कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 11 जनवरी 2022

नवगीत, पर्यावरण - वानिकी,

 विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
४०१ विजय अपार्टमेन्ट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१   
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४  
 (सहयोगी संस्था : आईसेक्ट-विश्वरंग भोपाल)
*
शान्तिराज पुस्तकालय 
जिन शिक्षा संस्थाओं में अर्थाभाव के कारण विद्यार्थियों के लिए पुस्तकालय सुविधा उपलब्ध नहीं है, उनके प्राचार्य द्वारा आवेदन करने और शिक्षकों द्वारा पुस्तकालय संचालन का दायित्व ग्रहण करने की सहमति होने पर प्रतिवर्ष १०० पुस्तकें तथा साहित्यिक पत्रिकाएँ निशुल्क प्रदान की जाती हैं। 
संस्था के केंद्रीय कार्यालय ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर में सदस्यों हेतु निशुल्क पुस्तकालय है जिसमें लगभग १५००० पुस्तकें व पत्रिकाएँ उपलब्ध हैं। सहयोगी संस्था आईसेक्ट द्वारा निशुल्क उपलब्ध कराई गई पुस्तकें / पत्रिकाएँ आदि यहाँ सदस्यों को उपलब्ध रहती हैं। संस्था के संस्थापक सभापति आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', अध्यक्ष श्री बसंत शर्मा, सचिव इंजी. अरुण भटनागर हैं। संस्था द्वारा विविध साहित्यक विधाओं की कृतियों तथा विशिष्ट अवदान पर वार्षिक सम्मेलन के अवसर पर पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। वर्ष २०२१ में तरुण स्मृति गीत-नवगीत सम्मान (५०००/- नगद) से श्री विनोद निगम को सम्मानित  किया गया।   
महीयसी पुस्तक प्रसार योजना 
संस्था द्वारा वाट्सऐप समूह अभियान जबलपुर पर हर मंगलवार को शाम ५ बजे से आयोजित बाल जगत कार्यक्रम में सहभागिता कर रहे बच्चों की प्रतिभा विकास कर उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए न्यायमूर्ति शिवदयाल जी की पुण्य स्मृति में सबसे अच्छी प्रस्तुति पर एक पुस्तक पुरस्कार में दी जाएगी। ये पुस्तकें भोपाल से डॉ. ज्योत्स्ना निगम जी के माध्यम से दी जाएँगी। पुरस्कार के निर्णायक विशववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के सभापति होंगे। पुरस्कार घोषणा के पश्चात् विजयी बच्चा अपना डाक का पता, चलभाष क्रमांक आदि पटल पर सूचित करेगा। 
बच्चे अपना खुद का पुस्तकालय बना सकें तो उनमें पुस्तक पढ़ने की आदत का विकास होगा। पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें पढ़ने से बाल पाठक शब्द भण्डार, शब्दों के अर्थ की समझ बढ़ेगी, वाक्य अथवा छंद की संरचना के प्रति लगाव होगा और वे अपनी परीक्षा पुस्तिका या साक्षात्कार में अपने उत्तर देते समय या भाषण आदि देते समय सटीक शब्दों व भाषा का प्रयोग कर सफल होंगे। 
प्रथम पुरस्कार  सुरभि मुले को 
पटल पर श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों की सुंदर प्रस्तुति करने के लिए सुरभि मुले को प्रथम 'न्यायमूर्ति शिवदयाल स्मृति पुरस्कार' प्रदान करने के निर्णय लिया गया है। सुरभि को पूरी गीता कंठस्थ है। ग्यारहवीं कक्षा की छात्रा सुरभि  गीता के श्लोकों का सस्वर वाचन तथा व्याख्या करने में निपुण है। सुरभि का पता- प्लाट क्रमांक ४६ बी, मकान क्रमांक ७८२ बदनपुर, साई पैलेस के सामने, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१।
पाठक पंचायत 
संस्था के सदस्यों तथा अन्य रचनाकारों से प्राप्त पुस्तकों की समीक्षा नियमित गोष्ठियों में निरंतर की जाती है। संस्थान की ११ ईकाइयाँ  विविध नगरों में कार्यरत हैं। सभी ईकाइयों में समीक्षा हेतु प्रति इकाई २ पुस्तकें आना आवश्यक है। कम प्रतियाँ मिलने पर केवल केंद्रीय ईकाई में चर्चा की जाती है। 
वॉट्सऐप जीवंत गोष्ठियाँ  
वॉट्सऐप पर जीवंत (लाइव) गोष्ठियाँ प्रतिदिन ५ बजे से आयोजित की जा रही हैं जिनके विषय सोमवार उपनिषद वार्ता, मंगलवार बाल जगत, बुधवार भाषा विविधा, गुरूवार लोक साहित्य, शुक्रवार रस-छंद-अलंकार तथा समीक्षा, शनिवार काव्य गोष्ठी, रविवार संत समागम (११ बजे से) हैं। 
दिव्य नर्मदा 
संस्थान की पत्रिका दिव्य नर्मदा.इन पर प्रतिदिन नई रचनाएँ प्रस्तुत की जाती हैं। इसका गणक अब तक आ चुके पाठकों की संख्या ३८,१४,४५५  दिखा रहा है। इस पर १२६६१ रचनाएँ प्रस्तुत की जा चुकी हैं। 
अन्य गतिविधियाँ 
संस्था अपने सदस्यों को लेखन विधाओं, हिंदी व्याकरण, हिंदी छंद आदि की जानकारी तथा लेखन हेतु मार्गदर्शन देने के साथ पांडुलिपियों के संशोधन, मुद्रण, भूमिका लेखन, समीक्षा लेखन, विमोचन आदि में सहायक होती है।         
 ***  
पर्यावरण - वानिकी
*
साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा के आमंत्रण पर बाल साहित्य सम्मेलन में सहभागिता हेतु राजस्थान के कुछ भू भाग का भ्रमण करने का लोभ संवरण न कर सका। अत्यधिक शीत और कोहराजनित असुविधा की आशंका पर श्रीनाथ जी के दर्शन मिलने के सौभाग्यजनित भक्ति भाव ने विजय पाई।
मैं और उदयभानु तिवारी 'मधुकर' दयोदय एक्सप्रेस में पूर्वारक्षित बी ३, ९-१२ शायिकाओं से ४ जनवरी को रात्रि ८ बजे प्रस्थित हुए, सिहोरा से भाई विजय बागरी जुड़ गए। शयन से पूर्व जीवित काव्य गोष्ठी हो गई, सहयात्री भी रसानंद लेते रहे। बिरला इंस्टीयूट ऑफ़ टैक्नॉलॉजी पिलानी का एक युवा विद्यार्थी तकनीकी शिक्षा में गिरावट और अंग्रेजी के वर्चस्व के प्रति चिंतित मिला। मैं और मधुकर जी अभियंता भी हैं, जानकर प्रसन्न हुआ। मध्यप्रदेश में इंजीनियरिंग की शिक्षा हिंदी में होती यह जानकर वह विस्मित और प्रसन्न हुआ। स्नेह सम्मेलन या परिसंवाद में हिंदी में तकनीकी शिक्षा पर मार्ग दर्शन हेतु उसने सहमति माँगी। उसे विषय को विविध पहलुओं से अवगत कराकर रात्रि ११.३० बजे सपनों की दुनिया की सैर करने चला गया।
प्रात: लगभग ६ बजे आँख खुली, खिड़की से झाँकते ही घने कोहरे ने सिहरा दिया। पटरियों को किनारे लगे वृक्ष तक दिखाई नहीं दे रहे थे। अधुनातन दृष्टिवर्धक उपकरणों से सज्जित होने पर भी रेलगाड़ी मंथर गति से बढ़ पा रही थी। लगभग सवा घंटे विलंब से हम कोटा पहुँचे।
कोटा से बस द्वारा भीलवाड़ा जाते समय राजस्थानी जन-जीवन की झलकियाँ, विशेषकर निरंतर बढ़ती हरियाली देखकर प्रसन्नता हुई। लगभग १० वर्ष पूर्व की तुलना में राजस्थान में पर्वतों का विनाश बड़े पैमाने पर हुआ है किन्तु हरियाली बढ़ी है। प्रकृति मनुष्य के मुनाफे का माध्यम बना दी गई है।

