित किये हैं।
एक माहिया हरगानवी साहिब का है
रंगीन कहानी दो
अपने लहू से तुम
गुलशन को जवानी दो
माहिये कहने में महिला शायर भी पीछे नहीं हैं
आँगन में खिले बूटे
ऐसे मौसम में 
वो हम से रहे रूठे
-सुरैया शहाब

खिड़की में चन्दा है
इश्क़ नहीं आसां
ये रुह का फ़न्दा है
--बशरा रहमान
 
माहिये का रचना विधान:

सामान्यतः माहिये की पहली और तीसरी पंक्ति १२-१३ मात्राओं व समान तुकांत की तथा दूसरी पंक्ति २ कम मात्राओं व भिन्न तुकांत की होती है. कुछ महियाकारों ने तीनों पंक्तियों का समान पदभार रखते हुए माहिया रचे हैं. डॉ. आरिफ हसन खां के अनुसार 'माहिया का दुरुस्त वज़्न पहले और तीसरे मिसरे के लिये फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलान्] मुतदारिक मख़बून /मख़बून मज़ाल] और दूसरे मिसरे के लिए फ़ेलु .. फ़ऊल्.. फ़अल्/फ़ऊल् [मुतक़ारिब् असरम् मक़्बूज़् महज़ूफ़् /मक़सूर्] है। इन दोनों औजान [वज़्नों] पर बित्तरतीब [क्रमश:] तकसीन और तख़नीक़ के अमल हैं। मुख़तलिफ़ मुतबादिल औज़ान [वज़न बदल-बदल कर विभिन्न वज़्न के रुक्न] हासिल किये जा सकते हैं. [तफ़सील के लिये मुलाहिज़ा कीजिए राकिम उस्सतूर (इन पंक्तियों के लेखक) की किताब ’मेराज़-उल-अरूज़’ का बाब (अध्याय) माहिए के औज़ान]।'

उर्दू शायरी में माहिया के बुनियादी औज़ान 'फ़एलुन् फ़एलुन् फ़एलुन्   22   22  22, फ़एलुन् फ़एलुन् फ़ा 22 22 2, फ़एलुन् फ़एलुन् फ़एलुन्  22   22  22 हैं.

डा0 आरिफ़ हसन खां ने अपनी उर्दू किताब ’मेराज़-उल-अरूज़;[ में माहिया की पदभार व्यवस्था पर विस्तार से लिखा है। मूल पदभार पर पहली और तीसरी पंक्ति हेतु १६ औज़ान तथा दूसरी पंक्ति हेतु ८ औज़ान  उसी प्रकार हो सकते हैं जैसे रुबाई के लिए 24-औज़ान मुक़र्रर किये गये हैं।
 
शायर आरिफ खां के कुछ और माहिया देखें:

ऎ काश न ये टूटें
दिल में चुभती हैं
इन ख़्वाबों की किरचें
--------

मिट्टी के खिलौने थे
पल में टूट गए
क्या ख़्वाब सलोने थे
-------------------
आकाश को छू लेता
साथ जो तू देती
क़िस्मत भी बदल देता
-----------------

पिघलेंगे ये पत्थर
इन पे अगर गुज़रे
जो गुज़री है मुझ पर
-----------------

वो दिलबर कैसा है
मुझ से बिछुड़ कर भी
मेरे दिल में रहता है
 

 
 

