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मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

स्तुति: माँ नर्मदे! -चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध'

आ गया हूँ फ़िर तुम्हारे द्वार मैं माँ नर्मदे!
चाहिए मुझको तुम्हारा प्यार हे माँ नर्मदे!॥

जन्म-मर तट पर तुम्हारे ज्ञान-गुण सन्नद्ध हो।
धर्म ही अनिवार्यता से विवश हित आबद्ध हो।
प्रगतिशाली दृष्टि से भावी सफलता के लिए-
प्रेरणा ली नित तुम्हारी धार से माँ नर्मदे!॥

दूर-दूर गया सदा निज धर्म की अनुरक्ति से।
पा सदा कुछ स्वर्ण-धन सत्संग श्रम सद्भक्ति से।
कुछ देश, कुछ परिवेश कुछ परिवार के सुख के लिए-
पा लोकसेवा का सहज आधार हे माँ नर्मदे!॥

है सदा गति में मेरी कर्तव्यबोधी भावना।
इसी से कर सदा नित श्रम समय की आराधना।
कुछ सुखद संयोग संबल नेह बल विश्वास भी-
मिल सका अब तक सदा साभार हे माँ नर्मदे!॥

शान्ति-सुख की कामना ले, आ गया फ़िर मैं यहाँ।
साधना का यह पुरातन क्षेत्र है पवन महा।
दीजिये आशीष हो साहित्य सेवा के लिए-
रस-भावना अभिव्यक्ति पर अधिकार हे माँ नर्मदे!॥

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बाल गीत: भोर की धूप - पुष्पलता शर्मा, अहमदाबाद

सोन बाई सोन बाई
नीचे तो आ।
झाडों के ऊपर
तू सोना झरा॥

बदल के पीछे से
सोनेरी तीर छोड़।
घास फूल पत्तों में
जान तो जगा॥

मन्दिर में सोते जो
राम, कृष्ण, शंकर,
खिड़की से झांक-झांक
उन्हें तो जगा॥

भोर हुई, रात गयी
नभ से सोना बरसे,
सोने की घंटी का,
गीत तो सुना॥

चिडियों की तिहुर-तिहुर,
कौवों की कांव-कांव,
पीपल के पत्तों में
नीचे की धूप-छाँव॥

सड़कों पर, बागों पर
नगर के तालाबों पर,
सूखऐ और खिले हुए
मोगरा गुलाबों पर॥

रोते पर, हंसते पर
भूख से बिलखते पर,
कोमल से ममतामय
हाथों से सोनबाई
मरहम सी, सोने की,
परत तो चढा॥
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बोध कथा: ईश्वर का निवास -मंजू मिश्रा, अहमदाबाद.

फारस देश का निवासी मलिक अपने पुत्र हुसैन के साथ रहता था। वह नित्य जल्दी उठकर श्रद्धा और भक्ति से मस्जिद जाता और समय पर घर वापिस आ जाता। एक रोज़ की बात है जब वह मस्जिद से घर लौटा तो उसने देखा घर के सभी नौकर अपने-अपने बिस्तरों पर अब अटक गहरी नींद में सो रहे हैं। यह देखकर हुसैन को बड़ा क्रोध आया और वह बोला- 'तुम सभी अधर्मी हो, नास्तिक हो। तुम लोगों के मन में ईश्वर के लिए जरा भी स्थान नहीं है।'


इतने में हुसैन के पिता मलिक उसकी ऊंची आवाज़ सुनकर वहां पहुँच गए और बोले- 'बेटा! तुम इन दीन आत्माओं पर क्यों क्रोध कर रहे हो? ये तो दिन भर के कार्य की थकन के कारण प्रातः शीघ्र उठने में असमर्थ हैं। इन भोले-भले लोगों का कष्ट देखकर और फ़िर भी उन्हें उठने को कहकर अपनी धर्म-निष्ठां और अच्छे कर्मों को मत बिगाडो। मैं यही चाहता हूँ। तुम भी प्रातः देर से उठो और मस्जिद मत जाओ क्योंकि तुम्हें गर्व होने लगा हैकि तुम इन सभीसे अधिक धार्मिक हो और उन्हें दोष देते हो वे अधर्मी हैं जिसके लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं।'