***
नवगीत
भीड़ का हिस्सा नहीं
छाँव हूँ मैं, धूप भी हूँ
खेत हूँ मैं, कूप भी हूँ
महल का ठस्सा नहीं
लोक हूँ मैं स्वाभिमानी
देशप्रेमी आत्मदानी
वायवी किस्सा नहीं
खींच कर तृष्णा बुझाओ
गले बाँधो, मुक्ति पाओ
कसूरी रस्सा नहीं
भाग्य लिखता कर परिश्रम
बाँध मुट्ठी, आँख रख नम
बेतुका घिस्सा नहीं
११-१-२०२०
***
भारतीय का परिचय:
कौन हूँ मैं?...
संजीव 'सलिल'
*
क्या बताऊँ,
कौन हूँ मैं?
नाद अनहद
मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ.
जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..
आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमे.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.
ॐ हूँ मैं,
व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला,
सोम हूँ मैं.
किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.
'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो.
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वंदित चर्चिता हूँ.
प्रार्थना हूँ,
वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा
चंदना हूँ.
ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.
शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.
केंद्र, त्रिज्या हूँ,
परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ,
सुरभि हूँ.
जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ.
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.
भाव जैसा तुम रखोगे
चित्र वैसा ही लखोगे.
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.
संकुचन-
विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि का
व्यापार हूँ मैं.
हिंस्र खातिर काल हूँ मैं
हलाहल की ज्वाल हूँ मैं
कभी दुर्गा, कभी काली
दनुज-सर की माल हूँ मैं
चाहते हो स्नेह पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.
द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
रागिनी जग में गुँजाओ.
जलधि जल की
धार हूँ मैं
हिंद-हिंदी
सार हूँ मैं.
कायरों की मौत हूँ मैं
सज्जनों हित ज्योत हूँ मैं
नर्मदा हूँ, वर्मदा हूँ.
धर्मदा हूँ, कर्मदा हूँ.
कभी कंकर, कभी शंकर.
कभी सैनिक कभी बंकर.
दहशतगर्दों! मौत हूँ मैं.
ज़िंदगी की सौत हूँ मैं.
सुधर आओ
शरण हूँ मैं.
सिर रखो
शिव-चरण हूँ मैं.
क्या बताऊँ,
कौन हूँ मैं?
नाद अनहद
मौन हूँ मैं.
***
नवगीत:
संजीव
.
ग्रंथि श्रेष्ठता की
पाले हैं
.
कुटें-पिटें पर बुद्धिमान हैं
लुटे सदा फिर भी महान हैं
खाली हाथ नहीं संसाधन
मतभेदों का सर वितान है
दो-दो हाथ करें आपस में
जाने क्या गड़बड़
झाले हैं?
.
बातें बड़ी-बड़ी करते हैं
मनमानी का पथ वरते हैं
बना तोड़ते संविधान खुद
दोष दूसरों पर धरते हैं
बंद विचारों की खिड़की
मजबूत दिशाओं पर
ताले हैं
.
सच कह असच नित्य सब लेखें
शीर्षासन कर उल्टा देखें
आँख मूँद 'तूफ़ान नहीं' कह
शतुरमुर्ग निज पर अवरेखें
परिवर्तित हो सके न तिल भर
कर्म सकल देखे
भाले हैं.
१४.३०, २९-१२-२०१४, पंचायती धर्मशाला जयपुर
नवगीत:
संजीव
.
दिशा न दर्शन
दीन प्रदर्शन
.
क्यों आये हैं?
क्या करना है??
ज्ञात न पर
चर्चा करना है
गिले-शिकायत
शिकवे हावी
यह अतीत था
यह ही भावी
मर्यादाओं का
उल्लंघन
.
अहंकार के
मारे सारे
हुए इकट्ठे
बिना बिचारे
कम हैं लोग
अधिक हैं बातें
कम विश्वास
अधिक हैं घातें
क्षुद्र स्वार्थों
हेतु निबंधन
.
चित्र गुप्त
सू रत गढ़ डाली
मनमानी
मूरत बनवा ली
आत्महीनता
आत्ममोह की
खुश होकर
पीते विष-प्याली
पल में गाली
पल में ताली
मंथनहीन
हुआ मन-मंथन
२९.१२. २०१४ पंचायती धर्मशाला जयपुर

सोमवार, 10 जनवरी 2022

सॉनेट, नवगीत, हिंदी,

सॉनेट 
हिंदी
*
जगवाणी हिंदी का वंदन, इसका वैभव अनुपम अक्षय।
हिंदी है कृषकों की भाषा, श्रमिकों को हिंदी प्यारी है। 
मध्यम वर्ग कॉंवेंटी है, रंग बदलता व्यापारी है।। 
जनवाणी, हैं तंत्र विरोधी, न्यायपालिका अंग्रेजीमय।। 

बच्चों से जब भी बतियाएँ, केवल हिंदी में बतियाएँ। 
अन्य बोलिओं-भाषाओँ को, सिखा-पढ़ाएँ साथ-साथ ही।  
ह्रदय-दिमाग न हिंदी भूले, हिंदी पुस्तक लिए हाथ भी।। 
हिंदी में प्रार्थना कराएँ, भजन-कीर्तन नित करवाएँ।।
 
शिक्षा का माध्यम हिंदी हो, हिंदी में हो काम-काज भी। 
क्यों अंग्रेजी के चारण हैं,  तनिक न आती हया-लाज भी। 
हिंदी है सहमी गौरैया, अंग्रेजी है निठुर बाज सी। 

शिवा कह रहे हैं शिव जी को, कैसे आए राम राज जी?
हो जब निज भाषा में शिक्षा, तभी सधेंगे, सभी काज जी।
देवनागरी में लिखिए हर भाषा, होगा तब सुराज जी।। 
***
सॉनेट 
जात को अपनी कभी मरने न दीजिए।
बात से फिरिए नहीं, तभी तो बात है।
ऐब को यह जिस्म-जां चरने न दीजिए।।
करें फरेब जीत मिले तो भी मात है।।

फायदा हो कायदे से तभी लीजिए। 
छीनिए मत और से, न छीनने ही दें।
वायदा टूटे नहीं हर जतन कीजिए।।
पंछियों को अन्न कभी बीनने भी दें।।

दुर्दशा लोगों की देखकर पसीजिए। 
तंत्र रौंद लोक को गर्रा रहा हुज़ूर।  
आईने में देख शकल नहीं रीझिए।।
लोग मरे जा रहे हैं; देखिए जरूर।।

सचाई से आखें कभी चार कीजिए।
औरों की सुन; तनिक ख़ुशी कभी दीजिए।। 
१०-१-२०२२ 
***
नवगीत:
संजीव
.
छोडो हाहाकार मियाँ!
.
दुनिया अपनी राह चलेगी
खुदको खुद ही रोज छ्लेगी
साया बनकर साथ चलेगी
छुरा पीठ में मार हँसेगी
आँख करो दो-चार मियाँ!
.
आगे आकर प्यार करेगी
फिर पीछे तकरार करेगी
कहे मिलन बिन झुलस मरेगी
जीत भरोसा हँसे-ठगेगी
करो न फिर भी रार मियाँ!
.
मंदिर में मस्जिद रच देगी
गिरजे को पल में तज देगी
लज्जा हया शरम बेचेगी
इंसां को बेघर कर देगी
पोंछो आँसू-धार मियाँ!
***
नवगीत:
.
रब की मर्ज़ी
डुबा नाखुदा
गीत गा रहा
.
किया करिश्मा कोशिश ने कब?
काम न आयी किस्मत, ना रब
दुनिया रिश्ते भूल गयी सब
है खुदगर्ज़ी
बुला, ना बुला
मीत भा रहा
.
तदबीरों ने पाया धोखा
तकरीरों में मिला न चोखा
तस्वीरों का खाली खोखा
नाता फ़र्ज़ी
रहा, ना रहा
जीत जा रहा
.
बादल गरजा दिया न पानी
बिगड़ी लड़की राह भुलानी
बिजली तड़की गिरी हिरानी
अर्श फर्श को
मिला, ना मिला
रीत आ रहा
***
नवगीत:
संजीव
.
उम्मीदों की फसल
उगना बाकी है
.
अच्छे दिन नारों-वादों से कब आते हैं?
कहें बुरे दिन मुनादियों से कब जाते हैं?
मत मुगालता रखें जरूरी खाकी है
सत्ता साध्य नहीं है
केवल साकी है
.
जिसको नेता चुना उसीसे आशा है
लेकिन उसकी संगत तोला-माशा है
जनप्रतिनिधि की मर्यादा नापाकी है
किससे आशा करें
मलिन हर झाँकी है?
.
केंद्रीकरण न करें विकेन्द्रित हो सत्ता
सके फूल-फल धरती पर लत्ता-पत्ता
नदी-गाय-भू-भाषा माँ, आशा काकी है
आँख मिलाकर
तजना ताका-ताकी है
***
नवगीत:
संजीव
.
लोकतंत्र का
पंछी बेबस
.
नेता पहले डालें दाना
फिर लेते पर नोच
अफसर रिश्वत गोली मारें
करें न किंचित सोच
व्यापारी दे
नशा रहा डँस
.
आम आदमी खुद में उलझा
दे-लेता उत्कोच
न्यायपालिका अंधी-लूली
पैरों में है मोच
ठेकेदार-
दलालों को जस
.
राजनीति नफरत की मारी
लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूँगा खो दी
निज निर्णय की लोच
एकलव्य का
कहीं न वारिस
१०-१-२०१५

