ईशावास्योपनिषद सानुवाद टीका
उपनिषद का शब्दकोषीय अर्थ है समीप बैठना, गुरु के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त करना, भिन्नार्थ ईश्वर के समीप होकर सत्य और ब्रह्म की प्रतीति करना। उपनिषद वेदांत का सार (निचोड़) है। उपनिषद बताता है कि प्रभु को कैसे पाया जाए, आप अपने लिए उसके प्रेम को कैसे अनुभव कर सकते हैं। इसका अर्थ यही है कि परब्रह्म सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु उसकी अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हमारी ये भौतिक आँखेंं उसे नहीं देख पातीं। जो परमात्मा वहाँ स्थित है, वही मेरे भीतर विद्यमान है। मैं ध्यान द्वारा ही उसे देख पाता हूँ। हे अग्ने! हे विश्व के अधिष्ठाता! आप कर्म-मार्गों के श्रेष्ठ ज्ञाता हैं। आप हमें पाप कर्मों से बचायें और हमें दिव्य दृष्टि प्रदान करें। यही हम बार-बार नमन करते हैं। ईशावास्य उपनिषद में संभूति तथा असंभूति, विद्या तथा अविद्या के परस्पर भेद का ही स्पष्ट निदर्शन है। अंत में आदित्यजगत पुरुष के साथ आत्मा की एकता प्रतिपादित कर कर्मी और उपासक को संसार के दु:खों से कैसे मोक्ष प्राप्त होता है, इसका निर्देश किया गया है। लघुकाय होने पर भी यह उपनिषद अपनी नवीन दृष्टि के कारण उपनिषदों में नितांत महनीय माना गया है।
गुरु समीप बैठें-करें, प्राप्त सनातन ज्ञान
अर्थ यही उपनिषद का, सकें ब्रह्म को जान
प्रभु-प्रतीति हो किस तरह, पथ उपनिषद न भूल
पथिक जीव पग-पग बढ़े, पथ न तजे लख शूल
ईशावास्योपनिषद
उपनिषद श्रृंखला में प्रथम स्थान प्राप्त 'ईशावास्योपनिषद' शुक्ल यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है। इसमें केवल १८ मंत्रों में ईश्वर के गुणों का वर्णन तथा अधर्म त्याग का उपदेश है। इस उपनिषद का प्रयोजन ज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्ति है। इसमें सभी कालों में सत्कर्म करने पर बल दिया गया है। परमेश्वर के अतिसूक्ष्म स्वरूप का वर्णन इस उपनिषद में है। सभी प्राणियों में आत्मा को परमात्मा का अंश जानकर अहिंसा की शिक्षा दी गयी है। 'कण-कण में भगवान' अथवा 'कंकर कंकर में शंकर' का लोक-सत्य इस उपनिषद में अन्तर्निहित है। समाधि द्वारा परमेश्वर को अपने अन्त:करण में जानने और शरीर की नश्वरता का उल्लेख ईशावास्योपनिषद में है। इस उपनिषद के आरंभ में प्रयुक्त 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' पद के कारण यह 'ईशोपनिषद' अथवा 'ईशावास्योपनिषद' के नाम से विख्यात है।
ईश उपनिषद मंत्र अठारह, मोक्ष ज्ञान से प्राप्त कराते
तज अधर्म; सत्कर्म-अहिंसा, वरे जीव तो ब्रह्म पा सके
शांतिपाठ
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ पूर्ण है वह; पूर्ण है यह, पूर्ण से उत्पन्न पूर्ण।
पूर्ण में से पूर्ण को यदि निकालें, पूर्ण तब भी शेष रहता।।
प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत् को ईश्वर का आवास कहा गया है। 'यह किसका धन है?' प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी संपदाओं का अहंकार त्यागने का सूत्र दिया है। इससे आगे लंबी आयु, बंधनमुक्त कर्म, अनुशासन और शरीर के नश्वर होने का बोध कराया गया है। यहाँ जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो कुछ भी है, सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है-
ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम्॥१॥
ईश समझना हमें चाहिए, उसे दिखे जो कुछ इस जग में।
नाम रूप तज दें प्रपंच सब, मत चाहें; किसका होता धन॥१॥
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यहाँ इस जगत् में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समां:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥
करते हुए कर्म इस जग में, जीना चाहो सौ वर्षों तक।
जिओ कर्म करते इस जग में, किंतु न होना लिप्त कर्म में॥२॥
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असूर्या नाम के लोक अज्ञान से अंधा बना देनेवाले तिमिर से आवृत्त हैं। अपने यथार्थ रूप को न जाननेवाले मरणोपरांत उन लोकों में जाते हैं।
आत्महत्या करनेवाले लोग अज्ञान और भयंकर क्लेश से युक्त असुरों के नरक को प्राप्त होते हैं।
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता:।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्मनो जना:।।३।।
