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बुधवार, 15 अप्रैल 2020

शिव स्तवन

छंद सलिला;
शिव स्तवन
संजीव
*
(तांडव छंद, प्रति चरण बारह मात्रा, आदि-अंत लघु)
।। जय-जय-जय शिव शंकर । भव हरिए अभ्यंकर ।।
।। जगत्पिता श्वासा सम । जगननी आशा मम ।।
।। विघ्नेश्वर हरें कष्ट । कार्तिकेय करें पुष्ट ।।
।। अनथक अनहद निनाद । सुना प्रभो करो शाद।।
।। नंदी भव-बाधा हर। करो अभय डमरूधर।।
।। पल में हर तीन शूल। क्षमा करें देव भूल।।
।। अरि नाशें प्रलयंकर। दूर करें शंका हर।।
।। लख ताण्डव दशकंधर। विनत वदन चकितातुर।।
।। डम-डम-डम डमरूधर। डिम-डिम-डिम सुर नत शिर।।
।। लहर-लहर, घहर-घहर। रेवा बह हरें तिमिर।।
।। नीलकण्ठ सिहर प्रखर। सीकर कण रहे बिखर।।
।। शूल हुए फूल सँवर। नर्तित-हर्षित मणिधर ।।
।। दिग्दिगंत-शशि-दिनकर। यश गायें मुनि-कविवर।।
।। कार्तिक-गणपति सत्वर। मुदित झूम भू-अंबर।।
।। भू लुंठित त्रिपुर असुर। शरण हुआ भू से तर।।
।। ज्यों की त्यों धर चादर। गाऊँ ढाई आखर।।
।। नव ग्रह, दस दिशानाथ। शरणागत जोड़ हाथ।।
।। सफल साधना भवेश। करो- 'सलिल' नत हमेश।।
।। संजीवित मन्वन्तर। वसुधा हो ज्यों सुरपुर।।
।। सके नहीं माया ठग। ममता मन बसे उमग।।
।। लख वसुंधरा सुषमा। चुप गिरिजा मुग्ध उमा।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। बलिपंथी हो नरेंद्र। सत्पंथी हो सुरेंद्र।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। सदय रहें महाकाल। उम्मत हों देश-भाल।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
१५-४-२०१४
***

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
नर से वानर जब मिले, रावण का हो अंत
'सलिल' न दानव मारते, किन्नर सुर मुनि संत
*
अक्षर की आराधना, हो जीवन का ध्येय
सत-शिव-सुन्दर हो 'सलिल', तब मानव को ज्ञेय
*
सत-चित-आनंद पा सके, नर हो अगर नरेन्द्र
जीवन की जय बोलकर, होता जीव जितेंद्र
*
१५-४-२०२०

प्यार के दोहे

प्यार के दोहे:
तन-मन हैं रथ-सारथी
संजीव 'सलिल'
*
तन-मन हैं रथ-सारथी, नहीं विरोधी जान
एक दूसरे का इन्हें, सच्चा पूरक मान
*
दो पहलू हैं एक ही, सिक्के के नर-नार।
दोनों में पलता सतत, आदि काल से प्यार।।
*
प्यार कभी मनुहार है, प्यार कभी तकरार।
हो तन से अभिव्यक्त या, मन से हो इज़हार।।
*
बिन तन के मन का नहीं, किंचित भी आधार।
बिन मन के तन को नहीं, कर पाते स्वीकार।।
*
दो अपूर्ण मिल एक हों, तब हो पाते पूर्ण।
अंतर से अंतर मिटे, हों तब ही संपूर्ण।।
*
जब लेते स्वीकार तब, मिट जाता है द्वैत।
करते अंगीकार तो, स्थापित हो अद्वैत।।
*
१५-४-२०१०

रविवार, 12 अप्रैल 2020

द्विपदि सलिला (अश'आर)

द्विपदि सलिला  (अश'आर)
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकान हजारों
मैं ढून्ढ-ढून्ढ हारा, घर एक नहीं मिलता
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी
मर गया तो तेरही में दावतें हुईं
*
परवाने जां निसार कर देंगे
हम चरागे-रौशनी तो बन जाएँ
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम
फूल बन महको, चली आएँगी ये
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं 
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'

भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
मुझ बिन न तुझमें जां रहे बोला ये तन से मन
मुझ बिन न तू यहां रहे, तन मन से कह रहा 

*
औरों के ऐब देखकर मन खुश बहुत हुआ
खुद पर पड़ी नज़र तो तना सर ही झुक गया
*
तुम पर उठाई एक, उठी तीन अँगुलियाँ
खुद की तरफ, ये देख कर चक्कर ही आ गया
*
हो आईने से दुश्मनी या दोस्ती 'सलिल'
क्या फर्क? जब मिलेगा, कहेगा वो सच सदा
*
देवों को पूजते हैं जो वो भोग दिखाकर
खुद खा रहे, ये सोच 'इससे कोई डर नहीं'

*
आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि  आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।

*
जानेवाले लौटकर आ जाएँ तो 
आनेवालों को जगह होगी कहाँ?
*
मंच से कुछ पात्र यदि जाएँ नहीं 
मंच पर कुछ पात्र कैसे आयेंगे?
*
जो गया तू उनका मातम मत मना 
शेष हैं जो उनकी भी कुछ फ़िक्र कर  
*
मोह-माया तज गए थे तीर्थ को 
मुक्त माया से हुए तो शोक क्यों?
*
है संसार असार तो छुटने का क्यों शोक?

