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रविवार, 19 अप्रैल 2020

नव गीत

नव गीत:
संजीव
.
अपने ही घर में
बेबस हैं
खुद से खुद ही दूर
.
इसको-उसको परखा फिर-फिर
धोखा खाया खूब
नौका फिर भी तैर न पायी
रही किनारे डूब
दो दिन मन में बसी चाँदनी
फिर छाई क्यों ऊब?
काश! न होता मन पतंग सा
बन पाता हँस दूब
पतवारों के
वार न सहते
माँझी होकर सूर
अपने ही घर में
बेबस हैं
खुद से खुद ही दूर
.
एक हाथ दूजे का बैरी
फिर कैसे हो खैर?
पूर दिये तालाब, रेत में
कैसे पायें तैर?
फूल नोचकर शूल बिछाये
तब करते है सैर
अपने ही जब रहे न अपने
गैर रहें क्यों गैर?
रूप मर रहा
बेहूदों ने
देखा फिर-फिर घूर
अपने ही घर में
बेबस हैं
खुद से खुद ही दूर
.
संबंधों के अनुबंधों ने
थोप दिये प्रतिबंध
जूही-चमेली बिना नहाये
मलें विदेशी गंध
दिन दोपहरी किन्तु न छटती
फ़ैली कैसी धुंध
लंगड़े को काँधे बैठाकर
अब न चल रहे अंध
मन की किसको परख है
ताकें तन का नूर
***
१९-४-२०१७

कामिनीमोहन (मदनअवतार)

छंद सलिला:
कामिनीमोहन (मदनअवतार) छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा तथा चार पंचकल, यति ५-१५.
लक्षण छंद:
कामिनी, मोहिनी मानिनी भामनी
फागुनी, रसमयी सुरमयी सावनी
पाँच पंद्रह रखें यति मिले गति 'सलिल'
चार पँचकल कहें मत रुको हो शिथिल
उदाहरण:
१. राम को नित्य भज भूल मत बावरे
कर्मकर धर्म वर हों सदय सांवरे
कौन है जो नहीं चाहता हो अमर
पानकर हलाहल शिव सदृश हो निडर
२. देश पर जान दे सिपाही हो अमर
देश की जान लें सेठ -नेता अगर
देश का खून लें चूस अफसर- समर
देश का नागरिक प्राण-प्राण से करे
देश से सच 'सलिल' कवि कहे बिन डरे
देश के मान हित जान दे जन तरे
३. खेल है ज़िंदगी खेलना है हमें
मेल है ज़िंदगी झेलना है हमें
रो नहीं हँस सदा धूप में, छाँव में
मंज़िलें लें शरण, आ 'सलिल' पाँव में
१९-४-२०१४
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसगति, हंसी)

कविता

कविता
*
कविता क्या है?
मन की मन से
मन भर बातें।
एक दिया
जब काली रातें।
गैरों से पाई
कुछ चोटें,
अपनों से पायी
कुछ मातें,
यहीं कहानी ख़त्म नहीं है।
किस्सा अपना
कहें दूसरे,
और कहें हम
उनकी बातें।
गिरें उठें
चल पड़ें दबारा
नया हौसला,
नव सौगातें।
अभी कहानी शेष रही है।
कविता वह है।
*
१९-४-२०२०

