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रविवार, 6 फ़रवरी 2022

सॉनेट, गीत, नवगीत, कुण्डलिया, गणेश, लता

सॉनेट 
लता
*
लता ताल की मुरझ सूखती।
काल कलानिधि लूट ले गया।
साथ सुरों का छूट ही गया।।
रस धारा हो विकल कलपती।।

लय हो विलय, मलय हो चुप है।
गति-यति थमकर रुद्ध हुई है।
सुमिर सुमिर सुधि शुद्ध हुई है।।
अब गत आगत तव पग-नत है।।

शारदसुता शारदापुर जा।
शारद से आशीष रही पा।
शारद माँ को खूब रहीं भा।।

हुआ न होगा तुमसा कोई।
गीत सिसकते, ग़ज़लें रोई।
खोकर लता मौसिकी रोई।।
६-२-२०२२
***

प्रिय बहिन डॉक्टर नीलमणि 
सॉनेट
सावित्री
*
सावित्री जीती या हारी?
काल कहे क्या?, शीश झुकाए।
सत्यवान को छोड़ न पाए।।
नियति विवशता की बलिहारी।।

प्रेम लगन निस्वार्थ समर्पण।
प्रिय पर खुद को वार दिया था।
निज इच्छा को मार दिया था।।
किया कामनाओं का तर्पण।।

श्वास श्वास के संग गुँथी थी।
आस आस के साथ बँधी थी।
धड़कन जैसे साथ नथी थी।।

अब प्रिय तुममें समा गए हैं।
जग को लगता बिला गए हैं।
तुम्हें पता दो, एक हुए हैं।।
***
प्रिय बहिन डॉक्टर नीलमणि दुबे प्राण प्रण से तीन दशकीय सेवा करने के बाद भी, अपने सर्वस्व जीवनसाथी को बचा नहीं सकीं। जीवन का पल पल जीवनसाथी के प्रति समर्पित कर सावित्री को जीवन में उतारकर काल को रोके रखा। कल सायंकाल डॉक्टर दुबे नश्वर तन छोड़कर नीलमणि जी से एकाकार हो गए।
मेरा, मेरे परिवार और अभियान परिवार के शत शत प्रणाम।
ओ क्षणभंगुर भव राम राम
***
नवगीत:
*
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
आँखें रहते
सूर हो गए.
क्यों हम खुद से
दूर हो गए?
हटा दिए जब
सभी आवरण
तब धरती के
नूर हो गए.

रोक न पाया
कोई पहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
भूत-अभूत
पूर्व की वर्चा.
भूल करें हम
अब की अर्चा.
चर्चा रोकें
निराधार सब.
हो न निरुपयोगी
कुछ खर्चा.

मलिन हुआ जल
जब भी ठहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
कथनी-करनी में
न भेद हो.
जब गलती हो
तुरत खेद हो.
लक्ष्य देवता के
पूजन हित-
अर्पित अपना
सतत स्वेद हो.
उथलापन तज
हो मन गहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...

***

नवगीत:
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
पर्वत-शिखरों पर जब जाओ,
स्नेहपूर्वक छू सहलाओ.
हर उभार पर, हर चढाव पर-
ठिठको, गीत प्रेम के गाओ.
स्पर्शों की संवेदन-सिहरन
चुप अनुभव कर निज मन वारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
जब-जब तुम समतल पर चलना,
तनिक सम्हलना, अधिक फिसलना.
उषा सुनहली, शाम नशीली-
शशि-रजनी को देख मचलना.
मन से तन का, तन से मन का-
दरस करो, आरती उतारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
घाटी-गव्ह्रों में यदि उतरो,
कण-कण, तृण-तृण चूमो-बिखरो.
चन्द्र-ज्योत्सना, सूर्य-रश्मि को
खोजो, पाओ, खुश हो निखरो.
नेह-नर्मदा में अवगाहन-
करो 'सलिल' पी कहाँ पुकारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...

***
कुण्डलिया

करुणा संवेदन बिना, नहीं काव्य में तंत..
करुणा रस जिस ह्रदय में वह हो जाता संत.
वह हो जाता संत, न कोई पीर परायी.
आँसू सबके पोंछ, लगे सार्थकता पाई.
कंकर में शंकर दिखते, होता मन-मंथन.
'सलिल' व्यर्थ है गीत, बिना करुणा संवेदन.
***

भजन:

सुन लो विनय गजानन
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..

*
सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी.
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन...

***
गीत
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.
बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.
निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.
बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.
कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.
देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.
स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.
पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.
याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.
आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.
स्वप्न में देखूं तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
***

नव गीत:

अवध तन,

मन राम हो...

*

आस्था सीता का

संशय का दशानन.

हरण करता है

न तुम चुपचाप हो.

बावरी मस्जिद

सुनहरा मृग- छलावा.

मिटाना इसको कहो

क्यों पाप हो

उचित छल को जीत

छल से मौन रहना.

उचित करना काम

पर निष्काम हो.

अवध तन,

मन राम हो...

*

दगा के बदले

दगा ने दगा पाई.

बुराई से निबटती

यूँ ही बुराई.

चाहते हो तुम

मगर संभव न ऐसा-

बुराई के हाथ

पिटती हो बुराई.

जब दिखे अंधेर

तब मत देर करना

ढेर करना अनय

कुछ अंजाम हो.

अवध तन,

मन राम हो...

*

किया तुमने वह

लगा जो उचित तुमको.

