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शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

ॐ गणेश भजन : --संजीव 'सलिल'


          


















विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*
सत-शिव-सुन्दर हम रच पायें,
निज वाणी से नित सच गायें.
अशुभ-असत से लड़ें निरंतर-
सत-चित आनंद-मंगल गायें.
भारत माता ग्रामवासिनी-
हम वसुधा पर स्वर्ग बसायें.
राँगोली-अल्पना सुसज्जित-
हों घर-घर के अँगना-द्वारे.
मतभेदों को सुलझा लें,
मनभेद न कोई बचे जरा रे.
विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*
आस-श्वास हो सदा सुहागिन,
पनघट-पनघट पर राधा हो.
अमराई में कान्हा खेलें,
कहीं न कोई भव-बाधा हो.
ढाई आखर नित पढ़ पाना-
लक्ष्य सभी ने मिल साधा हो.
हर अँगना में दही बिलोती
जसुदा, नन्द खड़े हों द्वारे.
कंस कुशासन को जनमत का
हलधर-कान्हा पटक सुधारे.
विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*
तुलसी चौरा, राँगोली-अल्पना
भोर में उषा सजाये.
श्रम-सीकर में नहा दुपहरी,
शीश उठाकर हाथ मिलाये.
भजन-कीर्तन गाती संध्या,
इस धरती पर स्वर्ग बसाये
निशा नशीली रंग-बिरंगे
स्वप्न दिखा, शत दीपक बारे.
ज्यों की त्यों चादर धरकर
यह 'सलिल' तुम्हारे भजन उचारे.
विनय करूँ प्रभु श्री गणेश जी!
विघ्न करो सब दूर हमारे...
*

दुष्यंत कुमार को समर्पित एक ग़ज़ल - नवीन सी. चतुर्वेदी


सलीक़ेदार कहन के नशे में चूर था वो|
दिलोदिमाग़ पे तारी अजब सुरूर था वो|१|

वो एक दौर की पहिचान बन गया खुद ही|
न मीर, जोश न तुलसी, कबीर, सूर था वो|२|

तमाम लोगों ने अपने क़रीब पाया उसे|
तो क्या हुआ कि ज़रा क़ायदों से दूर था वो|३|

लबेख़मोश की ताक़त का इल्म था उस को|
कोई न बोल सका यूं कि बे-श'ऊर था वो|४|

फ़िज़ा के रंग में शामिल है ख़ुशबू-ए-दुष्यंत|
ज़हेनसीब, हमारे फ़लक का नूर था वो|५|
:- नवीन सी. चतुर्वेदी

मुक्तिका : मेहरबानी हो रही है... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका :

मेहरबानी हो रही है...
संजीव 'सलिल'
*
मेहरबानी हो रही है मेहरबान की.
हम मर गए तो फ़िक्र हुई उन्हें जान की..

अफवाह जो उडी उसी को मानते हैं सच.
खुद लेते नहीं खबर कभी अपने कान की..

चाहते हैं घर में रहे प्यार-मुहब्बत.
नफरत बना रहे हैं नींव निज मकान की..

खेती करोगे तो न घर में सो सकोगे तुम.
कुछ फ़िक्र करो अब मियाँ अपने मचान की..

मंदिर, मठों, मस्जिद में कहाँ पाओगे उसे?
उसको न रास आती है सोहबत दुकान की..

बादल जो गरजते हैं बरसते नहीं सलिल.
ज्यों शायरी जबां है किसी बेजुबान की..

******************

इतिहास / पुरातत्व ताजमहल के पहले बना था हुमायूं का मकबरा --- डॉ. मान्धाता सिंह



इतिहास  / पुरातत्व
डॉ. मान्धाता सिंह

ताजमहल के पहले बना था हुमायूं का मकबरा       

मुगल शासक हुमायूं का मकबरे को देखकर लगता है कि इस पर गुजरते वक्त की परछाई
नहीं पड़ी है। आज भी इस मकबरे का अनछुआ सौंदर्य बेहद प्रभावशाली है। यह मकबरा
ताजमहल की पूर्ववर्ती इमारत है। इसी के आधार पर बाद में ताजमहल का निर्माण हुआ।
हुमायूं की मौत 19 जनवरी 1556 को शेरशाह सूरी की बनवाई गई दो मंजिला इमारत शेर
मंडल की सीढ़ियों से गिर कर हुई थी। इस इमारत को हुमायूं ने ग्रंथालय में तब्दील कर
दिया था। मौत के बाद हुमायूं को यहीं दफना दिया गया।

पुरातत्वविद वाईडी शर्मा के मुताबिक, हुमायूं का मकबरा 1565 में उसकी विधवा हमीदा
बानू बेगम ने बनवाया था। मकबरे का निर्माण पूरा होने के बाद हुमायूं के पार्थिव अवशेष
यहां लाकर दफनाए गए। पूरे परिसर में सौ से अधिक कब्र हैं जिनमें हुमायूं, उसकी दो
रानियों और दारा शिकोह की कब्र भी है। दारा शिकोह की उसके भाई औरंगजेब ने हत्या
करवा दी थी। विश्व विरासत स्थल में शामिल इसी स्थान से 1857 की क्रांति के बाद
ब्रितानिया फौजों ने अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार किया था।
फिर निर्वासित कर बर्मा (वर्तमान म्यामां) भेज दिया था।

इतिहासकारों के मुताबिक, हुमायूं के मकबरे के स्थापत्य के आधार पर ही शाहजहां ने
दुनिया का आठवां अजूबा ताजमहल बनाया। इसके बाद इसी आधार पर औरंगजेब ने
महाराष्ट्र के औरंगाबाद में ‘बीबी का मकबरा’ बनवाया, जिसे दक्षिण का ताजमहल कहा
जाता है। यह इमारत मुगलकालीन अष्टकोणीय वास्तुशिल्प का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण
है। इसका इस्लामिक स्थापत्य स्वर्ग के नक्शे को प्रदर्शित करता हैं।

मकबरा परिसर में प्रवेश करते ही दाहिनी ओर ईसा खान की कब्र है। यह कब्र इतनी
खूबसूरत है कि अनजान पर्यटक इसे ही हुमायूं का मकबरा समझ लेते हैं। ईसा खान
हुमायूं के प्रतिद्वंद्वी शेर शाह सूरी के दरबार में था। इसके अष्टकोणीय मकबरे के आस
पास खूबसूरत मेहराबें और छत पर छतरियां बनी हैं। कुल 30 एकड़ क्षेत्र में फैले
बगीचों के बीच हुमायूं का मकबरा एक ऊंचे प्लेटफार्म पर बना है, जो मुगल वास्तु
कला का शानदार नमूना है। भारत में पहली बार बड़े पैमाने पर संगमरमर और
बलुआ पत्थरों का इस्तेमाल हुआ। मकबरे में बलुआ पत्थरों की खूबसूरत जाली से
छन कर आती रोशनी मानो आंखमिचौली करती है।