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

महाकाव्य

विमर्श
हिंदी वांग्मय में महाकाव्य विधा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
संस्कृत वांग्मय में काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंध। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या करता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।
महाकाव्य के तत्व -
महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।
१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सरगारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्रे: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपतुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।
२. नायक - महाकव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (सीता, कैकेयी, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकव्य रचा जाए। प्राय: एक नायक रखा जाता है किन्तु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकव्य लिखा जाए तो गोखले, टिकल। लाजपत राय, रविंद्र नाथ, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजरंदर प्रसाद आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकव्य को कालजयी बनाता है।
३. रस - रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। महाकव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व् परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।
अन्य नियम - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरुप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु पथिक जी ने कारण पर लिखित महाकव्य का शीर्षक 'सूतपुत्र' रखकर इस परंपरा को तोडा है।
महाकाव्य : कल से आज
विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अन्तर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।
इस विरासत पर हिंदी साहित्य की महाकाव्य परंपरा में प्रथम दो हैं चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की रामचद्रिका में पांडित्य जनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत साकेत संत भी महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने प्रिय प्रवास और द्वारिका मिश्र ने कृष्णायन की रचना की। कामायनी - जयशंकर प्रसाद, वैदेही वनवास हरिऔध, सिद्धार्थ तथा वर्धमान अनूप शर्मा, दैत्यवंश हरदयाल सिंह, हल्दी घाटी श्याम नारायण पांडेय, कुरुक्षेत्र दिनकर, आर्यावर्त मोहनलाल महतो, नूरजहां गुरभक्त सिंह, गाँधी परायण अम्बिका प्रसाद दिव्य, उत्तर भगवत तथा उत्तर रामायण डॉ. किशोर काबरा, कैकेयी डॉ.इंदु सक्सेना देवयानी वासुदेव प्रसाद खरे, महीजा तथा रत्नजा डॉ. सुशीला कपूर, महाभारती डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, दधीचि आचार्य भगवत दुबे, वीरांगना दुर्गावती गोविन्द प्रसाद तिवारी, क्षत्राणी दुर्गावती केशव सिंह दिखित 'विमल', कुंवर सिंह चंद्र शेखर मिश्र, वीरवर तात्या टोपे वीरेंद्र अंशुमाली, सृष्टि डॉ. श्याम गुप्त, विरागी अनुरागी डॉ. रमेश चंद्र खरे, राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस रामेश्वर नाथ मिश्र अनुरोध, सूतपुत्र महामात्य तथा कालजयी दयाराम गुप्त 'पथिक', आहुति बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।
समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है।
***
संपर्क विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४

रावण गुफा लंका

पुरातत्व 
रावण गुफा लंका 


वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण पुलस्त्य मुनि का पोता, उनके पुत्र विश्वश्रवा का पुत्र था। विश्वश्रवा की वरवर्णिनी और कैकसी नामक दो पत्नियाँ थी। वरवर्णिनी ने कुबेर को जन्म दिया था । कैकसी ने अशुभ समय में गर्भ धारण किया क्योंकि कैकसी राक्षस नाग कुल से थी। नाग कुल की पथा के अनुसार दाह संस्कार नहीं होता था। श्री राम द्वारा रावण वध के बाद अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी विभीषण की थी।नागकुल के लोग रावण का शव अपने साथ ले गए। उनका विश्वास था रावण अभी पूरी तरह से नहीं मरा है क्योंकि रावण कहता था की उसके पास अमृत हैं और वह अमर है। इसलिए उनको भरोसा था कि रावण को जिन्दा किया जा सकता हैकिंतुउनके सब प्रयास असफल रहे, हारकर उन्होंने कई प्रकार के रसायनों का प्रयोग कर रावण के शव को ममी के रूप में रख दिया।
कुछ समय पहले ही श्रीलंका पुरातत्व विभाग ने दावा किया है उन को रेगला के घने जंगल में एक विशाल पर्वत में  खतरनाक रावण-गुफा मिली है जिसमें रावण ने व्र्षो तपस्या की थी। उस गुफा में कोई नहीं जाता क्योंकि रावण के शव की रक्षा कई खूँखार जानवर और नागकुल के नाग करते हैं। रावण का १८'  लंबा और ५ ' चौड़ा ताबूत आज भी रेगला के घने जंगल में रावण की ताबूत  सुरक्षित है। यह दावा श्रीलंका सरकार ने किया है । अब तक ये कही भी ये नहीं साबित हुआ कि वो ममी रावण की ही है।

बांग्ला लघुकथा - चंदन चक्रवर्ती

बांग्ला लघुकथा                                                                                                                                                                            सुअर की कहानी

चंदन चक्रवर्ती 
*
प्रकाशक सिर पर खड़ा था। उसकी एक लघुकथा-संकलन निकालने की योजना थी। डेढ़ सौ शब्दों की एक लघुकथा लिखने के लिए मुझसे कहा। मैंने कहा, ‘‘लेखकों को आप दर्जी समझते हैं क्या? माप कर कथा लिखूं?’’

