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बुधवार, 9 नवंबर 2011

गीति रचना : चाहिए --संजीव 'सलिल'


गीति रचना :
चाहिए
संजीव 'सलिल'
*
शुभ भाव मन में उठें तो, लिखना-सुनाना चाहिए.
कविताओं की संसद सजी, करतल गुंजाना चाहिए..
नेताओं ने लूटा वतन यह, सच बताना चाहिए.
स्विस बैंक में जोड़ा-जमा धन, देश लाना चाहिए..

कुसुम कोशिश के दसों दिश, महमहाना चाहिए.
श्रम के परिंदों को निरंतर, चहचहाना चाहिए..
गीत मुक्तक गजल दोहे,  गुनगुनाना चाहिए.
तिमिर-पथ पर दीप स्नेहिल जगमगाना चाहिए..

दुःख-दर्द आँसू पीर को, जग से छिपाना चाहिए.
बीती हुई यादें सलीके, से तहाना चाहिए..
तृषा प्यासे की 'सलिल', पल में मिटाना चाहिए.
प्रिय जब मिलें तो ईद-होली, हँस मनाना चाहिए..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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सोमवार, 7 नवंबर 2011

‘सोन चिरैया

  ‘सोन चिरैया

गजाला  खान 

भंवरों के अतिरिक्त एक चिड़िया भी है, जो सिर्फ फूलों का रस चूसती है। इसका नाम है ‘सोन चिरैया’। बुंदेलखंड में कहीं-कहीं इसे ‘श्याम चिरैया’ के नाम से भी जाना जाता है। अक्सर फुलवारियों में दिखने वाली यह चिड़िया अब गायब होती जा रही है। आमतौर पर भंवरे, मधुमक्खी और तितलियों को ही फूलों से निकलने वाले रस ‘मकरंद’ पर जीवित रहने वाला माना जाता है, लेकिन ‘सोन चिरैया’ या ‘श्याम चिरैया’ का भोजन भी सिर्फ फूलों का रस यानी ‘मकरंद’ है। पहले अक्सर ए चिड़िया फुलवारी (फूलों की बगिया) में दिख जाती थीं, लेकिन अब बहुत कम ‘सोन चिरैया’ नजर आती हैं। इस चिड़िया का वजन 10-20 ग्राम होता है। श्याम रंग की इस चिड़िया के गले में सुनहरी धारी होती है, जो सूर्य की किरण पड़ते ही सोने जैसा चमकती है। रंग और लकीर की वजह से ही इसे ‘सोन चिरैया’ या ‘श्याम चिरैया’ कहा जाता है। इसकी पूंछ भी चोंच की तरह नुकीली होती है और जीभ काले नाग की तरह। अपनी लम्बी जीभ को सांप की तरह बाहर-भीतर कर वह फूलों का रस चूसती है। कभी फूलों की खेती करने वाले बांदा जनपद के खटेहटा गांव के बुजुर्ग मइयाद्दीन माली कहते हैं, ‘सोन चिरैया का आशियाना फुलवारी है। बुंदेलखंड में फूलों की खेती अब बहुत कम की जाती है। यही वजह है कि इन चिड़ियों की संख्या में कमी आई है।’वहीं कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है, ‘गांवों से लेकर कस्बों तक दूरसंचार की विभिन्न कम्पनियों ने टावरों का जाल बिछा दिया है। इनसे निकलने वाली किरणों की चपेट में आकर बड़े पैमाने पर चिड़ियों की मौत हो रही है। ‘सोन चिरैया’ की संख्या में कमी की यह बहुत बड़ी वजह है।’ 
प्रस्तुति 
गजाला खान
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रविवार, 6 नवंबर 2011

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक 
संजीव 'सलिल'
*
दिलवर का दिल वर लिया, दिल ने साधा काम.
दिल ने दिल को कर दिया, है दिलवर के नाम..
*
जीवन जीने के लिये, जी वन कह इन्सान.
वन न अगर जी सका तो, भू होगी शमशान..
*
मंजिल सर कर मगर हो, ठंडा सर मत भूल.
कर को कर से मिला कर, बढ़ चल यही उसूल..
*
जिसके सर चढ़ बोलती, 'सलिल' सफलता एक.
वह केसर सा श्रेष्ठ हो, कैसे बिना विवेक..
*
टेक यही बिन टेक के, मंजिल पाऊँ आज.
बिना टेक अभिनय करूँ दर्शक-दिल पर राज..
*
दिल पर बिजली गिराकर, हुए लापता आप.
'सलिल' ला पता आपका, करे प्रेम का जाप..
*
पौधों में जल डाल- दें, काष्ठ हवा फल फूल.
बैठ डाल पर डाल को काट न- होगी भूल..
*
वाह न कर बिन काम के, चाह न कर बिन काज.
वाहन बन निर्माण का, हो उन्नति का राज..
*
काज-बटन के काज बिन, रहता वस्त्र अपूर्ण.
बिना धार तलवार कब. हो पाती है पूर्ण?.
*
मन भर खा भरता नहीं, मन- पर्याप्त छटाक.
बाटी-भरता खा रहे, गरमागरम फटाक..
*
संज्ञा के बदले हुए, सर्वनाम उपयोग.
सर्व नाम हरि के 'सलिल', है सुन्दर संयोग..
***

तरही मुक्तिका : ........ क्यों है? -- संजीव 'सलिल'






तरही मुक्तिका  :

........ क्यों है?