सोमवार, 10 मार्च 2014

urdu shayari men kahiya nigari -anand pathak

 
उर्दू शायरी में ’माहिया निगारी’[माहिया लेखन]
आनन्द पाठक,जयपुर 

उर्दू शायरी में कई विधायें प्रचलित हैं जैसे क़सीदा, मसनवी, मुसम्मत, क़ता, रुबाई,तरजीहबन्द,तरक़ीबबन्द मुस्तज़ाद, फ़र्द, मर्सिया, हम्द,ना’त,मन्क़बत,ग़ज़ल,नज़्म वगैरह। इन सबमें ज़्यादा लोकप्रिय विधा ग़ज़ल ही है । इन सब के अपनी अरूज़ी इस्तलाहत [परिभाषायें] है, अपने असूल है, अपनी क़वायद हैं। ना’त के साथ तो सबसे ख़ास बात ये है कि ना’त नंगे सर नहीं पढ़ते  ।ना’त पढ़ते वक़्त, शायर सर पर रुमाल, कपड़ा,तौलिया या टोपी रख कर पढ़ते हैं। यह बड़ी मुक़द्दस [पवित्र] विधा है।
परन्तु हाल के कुछ दशकों से उर्दू शायरी में 2-अन्य विधायें बड़ी तेजी से प्रयोग में आ रहीं हैं- माहिया निगारी और हाईकू। जापानी काव्य विधा हाईकू का प्रयोग ’हिन्दी’ और उर्दू दोनों में समान रूप से किया जा रहा है। अभी ये शैशवास्था में हैं। माहिया उर्दू शायरी में बड़ी तेजी से मक़बूल हो रही है।
’माहिया’ वैसे तो पंजाबी लोकगीत में सदियों  से प्रचलित है और काफी लोकप्रिय भी है जैसे हमारे पूर्वांचल में ’कजरी’ ’चैता’ लोकगीत हैं । माहिया को उर्दू शायरी की  विधा बनाने में पाकिस्तान के शायर [जो आजकल जर्मनी में प्रवासी हैं] हैदर क़ुरेशी साहब का काफी योगदान है। माहिया का शाब्दिक अर्थ ही होता प्रेमिका [beloved ] और इसकी [theme] ग़ज़ल की तरह हिज्र [वियोग] ही है परन्तु आप चाहे तो और theme पे माहिया कह सकते है, मनाही नहीं है । बहुत से गायकों ने और पंजाब के आंचलिक गायकों ने माहिया गाया है। दृष्टान्त के लिए एक [link] लगा रहा हूँ जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने गाया है जो पंजाबी में बहुत ही मशहूर और लोकप्रिय माहिया है http://www.youtube.com/watch?v=5CV6w01O95Q
   
"कोठे ते आ माहिया 
मिलणा ता मिल आ के
नहीं ता ख़स्मा नूँ खा माहिया"

आपने हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन (1958,भारत भूषण और मधुबाला,संगीत ओ. पी. नैय्यर) का वो गीत ज़रूर सुना होगा जिसे मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया है:

"तुम रूठ के मत जाना
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना

यूँ हो गया बेगाना
तेरा मेरा क्या रिश्ता
ये तू ने नहीं जाना

यह माहिया है ।
दरअस्ल माहिया 3-मिसरों की उर्दू शायरी में एक विधा है जिसमें पहला मिसरा और तीसरा मिसरा हम क़ाफ़िया [और हमवज़्न भी] होते हैं और दूसरा मिसरा हमकाफ़िया हो ज़रूरी नहीं । दूसरे मिसरे में 2-मात्रा [एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़] कम होता है।

डा0 आरिफ़ हसन खां जो उर्दू के मुस्तनद अरूज़ी और शायर हैं जो मुरादाबाद [उ0प्र0] में क़याम फ़र्माते हैं और उर्दू साहित्य जगत और शैक्षिक जगत में एक नामाचीन हस्ती हैं. आपने उर्दू में दर्जनों किताबें लिखीं और अवार्ड प्राप्त किए हैं।आप वर्तमान में हिन्दू कालेज मुरादाबाद में असोशियेट प्रोफ़ेसर हैं [शायद मेरी उर्दू आशनाई देखते हुए] बतौर-ए-सौगात आप ने अपनी एक किताब ’ख़्वाबों की किरचें’ [माहिया संग्रह] की एक लेखकीय प्रति बड़ी मुहब्बत से मुझें भेंट में किया है 