गए सार की खोज में, मिला सार खुश हो 
*
बहे आँसू मगर माशूक ने नाता नहीं जोड़ा
जलाया दिल, बनाया तिल और दिल लूट लिया 
*
जब तक था दूर कोई मुझे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
ज्योति जलती तो पतंगे लगाते हैं  हाजरी
टेरता है जब तिमिर तो पतंगा आता नहीं
.
हों उपस्थित या जहाँ जो वहीं रचता रहे
सृजन-शाला में रखे, चर्चा करें हम-आप मिल
.
हों अगर मतभेद तो मनभेद हम बनने न दें
कार्य सारस्वत करेंगे हम सभी सद्भाव से
.
जब मिलें सीखें-सिखायें शारदा आशीष दें
विश्व भाषा हैं सनातन हमारी हिंदी अमर
.
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
*
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
*
उनका भगवा हाथ है, इनके पंजे में कमल
आम आदमी को ठगें दोनों का व्यवसाय है
*
'राज्य बनाया है' कहो या 'तोडा है राज्य'
साध रही है सियासत केवल अपना स्वार्थ 
*
दीनदयालु न साथ दें, न ही गरीब नवाज़
नहीं आम से काम है, हैं खासों के साथ
*
चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर 
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
*
सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ 
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है 
*
आह न सुनता किसी दीन की बात दीन की खूब करे 
रोज टेरता खुदा न सुनता मुल्ला हुआ परेशां है

*


हो चुका अवतार, अब हम याद करते हैं मगर 
अनुकरण करते नहीं, क्यों यह विरोधाभास है?
*
कल्पना इतनी मिला दी, सत्य ही दिखता नहीं
पंडितों ने धर्म का, हर दिन किया उपहास है
*
गढ़ दिया राधा-चरित, शत मूर्तियाँ कर दीं खड़ी
हिल गयी जड़ सत्य की, क्या तनिक भी अहसास है?
*
शत विभाजन मिटा, ताकतवर बनाया देश को
कृष्ण ने पर भक्त तोड़ें, रो रहा इतिहास है
*
रूढ़ियों से जूझ गढ़ दें कुछ प्रथाएँ स्वस्थ्य हम
देश हो मजबूत, कहते कृष्ण- 'हर जन खास है'
*
भ्रष्ट शासक आज भी हैं, करें उनका अंत मिल
सत्य जीतेगा न जन को हो सका आभास है
*
फ़र्ज़ पहले बाद में हक़, फल न अपना साध्य हो
चित्र जिसका गुप्त उसका देह यह आवास है.
***


जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण

लेख:

जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' के गीतों में सांस्कृतिक नव्यता 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' हिंदी साहित्य का वह हस्ताक्षर है जिसने ५ दशकों तक महाविद्यालों में हिंदी शिक्षण और साहित्य हिंदी लेखन ही नहीं किया अपितु पूरे नर्मदांचल में हिंदी साहित्यकारों की पीढ़ियाँ भी तैयार कीं। यह अलग बात है कि हिंदी साहित्यकार 'जिस सीढ़ी से चढ़ो उसे सबसे पहले तोड़ दो' की राजनीति का अंधानुकरण कर गुरु को सोपान मानकर विस्मृत कर देते हैं। महाकोशल अंचल के समर्पित स्वतंत्र सत्याग्रही सुकवि माणिकलाल चौरसिया मुसाफिर तथा उनकी धर्मपत्नी गिरिजा बाई ने अपने ज्येष्ठ पुत्र का नाम अपने आदर्श जननायक जवाहरलाल के नाम पर रखा। १५ दिसंबर १९३२ को जन्मे जवाहरलाल ने सागर विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नाकोत्तर (स्वर्णपदक सहित), बी.एड., साहित्य रत्न, तथा विद्या वारिधि आदि उपाधियाँ प्राप्त कीं और मध्यप्रदेश शासन के उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक, आचार्य तथा प्राचार्य पदों पर कर्म निष्ठता के कीर्तिमान स्थापित कर सेवानिवृत्त हुए। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी, निस्वार्थी, सत्यप्रिय, ओजस्वी गायक, समर्पित राष्ट्रप्रेमी तथा अति संवेदनशील व्यक्तित्व के स्वामी रहे। तमसा के दिन करो नमन राष्ट्रीय भावधारा गीत संग्रह १९९२, गोर अंधियारे कारे उजियारे प्रेम /ऋतु गीत संग्रह १९९७, भूकंप भंजिता १९९७, आस्था के शतदल गीत-ग़ज़ल १९९८, घर-आंगन के रंग २००१, जीवन के रंग २००६, दरके दर्पण के विद्रूप २०१६ व  मुक्ता बंध मुक्तक संग्रह २०१६ तरुण जी की काव्य कृतियाँ तथा सुधियों के राजहंस संस्मरणात्मक निबंध संग्रह २००६ व नयी दृष्टि नयी सृष्टि समीक्षा-निबंध संग्रह हैं। तरुण जी कालजयी कार्य 'साहित्यिक गजेटियर जबलपुर' है। तरुण जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक  कुप्. सी सुदर्शन जी के सहपाठी तथा बाल सखा थे। सुदर्शन जी जब जबलपुर आते केशव कुटी में सांगठनिक कार्य कर तरुण निवास पहुँचते और तब दोनों मित्र भोजन करते। संकोचवश वे इसकी चर्चा किसी से न करते, मध्य प्रदेश में बी.जे.पी. की सरकारें रहीं किंतु तरुण जी ने कभी कोई लाभ न लिया। ऐसे सिद्धांतवादी मानव मणि अब दुर्लभ हो गए हैं। 

