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मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

धरोहर :९ कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर -संजीव 'सलिल'

धरोहर :९ संयोजन:  संजीव 'सलिल'


इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में सुमित्रा नंदन पंत, मैथिलीशरण गुप्त, नागार्जुन, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महीयसी महादेवी वर्मा, स्व. धर्मवीर भारती तथा मराठी-कवि कुसुमाग्रज के पश्चात् अब आनंद लें कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनाओं का।

९. स्व.रवींद्रनाथ ठाकुर


* चित्र-चित्र स्मृति




भौतिकशास्त्री एल्बर्ट आइन्स्टीन के साथ

महात्मा गाँधी के साथ

कविगुरु के साथ इंदिरा गाँधी

स्मारक सिक्के                         डाक टिकिट      नोबल पदक
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पेंटिंग्स:




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कृतियाँ:



हस्त लिपि:



*
प्रतिनिधि रचना:
जागो रे!
रवींद्रनाथ ठाकुर
*
हे मोर चित्त, पुण्य तीर्थे जागो रे धीरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
जागो रे धीरे.
हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़-छीन.
शक-हूण डीके पठान-मोगल एक देहे होलो लीन.
पश्चिमे आजी खुल आये द्वार
सेथाहते सबे आने उपहार
दिबे आर निबे, मिलाबे-मिलिबे.
जाबो ना फिरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
*
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
हे मेरे मन! पुण्य तीर्थ में जागो धीरे रे.
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
आर्य-अनार्य यहीं थे, आए यहीं थे द्राविड़-चीन.
हूण पठन मुग़ल शक, सब हैं एक देह में लीन..
खुले आज पश्चिम के द्वार,
सभी ग्रहण कर लें उपहार.
दे दो-ले लो, मिलो-मिलाओ
जाओ ना फिर रे...
*
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
यह रचना शांत रस, राष्ट्रीय गौरव तथा 'विश्वैक नीडं' की सनातन भावधारा से ओतप्रोत है. राष्ट्र-गौरव, सब को समाहित करने की सामर्थ्य आदि तत्व इस रचना को अमरता देते हैं. हिंदी पद्यानुवाद में रचना की मूल भावना को यथासंभव बनाये रखने तथा हिंदी की प्रकृति के साथ न्याय करने का प्रयास है. रचना की समस्त खूबियाँ रचनाकार की, कमियाँ अनुवादक की अल्प सामर्थ्य की हैं.
*
 
*
पूजा

हे चिर नूतन! आजि ए दिनेर प्रथम गाने
जीवन आमार उठुक विकाशि तोमारि पाने.
तोमर वाणीते सीमाहीन आशा,
चिर दिवसेर प्राणमयी भाषा-
क्षयहीन धन भरि देय मन तोमार हातेर दाने..
ए शुभलगने जागुक गगने अमृतवायु
आनुक जीवने नवजनमेरअमल वायु
जीर्ण जा किछु, जाहा-किछु क्षीण
नवीनेर माझे होक ता विलीन
धुएं जाक जत पुरानो मलिन नव-आलोकेर स्नाने..
(गीत वितान, पूजा, गान क्र. २७३)
*
हे चिर नूतन!गान आज का प्रथम गा रहा.
उठ विकास कर तुझको पाने विनत आ रहा..
तेरी वाणी से मुझको आशा असीम है.
चिर दिवसों की प्राणमयी भाषा नि:सीम है..
तेरे कर से मन अक्षय धन, दान पा रहा...

इस शुभ क्षण में, नभ में अमिय पवन प्रवहित हो.
जीवन- नव जीवन की अमल वायु पूरित हो..
जीर्ण-क्षीर्ण निष्प्राण पुराना या मलीन जो-
वह नवीन में हो विलीन फिर से जीवित हो..
नवालोक में स्नानित शुभ पुनि प्राण पा रहा...
*
देश की माटी
देश की माटी तुझे मस्तक नवाता मैं.
विश्व माँ की झलक तुझमें देख पाता मैं..
समाई तन-मन में,  दिखी है प्राण-मन में-
सुकुमार प्रतिमा एकता में देख पाता मैं..
*
कोख से जन्मा, गोद में प्राण निकलें.
करी क्रीड़ा, सुख मिला, दुःख सहा रख आस तुझसे.
कौर दे मुँह में, पिला जल तृप्त करती तू-
चुप सहा जो गहा, माँ की झलक तुझमें देख पाता मैं..
*
जो दिया भोगा हमेशा, सर्वस्व तुझसे लिया.
चिरऋणी, किंचित नहीं प्रतिदान कुछ भी किया.
सब समय बीता निरर्थक, किया है कुछ भी न सार्थक-
शक्तिदाता! व्यर्थ कर दी शक्ति मैंने- लेख पाता मैं..
*
मन निडर, निर्भय, आशंकित शीश उन्नत.
ज्ञान हो निस्सीम, गृह अक्षत सदा प्रभु!
कर न खंडित धरा,  लघु आँगन विभाजित.
उद्गमित हो वाक्, अंतर-हृदय से प्रभु!.
हो प्रवाहित सता-अविकल कर्म सलिला.
देश-देशांतर, दसों दिश में परम प्रभु!
तुच्छ आचारों का मरु ग्रास ले न धारा.
शुभ विचारों की न किंचित भी परम प्रभु!
कर्म औ' पुरुषार्थ हों अनुगत तुम्हारे,
करो निज कर ठोकरें देकर परम प्रभु!
हे पिता! वह स्वर्ग भारत में उतारो.
देश भारत को जगा दो, जगा दो प्रभु!