--अरे जनाब, समझते क्यों नहीं आप? यह माइक्रोस्कोपिक युग है। इसके अलावा अणु-परमाणु से ही तो मारक बमों को निर्माण होता है।

--इसका मतलब है कि कथा परमाणु बम की तरह फटेगी। भाई मेरे, अणु-परमाणु से थोड़ा हटकर नहीं सोचा जा सकता?

--वह कैसे?

--यानी कि पटाखा-कथा। थोड़ी आकार में बड़ी होगी। पटाखे की तरह फूटेगी।

प्रकाशक चला गया। मेरे मस्तिष्क में लघुकथा नहीं आती है। बीज डालकर सींचना पड़ेगा। अंकुर फूटेंगे, पेड़ बनेंगे। उसके बाद फूल-फल और फिर से बीज। इससे बाहर कैसे जा सकता हूँ? अंततः कुछ सोच-समझकर लिख ही डाला -----

‘‘दो सुअर थे। बच्चे जने दस-बारह। सुअर के बच्चों ने निर्णय लिया कि सारी दुनिया को सुअरों से भर देंगे। पहले उन्होंने निश्चित किया कि सिर्फ भादों में कुत्तों की तरह बच्चे जनेंगे। ....हजार-हजार सुअर। कीड़ों की तरह किलबिला रहे हैं। अब पशुशाला बनाएंगे। वह भी बनाया। पशुशाला के नियम-कानून बने। देश सुअरमय हुआ। उनकी आयु पांच-दस वर्षों की है, पर ये रबर की तरह हैं। उम्र खिंचती चली जा रही है। बीस-पच्चीस-सत्ताइस-तीस और उससे भी अधिक। मजे से उनका घर-संसार चल रहा है।’’

प्रकाशक ने सुनकर कहा, ‘‘एक इन्सान की कहानी नहीं लिख सके?’’

मैं चौंक उठा, ‘‘तो फिर मैंने यह कहानी किसकी लिखी?’’

अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’
*

मुक्तक

मुक्तक सलिला
*
मुक्त विचारों को छंदों में ढालो रे!
नित मुक्तक कहने की आदत पालो रे!!
कोकिलकंठी होना शर्त न कविता की-
छंदों को सीखो निज स्वर में गा लो रे!!
*
मुक्तक-मुक्तक मणि-मुक्ता है माला का।
स्नेह-सिंधु है, बिंदु नहीं यह हाला का।।
प्यार करोगे तो पाओगे प्यार 'सलिल'
घृणा करे जो वह शिकार हो ज्वाला का।।
*
जीवन कहता है: 'मुझको जीकर देखो'।
अमृत-विष कहते: 'मुझको पीकर देखो'।।
आँसू कहते: 'मन को हल्का होने दो-
व्यर्थ न बोलो, अधरों को सीकर देखो"।।
*
अफसर करे न चाकरी, नेता करे न काम।
सेठ करोड़ों लूटकर, करें योग-व्यायाम।।
कृषक-श्रमिक भूखे मरें, हुआ विधाता वाम-
सरहद पर सर कट रहे, कुछ करिए श्री राम।।
*
छप्पन भोग लगाकर नेता मिल करते उपवास।
नैतिकता नीलाम करी, जग करता है उपहास।।
चोर-चोर मौसेरे भाई, रोज करें नौटंकी-
मत लेने आएँ, मत देना, ठेंगा दिखा सहास।।
१८-४-२०१८
*

