कुल पेज दृश्य

रविवार, 13 सितंबर 2009

ईशावास्योपनिषद : हिंदी काव्यानुवाद डॉ. मृदुल कीर्ति

आत्मीय पाठकों!

वन्दे मातरम.

सनातन भारतीय मूल्यों के कालजयी वाहक उपनिषदों को संस्कृत में होने के कारण आम जन पढ़ नहीं पाते. विश्वविख्यात विदुषी डॉ. मृदुल कीर्ति जी जिनका साक्षात्कार विगत सप्ताह आपने पढ़ा, आज से हरको क सोमवार को किसी एक उपनिषद का हिंदी काव्यानुवाद का उपहार जनता जनार्दन को समर्पित कर हमें धन्य करेंगी.

दिव्यनर्मदा परिवार डॉ. मृदुल कीर्ति जी का ह्रदय से आभारी है, इस अनुपम और सर्वोपयोगी कार्य के लिए. -- सं.

जन्म स्थान पूरनपुर, जिला पीलीभीत, उत्तर प्रदेश, भारत

कुछ प्रमुख कृतियाँ :

सामवेद का पद्यानुवाद (1988),

ईशादि नौ उपनिषद (1996),

अष्टवक्र गीता - काव्यानुवाद (2006),

ईहातीत क्षण (1991),

श्रीमद भगवद गीता का ब्रजभाषा में अनुवाद (2001)

विविध "ईशादि नौ उपनिषद" - आपने नौ उपनिषदों का हरिगीतिका छंद में हिन्दी अनुवाद किया है।

सम्पर्क: mridulkirti@hotmail.com



ईशावास्योपनिषद : हिंदी काव्यानुवाद डॉ. मृदुल कीर्ति



समर्पण

परब्रह्म को
उस आदि शक्ति को,
जिसका संबल अविराम,
मेरी शिराओ में प्रवाहित है।
उसे अपनी अकिंचनता,
अनन्यता
एवं समर्पण
से बड़ी और क्या पूजा दूँ ?


शान्ति मंत्र

पूर्ण मदः पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्ण मुदचत्ये,
पूर्णस्य पूर्ण मादाये पूर्ण मेवावशिश्यते



परिपूर्ण पूर्ण है पूर्ण प्रभु, यह जगत भी प्रभु पूर्ण है,
परिपूर्ण प्रभु की पूर्णता से पूर्ण जग सम्पूर्ण है,
उस पूर्णता से पूर्ण घट कर पूर्णता ही शेष है,
परिपूर्ण प्रभु परमेश की यह पूर्णता ही विशेष है।




ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥

ईश्वर बसा अणु कण मे है, ब्रह्माण्ड में व नगण्य में,
सृष्टि सकल जड़ चेतना जग, सब समाया अगम्य में।
भोगो जगत निष्काम वृत्ति से, त्यक्तेन प्रवृत्ति हो
यह धन किसी का भी नही, अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१]



कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥


कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर,
सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर।
निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,
कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]



असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥


अज्ञान तम आवृत्त विविध बहु लोक योनि जन्म हैं,
जो भोग विषयासक्त, वे बहु जन्म लेते, निम्न हैं।
पुनरापि जनम मरण के दुख से, दुखित वे अतिशय रहें,
जग, जन्म, दुख, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [३]



अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥


है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गतिमान है,
ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है।
स्थित स्वयं गतिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,
अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]



तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥


चलते भी हैं, प्रभु नहीं भी, प्रभु दूर से भी दूर हैं,
अत्यन्त है सामीप्य लगता, दूर हैं कि सुदूर हैं।
ब्रह्माण्ड के अणु कण में व्यापक, पूर्ण प्रभु परिपूर्ण है,
बाह्य अन्तः जगत में, वही व्याप्त है सम्पूर्ण है॥ [५]

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥


प्रतिबिम्ब जो परमात्मा का प्राणियों में कर सके,
फिर वह घृणा संसार में कैसे किसी से कर सके।
सर्वत्र दर्शन परम प्रभु का, फिर सहज संभाव्य है,
अथ स्नेह पथ से परम प्रभु, प्रति प्राणी में प्राप्तव्य है॥ [६]



यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥


सर्वत्र भगवत दृष्टि अथ जब प्राणी को प्राप्तव्य हो,
प्रति प्राणी में एक मात्र, श्री परमात्मा ज्ञातव्य हो।
फिर शोक मोह विकार मन के शेष उसके विशेष हों,
एकमेव हो उसे ब्रह्म दर्शन, शेष दृश्य निःशेष हों॥ [७]



स पर्यगाच्छक्रमकायव्रणम स्नाविर शुद्धमपापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः ॥८॥


प्रभु पाच्भौतिक, सूक्ष्म, देह विहीन शुद्ध प्रवीण है,
सर्वज्ञ सर्वोपरि स्वयं भू, सर्व दोष विहीन है।
वही कर्म फल दाता विभाजक, द्रव्य रचनाकार है,
उसको सुलभ, जिसे ब्रह्म प्रति प्रति प्राणी में साकार है॥ [८]



अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥


अभ्यर्थना करते अविद्या की, जो वे घन तिमिर में,
अज्ञान में हैं प्रवेश करते, भटकते तम अजिर में।
और वे तो जो कि ज्ञान के, मिथ्याभिमान में मत्त हैं,
हैं निम्न उनसे जो अविद्या, मद के तम उन्मत्त हैं॥ [९]



अन्यदेवाहुर्विद्यया न्यदेवाहुर्विद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥


क्षय क्षणिक, क्षण, क्षय माण, क्षण भंगुर जगत से विरक्ति हो,
यही ज्ञान का है यथार्थ रूप कि, ब्रह्म से बस भक्ति हो।
कर्तव्य कर्म प्रधान, पहल की भावना, निःशेष हो,
यही धीर पुरुषों के वचन, यही कर्म रूप विशेष हो॥ [१०]


विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥


जो ज्ञान कर्म के तत्व का, तात्विक व ज्ञाता बन सके,
निष्काम कर्म विधान से, निश्चय मृत्युंजय बन सके।
उसी ज्ञान कर्म विधान पथ से, मिल सके परब्रह्म से,
एक मात्र निश्चय पथ यही, है जो मिलाता अगम्य से॥ [११]



अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥


जो मरण धर्मा तत्त्व की, अभ्यर्थना करते सदा,
अज्ञान रुपी सघन तम में, प्रवेश करते हैं सर्वदा।
जिसे ब्रह्म अविनाशी की पूजा, भाव का अभिमान है,
वे जन्म मृत्यु के सघन तम में, विचरते हैं विधान है॥ [१२]



अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥


प्रभु दिव्य गुण गण मय विभूषित, सच्चिदानंद घन अहे,
यही ब्रह्म अविनाशी के अर्चन का है रूप महिम महे।
जो देव ब्राह्मण, पितर, आचार्यों की निस्पृह भाव से,
अर्चना करते वे मुक्ति पाते पुण्य प्रभाव से॥ [१३]



संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥


जिन्हें नित्य अविनाशी प्रभु का मर्म ऋत गंतव्य है,
उन्हे अमृतमय परमेश का अमृत सहज प्राप्तव्य है,
जिन्हें मरण धर्मा देवता का, मर्म ही मंतव्य है,
निष्काम वृति से विमल मन और कर्म ही गंतव्य है॥ [१४]



हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥


अति दिव्य श्री मुख रश्मियों से, रवि के आवृत है प्रभो,
निष्कंप दर्शन हो हमें, करिये निरावृत, हे विभो !
ब्रह्माण्ड पोषक पुष्टि कर्ता, सच्चिदानंद आपकी,
हम चाहते हैं अकंप छवि, दर्शन कृपा हो आपकी॥ [१५]


पूषन्नेकर्षे यम् सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह।
कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यो सौ पुरुषः सो हमस्मि ॥१६॥


हे! भक्त वत्सल, हे! नियंता, ज्ञानियों के लक्ष्य हो,
इन रश्मियों को समेट लो, दर्शन तनिक प्रत्यक्ष हो।
सौन्दर्य निधि माधुर्य दृष्टि, ध्यान से दर्शन करूं,
जो है आप हूँ मैं भी वही, स्व आपके अर्पण करूँ॥ [१६]



वायुर्निलममृतमथेदम भस्मानतम शरीरम।
ॐ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर ॥१७॥


यह देह शेष हो अग्नि में, वायु में प्राण भी लीन हो,
जब पंचभौतिक तत्व मय, सब इंद्रियां भी विलीन हों,
तब यज्ञ मय आनंद घन, मुझको मेरे कृत कर्मों को,
कर ध्यान देना परम गति, करना प्रभो स्व धर्मों को॥ [१७]



अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानी देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्म ज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥


हे! अग्नि देव हमें प्रभो, शुभ उत्तरायण मार्ग से,
हूँ विनत प्रभु तक ले चलो, हो विज्ञ तुम मम कर्म से।
अति विनय कृतार्थ करो हमें, पुनि पुनि नमन अग्ने महे,
हो प्रयाण, पथ में पाप की, बाधा न कोई भी रहे॥ [१८]

*********************************************************

6 टिप्‍पणियां:

Divya Narmada ने कहा…

सरस सरल मनहर हुआ, सत्य कहूँ अनुवाद.
सार-सार को गह लिया, शब्द-शब्द संवाद.

साधुवाद है आपको, कार्य किया करणीय.
पंक्ति-पंक्ति में छिपे हैं, कथ्य-तथ्य मननीय..

Divya Narmada ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
manvantar ने कहा…

translation is heart touching

dr. k.m. nigam ने कहा…

very useful

anchit nigam ने कहा…

i like it.

mridul kirti, USA ने कहा…

mridul kirti ✆ ८:४६ PM

Saumya Salil Ji,

Naman

Your wonderful words for the poem are extremly admireable and remarkable too.

Virtually this is my real treasure, when a scholar gives such a wonderful comments.

punah naman.

I have at least 1000 bhajans,
during my routine work I link myself to HIM, He gives me His messages I write as HE SAYS.
haath se kaam hradya se RAM