अतः, सदैव यह याद रखो कि तुम्हारी जो इच्छा है वह दूसरे की भी हो सकती है। भले ही उसका नाम अलग हो किंतु वह तुम ही हो। जब कोई अच्छा कार्य करते हो तो वह स्वयं के लिए करते हो। यदि किसी को दुःख देते हो तो उससे अधिक दुःख प्राप्त होता है। हुसैन के पिता मलिक ने अपने पुत्र को यह समझाया कि सभी में ईश्वर का निवास है। किसी पर क्रोध करना उचित नहीं है। हर प्राणी के प्रति हर किसी को दयालु व सहिष्णु होना चाहिए।

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सूक्ति कोष प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'

सूक्ति कोष


प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'


विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के.


इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है की वन प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


नियाज़ जी कहते हैं- 'साहित्य उतना हे सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। ..प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।'


आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।


सूक्तियां शेक्सपिअर के साहित्य से-


action कार्य:


'if to do werw as easy to know what were good to do, chapels ha dbeen churches, and poor man's cottages princes' palaces.'


यदि सत्कार्य के ज्ञान के समान उसका संपादन भी सरल होता तो साधारण उपासना गृह भी गिरिजाघर तथा दीं की कुटी भी राज भवन ही होते।


अगर ज्ञान के सदृश ही, होता कार्य सुजान।


पूजाघर मन्दिर, कुटी होती महल महान ॥


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शब्द-यात्रा, अजित वडनेरकर

शब्द-यात्रा

अजित वडनेरकर

गर आप संगीत प्रेमी हैं और बाऊल संगीत नहीं सुना तो आपको अभागा माना जा सकता है । क्योंकि बाऊल तो भक्ति संगीत की एक ऐसी धारा है जिसमें डुबकी लगाए बिना गंगासागर में स्नान का पुण्य भी शायद निरर्थक है। बंगाल भूमि से उपजे इस भक्तिनाद में माधुर्य और समर्पण का ऐसा राग-विराग है जो श्रोता पर परमात्मा से मिलने की उत्कट अभिलाषा का रहस्यवादी प्रभाव छोड़ता है।

बाऊल भी इस देश की अजस्र निर्गुण भक्ति धारा के महान अनुगामी हैं जिनमें सूफी फ़कीर भी हैं तो वैष्णव संत भी। बाऊल बंगाल प्रांत के यायावर भजनिक हैं। ये आचार-व्यवहार से वैष्णव परिपाटी के होते हैं और चैतन्यमहाप्रभु की बहायी हुई भक्तिधारा का इन पर प्रभाव स्पष्ट है। मगर इन्हें पूरी तरह से वैष्णव कहना गलत होगा। बाऊल सम्प्रदाय में हिन्दू जोगी भी होते हैं और मुस्लिम फकीर भी। ये गांव-गांव जाकर एकतारे के साथ निर्गुण-निरंजन शैली के गीत गाते हैं। न सिर्फ बंगाल भर में बल्कि अब तो दुनियाभर में ये बेहद लोकप्रिय हैं।

आप अगर बाऊल संगीत सुन सकें तो हिन्दी फिल्मों के कई गीत याद आ जाएंगे, जो इस सरल संगीत शैली से प्रभावित हैं। इस सम्प्रदाय में सूफी मत से लेकर बौद्धों के तंत्र-मंत्रवादी रहस्यवाद का भी प्रभाव मिलता है। वैष्णवों की प्रेमपगी भक्तिसाधना तो इनकी पहली पहचान ही है।

बाऊल शब्द के विषय में कई तरह के मत प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार यह शब्द फारस की सूफी परम्परा बा’अल से निकला है। यह पंथ बारहवीं सदी में यमन के प्रसिद्ध सूफी संत अली बा अलावी अल हुसैनी Ali Ba'Alawi al-Husaini के नाम से शुरू हुआ था। इस्लाम की सहज-सरल समानतावादी दृष्टि की शिक्षा देने वाले इस पंथ के सूफियों का भारत आगमन हुआ और बंगाल की संगीतमय पृष्ठभूमि में इन्हें अपने अध्यात्म को जोड़ते देर नहीं लगी।