ढहाया ढाँचा

मिटाया क्रूर भ्रम को.

आज फिर संकोच क्यों?

निर्द्वंद बोलो-

सफल कोशिश करी

हरने दीर्घ तम को.

सजा या ईनाम का

भय-लोभ क्यों हो?

फ़िक्र क्यों अनुकूल कुछ

या वाम हो?

अवध तन,

मन राम हो..
***
नवगीत / भजन:
*
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
आशा-पंछी चहक रहा है.
सुमन सुरभि ले महक रहा है..
समय बीतते समय न लगता.
कदम रोक, क्यों बहक रहा है?
संयम पहरेदार सो रहा-
सुविधा चतुरा चोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
साँसों का चरखा तक-धिन-धिन.
आसों का धागा बुन पल-छिन..
ताना-बाना, कथनी-करनी-
बना नमूना खाने गिन-गिन.
ज्यों की त्यों उजली चादर ले-
मन पतंग, तन डोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
रीते हाथों देख रहा जग.
अदना मुझको लेख रहा जग..
मन का मालिक, रब का चाकर.
शून्य भले अव्रेख रहा जग..
उषा उमंगों की लाली संग-
संध्या कज्जल-कोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी
***
: एक अगीत :
बिक रहा ईमान है

कौन कहता है कि...
मंहगाई अधिक है?
बहुत सस्ता
बिक रहा ईमान है.

जहाँ जाओगे
सहज ही देख लोगे.
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है.

कहो जनमत का
यहाँ कुछ मोल है?
नहीं, देखो जहाँ
भारी पोल है.

कर रहा है न्याय
अंधा ले तराजू.
व्यवस्था में हर कहीं
बस झोल है.

आँख का आँसू,
हृदय की भावनाएँ.
हौसला अरमान सपने
समर्पण की कामनाएँ.

देश-भक्ति, त्याग को
किस मोल लोगे?
कहो इबादत को
कैसे तौल लोगे?

आँख के आँसू,
हया लज्जा शरम.
मुफ्त बिकते
कहो सच है या भरम?

क्या कभी इससे सस्ते
बिक़े होंगे मूल्य.
बिक रहे हैं
आज जो निर्मूल्य?

मौन हो अर्थात
सहमत बात से हो.
मान लेता हूँ कि
आदम जात से हो.

जात औ' औकात निज
बिकने न देना.
मुनाफाखोरों को
अब टिकने न देना.

भाव जिनके अधिक हैं
उनको घटाओ.
और जो बेभाव हैं
उनको बढाओ.


***
स्मृति दीर्घा:
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.

कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.

मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...

***
'बड़ा दिन'

हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
***
नवगीत:
हवा में ठंडक
*
हवा में ठंडक बहुत है
काँपता है गात सारा
ठिठुरता सूरज बिचारा
ओस-पाला
नाचते हैं-
हौसलों को आँकते हैं
युवा में खुंदक बहुत है

गर्मजोशी चुक न पाए,
पग उठा जो रुक न पाए
शेष चिंगारी
अभी भी-
ज्वलित अग्यारी अभी भी
दुआ दुःख-भंजक बहुत है

हवा बर्फीली-विषैली,
नफरतों के साथ फैली
भेद मत के
सह सकें हँस-
एक मन हो रह सकें हँस
स्नेह सुख-वर्धक बहुत है

चिमनियों का धुँआ गंदा
सियासत है स्वार्थ-फंदा
उठो! जन-गण
को जगाएँ-
सृजन की डफली बजाएँ
चुनौती घातक बहुत है

नियामक हम आत्म के हों,
उपासक परमात्म के हों.
कोहरा
भास्कर प्रखर हों-
मौन में वाणी मुखर हों
साधना ऊष्मक बहुत है
***
नवगीत:
*
काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी,कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*
मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...

***
गीतिका
तितलियाँ
*
यादों की बारात तितलियाँ.
कुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ..


***
नवगीत:
*
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही.
सौ पाए तो हैं अयोग्य,
दस पायें वाहा-वाही.
नाली का
पानी बहता है,
नदिया का
जल ठहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र.
सत्य-असत्य न जानें-मानें,
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.
बहस कर रहा
है वकील
न्यायालय
गूंगा-बहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
मना-मनाकर भारत हारा,
लेकिन पाक न माने.
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का
जाना नहीं
ककहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...

***
नवगीत
*
चले श्वास-चौसर पर
आसों का शकुनी नित दाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सम्बंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार.
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलाम.
बाद को अच्छा माने दुनिया,
कहे बुरा बदनाम.
ठंडक देती धूप,
ताप रही बाहर बेहद छाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सद्भावों की सती तजी,
वर राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य,
चुन लिया असत मिथ्या..
सत्ता-शूर्पनखा हित लड़ते
हाय! लक्ष्मण-राम.
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें- विधाता वाम..
मोह शहर का किया
उजड़े अपने सुन्दर गाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
'सलिल' समय पर न्याय न होता,
करे देर अंधेर.
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर..
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी,
बिना मोल बेदाम.
और कह रहे बेहयाई से
'भला करेंगे राम'.
अपने हाथों तोड़ खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...

***
(अभिनव प्रयोग)
दोहा गीतिका

*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?

बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।

दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।

फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।

हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।

सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।

हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।

हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।

तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..
***
राज को पाती:
भारतीय सब एक हैं, राज कौन है गैर?
महाराष्ट्र क्यों राष्ट्र की, नहीं चाहता खैर?
कौन पराया तू बता?, और सगा है कौन?
राज हुआ नाराज क्यों ख़ुद से?रह अब मौन.
उत्तर-दक्षिण शीश-पग, पूरब-पश्चिम हाथ.
ह्रदय मध्य में ले बसा, सब हों तेरे साथ.
भारत माता कह रही, सबका बन तू मीत.
तज कुरीत, सबको बना अपना, दिल ले जीत.
सच्चा राजा वह करे जो हर दिल पर राज.
‘सलिल’ तभी चरणों झुकें, उसके सारे ताज.
६-२-२०१०
***

शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

आदमी अभी जिन्दा है संशोधन, समीक्षा, रोहिताश्व अस्थाना,

कृति चर्चा
'चुनिंदा हिंदी गज़लें' संग्रहणीय संकलन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : चुनिंदा हिंदी गज़लें, संपादक डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ १८४, मूल्य ५९५/-, प्रकाशक - ज्ञानधारा पब्लिकेशन, २६/५४ गली ११, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली ११००३२]
*
विश्ववाणी हिंदी की काव्य परंपरा लोक भाषाओँ प्राकृत, अपभृंश और संस्कृत से रस ग्रहण करती है। द्विपदिक छंद रचना के विविध रूपों को प्रकृत-अपभृंश साहित्य में सहज ही देखा जा सकता है। संस्कृत श्लोक-परंपरा में भिन्न पदभार और भिन्न तुकांत प्रयोग किए गए हैं तो दोहा, चौपाई, सोरठा आदि में समभारिक-संतुकांती पंक्तियों का प्रयोग किया जाता रहा है। द्विपदिक छंद की समतुकान्तिक एक अतिरिक्त आवृत्ति ने चतुष्पदिक छंद का रूप ग्रहण किया जिसे मुक्तक कहा गया। मुक्तक की तीसरी पंक्ति को भिन्न तुकांत किन्तु समान पदभार के साथ प्रयोग से चारुत्व वृद्धि हुई। भारतीय भाषा साहित्य अरब और फारस गया तो भारतीय लयखण्डों के फारसी रूपान्तरण को 'बह्र' कहा गया। मुक्तक की तीसरी और चौथी पंक्ति की तरह अन्य पंक्तियाँ जोड़कर रची गयी अपेक्षाकृत लंबी काव्य रचनाओं को 'ग़ज़ल' कहा गया। भारत में लोककाव्य में यह प्रयोग होता रहा किन्तु भद्रजगत ने इसकी अनदेखी की। मुग़ल आक्रांताओं के विजयी होकर सत्तासीन होनेपर उनकी अरबी-फारसी भाषाओं और भारतीय सीमंती भाषाओँ का मिश्रण लश्करी, रेख़्ता, उर्दू के रूप में प्रचलित हुआ। लगभग २००० वर्ष पूर्व 'तश्बीब' (लघु प्रणय गीत), 'ग़ज़ाला-चश्म' (मृगनयनी से वार्तालाप) या 'कसीदा' (प्रेयसी प्रशंसा के गीत) के रूप में प्रचलित हुई ग़ज़ल भारत में आने पर सूफ़ी रंगत में रंगने के साथ-साथ, क्रांति के आह्वान-गान और सामाजिक परिवर्तनों की वाहक बन गई। अरबी ग़ज़ल का यह भारतीय रूपांतरण ही हिंदी ग़ज़ल का मूल है।


डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़ल के प्रथम शोधार्थी ही नहीं उसके संवर्धक भी हैं। कबीर, खुसरो, वली औरंगाबादी, ज़फ़र, ग़ालिब, रसा, बिस्मिल, अशफ़ाक़, सामी, नादां, साहिर, अर्श, फैज़, मज़ाज़, जोश, नज़रुल, नूर, फ़िराक, मज़हर, शकील, केशव, अख्तर, कैफ़ी, जिगर, सौदा, तांबा, चकबस्त, दाग़, हाली, इक़बाल, ज़ौक़, क़तील, रंग, अंचल, नईम, फ़ुग़ाँ, फ़ानी, निज़ाम, नज़ीर, राही, बेकल, नीरज, दुष्यंत, विराट, बशीर बद्र, अश्क, साज, शांत, यति, परवीन हक़, प्रसाद, निराला, दिनकर, कुंवर बेचैन, अंबर, अनंत, अंजुम, सलिल, सागर मीरजापुरी, बेदिल, मधुकर, राजेंद्र वर्मा, समीप, हस्ती, आदि सहस्त्राधिक हिंदी ग़ज़लकारों ने हिंदी ग़ज़ल को समृद्ध-संपन्न करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।


डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिंदी ग़ज़ल को लेकर शोध ग्रन्थ 'हिंदी ग़ज़ल : उद्भव और विकास', व्यक्तिगत ग़ज़ल संग्रह 'बांसुरी विस्मित है', हिंदी ग़ज़ल पंचदशी संकलन श्रृंखला आदि के पश्चात् 'चुनिंदा हिंदी गज़लें' के समापदं का सराहनीय कार्य किया है। इस पठनीय, संग्रहणीय संकलन में ४४ ग़ज़लकारों की ४-४ ग़ज़लें संकलित की गयी हैं। डॉ, अस्थाना के अनुसार "मैं आश्वस्त हूँ कि संकलित कवि अथवा गज़लकार किसी मिथ्याडंबर अथवा अहंकार से मुक्त होकर निस्वार्थ भाव से हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में साधनारत हैं।'' इस संकलन में वर्णमाला क्रमानुसार अजय प्रसून, अनिरुद्ध सिन्हा, अशोक आलोक, अशोक 'अंजुम', अशोक 'मिज़ाज', ओंकार 'गुलशन, उर्मिलेश, किशन स्वरूप, सजल, कृष्ण सुकुमार, कौसर साहिरी, ख़याल खन्ना, गिरिजा मिश्रा, नीरज, विराट, चाँद शेरी, पथिक, वियजय, नलिन, याद राम शर्मा, महर्षि, रोहिताश्व, विकल सकती, निर्मम, श्याम, अंबर, बिस्मिल, विशाल, संजीव 'सलिल', मुहसिन, हस्ती, वहां, प्रजापति, विनम्र, दिनेश रस्तोगी, दिनेश सिंदल, दीपक, राकेश चक्र, विद्यासागर वर्मा, सत्य, भगत, मिलान, अडिग, रऊफ परवेज की सहभागिता है। ग़ज़लकारों के वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों ही हैं। ग़ज़लकारों और ग़ज़लों का चयन करने में रोहिताश्व जी विषय वैविध्य और शिल्प वैविध्य में संतुलन स्थापित कर संकलन की गुणवत्ता बनाए रखने में सफल हैं।


डॉ. अजय प्रसून 'हर कोई अपनी रक्षा को व्याकुल है' कहकर असुरक्षा की जन भावना को सामने लाते हैं। अनिरुद्ध सिन्हा 'दर्द अपना छिपा लिया उसने' कहकर आत्मगोपन की सहज मानवीय प्रवृत्ति का उल्लेख करते हैं। 'सच बयानी धुंआ धुंआ ही सही' - अशोक अंजुम, धीरे-धीरे शोर सन्नाटों में गुम हो जायेगा' - मिज़ाज, अपने कदमों पे खड़े होने के काबिल हो जा - उर्मिलेश, अंधियारे ने सूरज की अगवानी की - किशन स्वरूप, आँसू पीकर व्रत तोड़े हैं - गिरिजा मिश्रा, बढ़ता था रोज जिस्म मगर घाट रही थी उम्र - नीरज, कालिख है कोठरी की लगेगी अवश्य ही - विराट, शहर के हिन्दोस्तां से कुछ अलग / गाँव का हिन्दोस्तां है और हम - महर्षि, राहत के दो दिन दे रब्बा - श्याम, सुविधा से परिणय मत करना -अंबर, रिश्तों की कब्रों पर मिटटी मत डालो - विशाल, छोड़ चलभाष प्रिय! / खत-किताबत करो -संजीव 'सलिल', सच है लहूलुहान अगर झूठ है तो बोल - हस्ती, सर उठाकर न जमीन पर चलिए - वहम, सुख मिथ्या आश्वासन जैसा - विनम्र, रोज ही होता मरण है - राकेश चक्र, एक सागर नदी में रहता है - मिलन, घर में पूजा करो, नमाज पढ़ो - रऊफ परवेज़ आदि हिंदी जगत के सम सामायिक परिवेश की विसंगतियों, विडंबनाओं, अपेक्षाओं, आशंकाओं आदि को पूरी शिद्दत से उद्घाटित करते हैं।


डॉ. अस्थाना ने रचना-चयन करते समय पारंपरिकता पर अधुनातन प्रयोगधर्मिता को वरीयता ठीक ही दी है। इससे संकलन सहज ग्राह्य और विचारणीय बन सका है। हर दिन प्रकाशित हो रहे सामूहिक संकलनों की भीड़ में यह संकलन अपनी पृथक पहचान स्थापित करने में सफल है। आकर्षक आवरण, त्रुटिहीन मुद्रण, स्तरीय रचनाएँ इसे 'सोने में सुहागा' की तरह पाठकों में लोकप्रिय और शोधार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध करेगी।
*
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४  

