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शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

विशेष रचना: पर्व नव सद्भाव के संजीव 'सलिल'

विशेष रचना:                                                                                
पर्व नव सद्भाव के
संजीव 'सलिल'
*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..

भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..

शुभ सनातन थाती पुरातन, हमें इस पर गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..

शुभ वृष्टि जल की, मेघ, बिजली, रीझ नाचे मोर-मन.
कब बंधु आये? सोच प्रमुदित, हो रही बहिना मगन..

धारे वसन हरितिमा के भू, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, कथा है नव मोद की..

शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह,  मर्म सबको याद हो..

बंधन रहे कुछ तभी तो हम, गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..

बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?

यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
रिपुओं का दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..

इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..

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टिप्पणी: हरिगीतिका मुक्त मात्रिक छंद,  दो पद, चार चरण,१६-१२ पर यति. सूत्र: हरिगीतिका हरिगीतिका हरि, गीतिका हरिगीतिका.
हरिगीतिका है छंद मात्रिक, पद-चरण दो-चार हैं.
सोलह और बारह कला पर, रुक-बढ़ें यह सार है.

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

7 टिप्‍पणियां:

dks poet ✆ ekavita ने कहा…

आदरणीय सलिल जी,
सुंदर दोहों के लिए बधाई स्वीकार करें।
सादर

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

sanjiv 'salil' ने कहा…

धर्मेन्द्र जी उत्साहवर्धन के लिये हार्दिक आभार इस निवेदन के साथ कि प्रस्तुत रचना दोहा छंद (अर्ध मात्रिक सम छंद, दो पद, चार चरण, १३-११ पर यति, चरणान्त में गुरु लघु) में निबद्ध नहीं है. रचना के अंत में दी गयी टिप्पणी देखें-

टिप्पणी: हरिगीतिका मुक्त मात्रिक छंद, दो पद, चार चरण,१६-१२ पर यति. सूत्र: हरिगीतिका हरिगीतिका हरि, गीतिका हरिगीतिका.
हरिगीतिका है छंद मात्रिक, पद-चरण दो-चार हैं.
सोलह और बारह कला पर, रुक-बढ़ें यह सार है.

achal verma ✆ ekavita ने कहा…

एक अति रोचक तथ्य जो प्रत्येक भारतवासी का सर उंचा रखता है , चाहे विश्व में वह जहां भी रहे परन्तु एक ऐसा भी राष्ट्र है जो हमारा टुकडा हो कर भी इस तथ्य को अभी भी ठुकरा रहा है और विध्वंस पर उतारू है |

यह दृष्टि भारत पा सका तब,
जगद्गुरु कहला सका.
रिपुओं का दिल संयम-नियम से,
विजय कर दहला सका..

आपकी यह रचना सबके दिल में पैठ जायेगी |


Your's ,

Achal Verma

dks poet ✆ ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,

आप सही हैं मैंने पाद टिप्पणी नहीं पढ़ी थी। क्षमा कीजिएगा।
सादर

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita ने कहा…

आ० आचार्य जी ,

राखी के पावन पर्व पर हरगीतिका छंदों में अति आकर्षक रचना के लिये साधुवाद !
सादर
कमल

shar_j_n ✆ ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
अब तो आप किताब लिख ही डालिए छंदों पे.
आपकी ज्ञानवर्धक मेल्स को एक अलग फोल्डर में डाल लेती हूँ कि समय होगा तो सब एक साथ कम्पाईल करूँगी...
आपका परम नेह हम सब पे जो यूँ दूर बैठ के हम आपसे ज्ञान पा रहे हैं.
ये बहुत हृदयस्पर्शी चित्र :
शुभ वृष्टि जल की, मेघ, बिजली, रीझ नाचे मोर-मन.
कब बंधु आये? सोच प्रमुदित, हो रही बहिना मगन..

सादर शार्दुला

achal verma ✆ ekavita, ने कहा…

बंधन रहे कुछ तभी तो हम, गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..

||मोक्ष से है उत्तम बंधन
किनारे हैं तो सरिता है
किनारे टूटें ,हो क्रंदन
वृक्ष जब तितरबितर रहते
उन्हें सब कहते हैं तब बन
सजा के रखते बनमाली
वही हो जाता तब उपवन ||

Yours ,

Achal Verma

--- On Mon, 8/15/11