रविवार, 9 जनवरी 2022

पुरोवाक विभा तिवारी फ़ुरक़त

पुरोवाक  
फ़ुरक़त के बहाने : वस्ल के तराने
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'फ़ुरक़त' (विरह) और वस्ल (मिलन) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सृष्टि की उत्पत्ति ही प्रकृति और पुरुष के मिलन से होती है। मिलन नव संतति को जन्म देता है जिसका पालन-पोषण मिलनकी अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। अन्य प्राणियों के लिए 'वस्ल' वंश-वृद्धि का माध्यम मात्र है, इसलिए 'फ़ुरक़त' का वॉयस सिर्फ मौत होती है। इंसान ने अपने दिमाग के जरिए 'वस्ल' को रोजमर्रा की ज़िंदगी में शामिल कर लिया है। साइंसदां न्यूटन के मुताबिक कुदरत में हर 'एक्शन' का समान लेकिन उलटा 'रिएक्शन' होता है। जब इंसान ने 'वस्ल' की ख़ुशी को रोजमर्रा की ज़िंदगी में जोड़ लिया तो कुदरत ने इंसान के न चाहने पर भी 'फ़ुरक़त' को ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया। 'वस्ल' और 'फ़ुरक़त' की शायरी ही 'ग़ज़ल' है। हिंदी में श्रृंगार रस के दो रंग 'मिलन' और 'विरह' के बिना रसानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह श्रृंगार जब सूफियाना रंग में ढलता है तो भक्त और भगवान के मध्य संवाद बन जाता है और जब दुनियावी शक्ल अख्तियार करता है तो माशूक और माशूका के दरमियां बातचीत का वायस बनता है। 

ग़ज़ल : दिल को दिल से जोड़ती   

ग़ज़ल अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विधा है जो बाद में फ़ारसी, उर्दू, हिंदी, बांगला, बुंदेली, मराठी, अंग्रेजी सहित विश्व की कई भाषाओँ में कही-पढ़ी और सुनी जाती है। अरबी में ग़ज़ल की पैदाइश भारत में आम लोगों और संतों द्वारा गाई जाती दूहों, त्रिपदियों और चौपदियों और षट्पदीयों की परंपरा में थोड़ा बदलाव कर किया गया। चौपदी की तीसरी और चौथी पंक्ति की तरह समभारिक पंक्तियों को जोड़ने पर मुक्तक ने जो शक्ल पाई, उसे ही 'ग़ज़ल' कहा गया। भारत से अरब-फारस तक आम लोगों, संत-फकीरों और व्यापारियों का आना-जाना हमेशा से होता रहा है। उनके साथ अदबी किताबें और जुबान भी यहाँ से वहाँ जाती रही। पहले तो जुबानी (मौखिक) लेन-देन हुआ, बाद में लिपि का विकास होने पर ताड़पत्र, भोजपत्र पर कलम से लिखकर किताबें और उनकी नकलें इधर से उधर और उधर से इधर होती रहीं। भारत पर मुगलों के हमलों और उनकी सल्तनत कायम होने के दौर में अरबी-फ़ारसी-तुर्की वगैरह का भारत के सरहदी सूबों की जुबानों के साथ घुलना-मिलना होता रहा। नतीजतन एक नई जुबान सिपाहियों, मजदूरों, किसानों, व्यापारियों और हुक्मरानों के काम-काज के दौरान शक्ल अखित्यार करती रही। लश्करों में बोले जाने की वजह से इसे 'लश्करी', बाजारू काम-काज की जुबान होने की वजह से 'उर्दू' और महलों में काम आने की वज़ह से 'रेख़्ता' कहा गया। बाद में दिल्ली, हैदराबाद और लखनऊ मुगलों की सत्ता के केंद्र बने तो उर्दू जुबान की तीन शैलियाँ (स्कूल्स) सामने आईं।

हिंदी - उर्दू

अरबी-फारसी की जो काव्य शैलियाँ भारत में पसंद की गईं, उनमें 'भारत की चौपदियों को बढ़ाकर सातवीं सदी में बनाई गई ग़ज़ल' अव्वल थी और है। भारत में अपभृंश, संस्कृत, हिंदी तथा अन्य भाषाओँ/बोलिओं में गीति काव्य का विकास उच्चार (सिलेबल्स) के आधार पर उपयोग किए जा रहे वर्णों और मात्राओं से विकसित लय खंड (रुक्न) और छंद (बह्र) से हुआ। बहुत बाद में इसी तरह अरबी-फ़ारसी में ग़ज़ल कही गई। इसी वजह से भारत के लोगों को ग़ज़ल अपनी सी लगी और हिंदी ही नहीं भारत की कई दीगर जुबानों में ग़ज़ल कही जाने लगी। भारत में ग़ज़ल की दो शैलियाँ सामने आईं - पहली जो अरबी-फारसी ग़ज़लों की नकल कर उनके भाषा-नियमों और बह्रों को आधार बनाकर लिखी गईं और दूसरी जो भारत के छंदों और हिंदी भाषा के व्याकरण, छंदशास्त्र, प्रतीकों, बिम्बों का उपयोग कर कही गईं। शुरुआत में उर्दूभाषियों ने हिंदी ग़ज़ल को खारिज करने की कोशिश की बावजूद इसके कि उनके घरों में चूल्हे हिन्दीवालों द्वारा देवनागरी लिपि में उनकी गज़लें पढ़ने की वजह से जल रहे थे। इस तंग नज़रिए ने हिंदी ग़ज़ल को अलहदा पहचान दिलाने के हालात बनाए और हिंदी ग़ज़ल को या भारतीय ग़ज़ल मुक्तिका, गीतिका, पूर्णिका, सजल, तेवरी आदि कहा जाने लगा।

हिंदी ग़ज़ल - उर्दू ग़ज़ल : समानता और भिन्नता 

एक बात और साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल न तो एक ही चीज हैं, न उनको शब्दों (अलफ़ाज़) की बिना पर अलग-अलग किया जा सकता है। बकौल प्रेमचंद 'बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्राय:एक सी हैं। दोनों जुबानों की निरस्त साझा है सिवाय इसके कि उर्दू की लिपि विदेशी है हिंदी की स्वदेशी।' उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी में लिखे जाने से यह फर्क भी खत्म होता जा रहा है। अब जो फर्क है, वह है भाषाओं के भिन्न व्याकरण और पिंगल का है। अरबी-फ़ारसी और हिंदी वर्णमाला का अंतर ही उर्दू-हिंदी ग़ज़ल को अलग-अलग करता है। अरबी-फ़ारसी के कुछ हर्फ़ हिंदी वर्णमाला में नहीं हैं, इसी तरह हिंदी वर्णमाला के कुछ अक्षर (वर्ण) अरबी-फारसी जुबान में नहीं हैं। तुकांत-पदांत (काफिया-रदीफ़) नियमों के अनुसार उनके उच्चार भिन्न नहीं समान होने चाहिए। हिंदी वर्णमाला की पंचम ध्वनिवाले शब्द तुकांत-पदांत में हों तो वे अरबी-फ़ारसी वर्णमाला में न होने के कारण उर्दू ग़ज़ल में नहीं लिखे जा सकते। इसी तरह कुछ ध्वनियों के लिए हिंदी वर्णमाला में एक वर्ण है (यथा ह, ज़ और स आदि) किंतु अरबी-फ़ारसी वर्णमाला में एक से अधिक हर्फ़ हैं (यथा हे और हम्ज़ा, ज़े, ज़ो और ज़्वाद, से, सीन और स्वाद आदि)। इस वजह से हिंदी का शायर जिन शब्दों को ठीक समझ कर उपयोग करेगा कि उनमें सम ध्वनि है, अरबी-फ़ारसी के अनुसार उनमें भिन्न ध्वनि वाले हर्फ़ होने की वज़ह से उसे गलत कहा जाएगा। हिंदी के संयुक्ताक्षर उर्दू ग़ज़ल में स्थान नहीं पा सकते क्योंकि 'ब्राह्मण' को 'बिरहमन' लिखना पड़ेगा। अरबी-फ़ारसी के बिम्ब-प्रतीक हिंदी ग़ज़ल में अनुपयुक्त होंगे।

डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार 'हिंदी-उर्दू भाषियों की दो कौमें नहीं है, उनकी जाति एक है और बोलचाल की भाषा भी एक सी है।'१ डॉ. शर्मा भूल जाते हैं कि जाति और भाषा एक होने पर भी आदमी-औरत, बच्चे-जवान-बूढ़े कुछ समानता रखते हुए भी पूरी तरह एक ही नहीं, भिन्न होते हैं। डॉ. शर्मा हिंदी-उर्दू के मुख्य अंतर वर्णमाला और विरासत या अतीत को भुला देते हैं। दुर्भाग्य से देवनागरी लिपि में हिंदी भाषियों द्वारा स्वीकारे जाने के बाद भी, अरबी-फ़ारसी से जुड़े रहने का अंधमोह उर्दू ग़ज़ल में भारतीय बिम्ब-प्रतीकों को दोयम दर्जा देता रहा है। खुद को अलग दिखाने की चाह सिर्फ ग़ज़ल में ही नहीं, मुस्लिम संस्थाओं और लोगों के नामों में भी देखी जा सकती है।

हिंदी ग़ज़ल में समान तुकांत-पदांत परंपरा का पालन किया जाता है किन्तु अंग्रेजी ग़ज़ल में ऐसा संभव नहीं हो पाता। अंग्रेजी ग़ज़ल में pension और attention,  off, of और calf,  break, pack और neck, hide, lied और eyed जैसे पदांत-तुकांत वर्ण भिन्नता के बाद भी केवल उच्चारण साम्यता के आधार पर स्वीकार्य हैं, जबकि हिंदी ग़ज़ल में होश और कोष,  प्राण और झाड़, ठाठ और टाट जैसे पदांत दोषपूर्ण कहे जाते हैं।

