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गुरुवार, 16 जुलाई 2020

एकदा जबलपुरे .... स्त्रियों को शाप

एकदा जबलपुरे .... 
स्त्रियों को शाप 
*
महाभारत के अनुसार जब युद्ध समाप्त होने के बाद माता कुंती ने पाण्डवों को  यह रहस्य बताया कि कर्ण उनका मातृज बड़ा भाई था और युधष्ठिर से कर्ण का अंतिम संस्कार करने को कहा। सभी पांडव इस बात को सुनकर दुखी हुए। यदि वे पहले जान जाते तो कर्ण की सेवा करते और युद्ध तथा महाविनाश न होता।  
युधिष्ठिर ने विधि-विधान पूर्वक कर्ण का अंतिम संस्कार किया तथा शोकाकुल होकर माता कुंती सहित समस्त स्त्री जाति को यह श्राप दिया कि आज से कोई भी स्त्री किसी भी प्रकार की गोपनीय बात का रहस्य नहीं छुपा पाएगी।
*

एकदा जबलपुरे .... इंद्र की शाप मुक्ति और मासिक धर्म

एकदा जबलपुरे .... 
इंद्र की शाप मुक्ति और मासिक धर्म 
*
विज्ञान के अनुसार महिलाओं को हर महीने होनेवाला मासिक धर्म एक सामान्य प्रक्रिया है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इसका संबंध इंद्र को मिले शाप का अंश स्त्री द्वारा ग्रहण करना है। भागवत पुराण के अनुसार एक बार देव गुरु बृहस्पति इंद्रदेव से नाराज हो गए। यह देख असुरों ने देव लोक पर आक्रमण कर दिया, इंद्र देव को अपनी गद्दी छोड़कर ब्रह्मा जी से सहायता माँगने पहुँचे। ब्रह्मा जी ने उन्हें एक ब्रह्मज्ञानी की सेवा कर प्रसन्न करने का सुझाव दिया तभी स्वर्ग लोग वापस मिलेगा। 
इंद्रदेव एक ब्रह्मज्ञानी की सेवा करने लगे लेकिन इंद्रदेव इस बात से अनजान थे कि जिसकी वह सेवा कर रहे थे उस ब्रह्मज्ञानी की माता असुर है। इस कारण उस ब्रह्मज्ञानी को असुरों से अधिक लगाव था। वह ज्ञानी इंद्रदेव द्वारा अर्पित हवन सामग्री देवताओं के स्थान पर असुरों को अर्पित कर देते थे। यह पता इंद्रदेव को लगने पर इंद्र ने क्रोध में आकर उस ज्ञानी की हत्या कर दी। 
भगवान विष्णु ने ब्रह्मा हत्या के पाप से बचाने हेतु सुझाव दिया कि वे वृक्ष, भूमि, जल और स्त्री में अपना थोड़ा थोड़ा पाप बाँटकर उन्हें एक-एक वरदान भी दें। तदनुसार इंद्र ने सबसे पहले पेड़ की सहमति लेकर उसे अपने श्राप का चतुर्थांश देकर वरदान दिया कि मरने के बाद पेड़ स्वयं ही जीवित हो सकेगा। इसके बाद इंद्र ने जल को पाप का चतुर्थांश देकर वरदान दिया कि वह अन्य वस्तुओं को पवित्र कर सकेगा। तभी से हिंदू धर्म में जल को पवित्र मानते हुए पूजा पाठ में उपयोग किया जाता है। भूमि को पाप का चतुर्थांश देकर इंद्र ने वरदान दिया कि उस पर आई चोटें अपने आप भर जाएँगी। अंत में इंद्र देव ने स्त्री का चतुर्थांश दिया जिससे महिलाओं को हर महीने मासिक धर्म की पीड़ा सहनी पड़ती है। इसके बदले में इंद्रदेव ने महिलाओं को वरदान दिया कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा रति (काम) का आनंद अधिक ले सकेंगी। विज्ञान भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि स्त्री काम क्रीड़ा का आनंद पुरुषों से अधिक ले पाती है। 
***

