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मंगलवार, 3 जनवरी 2012

दोहा सलिला: दोहा-यमक-मुहावरे, मना रहे नव साल --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा-यमक-मुहावरे, मना रहे नव साल
संजीव 'सलिल'
*
बरस-बरस घन बरस कर, तनिक न पाया रीत.
बदले बरस न बदलती, तनिक प्रीत की रीत..
*
साल गिरह क्यों साल की, होती केवल एक?
मन की गिरह न खुद खुले, खोलो कहे विवेक..
*
गला काट प्रतियोगिता, कर पर गला न काट.
गला बैर की बर्फ को, मन की दूरी पाट..
*
पानी शेष न आँख में, यही समय को पीर.
पानी पानी हो रही, पानी की प्राचीर..
*
मन मारा, नौ दिन चले, सिर्फ अढ़ाई कोस.
कोस रहे संसार को, जिसने पाला पोस..
*
अपनी ढपली उठाकर, छेड़े अपना राग.
राग न विराग न वर सका, कर दूषित अनुराग..
*
गया न आये लौटकर, कभी समय सच मान.
पल-पल का उपयोग कर, करो समय का मान..
*
निज परछाईं भी नहीं, देती तम में साथ.
परछाईं परछी बने, शरणागत सिर-माथ..
*
दोहा यमक मुहावरे, मना रहे नव साल.
साल रही मन में कसक, क्यों ना बने मिसाल?
*
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2 टिप्‍पणियां:

dks poet ✆ dkspoet@yahoo.com ekavita ने कहा…

आदरणीय सलिल जी,
सुंदर दोहों हेतु साधुवाद स्वीकार कीजिए।
अच्छा लगता है यह देखकर कि युग के एक महाकवि हमारे मित्रों में से हैं।
"राग न विराग न वर सका" पर दुबारा आपका ध्यान चाहूँगा।
सादर

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

Acharya Sanjiv verma 'Salil' ने कहा…

महाकवि वह जो महाकाव्य की रचना करे... मेरी कलम अभी इस योग्य नहीं हो सकी है. आपके औदार्य को नमन.
टंकण त्रुटि हेतु खेद है. कृपया 'राग विराग न वर सका' पढ़िये.