तरुण जी के लेखन के प्रशंसक अंचल जी, सुमन जी, नीरज जी जैसे दिग्गज भी रहे। उन्हें केशव पाठक, रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', शिवमंगल सिंह 'सुमन', हरिकृष्ण त्रिपाठी, गोपाल दास सक्सेना 'नीरज' आदि से प्रोत्साहन तथा बृजेश माधव, रामकृष्ण दीक्षित 'विश्व', श्रीबाल पांडेय आदि का साहचर्य सतत मिला।  उन्होंने आचार्य भगवत दुबे, डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र, डॉ. राजेंद्र तिवारी 'ऋषि', कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', गोपालकृष्ण चौरसिया 'मधुर', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' तथा अन्य कनिष्ठों को अकुंठ स्नेह सलिला से सिंचित किया। 

हिंदी साहित्य में मांसलतावाद के जनक सुकवि डॉ. रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के शब्दों में "मूलत: गीतकार, कवि जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण'  ने विविध काव्य विधाओं को अपनी तरल अंतरंगता का साक्षी-सहयात्री बनाया किन्तु दिशा-विदिशा की इस व्यापक रचना यात्रा में उसने न तो कभी शब्द को शर्मिंदगी के घाट उतरने दिया... और न कभी अनुभूति और अर्थ की आत्मा को ही लांछन के रेतीले ढूहों में खोने दिया। .... गीतों में हो या मुक्त छंदों में, कवी अपनी ही वाणी में बोलता है। इस वाणी के लिए किसी तयशुदा कसौटी की दरकार नहीं होती।  गीत केवल कवि के द्वारा  ही नहीं समाज के द्वारा गाया जाए .... इसी में उसकी सार्थकता है।' 

गीतों की प्रगति  के साक्षी और प्रगति के गीतों के गायक डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के अनुसार "तरुण जी अपने गीतों में अभिव्यक्त आस्था हुए आशावादिता में अन्तर्निहित लोक कल्याण की मंगल भावना को रेखांकित करते हैं।" हिंदी गेट के शिखर रमानाथ अवस्थी लिखते हैं "तरुण जी संपन्न साहित्य संस्कार के साथ रचनारत हैं ... आपकी रचनाएं सामान्य से लेकर असामान्य पाठक व् श्रोता तक को अनुप्राणित करेंगी।"

तरुण जी के गीतों को पढ़कर नीरज जी लिखते हैं "... इधर शुद्ध गीत विरल हो गया है। गीत के नाम पर अधिकाँश कवि न जाने क्या कूड़ा-कचरा लिख रहे हैं। आपके गीत पढ़कर उसके संबंध में फिर आस्था होती है। गीत के उन्नयन और विकास में आपका योगदान महत्वपूर्ण शब्दों में रेखांकित किया जाएगा।" कुछ वर्ष बाद नीरज जी पूण: लिखते हैं। ..'घर आँगन के रंग' और ज्वाल गीत' दोनों कृतियाँ आज फिर पढ़ीं। घर आँगन के रंग में भीगकर जितना ममत्वपूर्ण चित्रण तुमने अपने समस्त परिवार का किया है, वैसा छन्दांकन मैंने पहले कभी नहीं पढ़ा। घर से अपरिचित होते हुए भी मेरी आँखें सजल हो गयीं, यह अद्भुत कृति है। बधाई। 'ज्वाल गीत' में ऊर्जा का जो ब्रह्मांडीय रूप तुमने छंदांकित किया है, वह तुम्हारे अध्ययन और तुम्हारी अनंत विहारिणी कल्पना की एक मनहरण अभिव्यक्ति है ... नवगीत का सही रूप मुझे आपके गीतों में देखने को मिला। उसको सही भूमि, सही क्षितिज और सही काव्य शिल्प आपने ही प्रदान किया है। आपने गीतों में जीवन के जो अनेक रंग प्रस्तुत किये हैं, वे इंद्रधनुषीय रंग बनकर हिंदी काव्य गगन को शोभयुत करते रहेंगे।... " 

तरुण जी के कृतित्व पर चर्चा के पहले उनके व्यक्तित्व पर चर्चा इसलिए कि इधर गीत-नवगीतों पर हो रही गोष्ठियों, परिचर्चाओं, विशेषांकों और परिसंवादों में उन्हें हाशिये पर भी नहीं रखा जा रहा। संभवत:, स्वयंभू मसीहा बने लोग इतने बौने हैं कि वे समकालिकों के लेखन से भी परिचित नहीं हैं। तरुण जी का असाधारण कृतित्व अभी हाल ही की उपलब्धि है। उन्हें विस्मृत किये जाने का एकमात्र कारण उनका  मठ न बनाना और मठाधीशों को मान्यता न देना ही है। गीत-अगीत, तुकांत-अतुकांत, छंद-अछंद के वाद-विवाद ने हिंदी कविता को अपरिमित क्षति पहुँचाई है। गीत शब्द-चयन और कथ्य-चयन के कंगालपन से बेचैन है। छद्म शोषण, कृत्रिम विसंगति, नकली अभावाभिव्यक्ति, एकांगी स्त्री विमर्श और अतिशय शोकपरकता गीतों का दाम निकलने पर उतारू हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता और प्रगतिवादी के नाम पर गीत विशेषकर तथाकथित नवगीत शोकगीत या रुदाली के परिवर्तित रूप होते जा रहे हैं जहाँ हर्ष, उल्लास, उजास, हास के लिए स्थान ही नहीं है। तरुण जी के गीत जिस समय रचे गए, उस समय से आज तक अनुभूति और अभिव्यक्ति  के जमीनी जुड़ाव की कसौटी पर सौ टका खरे हैं और आगे भी रहेंगे। इन गीतों को पढ़ने-सुननेवाला निराशा के गर्त से उठकर जूझने की मनस्थिति पा सकता है, अपनई पीर को भी गए सकता है, घोर तिमिर में भी दीप जला सकता है।  