बुधवार, 15 जुलाई 2020

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
झलक दिखा बादल गए, दूर क्षितिज के पार. 
जैसे अच्छे दिन हमें , दिखा रही सरकार
*
मन में क्या है, क्यों कहें?, आप करें अनुमान.
सच यह है खुद ही  हमें. पता नहीं श्रीमान  
*
गगरी खुद ही उलट रहे, कहीं न बूँद-प्रसाद.
शिवराजी सरकार सम, बादल करें प्रमाद.
*
नहीं पेंशनर  को मिले, सप्तम वेतनमान.
सत्ता सुख में चूर जो, पीड़ा से अनजान.
*
नित्य नई कर घोषणा, जीत न सको चुनाव.
गर न पेंशनर का मिटा, सकता तंत्र अभाव.
*
चीन्ह-चीन्ह कर रेवड़ी, बाँटें अंधे रोज.
देते सिर्फ अपात्र को, क्यों इसकी हो खोज
*
नाले सँकरे कर दिए, जमीं दबाई खूब.
धरती टाइल से पटी, 
खाक उगेगी दूब..
*
दूब नहीं असली बची, नकली है मैदान.
गायब होंगे शीघ्र ही, धरती से इंसान.
*
पौध लगा मत; पेड़ जो काट सके तो काट.
मानव कर ले तू खड़ी खुद ही अपनी खाट.
*
सादा जीवन अब नहीं रहा हमारा साध्य.
उच्च विचार न रुच रहे स्वार्थ कर रहा बाध्य.
*
आवश्यकता से अधिक पा न कहें: पर्याप्त
जो वे दनुज, मनुज नहीं सत्य वचन है आप्त.
*
पत्ता-पत्ता चीखकर कहता: काट न वृक्ष.
निज पैरों पर कुल्हाड़ी चला रहे हम दक्ष.
*
धरती का मंगल न कर, मंगल भेजें यान.
करें अमंगल लड़-झगड़ दंगल कर इंसान.
*
खूं के आँसू रोय हम, वे ले लाल गुलाब.
कहते हुआ विकास अब, हँस लो जरा जनाब.
*
इधर भुखमरी पेट में, लगी हुई है आग.
उधर न वे खा पा रहे, इतना पाया भाग.
*
दिल ने दिल को तौलकर, दिल से की पहचान.
दिल ने दिल का दिल दुखा, कहा न तू अरमान.
*
१५-७-२०१८

कविता पर दोहे़

कविता पर दोहे़:
*
कविता कवि की प्रेरणा, दे पल-पल उत्साह।
कभी दिखाती राह यह, कभी कराती वाह।।
*
कविता में ही कवि रहे, आजीवन आबाद।
कविता में जीवित रहे, श्वास-बंद के बाद।।
*
भाव छंद लय बिंब रस, शब्द-चित्र आनंद।
गति-यति मिथक प्रतीक सँग, कविता गूँथे छंद।।
*
कविता कवि की वंशजा, जीवित रखती नाम।
धन-संपत्ति न माँगती, जिंदा रखती काम।।
*
कवि कविता तब रचे जब, उमड़े मन में कथ्य।
कुछ सार्थक संदेश हो, कुछ मनरंजन; तथ्य।।
*
कविता सविता कथ्य है, कलकल सरिता भाव।
गगन-बिंब; हैं लहरियाँ चंचल-चपल स्वभाव।।
*
करे वंदना-प्रार्थना, भजन बने भजनीक।
कीर्तन करतल ध्वनि सहित, कविता करे सटीक।।
*
जस-भगतें; राई सरस, गिद्दा, फागें; रास।
आल्हा-सड़गोड़ासनी, हर कविता है खास।।
*
सुनें बंबुलिया माहिया, सॉनेट-कप्लेट साथ।
गीत-गजल, मुक्तक बने, कविता कवि के हाथ।।
*
15.7.2018, 7999559618

