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मंगलवार, 10 जनवरी 2012

रचना-प्रति रचना: कुसुम सिन्हा-संजीव 'सलिल

मेरी एक कविता
सांसों में महकता था चन्दन
आँखों में सपने फुले थे  ल
लहराती आती थी बयार
बालों को छेड़कर जाती थी
                   जब तुम बसंत बन थे आये
 जब शाम  घनेरी जुल्फों  से
पेड़ों को ढकती आती थी
चिड़िया भी मीठे  कलरव से
मन के सितार पर गाती थी
                    जब तुम बसंत बन थे आये
खुशियों  के बदल भी जब तब
मन के आंगन   घिर आते थे
 मन नचा करता मोरों  सा
कोयल कु कु  कर जाती थी
                      जब तुम बसंत बन थे आये
 तुम क्या रूठे   की जीवन से
अब तो खुशियाँ ही  रूठ गईं
मेरे आंगन से खुशियों के
पंछी  आ आ कर लौट गए
                       जब तुम बसंत बन थे आये
साँझ ढले   अंधियारे   संग
यादें उनकी आ जाती हैं
रात रात भर रुला   मुझ्रे
बस सुबह हुए ही जाती हैं


आदरणीय कुसुम जी!
मर्मस्पर्शी रचना हेतु साधुवाद... प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिपक्ष प्रस्तुत करती पंक्तियाँ आपको समर्पित हैं.
प्रति गीत :
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
संजीव 'सलिल'
*
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
मेरा जीवन वन प्रांतर सा
उजड़ा उखड़ा नीरस सूना-सूना.
हो गया अचानक मधुर-सरस
आशा-उछाह लेकर दूना.
उमगा-उछला बन मृग-छौना
जब तुम बसंत बन थीं आयीं..
*
दिन में भी देखे थे सपने,
कुछ गैर बन गये थे अपने.
तब बेमानी से पाये थे
जग के मानक, अपने नपने.
बाँहों ने चाहा चाहों को
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुमसे पाया विश्वास नया.
अपनेपन का आभास नया.
नयनों में तुमने बसा लिया
जब बिम्ब मेरा सायास नया?
खुद को खोना भी हुआ सुखद
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
अधरों को प्यारे गीत लगे
भँवरा-कलिका मन मीत सगे.
बिन बादल इन्द्रधनुष देखा
निशि-वासर मधु से मिले पगे.
बरसों का साथ रहा पल सा
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुम बिन जीवन रजनी-'मावस
नयनों में मन में है पावस.
हर श्वास चाहती है रुकना
ज्यों दीप चाहता है बुझना.
करता हूँ याद सदा वे पल
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
सुन रुदन रूह दुःख पायेगी.
यह सोच अश्रु निज पीता हूँ.
एकाकी क्रौंच हुआ हूँ मैं
व्याकुल अतीत में जीता हूँ.
रीता कर पाये कर फिर से
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुम बिन जग-जीवन हुआ सजा
हर पल चाहूँ आ जाये कजा.
किससे पूछूँ क्यों मुझे तजा?
शायद मालिक की यही रजा.
मरने तक पल फिर-फिर जी लूँ
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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