तरुण जी के गीत इस भ्रामक धारण को तोड़ते हैं कि गीत आधुनिक जीवन की जटिलता और बिम्ब विविधता को अभिव्यक्त नहीं कर पाता अथवा करता है तो लोकरंजक नहीं रह पाता। स्वयंभू नवगीतवादियों ने अति उत्साह में भाषिक विलक्षणता के नाम पर लोकभाषा का अप्रासंगिक प्रयोग कर गीत के स्वाभाविक विकासक्रम की अनदेखीकर अनगढ़ रचनात्मकता हेतु  गीत के मूल तत्व आतंरिक झंकृति और मर्मस्पर्शिता को किनारे कर देते हैं। तरुण जी जैसे  स्वाभाविक कवि प्रयोगों के पीछे नहीं दौड़ते, प्रयोग उनकी गीतधारा में स्वयमेव प्रवहित होते हैं। तरुण के गीतों में 'ऋतुरंग' और 'माटी से जुड़ाव' धूप-छाँव की तरह साथ-साथ रहते हुए भी नहीं रहते। जीवन का हास और रास देखिये -

धरती को चूम रही गगन की हिलोर 
चुगलखोर मौसम ने मचा दिया शोर 
नदियों ने आँचल से घाट लिए ढाँप 
नाबालिग लहरें, सब देखें चुपचाप 
घन बीरन को राखी बांधे, धरती इंद्रधनुष की 
घन पद परसे, बहिना हरषे, झड़ी लगी आशीष की 
घर आँगन उजलायें जब-जब बिजली बिटिया किलके 
जल बरसे हल्के-हल्के 

स्वातंत्र्योत्तर राजनीति में गाँधी के 'आम आदमी' का लगातार घटता कद और पद गीतकार तरुण की चिंता का विषय है -

राजघाट पर सोनेवाला, सोचो, क्या सोचेगा 
उसके सपनों तक के कत्ले आम हुए जाते हैं 
क्रिया अकर्मक, वचन असंगत, पद-पद खींचातानी 
शेष चिन्ह सब-के-सब पूर्ण विराम हुए जाते हैं 
स्वतंत्र का अमरित विष बन रहा और तुम चुप हो 

पत्थरों के शहर जबलपुर के रहवासी तरुण जी पत्थर पर पड़ती कोटों से  से अपरिचित नहीं पर वे इसे स्वाभाविक मानते हैं -   

यह मेरा निर्माण काल है 
अगर चोट पर चोट 
पड़ रही मुझ पर
तो अचरज ही क्या है 

अटूट आस्था के बल-बूते चोट को हँसकर झेलता कवि मन सामाजिक दर्द और पीड़ा को अपने ही अंदाज़ में अभिव्यक्त करता है- 

कुछ मुझसे ही हटकर ऊँचापन दिखलाते 
जो अनर्थ था
नव समाज में पिटे पिटाये 
वर्ण-भेद के उस बुड्ढे सा 
जो ओवर सिक्सटी है 
जिसकी सभी इन्द्रियाँ पेंशन पर हैं 
पर एप्रोच बड़ी तगड़ी 
सो, एक्सटेंशन पाता जाता है 

सामाजिक-राजनैतिक छीना-झपटी, मारा-मारी को शब्दित करते तरुण जी द्वारा प्रयुक्त बिंब, उपमाएँ  और कहन बेमिसाल है -

औ' लोगों का क्या है.... तुम.... 
हाँ..... तुम..... 
जो मेरे बहुत निकट हो 
जैसे सटी गाल से लट हो 
जैसे ज्वाला और लपट हो 
जैसे माथा चापलूस का 
साहब के दर की चौखट हो 
ज्यों भारत का लोकतंत्र 
औ' दल बदलू का कोई कट हो 
अथवा वियतनाम की हड्डी 
औ' कुत्तों की छीन-झपट हो 
याकि अरब राज्यों का चेहरा 
औ' इजराइल की रहपट हो.... 
ऐसे तुम... हाँ तुम 
जो मेरे बहुत निकट हो.... 

इन गीत पंक्तियों में अन्तर्निहित व्यंजना में करुणा, पीड़ा और विसंगति का अन्यत्र दुर्लभ मिश्रण है। सामान्य शब्दों का विशिष्ट प्रयोग, भाषा की रवानगी, हिंदी अरबी-फारसी, अंग्रेजी के शब्दों की आँख मिचौली, और मुहावरों के तरह जुबान पर चढ़ जाने की सामर्थ्य। नर्मदांचल में जन्मे एक और बड़े कवि भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं, जिन्हें तरुण जी ने गाँठ में बाँध लिया है, ऐसा प्रतीत होता है - 

जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख 
और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख  

छायावाद को यथार्थवाद की भूमि पर अँखुआते देखना आज के परिदृश्य में दुर्लभ है। तरुण जी युगसंधि की साक्षी देते गीतों में अपनी कहन और कथन की छाप छोड़ते हैं- 

हम मति के खेल-खिलौने 
धूप-छाँव के पाले छौने 
हम बौनों के कदम उठे तो... 
गगन नाप आये 

ओ आकाशी! ओ अभिमानी!
तू बस धुआँ, हवा... कुछ पानी 
इस बेमानी सी पूँजी पर... 
इतना इतराये..... 