हिंदी में दोहा ग़ज़ल, सोरठा ग़ज़ल, माहिया ग़ज़ल, जनक छंदी ग़ज़ल, चौपाई ग़ज़ल, हाइकु ग़ज़ल जैसे प्रयोग मैंने और कई अन्य ग़ज़लकारों ने किए हैं जबकि उर्दू ग़ज़ल अभी भी पारंपरिक बह्रों की कैद से आज़ाद नहीं हो सकी है। उदाहरण -
दोहा ग़ज़ल 
राष्ट्र एकता-शक्ति का, पंथ वरे मिल साथ।
पैर रखें भू पर छुएँ, नभ को अपने हाथ।।

अनुशासन का वरण कर, हों हम सब स्वाधीन।
मत निर्भर हों तंत्र पर, रखें उठाकर माथ।।

भेद-भाव को दें भुला, ऊँच न कोई नीच।
हम ही अपने दास हों, हम ही अपने नाथ।।   
सोरठा ग़ज़ल
आ समान जयघोष, आसमान तक गुँजाया
आस मान संतोष, आ समा न कह कराया

जिया जोड़कर कोष, खाली हाथों मर गया
व्यर्थ न करिए रोष, स्नेह न जाता भुनाया 

औरों का क्या दोष, अपनों ने ही भुलाया 
पालकर असंतोष, घर गैरों का बसाया      
जनक छंदी ग़ज़ल
*
मेघ हो गए बाँवरे, आये नगरी-गाँव रे!, हाय! न बरसे राम रे!
प्राण न ले ले घाम अब, झुलस रहा है चाम अब, जान बचाओ राम रे!

गिरा दिया थक जल-कलश, स्वागत करते जन हरष, भीगे-डूबे भू-फ़रश
कहती उगती भोर रे, चल खेतों की ओर रे, संसद-मचे न शोर रे!

काटे वन, हो भूस्खलन, मत कर प्रकृति का दमन, ले सुधार मानव चलन
सुने नहीं इंसान रे, भोगे दण्ड-विधान रे, कलपे कह 'भगवान रे!'
चौपाई ग़ज़ल
यायावर मन दर-दर भटके, पर माया मृग हाथ न आए।
मन-नारायण तन नारद को, कह वानर शापित हो जाए।।

राजकुमारी चाह मनुज को, सौ-सौ नाच नचाती बचना।
'सलिल' अधूरी तृष्णा चालित, कह क्यों निज उपहास कराए।।

मन की बात करो मत हरदम, जन की बात कभी तो सुन लो।
हो जम्हूरियत तानाशाही, अपनों पर ही लट्ठ चलाए।।
हाइकु ग़ज़ल-
नव दुर्गा का, हर नव दिन हो, मंगलकारी
नेह नर्मदा, जन-मन रंजक, संकटहारी

मैं-तू रहें न, दो मिल-जुलकर एक हो सकें
सुविचारों के, सुमन सुवासित, जीवन-क्यारी

गले लगाये, दिल को दिल खिल, गीत सुनाये
हों शरारतें, नटखटपन मन,-रञ्जनकारी

ग़ज़ल और संगीत

संगीत के क्षेत्र में ग़ज़ल गाने के लिए ईरानी और भारतीय संगीत के मिश्रण से एक अलग शैली निर्मित हुई। भारतीय शास्त्रीय संगीत की ख्याल और ठुमरी शैली से शुरुआत कर अब ग़ज़ल को विविध सरल और मधुर रागों पर लिखा और गाया जाता है। 

फ़ुरक़त की गज़लें

इस पृष्ठभूमि में फ़ुरक़त की ग़ज़लों में हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल की विरासत का सम्मिश्रण है। ग़ज़लों की गंगो-जमनी भाषा आँखों से दिमाग में नहीं, दिल में उतरती है। यह ख़ासियत इन ग़ज़लों को खास बनाती है। इन ग़ज़लों में 'कसीदे' से पैदा बताई जाती, ग़ज़ल की तरह हुस्नों-इश्क़ के चर्चे नहीं हैं, न ही आशिको-माशूक की चिमगोइयाँ हैं। ये गज़लें वक़्त की आँखों में आँखें डालकर सवाल करती हैं -

मुझको आज़ादी से लेकर आज तक बतलाइए
आस क्या थी और क्या सरकार से हासिल हुआ?

आज़ादी के बाद से 'ब्रेन ड्रेन' (काबिल लोगों का विदेश जा बसना) की समस्या के शिकार इस मुल्क की तरफ से ऐसे खुदगर्ज़ लोगों को आईना दिखाती हैं विभा -

बहुत सोचा कि मैं जीवन गुजारूँ मुल्क के बाहर
मगर ग़ैरों के दर पर मौत भी अच्छी नहीं होती।।

विभा हिदायत देते समय मुल्क के बाशिंदों को भी नहीं बख्शतीं। वे हर उस जगह चोट करती हैं जहाँ बदलाव और सुधार की गुंजाइश देखती हैं।

गली हो या मोहल्ला हो 'विभा' ये ज़ह्न हो दिल हो
कहीं पे भी हो फ़ैली गंदगी अच्छी नहीं लगती।

ज़िन्दगी के मौजूदा हालात पर निगाह डालते हुए विभा देख पाती हैं कि घरों में जैसे-जैसे सहूलियात के सामान आते हैं, आपस में दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। इस हक़ीक़त की तनक़ीद करती हुई वे कहती हैं -

फिर तमन्नाओं ने रक्खा है मेरे दिल में क़दम
चाँद मिट्टी के खिलौने मेरे घर में आ गए।।

बेसबब फिर बढ़ गयी हैं घर से अपनी दूरियाँ
हम भले बैठे-बिठाये क्यों सफर में आ गए।।

शहर जाकर गाँव को भूल जाने, शहर से आकर गाँव की फिज़ा बिगाड़ने, माँ की ममता को भूल जाने और अत्यधिक आधुनिकता के लिबास में इतराने की कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुई विभा लिखती हैं -

फ़िज़ाएँ इस गाँव की कहती हैं उससे दूर रह
शह्र से लौटा है कितने पल्लुओं से खेलकर।।

मेरा भाई अब उसी माँ की कभी सुनता नहीं
बन गया पापा वो जिसके पहलुओं में खेलकर।।

किस कदर लैलाएँ इतराने लगी हैं ऐ 'विभा'
आजकल के मनचले कुछ मजनूओं से खेलकर।।

सदियों पहले आदमी की आँख का पानी मरने की फ़िक्र करते हुए रहीम ने लिखा था 'बिन पानी सब सून', यह फ़िक्र तब से अब तक बरकरार है-

इस ज़माने में अब नहीं ग़ैरत
शर्म आँखों में मर गई साहिब।।

विभा का अंदाज़े-बयां, आम आदमी की जुबान में, उसी के हालात पर इस अंदाज़ में तब्सिरा करना है कि वह खुद ठिठककर सोचने लगे कि शर्म ही नहीं, साथ में ख़ुशी भी गायब हो गई-

आरज़ू दिल से हो गई रुख़सत
और ख़ुशी रूठकर गई साहिब।।

दुनिया-ए-फ़ानी में आना-जाना, एक दस्तूर की तरह है। विभा सूफियाना अंदाज़ में कहती हैं-

तेरी दुनिया सराय जैसी है
कोई आया अगर गया कोई।।

विभा बेहद सादगी से बात कहती हैं, वे पाठक को चौंकाती या डराती नहीं हैं। पूरी सादगी के बाद भी बात पुरअसर रहती हैं। 'इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा' -

यूँ तो सच्चाई की चिड़िया छटपटाई थी बहुत
आख़िरश फँस ही गई मक्कारियों के बीच में।।

एक माँ कई औलादों को पाल-पोसकर बड़ा और खड़ा कर देती है पर वे औलादें मिलकर भी माँ को नहीं सम्हाल पातीं। इस कड़वी सचाई को विभा एक शे'र में सामने रखती हैं -

बाँट के खाना ही जिस माँ ने सिखाया था कभी
आज वो खुद बँट गई दो भाइयों के बीच में।।

आज की भौतिकतावादी सोच और स्वार्थकेंद्रित जीवनदृष्टि बच्चों को बदजुबानी और बदगुमानी सिखा रही है -

निगल गई है शराफ़त को आज की तहज़ीब
हैं बदज़ुबान हुए बेज़ुबान से लड़के।।

कहते हैं 'मनुज बली नहीं होत है, समय होत बलवान'। विभा कहती हैं -

अपनी मर्जी से कोई कब काम होता है यहाँ
वक़्त के हाथों की कठपुतली रहा है आदमी।।

जीवन को समग्रता में देखती इन हिंदी ग़ज़लों में प्रेम भी है, पूरी शिद्दत के साथ है लेकिन वह खाम-ख़याली (कपोल कल्पना) नहीं जमीनी हक़ीक़त की तरह है।

इश्क़ में सोचना क्या है।
सोचने के लिए बचा क्या है?

लड़ गयी आँख हो गया जादू
गर नहीं ये तो हादसा क्या है?