हुमायूं का मकबरा एक विशाल कक्ष में है। इसके ठीक पीछे अफसरवाला मकबरा है।
कोई नहीं जानता कि यह मकबरा किसने बनवाया, यहां किसे दफनाया गया। इस
मकबरे का हुमायूं के मकबरे से क्या संबंध है। हुमायूं के मकबरे के पास ही अरब सराय
है। दीवारों से घिरी इस इमारत में हुमायूं के मकबरे के निर्माण के लिए फारस से आए
शिल्पकार रहते थे। सिरेमिक की टाइलों से सजी अरब सराय में कई झरोखे और रोशन
दान हैं। ( साभार-नई दिल्ली, 11 अगस्त (भाषा)।

आदिलशाल महल को लेकर अधिकारियों में मतभेद

गोवा में विरासतों के संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं और भारतीय पुरातत्व
सर्वेक्षण के अधिकारियों के बीच इस बात को लेकर मतभेद हैं कि प्राचीन गोवा के 16वीं
सदी के एक प्राचीन किले का निर्माण किस राजवंश ने किया। विरासत कार्यकर्ताओं का
मानना है कि आदिलशाह महल के प्रसिद्ध द्वार का निर्माण कदंब वंश के हिंदू राजाओं ने
करवाया था।  एएसआई के अधिकारियों का कहना है कि इसका निर्माण मुसलिम शासक
आदिल शाह ने कराया था।

विरासत संरक्षणकर्ता संजीव सरदेसाई का कहना है कि एएसआई ने आदिलशाह महल
के द्वार पर इस आशय की एक पट्टिका लगाई है। लेकिन द्वार के दोनों तरफ ग्रेनाइट की
जाली में शेर, मोर, फूल और हिंदू देवताओं की आकृति से साफ होता है कि यह हिंदू कदंब
राजाओं ने बनवाया है।

पुराने गोवा के सेंट कजेटान चर्च के सामने यह ऐतिहासिक इमारत यूनेस्को के विश्व
विरासत स्थलों की सूची में भी शामिल की गई है। एएसआई के अधीक्षण पुरातत्वविद
डाक्टर शिवानंदा राव का कहना है कि यह इमारत पुर्तगाली दौर के समय से अधिसूचित
की गयी है। कुछ लोग इसके विपरीत दावा कर रहे हैं। जब तक एएसआई इस जगह की
खुदाई नहीं करेगा तब तक कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता।

सरदेसाई ने कहा कि यह अजीब लगता है कि एक मुसलिम शासक अपने किले के प्रवेश
द्वार पर हिंदू देवताओं की आकृति बनवाएगा। गोवा हेरिटेज एक्शन ग्रुप के अधिशासी
सदस्य और सक्रिय विरासत संरक्षणकर्ता प्रजल शखरदांडे का कहना है कि उन्होंने इस
संबंध में अनेक बार एएसआई के अधिकारियों को पत्र लिखा है। लेकिन अधिकारियों ने
इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है। गोवा परएक समय कदंब वंश का राज था जिसके बाद
1469 से बीजापुर के आदिलशाह ने यहां शासन किया था।

आभार: (पणजी, 11 अगस्त (भाषा)।



दोहा सलिला: यमक का रंग दोहा के संग- ..... नहीं द्वार का काम -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
यमक का रंग दोहा के संग-
.....नहीं द्वार का काम
संजीव 'सलिल'
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम.
प्राणों पर छा गये है, मेरे प्रिय घनश्याम..
*
बजे राज-वंशी कहे, जन-वंशी हैं कौन?
मिटे राजवंशी- अमिट, जनवंशी हैं मौन..
*
'सज ना' सजना ने कहा, कहे: 'सजाना' प्रीत.
दे सकता वह सजा ना, यही प्रीत की रीत..
*
'साजन! साज न लाये हो, कैसे दोगे संग?'
'संग-दिल है संगदिल नहीं, खूब जमेगा रंग'..
*
रास खिंची घोड़ी उमग, लगी दिखने रास.
दर्शक ताली पीटते, खेल आ रहा रास..
*
'किसना! किस ना लौकियाँ, सकूँ दही में डाल.
 जीरा हींग बघार से, आता स्वाद कमाल'..
*
भोला भोला ही 'सलिल', करते बम-बम नाद.
फोड़ रहे जो बम उन्हें, कर भी दें बर्बाद..
*
अर्ज़ किया 'आदाब' पर, वे समझे आ दाब.
वे लपके मैं भागकर, बचता फिर जनाब..
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, हो जाते जब मौन.
मन से मन तक 'सबद' तब, कह जाता है कौन??
*
*
 

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

आरती क्यों और कैसे? -- आदर्श श्रीवास्तव

आरती क्यों और कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7] में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।

आरती क्यों और कैसे?
 
आदर्श श्रीवास्तव
*


पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।

एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7] में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।

कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।

यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।

जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
 
********

मुक्तिका: ये शायरी जबां है .... --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
ये शायरी जबां है ....
संजीव 'सलिल'
*
ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.
ज्यों महकती क्यारी हो किसी बागबान की..

आकाश की औकात क्या जो नाप ले कभी.
पाई खुशी परिंदे ने पहली उड़ान की..

हमको न देखा देखकर तुमने तो क्या हुआ?
दिल ले गया निशानी प्यार के निशान की..

जौहर किया या भेज दी राखी अतीत ने.
हर बार रही बात सिर्फ आन-बान की.

उससे छिपा न कुछ भी रहा कह रहे सभी.
किसने कभी करतूत कहो खुद बयान की..

रहमो-करम का आपके सौ बार शुक्रिया.
पीछे पड़े हैं आप, करूँ फ़िक्र जान की..

हम जानते हैं और कोई कुछ न जानता.
यह बात है केवल 'सलिल' वहमो-गुमान की..

नव गीत: शहर का एकांत -- संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना
एक नव गीत:

शहर का एकांत

संजीव 'सलिल'
*
ढो रहा है
संस्कृति की लाश
शहर का एकांत...
*
बहुत दुनियादार है यह
बचो इससे.
दलाली व्यापार है
सच कहो किससे?
मंडियाँ इंसान के
ज़ज्बात की ये-
हादसों के लिख रही हैं
नये किस्से

खो रहा है
ढाई-आखर-पाश
हो दिग्भ्रांत.
शहर का एकांत...
*
नहीं कौनौ है
हियाँ अपना.
बिना जड़ का रूख
हर सपना.
बिन कलेवा और
बिन सहरी-
चल पड़े पग,
थम न दिल कँपना.

हो रहा
हालात-कर का ताश
बन संभ्रांत?
शहर का एकांत...
  *
अचल  वर्मा :
शहर  में  एकांत  हो  तो  बात  अच्छी  है  
मैंने  तो  देखा  है  केवल  झुण्ड  लोगों  के. 
स्वप्न  में  भी  भीड़  ही  पड़ती  दिखाई  
हर जगह दिखते यहाँ  बाजार  धोखों के..
*
संजीव 'सलिल':
भीड़ भारी किन्तु फिर भी सब अकेले हैं.
शहर में कहिये कहीं क्या कम झमेले हैं?
*
एस.एन.शर्मा 'कमल'
न कौनौ अपना हियाँ
न कौनौ जनि पावै
कौन है कहाँ  ???
*
वीणा विज ‘उदित’

कैसे भूल गया तूं …?

