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आँखों में बोये सपनों को पी जाती हो रजनी
चन्दा सोया रहे बादलों के कम्बल को ओढ़े
अम्बर का सुरमई रंग गहरा ही होता जाये
प्राची जागे नहीं
उषा कितना उसको झकझोरे
अंधेरा लगें उगलने दीप
शून्य ही होता रहे प्रतीत
लगे
पिछले जन्मों का पाप
ज़िन्दगी में बढ़ता संताप
हिमगिरि को चल पड़ें उलट कर गंगा की धारायें
उगने के पहले ही दिन अस्ताचल में छुप जाये
आत्मसात मुट्ठी में कर लें राहें विस्तारों को
इकतारा हो मौन हँसे अपन ही सुर बिसराये
निराशाओं की फ़ैले धूप
लगे चुभने मखमल सा रूप
दिनों से बढ़ने लगे दुराव
हर घड़ी बढ़ता हो विखराव
अपने विश्वासों का सम्बल डिगने कभी न देना
समय परीक्षक पूछ रहा है प्रश्न नई विधियों से
आदिकाल में तप करावाये,भेजे राजा वन में
जाँच परख कर करवाता परिचय अपनी निधिओं से
पंथ का निकट यहीं है
मोड़
जहाँ है हर तिलिस्म का तोड़
बनेगा सुख की अभिनव छाप
जिसे तुम समझे हो अभिशाप.
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