प्रतिवस्तूपमा अलंकार

अलंकार सलिला: ३३
प्रतिवस्तूपमा अलंकार
*
एक धर्म का शब्द दो, करते अगर बखान.
'प्रतिवस्तुपमा' हो 'सलिल', अलंकार रस-खान..
'प्रतिवस्तुपमा' में कहें, एक धर्म दो शब्द.
चमत्कार लख काव्य का, होते रसिक निशब्द..
जहाँ उपमेय और उपमान वाक्यों का विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही धर्म कहा जाता है, वहाँ
प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है.
जब उपमेय और उपमान वाक्यों का एक ही साधारण धर्म भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा
जाय अथवा जब दो वाक्यों में वस्तु-प्रति वस्तु भाव हो तो वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता
है.
प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्य होते हैं- १) उपमेय वाक्य, २) उपमान वाक्य. इन दोनों वाक्यों का
एक ही साधारण धर्म होता है. यह साधारण धर्म दोनों वाक्यों में कहा जाता है पर अलग-
अलग शब्दों से अर्थात उपमेय वाक्य में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उपमान वाक्य
में उस शब्द का प्रयोग न कर किसी समानार्थी शब्द द्वारा समान साधारण धर्म की
अभिव्यक्ति की जाती है.
प्रतिवस्तूपमा अलंकार का प्रयोग करने के लिए प्रबल कल्पना शक्ति, सटीक बिम्ब-विधान
चयन-क्षमता तथा प्रचुर शब्द-ज्ञान की पूँजी कवि के पास होना अनिवार्य है किन्तु प्रयोग में
यह अलंकार कठिन नहीं है.
उदाहरण:
१. पिसुन बचन सज्जन चितै, सकै न फेरि न फारि.
कहा करै लगि तोय मैं, तुपक तीर तरवारि..
२. मानस में ही हंस किशोरी सुख पाती है.
चारु चाँदनी सदा चकोरी को भाती है.
सिंह-सुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी?
क्या पर नर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी?
यहाँ प्रथम व चतुर्थ पंक्ति में उपमेय वाक्य और द्वितीय-तृतीय पंक्ति में उपमान वाक्य है.
३. मुख सोहत मुस्कान सों, लसत जुन्हैया चंद.
यहाँ 'मुख मुस्कान से सोहता है' यह उपमेय वाक्य है और 'चन्द्र जुन्हाई(चाँदनी) से लसता
(अच्छा लगता) है' यह उपमान वाक्य है. दोनों का साधारण धर्म है 'शोभा देता है'. यह
साधारण धर्म प्रथम वाक्य में 'सोहत' शब्द से तथा द्वितीय वाक्य में 'लसत' शब्द से कहा
गया है.
४. सोहत भानु-प्रताप सों, लसत सूर धनु-बान.
यहाँ प्रथम वाक्य उपमान वाक्य है जबकि द्वितीय वाक्य उपमेय वाक्य है.
५. तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा, चोरहिं चाँदनि रात न भावा.
यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न ' शब्दों से और उपमान वाक्य
में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है.
पाठकगण कारण सहित बताएँ कि निम्न में प्रतिवस्तूपमा अलंकार है या नहीं?
६. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.
७. हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.
८. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना ताजे कलंक.
९. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.
त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..
१०. तेज चाल थी चोर की, गति न पुलिस की तेज
*********
२९-११-२०१५ 

मुक्तक

मुक्तक
*
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
यह कायथ है, वह बामन
यह ठकुरा है, वह बनिया
एक दूसरे के सर पर-
फोड़ रहे हम ही ठीकरा
मित्रता-बन्धुत्व कुछ दिखाइए
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
अवसरवादी हावी हैं
मिले न श्रम को चाबी है
आम आदमी मुश्किल में
जीवन आपाधापी है
कैसे हों सफल?, जरा सिखाइए
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
क्यों पूजा पाखंड बनी?
क्यों आपस में ठनाठनी?
इसे चाहिए आरक्षण
उसे न मिलता, पीर घनी
नीति क्यों समान न बनाइये?
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
राजनीति ने डाली फूट
शासक दल करता है लूट
करे विपक्षी दल नाटक
धन-बलशाली करते शूट
काम एक-दूसरे के आइये
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
क्यों जातीय संस्थाएँ
हों न सवर्णी अब जाएँ?
रोटी-बेटी के सम्बन्ध
बाँध सवर्णी जुड़ जाएँ.
भेद-भाव दूरियाँ मिटाइये
कौन है सवर्ण यह बताइए?
****