*
गान गल्पो

*
जेते नाहीं दिबो ४ 


*
कविता

*

*



रविवार, 30 सितंबर 2012

आज का विचार / thought of the day : संजीव 'सलिल'

आज का विचार / thought of the day :

संजीव 'सलिल'
जब पायें एकांत ह्रदय हो ऊष्मा पुंजित।
आत्मा की मंजूषा में रख  स्मृति संचित।।
*
Memories are the treasures that we keep locked deep within the storehouse of our souls, to keep our hearts warm when we are lonely.
*

भजन: मन कर ले साई सुमिरन... संजीव 'सलिल'

भजन:

मन कर ले साई सुमिरन...
संजीव 'सलिल'
*
मन कर ले साई सुमिरन...
*
झूठी है दुनिया की माया.
तम में साथ न देती छाया..
किसको सगा कहे तू अपना-
पल में साथ छोड़ती काया.
श्वास-श्वास कर साई नमन,
मन कर ले साई सुमिरन...
*
एक वही है अमित-अखंडित.
जो सारे जग से है वंदित.
आस पुष्प कर उसे समर्पित-
हो प्रयास हर उसको अर्पित.
प्यास तृप्त हो कर दर्शन,
मन कर ले साई सुमिरन...
*
मिलता ही है कर्मों का फल.
आज नहीं तो पायेगा कल.
जो होता है वह होने दे-
मन थिर रख, हो 'सलिल' न चंचल.
सुख-दुःख सब उसको कर अर्पण,
मन कर ले साई सुमिरन...
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in.divyanarmada



गीत: : अमिताभ त्रिपाठी

रम्य रचना:
          गीत: :

अमिताभ त्रिपाठी
           *
बस इतना ही करना कि
मेरे अचेतन मन में जब तुम्हारे होने का भान उठे
और मैं तुम्हे निःशब्द पुकारने लगूँ
तुम मेरी पुकार की प्रतिध्वनि बन जाना

बस इतना ही करना कि
सर्द रातों में जब चाँद अपना पूरा यौवन पा ले
और मेरा एकाकीपन उबलने लगे
तुम मुझे छूने वाली हवाओं में घुल जाना

बस इतना ही करना कि
स्मृति की वादियों में जब ठंडी गुबार उठे
और मेरे प्रेम का बदन ठिठुरने लगे
तुम मेरे दीपक कि लौ में समा जाना

बस इतना ही करना कि
सावन में जब उमस भरी पुरवाई चले
और मेरे मन के घावों में टीस उठने लगे
तुम अपने गीतों के मरहम बनाना

बस इतना ही करना कि
पीड़ा (तुमसे न मिल पाने की ) का अलख जब कभी मद्धिम पड़ने लगे
और मैं एक पल के लिए भी भूल जाऊं
तुम मेरे मन की आग बन जाना

बस इतना ही करना कि
मेरी साँसें जब मेरे सीने में डूबने लगे
और मैं महा-प्रयाण की तैयारी करने लगूँ
तुम मिलन की आस बन जाना.
_____________________________________
          <pratapsingh1971@gmail.com>




रम्य रचना: शब्द तेरे, शब्द मेरे ... ललित वालिया 'आतिश '

रम्य रचना:
शब्द तेरे, शब्द मेरे ...
ललित वालिया 'आतिश '
*
 
शब्द तेरे, शब्द मेरे ...
परिस्तानी बगुले से,
लेखनी पे नाच-नाच;
पांख-पांख नभ कुलांच ...
मेरी दहलीज़, कभी ...
तेरी खुली खिडकियों पे 
ठहर-ठहर जाते हैं 
लहर-लहर जाते हैं ...
शहर कहीं  जागता है, शहर कहीं  सोता है
और कहीं हिचकियों का जुगल बंद होता है ||
 
'भैरवी' से स्वर उचार ...
बगुले से शब्द-पंख 
पन्नों पे थिरकते से
सिमट सिमट जाते हैं
कल्पनाओं से मेरी...
लिपट लिपट जाते हैं |
गो'धूली बेला  में ...
शब्द सिमट जाते हैं ...
सिंदूरी थाल कहीं झील-झील  डुबकते  हैं ..
और कहीं मोम-दीप बूँद-बूँद सुबकते हैं ||
 
होठों के बीच दबा 
लेखनी की नोक तले 
मीठा सा अहसास 
शब्द यही तेरा है | 
अंगुली के पोरों पे
आन जो बिरजा है,
बगुले सा 'मधुमास' ...
आभास तेरा है | 
मीत कहो, प्रीत कहो, शब्द प्राण छलते हैं
लौ  कहीं  मचलती है, दीप कहीं जलते हैं ||
 