हैं जो लोक असूर्य नाम के, घिरे हुए हैं अंधक तम से।
मरकर जाते प्रेत वहीं जो, निज स्वरूप को जान न पाते।।३।।
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जीव मन से अच्युत स्वरूप (स्थिर); एक और अगम्य है। इसे चक्षु आदि इन्द्रियाँ नहीं पा सकतीं चूँकि यह मन से भी अधिक गतिशील है। आप निष्क्रिय रहते हुए भी अन्य का अतिक्रमण कर पाता है। वह नित्य चैतन्य आत्मतत्व ही वायु आदि देवों को जीवों की क्रियाशीलता हेतु प्रवृत्त करता है।
अनेजदेकं मनसो जैवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतोSन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।४।।
आत्म तत्व अच्युत अगम्य है, परे इंद्रियों से; मन से भी।
दौड़े आगे अन्य सभी के, अचल वायु को गति-प्रवृत्त कर।।४।।
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वह आत्मा ही सोपधिक अवस्था में सक्रिय और निरुपाधिक अवस्था में निष्क्रिय होता है। वह दूर भी है और निकट भी वही है। वह अंदर भी है और बाहर भी वही है।
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्विंतके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:।।५।।
वह सक्रिय; निष्क्रिय भी है वह, दूर निकट जो भी है वह है।
वह ही अन्दर जो कुछ भी है, और वही जो कुछ बाहर है।।५।।
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जो सब भूतों को अपने में ही देखता है और अपने आपको सब भूतों में देखता है, उसके अंतर्मन में किसी के प्रति घृणा उत्पन्न नहीं होती।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानु पश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजिगुप्सते।।६।।
देख रहा जो सब भूतों को, खुद के अंदर; भिन्न न जाने।
देखे खुद को सब भूतों में, कभी किसी से घृणा न करता।।६।।
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जब सभी भूत तत्वज्ञ की दृष्टि में आत्मवत हो गए तब एकत्व अनुभव करनेवाले के लिए कौन सा मोह; कौन सा शोक रह गया?
यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:।
तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यते।।७।।
जो समस्त भूतों को जाने, आत्मरूप; हो गैर न कोई।
उसे मोह क्या?; उसे शोक क्या?, वह एकत्व देखता सबमें।।७।।
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वह आत्मतत्व आकाश के समान व्यापी, शुक्र व कायारहित, अक्षत, स्थूल शरीररहित शुद्ध तथा पापहीन है। वह क्रांतदर्शी मनीषी सर्वनियन्ता स्वयं उत्पन्न होनेवाला है। उसी ने यथोचित कार्यों के लिए सब पदार्थों का निर्माण किया है।
स पर्यागाच्छुक्रमकायमव्रणस्नाविरं शुद्धपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभूर्याथातथ्यतोsर्थान्य व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।।८।।
नभ सम व्याप्त, न शुक्र-लिंग-व्रण, तन बिन शुद्ध अपापी है वह।
कवि मनीषि वह सर्वनियंता, प्रगटे आप रचे सबको वह।।८।।
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अविद्या की उपासना करनेवाले घोर तम में घिर जाते हैं और उससे भी अधिक घने अँधेरे में वे घिरते हैं जो कर्म तजकर केवल विद्या की उपासना में रत रहते हैं।
अन्धं तम: प्रविशंति, येsविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:।।९।।
अंधा करते तम में घिरते, करें अविद्याजनित कर्म जो।
और अधिक तम में घिरते वे, जो बिन कर्म लीन विद्या में।।९।।
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अविद्यात्मक कर्मों के अनुष्ठान से दूसरा ही फल मिलता है, ऐसा धीर जनों से हमने सुना है जिन्होंने कर्म और ज्ञान का व्याख्यान किया है।
अन्यदेवाहुर्विद्ययान्यदाहुरविद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।१०।।
कर्म अविद्या-विद्या मय जो, उनका फल कुछ अन्य बताया।
सुना धीर पुरुषों से हमने, जिनने वह व्याख्यान किया है।।१०।।
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विद्या और अविद्या दोनों को जो एक ही पुरुष द्वारा अनुष्ठेय समझता है, वह अविद्या के अनुष्ठान से मृत्यु का अतिक्रमण कर बाद में विद्या के प्रभाव से अमर हो जाता है।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।११।।
विद्या और अविद्या दोनों, एक पुरुष कृत जो समझे वह।
जीते मृत्यु अविद्या से फिर, होता अमर आत्म विद्या से।।११।।
