रामानुजलाल श्रीवास्तव के गीतों में छंद
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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विश्ववाणी हिंदी के भव्य और दिव्य मंदिर की नींव में अपने कालजयी सृजन के प्रस्तर खंड समर्पित करनेवाले साहित्यकारों में बाबू रामानुजलाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी अपनी मिसाल आप हैं। यह प्रस्तर खंड गीत, कविता, लेख, टीकाओं और संपादन-प्रकाशन के पंच तत्वों से निर्मित है। बाबू रामानुजलाल के गीतकार की तुलना में उनका टीकाकार-संपादक-समीक्षक अधिक चर्चित हुआ। फलत:, शानदार और जानदार होते हुए भी उनके गीत कम सुने गए और उनका हास्य-व्यंग्यकार का रूप अधिक लोकप्रिय हुआ। एक अन्य कारण यह भी है कि रामानुजलाल जी के गीत न तो पूरी तरह छायावादी हैं न पूरी तरह छायावाद से मुक्त हैं। वे छायावाद और प्रगतिवाद के मध्य काल में प्रवहित गीत गंगा की ऐसी लहरें हैं जो पंक से मिलकर पंकज तो खिलाती हैं किन्तु स्वयं देव-शीश या देव-पगों में स्थान नहीं पातीं। उन्हें प्रसाद के साथ आचमन की तरह ग्रहण कर विस्मृत कर दिया जाता है। कहते हैं कि प्रकृति चक्र सतत गतिमान रहता है।
रामानुजलाल जी अपने गीत संग्रह 'उनींदी रातें' की भूमिका में लिखते हैं- ''तुकबंदी करते हुए बहुत दिन हुए। लिखता था, पढ़ता था, धरोहर की तरह सँभालकर रखता था .... पहले होता तो लिखता कि विद्वान चाहे मेरी तुकबंदी का आदर न करें परन्तु इसकी बदौलत जो मैंने, राम-नाम का भजन कर लिया, वह तो कोई मुझसे छीन नहीं लेगा। अब लिखता हूँ कि इसकी बदौलत जो बड़े-बड़े विद्वानों-कवियों, साहित्यकारों के चरणों के पास इतने वर्षों बैठ लिया, उस सुख को तो कोई मुझसे छीन नहीं लेगा ... क्या लिखा है, क्या पढ़ा है, क्या देखा है, क्या समझा है? बहुत पढ़ा है, बहुत सुना है, बहुत गुना है। समझ में एक ही बात आई .... बस एक ही बात 'मनुष्य'। बड़ी-बड़ी सुंदरताओं के बीच, आकाश के तारे समुद्र की हिलोर, गगनचुंबी अट्टालिकाएँ कश्मीर के 'वन सुमन उपवन सुमन घन' इन सबके बीच सबसे सुंदर लगा मनुष्य, सबसे पास जान पड़ा मनुष्य।''
मनुष्य को तलाशते, मनुष्य को पाते, मनुष्य को गाते, मनुष्य को सुनते, मनुष्य को सुनाते और मनुष्य के मन में घर बनाते रामानुज बाबू की 'उनींदी रातों' के गीत मनुष्य पहचानते हुए, बखानते हुए मनुष्य से कहते हैं- 'तुम मुझे पहचान लेना' और आज मनुष्य उन गीतों के माध्यम से रामानुज बाबू को पहचानने की सुचेष्टा कर रहा है।
रामानुजलाल जी के गीतों में छायावाद का प्रभाव सहज और स्वाभाविक है। प्राण न रहने पर प्राणों का विकल होना अनूठी और द्विअर्थी अभिव्यक्ति है। सतही तौर पर यह असंभव प्रतीत होता है। यमकीय दृष्टि से प्राण (प्रेमी/प्रेमिका में से एक) के न रहने पर दूसरे का विकल होना स्वाभाविक है। श्लेषीय दृष्टि औपनिषदिक चिंतन-धारा परब्रह्म को पिता और जीव को संतति मानती है तदनुसार प्राण अर्थात परमपिता की निकटता न रहने पर जीव की विकलता अर्थ सहज ग्राह्य है।
तुम मुझे पहचान लेना
वेश से, कुछ भाव से, कुछ / आर्त स्वर से जान लेना
भाव केवल रह गया है, कामना मन में नहीं है /
अब विकल हैं प्राण मेरे / प्राण जब तन में नहीं है
तनिक तीर-कमान / या टुक मुरलिया की तान लेना (मानवजातीय सखी/ आँसू छंद, १४-१४, iss)
पहचान का मजा तब ही है जब वह इकतरफा न हो, 'दोनों तरफ हो आग बराबर लगी हुई', ऊँट साहब भरोसा दिलाते हैं-
मैं तुम्हें पहचान लूँगा
ध्यान है इतना किया पद का / कि पग-ध्वनि जान लूँगा
अब न रूठो, खोल दो पट, / अब न अस्थिर हो पुजारी
यहाँ भी सखी छंद का सुंदर प्रयोग किया गया है।
सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद में चार चौकलों का प्रयोग करते हुए अपनी बात कहना ऊँट साहब की छंद-रचना में महारत का प्रत्यक्ष प्रमाण है-
यह तो अंतर की भाषा है
इसके न नियम-बंधन कोई / इसकी न कोई परिभाषा है
हो दूर बहुत कुछ और पास / हाँ और पास, कुछ और पास
सच कहूँ ह्रदय में आ बैठा / यदि सुनने की अभिलाषा है
पादाकुलक छंद में ही एक और गीत का आनंद लें-
कोई अंतर में बोल रहा
चुप तो पागल, सुन तो मूरख, / कैसा अमृत सा घोल रहा?