एक अन्य मत के अनुसार बंगाल में बाऊल संगीत कब से शुरू हुआ कहना कठिन है मगर इसका रिश्ता संस्कृत के वातुल शब्द से है। वातुल बना है वात् धातु से जिसका मतलब है वायु, हवा। गौरतलब है कि शरीर के तीन प्रमुख दोषों में एक वायुदोष भी माना जाता है। बाहरी वायु और भीतरी वायु शरीर और मस्तिष्क पर विभिन्न तरह के विकार उत्पन्न करती है। आयुर्वेद में इस किस्म के बहुत से रोगों का उल्लेख है। वातुल शब्द में वायु से उत्पन्न रोग का ही भाव है। आमतौर पर जिसकी बुद्धि ठिकाने पर नहीं रहती उसके बारे में यही कहा जाता है कि इसे गैबी हवा लग गई है। बहकना शब्द पर ध्यान दीजिए। इसे आमतौर पर पागलपन से, उन्माद से ही जोड़ा जाता है। संस्कृत की वह् धातु का अर्थ भी वायु ही होता है अर्थात जो ले जाए। वायु की गति के आधार पर यह शब्द बना है। वह् का रूप हुआ बह जिससे बहाव, बहना या बहक-बहकना जैसे शब्द बने।

किसी रौ में चल पड़ना, या जिसका मन-मस्तिष्क किसी खास लहर पर सवार रहता हो, उसके संदर्भ में ही यह क्रिया बहक या बहकना प्रचलित हुई। जाहिर है, यहा वायुरोग के लिए ही संकेत है। वातुल के दार्शनिक भाव पर गौर करें। अपनी धुन में रहनेवाले, मनमौजी लोगों को भी समाज में पागल ही समझा जाता है। तमाम सूफी संतों, फकीरों, औलियाओं और पीरों की शख्सियत रहस्यवादी रही है। परमतत्व के प्रति इनकी निराली सोच, उसे पाने के अनोखे मगर आसान रास्ते और प्रचलित आराधना पद्धतियों-आराध्यों से हटकर अलग शैली में निर्गुण भक्ति का रंग इन्हें बावला साबित करने के लिए पर्याप्त था। स्पष्ट है कि वातुल से ही बना है बाऊल। इसी तरह वातुला से बना है बाउला या बावला। इसका एक अन्य रूप है बावरा। प्रख्यात गायक बैजू बावरा के नाम के साथ जुड़ा बावरा शब्द इसी वातुल से आ रहा है। बैजू की संगीत के प्रति दीवानगी के चलते उसे दीनो-दुनिया से बेखबर बनाती चली गई। सामान्य अर्थों में वह सामाजिक नहीं था, सो वातरोगी के लिए, उन्मादी के लिए प्रचलित बावला शब्द अपने दौर के एक महान गायक की पदवी बन गया।

किन्हीं विशिष्ट अवसरों पर चाहे आह्लादकारी हों या विशादकारी, प्रभावित व्यक्ति के विचित्र क्रियाकलापों को बौराना कहा जाता है। कुछ लोग इसे आम्रबौर से जोड़ते हैं। यह ठीक नहीं है। यह बौराना दरअसल बऊराना ही है यानी वातुल से उपजे बाऊल की कड़ी का ही शब्द। जिस मूल से बावरा जैसा शब्द बना है, उससे ही बौराना-बऊराना भी बना है। एक अन्य दृष्टकोण के अनुसार निर्गुण वैष्णव भक्तिमार्गियों के इस विशिष्ट सम्प्रदाय के लिए बाऊल शब्द के मायने इनकी उत्कटता, लगन और परमतत्व से मिलने की व्याकुलता है। व्याकुल शब्द ने ही ब्याकुल और फिर बाऊल रूप लिया। यूं देखा जाए तो वात या वातुल शब्द से बाऊल की व्युत्पत्ति का आधार मुझे ज्यादा तार्किक लगता है क्योंकि उसके पीछे भाषावैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण अधिक प्रभावी है। अली सरदार जा़फरी भी अपनी कबीरबानी में इन्हें बाऊल=बावला अर्थात उन्मत्त लिखते हैं जो सभी परम्परागत बंधनों से मुक्त होकर हवा की तरह मारे मारे फिरते हैं।