संशोधन 
सामने का फ्लैप  - ५ अंगूठा मांग - अँगूठा माँग, ७ प्रगत - प्रगट, ११ अंगूठा - अँगूठा, १५ अंगूठा - अँगूठा, १७  अंगूठा - अँगूठा, २० अंगूठा - अँगूठा  
2 / २ विश्व वाणी - विश्ववाणी,   salil.sanjiv@gmail.com
3 समर्पण के नीचे नाम तथा दिनाँक २५ जनवरी २०२२
५ / ४  तथा हिंदयुग्म.कॉम, साहित्यशिल्पी.कॉम, ओबीओ, 
          नीचे से ५ प्रमाणिकता - प्रामाणिकता,
६/५ लघ्वाकरी - लघ्वाकारी, 
10 / 5 यथा, तथ्यता - यथातथ्यता
12 /1 सिद्धहस्त करती हैं - सिद्धहस्त कलम ही करती है
12/6 है। किन्तु - है किन्तु
13/3 हरिशंकर प्रसाद??
14/6 दोनों आते - दोनों में नहीं आते
14/8 अब भी न आ सकी - अब भी आ सकी, यदि डिलीट
१५ अनुक्रमणिका - लघुकथा क्रमणिका 
पृष्ठ ३ से १९ तक पृष्ठ संख्या अंकित कर दें। 
१९ उत्सव २ - उत्सव  
20/1 बढ़ते कर और मँहगाई - बढ़ते कर, मँहगाई
20/6 ना - न
20/7 अहिनियमों -अधिनियमों
21/2 चेहरे वाले - चेहरेवाले
21/5 करने वालों - करनेवालों
21 नीचे से २ चुहल कर -चुहलकर
22/1 मनपसंद से - मनपसंद लड़की से
23/4 तैयार कर - तैयारकर
23/5 ना - न
२३/१२ बे-रहमी -बेरहमी 
23 नीचे से 9 रंगे - रँगे, जाने वालों - जानेवालों
23 नीचे से ८ ना - न
25 / 2 तुम पूजा - तुम न पूजा
25/3 ना - न, ना - न
25/6 सुनाता - सुनता
26/2 दूरदर्शन - दूरदर्शन सेट 
26 नीचे से 10 दिला कर - दिलाकर  
26 नीचे से 6 ना - न 
26 नीचे से 5 आने वाले - आनेवाले 
26 नीचे से 2 दिखा कर -दिखाकर, खानापूर्ती - खानापूर्ति   
27/2 ना - न 
28/6 माँग कर - माँगकर 
२९ नीचे से ३ वो - वह 
30/ नीचे से 7 ना - न 
30/ नीचे से 3 उठ जुम्मन - उठ रहे जुम्मन 
३२ / ५ ना - न, नीचे से २ पकड़ कर - पकड़कर 
33/4 मुश्किल काटी - मुश्किल से काटी 
33/8 रहें - रहे 
33/9 रवाना कर - रवानाकर 
33/11  ना - न 
33/13 लपक कर - लपककर 
33 नीचे से 4 वह डिलीट 
३४ /२ त्याग पत्र -त्यागपत्र 
नीचे से ५ का अवसर - का अवसर मिले 
३४ नीचे से ४ भी ये - भी कि ये 
३५/७ त्याग पत्र - त्यागपत्र, अंतिम पंक्ति अवस्था - अवस्था का कारण 
३७/२ फोटो - चित्र, ३७ /५ निकाल कर - निकालकर  
३७/७ वह पढ़ाई कर लेगा - मैं पढ़ाई कर लूँगा।
३७ नीचे से ९ - वो - वह, नीचे से ३ उतर कर  - उतरकर 
३८/१ बीनने वाले - बीननेवाले 
३८ नीचे से ९ की - कि, बीनने वाला - बीननेवाला
४०/७ आथित्य - आतिथ्य 
४० नीचे से ७ जीवन साथी - जीवन-साथी, नीचे से ६ तुम्हारा - आपका 
४१/४ विचार कर -विचारकर 
४२/४ टूट कर - टूटकर, ना - न 
४२/५ पूजा कर - पूजा करने के बाद   
४२ नीचे से २ पाकर - देखकर 
४४/७ बंद कर - बंदकर 
४५/२ ना - न, नीचे से ५ ना - न, नीचे से ४ ना - न   
४६ नीचे से ३ ना - न 
४८ / ७ - सामान - समान, नीचे से ६ कभी नहीं - कभी करना नहीं 
४९/४ खेंचा - खेंच 
४९ नीचे से २ एइकि - एकी 
५० नीचे से २ चाहने वालों - चाहनेवालों 
५२ / १० नगरिकों - नागरिकों 
५३/६ ना - न 
५३/८ ना - न 
५३ नीचे से ३ करने वाले - करनेवाले 
५४/५ उठाने वालों - उठानेवालों 
५७/१ निकलकर निकालकर, ४ ना - न 
५८/२  ना- न 
५८/७ ना - भी न  
५८ नीचे से ३ पलट कर - पलटकर 
५९/१ उतर कर - उतरकर 
६०/२ ना - न 
६०/८ ना - न 
६० नीचे से ३ पहुँची तो - पहुँची, 
६२/४ करने वाला - करनेवाला, ७ देने वाला - देनेवाला 
६३ नीचे से ४  मसोस कर - मसोसकर 
६४/५ ने - के 
६४/५ ब्रिटेन - ब्रिटेन के 
६४/६ उठवाने वालों - उठवानेवालों
६५ अंतिम पंक्ति स्थानंतरण - स्थानांतरण 
६६/५ बात कर - बातकर, ९ ना-न 
६८ अंतिम पंक्ति - भगवान - इंसान 
७१/७ उन्हें - उन्होंने 
७१ नीचे से ११ खरीद कर - खरीदकर 
७१ नीचे से ८ सौंप कर - सौंपकर 
७१ नीचे से ५ मिलाने - मिलने 
७२ / ७ ना बैठने वाले - न  बैठनेवाले 
७२ नीचे से ३ जिसमें - अंत में 
७२ डिलीट उन्हें शिकायत का स्पर्श हुए बिना 
७३/२ ऐसो जाड़े करो की - ऐसो जादू करो कि 
७३/३ कहें - खें 
७३ नीचे से २ काया- क्या 
७४/२ करने वालों - करनेवालों 
७४/५ गई। सरकार - गई सरकार को 
७५/७ ना - न 
८०/७ विभाध्यक्ष - विभागाध्यक्ष 
८२ / ६ थीं मैं - थीं कि मैं
८३ /४ प्रशंसा कर - प्रशंसाकर, नीचे से २ ना - न  
८७ नीचे से २  हैं।  वे - हैं; वे 
८८ अंतिम पंक्ति गूंगी - गूँगी 
८९/२ ना - न 
८९ नीचे से १० बताएं - बताएँ 
९१/४ ध्यान लगा - ध्यान लगाया 
९२/२ अंग्ररेजी - अंग्रेजी 
९३/८ कार्यक्रम वाला - कार्यक्रमवाला
९३/९ मिलने वाली - मिलनेवाली 
९३ नीचे से ५ ठगाई - ठगी गई 
९४ /२ मंडियां - मंडियाँ 
९५/१ ढ़ेर - ढेर 
९६ अंतिम २ पंक्तियाँ डिलीट कर दें। 
९७/१ रोग। - रोग, ५ ना - न, ६ कराए - कराएँ, १३ ना - न 
९८/४ चाह कर भी - चाहकर भी मिठाई 
९८/७ लौटने पर - लौटनेपर 
९८/८ किराने वाले -किरानेवाले 
९८/१४ किराने वाले -किरानेवाले
९८/१६ किराने वाला -किरानेवाला
९८/१८ ना - न 
९९/५ डाइबिटीज वालों-डाइबिटीजवालों 
१००/३ ख्रराब - ख़राब 
१०१/८ अब ही - अब साथ ही 
१०१/१४ मैं - वह 
१०२ / ५ ना - न 
१०२/६ जा कर - जाकर 
१०४/५ स्वीकार कर लिया - मान लिया 
१०५ नीचे से ५ लगाई, लगाई - 
१०७ नीचे से ४ दुनियावीं - दुनियावी 
१०७ अंतिम पंक्ति मरने वालों - मरनेवालों 
१०८ नीचे से ७ समान्य - सामान्य 
१०९/६ बहुसंखयक - बहुसंख्यक, नीचे से ३ सौंप कर - सौंपकर 
११०/१० प्रोफे सर  -प्रोफेसर
११०/१२ थी - ली 
११०/१५ अनूवादित - अनुवादित
११०/१६ अनूवादित - अनुवादित 
११२/१ परिंदा - परिंदों, ना - न 
११३ अंतिम पंक्ति साथ। अब - साथ अब 
११४/१ ना - न 
११४/२ ना - न
११५/नीचे से २ इंटर्नेशनल - इंटरनेशनल
११७  उत्सव - २ - उत्सव 
१२३ नीचे से २ डिलीट तुर्की 
१२४/८ बेचूं - बेचूँ 
१२६/१ चोंक - चौंक 
पिछला आवरण - ९. २१ श्रेष्ठ लोककथाएँ मध्य प्रदेश, १०. २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्य प्रदेश।  