बह्र छोटी हो या बड़ी विभा अपनी बात बहुत सफ़ाई और खूबसूरती से कहती हैं -

रात भर मुंतज़िर रहा कोई
छत पे आने से डर गया कोई।।

दिल था बेकार उसको तोड़ गया
ये भला काम कर गया कोई

इन ग़ज़लों में अनुप्रास अलंकार तो सर्वत्र है ही। यमक की छटा देखिए -

मेरी आँखों से तारे टपकते रहे
रात रोती रही रात भर देखिए।।

'व्यंजना' में बात कहने का सलीका और वक्रोक्ति अलंकार की झलक देखिए -

यह हुनर भी तुम्हीं से सीखा है
चार में दो मिलाके सात करूँ।।

सारत:, फ़ुरक़त की गज़लें वक़्त की नब्ज़ टटोलने की कामयाब कोशिश है। गज़लसरा का यह पहला दीवान पाठकों को पसंद आएगा, यह भरोसा है। विभा हालात की हालत पर नज़र रखते हुए ग़ज़ल कहने का सिलसिला न केवल जारी रखें, अपना अगला दीवान जल्द से जल्द लाएँ ' अल्लाह करे जोरे कलम और जियादा'।

संदर्भ १, भाषा और समाज पृष्ठ ३५७।
*
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विशववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४

बाल गीत सलिला

बाल गीत सलिला
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
०१. बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के चश्में से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
***
०२. इसरोवाले कक्का जी
*
इसरोवाले कक्का जी
हम हैं हक्का-बक्का जी
*
चंदा मामा दूर के,
अब लगते हैं हमें समीप
आसमान के सागर में
गो-आ सकते ऐसा द्वीप
गोआ जैसा सागर भी
क्या हमको मिल पाएगा?
छप्-छपाक्-छप् लहरों संग
क्या पप्पू कर गाएगा?
आर्बिटर का कक्षा क्या
मेरी कक्षा जैसी है?
मेरी मैडम कड़क बहुत
क्या मैडम भी वैसी है?
बैल-रेल गाड़ी जैसा
लैंडर कौन चलाएगा?
चंदा मामा से मिलने
कोई बच्चा जाएगा?
कक्का मुझको भिजवा दो
जिद न करूँगा मैं बिल्कुल
रोवर से ना झाँकूँगा
नहीं करूँगा मैं हिलडुल
इतने ऊपर जाऊँगा
ज्यों धोना का छक्का जी
बहिना को भी सँग भेजो
इसरोवाले कक्का जी
***
०३. तुहिना-दादी
*
तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काए तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटे रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जाएँगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछताएँगे.'
तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाएँ वह
वह गाएँ तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
***
०४. अंशु-मिंशू 
*
अंशू-मिंशू दो भाई हिल-मिल रहते थे हरदम साथ.
साथ खेलते साथ कूदते दोनों लिये हाथ में हाथ..

अंशू तो सीधा-सादा था, मिंशू था बातूनी.
ख्वाब देखता तारों के, बातें थीं अफलातूनी..

एक सुबह दोनों ने सोचा: 'आज करेंगे सैर'.
जंगल की हरियाली देखें, नहा, नदी में तैर..

अगर बड़ों को बता दिया तो हमें न जाने देंगे,
बहला-फुसला, डांट-डपट कर नहीं घूमने देंगे..

छिपकर दोनों भाई चल दिये हवा बह रही शीतल.
पंछी चहक रहे थे, मनहर लगता था जगती-तल..

तभी सुनायी दीं आवाजें, दो पैरों की भारी.
रीछ दिखा तो सिट्टी-पिट्टी भूले दोनों सारी..

मिंशू को झट पकड़ झाड़ पर चढ़ा दिया अंशू ने.
'भैया! भालू इधर आ रहा' बतलाया मिंशू ने..

चढ़ न सका अंशू ऊपर तो उसने अकल लगाई.
झट ज़मीन पर लेट रोक लीं साँसें उसने भाई..

भालू आया, सूँघा, समझा इसमें जान नहीं है.
इससे मुझको कोई भी खतरा या हानि नहीं है..

चला गए भालू आगे, तब मिंशू उतरा नीचे.
'चलो उठो कब तक सोओगे ऐसे आँखें मींचें.'

दोनों भाई भागे घर को, पकड़े अपने कान.
आज बचे, अब नहीं अकेले जाएँ मन में ठान..

धन्यवाद ईश्वर को देकर, माँ को सच बतलाया.
माँ बोली: 'संकट में धीरज काम तुम्हारे आया..

जो लेता है काम बुद्धि से वही सफल होता है.
जो घबराता है पथ में काँटें अपने बोता है..

खतरा-भूख न हो तो पशु भी हानि नहीं पहुँचाता.
मानव दानव बना पेड़ काटे, पशु मार गिराता..'

अंशू-मिंशू बोले: 'माँ! हम दें पौधों को पानी.
पशु-पक्षी की रक्षा करने की मन में है ठानी..'

माँ ने शाबाशी दी, कहा 'अकेले अब मत जाना.
बड़े सदा हितचिंतक होते, अब तुमने यह माना..'
***
०५. पेंसिल
पेन्सिल बच्चों को भाती है.
काम कई उनके आती है.
अक्षर-मोती से लिखवाती.
नित्य ज्ञान की बात बताती.
रंग-बिरंगी, पतली-मोटी.
लम्बी-ठिगनी, ऊँची-छोटी.
लिखती कविता, गणित करे.
हँस भाषा-भूगोल पढ़े.
चित्र बनाती बेहद सुंदर.
पाती है शाबासी अक्सर.
बहिना इसकी नर्म रबर.
मिटा-सुधारे गलती हर.
घिसती जाती,कटती जाती.
फ़िर भी आँसू नहीं बहाती.
'सलिल' जलाती दीप ज्ञान का.
जीवन सार्थक नाम-मान का.
***
०६. आन्या गुड़िया 
*
आन्या गुडिया प्यारी,
सब बच्चों से न्यारी।
.
गुड्डा जो मन भाया,
उससे हाथ मिलाया।
.
हटा दिया मम्मी ने,
तब दिल था भर आया।
.
आन्या रोई-मचली,
मम्मी थी कुछ पिघली।
.
''नया खिलौना ले लो'',
आन्या को समझाया।
.
शाम को पापा आए
मम्मी पर झल्लाए।
*
हुई रुआँसी मम्मी
आन्या ने ली चुम्मी।
*
बोली: ''इनको बदलो
साथ नये के हँस लो''।
***
०७. हम हैं बच्चे 
हम बच्चे हैं मन के सच्चे सबने हमें दुलारा है
देश और परिवार हमें भी सचमुच लगता प्यारा है
अ आ इ ई, क ख ग संग ए बी सी हम सीखेंगे
भरा संस्कृत में पुरखों ने ज्ञान हमें उपकारा है
वीणापाणी की उपासना श्री गणेश का ध्यान करें
भारत माँ की करें आरती, यह सौभाग्य हमारा है
साफ-सफाई, पौधरोपण करें, घटायें शोर-धुआं
सच्चाई के पथ पग रख बढ़ना हमने स्वीकारा है
सद्गुण शिक्षा कला समझदारी का सतत विकास करें
गढ़ना है भविष्य मिल-जुलकर यही हमारा नारा है
*** 
०८. कोयल-बुलबुल की बातचीत
*
कुहुक-कुहुक कोयल कहे: 'बोलो मीठे बोल'.
चहक-चहक बुलबुल कहे: 'बोल न, पहले तोल'..

यह बोली: 'प्रिय सत्य कह, कड़वी बात न बोल'.
वह बोली: 'जो बोलना उसमें मिसरी घोल'.

इसका मत: 'रख बात में कभी न अपनी झोल'.
उसका मत: 'निज गुणों का कभी न पीटो ढोल'..

इसके डैने कर रहे नभ में तैर किलोल.
वह फुदके टहनियों पर, कहे: 'कहाँ भू गोल?'..

यह पूछे: 'मानव न क्यों करता सच का मोल?.
वह डाँटे: 'कुछ काम कर, 'सलिल' न नाहक डोल'..
***
०८. लालू बंदर 
*
लालू बन्दर ने कहा: 'काटो मेरे बाल'.
बेढब माँग सुनी हुए, शेषपाल जी लाल.

शेषपाल जी लाल, 'समझते हो क्या नउआ'?
बोला बन्दर 'अगर नहीं तो क्या कनकउआ?

बाल-पृष्ठ पर कर रहा, आज दान मैं बाल.
लिए नहीं तो लाऊँगा पल भर में भूचाल.'

अगर यहाँ साहित्य, सहित हित बाल दान लो.
जितना हित करना उतना ही नगद दान दो'

सिर पकड़े बैठे दद्दू सुन-सुन कर ताने.
'इससे बेहतर चला जाऊँ चुप पागलखाने'.