१५-७-२०१७
-salil.sanjiv@gmail.com
#divyanarmada
#हिंदी_ब्लॉगर

अनुगीत छंद

रसानंद दे छंद नर्मदा ३८ : छन्द


दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी, वासव, अचल धृति, अचल छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए अनुगीत छंद से

अनुगीत छंद
संजीव
*
छंद लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद २६ मात्रा,
यति१६-१०, पदांत लघु

लक्षण छंद:
अनुगीत सोलह-दस कलाएँ , अंत लघु स्वीकार
बिम्ब रस लय भाव गति-यतिमय , नित रचें साभार

उदाहरण:
१. आओ! मैं-तुम नीर-क्षीरवत , एक बनें मिलकर
देश-राह से शूल हटाकर , फूल रखें चुनकर
आतंकी दुश्मन भारत के , जा न सकें बचकर
गढ़ पायें समरस समाज हम , रीति नयी रचकर

२. धर्म-अधर्म जान लें पहलें , कर्तव्य करें तब
वर्तमान को हँस स्वीकारें , ध्यान धरें कल कल
किलकिल की धारा मोड़ें हम , धार बहे कलकल
कलरव गूँजे दसों दिशा में , हरा रहे जंगल

३. यातायात देखकर चलिए , हो न कहीं टक्कर
जान बचायें औरों की , खुद आप रहें बचकर
दुर्घटना त्रासद होती है , सहें धीर धरकर
पीर-दर्द-दुःख मुक्त रहें सब , जीवन हो सुखकर
*********

१५-७-२०१६ 

हास्य रचनाः नियति

हास्य रचनाः
नियति
संजीव
*
सहते मम्मी जी का भाषण, पूज्य पिताश्री का फिर शासन
भैया जीजी नयन तरेरें, सखी खूब लगवाये फेरे
बंदा हलाकान हो जाये, एक अदद तब बीबी पाये
सोचे धौन्स जमाऊं इस पर, नचवाये वह आंसू भरकर
चुन्नू-मुन्नू बाल नोच लें, मुन्नी को बहलाये गोद ले
कही पड़ोसी कहें न द्ब्बू, लड़ता सिर्फ इसलिये बब्बू
***

१५-७-२०१४ 

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

मुक्तक

मुक्तक
काटे दुर्जन शीश, सुगीता पाठ पढ़ाया।
साथ पांडवों का दे, कौरव राज्य मिटाया।।
काम करो निष्काम, कन्हैया बोले हँसकर।
अर्जुन का रथ थाम, चले झट मोहन तजकर।

नवगीत साक्षी

नवगीत
साक्षी
*
साक्षी
देगा समय खुद
*
काट दीवारें रही हैं
तोड़ना है रीतियाँ सब
थोपना निज मान्यताएँ
भुलाना है नीतियाँ अब
कौन-
किसका हाथ थामे
छोड़ दे कब?
हुए कपड़ों की तरह
अब
देह-रिश्ते,
नेह-नाते
कूद मीनारें रही हैं
साक्षी देगा समय खुद
*
घरौंदे बंधन हुए हैं
आसमानों की तलब है
लादना अपना नजरिया
सकल झगड़ों का सबब है
करूँ
मैं हर चाह पूरी
रोक मत तू
बगावत हो
या अदावत
टोंक मत तू
मनमर्जियाँ
हावी हुई हैं
साक्षी
देगा समय खुद
*
१४-७-२०१९

दोहा सलिला आशा

दोहा सलिला
आशा
*
आशा मत तजना कभी, रख मन में विश्वास।
मंजिल पाने के लिए, नित कर अथक प्रयास।।
*
आशा शैली; निराशा, है चिंतन का दोष।
श्रम सिक्का चलता सदा, कर सच का जयघोष।।
*
आशा सीता; राम है, कोशिश लखन अकाम।
हनुमत सेवा-समर्पण, भरत त्याग अविराम।।
*
आशा कैकेयी बने, कोशिश पा वनवास।
अहं दशानन मारती, जीवन गहे उजास।।
*
आशा कौशल्या जने, मर्यादा पर्याय।
शांति सुमित्रा कैकयी, सुत धीरज पर्याय।
*
आशा सलिला बह रही, शिला निराशा तोड़।
कोशिश अंकुर कर रहे, जड़ें जमाने होड़।।
*
आशा कोलाहल नहीं, करती रहती मौन।
जान रहा जग सफलता, कोशिश जाने कौन?
*
आशा सपने देखती, श्रम करता साकार।
कोशिश उनमें रंग भर, हार न देती हार।।
*
आशा दिख-छिपती कभी, शशि-बादल सम खेल।
कहे धूप से; छाँव से, रखना सीखो मेल।।
*
आशा माँ बहिना सखी, संगिन बेटी साध।
श्वास-आस सम साथ रख, आजीवन आराध।।
*
आशा बिन होता नहीं, जग-जीवन संजीव।
शैली सलिल सदृश रहे, निर्मल पा राजीव।।
*
१४-७-२०१९