द्वैकादशी छंद

​ॐ
छंद बहर का मूल है: ६
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS ISI SSI SIS IS
सूत्र: रजतरलग।
चौदह वार्णिक शर्करी जातीय छंद।
बाईस मात्रिक महारौद्र जातीय द्वैकादशी छंद।
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं।
यति - ११-११
*
देश-गीत गाइए, भेद भूल जाइए
सभ्यता महान है, एक्य-भाव लाइए
*
कौन था कहाँ रहा?, कौन है कहाँ बसा?
सम्प्रदाय-लिंग क्या?, भूल साथ आइए
*
प्यार-प्रेम से रहें, स्नेह-भाव ही गहें
भारती समृद्ध हो, नर्मदा नहाइए
*
दीन-हीन कौन है?, कार्य छोड़ मौन जो
देह देश में बनी, देश में मिलाइए
*
वासना न साध्य है, कामना न लक्ष्य है
भोग-रोग-मुक्त हो, त्याग-राग गाइए
*
ज्ञान-कर्म इन्द्रियाँ, पाँच तत्व देह है
गह आत्म-आप का, आप में खपाइए
*
भारतीय-भारती की उतार आरती
भव्य भाव भव्यता, भूमि पे उतरिये
***
१८.४.२०१७
***

काव्य वार्ता

​रोचक चर्चा:
गुड्डो दादी
ताल मिले नदी के जल से
नदी और सागर का मेल ताल क्यों ?
*
सलिल-वृष्टि हो ताल में, भरे बहे जब आप
नदी ग्रहण कर समुद तक, पहुँचे हो थिर-व्याप
लघु समुद्र तालाब है, महाताल है सिंधु
बिंदु कहें तालाब को, सागर को कह इंदु
***

अरबी लघुकथा वार्तालाप समीरा मइने

अरबी लघुकथा
वार्तालाप
समीरा मइने
*
'पूर्व का आदमी एक, दो, तीन या चार औरतों से शादी कर सकता है।'
'तुम एक, दो, तीन या चार मर्दों से शारीरिक संबंध रख सकती हो?'
'मैंने उनसे शादी तो नहीं की न?'
'तुम हेनरी से मुहब्बत करती हो?'
'थोड़ी-थोड़ी....'
और पॉप से?'
'ओह.... उसकी तो बात ही कुछ और है। '
तो फिर तुम दोनों से मुहब्बत करती हो?'
'क्या बात करती हो.... एक तीसरा शख्स भी मेरा दोस्त है, जिसके बारे में मैंने तुमको बताया ही नहीं कि वह 'टॉम' है जो मुझे घूमता है और उसके साथ जाने में मेरा खर्च कुछ भी नहीं होता।'
'ओह! समझी पूर्व का मर्द शारीरिक भूख के पीछे और पश्चिम की औरत धन और सुरक्षा के पीछे कई-कई संबंध बनाती है।
अनुवाद : नासिरा शर्मा
*** 

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

कोविद विमर्श १

कोविद विमर्श १:
अभिशाप में वरदान
जटायु
*
ऐसा कोई दिया नहीं है  जिसके नीचे तम न पले
ऐसी आपद कोई नहीं है जिसमें से सुख नहीं फले

कोविंद के राज्य में कोविद का आना, दुनिया के समृद्ध और विकसित देशों की तुलना में  अपेक्षाकृत बहुत कम समृद्ध और विकसित देश भारत में कई गुना अधिक जनसंख्या, निम्न जीवन स्तर, न्यून चिकित्सकीय संसाधन होते हुई रोगियों और दिवंगतों की सबसे कम संख्या गोविन्द की कृपा ही है। कोविद, कोविंद और गोविन्द का नाता तो वही जाने, हमें तो बचपन में पढ़ी कविता याद आ रही है -

कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहकर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो इसमें कुछ व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को

इसलिए निराशा को दूर रखते हुए हम कुछ बिंदुओं का संकेत करेंगे जी भक्तों को सख्त नागवार गुजरेगा और हमें अपशब्दों से विभूषित करने में वे देर न करेंगे। शायद हमारे बड़ों को इस असहनशील संवर्ग के उद्भव की जानकारी पहले से ही थी इसलिए उनहोंने हमें 'तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा' की नीति बचपन से याद करा दी।

