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रविवार, 15 मार्च 2015

चन्द माहिया : क़िस्त 17

:1:
दरया जो उफ़नता है
दिल में ,उल्फ़त का
रोके से न रुकता है 

:2:
क्या कैस का अफ़साना !
कम तो नहीं अपना
उलफ़त में मर जाना

:3:
क्या हाल सुनाऊँ मैं 
तुम से छुपा है क्या
जो और छुपाऊँ मैं

:4:
सब उनकी मेहरबानी
सागर में कश्ती
और मौज़-ए-तुगयानी

:5:
इस हुस्न पे इतराना !
दो दिन का खेला
इक दिन तो ढल जाना

-आनन्द.पाठक
09413395592

[मौज़-ए-तुगयानी =बाढ़/सैलाब की लहरें]


1 टिप्पणी:

संजीव ने कहा…

बहुत खूब