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अँधा बना देनेवाले सघन तम में प्रवेश कर जड़ हो जाते हैं वे जो सर्वव्यापी एकात्मभाव को भूलकर जो प्रकृति की उपासना करते हैं और उससे भी अधिक तम से घिर जाते हैं वे जो हिरण्यगर्भ नामक कार्यब्रह्म में ही रहते हैं।
अन्धं तम: प्रविशंति येsसंभूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यांरता:।।१२।।
अंधक तम घुस जड़ होते वे, जो प्रकृति को उपासते हैं।
और सघन तम घिर जड़ होते, वे जो कार्य ब्रह्म में रहते।।१२।।
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संभव (कार्यब्रह्म) और असंभव (अव्याकृत प्रकृति) की अलग-अलग उपासना का फल, दोनों के समुच्चयित पूजन के फल से भिन्न है, ऐसा हमने धीर पुरुषों से सुना है जिन्होंने इस तत्व का साक्षात्कार किया है।
अन्य देवाहु: सम्भवादन्यदाहुरसंभवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।१३।।
संभव और असंभव पूजन, अलग करें फल अलग मिलें तब।
ब्रह्म-प्रकृति सह पूजन का फल, भिन्न सुना है धीर जनों से।।१३।।
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जो यह समझता है कि संभूति और विनाश इन दोनों का साथ ही साथ एक ही व्यक्ति के द्वारा अनुष्ठान होना चाहिए, वह विनाश से मृत्यु को पार कर, असंभूति से अमृतत्व पाता है।
संभूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्वा संभूत्यामृतमश्नुते।।१४।।
ब्रह्म-प्रकृति की सह उपासना, अनुष्ठेय होता जिसको वह।
करता पार विनाश-मृत्यु को, और अमृत को पा लेता है।।१४।।
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अविचल परमात्मा एक ही है। वह मन से भी अधिक वेगवान है। वह दूर भी है और निकट भी है। वह जड़-चेतन सभी में सूक्ष्म रूप में स्थित है। जो ऐसा मानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। वह शोक-मोह से दूर हो जाता है। परमात्मा सर्वव्यापी है। वह परमात्मा देह-रहित, स्नायु-रहित और छिद्र-रहित है। वह शुद्ध और निष्पाप है। वह सर्वजयी है और स्वयं ही अपने आपको विविध रूपों में अभिव्यक्त करता है। ज्ञान के द्वारा ही उसे जाना जा सकता है। मृत्यु-भय से मुक्ति पाकर उपयुक्त निर्माण कला से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है-
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥१५॥
कनक पात्र से ढका सत्य-मुख, तुम दो हटा आवरण उसका।
सब का पालन करनेवाले, हे प्रभु! सत्य-धर्म पालूँ मैं॥१५॥
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सकल जगत का पोषण करने और अकेले चलनेवाले हे पूषा!, यम!, सूर्य! तथा प्रजापति पुत्र! तुम अपने किरण जाल को दूर करो ताकि मैं तुम्हारा सर्व कल्याणकारी देख सकूँ, जो हर प्राणी में तथा मुझमें भी भासमान है।
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मिन्समूह।
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योsसावसौ पुरुष: सोsहमस्मि॥१६॥
जगपोषक पूषा एकाकी, यम रवि प्रजापति सुत किरणें।
लो समेट, छवि कल्याणी मैं, देख सकूँ जो सबमें-मुझमें॥१६॥
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प्राण वायु, सकल सृष्टि में व्याप्त वायु में विलीन हो जाए, अंत में शरीर भस्म हो जाए, जीवन में जो कुछ किया उसे स्मरण कर, स्मरण करने योग्य परम ब्रह्म को स्मरण करे।
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरं।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर॥१७॥
प्राण वायु सर्वात्म वायु में, हो विलीन; हो भस्म देह यह।
याद ब्रह्म को; निज कर्मों को, करो याद जो याद-योग्य हो॥१७॥
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हे अग्नि देव! अच्छी राह से हमें ले चलो। तुम सब कर्मों को जानते हो। हमसे पाप कर्मों को दूर करो। हम तुम्हें बार बार नमन करते हैं।
अग्ने नय सुपथा राये असमान्, विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम॥१८॥
अग्नि! ले चलो सुपथ पर मुझे, कर्म-ज्ञान-फल ज्ञाता हो तुम।
दूर करो मुझसे पापों को, बार-बार मैं नमन कर रहा॥१८॥
।। इति श्री भगवत्पूज्यपाद के शिष्य परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री शंकर भगवत रचित वाजपेव संहिता उपनिषद काव्यानुवाद-टीका पूर्ण।।
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