१ दिसंबर २०१९ को वुहान में पहले मरीज को कोरोना संक्रमण होने की पुष्टि होने के साथ महामारी ने पैर फ़ैलाने आरंभ कर दिए थे। दूरदर्शी भारत सरकार ने यह मानकर कि, बर्फीली हवाओं, सेना, घटिया सामान और स्मगलरों के अलावा चीन से भारत में कोई घुसपैठ नहीं कर सकता, अपने नयनपट बंद रखे। अंध भक्त चीनियों के खान-पान के वीडियो लगाते नहीं थक रहे थे। वक्तव्यवीर अहर्निश घोषणा कर रहे थे कि उनके परम तेजस्वी नेता हुए उनके सात्विक खाने-पीने (?) के कारण भारत में कोरोना का बाप भी नहीं आ सकता।

जनवरी में थाईलैंड (१३ जनवरी); जापान (१५ जनवरी); दक्षिण कोरिया (२० जनवरी); ताइवान और संयुक्त राज्य अमेरिका (२१ जनवरी); हांगकांग और मकाऊ २२ जनवरी); सिंगापुर (२३ जनवरी); फ्रांस, नेपाल और वियतनाम (२४ जनवरी); ऑस्ट्रेलिया और मलेशिया (२५ जनवरी); कनाडा (२६ जनवरी); कंबोडिया (२७ जनवरी); जर्मनी (२८ जनवरी); फिनलैंड, श्रीलंका और संयुक्त अरब अमीरात (२९ जनवरी); भारत, इटली और फिलीपींस (३०जनवरी); यूनाइटेड किंगडम, रूस, स्वीडन और स्पेन (३१ जनवरी) में कोरोना ने दस्तक दे दी। १ फरवरी तक विश्व  में १४,००० से अधिक मामले मिले। १ फरवरी को चीन से बाहर कोरोना ने पहली बली फिलीपींस में ली। क्या इसी समय भारत में सतर्कता बरतते हुए विदेशों से आ रहे सभी यात्रियों को सख्ती से १४ दिनी एकांतवास पर भेजकर सघन जाँच नहीं कराई जानी थीं? इस समय तक भारत में कोरोना ने पैर  नहीं पसारे थे। कहते हैं ''अग्र सोची सदा सुखी'', हमारा शासन-प्रश्न अग्रसोची इस समय हो गया होता तो भारत में कोरोना आ ही नहीं पाता। फरवरी में  चीन में हाहाकार मचा हुआ था, लोक डाउन आरंभ कर दिया गया था। भारतीय मीडिया सनसनीख़ेज दृश्य चटखारे ले-लेकर परोस रहा था। 

कहाँ हुई चूक ? 

भारत सरकार ने आरंभिक जद्दोजहद के बाद सराहनीय पहल करते हुए चीन से भारतीयों को निकाला। जापान, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका, जर्मनी और थाईलैंड अपने नागरिकों की निकासी की योजना बनाने वाले पहले देशों में से थे। पाकिस्तान ने चीन से किसी नागरिक को नहीं निकाला। लाये गए नागरिकों को संगरोध (क्वारंटाइन) किया गया। यही समय था जब सब हवाई अड्डे सील कर आनेवाले सब यात्रियों को संगरोध के बाद छोड़ा जाना था किंतु केवल तापमान जाँच कर यात्रियों को छोड़ा जाता रहा। तब्लीगी जमाती भारत में एकाएक नहीं प्रगट हुए। वे विधिवत वीसा लेकर आये, प्रशासन को एक-एक की जानकारी थी कि किस देश से आये, कहाँ गए? कोरोना संक्रमण फैलने की खबर के साथ ही इन पर नज़र रखकर इन्हें बाहर भेजने का कदम उठाया जाता तो बाद में जो  विकराल  समस्या खड़ी हुई वह नहीं हो पाती। शासन-प्रशासन ही नहीं विपक्षी दल और खबरनवीस भी असफल सिद्ध हुआ। जिम्मेदारी सबकी होती है। लेकिन दुर्भाग्य से राजनैतिक नेताओं के व्यक्तिगत संबंध मधुर नाहने हैं और पत्रकार इस या उस खेमे में बँटकर गला फाड़ने को पत्रकारिता मान बैठे हैं। ये दोनों चूकें बहुत भारी पड़ीं। 