माटी कितनी ममतामय है 
इसकी गोदी में क्या भय है 
तू हो जाय अभय जो माटी.....
अंग लगा जाये

कवि तरुण की धरती और प्रकृति से अभिन्नता है। पेड़-पौधों पर गीत-नवगीत रचने की जो अलख अनुभूति-अभिव्यक्ति ने अंतरजाल पर जगाई, तरुण जी ने तमाम गीटन के माध्यम से वह अलख जगा चुके थे। उन्होंने अपने परिवेश के सभी पेड़-पौधों को गीत का विषय बनाया-
अंबर ने कौन सी ठिठोली की
धरती के गाल लाल हो बैठे
पवन मनचली मन्तर मार चली
बुझते से मन-मशाल हो बैठे

वर्जना तटों की सुन तुनुक चली धारा
शिखरों ने रोका... तट-तरु ने पुचकारा
माने ना
रुकना जाने ना
सूरज ने रोली सी घोली तो
अंग तरंगित गुलाल हो बैठे

चंपक बरनी सरसों मेड़ की न माने
अलसी के नील नयन उलझे अनजाने
चना-मटर 
करते खुसुर-फुसुर
गेहूं की बाल और अरहर में
गुपचुप कितने सवाल हो बैठे

टोना कर जाएँ, फागुनी हवाएँ
कमसिन अभिलाषाएँ, बहक-बहक जाएँ
उमर ठगे  
ठंडी आग लगे
साँसों में जादू सा जाग चले
हर छीन-दिन इंद्रजाल हो बैठे

तरुण का कवि संकल्पित है, परिवर्तन के लिए, वह तरुण ही क्या जो चुनौती को न स्वीकारे, जिसका संकल्प धरती पर खड़ा होकर अंबर को झुकाने का न हो-

धूलि कणों पर मैं अंबर का शीश झुकाऊँगा
मैं सोने से पाँव पसीने के पुजवाऊँगा
मानव मन मंदिर में मानव की प्राण प्रतिष्ठा कर लूँ
तब साँसों का शमशानों से ब्याह रचाऊँगा

तरुण के संकल्पित पग भटकने से डरे बिना राह पर चल पड़ते हैं, यह मानकर कि अदृष्ट लक्ष्य उनके प्रयासों पर निसार होने से खुद को रोक नाहने सकेगा। उनके लिए भटकना भी मंज़िल पाने की पूर्वपीठिका ही है -
राह दिखाई मंज़िल ने,
ठोकर ने की अगुवाई
चुभते काँटे साथ चले हैं
तब यह मंज़िल पाई

वरुण जी के उपालम्भ मन को बेधते हैं। उनका अपने ईश्वर के साथ नाता भक्त-भगवन का नहीं, हमजोली और सखा का है। इसलिए वे नोंक-झोंक, शिकवे-शिकायत के माध्यम से अपनी बात इस तरह पहुँचाते हैं कि पाठक-श्रोता को अपने मन की बात प्रतीत होती है -

बन गए पाषाण से भवन तुम
यह किसी की भावना का दान है
हो गए अमरत्व की पहचान तुम
अम्र नश्वर अश्रु का वरदान है
*
भक्त रह हूँ मैं कब से जहां में
उमीदों का काबा मगर मिल न पाया
है ज़िद अब जहां पर झुकेगा मेरा सर
वहीं तुमको काबा बनाना पड़ेगा

वे अपने प्रियतम को चुनौती देने से भी नहीं चूकते -

सुनो!
तुम्हें आना ही होगा
मुझको अपनाना ही होगा
ढाई आखर बड़ों-बड़ों को
पानी हैं भरवाते 

तरुण जी ने दोहों में जीवन से समरस हुए प्रतीकों के अछूते प्रयोग कर नूतन बिम्ब छटा से अपनी पृथक पहचान बनाई है -

गगन निर्वसन देखकर, नदिया सिमटी जाय
खेतों की फूटी हँसी, माटी मुँह न दिखाय

तरुण जी ने आज मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, अनुगीत हुए न जाने क्या-क्या कही जा रही 'हिंदी ग़ज़ल' को भी गीत की तरह ही समृद्ध किया है। उनके अनूठे बिम्ब और मौलिक कथन शैली यहाँ भी सबसे अलग और अनूठी है। वस्तुत: वे गीत के कथ्य को ग़ज़ल के शिल्प में ढाल कर प्रस्तुत करते हैं, तो सामान्य ग़ज़लगोई से अलग ही आनंद दे पाते हैं -

ऐसी घटा घिटी पर्वत गुमनाम हुए जाते हैं
सिर्फ धुएँ के आडंबर घनशयाम हुए जाते हैं

राजघाट पर सोनेवाला, सोचो, क्या सोचेगा
उसके सपनों तक के कत्ले-आम हुए जाते हैं

क्रिया अकर्मक, वचन असंगत, पद-पद खींचातानी
शेष चिह्न सबके सब पूर्ण विराम हुए जाते हैं