खुले आँगन के चारों कोने
पीछे दालान के ऊँचे खम्बे
छप्पर की गुमटी की ताँक-झाँक
बेरी-इमली के खट्टे-मीठे स्वाद
संग-संग तल्लैय्या में लगाना छलाँग
नमक लगा चाटना इमली की फाँक
जीभ चिढ़ाकर अपने पीछे भगाना
पिट्ठू के खेल में हरदम हराना
जेठ की दुपहरी में नँगे पाँव भागना
रंग-बिरंगी चूड़ी के टुकड़े बटोरना
आषाण के मेघों का जोर का बरसना
कीचड़ में पैरों के निशां बनाना मिटाना
कितना मधुर था दोनों का बचपन
गलबय्यां डाल साथ में सोना हरदम
माँ ने तो लगाया था माथे पे नज़रबट्टू
भाई! कैसे भूल गया सब कुछ अब तूं…?
*
भाई की पाती:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर.
बचपन छूटा कब-कहाँ, किन्तु रहा है टेर.....
*
मुझको न भूले हैं दिन वे सुहाने.
वो झूलों की पेंगें, वो मस्ती वो गाने.
गये थे तलैया पे सँग-सँग नहाने.
मैया से झूठे बनाकर बहाने.

फिसली थी तू मैंने थामा झपटकर.
'बताना न घर में' तू बोली डपटकर.
'कहाँ रह गये थे रे दोनों अटककर?'
दद्दा ने पूछा तो भागे सटककर.

दिवाली में मिलकर पटाखे जलाना.
राखी में सुंदर से कपड़े सिलाना.
होली में फागें-कबीरा गुंजाना.
गजानन के मोदक झपट-छीन खाना.

हाय! कहाँ वे दिन गये, रंग हुए बदरंग.
हम मँहगाई से लड़े, हारे हर दिन जंग..
*
'छोरी है इसकी छुड़ा दें पढ़ाई.'
दादी थी बोली- अड़ा था ये भाई.
फाड़ी थी पुस्तक पिटाई थी खाई.
मगर तेज मुझसे थी तेरी रुलाई.

हुई जब तनिक भी कहीं छेड़-खानी.
सँग-सँग चला मैं, करी निगहबानी.
बनेगी न लाड़ो कहीं नौकरानी.
'शादी करा दो' ये बोली थी नानी.

तब भी न तुझको अकेला था छोड़ा.
हटाया था पथ से जो पाया था रोड़ा.
माँ ने मुझे एक दिन था झिंझोड़ा.
तुझे फोन करता है दफ्तर से मोंड़ा.

देख-परख तुझसे करी, थी जब मैंने बात.
बिन बोले सब कह गयीं, थी अँखियाँ ज़ज्बात..
मिला उनसे, थी बात आगे बढ़ायी.
हुआ ब्याह, तूने गृहस्थी बसायी.
कहूँ क्या कि तूने भुलाया था भाई?
हुई एक दिन में ही तू थी परायी?

परायों को तूने है अपना बनाया.
जोड़े हैं तिनके औ' गुलशन सजाया.
कई दिन संदेशा न कोई पठाया.
न इसका है मतलब कि तूने भुलाया.

मेरे ज़िंदगी में अलग मोड़ आया.
घिरा मुश्किलों में न सँग कोई पाया.
तभी एक लड़की ने धीरज बंधाया.
पकड हाथ मैंने कदम था बढ़ाया.
मिली नौकरी तो कहा, माँ ने करले ब्याह.
खाप आ गयी राह में, कहा: छोड़ दे चाह..

कैसे उसको भूलता, जिसका मन में वास.
गाँव तजा, परिवार को जिससे मिले न त्रास..

ब्याह किया, परिवार बढ़, मुझे कर गया व्यस्त.
कोई न था जो शीश पर, रखता अपना हस्त..

तेरी पाती देखकर, कहती है भौजाई.
जाकर लाओ गाँव से, सँग दद्दा औ' माई.

वहाँ ताकते राह हैं, खूँ के प्यासे लोग.
कैसे जाऊँ तू बता?, घातक है ये रोग..

बहना! तू जा मायके, बऊ-दद्दा को संग.
ले आ, मेरी ज़िंदगी, में घुल जाये रंग..

तूने जो कुछ लिख दिया, सब मुझको स्वीकार.
तू जीती यह भाई ही, मान रहा है हार..
***

सावन गीत: कुसुम सिन्हा -- संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना 
मेरी एक कविता
फिर आया मदमाता सावन

कुसुम सिन्हा
*
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                             उमड़ घुमड़ कर काले बदल
                             नीले नभ में घिर आये
                               नाच नाचकर  बूंदों में ढल
                              फिर धरती पर छितराए
सपने घिर आये फिर मन में
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                               लहर लहरकर  चली हवा  भी
                               पेड़ों को झकझोरती
                              बार बार फिर कडकी बिजली
                               चमक चमक चपला चमकी
सिहर सिहर  कर भींग भींग
धरती लेने अंगड़ाई लगी
                            वृक्ष नाच कर झूम  झूमकर
                            गीत लगे कोई गाने
                             हवा बदन छू छू  कर जैसे
                              लगी है जैसे  क्या कहने
नाच नाचकर  बूंदें जैसे
स्वप्न सजाने  मन में लगी
                               अम्बर से  सागर के ताल तक
                               एक वितान सा बूंदों का
                              लहरों के संग संग  अनोखा
                               नृत्य  हुआ फिर  बूंदों का
फिर आया मदमाता सावन
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                               तृप्त  हो रहा था तन मन भी
                               प्यासी  धरती  झूम उठी
                             
  सरिता के तट  को छू छू कर
                                चंचल लहरें  नाच उठीं
सोंधी गंध उठी  धरती से
फिर बूंदों की झड़ी लगी
*
 
सावन गीत:                                                                                    
मन भावन सावन घर आया
संजीव 'सलिल'
*
मन भावन सावन घर आया
रोके रुका न छली बली....
*
कोशिश के दादुर टर्राये.
मेहनत मोर झूम नाचे..
कथा सफलता-नारायण की-
बादल पंडित नित बाँचे.

ढोल मँजीरा मादल टिमकी
आल्हा-कजरी गली-गली....
*
सपनाते सावन में मिलते
अकुलाते यायावर गीत.
मिलकर गले सुनाती-सुनतीं
टप-टप बूँदें नव संगीत.

आशा के पौधे में फिर से
कुसुम खिले नव गंध मिली....
*
हलधर हल धर शहर न जाये
सूना हो चौपाल नहीं.
हल कर ले सारे सवाल मिल-
बाकी रहे बबाल नहीं.

उम्मीदों के बादल गरजे
बाधा की चमकी बिजली....
*
भौजी गुझिया-सेव बनाये,
देवर-ननद खिझा-खाएँ.
छेड़-छाड़ सुन नेह भारी
सासू जी मन-मन मुस्कायें.