मार्च में ११ कर्णाटक, १३ दिल्ली, १७ महाराष्ट्र, १९ पंजाब में कोरोना से हुई मौतें खतरे की घंटी थी। इसी समय लोकडाउन योजना पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना था। इसके लिए हर शहर में बाहर से आये श्रमिकों और छोटे व्यापारियों की संख्या का अनुमान कर उन्हें लौटने के लिए समयावधि दी जानी थी। इस समय तक कोरोना ने भारत में पैर नहीं पसारे थे। समयबद्ध तरीके से बेरोजगार होनेवाले लोग अपने घरों को लौट सकते तो बाद में लाखों मजदूरों के एकत्र होने जैसी समस्या नहीं खड़ी होती। सबसे बड़े राजनैतिक दल और सबसे अधिक स्वयं सेवकों वाले संगठन की इस समय उदासीनता देश को भरी पड़ी। किसी मजदूर संगठन ने भी पूर्वानुमान कर अपने सदस्यों को घर लौटने या बेरोजगारी के समय हेतु साधन जुटाने की सलाह नहीं दी। 

तालाबंदी एकाएक और विलंब से?

इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि प्राथमिकता मध्य प्रदेश में चुनाव बाद बनी सरकार को पलटने को दी गयी. कोरोना से निबटने की बारी उसके बाद आयी। क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि मध्य प्रदेश में २४ मार्च को नए मुख्यमंत्री ने शपथ ली और २५ मार्च की रात १२ बजे से २१ दिनों के लिए तालाबंदी (लोक डाउन) घोषित की गयी।
इसके पूर्व २२ मार्च को जनता कर्फ्यू घोषित किया गया था। क्या तभी तालाबंदी नहीं की जा सकती थी जबकि तब तक भारत में कोविड-१९ के पॉजिटिव मामलों की संख्या लगभग ५०० थी यहाँ कुछ प्रश्न उठते हैं - १. क्या सरकार बदलने के लिए तालाबंदी देर से  की गयी? या २. यदि २४ को भी सरकार नहीं बदलती तो तालाबंदी तब भी न की जाती? ३. यदि सरकार पहले ही गिर जाती तो तालाबंदी पहले कर दी जाती? 

इन प्रश्नों की अनदेखी भी की जाए तो तालाबंदी करने के तरीके पर चर्चा की ही जानी चाहिए। यह एक ऐसा निर्णय था जिससे सवा अरब देशवासियों की ज़िंदगी प्रभावित होनी थी। क्या इसके पूर्व पर्याप्त अध्ययन और तैयारी थी? क्या इसका संकेत या सुचना कम से कम राज्य सरकारों को नहीं दी जा सकती थी। सैन्य और अर्ध सैन्य बलों, पुलिस आदि को पूर्व सुचना से वे भौंचक न रह जाते और पहले से कुछ तैयारी कर पाते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नोटबंदी के एकाएक निर्णय से जन सामान्य को हुई भारी असुविधा से कोई सबक नहीं लिया गया और एक बार फिर आम लोगों को उससे भी अधिक असुविधा में धकेल दिया गया। सरकारों की रूचि इस बात में नहीं थी कि लोग अपने-अपने गाँवों में पहुँच सकें, इस बात में थी कि चीन्ह-चीन्ह कर रेवड़ी (सहायता राशि और सामग्री) बांटी जाए। किसी लोकतंत्र के लिए इससे अधिक दुर्भाग्य की बात नहीं हो सकती कि नागरिकों को अधिकतम परावलंबी बनने को प्रत्साहित किया जाए, यह जानने के बाद भी की सरकारी मशीनरी, व्यापारी और कुछ नागरिक भी ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कालाबाजारी करते हैं। परिणाम यह हुआ कि बेरोजगार, भुखमरी से परेशांन लाखों नागरिक गाँवों की ओर जाने को विवश हुए, कोढ़ में खाज यह कि यातायात के साधन रेल और बसें भी बंद थीं। इसने सरकार की तालाबंदी को ही खतरे में दाल दिया और थूक कर चाटने की तरह सरकार को बसों की व्यवस्था करने ही पड़ी। 

यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक और प्रधानमंत्री सबसे सहयोग का अनुरोध करते हैं, विपक्षी दल और नागरिक सकारात्मक प्रतिक्रिया भी देते हैं किंतु अंध भक्त सामाजिक माध्यमों पर निरंतर अपमानजनक भाषा और आपत्तिजनक आक्षेप लगते हैं जिन्हें रोकने का कोई प्रयास किसी स्तर पर नहीं किया जाता। यह एक सोची-विचारी दल नीति प्रतीत होती है क्योंकि ऐसा करने वाले किसी भक्त को कभी कोई दंड नहीं दिया जाता।  
शाहीन बाग़

दिल्ली में शाहीन बाग़ के आंदोलन को जिस तरीके से निबटाया गया वह भी कई प्रश्न खड़े करता है। पहले तो उसे पहले दिन ही समाप्त किया जा सकता था। अमरीकी राष्ट्रपति के आगमन के पहले भी उसे हटाया जा सकता था किन्तु उसे २३ मार्च को ही हटाया गया। इसे चलने देने के पीछे एक ही उद्देश्य हो सकता था की इस वजह से अन्य मुद्दे दब गए। भगोड़ों को लाने, विदेश में जमा काला धन, पाकिस्तान की कैद में भारतीय नागरिक  कुलभूषण आदि जिन मुद्दों पर सरकार असफल रही या बढ़ती मँहगाई, घटते रोजगार, गिरती अर्थ व्यवस्था आदि सब पृष्ठ भूमि में चला गया। शाहीन बाग़ आंदोलन दिसंबर से मार्च तक शाहीन बाग़ आंदोलन ने कोरोना प्रसार में क्या और कितनी भूमिका निभाई? उसे इतने दिनों तक क्यों चलने दिया गया बावजूद इसके कि सर्वोच्च न्यायालय का रुख आंदोलन के विरोध में एकदम स्पष्ट था।

तबलीग़ / जमात  / मजलिस

तब्लीग  में हजारों लोग कब एकत्र हुए? दैनंदिन प्रशासन में  एल. आई. बी., सी. बी. आई., स्थानीय पुलिस आदि के मुखबिर निरंतर सक्रिय रहते हैं। दिल्ली की पुलिस व्यवस्था केंद्र सरकार के अधीन है। यह सारा गुप्तचर तंत्र शाहीन बाग़ प्रकरण, दिल्ली दंगे, तब्लीगियों की कोई पूर्व सूचना नहीं जुटा सका तो निकम्मे अधिकारीयों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए किन्तु ऐसा हो नहीं सकता। किसी भी शासकीय विभाग में  कुछ अधिकारी / कर्मचारी निकम्मे हैं पूरा विभाग नहीं। तब गुप्तचर विभागों द्वारा जुटाई गयी सूचनाएँ शासन-प्रशासन तंत्र में कहाँ रुकीं, इन पर यथासमय यथोचित कार्यवाही क्यों न हो सकी, इस पर कदम उठाये ही जाना चाहिए। विदेश तब्लीगी पासपोर्ट पर आये थे। ये नियत समय पर थानों में सूचना देने हेतु बाध्य थे, इनकी जानकारी पुलिस और विदेश मंत्रालय को थी। क्या कारन था की इन्हें जनवरी-फरवरी में ही उनके देशों को नहीं भेजा गया? और अब वे समस्या बन गए, उन्हें खोजना और इलाज कराना बहुत जटिल और खर्चीला काम है। इसका दोषी कौन है?