-- संजीव 'सलिल'
*
आदमी में छिपा, हर वक़्त ये बंदर क्यों है?
कभी हिटलर है, कभी मस्त कलंदर क्यों है??

आइना पूछता है, मेरी हकीकत क्या है?
कभी बाहर है, कभी वो छिपी अंदर क्यों है??

रोता कश्मीर भी है और कलपता है अवध.
आम इंसान बना आज छछूंदर क्यों है??

जब तलक हाथ में पैसा था, सगी थी दुनिया.
आज साथी जमीं, आकाश समंदर क्यों है??

उसने पर्वत, नदी, पेड़ों से बसाया था जहां.
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदर क्यों है??

गुरु गोरख को नहीं आज तलक है मालुम.
जब भी आया तो भगा दूर मछंदर क्यों है??

हाथ खाली रहा, आया औ' गया जब भी 'सलिल'
फिर भी इंसान की चाहत ये सिकंदर क्यों है??

जिसने औरत को 'सलिल' जिस्म कहा औ' माना.
उसमें दुनिया को दिखा देव-पुरंदर क्यों है??

*

Acharya Sanjiv Salil

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मुक्तिका;

मैं न उसमे बही सही

-- कुसुम ठाकुर 


"मैं  उसमे बही सही"

मैंने तुमसे बात कही 
जो सोचा वह नही सही 

भूली बिसरी यादें फिर भी 
आज कहूँ न रही सही 

 कितना भी दिल को समझाऊँ  
आँख हुआ नम यही सही 

वह रूठा न जाने कब से 
प्यार अलग सा कही सही 

रंग अजब दुनिया की देखी 
मैं न उसमे बही सही 

- कुसुम ठाकुर-

शनिवार, 5 नवंबर 2011

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक
संजीव 'सलिल'

*
तेज हुई तलवार से, अधिक कलम की धार.
धार सलिल की देखिये, हाथ थाम पतवार..
*
तार रहे पुरखे- भले, मध्य न कोई तार.
तार-तम्यता बनी है, सतत तार-बे-तार..
*
हर आकार -प्रकार में, है वह निर-आकार.
देखें हर व्यापार में, वही मिला साकार..
*
चित कर विजयी हो हँसा, मल्ल जीत कर दाँव.
चित हरि-चरणों में लगा, तरा मिली हरि छाँव..
*
लगा-लगा चक्कर गिरे, चक्कर खाकर आप.
बन घनचक्कर भागते, समझ पुण्य को पाप..
*
बाँहों में आकाश भर, सजन मिले आ काश.
खिलें चाह की राह में, शत-शत पुष्प पलाश..
*
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत.
डगमग डग मग पर रहें, कर मंजिल से प्रीत..
*
खा ले व्यंजन गप्प से, बेपर गप्प न छोड़.
तोड़ नहीं वादा 'सलिल', ले सब जग से होड़..
*
करो कामना काम ना, किंचित बिगड़े आज.
कोशिश के सर पर रहे, लग्न-परिश्रम ताज..
*
वेणु अधर में क्यों रहे, अधर-अधर लें थाम.
तन-मन की समिधा करे, प्राण यज्ञ अविराम..
*
सज न, सजन को सजा दे, सजा न पायें यार.
बरबस बरस न बरसने, दें दिलवर पर प्यार..
*
चलते चलते...
कली छोड़कर फूल से, करता भँवरा प्रीत.
देख बे-कली कली की, बे-अकली ताज मीत..
*

बुधवार, 2 नवंबर 2011

दोहा सलिला: गले मिले दोहा-यमक संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