दोहा सलिला

दोहा सलिला
जब करते निर्माण हम, तब लाते विध्वंस
पूर्व कृष्ण के जगत में, आ जाता है कंस
*
दोष गैर का देख जब, ऊँगली उठती एक
तीन कहें निज दोष लख, बन जा मानव नेक
*
रात रात से बात की
*
रात रात से बात की, थी एकाकी मौन।
सिसक पड़ी मिल गले; कह, कभी पूछता कौन?
*
रहा रात की बाँह में, रवि लौटा कर भोर।
लाल-लाल नयना लिए, ऊषा का दिल-चोर।।
*
जगजननी है रात; ले, सबको गोद-समेट।
स्वप्न दिखा बहला रही, भुज भर; तिमिर लपेट।।
*
महतारी है प्रात की, रात न करती लाड़।
कहती: 'झटपट जाग जा, आदत नहीं बिगाड़।।'
*
निशा-नाथ है चाँद पर, फिरे चाँदनी-संग।
लौट अँधेरे पाख में, कहे: 'न कर दिल संग।।'
*
राका की चाहत जयी, करे चाँद से प्यार।
तारों की बारात ले, झट आया दिल हार।।
*
रात-चाँद माता-पिता, सुता चाँदनी धन्य।
जन्म-जन्म का साथ है, नाता जुड़ा अनन्य।।
*
रजनी सजनी शशिमुखी, शशि से कर संबंध।
समलैंगिकता का करे, क्या पहला अनुबंध।।
*
रात-चाँदनी दो सखी, प्रेमी चंदा एक।
घर-बाहर हों साथ; है, समझौता सविवेक।।
*
सौत अमावस-पूर्णिमा, प्रेमी चंदा तंग।
मुँह न एक का देखती, दूजी पल-पल जंग।।
*
रात श्वेत है; श्याम भी, हर दिन बदले रंग।
हलचल को विश्राम दे, रह सपनों के संग।।
*
बात कीजिए रात से, किंतु न करिए बात।
जब बोले निस्तब्धता, चुप गहिए सौगात।।
*
दादुर-झींगुर बजाते, टिमकी-बीन अभंग।
बादल रिमझिम बरसता, रात कुँआरी संग।।
*
तारे घेरे छेड़ते, देख अकेली रात।
चाँद बचा; कर थामता, बनती बिगड़ी बात।।
*
अबला समझ न रात को, झट दे देगी मात।
अँधियारा पी दे रही, उजियाला सौगात।।
***
14.7.2018, 7999559618

पुस्तक चर्चा: 'बुंदेली दोहे'


