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सोमवार, 22 जनवरी 2018

झूमर गीत,

लोक गीत / लोक छंद:
झूमर गीत

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कवन रंग मुंगवा, कवन रंग मोतिया !
भोजपुरी में औरतों द्वारा ख़ुशी के मौके पर जोड़े या समूह में गाए जाने वाले झूमर गीतों की सदियों पुरानी परंपरा रही है। अब गांवों में भी फ़िल्मी गीतों के प्रचलन के साथ झूमर की गायन परंपरा लगभग लुप्त हो चुकी है। हमारी पीढ़ी के लोग बचपन में मां-बहनों-भाभियों को झूमर गाते देखते हुए ही बड़े हुए हैं। कई झूमर मुझे अब भी याद हैं, लेकिन जो एक गीत मुझे सबसे ज्यादा पसंद था, वह है - कवन रंग मुंगवा, कवन रंग मोतिया, कवन रंग ननदी तोर भैया।' एक सदी से यह गीत भोजपुरी के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में एक रहा है। 1959 की एक हिंदी फिल्म 'हीरा मोती' में संगीतकार रोशन ने चक्की चलाती ननद और भौजाई के मुंह से गवाकर इस गीत को देशव्यापी लोकप्रियता दिलाई थी। गीतकार के रूप में प्रेम धवन का नाम देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। बीसवी सदी के आरंभ में इस गीत को बनारस के रहने वाले एक भोजपुरी कवि दिमाग राम ने लिखा था। संवाद शैली में लिखे गए इस गीत में ननद और भाभी के हास-परिहास का रंग इतना आत्मीय और गहरा था कि यह गीत देखते-देखते समूचे भोजपुरी क्षेत्र में फ़ैल गया। यह गीत उनके नाम से एक बहुत पुरानी किताब 'झूमर तरंग' में संकलित है। दिमाग राम जी को नमन करते हुए आपके साथ इस पूरे गीत को साझा कर रहा हूं।
 https://www.youtube.com/watch?v=uZMT_PkxkrA
कवन रंग मुँगवा, कवन रंग मोतिया,
कवन रंग ननदी तोर भैया।
लाल रंग मुँगवा, सफ़ेद रंग मोतिया,
सांवर रंग भौजी मोरा भैया।
कान सोभे मोतिया, गले सोभे मुंगवा,
पलंग सोभे ननदी तोर भैया।
टूटी जैहे मोतिया, छितराई जैहे मुंगवा,
कि रूसि जैहे भौजी मोरा भैया।
चुनी लेबो मोतिया, बटोरि लेंबो मुंगवा,
मनाई लेबो ननदी तोर भैया।
हीरा मोती में इसे निरुपा राय और शोभा खोटे पर फिल्मित, सुधा मल्होत्रा-सुमन कल्यानपुर ने गाया। राम दिमाग की कालजयी रचना प्रेम धवन जैसे स्थापित रचनाकार ने अपने नाम कर ली
*
"मोरा पिछुअरिया आरे निंबुआ के गछीया 
आरे निंबुअा के गछीया भला रे निंबुअा लाल 

निंबुअा फरेला गोले गोल भाला रे निंबुअा लाल 
ओही रे निंबुअा में चुनरी रंगवल आरे चुनरी रंगवल 
भाला रे निंबुअा लाल चुनरी भइले लहरादार ..!
चुनरी पहिरी हम सुतल अंगनवा आरे सुतल अंगनवा 
भाला रे निंबुअा लाल ,चोरवा झांकीय झुकी जाय 
का तूहू चोरवा आरे झांकी झुकी जाल भाला रे निंबुअा लाल
हम हई चोरवा के पतोह भाला रे निंबुअा लाल 
ससुरू चोरावेले गाई रे भईंसिया आरे गाई रे भईंसिया
भाला रे निंबुअा लाल 
भसुरू चोरावस धेनू गाय 
ओहू ले चोरवा आरे लहुरा देवरवा आरे लहुरा देवरवा 
भाला रे निंबुअा लाल 
ओरिया में के सुईया ले ले जाय 
भाला रे निंबुअा लाल
" तोहे काजरवा बना के, अपने नैनो बीच बसा के, आज पलकाँ मे बंद कर राखू जी"
"पातरि कुइयाँ पताले बसे पनियाँ 
कैैसे के भरीं हो,