 
 
 








सॉनेट, यमक दोहा, गीत, शीत, माहिया,

सॉनेट
शीत
पलट शीत फिर फिर है आती।
सखी! चुनावी नेता जैसे।
रँभा रहीं पगुराती भैंसे।।
यह क्यों बे मौसम टर्राती।।
कँपा रही है हाड़-माँस तक।
छुड़ा रही छक्के, छक्का जड़।
खड़ी द्वार पर, बन छक्का अड़।।
जमी जा रही हाय श्वास तक।।
सूरज ओढ़े मेघ रजाई।
उषा नवेली नार सुहाई।
रिसा रही वसुधा महताई।।
पाला से पाला है दैया।
लिपटे-चिपटे सजनी-सैंया।
लल्ला मचले लै लै कैंया।।
५-२-२०२२
•••

गीत
छंद - दोहा, पदभार- २४, यति - १३-११, पदांत - लघु गुरु।
*
तू चंदा मैं चाँदनी, तेरी-मेरी प्रीत।
युगों-युगों तक रहेगी, अमर रचें कवि गीत।।
*
सपना पाला भगा दें
हम जग से तम दूर।
लोक हितों की माँग हो,
सहिष्णुता सिंदूर।।
अनगिन तारागण बनें,
नभ के श्रमिक-किसान।
श्रम-सीकर वर्षा बने, कोशिश बीज पुनीत।
चल हम चंदा-चाँदनी, रचें अनश्वर रीत।।
*
काम अकाम-सकाम वर,
बन पाएँ निष्काम।
श्वासें अल्प विराम हों,
आसें अर्ध विराम।।
पूर्ण विराम अनाम हो, छोड़ें हम नव नीत।
श्री वास्तव में पा सकें, मन हारें मन जीत।।
*
अमल विमल निर्मल सलिल, छप्-छपाक् संजीव।
शैशव वर वार्धक्य में, हो जाएँ राजीव।।
भू-नभ की कुड़माई हो, भावी बने अतीत।
कलरव-कलकल अमर हो, बन सत स्वर संगीत।।
***
सामयिक माहिया
*
त्रिपदिक छंद।
मात्रा भार - १२-१०-१२।
*
भारत के बेटे हैं
किस्मत के मारे
सड़कों पर बैठे हैं।
*
गद्दार नहीं बोलो
विवश किसानों को
नेता खुद को तोलो।
*
मत करो गुमान सुनो,
अहंकार छोड़ो,
जो कहें किसान सुनो।
*
है कुछ दिन की सत्ता,
नेता सेवक है
है मालिक मतदाता।
*
मत करना मनमानी,
झुक कर लो बातें,
टकराना नादानी।
*
सब जनता सोच रही
खिसियानी बिल्ली
अब खंबा नोच रही।
*
कितनों को रोकोगे?
पूरी दिल्ली में
क्या कीले ठोंकोगे?
*
जनमत मत ठुकराओ
रूठी यदि जनता
कह देगी घर जाओ।
*
फिर है चुनाव आना
अड़े रहे यूँ ही
निश्चित फिर पछताना।
*
५-२-२०२१