सुना लालू बोला 'जाओ तुम अभी जहन्नुम.
लेकर बाल नगद दो मुझको होगा उत्तम'.
***
०९. मुहावरा कौआ स्नान
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
*
गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
*
उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
salil.sanjiv@gmail.com, वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४  

सॉनेट, गीत, सूरज, तसलीस





























विश्व हिंदी दिवस 
विश्व हिन्दी दिवस (विश्व हिंदी दिवस) प्रति वर्ष १० जनवरी को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना, हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना, हिन्दी के लिए वातावरण निर्मित करना, हिन्दी के प्रति अनुराग पैदा करना, हिन्दी की दशा के लिए जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है। विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी में व्याख्यान आयोजित किये जाते हैं। विश्व में हिन्दी का विकास करने और इसे प्रचारित-प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शुरुआत की गई और प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन १० जनवरी १९७५ को नागपुर में आयोजित हुआ तब से ही इस दिन को 'विश्व हिन्दी दिवस' के रूप में मनाया जाता है। 
राष्ट्रीय हिंदी दिवस १४ सितंबर को मनाया जाता है।  
  
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
संत समागम रविवार १६-१-२०२२, पूर्वान्ह ११ बजे
*
निम्न विषयों के सम्मुख अपना नामन, शहर व् वॉट्सऐप क्रमांक अंकित करिए। हर विषय पर एक वक्ता को विमर्श हेतु १० मिनिट का समय होगा। समय की पाबंदी प्रार्थनीय। अपना आलेख टंकित कर पटल पर प्रस्तुत करें।
विषय
०१. मानस और गीता में कर्मवाद।
०२. मानस और गीता में नारी का स्थान।
०३. मानस और गीता में मानवीय मूल्य।
०४. मानस और गीता में भाग्य और कर्म।
०५. मानस और गीता में सामाजिक समरसता।
०६. मानस और गीता में वर्ग संघर्ष।
०७. मानस और गीता की प्रासंगिकता।
०८. मानस और गीता में प्रबंधन कला।
०९. मानस और गीता में राजनीति और लोकनीति।
***
गीत:
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
चलो सड़क एक नयी बनायें,
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
मतभेदों के गड्ढें पाटें,
सद्भावों की मुरम उठायें.
बाधाओं के टीले खोदें,
कोशिश-मिट्टी-सतह बिछायें.
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
निष्ठां की गेंती-कुदाल लें,
लगन-फावड़ा-तसला लायें.
बढ़ें हाथ से हाथ मिलाकर-
कदम-कदम पथ सुदृढ़ बनायें.
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
आस-इमल्शन को सींचें,
विश्वास गिट्टियाँ दबा-बिछायें.
गिट्टी-चूरा-रेत छिद्र में-
भर धुम्मस से खूब कुटायें.
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
है अतीत का लोड बहुत सा,
सतहें समकर नींव बनायें.
पेवर माल बिछाये एक सा-
पंजा बारम्बार चलायें.
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
मतभेदों की सतह खुरदुरी,
मन-भेदों का रूप न पायें.
वाइब्रेशन-कोम्पैक्शन कर-
रोलर से मजबूत बनायें.
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
राष्ट्र-प्रेम का डामल डालें-
प्रगति-पन्थ पर रथ दौड़ायें.
जनगण देखे स्वप्न सुनहरे,
कर साकार, बमुलियाँ गायें.
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
श्रम-सीकर का अमिय पान कर,
पग को मंजिल तक ले जाएँ.
बनें नींव के पत्थर हँसकर-
काँधे पर ध्वज-कलश उठायें.
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
टिप्पणी:
१. इमल्शन = सड़क निर्माण के पूर्व मिट्टी-गिट्टी की पकड़ बनाने के लिये डामल-पानी का तरल मिश्रण, पेवर = डामल-गिट्टी का मिश्रण समान मोती में बिछानेवाला यंत्र, पंजा = लोहे के मोटे तारों का पंजा आकार, गिट्टियों को खींचकर गड्ढों में भरने के लिये उपयोगी, वाइब्रेटरी रोलर से उत्पन्न कंपन तथा स्टेटिक रोलर से बना दबाव गिट्टी-डामल के मिश्रण को एकसार कर पर्त को ठोस बनाते हैं, बमुलिया = नर्मदा अंचल का लोकगीत.

***
तसलीस (उर्दू त्रिपदी)
सूरज
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बिना नागा निकलता है सूरज,
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज..
*
सुबह खिड़की से झाँकता सूरज,
कह रहा जग को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं खुद को आंकता सूरज..
*
उजाला सबको दे रहा सूरज,
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज..
*
आँख रजनी से चुराता सूरज,
बाँह में एक, चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लड़ाता सूरज..
*
जाल किरणों का बिछाता सूरज,
कोई चाचा न भतीजा कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज..
*
भोर पूरब में सुहाता सूरज,
दोपहर-देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज..
*
काम निष्काम ही करता सूरज,
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
खुद पे खुद ही नहीं मरता सूरज..
*
अपने पैरों पे ही बढ़ता सूरज,
डूबने हेतु क्यों चढ़ता सूरज?
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज..
*
लाख़ रोको नहीं रुकता सूरज,
मुश्किलों में नहीं झुकता सूरज.
मेहनती है नहीं चुकता सूरज..
९-१-२०११
***

शनिवार, 8 जनवरी 2022

सॉनेट, दोहा, मुहावरा, कहावत, लोकोक्ति, धन

भारत की माटी 
*
जड़ को पोषण देकर 
नित चैतन्य बनाती।
रचे बीज से सृष्टि 
नए अंकुर उपजाति। 
पाल-पोसकर, सीखा-पढ़ाती। 
पुरुषार्थी को उठा धरा से 
पीठ ठोंक, हौसला बढ़ाती। 
नील गगन तक हँस पहुँचाती। 
किन्तु स्वयं कुछ पाने-लेने 
या बटोरने की इच्छा से 
मुक्त वीतरागी-त्यागी है। 
*
सुख-दुःख, 
धूप-छाँव हँस सहती। 
पीड़ा मन की 
कभी न कहती। 
सत्कर्मों पर हर्षित होती। 
दुष्कर्मों पर धीरज खोती।  
सबकी खातिर 
अपनी ही छाती पर
हल बक्खर चलवाती,
फसलें बोती। 
*
कभी कोइ अपनी जड़ या पग 
जमा न पाए। 
आसमान से गर गिर जाए। 
तो उसको 
दामन में अपने लपक छिपाती,
पीठ ठोंक हौसला बढ़ाती। 
निज संतति की अक्षमता पर 
ग़मगीं होती, राह दिखाती। 
मरा-मरा से राम सिखाती। 
इंसानों क्या भगवानो की भी 
मैया है भारत की माटी। 
***  
गीत 
आज नया इतिहास लिखें हम। 

अब तक जो बीता सो बीता 
अब न हास-घट होगा रीता 
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता 
अब न कभी लांछित हो सीता 
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब 
हया, लाज, परिहास लिखें हम 

रहें न हमको कलश साध्य अब 
कर न सकेगी नियति बाध्य अब 
सेह-स्वेद-श्रम हो आराध्य अब 
पूँजी होगी महज माध्य अब
श्रम पूँजी का भक्ष्य न हो अब 
शोषक हित खग्रास लिखें हम  

मिल काटेंगे तम की कारा 
उजियारे के हों पाव बारा 
गिर उठ बढ़कर मैदां मारा 
दस दिश में गूँजे जयकारा।
कठिनाई में संकल्पों का 
कोशिश कर नव हास , लिखें हम  
आज नया इतिहास लिखें हम।  
*    
सॉनेट
तिल का ताड़
*
तिल का ताड़ बना रहे, भाँति-भाँति से लोग।
अघटित की संभावना, क्षुद्र चुनावी लाभ।
बौना खुद ओढ़कर, कहा न हो अजिताभ।।
नफरत फैला समझते, साध रहे हो योग।।

लोकतंत्र में लोक से, दूरी, भय, संदेह।
जन नेता जन से रखें, दूरी मन भय पाल।
गन के साये सिसकता, है गणतंत्र न ढाल।।
प्रजातंत्र की प्रजा को, करते महध अगेह।।

निकल मनोबल अहं का, बाना लेता धार।
निज कमियों का कर रहा, ढोलक पीट प्रचार।
जन को लांछित कर रहे, है न कहीं आधार।

भय का भूत डरा रहा, दिखे सामने हार।।
सत्ता हित बनिए नहीं, आप शेर से स्यार।।
जन मत हेतु न कीजिए, नौटंकी बेकार।।
८-१-२०२२
*
मनरंजन
मुहावरों ,लोकोक्तियों, गीतों में धन
संजीव
*
०१. टके के तीन।
०२. कौड़ी के मोल।
०३. दौलत के दीवाने
०४. लछमी सी बहू।
०५. गृहलक्ष्मी।
०६. नौ नगद न तरह उधार।
०७. कौड़ी-कौड़ी को मोहताज।
०८. बाप भला न भैया, सबसे भला रुपैया।
०९. घर में नईंयाँ दाने, अम्मा चली भुनाने।
१०. पुरुष पुरातन की वधु, क्यों न चंचला होय?
११. एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की।
१२. पीर बबर्ची भिश्ती खर।
१३. पूत सपूत तो क्यों धन संचै, पूत कपूत तो क्यों धन संचै?
१४. फरेगा तो झरेगा।
१५. आए खाली हाथ हैं, जाना खाली हाथ।
१६. अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।
१७. मिट्टी मोल।
१७. सूम का धन शैतान खाय।
१८, सामन सौ बरस का है, पल की खबर नहीं।
१९. सौ सुनार की एक लुहार की।
२०. पइसा ना कौड़ी, बाजार जाए दौड़ी।
२१. विप्र टहलुआ अजा धन और कन्या की बाढि़।
इतने से ना धन घटे तो, करैं बड़ेन सों रारि।
२२. धन के पन्द्रा मकर पचीस। जाड़ा परै दिना चालीस। (अवधी)
२२. सूमी का धन अइसे जाय। जइसे कुंजर कैथा खाय।
२३. सोनरवा की ठुक ठुक, लोहरवा की धम्म।
२४. खेल खिलाड़ी का, पैसा मदारी का।
२५. गरीबी में गीला आटा।
२६. खेल खतम, पैसा हजम। गीत
०१. आमदनी अठन्नी और खरचा रुपैया
तो भैया ना पूछो, ना पूछो हाल, नतीजा ठनठन गोपाल
०२. पाँच रुपैया, बारा आना, मारेगा भैया ना ना ना ना -चलती का नाम गाड़ी
०३. चाँदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया
एक धनवान की बेटी ने निर्धन का दमन छोड़ दिया
८-१-२०२१
***
दोहा सलिला