... अली सरदार ज़ाफरी साहब ने एके सेन की हिन्दुइज्म पुस्तक से एक बेहतरीन नजी़र दी है जो बाऊल क्या हैं, यह बताती है। सेन साहब ने ज्वार के वक्त गंगातट पर बैठे एक बाऊल से पूछा कि वे आने वाली पीढ़ियों के लिए अपना वृत्तांत क्यों नहीं लिखते। बाऊल ने कहा कि हम तो सहजगामी है, पदचिह्न छोड़ना ज़रूरी नहीं समझते। उसी वक्त पानी उतरा और मांझी पानी में नाव धकेलने लगे। बाऊल ने सेन महाशय को समझाया, ‘क्या भरे पानी में कोई नाव निशान छोड़ती है ? केवल वही मांझी जो मजबूरी की वजह से कीचड़ में नाव चलाते हैं, निशान छोड़ते हैं। बाऊल केवल बाऊल है। वह किसी भी वर्ग से आए।

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ग़ज़ल, मनु 'बेतख्ल्लुस

ग़ज़ल

-मनु 'बेतख्ल्लुस', दिल्ली

गमे-हस्ती के सौ बहाने हैं,

ख़ुद ही अपने पे आजमाने हैं।

सर्द रातें गुजारने के लिए,

धूप के गीत गुनगुनाने हैं।

कैद सौ आफ़ताब तो कर लूँ,

क्या मुहल्ले के घर जलाने हैं।

आ ही जायेंगे वो चराग ढले,

और उनके कहाँ ठिकाने हैं।

फ़िक्र पर बंदिशें हजारों हैं,

सोचिये, क्या हसीं जमाने हैं।

तुझ सा मशहूर हो नहीं सकता,

तुझ से हटकर, मेरे फ़साने हैं।

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मुक्तिका: सो जाइए -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

सो जाइए

संजीव 'सलिल'
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'सलिल' को दे दर्द अपने, चैन से सो जाइए।
नर्मदा है नेह की, फसलें यहाँ बो जाइए।

चंद्रमा में चांदनी भी और धब्बे-दाग भी।
चन्दनी अनुभूतियों से पीर सब धो जाइए।

होश में जब तक रहे, मैं-तुम न हम हो पाए थे।
भुला दुनिया मस्त हो, मस्ती में खुद खो जाइए।

खुदा बनने था चला, इंसां न बन पाया 'सलिल'।
खुदाया अब आप ही, इंसान बन दिखलाइए।

एक उँगली उठाता है जब भी गैरों पर 'सलिल'
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए।

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सोमवार, 13 अप्रैल 2009

कुण्डली -आचार्य संजीव 'सलिल'

हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।

जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।

वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।

ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- न दाल गलेगी।

कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।

मिलती है ऊँचाई केवल नीचाई से.

पान-पन्हैया और आम चुनाव- संजीव 'सलिल'

पान पन्हैया की रही, भारत में पहचान।
पान बन गया लबों की, युगों-युगों से शान।
रही पन्हैया शेष थी, पग तज आयी हाथ।
'सलिल' मिसाइल बन चली, छूने सीधे माथ।
जब-जब भारत भूमि में होंगें आम चुनाव।
तब-तब बढ़ जायेंगे अब जूतों के भाव।
- आचार्य संजीव 'सलिल' सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

समाचार : शोध-प्रश्नों के उत्तर दीजिये

प्रश्न उठे उत्तर हैं शेष, पाठक करिए इन्हें अशेष.

