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शनिवार, 5 सितंबर 2009

गीतिका : आचार्य संजीव 'सलिल'

गीतिका

संजीव 'सलिल'

हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.

व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.

दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.

बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.

जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.

सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.

मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.

ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.

दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे

'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

4 टिप्‍पणियां:

अवनीश एस तिवारी ने कहा…

good one

Avaneesh Tiwari

mayank ने कहा…

nice

anchit nigam ने कहा…

bahut khoob.

Shanno Aggarwal ने कहा…

आपके आदर में आपको यह पंक्तियाँ भेंट स्वरुप:

दोनों हाथो से बाँट रहे नेह ' सलिल '
जीवन जीना कोई सीखे तो आपसे
लुटा रहे हैं अपने अमूल्य ज्ञान को
व्यथा छिपा कर ह्रदय जीतते हास से. - शन्नो