फ़ोटो का कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है.पुस्तक चर्चा:
'बुंदेली दोहे' सांस्कृतिक शब्द छवियाँ मन मोहे
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: बुंदेली दोहे, दोहा संग्रह , आचार्य भगवत दुबे, प्रथम संस्करण २०१६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १५२, मूल्य ५०/-, ISBN ९७८-९३-८३८९९-१८-०, प्रकाशक आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, म. प्र. संस्कृति परिषद्, श्यामला हिल्स, भोपाल ४६२००२, कृतिकार संपर्क- ९३००६१३९७५]
*
विश्ववाणी हिंदी का कालजयी छंद दोहा अपनी मिसाल आप है। संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता, कालजयिता, उपयोगिता तथा लोकप्रियता के सप्त सोपानी निकष पर दोहा जन सामान्य से लेकर विद्वज्जनों तक अपनी प्रासंगिकता निरंतर बनाए रख सका है। बुंदेली के लोककवियों ने दोहे का महत्त्व पहचान कर नीतिपरक दोहे कहे. घाघ-भड्डरी, ईसुरी, जगनिक, केशव, जायसी, घनानंद, राय प्रवीण प्रभृति कवियों ने दोहा के माध्यम से बुंदेली साहित्य को समृद्ध किया। आधुनिक काल के बुंदेली दोहकारों में अग्रगण्य रामनारायण दास बौखल ने नारायण अंजलि भाग १ में ४०८३ तथा भाग २ में ३३८५ दोहों के माध्यम से साहित्य और आध्यात्म का अद्भुत समागम करने में सफलता अर्जित की है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोगबौखल जी की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए बहुमुखी प्रतिभा और बहुविधायी स्तरीय कृतियों के प्रणेता आचार्य भगवत दुबे ने विवेच्य कृति में बुंदेली लोक जीवन और लोक संस्कृति के वैविध्य को उद्घाटित किया है। इसके पूर्व दुबे जी 'शब्दों के संवाद' दोहा संकलन में शुद्ध साहित्यिक हिंदी के अभिव्यंजनात्मक दोहे रचकर समकालिक दोहकारों की अग्रपंक्ति में स्थापित हो चुके हैं। यह दोहा संग्रह दुबे जी को बुंदेली का प्रथम सांस्कृतिक दोहाकार के रूप में प्रस्तुत करता है। 'किरपा करियो शारदे' शीर्षक अध्याय में कवि ने ईशवंदना करने के साथ-साथ लोकपूज्य खेडापति, जागेसुर, दुल्हादेव तथा साहित्यिक पुरखों लोककवियों ईसुरी, गंगाधर, जगनिक, केशव, बिहारी, भूषण, राय प्रवीण, आदि का स्मरण कर अभिनव परंपरा का सूत्रपात किया है।
'बुंदेली नौनी लगे' शीर्षक के अंतर्गत 'बुंदेली बोली सरस', 'बुंदेली में लोच है', 'ई में भरी मिठास', 'अपनेपन कौ भान' आदि अभिव्यक्तियों के माध्यम से दोहाकार ने बुंदेली के भाषिक वैशिष्ट्य को उजागर किया है। पाश्चात्य संस्कृति तथा नगरीकरण के दुष्प्रभावों से नवपीढ़ी की रक्षार्थ पारंपरिक जीवन-मूल्यों, पारिवारिक मान-मर्यादाओं, सामाजिक सहकार भाव का संरक्षण किये जाने की महती आवश्यकता है। दुबे जी ने ने यह कार्य दोहों के माध्यम से संपन्न किया है किन्तु बुंदेली को संयुक्त राष्ट्र संघ तक पहुँचाने की कामना अतिरेकी उत्साह भाव प्रतीत होता है। आंचलिक बोलिओं का महत्त्व प्रतिपादित करते समय यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वे हिंदी के उन्नयन पथ में बाधक न हों। वर्तमान में भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि के समर्थकों द्वारा अपनी क्षेत्रीय बोलि हिंदी पर वरीयता दिए जाने और उस कारण हिंदी बोलनेवालों की संख्या में कमी आने से विश्व में प्रथम स्थान से च्युत होकर तृतीय होने को देखते हुए ऐसी कामना न की जाए तो हिंदी के लिए बेहतर होगा।