लज्जा या निर्लज्जता, है मानव का बोध
समय तटस्थ सदा रहे, जैसे बाल अबोध
८-१-२०१८

शुक्रवार, 7 जनवरी 2022

नवगीत, सॉनेट, युवा दिवस, सुनीता सिंह, तुलसी, भक्तिकाल

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'                                                                                                                                    ४०१ विजय अपार्टमेंट,
सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर                                                                                                             नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
चेयरमैन, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर                                                                                     salil.sanjiv@gmail.com  
अध्यक्ष इंजीनियर्स फोरम (इंडिया)                                                                                                                           ९४२५१८३२४४ 

                                                                                                                              सम्मति 

                                   सनातन भारतीय संस्कृति में 'सत्य-शिव-सुंदर' को 'सत-चित-आनंद' प्राप्ति का माध्यम बताया गया है। सर्वकल्याण की राह को जीवन का लक्ष्य बनाकर, इष्ट-भक्ति के माध्यम से लोक देवता की आराधना करनेवाले समयजयी व्यक्तित्वों में संत तुलसीदास का स्थान अग्रगण्य है। मुगल काल में जब जनगण नैराश्य से ग्रसित और अत्याचारों से संत्रस्त था तब तुलसी ने रामचरितमानस और अन्य ग्रंथों के माध्यम से लोक चेतना को न केवल जाग्रत किया अपितु उसे उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त भी किया। शिव, पार्वती, गणेश, राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, हनुमान आदि के चरित्रों का सर्वांग सुंदर वर्णन कर तुलसी ने जन मन में आशा, विश्वास, आस्था, निष्ठा के अनगिन दीपक प्रज्ज्वलित किए। गीताप्रेस गोरखपुर के माध्यम से जयदयाल गोयन्दका तथा हनुमान प्रसाद पोद्दार ने लगत से भी कम नाम मात्र के मूल्य पर तुलसी साहित्य की करोड़ों प्रतियाँ देश के कोने-कोने में जन सामान्य को उपलब्ध कराकर आदर्शों तथा जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। 

''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन''

                                   बाबा गोरखनाथ की साधनास्थली गोरखपुर में जन्मी और श्री राम की लीलाभूमि अवध (लखनऊ) में कार्यरत सुनीता सिंह ने ''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन'' की रचना कर असंख्य विद्वानों द्वारा जनहितकारी साहित्य सृजन की श्रृंखला को आगे बढ़ाया है। कलिकाल के प्रभाव वश समाज और व्यक्ति के जीवन से लुप्त होते मानव मूल्यों, दिनानुदिन बढ़ती भोग और लोभ वृत्ति ने प्रकृति और पर्यावरण को विनाश की कगार पर ला खड़ा किया है। तुलसी का जीवन और साहित्य मूल्यहीनता घटाटोप अन्धकार को चीरकर नवमूल्यों का भुवन भास्कर उगाने में समर्थ है। सुनीता सिंह ने संत तुलसी के दुर्भाग्य, जीवन संघर्ष, जीवट, गुरु और ईश कृपा, साहित्य के विविध पहलुओं, जीवनादर्श, अवदान आदि का छंद मुक्त काव्य में सहज बोधगम्य भाषा में शब्दांकन कर किशोरों और युवाओं के लिए उपलब्ध कराया है। ११२ शीर्षकों के अन्तर्गत यह १४८ पृष्ठीय पुस्तक आद्योपांत पठनीय तथा मननीय है। 

''भक्ति काल के रंग'' 

                                   भारतीय भक्ति साहित्य समूचे विश्व इतिहास में अपने ढंग का अकेला है। भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। आचार्य  द्विवेदी के शब्दों में “जितनी सरलता और सहजता से इस साहित्य ने जन-जीवन का स्पर्श किया, उतनी सहजता से अन्य कोई भी साहित्य नहीं कर सका। इस साहित्य ने भ्रमित और हताशजनता को उल्लासमय जीने की प्रेरणा दी, उन्हें एक अलौकिक संतोष प्रदान किया।'' 

                                   भक्ति काल ने वीरगाथाकाल के पारस्परिक टकरावों से उपजे वैमनस्य का शमन कर विविध विचारधाराओं, जीवनमूल्यों, आदर्शों और जीवनपद्धतियों में समन्वय स्थापना का महत्वपूर्ण कार्य किया। सूर, कबीर, नानक, तुलसी, रैदास आदि संत कवियों ने कुरीति निवारण, जन जागरण, समाज सुधार की प्रेरणा देता साहित्य रचकर सामाजिक दायित्व चेतना जागरण करने के साथ कर्म और फल को जोड़कर नैतिक मूल्यों के प्रति जन मानस को आकृष्ट किया। वर्तमान पाश्चात्य शिक्षाप्रणाली जनित आर्थिक दुष्चक्र ने भारतीय युवाओं को पश्चिम की श्रेष्ठता के प्रति मोहांधित कर, परम्पराओं और विरासत के प्रति उदासीन किया है। ऐसी विषम स्थिति में भक्तिकाल के सम्यक मूल्यांकन  कर युवा लेखिका सुनीता सिंह ने सराहनीय कार्य किया है। उच्च प्रशासनिक पद के जटिल कार्य दायित्वों का सम्यक निर्वहन करते हुए भी सतत साहित्य साधना करना सुनीता को सामान्य से विशिष्ट बनाता है। 

                                   ''भक्ति काल के रंग'' ग्यारह अध्यायों में विभाजित सुगेय काव्य संग्रह है। सर्वाधिक लोकप्रिय अर्धसम मात्रिक दोहा छंद और सम मात्रिक चौपाई छंद  में रचित यह कृति लालित्यमयी है। सगुण भक्ति की रामाश्रयी व कृष्णाश्रयी शाखाओं तथा निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी व प्रेमाश्रयी शाखाओं पर केंद्रीय अध्याय पठनीय हैं। संबंधित चित्रों का यथास्थान प्रयोग कृति का सौंदर्य बढ़ाता है। आरभ में भक्तिकाल की पृष्भूमि, शाखाओं व् विशेषताओं पर सम्यक प्रकाश डाला गया है। कृति सर्वोपयोगी है। 

''तुलसी का रचना संसार''

                                   संत तुलसीदास विश्व साहित्य की अमर विभूति हैं। रामाश्रयी शाखा के प्रमुख हस्ताक्षर होने का साथ-साथ वे भक्तिकाल के प्रतिनिधि कवि ही नहीं हिंदी, बुंदेली, बृज, भोजपुरी, बघेली आदि के भी प्रतिनिधि कवि के रूप में अग्रगण्य हैं। तुलसी के जीवन तथा रचनाओं को केंद्र में रची गयी यह कृति वस्तुत: तुलसी पर महाकाव्य / खंड काव्य के रूप में परिगणित किया जा सकता था यदि इसकी सामग्री को यथोचित अध्यायों में वर्गीकृत तथा सुव्यवस्थित किया जाता।  कवयित्री सुनीता सिंह ने इसे लंबी कविता के रूप में प्रस्तुत किया है। सामान्यत: युद्ध काव्यों को लंबी कविता के रूप में प्रस्तुत करने की परंपरा अंग्रेजी, फ़ारसी आदि में रही है। भारत में 'रासो' महाकाव्य के रूप में रचे गए।  

                                   ''तुलसी का रचना संसार'' सामान्य लीक से हटकर प्रसाद गुण संपन्न भाषा में रचित ऐसी काव्य कृति है जिसे सामान्य और विशिष्ट दोनों तरह के पाठक आत्मार्पित का सराहेंगे। प्रयुक्त भाषा सहज बोधगम्य है। 

                                                                                                                   ''भक्तिकाल का अस्तिबोध''