छाछ-महेरी के सँग खाएँ
गुड़ की मीठी डली लली....
*
नेह निमंत्रण पा वसुधा का
झूम मिले बादल साजन.
पुण्य फल गये शत जन्मों के-
श्वास-श्वास नंदन कानन.

मिलते-मिलते आस गुजरिया
के मिलने की घड़ी टली....
*
नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर सम्हल-सम्हल.
चलना रपट न जाना- मिल-जुल
पार करो पथ की फिसलन.

लड़ी झुकी उठ मिल चुप बोली
नज़र नज़र से मिली भली....
*
गले मिल गये पंचतत्व फिर
जीवन ने अंगड़ाई ली.
बाधा ने मिट अरमानों की
संकुच-संकुच पहुनाई की.

साधा अपनों को सपनों ने
बैरिन निन्दिया रूठ जली....

**********
 : विषय एक रचनाएँ तीन: 

ग्राम से पलायन
१. याद आती तो होगी
सन्तोष कुमार सिंह, मथुरा
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।
सुख में माँ को भूल गया तो, कोई बात नहीं।
नहीं बना बूढ़े की लाठी,  मन आघात नहीं।।
ममता तुझको भी विचलित कर जाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
गली गाँव की रोज राह तेरी ही तकती हैं।
इंतजार में बूढ़ी अँखियाँ, निशदिन थकती हैं।।
कभी हृदय को माँ की मूरत, भाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।

देख गाँव के लोग न जाने क्या-क्या कहते हैं।
ये बेशर्म अश्रु भी दुःख में, पुनि-पुनि बहते हैं।।
कभी भूल से खबर पवन पहुँचाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
यादें कर-कर घर के बाहर, बिरवा सूख गया।
सुख का पवन न अँगना झाँके, ऐसा रूठ गया।।
माटी की सोंधी खुशबू दर, जाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
बचपन के सब मित्र पूछते, मुझको आ-आकर।
लोटें सभी बहारें घर में,  नहीं तुझे पाकर।।
दूषित हवा जुल्म शहरों में, ढाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
******
२. बापू यादों से तो केवल पेट न भरता है


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

बापू यादों से तो केवल पेट न भरता है
युवक नुकरिया बिन गाँवों में भूखा मरता है
तूने गिरवी खेत रखा तो ही मैं पढ़ पाया
कर्ज़े का वह बोझ तुझे नित व्याकुल करता है

अगर शहर में काम मिले तो मैं पैसा भेजूँ
कर्ज़ा उतरे तो घर को मैं इक गैय्या ले दूँ
बहना हुई बड़ी मैं उसकी शादी करने को
दान-दहेज किए खातिर सामान तनिक दे दूँ

माँ बीमार पड़ी है उसको भी दिखलाना है
चूती है छत उस पर भी खपरैल जमाना है
सूची लंबी है करने को काम बहुत बाकी
पहले पैर टिकाऊँ, तुमको शहर घुमाना है

मानो मेरी बात न अपने मन में दुख पाओ
गाँव नहीं अब गाँव रहे तुम याद न दिलवाओ
पेट भरे ऐसा जब साधन कोई नहीं मिलता
तो फिर बापू गाँव मुझे वापस न बुलवाओ.

******** 

३. परवश छोड़ा गाँव.....

संजीव 'सलिल'
*
परवश छोड़ा गाँव याद बरबस आ जाती है...
*
घुटनों-घुटनों रेंग जहाँ चलना मैंने सीखा.
हर कोई अपना था कोई गैर नहीं देखा..
चली चुनावी हवा, भाई से भाई दूर हुआ.
आँखें रहते हर कोई जाने क्यों सूर हुआ?
झगड़े-दंगे, फसल जलाई, तभी गाँव छोड़ा-
यह मत सोचो जन्म भूमि से अपना मुँह मोड़ा..
साँझ-सवेरे मैया यादों में दुलराती है...
*
यहाँ न सुख है, तंग कुठरिया में दम घुटता है.
मुझ सा हर लड़का पढ़ाई में जी भर जुटता है..
दादा को भाड़ा देता हूँ, ताने सुनता हूँ.
घोर अँधेरे में भी उजले सपने बुनता हूँ..
छोटी को संग लाकर अगले साल पढ़ाना है.
तुम न रोकना, हम दोनों का भाग्य बनाना है..
हर मुश्किल लड़ने का नव हौसला जगाती है...
*
रूठा कब तक भाग्य रहेगा? मुझको बढ़ना है.
कदम-कदम चल, गिर, उठ, बढ़कर मंजिल वरना है..
तुमने पीना छोड़ दिया, अब किस्मत जागेगी.
मैया खुश होगी, दरिद्रता खुद ही भागेगी..
बाद परीक्षा के तुम सबसे मिलने आऊँगा.
रेहन खेती रखी नौकरी कर छुडवाऊँगा..
जो श्रम करता किस्मत उस पर ही मुस्काती है...
*
यहाँ-वाहन दोनों जगहों पर भले-बुरे हैं लोग.
लालच और स्वार्थ का दोनों जगह लगा है रोग..
हमको काँटे बचा रह पर चलते जाना है.
थकें-दुखी हों तो हिम्मत कर बढ़ते जाना है..
मुझको तुम पर गर्व, भरोसा तुम मुझ पर रखना.
तेल मला करना दादी का दुखता है टखना..
जगमग-जगमग यहाँ बहुत है, राह भुलाती है...
*
दिन में खुद पढ़, शाम पढ़ाने को मैं जाता हूँ.
इसीलिये अब घर से पैसे नहीं मँगाता हूँ.  
राशन होगा ख़तम दशहरे में ले आऊँगा.
तब तक जितना है उससे ही काम चलाऊँगा..
फ़िक्र न करना अन्ना का आन्दोलन ख़त्म हुआ.
अमन-चैन से अब पढ़ पाऊँ करना यही दुआ.
ख़त्म करूँ पाती, सुरसा सी बढ़ती जाती है...

******

सोमवार, 29 अगस्त 2011

मुक्तिका: बने सादगी ही श्रृंगार.. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
बने सादगी ही श्रृंगार..
संजीव 'सलिल'
*
हम खुद चुनते हैं सरकार.
फिर हो जाते है बेज़ार..

सपने बुनते हैं बेकार.
कभी न होते जो साकार.

नियम-कायदे माने अन्य.
लेकिन हम तोड़ें सौ बार..

कूद-फांद हम बढ़ जायें.
बाकी रहें लगायें कतार..

जनगण के जो प्रतिनिधि हैं.
चाहें हर सुविधा अधिकार..

फ़र्ज़ न किंचित याद रहा.
हक के सब हैं दावेदार..

लोकपाल क्या कर लेगा?
सुधरे नेता अगर न यार..

सुख-सुविधा बिन प्रतिनिधि हों
बने सादगी ही श्रृंगार..

मतदाता से दूर रहें
तो न मौन रह, दो धिक्कार..