स्थानीय तब्लीगी भी एकाएक रातों-रात नहीं पहुँचे थे। कोरोना दिसंबर से फ़ैल रहा था। जनवरी में ही तब्लीग़ियों को रोका क्यों नहीं गया? क्या सरकार भयभीत थी? या इन्हें जान-बूझकर आने दिया गया? अब तब्लीग़ियों की संख्या का अनुमान दस हजार के आसपास तक लगाया जा रहा है। इतने लोगों के खाने-पीने का सामान रोज ही जाता रहा था, पुलिस को पता कैसे नहीं चला? केंद्र सरकार के प्रशासन की नाक के नीचे शाहीन बाग़, दिल्ली दंगे और तब्लीगी जमात जैसे प्रकरण होना उसकी सक्षमता और नीयत दोनों को प्रश्नों के घेरे में लाती है? क्या प्रशासन पर शासन की पकड़ या पारस्परिक तालमेल गड़बड़ है या नीति के रूप में ऐसा होने दिया जा रहा है? सचाई जो भी हो चिंतनीय और दुर्भाग्यपूर्ण है। हर नागरिक को देश के विषय में चिंता करनी चाहिए। यह उसका कर्तव्य भी है और अधिकार भी। ऐसे समय में जब पत्रकार जगत निष्पक्ष न रह गया हो, यह और अधिक आवश्यक है। प्रश्न उठाने को असहमति नहीं माना जाना चाहिए। आपके साथ खड़े, आपका हाथ बनता रहे लोग भी प्रश्न पूछ सकते हैं। उन्हें समुचित उत्तर हुए जानकारी दी जानी चाहिए, न दी जा सके तो तदनुसार सूचित किया जाना चाहिए। इन प्रश्नों का सबसे अधिक लाभ भविष्य में लिया जा सकता है। किसी आपदा के समय इन प्रश्नों के प्रकाश में बेहतर तैयारी की जा सकती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि स्थिति सामान्य होने तक हर प्रश्नकर्ता पूरी ईमानदारी से सरकार के साथ कदम से कदम मिलाकर खड़ा रहेगा और स्थिति सामान्य होने पर सरकार भी पूरी ईमानदारी से उत्तर देगी और यह भी कि महामाननीय भक्तगण प्रश्नकर्ताओं के प्रति सम्मन न दिखा सकें तो कम से कम मौन रहेंगे, उत्तेजित होकर अपनी ही सर्कार को असुविधा में न डालेंगे जैसे घाटी बजने के समय सड़कों पर आकर और दिया जलाने के समय पटाखे फोड़कर कर किया।
                                                                                                                                                                                      - क्रमश:

नवगीत आओ भौंकें

नवगीत
आओ भौंकें
*
आओ भौंकें
लोकतंत्र का महापर्व है
हमको खुद पर बहुत गर्व है
चूस रहे खूं बनकर जोंकें
आओ भौंकें
*
क्यों सोचें क्या कहाँ ठीक है?
गलत बनाई यार लीक है
पान मान का नहीं सुहाता
दुर्वचनों का अधर-पीक है
मतलब तज, बेमतलब टोंकें
आओ भौंकें
*
दो दूनी हम चार न मानें
तीन-पाँच की छेड़ें तानें
गाली सुभाषितों सी भाए
बैर अकल से पल-पल ठानें
देख श्वान भी डरकर चौंकें
आओ भौंकें
*
बिल्ला काट रास्ता जाए
हमको नानी याद कराए
गुंडों के सम्मुख नतमस्तक
हमें न नियम-कायदे भाए
दुश्मन देखें झट से पौंकें
आओ भौंकें
*
हम क्या जानें इज्जत देना
हमें सभ्यता से क्या लेना?
ईश्वर को भी बीच घसीटे-
पालेे हैं चमचों की सेना।
शिष्टाचार भाड़ में झौंकें
आओ भौंकें
*
मजहब के सौदागर हैं हम
बिन पेंदी की गागर हैं हम
दिखी उमा नटराज हुए हम
राधा तो नटनागर हैं हम
खीर हींग-लहसुन में छौंकें
आओ भौंकें
*
१७-४-२०१९