                                   ''भक्तिकाल का अस्तिबोध'' में सुनीता जी ने भक्तिकाल का मूल्यांकन अपनी दृष्टि से किया है।  भक्ति काल की पूर्वपीठिका तथा पश्चात्वर्ती प्रभवों के आकलन कर निकला गया उनका निष्कर्ष कि भक्तिकालीन साहित्य जाती और वर्ग (वर्ण भी) से ऊपर उठकर अस्ति बोध के यात्रा हेतु प्रेरित करता है। 'अस्त बोध; से  'अस्ति बोध' की यात्रा समरसी और अभेदवादी होती है। यह समरसता और अभेदवाद केवल पारलौकिक ईश भक्ति का साध्य नहीं है अपितु लौकिक देश भक्ति का भी साध्य है। भक्तिकालीन रचनाएँ कपोल कल्पना या अव्यावहारिक भविकता नहीं है उनका एक व्यावहारिक और जागतिक पहलू भी है। यही कारण है कि सीमांत पर खड़े सशस्त्र सैनिक, बलिपंथी क्रन्तिकारी और प्रयोगशाला में प्रयोगरत वैज्ञानिक भी ईश्वर या धर्मग्रंथों से वैसा ही प्रगाढ़ लगाव रखते हैं जैसा कोइ तपस्यारत साधु रखता है। सुनीता जी भक्तिकाल के दोनों पहलुओं को चीन्ह कर चिन्हाने में सफल रही हैं। उन्होंने  भक्तिकाल की कसौटियों का निर्धारण (स्वात्म—परमात्म, स्व—हित—जनहित, व्यष्टि—समष्टि, द्वैत—अद्वैत, प्रेम—ज्ञान, सगुण—निर्गुण) उचित ही किया है। मानवीय चेतना की गतिशीलता से अभिन्न भक्तिकाल के प्रति समालोचकीय दृष्टि संवेदनशील और सजग न हो तो मूल्यांकन 'शव-परीक्षण' की तरह होने का खतरा होता है। सुनीता का नीर-क्षीर विवेकमई चिंतन उन्हें इस खतरे से बचा सका है। भक्ति से क्रांति का निष्कर्ष भ्रांति नहीं, शांति की और यात्रा है। सुनीता को रचना चतुष्टय के लिए बधाई। उनका यह लेखन अपेक्षा जगाता है कि हिंदी साहित्य के शेष कालों पर भी उनका चिंतन ऐसी रचना मणियों से हिंदी के सारस्वत कोष को समृद्ध करेगा।   

                                   ''तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन'', ''भक्ति काल के रंग'', ''तुलसी का रचना संसार''  तथा ''भक्तिकाल का अस्तिबोध'' चारों कृतियाँ रचनकर्त्री सुनीता सिंह के सात्विक चितन और सृजन का सुपरिणाम हैं। ये कृतियाँ केवल विसंगति, वैषम्य, टकराव, बिखराव से प्रदूषित अथवा अंधश्रद्धा, तर्कहीनता और असंस्कारी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य के कारण जन-रूचि के ह्रास को दूर कर सद्प्रवृत्ति व सुसंस्कारी पाठकों में साहित्य-पठन के प्रति रुझान बढ़ाएँगी। सुनीता जी इस सारस्वत रचना-यज्ञ हेतु सधिवाद की पात्र हैं। मुझे विश्व है कि कृतियों का विद्वज्जन, समीक्षकों और सामान्य जन में समादर होगा। 
                                                                                                                                         *** 
                       संपर्क -विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com , वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४                                   
 

 
                                    

युवा दिवस 
भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयंती, १२ जनवरी प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाई जाती है। स्वामी विवेकानन्द आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं। भारतीय युवकों के लिए स्वामी विवेकानन्द से बढ़कर दूसरा कोई नेता नहीं हो सकता। उन्होंने हमें अपनी उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त परम्परा पर अभिमान करना सिखाया है। स्वामी जी ने जो कुछ भी लिखा है वह हमारे लिए हितकर है, वह आने वाले लम्बे समय तक हमें प्रभावित करता रहेगा। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उन्होंने वर्तमान भारत को दृढ़ रूप से प्रभावित किया है। भारत की युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द से निःसृत होने वाले ज्ञान, प्रेरणा एवं तेज के स्रोत से लाभ उठा रही है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् 1984 ई. को 'अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष' घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि सन 1984 से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयंती (जयन्ती) का दिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।

इस संदर्भ (सन्दर्भ) में भारत सरकार के विचार थे कि -ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्श—यही भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है।

इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं; रैलियाँ निकाली जाती हैं; योगासन की स्पर्धा आयोजित की जाती है; पूजा-पाठ होता है; व्याख्यान होते हैं; विवेकानंद साहित्य की प्रदर्शनी लगती है।

अन्तरराष्ट्रीय युवा दिवस (International Youth Day) सन २००० से प्रति वर्ष पूरे विश्व में १२ अगस्त को मनाया जाता है।
***
सॉनेट 
साहब 
*
गाल उनके गुलाब हैं साहब। 
आब ज्यों माहताब  है साहब।
ताब तो आफताब है साहब।।
हाल हर लाजवाब है साहब।।

ज़ुल्फ़ उनकी नक़ाब है साहब।
मात उनसे उक़ाब है साहब। 
हाथ जिनके गिलास है साहब।। 
चाल सचमुच शराब है साहब।।

रंग उनका अजीब है साहब। 
जंग लगती करीब है साहब। 
ख्वाब उनका सलीब है साहब।

हाय दुनिया रकीब है साहब।। 
संग दिल हर गरीब है साहब।।
संग मिलना नसीब है साहब।।
*** 
सॉनेट
*
सॉनेट रच आनंद मिला है।
मिल्टन-शेक्सपिअर आभार।
काव्य बाग में सुमन खिला है।।
आंग्ल काव्य का यह उपहार।।

लिखे त्रिलोचन ने, नियाज ने।
हैं संजीव, रामबली लिखते।
राग बजाए कलम साज ने।।
कथ्य भाव रस इनमें सजते।।

अलंकार रस बिंब सुसज्जित।
गूँथ कहावत अरु मुहावरे।
शब्द-नर्मदा हुए निमज्जित।।
कथ्य अनगिनत बोल खरे।।

शब्द-शक्तियाँ हों अभिव्यंजित।
सॉनेट विधा हुई अभिनंदित।।
७-१-२०२२
***
नवगीत :
रार ठानते
*
कल जो कहा
न आज मानते
याद दिलाओ
रार ठानते
*
दायें बैठे तो कुछ कहते
बायें पैठे तो झुठलाते
सत्ता बिन कहते जनहित यह
सत्ता पा कुछ और बताते
तर्कों का शीर्षासन करते
बिना बात ही
भृकुटि तानते
कल जो कहा
न आज मानते
*
मत पाने के पहले थे कुछ
मत पाने के बाद हुए कुछ
पहले कभी न तनते देखा
नहीं चाहते अब मिलना झुक
इस की टोपी उस पर धरकर
रेती में से
तेल छानते
कल जो कहा
न आज मानते
*
जनसेवक मालिक बन बैठे
बाँह चढ़ाये, मूँछें ऐंठे
जितनी रोक बढ़ी सीमा पर
उतने ही ज्यादा घुसपैठे
बम भोले को भुला पटल बम
भोले बन त्रुटि
नहीं मानते
कल जो कहा
न आज मानते
७-१-२०१८
*

गुरुवार, 6 जनवरी 2022

प्राण शर्मा

 ग़ज़ल - प्राण शर्मा 

    ----------
देश में छाएँ न ये बीमारियाँ 
लोग कहते हैं जिन्हें गद्दारियाँ 
+
ऐसे भी हैं लोग दुनिया में कई 
जिनको भाती ही नहीं किलकारियाँ 
+
क्या ज़माना है बुराई का कि अब 
बच्चों पर भी चल रही हैं आरियाँ 
+
राख में ही तोड़ दें दम वो सभी 
फैलने पाएँ नहीं चिंगारियाँ 
+
`प्राण`तुम इसका कोई उत्तर तो दो 

खो गयी हैं अब कहाँ खुद्दारियाँ

तीन त्रिपदियाँ - प्राण शर्मा 

          ----------
ऐसे भी दुनिया में कई होते हैं दोस्तो 
जग के दुखों को जो सदा ढोते हैं दोस्तो 
दुश्मन की मौत पर भी जो रोते हैं दोस्तो 
*
ऐसे भी दुनिया में कई होते हैं दोस्तो 
विश्वास दोस्ती में जो खोते हैं दोस्तो 
जो मन ही मन उदास से रोते हैं दोस्तो 
*
ऐसे भी दुनिया में कई होते हैं दोस्तो 
काँटे सभी की राह में बोते हैं दोस्तो 
ख़ुद को भी जो जलन में डुबोते हैं दोस्तो 
*
देखो,हमारे जीने का कुछ ऐसा ढंग हो 
अपने वतन के वास्ते सच्ची उमंग हो 
मक़सद हमारा सिर्फ़ बुराई से जंग हो 
*
कहलायेंगे जहान में तब तक फ़कीर हम 
बन पायेंगे कभी नहीं जग में अमीर हम 
जब तक करेंगे साफ़ न अपना ज़मीर हम
*
उनसे बचें सदा कि जो भटकाते हैं हमें 
जो उल्टी - सीधी चाल से फुसलाते हैं हमें 
नागिन की तरह चुपके से डस जाते हैं हमें
*
जग में गंवार कौन बना सकता है हमें 
बन्दर का नाच कौन नचा सकता है हमें 
हम एक हैं तो कौन मिटा सकता है हमें 
***