इस कृति में 'जेवर हैं बुन्देल के' शीर्षक अध्याय में कवि ने लापता होते जा रहे पारंपरिक आभूषणों को तलाशकर दोहों में नगों की तरह जड़ दिया है। इनमें से अधिकांश जेवर ग्राम्यांचलों में आज भी प्रचलित हैं किन्तु नगरीकरण के प्रभाव ने उन्हें युवाओं के लिए अलभ्य बना दिया है।
नौ गज की धुतिया गसैं, लगै ओई की काँछ।
खींसा बारो पोलका, धरें नोट दस-पाँच।।
*
सोन पुतरिया बीच में, मुतियन की गुनहार।
पहरै मंगलसूत जो, हर अहिबाती नार।।
*
बीच-बीच में कौडियाँ, उर घुमची के बीज।
पहरैं गुरिया पोत के, औ' गंडा-ताबीज़।।
*
इन दोहों में बुंदेली समाज के विविध आर्थिक स्तरों पर जी रहे लोगों की जीवंत झलक के साथ-साथ जीवन-स्तर का अंतर भी शब्दित हुआ है। 'बनी मजूरी करत हैं' अध्याय में श्रमजीवी वर्ग की पीड़ा, चिंता, संघर्ष, अभाव, अवदान तथा वैशिष्ट्य पंक्ति-पंक्ति में अन्तर्निहित है-
कोदों-कुटकी, बाजरा, समा, मका औ' ज्वार।
गुजर इनई में करत हैं, जुरैं न चाउर-दार।।
*
महुआ वन की लकडियाँ, हर्र बहेरा टोर।
और चिरौंजी चार की, बेचें जोर-तंगोर।।
*
खावैं सूखी रोटियाँ, नून मिर्च सँग प्याज।
हट्टे-कट्टे जे रहें,महनत ई को राज।।
*
चंद्र, मंगल और अब सूर्य तक यान भेजनेवाले देश में श्रमिक वर्ग की विपन्नावस्था चिंतनीय है। बैद हकीमों खें रओ' शीर्षक के अंतर्गत पारंपरिक जड़ी-बूटी चिकित्सा, 'बनन लगत पकवान' में उत्सवधर्मी जीवनपद्धति, 'कई नेंग-दस्तूर', 'जब बरात घर सें कढ़े', 'खेलें बाबा-बाइयें', 'बधू खें चढ़े चढ़ाव', 'पाँव पखारे जांय', 'गारी गावै औरतें', 'सासू जी परछन करैं', 'गोद भराई होत है', 'मोंड़ा हों या मोंड़ियाँ', आदि अध्यायों में बुंदेली जन-जीवन की जीवंत पारिवारिक झलकियाँ मन मोह लेती हैं। दोहाकार ने चतुरतापूर्वक रीति-रिवाजों के साथ-साथ दहेज़ निषेध, कन्या संरक्षण, पक्षी संरक्षण, पौधारोपण, प्रदुषण निवारण जैसे समाज सुधारक विचारों को दोहा में पिरोकर 'सहकार में कुनैन लपेटकर खिलाने और मलेरिया को दूर करने का सार्थक और प्रभावी प्रयोग किया है।
'नौनिहाल कीआँख में', 'काजर आंजे नन्द', 'मामा करैं उपासनी', 'बुआ झालिया लेय', बुआ-सरहजें देत हैं', बाजे बजा बधाव' आदि में रिश्तों की मिठास घुली है। 'तुलसी चौरा स्वच्छ हो', 'सजे सातिया द्वार', 'आँखों से शीतल करैं', 'हरी छिछ्लती दूब', 'गौरैया फुदकत रहे', मिट्ठू सीताराम कह', 'पोसें कुत्ता-बिल्लियाँ', गाय-बैल बांधे जहाँ', 'कहूँ होय अखंड रामान', 'बुंदेली कुस्ती कला', 'गिल्ली नदा डाबरी चर्रा खो-खो खेल' आदि में जन जीवन की मोहक और जीवंत झलकियाँ हैं। 'बोनी करैं किसान', 'भटा टमाटर बरबटी', 'चढ़ा मलीदा खेत में', 'करैं पन्हैया चर्र चू', 'फूलें जेठ-असाढ़ में', 'खेतों में पानी भरे', 'पशुओं खें छापा-तिलक' आदि अध्यायों में खेती-किसानी से सम्बद्ध छवियाँ मूर्तिमंत हुई हैं। आचार्य भगवत दुबे जी बुंदेली जन-जीवन, परम्पराओं, जीवन-मूल्यों ही नहीं क्षेत्रीय वैशिष्ट्य आदि के भी मर्मज्ञ हैं। बंजारी मनिया बरम, दतिया की पीताम्बरा, खजराहो जाहर भयो, मैया को दरबार आदि अध्यायों का धार्मिक-अध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं पर्यटन की दृष्टि से भी महत्त्व है। इस संग्रह के हर दोहे में कथ्य, शिल्प, कहन, सारल्य तथा मौलिकता के पंच तत्व इन्हें पठनीय और संग्रहनीय बनाते हैं। ऐसी महत्वपूर्ण कृति के प्रकाशन हेतु आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास परिषद् अकादमी भी बधाई की पात्र है।
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-संपर्क- 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