यह किताब उर्दू में है और इस में 117 माहिया संकलित है। अपने हिन्दीदां दोस्तों की सुविधा के लिए इस किताब को मैंने बड़े शिद्दत-ओ- शौक़ से हिन्दी में ’लिप्यन्तरण’[Transliteration] किया है और डा0 साहब से नज़र-ए-सानी भी करा लिया है। आप ने बड़ी ख़लूस-ओ-मुहब्बत से इस बात की इजाज़त दे दी है कि हिन्दी के पाठकों के लिए इसे मैं अपने ब्लाग [www.hindi-se-urdu.blogspot.in] पर सिलसिलेवार लगा सकता हूं
माहिया के बारे में चन्द हक़ायक़ उन्हीं किताब से [जो उन्होने तम्हीद [प्राक्कथन/भूमिका]के तौर पर लिखा है हू-ब-हू दर्ज-ए-ज़ैल [निम्न लिखित] है

चन्द हक़ायक़ [कुछ तथ्य]

माहिया दरअस्ल पंजाब की अवामी शे’री सिन्फ़ [साहित्यिक विधा] है।उर्दू में इसे मुतआर्रिफ़ [परिचित] कराने का सेहरा [श्रेय]  सरज़मीन पंजाब के एक शायर हिम्मत राय शर्मा के सर है जिन्होने फ़िल्म ’ख़ामोशी’ के लिए 1936 में माहिया लिख कर उर्दू में माहिया निगारी का आग़ाज़ किया।

इस के तक़रीबन 17 साल बाद क़तील शिफ़ाई ने पाकिस्तानी फ़िल्म ’हसरत’ के लिए 1953 में माहिए लिखे। क़मर जलालाबादी ने 1958 में फ़िल्म ’फ़ागुन’ के लिए माहिए लिखे। इस के बाद चन्द और फ़िल्मों के लिए भी शायरों ने माहिए लिखे जो काफी मक़बूल[लोकप्रिय] हुए। लेकिन माहिए लिखे जाने का ये सिलसिला चन्द फ़िल्मों के बाद मुनक़तअ [ख़त्म] हो गया और बीसवीं सदी की आठवीं औए नौवीं दहाई [दशक] में माहिया शो’अरा [शायरों] की अदम तवज्जही [उपेक्षा] का शिकार रहा । लेकिन सदी की आख़िरी दहाई माहिया के हक़ में बड़ी साज़गार साबित हुई और एक बार फिर शो’अरा ने माहियों की तरफ़ न सिर्फ़ तवज्जो दी बल्कि माहिया निगारी एक तहरीक [आन्दोलन] की शकल में नमूदार [प्रगट] हुई। गुज़िश्ता [पिछले] पाँच-छ: साल की मुद्दत में शायरों की एक बड़ी तादाद इस सिन्फ़ की तरफ़ मुतवज्ज: [आकर्षित] हुई है। माहिया निगारी की इस तहरीक में जर्मनी में मुक़ीम [प्रवासी] पाकिस्तानी शायर हैदर क़ुरेशी की कोशिशों को बहुत दख़ल है और बिला शुबह [नि:सन्देह] बहुत से शायर इन की तहरीक पर ही इस सिन्फ़ की तरफ़ मुतवज्ज हुए। वजह जो भी बहरहाल गुज़िश्ता 5-6 साल में मुख़तलिफ़ [विभिन्न]अदबी रिसाईल ने [साहित्यिक पत्रिकाओं ने] माहिये पर मज़ामीन [कई आलेख] शायअ [प्रकाशित]किए। कुछ ने माहिया नम्बर [विशेषांक] और माहिए पर गोशे [स्तम्भ] निकाले और माहिए की शमूलियत [शामिल करना] तो अब तक़रीबन हर एक अदबी रिसाले में होती ही है।