***

यमक दोहा
बरस बरस जल बरस कर, हरषे भू को सींच
पत्ती, कलियों, पुष्प को, ले बाँहों में भींच
*
पौधे-वृक्ष हरे रहें, प्यास बुझाएँ जीव
'सलिल' धन्य हो कर सके, सकल सृष्टि संजीव
*
नारी पाती दो जगत, जब हो कन्यादान
पाती है वरदान वह, भले न हो वर-दान
*
दिल न मिलाये रह गए, मात्र मिलकर हाथ
दिल ने दिल के साथ रह, नहीं निभाया साथ
*
निर्जल रहने की व्यथा, जान सकेगा कौन?
चंद्र नयन-जल दे रहा, चंद्र देखता मौन
*
खोद-खोदकर थका जब, तब सच पाया जान
खो देगा ईमान जब, खोदेगा ईमान
*
कौन किसी का सगा है, सब मतलब के मीत
हार न चाहें- हार ही, पाते जब हो जीत
*
निकट न होकर निकट हैं, दूर न होकर दूर
चूर न मद से छोर हैं, सूर न हो हैं सूर
*
इस असार संसार में, खोज रहा है सार
तार जोड़ता बात का, डिजिटल युग बे-तार
*

५-२-२०१७
प्रार्थना
छंद मुक्तक
*
अजर अमर माँ शारद जय जय।
आस पूर्ण कर करिए निर्भय।।
इस मन में विश्वास अचल हो।
ईश कृपा प्रति श्रद्धा अक्षय।।
उमड़ उजाला सब तम हर ले।
ऊसर ऊपर सलिल प्रचुर दे।।
एक जननि संतान अगिन हम
ऐक्य भाव पथ, माँ! अक्षर दे।।
ओसारे चहके गौरेया।
और रँभाए घर घर गैया।
अंकुर अंबर छू ले बढ़कर
अः हँसे सँग बहिना-भैया।।
क्षणभंगुर हों शंका संशय।
त्रस्त रहे बाधा, शुभ की जय।
ज्ञान मिले सत्य-शिव-सुंदर का
ऋद्धि-सिद्धि दो मैया जय जय।।
****
दोहा

जो निज मन को जीत ले, उसे नमन कर मौन।

निज मन से यह पूछिए, छिपा आपमें कौन?

५-२-२०१०

***

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

सॉनेट, गीत, कुंडलिया , सवैया, यमक, नवगीत, चिरैया,

मुक्तिका
खोली किताब।
निकले गुलाब।।

सुधियाँ अनेक
लाए जनाब।।

ऊँची उड़ान 
भरते उकाब।।

है फटी जेब
फिर भी नवाब।।

छेड़ें न लोग
ओढ़ो नकाब।।

दाने न चार
देते जुलाब।।

थामो लगाम
पैरों रकाब।।
***
४-२-२०२२
मुक्तिका
मुस्कुराने लगे।
गीत गाने लगे।।

भूल पाए नहीं
याद आने लगे।।

था भरोसा मगर
गुल खिलाने लगे।।

बात मन की करी
दिल दुखाने लगे।।

जो नहीं थे खरे
आजमाने लगे।।

तोड़ दिल, दर्द दे
आप जाने लगे।।

कह रहे, बिन कहे
हम लुभाने लगे।।
४-४-२०२२
•••
सॉनेट
ऋतुराज
ऋतुराज का स्वागत करो!
पवन पिक हिलमिल रहे हैं
आम्र तरुवर खिल रहे हैं।।
पुलक पल पल सुख वरो।।

सुमन चहके, सुमन महके।
भ्रमर कर रसपान उन्मत।
फलवती हो मिलन चाहत।।
रहीं कलिकाएँ दहक।।

बाग में गुंजार रसमय।
काममय संसार मधुमय।
बिन पिए भी चढ़ी है मय।।

भोगियों को है नहीं भय।
रोगियों का रोग हो क्षय।
योगियों होना न निर्भय।।
४-२-२०२२
•••
मुक्तक
अपनी धरा; अपना गगन, अपना सलिल, अपना पवन।
अपनी उषा-संध्या-दिशा, अपना सुमन, अपना चमन।।
पुष्पा रहा; मुस्का रहा, पल-पल वतन महका रहा-
तकदीर निज दमका रहा, अपना युवक, अपना जतन।।
***
मुक्तिका
मन
*
सूर्यमुखी बन
झूम-झूम मन
पर्वत सा जड़
हो न व्यर्थ तन
बिजुरी-बादल
सँग हो सावन
सिहर-बिखर लख
पायल-करधन
गा कबीर हो
हर दिन फागुन
है जीवनधन
ही जीवनधन
सुख पा देकर
जोड़ न कंचन
श्वास-श्वास कर
मधुमय मधुवन
४-२-२०२०
***
सवैयों में यमक अलंकार
मध्यकाल के २ कवियों के सवैये प्रस्तुत हैं। दोनों में यमक अलंकार का बहुत सुंदर प्रयोग है।
अब क्यों करिकेँ घर जैयतु है, अरु काही सुनैयतु बीती भई।
कवि मण्डन मोहन ठीक ठगी, सु तो ऐसी लिलार लिखी ती दई।
सखि और भई सो भली ही भई, पर एक जो बात बितीती नई।
रति हूँ ते गई; मति हूँ ते गई; पतिहू ते गई; पति हूँ ते गई। -मण्डन


