गीतिका
संजीव 'सलिल'
हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.
व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.
दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.
बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.
जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.
सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.
मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.
ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.
दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे
'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शनिवार, 5 सितंबर 2009
गीतिका : आचार्य संजीव 'सलिल'

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4 टिप्पणियां:
good one
Avaneesh Tiwari
nice
bahut khoob.
आपके आदर में आपको यह पंक्तियाँ भेंट स्वरुप:
दोनों हाथो से बाँट रहे नेह ' सलिल '
जीवन जीना कोई सीखे तो आपसे
लुटा रहे हैं अपने अमूल्य ज्ञान को
व्यथा छिपा कर ह्रदय जीतते हास से. - शन्नो
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