माहिये के सिलसिले में एक बहस अभी नाक़िदीन[आलोचकों] और शो’अरा में जारी है कि इस का दुरुस्त वज़न क्या है? बाज़ [कुछ लोगों] के नज़दीक और अक्सरीयत [बहुत लोगों] का यही ख़याल है कि माहिया का पहला और तीसरा मिसरा हम वज़न [और हम क़ाफ़िया भी] होते हैं जबकि दूसरा मिसरा इन के मुक़ाबिले में एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है। लेकिन बाज़ के नज़दीक तीनों मिसरों का वज़न बराबर होता है। बहरहाल अक्सरीयत के ख़याल को तर्जीह [प्रधानता] देते हुए माहिया के का दुरुस्त वज़्न पहले और तीसरे मिसरे के लिए फ़एलुन्,फ़एलुन्, फ़एलुन् /फ़एलान्] मुतदारिक मख़बून /मख़बून मज़ाल] और दूसरे मिसरे के लिए फ़ेलु .. फ़ऊल्.. फ़अल्/फ़ऊल् [मुतक़ारिब् असरम् मक़्बूज़् महज़ूफ़् /मक़सूर्] है। इन दोनों औजान [वज़्नों] पर बित्तरतीब [क्रमश:] तकसीन और तख़नीक़ के अमल हैं। मुख़तलिफ़ मुतबादिल औज़ान [वज़न बदल बदल कर विभिन्न वज़्न के रुक्न] हासिल किए जा सकते हैं [तफ़सील [विवेचना ] के लिए मुलाहिज़ा कीजिए राकिम उस्सतूर [इन पंक्तियों के लेखक] की किताब ’ मेराज़-उल-अरूज़’ का बाब माहिए के औज़ान]। अकसर-ओ-बेशतर[प्राय:] शायरों ने इन औज़ान में ही माहिए कहे हैं

राकिम-उस्सतूर को माहिए कहने का ख़याल पहली बार उस वक़्त आया जब ’तीर-ए-नीमकश’ में तबसिरे [समीक्षा] के लिए बिरादर गिरामी डा0 मनाज़िर आशिक़ हरगानवी ने अपनी मुरत्तबकर्दा[सम्पादित की हुई] किताब ’रिमझिम रिमझिम’ इरसाल की। इस पर तबसिरे के दौरान दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि चन्द माहिये लिखे जाएं। चुनांचे [अत:] चन्द माहिए लिखे और ’तीर-ए-नीमकश’ अप्रैल 1997 के शुमारे [अंक] में शामिल किए।फिर उन्हीं की फ़रमाइश पर ’कोहसार’ के लिए चन्द माहिए लिखे।

इस वज़्न में ऐसी दिलकशी है कि राक़िम-उस्सतूर[इन पंक्तियों के लेखक] के नज़दीक एक मख़सूस [ख़ास] क़िस्म के जज़्बात की तर्जुमानी के लिए इस से ज़ियादा मौज़ूँ [उचित] कोई दूसरी हैयत नहीं। बहरहाल गुज़िश्ता दिनों जो चन्द माहिए मअरज़े वजूद में आए उन्हीं मे से कुछ नज़र-ए-क़ारईन [पाठकों के सामने] हैं। ख़ाशाक [घास-फूस] के इस ढेर में शायद एक-आध ऐसी तख़्लीक़ [रचना] भी हो जो क़ारईन [पाठकों] के दिल को छू सके।

आरिफ़ हसन ख़ान
मुरादाबाद

उर्दू शायरी में माहिया के लिए निम्न बुनियादी औज़ान मुकर्रर किए गये हैं

फ़एलुन् ,फ़एलुन् .फ़एलुन्   [22   22  22 
फ़एलुन् ,फ़एलुन् .फ़ा     [22 22 2]
फ़एलुन् ,फ़एलुन् .फ़एलुन् [22   22  22 ]
डा0 आरिफ़ हसन खां साहब ने अपनी किताब ’मेराज़-उल-अरूज़;[उर्दू में ] में माहिया के निज़ाम-ए-औज़ान पर काफी तफ़सील से लिखा है बुनियादी वज़न पर तख़्नीक़ के अमल से पहले और तीसरे मिसरे [हमक़ाफ़िया और हमवज़न भी] के लिए 16 औज़ान और दूसरे मिसरे के लिए 8 औज़ान मुक़र्रर किए जा सकते हैं ठीक वैसे ही जैसे रुबाई के लिए 24-औज़ान मुक़र्रर किए गये हैं।