शुभ प्रभात


देश प्रथम, दल रहे बाद में
शुभ प्रभात
आम प्रथम, हो खास बाद में
शुभ प्रभात
दीनबंधु बन खुशी लुटाये
शुभ प्रभात
कुछ पौधों को वृक्ष बना दें
शुभ प्रभात

मुक्तक

मुक्तक:
मत सोच यार, पा-बाँट प्यार,
सह दर्द, दे ख़ुशी तू उधार।
पतवार-नाव, हो जोश-होश
कर-करा पार, तू सलिल-धार।।
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salil.sanjiv@gmail.com
#हिंदी_ब्लॉगिंग
#हिंदीब्लॉगर।कॉम

नवगीत

नवगीत:
हारे हैं...
संजीव 'सलिल'
*
कौन किसे कैसे समझाए
सब निज मन से हारे हैं?.....
*
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं.
उस पर भी तुर्रा यह खुद को
तीसमारखाँ पाते हैं.
रास न आये सच कबीर का
हम बुदबुद गुब्बारे हैं...
*
बिजली के जिन तारों से
टकरा पंछी मर जाते हैं.
हम नादां उनसे बिजली ले
घर में दीप जलाते हैं.
कोई न जाने कब चुप हों
नाहक बजते इकतारे हैं...
*
पान, तमाखू, जर्दा, गुटका,
खुद खरीदकर खाते हैं.
जान हथेली पर लेकर
वाहन जमकर दौड़ाते हैं.
'सलिल' शहीदों के वारिस,
या दिशाहीन गुब्बारे हैं...
*
करें भोर से भोर शोर हम,
चैन न लें, ना लेने दें.
अपनी नाव डुबाते, औरों को
नैया ना खेने दें.
वन काटे, पर्वत खोदे,
सच हम निर्मम हत्यारे है...
*
नदी-सरोवर पाट दिये,
जल-पवन प्रदूषित कर हँसते.
सर्प हुए हम खाकर अंडे-
बच्चों को खुद ही डंसते.
चारा-काँटा फँसा गले में
हम रोते मछुआरे हैं...
*
१४-७-२०१२
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com

दोहा सलिला

दोहा सलिला
दिव्या भव्या बन सकें, हम मन में हो चाह.
नित्य नयी मंजिल चुनें, भले कठिन हो राह.
*
प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
*
छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
*
कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
*
बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
*
अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
*
रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..
*
कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
*
मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
*
हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
*
जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
*

नवगीत

नवगीत :
संजीव
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा

कोयल का स्वर रुद्ध
कर रहेे रक्षित 
कागा काँव
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
*
२८-७-२०१५
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

सोमवार, 13 जुलाई 2020

द्वि इंद्रवज्रा सवैया

नवान्वेषित द्वि इंद्रवज्रा सवैया
२ x (त त ज ग ग), २२ वर्ण, सम पदांत।
*
दूरी मिटा दे मिल ले गले आ, श्वासें करेंगी मनुहार तेरा।
आँखें मिलीं तो हट ही न पाई, आसें बनेंगी गलहार तेरा।
तू-मैं किनारे नद के भले हों, है सेतु प्यारी शुभ प्यार तेरा।
पूरा करेंगे हम वायदों को, जीना मुझे है बन हार तेरा।
***

१३-७-२०१९

द्वि इंद्रवज्रा सवैया

नवान्वेषित द्वि इंद्रवज्रा सवैया
२ x (त त ज ग ग), २२ वर्ण, सम पदांत।
*
दूरी मिटा दे मिल ले गले आ, श्वासें करेंगी मनुहार तेरा।
आँखें मिलीं तो हट ही न पाई, आसें बनेंगी गलहार तेरा।
तू-मैं किनारे नद के भले हों, है सेतु प्यारी शुभ प्यार तेरा।
पूरा करेंगे हम वायदों को, जीना मुझे है बन हार तेरा।
***

१३-७-२०१९