संस्कारधानी जबलपुर की तीन पीढ़ियाँ तरुण की सृजन यात्रा की साक्षी रही हैं। मेयर सौभाग्य है कि उनसे अकृत्रिम स्नेह मुझे मिला।  जब भी बैठे लंबी और बहुआयामी चर्चाएँ  हुईं। 'साहित्यिक गजेटियर जबलपुर' के विचार पर उन्होंने चर्चा की, मुझे साहित्यकारों के नाम एकत्र करने क्व लियु कहा, अपने पास एकत्रित नाम और उन पर लिखी गयी सामग्री साझा की। अपनी खुद की सामग्री  देने में मुझे संकोच हुआ, फिर बाहर स्थानांतरण पर बाहर चला गया। एक बार किसी पर्व पर अवकाश में गृहनगर आया था, वे बाज़ार में मिल गए। देखते ही बोले "तुम्हें तो याद भी न होगा और बोलूंगा तो भी हाँ कर कर दोगे नहीं। अपना काम बाद में करना, पहले घर चलो। उनका घर सचमुच साहित्य मंदिर था। प्रवेश के साथ ही शारद मंदिर में प्रविष्ट होने की निर्मल प्रतीति होती। सोपानों-दीवारों सर्वत्र सुरुचिपूर्ण कलाकृतियाँ, रांगोली, अल्पना, चौपने आदि, कमरे में वाद्य यंत्र भी और पुस्तकें भी। दुर्लभ संयोग कि उनके परिवार में तीन पीढ़ियों में सभी सदस्य माँ शारदा की कृपा-पात्र हैं और अब चौथी पीढ़ी भी सारस्वत साधना के पथ पर है। उस दिन घर पहुँचने पर भाभी श्री को आवाज़ दी -"सुनती हो, आओ जरा।" भाभी श्री आई., मैंने चरण स्पर्श कर आशीष पाया तो बोले "जरा कुछ मीठा-नमकीन ले आओ, आज इसे सजा दे रहा हूँ।" फिर कागज़ -कलम देते हुए बोले "जब तक साहित्य गजेटियर के लिए लिखकर दे नहीं देते, जा नहीं सकोगे, यही सजा है।''  और ठहाका लगाते हुई भाभी जी की और देखकर बोले "ठीक है न सजा, तुम्हारे देवर के लिए।" भाभी जी मधुर मुस्कान बिखेरती अंदर चली गयीं और मैंने उनके बताये अनुसार संक्षिप्त जानकारी लिखदी।  उन्होंने पढ़ा फिर पूछ-पूछ कर उसे दोगुना किया।  मैंने पूज्य बुआश्री (महीयसी महादेवी जी) का उल्लेख नहीं किया था। उन्होंने इसका कारण पूछा। मैंने कहा की कहाँ वे हिमालय, कहाँ मैं उनके चरणों की धूलि का कण भी नहीं, लोग अन्यथा न सोचें। उन्होंने कहा 'वे शिखर पर हैं, यह ठीक है पर तलहटी न हो तो शिखर कैसे रहेगा? शिखर को ऊपर उठाना चाहिए तो सलिल को निम्नगामी होना होना चाहिए, अन्यथा न प्यास बुझेगी न सागर भरेगा और लोगों के कहने की चिंता तो करनी ही नहीं चाहिए।" तरुण जी विद्वान शिक्षा, श्रेष्ठ कवि ही नहीं, संवेदनशील, विनम्र किन्तु दृढ़ इंसान भी थे। बहुधा श्रेष्ठ व्यक्तित्वों की पहचान उनके जीवन काल में नहीं हो पाती। तरुण जी के अवदान की परख का समय आ रहा है।
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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

"रवींद्र भ्रमर के गीत"



कृति चर्चा:
बदलते नर-नारी संबंधों का पूर्वाभास कराते "रवींद्र भ्रमर के गीत"   
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 

[कृति विवरण: रवींद्र भ्रमर के गीत, डॉ. रवींद्र भ्रमर, गीत संग्रह, पृष्ठ ८६, प्रकाशक - साहित्य भवन प्रा. लि., इलाहाबाद]
*
समाज और साहित्य समानांतर रेखाओं के सदृश्य  के सदृश्य हैं जिनके मध्य पारिस्थितिक सलिल प्रवाह निरंतर होता रहता है। साहित्य तभी स्वीकृत होता है जब उसमें सामाजिक मान्यताओं और परिस्थतियों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया गया हो। समाज को साहित्य में प्रशस्ति तभी मिलती है जब वह सनातन मूल्य परंपरा का अनुसरण करे अथवा उस नव राह का संधान करे जिससे सर्व हित साधन संभव हो। भारतीय समाज और साहित्य दोनों सत्य-शिव और सुन्दर को वरेण्य मानते हैं। भारतीय चिंतन सौंदर्य को दिव्यता या अलौकिकता से संलग्न कर देखता है, उसे मांसल-दैहिक सौंदर्य नश्वर और मायाजाल प्रतीत होता है।  "सौंदर्य बोध जब अपनी उत्कृष्ट अवस्था में पहुँचता है तब वह योग का रूप धारण कर लेता है।१
सृष्टि के सौंदर्य को देकह व्यष्टि के सौंदर्य का स्मरण होना स्वाभाविक है।  हिंदी काव्य साहित्य की गीत-रचना परंपरा की जड़ें संस्कृत तथा अपभ्रंश की उर्वर भूमि में है।२ रवींद्र भ्रमर (जन्म ६ जून १९३४) अलीगढ विश्व विद्यालय में प्राध्यापक रहे हैं। वे भारतीय गीति साहित्य की पृष्ठ भूमि से जुडी मनस्थिति में प्रकृति में प्रिया का साक्षात् करते हैं-
चाँद को झुक-झुक कर देखा है
सांझ की तलैया के
निर्मल जल-दर्पन में
पारे सी बिछलनवाले
चमकीले मन में
रूप की राशि को परेखा है।
दिशा बाहु पाशों में
कसकर नभ साँवरे को
बहुत समझाया है
इस नैना बावरे को
वह पहचाने मुख की रेखा है

यह गीत मन बसी अनछुई अनुभूतियों तथा भावनात्मक स्मृतियों की सरस् अभिव्यक्ति करते हुए एक और नव कविता के समान्तर सामयिक यथार्थ को शब्दायित करता है, दूसरी और प्रेमिका की अनुपस्थिति में भी उससे संलग्न रहने के भावनात्मक आदर्श को अभिव्यक्त करता है।