यह विधा उर्दू शायरी में इतनी तेजी से मक़बूल हो रही है कि अब तो कई शायर इस पर तबाआज़्माई [कोशिश] कर रहे हैं । नमूने के तौर पे कुछ माहिया दीगर शायरों के लगा रहा हूँ जिससे आप लोग भी आनन्द उठायें कहा जाता है कि सबसे पहला माहिया, हिम्मत राय शर्मा जी ने एक फ़िल्म के लिए 1936 में लिखा था

इक बार तो मिल साजन
आ कर देख ज़रा
टूटा हुआ दिल साजन
---------
जनाब हैदर क़ुरेशी साहब का [जिन्हें उर्दू शायरी में माहिया के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है] का एक माहिया है

फूलों को पीरोने में
सूई तो चुभनी थी
इस हार के होने में
--------
एक माहिया हरगानवी साहिब का है
रंगीन कहानी दो
अपने लहू से तुम
गुलशन को जवानी दो

यहाँ यह कहना ग़ैर मुनासिब न होगा कि माहिया निगारी में शायरात [महिला शायरों]ने भी तबाआज़्माई की है 1-2 उदाहरण देना चाहूंगा

आँगन में खिले बूटे
ऐसे मौसम में 
वो हम से रहे रूठे
-सुरैया शहाब

खिड़की में चन्दा है
इश्क़ नहीं आसां
ये रुह का फ़न्दा है
--बशरा रहमान

मंच के पाठकों के लिए आरिफ़ खां साहब की किताब[ख़्वाबों की किरचें]  से नमूने के तौर पर चन्द माहिया  लगा रहा हूँ जिससे आप लोग भी लुत्फ़-अन्दोज़ हों
1
ऎ काश न ये टूटें
दिल में चुभती हैं
इन ख़्वाबों की किरचें
--------
2
मिट्टी के खिलौने थे
पल में टूट गए
क्या ख़्वाब सलोने थे
-------------------
3
आकाश को छू लेता
साथ जो तू देती
क़िस्मत भी बदल देता
-----------------
4
पिघलेंगे ये पत्थर
इन पे अगर गुज़रे
जो गुज़री है मुझ पर
-----------------
5
वो दिलबर कैसा है
मुझ से बिछुड़ कर भी
मेरे दिल में रहता है

नोट-किताब के अन्य माहिए ब्लाग www.hindi-se-urdu.blogspot.in हैं।

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गुरुवार, 6 मार्च 2014

chhand salila: ahir chhand -sanjiv

छंद सलिला:
अहीर छंद
संजीव 
* लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु लघु (जगण)

लक्षण छंद:

चाहे रांझ अहीर, बाला पाये हीर 

लघु गुरु लघु चरणांत, संग रहे हो शांत  
पूजें ग्यारह रूद्र, कोशिश लँघे समुद्र 
जल-थल-नभ में घूम, लक्ष्य सके पद चूम
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर?
   आत्म-ग्वाल तज धेनु, मन प्रयास हो वेणु 
   प्रकृति-पुरुष सम संग, रचे सृष्टि कर दंग
   ग्यारह हों जब एक, मानो जगा विवेक      

२. करो संग मिल काम, तब ही होगा नाम
    भले विधाता वाम, रखना साहस थाम
    सुबह दोपहर शाम, रचना छंद ललाम
    कर्म करें निष्काम, सहज गहें परिणाम
    
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति 
    जनगण-शक्ति समुद्र, दे अनंत अनुरक्ति
    लघु-गुरु-लघु रह शांत, रच दें छंद अहीर
    रखता ऊंचा मअ खाली हाथ फ़क़ीर

(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी) 
    ------------- 

muktak salila : sanjiv

मुक्तक सलिला
संजीव
*
नया हो या पुराना कुछ सुहाना ढूँढता हूँ मैं
कहीं भी हो ख़ुशी का ही खज़ाना ढूँढता हूँ मैं
निगाहों को न भटकाओ कहा था शिष्य से गुरुने-
मिलाऊँ जिससे हँस नज़रें निशाना ढूँढता हूँ मैं
*
चुना जबसे गया मौके भुनाना सीखता हूँ मैं
देखकर आईना खुद पर हमेशा रीझता हूँ मैं
ये संसद है अखाडा चाहो तो मण्डी इसे मानो-
गले मिलता कभी मैं, कभी लड़ खम ठोंकता हूँ मैं
*
खड़ा मैदान में मारा शतक या शून्य पर आउट
पकड़ लूँ कठिन, छोड़ूँ सरल यारों कैच हो शाउट
तेजकर गेंद घपलों की, घोटालों की करी गुगली
ये  नूरा कुश्ती है प्यारे न नोटों से नज़र फिसली
*