अन्ना बच्चा-बच्चा हो.
'सलिल' तभी हो नैया पार..
*********************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

आकलन:अन्ना आन्दोलन भारतीय लोकतंत्र की समस्या और समाधान: -- संजीव 'सलिल'

आकलन:अन्ना आन्दोलन

भारतीय लोकतंत्र की समस्या और समाधान:

संजीव 'सलिल'
*
अब जब अन्ना का आन्दोलन थम गया है, उनके प्राणों पर से संकट टल गया है यह समय समस्या को सही-सही पहचानने और उसका निदान खोजने का है.

सोचिये हमारा लक्ष्य जनतंत्र, प्रजातंत्र या लोकतंत्र था किन्तु हम सत्तातंत्र, दलतंत्र और प्रशासन तंत्र में उलझकर मूल लक्ष्य से दूर नहीं हो गये हैं क्या? यदि हाँ तो समस्या का निदान आमूल-चूल परिवर्तन ही है. कैंसर का उपचार घाव पर पट्टी लपेटने से नहीं होगा.

मेरा नम्र निवेदन है कि अन्ना भ्रष्टाचार की पहचान और निदान दोनों गलत दिशा में कर रहे हैं. देश की दुर्दशा के जिम्मेदार और सुख-सुविधा-अधिकारों के भोक्ता आई.ए.एस., आई.पी.एस. ही अन्ना के साथ हैं. न्यायपालिका भी सुख-सुविधा और अधिकारों के व्यामोह में राह भटक रही है. वकील न्याय दिलाने का माध्यम नहीं दलाल की भूमिका में है. अधिकारों का केन्द्रीकरण इन्हीं में है. नेता तो बदलता है किन्तु प्रशासनिक अधिकारी सेवाकाल में ही नहीं, सेवा निवृत्ति पर्यंत ऐश करता है.

सबसे पहला कदम इन अधिकारियों और सांसदों के वेतन, भत्ते, सुविधाएँ और अधिकार कम करना हो तभी राहत होगी.

जन प्रतिनिधियों को स्वतंत्रता के तत्काल बाद की तरह जेब से धन खर्च कर राजनीति  करना पड़े तो सिर्फ सही लोग शेष रहेंगे.

चुनाव दलगत न हों तो चंदा देने की जरूरत ही न होगी. कोई उम्मीदवार ही न हो, न कोई दल हो. ऐसी स्थिति में चुनाव प्रचार या प्रलोभन की जरूरत न होगी. अधिकृत मतपत्र केवल कोरा कागज़ हो जिस पर मतदाता अपनी पसंद के व्यक्ति का नाम लिख दे और मतपेटी में डाल दे. उम्मीदवार, दल, प्रचार न होने से मतदान केन्द्रों पर लूटपाट न होगी. कोई अपराधी चुनाव न लड़ सकेगा. कौन मतदाता किस का नाम लिखेगा कोई जन नहीं सकेगा. हो सकता है हजारों व्यक्तियों के नाम आयें. इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. सब मतपत्रों की गणना कर सर्वाधिक मत पानेवाले को विजेता घोषित किया जाए. इससे चुनाव खर्च नगण्य होगा. कोई प्रचार नहीं होगा, न धनवान मतदान को प्रभावित कर सकेंगे.

चुने गये जन प्रतिनिधियों के जीवन काल का विवरण सभी प्रतिनिधियों को दिया जाए, वे इसी प्रकार अपने बीच में से मंत्री चुन लें. सदन में न सत्ता पक्ष होगा न विपक्ष, इनके स्थान पर कार्य कार्यकारी पक्ष और समर्थक पक्ष होंगे जो दलीय सिद्धांतों के स्थान पर राष्ट्रीय और मानवीय हित को ध्यान में रखकर नीति बनायेंगे और क्रियान्वित कराएँगे.

इसके लिये संविधान में संशोधन करना होगा. यह सब समस्याओं को मिटा देगा. हमारी असली समस्या दलतंत्र  है जिसके कारण विपक्ष सत्ता पक्ष की सही नीति का भी विरोध करता है और सत्ता पक्ष विपक्ष की सही बात को भी नहीं मानता.

भारत के संविधान में अल्प अवधि में दुनिया के किसी भी देश और संविधान की तुलना में सर्वाधिक संशोधन हो चुके हैं, तो एक और संशिधन करने में कोई कठिनाई नहीं है. नेता इसका विरोध करेंगे क्योकि उनके विशेषाधिकार समाप्त हो जायेंगे किन्तु जनमत का दबाब उन्हें स्वीकारने पर बाध्य कर सकता है. 

ऐसी जन-सरकार बनने पर कानूनों को कम करने की शुरुआत हो. हमारी मूल समस्या कानून न होना नहीं कानून न मानना है. राजनीति शास्त्र में 'लेसीज़ फेयर' सिद्धांत के अनुसार सर्वोत्तम सरकार न्यूनतम शासन करती है क्योंकि लोग आत्मानुशासित होते हैं. भारत में इतने कानून हैं कि कोई नहीं जनता, हर पाल आप किसी न किसी कानून का जने-अनजाने उल्लंघन कर रहे होते हैं. इससे कानून के अवहेलना की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गयी है. इसका निदान केवल अत्यावश्यक कानून रखना, लोगों को आत्म विवेक के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता देना तथा क्षतिपूर्ति अधिनियम (law of tort) को लागू करना है.

क्या अन्ना और अन्य नेता / विचारक इस पर विचार करेंगे?????????????...

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.कॉम

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अन्ना हज़ारे: अपनों ने भी ठगा? सतीशचन्द्र मिश्र

अन्ना हज़ारे: अपनों ने भी ठगा?

सतीशचन्द्र मिश्र
*
असली मदारी (यानि सरकार) का डमरू (मीडिया) जो कुछ दिनों के लिए नौसिखिये मदारियों (टीम अन्ना) को उधार दिया गया था अब अपने सही मदारी के पास वापस आ गया और देश की जनता को जीत के झूठे गीत सुनाने में व्यस्त हो गया है। नौसिखिये मदारियों ने भी इसके सुर में सुर मिलाने में ही भलाई समझी और जैसे तैसे अपनी जान बचाई है।


आप स्वयं विचार करिए ज़रा…. अन्ना टीम द्वारा 16 अगस्त का अनशन जिन मांगों को लेकर किया गया था। उन मांगों पर शनिवार को हुए समझौते में कौन हारा कौन जीता इसका फैसला करिए।




पहली मांग थी : सरकार अपना कमजोर बिल वापस ले। नतीजा : सरकार ने बिल वापस नहीं लिया।


दूसरी मांग थी : सरकार लोकपाल बिल के दायरे में प्रधान मंत्री को लाये। नतीजा : सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं किया। अन्ना को दिए गए समझौते के पत्र में भी इसका कोई जिक्र तक नहीं।


तीसरी मांग थी : लोकपाल के दायरे में सांसद भी हों : नतीजा : सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं किया। अन्ना को दिए गए समझौते के पत्र में भी इसका कोई जिक्र नहीं।


चौथी मांग थी : तीस अगस्त तक बिल संसद में पास हो। नतीजा : तीस अगस्त तो दूर सरकार ने कोई समय सीमा तक नहीं तय की कि वह बिल कब तक पास करवाएगी।