आत्मीय!
'परहित सरिस धरम नहीं भाई !
किसी का हित करने का ऐसा अवसर मिले की आपकी गाँठ से कौडी भी न जाए तो धर्म करने का यह अवसर कौन चूकना चाहेगा? आपके सामने एक ऐसा ही अवसर है।
आप जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में पत्रकारिता एंव जनसंचार विभाग की द्वितीय वर्ष की छात्रा निहारिका श्रीवास्तव के कुछ प्रश्नों के उत्तर देकर उसके लघु शोध कार्य में सहायक हो सकते हैं। sनाताकोत्तर चतुर्थ सत्र में उसके लघु शोध पत्र का विषय है - 'बेव पत्रकारिता का बिकास एंव संभावनाये' । प्रश्न निम्न है--
प्रश्न १ : ई न्यूज पेपर क्या है?
प्रश्न 2 : पोर्टल क्या है?
प्रश्न 3 : डाॅट इन, डाॅट काम, डाॅट ओ। आर। जी। तथा अन्य सबंधित शब्दों के अर्थ एवं बेव पत्रकारिता में उनकी भूमिका?
प्रश्न 4 : भारत में बेव पत्रकारिता का प्रचलन कैसा है एंव मुख पोर्टल कौन कौन से है?
प्रश्न 5: वेब पत्रकारिता के विभिन्न स्वरूप एंव उनके समक्ष आने वाली चुनौतिया क्या है।
दिव्य नर्मदा के पाठक / दर्शक इन प्रश्नों के उत्तर देकर इस लधु शोध पत्र के लिए संजीवनी बूटी के समान सहायक सिद्ध हों। इन प्रश्नों के अतिरिक्त उक्त शोध पत्र से संबधित अन्य कोई जानकारी रखते है तो आप निहारिका को अपने ज्ञान से अनुगृहित करें।
निहारिका का ee मेल पता जीमेल.कॉम">---naina7786@जीमेल.कॉम
डाक का पता : निहारिका श्रीवास्तव, जनसंचार एंव पत्रकारिता अध्ययन केन्द्र, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

नमन नर्मदा :

नमन नर्मदा

सुशीला शुक्ला

गुलों स्व खेलती
पहाडों पर उछलती
चंचल बाला सी
खिलखिलाती बहती हो।

सुबह सूरज से खेल
रात तारों को ओढ़
चन्द्र तकिया लगा
परी बन लुभाती हो

फूलों को अपने
आगोश में समेटकर
नेह नर धरती पर
अपने बिखेर कर

लहराती फसलों में
झूम रहे जंगल में
हरियाली से झाँक रहा
तेरा अस्तित्व माँ

लहरों में तैरती
इतिहास की परछाइयाँ
मं को डुबोती हैं
तेरी गहराइयां

वायु के झकोरे जब
छेदते तरंगों को
जल तरंग सी बजकर
कानों को छलती हो

मंगलाय मन्त्र ऐसे
वाणी से झरते हैं
सदियों से जाप करें
जैसे तपस्विनी

धरती को परस रही
परस सा नीर निज
मेरे शब्दों में ढली
बनीं कविता कामिनी।
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हास्य रचना स्वादिष्ट निमंत्रण तुहिना वर्मा 'तुहिन'

हास्य रचना

स्वादिष्ट निमंत्रण

तुहिना वर्मा 'तुहिन'

''खट्टे-मिट्ठे जिज्जाजी को चटपटी साली जी यानी आधी घरवाली जी की ताज़ा-ताज़ा गरमागरम मीठी-मीठी नमस्ते। यह कुरकुरी पाती पाकर आपके मन में पानी - बतासे की तरह मोतीचूर के लड्डू फूटने लगेंगे क्योंकि हम आपको आपकी ससुराल में तशरीफ़ लाने की दावत दे रहे हैं। मौका? अरे हुजूर मौका तो ऐसा है कि जो आये वो भी पछताए...जो न आये वह भी पछताए क्योंकि आपकी सिर्चाधी सिरफिरी साली इमरतिया की शादी यानी बर्बादी का जश्न बार-बार तो होगा नहीं। ये रस मलाई जैसा मिठास भरा रिश्ता पेडा शहर, कचौडी नगर, के खीरपुर मोहल्ले के मोटे-ताजे सेठ समोसामल मिन्गौडीलाल के हरे-भरे साहिबजादे, खीरमोहन सिवईन्प्रसाद के साथ होना तय हुआ है। चांदनी चौक में चमचम चाची को चांदी की चमचमाती चम्मच से चिरपिरी चटनी चटाकर चर्चा में आ चुके चालू चाचा अपने आलूबंडे बेटे और भाजीबदा बिटिया के साथ चटखारे लेते हुए आकर डकार रहे हैं। जलेबी जिज्जी, काजू कक्का, किशमिश काकी, बादाम बुआ, फुल्की फूफी, छुहारा फूफा, चिरौंजी चाची, चिलगोजा चाचा, मखाना मौसा, मुसम्बी मौसी, दही-बड़ा दादा, दाल-भात दादी, आज गुलाब जामुन-मैसूर्पाग एक्सप्रेस से आइसक्रीम खाते हुए, अखरोटगंज स्टेशन पर उतरेंगे. रसमलाई धरमशाला में सदेश बैंड, बर्फी आर्केस्ट्रा, सिवई बानो की कव्वाली, बूंदी बेगम का मुजरा, आपको दिल थामकर आहें भरने पर मजबूर कर देगा. शरबती बी के बदबख्त हाथों से भांग पीकर आप पोंगा पंडित की तरह अंगुलियाँ चाटते हुए कार्टून या जोकर नजर आयेंगे. पत्थर हज़म हजम हाजमा चूर्ण, मुंह जलाऊ मुनक्का बाती के साथ मीठे मसाले वाला पान और नशीला पान बहार लिए आपके इन्तेज़ार में आपकी नाक में दम करनेवाली रस की प्याली रबडी मलाई