बुधवार, 5 मार्च 2014

लो फिर लग गई आचार संहिता

व्यंग
लो फिर लग गई आचार संहिता
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म प्र ४८२००८
मो ९४२५४८४४५२


        लो फिर लग गई आचार संहिता . अब महीने दो महीने सारे सरकारी काम काज  नियम कायदे से  होंगें . पूरी छान बीन के बाद . नेताओ की सिफारिश नही चलेगी . वही होगा जो कानून बोलता है , जो होना चाहिये  . अब प्रशासन की तूती बोलेगी .  जब तक आचार संहिता लगी रहेगी  सरकारी तंत्र , लोकतंत्र पर भारी पड़ेगा .बाबू साहबों  के पास लोगो के जरूरी  काम काज टालने के लिये आचार संहिता लगे होने का  आदर्श बहाना होगा  . सरकार की उपलब्धियो के गुणगान करते विज्ञापन और विज्ञप्तियां समाचारों में नही दिखेंगी . अखबारो से सरकारी निविदाओ  के विज्ञापन गायब हो जायेंगे . सरकारी कार्यालय सामान्य कामकाज छोड़कर चुनाव की व्यवस्था में लग जायेंगे .
          मंत्री जी का निरंकुश मंत्रित्व और राजनीतिज्ञो के छर्रो का बेलगाम प्रभुत्व आचार संहिता के नियमो उपनियमो और उपनियमो की कंडिकाओ की भाषा  में उलझा रहेगा . प्रशासन के प्रोटोकाल अधिकारी और पोलिस की सायरन बजाती मंत्री जी की एस्कार्टिंग करती और फालोअप में लगी गाड़ियो को थोड़ा आराम मिलेगा .  मन मसोसते रह जायेंगे लोकशाही के मसीहे , लाल बत्तियो की गाड़ियां खड़ी रह जायेंगी .  शिलान्यास और उद्घाटनों पर विराम लग जायेगा . सरकारी डाक बंगले में रुकने , खाना खाने पर मंत्री जी तक बिल भरेंगे . मंत्री जी अपने भाषणो में विपक्ष को कितना भी कोस लें पर लोक लुभावन घोषणायें नही कर सकेंगे .
        सरकारी कर्मचारी लोकशाही के पंचवर्षीय चुनावी त्यौहार की तैयारियो में व्यस्त हो जायेंगे . कर्मचारियो की छुट्टियां रद्द हो जायेंगी .वोट कैंपेन चलाये जायेंगे .  चुनाव प्रशिक्षण की क्लासेज लगेंगी .चुनावी कार्यो से बचने के लिये प्रभावशाली कर्मचारी जुगाड़ लगाते नजर आयेंगे .देश के अंतिम नागरिक को भी मतदान करने की सुविधा जुटाने की पूरी व्यवस्था प्रशासन करेगा .  रामभरोसे जो इस देश का अंतिम नागरिक है , उसके वोट को कोई अनैतिक तरीको से प्रभावित न कर सके , इसके पूरे इंतजाम किये जायेंगे . इसके लिये तकनीक का भी भरपूर उपयोग किया जायेगा , वीडियो कैमरे लिये निरीक्षण दल चुनावी रैलियो की रिकार्डिग करते नजर आयेंगे . अखबारो से चुनावी विज्ञापनो और खबरो की कतरनें काट कर  पेड न्यूज के एंगिल से उनकी समीक्षा की जायेगी राजनैतिक पार्टियो और चुनावी उम्मीदवारो के खर्च का हिसाब किताब रखा जायेगा . पोलिस दल शहर में आती जाती गाड़ियो की चैकिंग करेगा कि कहीं हथियार , शराब , काला धन तो चुनावो को प्रभावित करने के लिये नही लाया ले जाया रहा है .मतलब सब कुछ चुस्त दुरुस्त नजर आयेगा . ढ़ील बरतने वाले कर्मचारी पर प्रशासन की गाज गिरेगी . उच्चाधिकारी पर्यवेक्षक बन कर दौरे करेंगे .सर्वेक्षण  रिपोर्ट देंगे . चुनाव आयोग तटस्थ चुनाव संपन्न करवा सकने के हर संभव यत्न में निरत रहेगा . आचार संहिता के प्रभावो की यह छोटी सी झलक है .