गले मिले दोहा-यमक

संजीव 'सलिल'
*
ध्यान रखें हम भूमि का, कहता है आकाश.
लिखें पेड़ की भूमिका, पौध लगा हम काश..
*
बड़े न बनें खजूर से, बड़े न बोलें बोल.
चटखारे कह रहे हैं, दही बड़े अनमोल..
*
तंग गली से हो गये, ग़ालिब जी मशहूर.
तंग गली से हो गये, 'सलिल' तंग- अब दूर..
(ग़ालिब ने ग़ज़ल की आलोचना कर उसे तंग गली कहा था.)
*
रीत कुरीत न बन सके, खोजें ऐसी रीत.
रीत प्रीत की निभाये, नायक गाकर गीत..
*
लिया अनार अ-नार ने, नार देखकर दंग.
नार बिना नारद करे, क्यों नारद से जंग..
*
तारा देवी पूज कह, चंदा-तारा मौन.
तारा किसने का-किसे, कहो बताये कौन..
*
कैसे मानूँ है नहीं, अब जगजीवन राम.
जब तुलसी कह गये हैं, हैं जग-जीवन राम..
*
कबिरा कहता अभी कर, मन कहता कर बाद.
शीघ्र करे आबाद हो, तुरत करे नाबाद..
*
शेर शे'र कहता नहीं, कर देता है ढेर.
क्या बटेर तुमको दिखी, कभी लगाते टेर..
*
मुँह का बिगड़े स्वाद यदि, चुटकी भर खा खार.
हँसे आबले पाँव के, देख राह पुर खार..
*
चुस्की लेते चाय की, पा चुटकी भर धूप.
चुटकी लेते विहँस कर,  हुआ गुलाबी रूप..
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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धारावाहिक  उपन्यास :
 
प्रस्तुत है श्री महेश द्विवेदी का उपन्यास भीगे पंख धारावाहिक के रूप में... पाठकीय प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है...

 भीगे पंख
   
श्री महेश द्विवेदी

                        मोहित-रज़िया-सतिया                      


        यह कहानी विभिन्न मनः-स्थितियों मंे जी रहे तीन ऐसे पात्रों की कहानी है जो असामान्य जीवन जीने को अभिशप्त हैं। 
        थामस ए. हैरिस नामक अमेरिका के प्रसिद्ध मनोचिकित्सक ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक ‘आई. ऐम. ओ. के.ः यू. आर. ओ. के.’ में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि कोई भी शिशु अपने जन्म के समय एवं शैशवास्था में उपलब्ध परिस्थितियों के अनुसार जन्म के पश्चात अधिक से अधिक पांच वर्ष में अपने लिये निम्नलिखित चार जीवन-स्थितियों /मनः-स्थितियों/ मे से कोई एक जीवन-स्थिति निर्धारित कर लेता है, जो जीवनपर्यंत उसक्रे अंतर्मन एवं आचरण को प्रभावित करती रहती हैं।


1. ‘आई ऐम नौट ओ. के.ः यू आर ओ. के.’                                 
             जब एक शिशु माता के गर्भ के वातानुकूलित एवं सुरक्षित वातावरण से निकलकर बाहर आता है तो प्रायः उसे आंख में चुभने वाले प्रकाश, त्वचा मे कटन पैदा करने वाली शीत, जलाने वाली गी्रष्म, अथवा कर्णकटु ध्वनियों का सामना करना पड़ता है, जिससे उसे गम्भीर असुरक्षा का अनुभव होता है। तब मॉ की गोद उसे सुरक्षा प्रदान करती है। स्वनियंत्रण से परे वाह्य वातावरण की कटुता एवं तत्पष्चात प्राप्त मॉ की गोद का सुरक्षात्मक अनुभव उसमें ‘आई. ऐम. नौट ओ. के.ः यू आर ओ. के.’ की मनःस्थिति उत्पन्न करता है। यदि जन्म के पश्चात प्रारम्भिक महीनों में शिशु की अस्वस्थता के कारण, अथवा घर की दुरूह परिस्थितियों के कारण अथवा घर के अन्य सदस्यों के व्यवहार के कारण ऐसी स्थिति बार बार आती रहे कि शिशु को असुरक्षात्मक अनुभव होते रहें और उसे मॉ, नर्स अथवा पिता आदि की गोद की सुरक्षा की उपलब्धता के बिना जीवन कठिन लगने लगे, तो ‘आई. एम नौट ओ. के., यू आर ओ. के.’ की मनःस्थिति स्थायी हो जाती है। प्रायः ऐसा व्यक्ति हीनभावना से ग्रसित रहकर साहसपूर्ण कदम उठाने में दूसरों का आसरा देखने लगता है और अपने प्रत्येक निर्णय को इस कसौटी पर परख कर लेता है कि इसमंे दूसरों का अनुमोदन प्राप्त होगा अथवा नहीं।


2. ‘आई ऐम ओ. के.ः यू आर नौट ओ. के.’
         बचपन में सुरक्षा एवं प्यार की आवश्यकता होती है, परंतु यदि उस समय किसी व्यक्ति को अवहेलना क्रे साथ साथ दुत्कार एवं गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना भी मिलती है तो उसका मन विद्रोहरत होकर ‘आई. एम. ओ. के.ः यू आर. नौट. ओ. के.’ की जीवनस्थिति स्थापित कर लेता है। ऐसा व्यक्ति प्रायः स्वार्थ को सर्वोपरि समझने वाला  बन जाता है एवं स्वार्थ साधन हेतु समाज के नियम एवं कानून का उल्लंघन करने में वह किसी प्रकार की ग्लानि का अनुभव कम ही करता है।