यह नायिका पति को छोड़कर उपनायक से मिलने जाती है। वह भी धोखा दे जाता है संकेत स्थल पर नही मिलता। नायिका पश्चाताप करती है। अंतिम पंक्ति में पतिहू (पति या स्वामी )तथा पति हूँ (प्रतिष्ठा या लज्जा) में यमक का चमत्कार है ।


जल ढारि सनीचर गंग बधू विनबै कर जोरि सु पीपर सों।
तरुदेव गोसाँई बड़े तुम होयः मांगति दीन ह्वै पी परसों।
आवन के दिन तीस कहे गति औधि की ठीक तपी परसों
भूलि गये हरि दूरि विदेस किधौं अटके कहूँ पी पर सों। -गङ्ग


नायिका प्रोषितपतिका अर्थात जिसका पति परदेश में हो, है। एक महीने में आने की कह कर गया अवधि २ दिन पहले बीत गई, आया नहीं। शनिवार को पीपल पर जल चढ़ाती है। चमत्कार अंतिम शब्दों में है-
1 पीपर सों-अर्थात पीपल के बृक्ष से विनम्रता पूर्वक निवेदन करती है
2-पी परसों-विनम्रता पूर्वक माँगती हूँ कि ऐसा करिये की प्रियतम का स्पर्श करूँ
3-तपी परसों-पति के आने की अवधि परसों ही समाप्त हो गयी
4-पी पर सों -कहीं शायद मेरा प्रियतम किसी अन्य (नारी से) न अटक गया हो उससे प्रेम न कर बैठा हो
***
मुक्तक
कल्पना के बिना खेल होता नहीं
शब्द का शब्द से मेल होता यहीं
गिर 'सलिल' पर हुईं बिजलियाँ लुप्त खुद
कलप ना, कलपना व्यर्थ होता कहीं?
*
आ भा कहते, आ भा सुनते, आभा चेहरे की बदल गयी
आभा आई-छाई मुख पर, आभा चेहरे की नवल हुई
आते-आते, भाते-भाते, कल बेकल हो फिर चपल हुई
कलकल किलकिल हो विकल हुई, अविचल होकर हँस मचल गयी
***
नवगीत
चिरैया!
आ, चहचहा
*
द्वार सूना
टेरता है।
राह तोता
हेरता है।
बाज कपटी
ताक नभ से-
डाल फंदा
घेरता है।
सँभलकर चल
लगा पाए,
ना जमाना
कहकहा।
चिरैया!
आ, चहचहा
*
चिरैया
माँ की निशानी
चिरैया
माँ की कहानी
कह रही
बदले समय में
चिरैया
कर निगहबानी
मनो रमा है
मन हमेशा
याद सिरहाने
तहा
चिरैया!
आ चहचहा
*
तौल री पर
हारना मत।
हौसलों को
मारना मत।
मत ठिठकना,
मत बहकना-
ख्वाब अपने
गाड़ना मत।
ज्योत्सना
सँग महमहा
चिरैया!
आ, चहचहा
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२१-८-२०१९
मुक्तिका
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नाजनीं को नमन मुस्कुरा दीजिए
मशविरा है बिजलियाँ गिरा दीजिए
*
चिलमनों के न पीछे से अब वार हो
आँख से आँख बरबस मिला दीजिए
*
कल्पना ही सही क्या बुरा है अगर
प्रेरणा बन के आगे बढ़ा दीजिए
*
कांता के हुए कांत अब तो 'सलिल'
बैठ पलकों पे उनको बिठा दीजिए
*
जो खलिश दिल में बाकी रहे उम्र भर
ले के बाँहों में उसको सजा दीजिए
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कुंडलिया
जिस पर बिजली गिर गयी, वह तो बैठा शांत
गिरा रहे जो वे हुए अपने आप शांत
अपने आप अशांत बढ़ा बैठे ब्लड प्रेशर
करें कल्पना हुए लाल कश्मीरी केसर
'सलिल' हुआ है मुग्ध अनूठा रूप देखकर
वह भुगते बिजली गिरनी है अब जिस जिस पर
४-२-२०१७
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गीत:
संग समय के...
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संग समय के चलती रहती सतत घड़ी.
रहे अखंडित कालचक्र की मौन कड़ी.....
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छोटी-छोटी खुशियाँ मिलकर जी पायें.
पीर-दर्द सह आँसू हँसकर पी पायें..
सभी युगों में लगी दृगों से रही झड़ी.....
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अंकुर, पल्लव, कली, फूल, फल, बीज बना.
सीख न पाया झुकना तरुवर रहा तना।
तूफां ने आ शीश झुकाया व्यथा बड़ी.....
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दूब डूब जाती पानी में- मुस्काती.
जड़ें जमा माटी में, रक्षे हरियाती..
बरगद बब्बा बोले रखना जड़ें गडी.....
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वृक्ष मौलश्री किसको हेरे एकाकी.
ध्यान लगा खो गया, नगर अब भी बाकी..
'ओ! सो मत', ओशो कहते: 'तज सोच सड़ी'.....
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शैशव यौवन संग बुढ़ापा टहल रहा.
मचल रही अभिलाषा देखे, बहल रहा..
रुक, झुक, चुक मत, आगे बढ़ ले 'सलिल' छड़ी.....
४-२-२०१३
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