पांचवीं मांग थी : बिल को स्टैंडिंग कमेटी में नहीं भेजा जाए। नतीजा : स्टैंडिंग कमिटी के पास एक की बजाए पांच बिल भेजे गए हैं।


छठी मांग थी : लोकपाल की नियुक्ति कमेटी में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम हो। नतीजा : सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं किया। अन्ना को दिए गए समझौते के पत्र में भी इसका कोई जिक्र तक नहीं।


सातवीं मांग : जनलोकपाल बिल पर संसद में चर्चा नियम 184 के तहत करा कर उसके पक्ष और विपक्ष में बाकायदा वोटिंग करायी जाए। नतीजा : चर्चा 184 के तहत नहीं हुई, ना ही वोटिंग हुई।


उपरोक्त के अतिरिक्त तीन अन्य वह मांगें जिनका जिक्र सरकार ने अन्ना को दिए गए समझौते के पत्र में किया है वह हैं।
(1)सिटिज़न चार्टर लागू करना,
(2)निचले तबके के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाना,
(3)राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति करना। प्रणब मुखर्जी द्वारा इस संदर्भ में आज शाम संसद में दिए गए बयान (जिसे भांड न्यूज चैनल प्रस्ताव कह रहे हैं ) में स्पष्ट कहा गया कि इन तीनों मांगों के सन्दर्भ में सदन के सदस्यों की भावनाओं से अवगत कराते हुए लोकपाल बिल में संविधान कि सीमाओं के अंदर इन तीन मांगों को शामिल करने पर विचार हेतु आप (लोकसभा अध्यक्ष) इसे स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजें। कौन जीता…? कैसी जीत…? किसकी जीत…?
देश 8 अप्रैल को जहां खड़ा था आज टीम अन्ना द्वारा किए गए कुटिल और कायर समझौते ने देश को उसी बिंदु पर लाकर खड़ा कर दिया है। जनता के विश्वास की सनसनीखेज सरेआम लूट को विजय के शर्मनाक शातिर नारों की आड़ में छुपाया जा रहा है….. फैसला आप करें। मेरा तो सिर्फ यही कहना है कि रात को दिन कैसे कह दूं…..?

रविवार, 28 अगस्त 2011

समीक्षात्मक आलेख: समय का साक्षी रचनाकार नवीन चतुर्वेदी -- संजीव 'सलिल'

समीक्षात्मक आलेख:
समय का साक्षी रचनाकार नवीन चतुर्वेदी
संजीव 'सलिल'
*








शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ सृजनधर्मिता का बढ़ना स्वाभाविक है| कोई भी व्यक्ति अपनी अनुभूतियों को शब्दों में ढाल कर प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है किन्तु इस प्रस्तुतिकरण का उद्देश्य अन्यों तक अपनी बात पहुँचाना और उनकी प्रतिक्रिया प्राप्त करना हो तो व्यक्ति को भाषा और काव्य शास्त्र के नियमों को जानकर सही तरीके से अपनी बात कहनी होती है|

आज का दौर आपाधापी का दौर है. किसी के पास समय नहीं है| सर्वाधिक पुरानी संस्कृति का यह देश एक बाज़ार मात्र रह गया है| पुरातन के अवमूल्यन और नये के अवस्थापन के इस संक्रमण काल में जिन सजग कलमों से सामना हुआ है उनमें भाई नवीन चतुर्वेदी भी हैं| नवीन के नाम के साथ 'जी' लगाकर मैं अपनी और उनकी अभिन्नता के मध्य औपचारिकता को प्रवेश नहीं करने दे सकता. उन्हें उनके नाम से पुकारूँ यह मेरा अधिकार है. नवीन में सीखने की इच्छा बहुत प्रबल है| जब जहाँ से जैसे भी कुछ अच्छा मिले वे सीख कर आपने खजाने में सम्मिलित कर लेते हैं|


वे जो जितना जानते हैं उसका दिखावा नहीं करते, आपने आप औरों पर थोपते नहीं किन्तु पूछने पर संकोच के साथ जानकारी साँझा करते हैं| 'थोथा चना बाजे घना' की असलियत से वे पूरी तरह परिचित हैं| अपनी ग़ज़ल के बारे में कही निम्न पंक्तियाँ उन पर भी बखूबी लागू होती हैं|  

जितना पूछोगे इनसे, बस उतना ही बतलायेंगी |
ना मालुम, जाने ऐसा क्या ख़ास मेरी ग़ज़लों में है ||

नवीन के लिये कविता करना शगल नहीं मजबूरी है-

ग़ज़ल जब भी कही कुछ ख़ास ऐसा वाक़या गुज़रा| 

कभी मुझसे नदी गुज़री कभी तूफ़ान सा गुज़रा|| 


आपने चारों तरफ के मंज़र देखकर उनका भावप्रवण मन जब आहत या तरंगित होता है तब उनकी कलाम अंतर्मन की अभिव्यक्ति करने में पीछे नहीं रहती. निम्न पंक्तियाँ उनकी आकलन क्षमता और अभिव्यक्ति क्षमता की बानगी पेश करती हैं:

पहले घर, घर होते थे, दफ़्तर, दफ़्तर|

अब दफ़्तर-दफ़्तर  घर; घर-घर दफ़्तर है||
*
प्यास के बाज़ार में, इक चीज़ बन के रह गये|
जिस्म प्यासा, रूह प्यासी, छटपटाती सूरतें||
*
सभी दिखें  नाखुश, सबका दिल टूटा लगता है|
*
नयों को हौसला भी दो, न ढूँढो ग़लतियाँ केवल|
बड़े शाइर का भी, हर इक शिअर, आला नहीं होता|| 


बेशक़ मज़े  लूटो, मगर, आहिस्ता आहिस्ता|
आखिर, हया ओ शर्म अपने दरमियाँ भी हैं||
*
नवीन की जिन रचनाओं ने मेरे दिल को छुआ है उनमें रचनाकार की संवेदनशील दृष्टि मुखर हुई है-

तनहाई का चेहरा, अक्सर, सच्चा लगता है|

खुद से मिलना, बातें करना, अच्छा लगता है||

दुनिया  ने, उस को ही, माँ कह कर इज़्ज़त बख़्शी|
जिसको, अपना बच्चा, हरदम, बच्चा लगता है||
*
ये किस तरह की राजनीति है, न हमसे पूछिये|

ना राज है, ना नीति है, उपहास है जनतंत्र का||
*
चेहरे बदलने  थे, मगर, बस आइने बदले गये|

इन्साँ  बदलने थे, मगर, बस कायदे बदले गये|| 

हर गाँव, हर चौपाल,  हर घर का अहाता कह रहा|
मंज़िल बदलनी  थी, मगर, बस रासते बदले गये||

अब भी गबन, चोरी, छलावे हो रहे हैं रात दिन|
तब्दीलियों  के नाम पर, बस दायरे बदले गये||