         केजरीवाल जी को उनके लक्ष्य के लिये हम आदर्श आचार संहिता का नुस्खा बताना चाहते हैं . व्यर्थ में राहुल , मोदी , या अंबानी सबको कोसने की अपेक्षा उन्हें यह मांग करनी चाहिये कि देश में सदा आचार संहिता ही लगी रहे , अपने आप सब कुछ वैसा ही चलेगा जैसा वे चाहते हैं .  प्रशासन मुस्तैद रहेगा और मंत्री महत्वहीन रहेंगें तो भ्रष्टाचार नही होगा .  बेवजह के निर्माण कार्य नही होंगे तो अधिकारी कर्मचारियो को  रिश्वत का प्रश्न ही नही रहेगा . आम लोगो का क्या है उनके काम तो किसी तरह चलते  ही रहते हैं धीरे धीरे , केजरीवाल मुख्यमंत्री थे तब भी और जब नही हैं तब भी , लोग जी ही रहे हैं . मुफ्त पानी मिले ना मिले , बिजली का पूरा बिल देना पड़े या आधा , आम आदमी किसी तरह एडजस्ट करके जी ही लेता है , यही उसकी विशेषता है .
        कोई आम आदमी को विकास के सपने दिखाता है , कोई यह बताता है कि पिछले दस सालो में कितने एयरपोर्ट बनाये गये और कितने एटीएम लगाये गये हैं . कोई यह गिनाता है कि उन्ही दस सालो में कितने बड़े बड़े भ्रष्टाचार हुये , या मंहगाई कितनी बढ़ी है . पर आम आदमी जानता है कि यह सब कुछ , उससे उसका वोट पाने के लिये अलापा जा रहा राग है .  आम आदमी  ही लगान देता रहा है , राजाओ के समय से . अब वही आम व्यक्ति ही तरह तरह के टैक्स  दे रहा है , इनकम टैक्स , सर्विस टैक्स , प्रोफेशनल टैक्स ,और जाने क्या क्या , प्रत्यक्ष कर , अप्रत्यक्ष कर . जो ये टैक्स चुराने का दुस्साहस कर पा रहा है वही अंबानी बन पा रहा है .
         जो आम आदमी को सपने दिखा पाने में सफल होता है वही शासक बन पाता है . परिवर्तन का सपना , विकास का सपना , घर का सपना , नौकरी का सपना , भांति भांति के सपनो के पैकेज राजनैतिक दलो के घोषणा पत्रो में आदर्श आचार संहिता के बावजूद भी  चिकने कागज पर रंगीन अक्षरो में सचित्र छप ही रहे हैं और बंट भी रहे हैं . हर कोई खुद को आम आदमी के ज्यादा से ज्यादा पास दिखाने के प्रयत्न में है . कोई खुद को चाय वाला बता रहा है तो कोई किसी गरीब की झोपड़ी में जाकर रात बिता रहा है , कोई स्वयं को पार्टी के रूप में ही आम आदमी  रजिस्टर्ड करवा रहा है . पिछले चुनावो के रिकार्डो आधार पर कहा जा सकता है कि आदर्श आचार संहिता का परिपालन होते हुये , भारी मात्रा में पोलिस बल व अर्ध सैनिक बलो की तैनाती के साथ  इन समवेत प्रयासो से दो तीन चरणो में चुनाव तथाकथित रूप से शांति पूर्ण ढ़ंग से सुसंम्पन्न हो ही जायेंगे . विश्व में भारतीय लोकतंत्र एक बार फिर से सबसे बड़ी डेमोक्रेसी के रूप में स्थापित हो  जायेगा . कोई भी सरकार बने अपनी तो बस एक ही मांग है कि शासन प्रशासन की चुस्ती केवल आदर्श आचार संहिता के समय भर न हो बल्कि हमेशा ही आदर्श स्थापित किये जावे , मंत्री जी केवल आदर्श आचार संहिता के समय डाक बंगले के बिल न देवें हमेशा ही देते रहें . राजनैतिक प्रश्रय से ३ के १३ बनाने की प्रवृत्ति  पर विराम लगे ,वोट के लिये धर्म और जाति के कंधे न लिये जावें , और आम जनता और  लोकतंत्र इतना सशक्त हो की इसकी रक्षा के लिये पोलिस बल की और आचार संहिता की आवश्यकता ही न हो .