अपने सामीजी के पनियाँ 
कैसे के भरूँ हो।
टुटि जइहें डोरिया, लचकि कर्हियइयाँ
मुरुकि जइहें, मोरी नरमी कलइया 
मुरुकि जइहें हो।"
" गहरा कुआँ, जिसका जल दूर नीचे जैसे पाताल में रहता है; जल कैसे भरूँ? मेरे पति के लिए जल चाहिए, कहाँ से लाऊँ? इस कुएँ से पानी उठाते उठाते तो डोरी टूट जायेगी, कमर लचककर दुहरी हो जायेगी और मेरी नर्म नाज़ुक कलाई में मोच आ जायेगी।" 
अब झूमर के बात चलल हम कईसे चुप रहीं पूरा 
किताब दिल में धइले बानी पर ,अब ओकर औचित्य नेईखे दिखत dj के आगे ,


कोठा बनवाल ना हो बलमवा, कोठारिया बनवल ना,
कि हमका खिड़की बिना तरसवल बलमुआ तोहरा से राजी ना ।
`भागलपुर से अइले सुनार छोटी ननदी; टीकला गढइले लहकदार; सेहो टीकवा पहिनके सुनवरा संग हंसलि से हमसे पियवा बहुत नाराज छोटी ननदी' कंगना से लेकर अंग के सारे गहनों को जोङकर गाए जाने वाले ऐसै प्यारे भोजपुरी गीतों की छटा ही अद्भुत है.. 

कहाँ चल गइल 
ओंठवन के लाली, 
अँखियन के काजल?
*
बिला गओ झूमर 
हिरा गाओ सोहर 
पते नाहीं चलल 
बड़ा बढ़िया लागल ह सर जी झूमर पढ़ी के । छोट छोट में हमनी के भी खूब गईले बानीसन पर समय के साथ सब धूमिल पड़ गईल बा ।भोजपुरी माटी के अईसन गंध जवन युग-युग तकले भोर ना पर सकेला !  रउरा के खुब धन्यवाद 
भोजपुरी अपने आप में वैविध्य लिए एक बहुत ही व्यापक भाषा है जो छपरा, आरा, मोतिहारी, बक्सर, बलिया, गाजीपुर, बनारस, इलाहाबाद से लेकर मॉरिशस तक बोली जाती है और हर जगह इसके शब्दों और बोलने की शैली में अंतर बहुत ही साफ तौर पर परिलक्षित होता है। हमलोगों की पीढ़ी तो खैर इस भाषा से भली भांति परिचित हैं परन्तु ये वक्त - बेवक्त पिज्जा खाने वाली पीढ़ी के पल्ले यह भाषा नहीं पड़ती। हमारे बचपन हमारे बाबू जी (पिता के बड़े भाई) हमे इस भाषा का महत्व समझाते और घर में इसी भाषा में बात करने के लिए प्रेरित करते, उनकी सिखाई एक कविता जैसाकि मुझे याद है 
आओ रे चिल्हरा खेत - खलिहान, 
तोरा के देबऊ तिलगिया धान। 
उहे धान के पपरा बनईहे, 
उहे पपरा हमर बाबु के खिअईहे। 

इन्हें 'जतसारी'
कहा जाता है। मुझे भी दो पंक्तियां याद है जो मगही में है...
आधी मन के कूटली भैया

आधी मन के पिसली हो राम
ए भैया आधी मन के कइली हल
रसोईया हो राम....

" आज दिन सौने को माहराज
सौने के कलस धराओ माहराज 
सौने के सब दिन सौने की रात 
मोतियन चौक पुराओ माहराज 
आज दिन .....
भागलपुर से अईले सुनार छोटी ननदी ..
टीकवा गढइले लहकदार छोटी ननदी..
सेहे टीकवा पहिन के सुनरवा संग 
हंसलि ..
से हमसे पियवा बहुत नाराज छोटी
ननदी .......
बिचारी बड़ी ननद इस तरह की चुहलबाजी में नज़र कम ही आती हैं .. शायद डर जाती होगी छोटी भौजाई ..कितने सुंदर पल होते हैं ये ..

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