भमर जी के गीतों का वैशिष्ट्य सहज सम्प्रेषणीयता तथा गहन संवेदन है। जूही के फूलों को देखकर उनके कवि मन की गली गली महक उठती है, सुखद परस से रग रग में चिनगी दहक जाती है,  रोम रोम में साधों के शूल उग आते हैं। ज्योत्सना में नहीं निर्मल पंखुरियों को हाथ से छू कर मलिन करने की भूल के लिए कवि अपने हाथ कटने का दंड भी स्वीकारने को तैयार है। यह गहन संवेदना, यह अनुभूति सचमुच दुर्लभ है -

बाँध लिए
अंजुरी में
जूही के फूल
मधुर गंध
मन की हर एक गली महक गयी
सुखद परस
रग रग में चिनगी सी दहक गयी
रोम रोम
उग आये
साधों के शूल

जोन्हा का जादू
जिन पंखुरियों था फैला
छू गंदे हाथों
मैंने उन्हें किया मैला
हाथ काट लो मेरे
सजा है कबूल
आह!
हो गई मुझसे
एक बड़ी भूल

भ्रमर जी अद्भुत अभिव्यक्ति क्षमता के धनी हैं। 'कम में अधिक' अधिक कहने की कला उनके गीतों की पंक्ति-पंक्ति में है-

एक पल निहारा तुम्हें
एक पल रीत गया
दिपे चनरमा नभ दरपन में
छाया तेरे पारद मन में
पास न मानूँ, दूर न जानूँ
कैसे अंक जुड़ाऊँ?

भ्रमर जी का गीत-लेखन संक्रांति काल की देन है। यह वह समय है जब छयावादी गीत सफलता के शिखर पर पहुँचकर ढलान का सामना कर रहा था। सौन्दर्याभिमुख छायावादी काव्य-दृष्टि कल्पना विलास, कोमलकांत पदावली, अनुल्लंघनीय तुक-लय-ताल बंधन तथा अप्रस्तुत के अत्यधिक प्रस्तुतीकरण आदि के अवांछित बोझ तले दबकर सामयिक यथार्थ बोध जनित नई कविता का सामना नहीं कर पा रही थी। स्वातंत्र्योत्तर सामाजिक बिखराव, राजनैतिक टकराव, और आर्थिक दबाव के बीच प्रगति की आहट, परंपरा छूटने,  और शहरों में जाकर जो मिले लूटने की जद्दोजहद के बीच बुद्धिजीवियों के गढ़ , उर्दू के किले अलीगढ में  हिंदी के ध्वजाधारी भ्रमर जी के गीत युग के नए यथार्थ और नूतन सौंदर्य बोध के प्रतिमान गढ़ते हैं-

घर पीछे तालाब
उगे हैं लाल कमल के ढेर
तुम आँखों में उग आयी हो
प्रात गंध की बेर
यह मौसम कितना उदास लगता है -
तुम बिन

कमलवदना, कमललोचना, कमलाक्षी, पंकजाक्षी, कर कमल, चरण कमल, पद पद्म जैसे पारंपरिक प्रतीकों के स्थान पर भ्रमर कमल का उपयोग सर्वथा नए आयाम में करते हैं। यह उनकी मौलिक सोच और सामर्थ्य को दर्शाता है। यहाँ भ्रमर जी से एक चूक भी हुई है। 'उगे हैं लाल कमल के ढेर' में तथ्य दोष है। कमल एक एक ही उगता है। तोड़कर कमल पुष्प का ढेर लगाया जा सकता है पर कमल ढेर में उग नहीं सकता। इसी गीत के अगले अंतरे में - "हार गूंथ लूँ, किन्तु / करूँ किस वेणी का श्रृंगार' यहाँ भी तथ्य दोष है। वेणी से केशराशि का श्रृंगार किया जाता है, वेणी का श्रृंगार नहीं किया जाता।  नूतनता के नाम पर ऐसे तथ्य दोष स्वीकार्य नहीं हो सकते।

भ्रमर जी द्वारा गीत लेखन के आरम्भ के पूर्व से हो पारम्परिक पुरुष श्रेष्ठता को नकारकर स्त्री विमर्श के स्वर उठने लगे थे किन्तु भ्रमर जी की राधा तब भी युगों पुरानी लीक पीट रही थी -

पाँव लग रहूँगी मौन,
सहूँगी व्यथा,
कह न सकूँगी अपने
स्वप्न की कथा
भाव है
छंद नहीं है
मौन ही बनेगा समर्पन

अन्य गीतों में "बिना दाम ही; नाम तुम्हारे - / मैं बिक बैठी हूँ बनवारी" में भी पारंपरिकता को ही निभाया गया है। नायिका छलिया पाहुन से छली जाकर भी पछताने के सिवाय कुछ नहीं कर पाती, मनो तत्कालीन बम्बइया चलचित्र की ग्रामीण नायिका ही शब्दित हो गई है -

उनसे प्रीत करूँ पछताऊँ
इन्दधनुष सपने सतरंगी
छलिया पाहुन छिन के संगी
नेह लगे की पीर पुतरियन
जागूँ, चैन गँवाऊँ

नायिका पथराई आँखें लिए नायक का पथ अगोरने को विवश है-

"पथ अगोरती आँखें
पथराई हैं,
अवधि जोहती बाँहें
अकुलाई हैं,
जितने क्षण छूटे हैं तुम्हारे बिना
उन सबमें वय के विराम तुम्हें भेजे हैं
जितने क्षण बीते हैं तुम्हारे बिना
उन सबमें प्रणाम तुम्हें भेजे हैं।

नारी की यह बेचारगी अन्यत्र कहीं-कहीं नहीं भी है। कुछ गीतों में नायिका अपने प्रेम को लज्जा या गोपनीयता का विषय न मानकर उसे पूरी प्रगल्भता के साथ उद्घाटित करती है, प्रेमी को पुकारती है-
गुच्छ-गुच्छ फूले कचनार!
भूली-बिसरी राहों लौट आ
ओ मेरे प्यार!