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

ग़ज़ल स्व. नादां इलाहाबादी

जिस दिल पे मुझको नाज़ था...

पहलू में मेरे जब से मेरा दिल नहीं रहा।
उनकी नजर में मैं किसी काबिल नहीं रहा।।

समझा उसी ने दहर में कुछ राजे-बंदगी।
दैरो-हरम का जो कभी कायल नहीं रहा।।

किस दिल से अब सुनाएँ तुम्हें दिल की दास्ताँ।
जिस दिल पे मुझको नाज़ था वह दिल नहीं रहा।।

महवे-खयाले-दूरिये-मंजिल था इस कदर।
मुझको खयाले-दूरिये-मंज़िल नहीं रहा।।।

दिल ही से जहाँ में सब लुत्फे-जिन्दगी.
क्या लुत्फ़ जिंदगी का अगर दिल नहीं रहा?

उसकी इनायतों में तो कोई कमी नहीं।
मैं ही निगाहे-लुत्फ़ के काबिल नहीं रहा।

दुनिया ने आँखें फेर लीं नादाँ तो क्या गिला?
दिल भी तो मेरा अब वह मेरा दिल नहीं रहा.

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ग़ज़ल मनु बेतखल्लुस

बेखुदी, और इंतज़ार नहीं,
छोड़ आई नज़र क़रार कहीं
तेरी रहमत है, बेपनाह मगर
अपनी किस्मत पे ऐतबार नहीं
निभे अस्सी बरस, कि चार घड़ी
रूह का जिस्म से, क़रार नहीं
सख्त दो-इक, मुकाम और गुजरें,
फ़िर तो मुश्किल, ये रह्गुजार नहीं
काश! पहले से ये गुमाँ होता,
यूँ खिजाँ आती है, बहार नहीं
अपने टोटे-नफे के राग न गा,
उनकी महफिल, तेरा बाज़ार नहीं
जांनिसारी, कहो करें कैसे,
जां कहीं, और जांनिसार कहीं
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लघुकथा : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

लघु कथा
ज़हर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमीने पूछा।
--'क्यों अभी कटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ?, आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है तो किसी आदमी को काटता, तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त कह ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमती जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
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गीत : पारस मिश्रा

वंश डूबा देंगे कबीर का,
ऐसे लक्षण हैं कमाल में।
उजियारा कम धुआं बहुत है-
इस अवसरवादी मशाल में।

भीड़ तंत्र की नृत्य-मंडली।
टेढी सी लगती अंगनाई।
रह-रह बजे बीन पछुओं की,
लिए मुहर्रम होली आयी।
पात-पात पर टंगी-झूमती, सी -
आकाश-बेल की मस्ती।
मुर्दों के श्रृंगार-साज में-
व्यस्त-त्रस्त जीवन की बस्ती।
अंगारों से प्रश्न दहकते,
टहनी पर उडती गुलाल में...

पनप रही बरगद के नीचे-
नेतागीरी-नौकरशाही।
भाषण, कुर्सी, फाइल, फीते-
छीना-झपटे, हाथा-पायी।
औंधे मुंह बुनियादी ईंटें-
गाती हैं गाथा मुंडेर की।
सारा खेत चारे जाते हैं-
गधे ओढ़कर खाल शेर की।
असली राजहंस लगते हैं-
सारे बगुले चाल-ढाल में...