3. ‘आई ऐम नौट ओ. के.ः यू आर नौट ओ. के.’
         यदि शिशु के बढ़ते समय विपरीत परिस्थितियों के कारण उसके जन्म के समय उत्पन्न ‘आई ऐम नौट ओ. के.’ की भावनात्मक स्थिति को सुधारने के अवसर नहीं मिलते है और साथ ही मॉ-बाप व अन्य बडों़ से भी प्यार एवं सुरक्षा की अपेक्षा तिरस्कार एवं अवहेलना मिलते हैं तो वह ‘आई. एम. नौट ओ. के.ः यू. आर. नौट. ओ. के.’ की मनःस्थिति को अपने जीवन मंे स्थापित कर लेता है। ऐसा व्यक्ति प्रायः निराशा में डूबकर उस शैशवकाल की कल्पना में रमा रहना चाहता है जब जन्म के प्रारम्भिक दिनों में उसे प्यार एवं सुरक्षा मिले थे। प्रायः ऐसे लोग अवसादग्रस्त रहकर संसार से विरक्ति की स्थिति में जीने लगते हैं और यदा कदा आत्महत्या द्वारा अथवा सब कुछ नश्टकर मुक्ति की कामना भी करते है।


4.आई एम ओ. के.ः यू आर ओ. के.
      यह एक संतुलित जीवन स्थिति है। यदि शिशु को अपने प्रारम्भिक जीवन में समुचित सुरक्षा, प्यार एवं दिशा निर्देशन मिलता है तो वह ‘आई. एम. ओ. के.ः यू. आर. ओ. के.’ की जीवनस्थिति को स्थायी बना लेता है। ऐसा व्यक्ति प्रायः षांतिमय एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन जीता है।


               मनुश्य विषेश के जीन्स की संरचना भी एक सीमा तक षिषु की जीवन-स्थिति के निर्धारण को प्रभावित करती है परंतु शैशवकाल के अनुभव असामान्य प्रकृति को सामान्य अथवा सामान्य प्रकृति को असामान्य बनाने में अधिक महत्व रखते हैं। सभी नवजात शिशु कुछ न कुछ अवधि के लिये प्रथम जीवनस्थिति से अवश्य गुज़रते हैं। भविष्य की परिस्थितियों के अनुसार किसी किसी में वह स्थायी हो जाती है और कुछ में परिस्थितियों के अनुसार द्वितीय अथवा तृतीय  जीवनस्थिति स्थायी हो जाती है। प्रथम तीनों स्थितियां व्यक्ति को एक असामान्य जीवन जीने को उद्वेलित करतीं रहतीं हैं। चतुर्थ जीवनस्थिति शिशु के प्रति प्रेम-प्रदर्शन एवं लालन-पालन में बरती गई समझदारी से स्थापित होती है; इस जीवनस्थिति का व्यक्ति संतुलित जीवन जीता है।


       मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य के व्यवहार को ‘पेरेंट, ऐडल्ट, ऐंड चाइल्ड’ की कैटेगरीज़ में भी बांटा है। उनके अनुसार प्रथम जीवनस्थिति में जीने वाले  व्यक्ति की किसी समस्या पर प्रतिक्रिया प्रायः चाइल्ड की प्रतिक्रिया के समान होती है- हीनभावनामय एवं परोन्मुखी; द्वितीय जीवनस्थिति में जीने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया प्रायः पेरेंट की प्रतिक्रिया केे समान होती है- अपने उचित अथवा अनुचित निर्णय को बलात ठोकने वाली, तृतीय जीवनस्थिति में जीने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया अवसादमय एवं निराशापूर्ण होती है एवं चतुर्थ जीवनस्थिति में जीने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया वैसी समझदारीपूर्ण होती है जैसी एक ऐडल्ट की होनी चाहिये।


       इस कहानी के तीनों पात्र मोहित, सतिया और रज़िया असामान्य परंतु एक दूसरे से भिन्न जीवनस्थितियेंा में जीने वाले व्यक्ति हैं जो भवसागर मे गोते लगाते हुए एक दूसरे के निकट आ गये हैं- मोहित ‘आई ऐम नौट ओ. के.ः यू आर ओ. के.’ की चाइल्ड की जीवनस्थिति मे है, सतिया ‘आई ऐम ओ. के.ः यू आर नौट ओ. के.’ की पेरेंट की जीवनस्थिति मे है और रज़िया ‘आई ऐम नौट ओ. के.ः यू आर नौट ओ. के.’ की अवसादमय स्थिति में जी रही है। 
 
                                                                    