यह समय नहीं आँसू मत भर / यह समय नहीं मैं-तू मत कर
तन्मयता के चंदन पथ में / किस मंथर गति से डोल रहा
ऊँट साहब ने अपेक्षाकृत कम प्रचलित नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद (१६-११, SI) का प्रयोग पूरी स्वाभाविकता के साथ किया है। यहाँ 'स्नेह' के देशज रूप 'सनेह' का प्रयोग सहज व माधुर्यवर्धक है, कसक और कँप की पुनरावृत्ति आनुप्रासिक लालित्य लिए है।
कसक-कसक उठा है उर / कँप-कँप उठता है गात
शिथिल सनेह सनी आँखें हैं / मना रहीं बरसात
आज कुछ हो तो है उत्पात
तनिक परिवर्तन के साथ यौगिक जातीय छंद (१७-११) में ऊँट जी ने नया प्रयोग किया है। इस छंद का वर्णन जगन्नाथप्रसाद 'भानु' कृत छंद प्रभाकर में नहीं है। भानु जी ने यौगिक जातीय छंदों का वर्णन करते समय १६-१२ तथा १४-१४ मात्राओं के दो-दो छंद दिए हैं जबकि ऊँट जी ने १७-११ पर यति का प्रयोग किया है।
आज यदि कर लूँ तनिक उत्पात / तो तुम क्या करो? प्रिय!
आज कह दूँ भेद की कुछ बात / तो तुम क्या करो प्रिय!
विद्या छंद (यति १४-१४, पदांत ISS) का सटीक-सार्थक प्रयोग देखिए-
भूलने के यत्न ने ही / है मुझे यह दिन दिखाया।
लाख की तदबीर, पर क्या / भूल कर भी भूल पाया?
आज अंतिम रात या चिर प्रात का संवाद लाई
फिर किसी की याद आई
यहाँ भी यमक अलंकार का उत्तम प्रयोग है। 'आग फिर किसने लगा दी' शीर्षक गीत में भी विद्या छंद का प्रयोग हुआ है।
'चलो सो रहें' शीर्षक गीत में कुंडल छंद (१२-१०, SS) का प्रयोग कर अंतरे में पूर्व गीतों से भिन्न ६ पंक्तियों का अंतरा रखा गया है-
बहुत रोते हुए आए / पे हँसते चले हम
बिछे जाल थे, पर / न फँसते चले हम
सदा राहे-मस्ती में/ धँसते चले हम
मुहब्बत में दुनिया को / गँसते चले हम
चलो सो रहे अब / तो नींद आ रही है
ऊँट जी के गीतों का वैशिष्ट्य सामान्य अर्थ के समांतर निहितार्थ या विशिष्टार्थ से संपन्न होना है। निम्न लाक्षणिक जातीय छंद एक भिन्न भावभूमि में ले जाता है-
पिछले पहर की नींद की बेला, तुम आ पहुँची नेह जगाने
प्रेम नगर में आग लगाकर, रूप नगर की रीति निभाने
१९५० में लिखे गए इस गीत की संरचना (यति १६-१६, पदांत यगण) जैसा कोई छंद छंद प्रभाकर में नहीं है।
ऊँट जी के गीतों में परिष्कृत संस्कृतनिष्ठ हिंदी के साथ देशज शब्दों और अरबी-फारसी शब्दों का मिश्रण सहज दृष्टव्य है किंतु अंग्रेजी शब्द लगभग नहीं हैं। इस भाषिक औदार्यता ने गीतों को सहज ग्राह्य बनाया है। ऊँट जी ने स्वयं अपने विषय में कहा है कि मैं हिंदी से हिंदू, उर्दू से मुसलमान तथा अंग्रेजी से ईसाई हूँ। भाषिक ही नहीं जातीय समभाव
भी ऊँट जी ने जिया। उन्होंने अपनी पुत्रियों के अंतर्जातीय विवाह सहर्ष किए।
ऊँट जी के गीत छायावादी अमूर्तता को यथार्थोन्मुख करते हुए सांसारिकता को वर्ण्य बनाते हैं पर अंचलीय मांसलता से परहेज करते हैं।
ऊँट जी का एकमात्र पुत्र पर कम, सात बेटियों पर अधिक मोह था। 'आपन मुँह' शीर्षक भूमिका में चच्चा ( ऊँटजी के लिए स्नेही-स्वजनों का संबोधन) लिखते हैं- "बेटियाँ हैं, बेटियाँ। कुछ हैं, कुछ नहीं रहीं। हिलराया-दुलराया, मारा-पीटा, जब तक घर थीं, अपनी थीं। अंत में बिदा करना ही पड़ा। हे भगवान! क्या होगा? कैसे जिएँगी? कैसे रहेंगी?"
ऊँट जी की फिक्र का वायस रहीं बेटियाँ सिर्फ जी नहीं रहीं, वे ऊँट जी के सकल साहित्य का पुनर्प्रकाशन और पुनर्मूल्यांकन कराकर उनका साहित्यिक तर्पण भी कर-करा रही हैं। वे बेटियाँ काल-क्रम से बहू से सास और नानी-दादी भी हो गई हैं। वे खुद और उनके स्वजन-परिजन ऊँट जी के सृजन का अध्ययन-मनन कर अगली पीढ़ी को संस्कारित कर रहे हैं। ऊँट जी के गीतों, ग़जलों, समीक्षा कृतियों (टीकाओं) आदि की विरासत सहेजने के लिए ऊँट समग्र की योजना बनाई जानी चाहिए
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संपर्क- सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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