अब भी देश निरा नंगा है,
जिन्दा है, अभाव रोटी का।
फ़िर भी कर्णधार रखता है-
ज्यादा ध्यान लाल गोटी का।
दूध-धुली मोहक प्रतिश्रुतियाँ-
सिद्धांतों पर जमी मेल है।
आश्वासन की पतिव्रताये-
जाने कितनों की रखैल हैं?

लटके चम्गादड से वादे-
पात-पात में, डाल- डाल में...

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नर्मदा स्तवन

नमन नर्मदा

- संजीव 'सलिल'

नित्य निनादित नर्मदा, नवल निरंतर नृत्य।

सत-शिव-सुन्दर 'सलिल' सम, सत-चित-आनंद सत्य।

अमला, विमला, निर्मला, प्रबला, धवला धार।

कला, कलाधर, चंचला, नवला, फला निहार।

अमरकांटकी मेकला, मंदाकिनी ललाम।

कृष्णा, यमुना, मेखला, चपला, पला सकाम।

जटाशांकरी, शाम्भवी, स्वेदा, शिवा, शिवोम्।

नत मस्तक सौंदर्य लख, विधि-हरि-हर, दिक्-व्योम।

चिरकन्या-जगजननि हे!, सुखदा, वरदा रूप।

'सलिल'साधना सफलकर, हे शिवप्रिया अनूप।

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बुधवार, 8 अप्रैल 2009

स्तवन : माँ शारदा अवनीश तिवारी

नारद के काव्य में,

मोहन की बंसी में,

नटराज के नृत्य में

सर्वत्र माँ शारदा

सुर और ताल में ,

गुण और गान में ,

वेद और पुराण में ,

सर्वत्र माँ शारदा

मस्तिष्क की संवेदना में ,

मन की वेदना में,

ह्रदय की भावना में

सर्वत्र माँ शारदा

मेरी मुक्त स्मृतियों में ,

ऋचा और कृतियों में ,

एकांत की अनुभूतियों में ,

सर्वत्र माँ शारदा
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ग़ज़ल : समीर लाल

ग़ज़ल


सुधीर लाल 'उड़नतश्तरी'


मौत से दिल्लगी हो गयी।


जिन्दगी अजनबी हो गयी।


दोस्तों से तो शिकवा रहा।


गैरों से दोस्ती हो गयी।


उसके हंसने से जादू हुआ।


तीरगी रौशनी हो गयी


साँस गिरवी है हर इक घड़ी।


कैसी ये बेबसी हो गयी?


रात भर राह तकता रहा।


गुम कहाँ चांदनी हो गयी।


आपका नाम बस लिख दिया।


लीजिये शायरी हो गयी


अपने घर का पता खो गया।


कैसी दीवानगी हो गयी?


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नव गीत- आचार्य संजीव 'सलिल'

दिन भर मेहनत
आंतें खाली,
कैसे देखें सपना?...

दाने खोज,
खीजता चूहा।
बुझा हुआ
है चूल्हा।
अरमां की
बरात सजी-
पर गुमा
सफलता दूल्हा।
कौन बताये
इस दुनिया का
कैसा बेढब नपना ?...

कौन जलाये
संझा-बाती
गयी माँजने बर्तन.
दे उधार,
देखे उभार
कलमुंहा सेठ
ढकती तन.
नयन गडा
धरती में
काटे मौन
रास्ता अपना...

ग्वाल-बाल
पत्ते खेलें
बलदाऊ
चिलम चढाएं।
जेब काटता
कान्हा-राधा छिप
बीडी सुलगाये.
पानी मिला दूध में
जसुमति बिसरी
माला जपना...

बैठ मुंडेरे
बोले कागा
झूठी आस
बंधाये।
निठुर न आया,
राह देखते
नैना हैं
पथराये.
ईंटों के
भट्टे में
मानुस बेबस
पड़ता खपना...

श्यामल 'मावस
उजली पूनम,
दोनों बदलें
करवट।
साँझ-उषा की
गैल ताकते
सूरज-चंदा
नटखट।
किसे सुनाएँ
व्यथा-कथा
घर की
घर में
चुप ढकना...

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