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भोजपत्रों पर लिखीं गणतंत्र की कितनी कथायें
आप कहिये ! हम उन्हें इक इक पढ़ें या भूल जायें
आ गये परछाइयों के अनुसरण में कक्ष चौंसठ
पांव चलते, वर्ष पर शतरंज के खानों सरीखे
हर बरस देता रहा है मात, शह बोले बिना ही
जो रहा इतिहास अब तक, वो भविष्यत आज दीखे
एक टूटे तानपूरे को कहो कब तक बजायें
आप कहिये ! हम उन्हें इक इक पढ़ें या भूल जायें
रंग विरसे में मिले थे जो सुनहरे औ’ रुपहरे
हो चुके हैं राज्गृह की साज में सब खर्च सारे
अल्पना का एक गेरू और खड़िया हाथ में ले
काटते हैं ज़िन्दगी को एक भ्रम के ही सहारे
कल नई आशा फ़लेगी ? स्वप्न कितने दिन सजायें
आप कहिये ! हम उन्हें इक इक पढ़ें या भूल जायें
घाटियों के पार, वादा था किरन के देश वाला
झुक चुकी है अब कमर भी,दुर्गमों को पार करते
पर सभी वादे रहे हैं मरुथली इक कल्पना से
रोपने से पूर्व इस वन में रहे हैं पात झरते
बेसुरे स्वर एक ही धुन और कितना गुनगुनायें
आप कहिये ! हम उन्हें इक इक पढ़ें या भूल जायें
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