______________________________Lalit Walia <lkahluwalia@yahoo.com>
 

शनिवार, 29 सितंबर 2012

श्री गणेश प्रातः स्मरण मन्त्र हिंदी दोहा अनुवाद : संजीव 'सलिल'




        ॐ श्री गणेशाय नमः

         श्री गणेश प्रातः स्मरण मन्त्र

हिंदी दोहा अनुवाद : संजीव 'सलिल'

प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथ बन्धुं, सिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं.
उद्दंडविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमा, खण्डलादि सुरनायकवृन्दवन्द्यं।

दीनबंधु गणपति नमन, सुबह सुमिर नत माथ.
शोभित गाल सिँदूर से, रखिए सिर पर हाथ..

विघ्न निवारण हित हुए, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो, दें पापी को दण्ड..
*
प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमानमिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं
त तुन्दिलं द्विरसनाधिपयज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो: शिवाय

ब्रम्ह चतुर्भुज प्रात ही, करें वंदना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..

उदार विशाल जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
कीड़ाप्रिय शिव-शिवा सुत, नमन करूँ हर काल..
*
प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्तशोकदावानलं  गणविभुं वरकुंजरास्यं 
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाहमुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं

शोक हरें दावाग्नि बन, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रिय, रहिए सदय सदैव..

जड़ जंगल अज्ञान का,करें अग्नि बन नष्ट.
शंकरसुत वंदन-नमन, दें उत्साह विशिष्ट..
*
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं सदा साम्राज्यदायकं
प्रातरुत्थाय सततं यः पठेत प्रयते पुमान

नित्य प्रात उठकर पढ़ें, यह पावन श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें अमित, भू पर हो सुरलोक..

************
श्री गणेश पूजन मंत्र 
हिंदी पद्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
गजानना  पद्मर्गम  गजानना महिर्षम 
अनेकदंतम  भक्तानाम एकदंतम उपास्महे

कमलनाभ गज-आननी, हे ऋषिवर्य महान.
करें भक्त बहुदंतमय, एकदन्त का ध्यान..

गजानना = हाथी जैसे मुँहवाले, पद्मर्गम =  कमल को नाभि में धारण करने वाले अर्थात जिनका नाभिचक्र शतदल कमल की तरह पूर्णता प्राप्त है, महिर्षम = महान ऋषि के समतुल्य, अनेकदंतम = जिनके दाँत दान हैं, भक्तानाम भक्तगण, एकदंतम = जिनका एक दाँत है, उपास्महे = उपासना करता हूँ.
*

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

कवितायेँ: अर्चना मलैया


इस स्तम्भ में रचनाकार का संक्षिप्त परिचय, लघु रचनाएँ  तथा संक्षिप्त प्रतिक्रियाएँ  प्रस्तुत की जा सकेंगी. 
अर्चना मलैया
जन्म : कटनी, मध्य प्रदेश.
शिक्षा : एम. ए. (हिंदी).
संप्रति : हिंदी उपन्यासों में नारी विद्रोह पर शोधरत.
संपर्क : ०७६१-५००६७२३
कवितायेँ:


१. रचना प्रक्रिया:

भावना के सागर पर
वेदना की किरण पड़ती है,
भावों की भाप जमती है.
धीरे-धीरे
भाप मेघ में बदलती है
फिर किसी आघात से
मेघ फटते हैं,
बरसात होती है
और ये नन्हीं-नन्हीं बूदें
कविता होती हैं.
*
२. लडकी

वही था सूरज वही था चाँद
और वही आकाश
जिसके आगोश में
खिलते थे सितारे.
पाखी तुम भी थे
पाखी मैं भी
फिर क्यों तुम
केवल तुम
उड़ सके?,
मैं नहीं.
क्यों बींधे गये
पंख मेरे
क्यों हर उड़न
रही घायल?
*
३. आदिम अग्नियाँ
हो रही हैं उत्पन्न
खराशें हममें
हमारी सतत तराश से.
मत डालो अब और आवरण
क्योंकि अवरणों की
मोती सतह के नीचे
चेहरे न जने
कहाँ गुण हो रहे हैं?
असंभव है कि
बुझ जाएँ
वे आदिम अच्नियाँ
जो हममें सोई पड़ी हैं
बलपूर्वक दबाई चिनगारी
कभी-कभी
विस्फोटक हो जाती है.
*
अर्चना मलैया की कविताओं में व्यक्ति और समाज के अंतर्संबंधों को तलाशने-तराशने, पारंपरिक और अधुनातन मूल्यबोध को परखने की कोशिश निहित है. दर्द, राग, सामाजिक सरोकारों और संवेदनात्मक दृष्टि के तने-बाने से बुनी रचनाएँ सहज भाषा, सटीक बिम्ब और सामयिक कथ्य के कारण आम पाठक तक पहुँच पाती हैं.

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in




हास्य कविता:

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