जिन मामलों के, फ़ैसलों के, मामले सुलझे नहीं|
उन मामलों के, फ़ैसलों के, फ़ैसले बदले गये||
*
जब से  रब, इन्सान के भीतर से, गायब हो गया|
तब से, पूजा-पाठ वाले चोचले बढ़ने लगे|| 
*
दूसरों  की ग़लतियाँ, शर्मिंदगी अपनी|

इससे कुछ  ज्यादा कहानी, है- न थी अपनी||

नवीन की एक खासियत और है- वह रचनाओं में विराम चिन्हों का सार्थक प्रयोग करते हैं| छंद और विराम चिन्हों से अपरिचित पीढ़ी को नवीन की रचनाएँ पढ़ने से ही पर्याप्त अभ्यास हो सकता है|

सामाजिक विसंगतियों पर नवीन की कलम तत्काल प्रहार करती है|


नभ में  उड़ने वाले नेता, बातें तो कर सकते हैं|
सड़क पे चलाने वाला जाने, सड़क के गड्ढों का मतलब|| 
*
राजा हो या रंक, सभी को रोटी खाते देखा है|

रंक ने ही समझा है, पर, रोटी के टुकडों का मतलब||
*
जब 'तज़ुर्बे' औ 'डिग्री' का दंगल हुआ|
क़ामयाबी, बगल झाँकती रह गयी|| 
*
गाँव की 'आरज़ू' - शहरी 'महबूब' का|

डाकिये  से पता पूछती रह गयी||

नवीन की रचनाओं में हिंदी के पिंगल के कई पाठ हैं. काव्यशास्त्री यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम' के इस सुयोग्य शिष्य ने रसों और अलंकारों से अपनी रचनाओं को संपन्न बनाया है| उक्त और निम्न पंक्तियों में अनुप्रास की छटा देखिये-

अनुपम, अमित,  अविरल, अगम,  अभिनव, अकथ,  अनिवार्य सा|
अमि-रस भरा,  यहु प्रेम-पथ,  न चलें यहाँ  कडुवाहटें||
*
सु-मनन  करें,  सु-जतन करें,  अभिनव गढ़ें,  अनुपम कहें|

वसुधा सवाल उठा रही,  क्यूँ न फिर से ग़ालिब-ओ-गंग हों||
*
नवीन के प्रतीकों और बिम्बों की मौलिकता और उपयुक्तता का एक उदाहरण देखें-

है कहीं, मिश्री से भी मीठा, अगर |
तो कहीं, कडवा करेला आदमी ||
*
नवीन की संतुलित दृष्टि हर नये की आलोचना नहीं करती, छिद्रान्वेषण के शौकीनों से वे कहते हैं-

उजालों  से शिकायत है जिन्हें, जा कर कहो उनसे|

कभी तो रोशनी  को,  तीरगी की दृष्टि से देखें||

ये अच्छा  है - बुरा है वो, ये मेरा है - पराया वो|
कभी तो आदमी को, आदमी की दृष्टि से देखें||

रिदम्, ट्यूनिंग, खनकते बोल सब कुछ ठीक है लेकिन|
कभी तो शायरी  को शाइरी की दृष्टि से देखें||

ज़िंदगी  में करुण और श्रृंगार रस का कोष जितना अधिक होगा कविता उतनी ही अधिक समृद्ध होगी| नवीन की रचनाओं में पारिस्थितिक वैषम्यजनित करुणा विद्रोह का आव्हान करती आलोचना का रूप ले लेती है किन्तु श्रृंगार की उत्कट अभिव्यक्ति अकृत्रिम है-

उलफ़त का मुहूरत देख नहीं,
मत खेल  मेरे अरमानों से|
आँखों को करने दे सजनी,
आँखों की बातें आँखों से||
*
फूलों सा नरम, मखमल सा गरम,
शरबत सा मधुर, मेघों सा मदिर|
तेरा यौवन  मधुशाला है,
मेरी अभिलाषा  साक़ी है||
*
तेरी नज़रों के तीर देखे हैं| 
तेरे दिल का गुलाब देखेंगे|| 
*
ताब में हम कहाँ हैं बिन तेरे| 
क्या है तू भी बेताब, देखेंगे|४|
*
कई दिनों  बाद फिर क़रार मिला| 
ख़्वाब में दिलरुबा का प्यार मिला|| 
*
सिर्फ इक बार ही मिला लेकिन| 
ऐसा लगता है बार-बार मिला||
*
नवीन की कविताओं की भाषा आज की पीढ़ी की भाषा है| वे अंग्रेजी, उर्दू और अन्य लोक भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग उन्मुक्तता से करते हैं| मेरा मत है कि अभारतीय भाषाओँ के शब्द तभी प्रयोग करने चाहिए जब हिंदी या अन्य भारतीय लोक भाषाओँ में उस अभिव्यक्ति के लिये कोई शब्द न हो| नवीन मुझसे आंशिक सन्मति आंशिक असहमति रखते हैं और उसे छिपाते नहीं. उदाहरणार्थ 'वर्ल्ड  बैंक' को 'विश्व बैंक' लिखने का सुझाव उन्हें नहीं रुचता|

नवीन सिर्फ वर्तमान की आलोचना नहीं करते, वे गुत्थियों को सुलझाने के नुस्खे भी बताते हैं-

सुलझा लें  गुत्थी,  सदियों से,  अनसुलझी हैं बहुतेरी|
आज नहीं,  तो कभी नहीं,  कल फिर हो जायेगी देरी||
*
तुम जो कहो तो, अब के बरस हम, ऐसे मनाएँ पर्वों को| 
साल महीने, सारा जहाँ, ना सौदा करे हथियारों का|

नवीन का काव्य संस्कार संस्कृत पिंगल, हिंदी काव्य शास्त्र, उर्दू ग़ज़ल, लोकभाषिक तथा अंग्रेजी शब्दों का ऐसा गुलदस्ता है जिसकी खूबसूरती और सुगंध दोनों को जल्दी भुलाया नहीं जा सकता| अंतरजाल पर हिंदी भाषा के शब्द भंडार को समृद्ध करने, व्याकरण और काव्य शास्त्र को नयी पीढ़ी तक पहुँचाकर काव्य रूपों (छंदों) को युवाओं में लोकप्रिय बनाने के अभियान में नवीन ने मेरे साथ भरपूर परिश्रम किया है| उनका साथ मेरे लिये संबल भी है और प्रेरणा भी|


उनका समीक्ष्य अंतर्जालिक काव्य संकलन 'कुछ अपना कुछ औरों का अहसास' पाठकों को रुचना चाहिए. टंकण और मात्रा की चंद त्रुटियाँ असावधानी से हुई हैं उनके लिये मुझे खेद है| मुझे मालूम है नवीन अभी आसमाँ की बुलंदियों पर नहीं पहुँचा है किन्तु इसकी योग्यता उसमें है, आवश्यकता लगातार चलते रहने  की है मंजिल खुद-ब-खुद उसे खोज लेगी.
*
Acharya Sanjiv Salil

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एक गीत: जीवन को महकाता चल -- उदयभानु तिवारी 'मधुकर'


  • एक गीत:
    जीवन को महकाता चल
    उदयभानु तिवारी 'मधुकर'
    *

  • जीवन को महकाता चल...
    *
    हँसता  चल हँसाता चल गुलशन के सुमन सजाता चल
    जग पर्वत के कंटक पथ पर अपनी धुन में गाता चल...