मंगलवार, 4 मार्च 2014

akshar gyan:

अक्षर ज्ञान : अभिनव प्रयास ;

Inline images 1

geet: rakesh khandelwal


गीत;   



राकेश खंडेलवाल
 
 
 
आँखों में बोये सपनों को पी जाती हो रजनी
चन्दा सोया रहे बादलों के कम्बल को ओढ़े
अम्बर का सुरमई रंग गहरा ही होता जाये
प्राची जागे नहीं उषा कितना उसको झकझोरे
अंधेरा लगें उगलने दीप
शून्य ही होता रहे प्रतीत
लगे पिछले जन्मों का पाप
ज़िन्दगी में बढ़ता संताप
हिमगिरि को चल पड़ें उलट कर गंगा की धारायें
उगने के पहले ही दिन अस्ताचल में छुप जाये
आत्मसात मुट्ठी में कर लें राहें विस्तारों को
इकतारा हो मौन हँसे अपन ही सुर बिसराये
निराशाओं की फ़ैले धूप
लगे चुभने मखमल सा रूप
दिनों से बढ़ने लगे दुराव
हर घड़ी बढ़ता हो विखराव
अपने विश्वासों का सम्बल डिगने कभी न देना
समय परीक्षक पूछ रहा है प्रश्न नई विधियों से
आदिकाल में तप करावाये,भेजे राजा वन में
जाँच परख कर करवाता परिचय अपनी निधिओं से
पंथ का निकट यहीं है मोड़
जहाँ है हर तिलिस्म का तोड़
बनेगा सुख की अभिनव छाप
जिसे तुम समझे हो अभिशाप.

शनिवार, 1 मार्च 2014

chhand salila: gang chhand -sanjiv

छंद सलिला
गंग छंद
संजीव 
*
लक्षण: जाति आंक, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ९, चरणान्त गुरु गुरु

लक्षण छंद:

नयना मिलाओ, हो पूर्ण जाओ,
दो-चार-नौ की धारा बहाओ  
लघु लघु मिलाओ, गुरु-गुरु बनाओ
आलस भुलाओ, गंगा नहाओ

उदाहरण:
१. हे गंग माता! भव-मुक्ति दाता
   हर दुःख हमारे, जीवन सँवारो
   संसार की दो खुशियाँ हजारों
   उतर आस्मां से आओ सितारों
   ज़न्नत ज़मीं पे नभ से उतारो
   हे कष्टत्राता!, हे गंग माता!!
  

२. दिन-रात जागो, सीमा बचाओ
    अरि घात में है, मिलकर भगाओ
    तोपें चलाओ, बम भी गिराओ
    सेना अकेली न हो सँग आओ
    
३. बचपन हमेशा चाहे कहानी 
    हँसकर सुनाये अपनी जुबानी
    सपना सजायें, अपना बनायें 
    हो ज़िंदगानी कैसे सुहानी?

(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी) 
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dekh baharen holi ki : nazeer akabarabadi

होली प्रसंग;
देख बहारें होली की - 
नज़ीर अकबराबादी

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
खम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।

हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।