    चाहे आतप की दुपहर हो चाहे शीतल छाँव हो
    मंजिल तक है तुम्हें पहुँचना धीमे पड़ें न पाँव हो
    पग-पग पर अँगार दहकते डगर-डगर भटकाव हो
    दर्द न बाँटे जग में कोई रखो छिपाकर घाव हो

    क्रोध के कड़वे घूँट निगल मुस्कान अधर बिखराता चल...
    चाहे ग्रहण लगा हो सूरज सरसिज भी कुम्हलाया हो ;
    घोर अँधेरी रात का चाहे सूनापन भी छाया हो 
    असह वेदना ने आँखों में अश्रु-बिंदु छलकाया हो;
    दृढ संकल्प कभी ना डोले चाहे तन मुरझाया हो

    प्यार की गागर से बगिया में जीवन रस बरसाता चल...
    *
    घबरानामत कभी धार में यदि छूटे पतवार हो 
    साहस भुजा समेट भँवर में धीरज से उस पार हो
    नाव पुरानी इक दिन डूबे नश्वर यह संसार हो
    क्या जाने जग में कब होगा फिर दूजा अवतार हो

    निजकार्मों से इस धरती पर जीवन को महकाता चल..
    *

दोहा सलिला: दोहा के रंग यमक के सँग ---संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा के रंग यमक के सँग
संजीव 'सलिल'
*
मत सकाम- निष्काम कर, आपने सारे काम.
मत सब धर्मों का यही, अधिक न अच्छा काम..
*
सालों सालों से रहे, जीजा लेते माल.
सालों सालों-भगिनी ने, घर में किया धमाल..
*
हमने फूल कहा उन्हें, समझ रहे वे फूल.
दिन दूने निशि चौगुने, नित्य रहे वे फूल..
*
मद न चढ़े पद का तनिक, मदन न मोहे मीत.
हम दन-दन दुश्मन कुचल, रचें देश पर गीत..
*
घूस खोखली नींव कर, देती गिरा मकान.
घूस खोखली नींव कर, मिटा रही इंसान..
*
हमने पूछा: बतायें, है कैसा आकार?
तुरत बताने वे लगे, हमें निकट आ कार..
*
पिया पिया है प्रेम का, अमृत हुई मैं धन्य.
क्या तुम भी कर सके हो, मुझसे प्रीति अनन्य?
*
Acharya Sanjiv Salil

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शनिवार, 27 अगस्त 2011

हास्य कुण्डली: साली महिमा --संजीव 'सलिल'

हास्य कुण्डली:
साली महिमा
संजीव 'सलिल'
*
साली जी गुणवान हैं, जीजा जी हैं फैन..
साली जी रस-खान हैं, जीजा सिर्फ कुनैन..
जीजा सिर्फ कुनैन, फ़िदा हैं जीजी जी पर.
सुबह-शाम करते सलाम उनको जी-जी कर..
बीबी जी पायी हैं मधु-रस की प्याली जी.
बोनस में स्नेह लुटाती हैं साली जी.
*
साली की महिमा बड़ी, कभी न भूलें आप.
हरि के पहले कीजिये साली जी का जाप..
साली जी का जाप करें उपवासे रहकर.
बीबी रहे प्रसन्न, भाव-सलिला में बहकर..
सुने प्रार्थना बीबी, दस दिश हो खुशहाली..
सुने वंदना जिस जीजा से प्रतिदिन साली.
*
जिसकी साली हो नहीं, उसका चैन हराम.
नीरस हो जीवन सकल, बिगड़ें सारे काम..
बिगड़ें सारे काम, रहें गृह लक्ष्मी गुमसुम.
बिन संज्ञा के सर्वनाम नाकारा हो तुम.
कहे 'सलिल' साली-वंदन से  किस्मत चमकी.
उसका गृह हो स्वर्ग, खूब हो साली जिसकी..
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मुक्तिका: ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.
संजीव 'सलिल'
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ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की.
इसमें बसी है खुशबू जिगर के उफान की..

महलों में सांस ले न सके, झोपडी में खुश. 
ये शायरी फसल है जमीं की, जुबान की..

उनको है फ़िक्र कलश की, हमको है नींव की.
हम रोटियों की चाह में वो पानदान की..

सड़कों पे दीनो-धर्म के दंगे जो कर रहे.
क्या फ़िक्र है उन्हें तनिक भी आसमान की?

नेता को पाठ एक सियासत ने यह दिया.
रहने न देना खैरियत तुम पायदान की.

इंसान की गुहार करें 'सलिल' अनसुनी.
क्यों कर उन्हें है याद आरती-अजान की..
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दोहा सलिला: यमक का रंग दोहे के संग- अधर बनें श्री-वान... --- संजीव 'सलिल'

गले मिले दोहा यमक
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मत लब पर मुस्कान रख, जब मतलब हो यार.
हित-अनहित देखे बिना, कर ले सच्चा प्यार..
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अमरस, बतरस, काव्यरस, नित करते जो पान.
पान मान का ग्रहणकर, अधर बनें श्री-वान..
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आ राधा ने कृष्ण को, आराधा दिन-रैन.
अ-धर अधर पर बाँसुरी, कृष्ण हुए बेचैन..
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जल सा घर कोई नहीं, कहें पुलककर मीन.
जलसा-घर को खोजते, मनुज नगर में दीन..
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खुश बू से होते नहीं, खुशबू सबकी चाह.
मिले काव्य पर वाह- कर, श्रोता की परवाह..
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छतरी पानी से बचा, भीगें वसन न आज.
छत री मत चू आ रही, प्रिया बचा ले लाज..
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हम दम लेते किस तरह?, हमदम जब बेचैन.
उन्हें मनायें किस तरह, आये हम बे-चैन..
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शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

गीत: रेडिओ नहीं है यंत्र मात्र -- संजीव 'सलिल'

गीत:                                                                     
रेडिओ नहीं है यंत्र मात्र
संजीव 'सलिल'
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रेडिओ नहीं है यंत्र मात्र
यह जनगण-मन की वाणी है...
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यह सुख-दुःख का साथी सच्चा.
चाहे हर वृद्ध, युवा, बच्चा.
जो इसे सुन रहे, गुनते भी-
तुम समझो इन्हें नहीं कच्चा.
चेतना भरे सबके मन में
यह यंत्र नहीं पाषाणी है...
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इसमें गीतों की खान भरी.
नाटक-प्रहसन से हँसी झरी.
कर ताक-झाँक दादी पूछें-
'जो गाती इसमें कहाँ परी?'
प्रातः गूँजे आरती-भजन
सुर-राग सभी कल्याणी है..
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कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य सिखाता है.
उत्तम बातें बतलाता है.
क्या-कहाँ हो रहा सही-गलत?
दर्पण बन सच दिखलाता है.
पीड़ितों हेतु रहता तत्पर
दुःख-मुक्ति कराता त्राणी है...
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com