विरह में भी यह नायिका टूटती नहीं है -

आस औ' विश्वास के
पाहुन दगा देते रहे
एक मन पर सैंकड़ों
आघात हम लेते रहे
चोट तो इतनी लगी
मोह के मणिघट न फूटे
रेशमी बंधन न टूटे-
भूल से भी जो बँधे

बदलते समय के साथ बदलती नायिका अब आत्म विश्वास से लबरेज है। वह नायक से उसका दर्द पूछती है -

सुनूँ तो मैं, कहो अपनी पीर मुझसे कहो
बह सको तो बहो, मेरी चेतना में बहो
मैं करूँ हल्का -
तुम्हारे वक्ष का दुःख भार
झाँकने दो मुझे अपने ह्रदय के उस पार -
तोड़ो मौन की दीवार

नायिका का यह आत्मविश्वास नायक को विवश कर देता है कि वह  नायिका की देहरी पर आये।  नायिका घर में होते हुए भी नायक से नहीं मिलती, कह देती है कि घर में नहीं है। प्रगतिशील कविता भले ही प्रगति नहीं कर सकी, पर यह भ्रमर-गीतों की नायिका निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ती रही -

कितनी बार लौट आया हूँ
छू कर बंद किवाड़ तुम्हारे
तुमने खुद आवाज़ बदलकर
है कह दिया कि तुम्हीं नहीं हो,
बाहर कितने काम-काज हैं
उन सबमें ही व्यस्त कहीं हो,

पहले की नायिका जहाँ नायक के आगे प्रेम की दुहाई देते न थकती थी, वहाँ यह नायिका नायक को प्रेम की प्रेम  दुहाई देने और समर्पण करने के लिए विवश कर रही है। नायक ठुकराए जाने पर न आने का निश्चय करता है पर उस पर टिक नहीं पाता -

फिर न कभी आने का निश्चय
कच्चे धागे सा टूटा है
मिथ्या का संकल्प मान
मुट्ठी से खिसक गया-छूटा है

अंतत: चिरौरी विनती ही शेष है -

शीशे में परछाईं  उगती
तुम प्राणों के बीच उगे हो,
प्राण बसे हैं देह-गेह में
तुम अपने हो बहुत सगे हो
ऊपर के पर्दे उतार कर
मुझ छाया को अंक लगा लो,
बाहर की परिकरमा करते
मेरे पाँव तक गए हारे

भ्रमर जी का नायक; नायिका के प्रणय की आकांक्षा पाले सर्वस्व समर्पण हेतु तत्पर है -

मेरा क्षण-क्षण तुम्हें समर्पित
मैं जो हूँ वह तुमको अर्पण-
तुम्हें समर्पण मेरा क्षण-क्षण ...

.... मेरी जीवन धारा तुममें खो जाए
मैं निचोड़ दूँ बूँद बूँद अस्तित्व अहम् का
मेरा कण कण तुम्हें समर्पण

पूरी तरह समर्पित नायक के लिए नायिका विषमतम पलों में सहारा है। यह बिम्ब  यथार्थ जीवन में पति-पत्नी द्वारा मिलकर जीवन नैया खेने और विषम स्थितियों में पत्नी द्वारा सहारा देने की अनगिन घटनाओं के घटित होने के पूर्व लिख गया, जैसे भविष्य की प्रतीति करा रहा है-

दोपहरी के सूरज को मैं झेलूं
दे दो थोड़ी छाँव
रेशमी पट से

जल नागों से लड़कर हारा हूँ मैं
विष बाधाओं बीच तुम्हारा हूँ मैं
गह लो मेरी बाँह उबारो मुझको

जीवन चक्र की अपनी गति और दिशा होती है। नायिका के वर्चस्व की परिणति यह कि नायक को अपना 'स्व' समर्पित करने के बाद भी हर बार हार सिर्फ हार का घूँट पीना पड़ता है। यह स्थिति न तो प्रेम के लिए, न परिवार के लिए सुखद हो सकती है। वर्तमान महानगरीय परिवेश में बिखरते परिवार और टूटने नातों का बहुत पहले पूर्वाभास सा करते हैं रविंद्र भ्रमर के ये गीत। जब ये गीत लिखे गए थे न तब और न अब इन गीतों में नायक-नायिका और परिवारों की तथाकथित प्रगति के पीछे आती हुई विघटन की परछाईं के स्वर सुने गए थे। संभवत:, गीतकार ने भी इस दृष्टि से इन्हें न रचा होगा। कई बार समय और परिस्थितियाँ रचनाओं और रचनाकारों को वह अर्थ और महत्व देता है जो सामान्यत: न मिलता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण दुष्यंत कुमार हैं जिनकी ग़ज़लों को उनके रचनाकाल के समय वह महत्व न मिला जो बाद में आपातकाल लगने पर मिला। दुष्यंत की ग़ज़लों में उर्दू पिंगल की दृष्टि से कई दोष गिनाये गए थे। आपात काल न लगता तो  'कौन कहता है कि आसमान में सूराख नहीं हो सकता', 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो', 'मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा' आदि पंक्तियों से वह निहितार्थ न निकलता जो निकाला गया। कुछ इसी तरह रविंद्र भ्रमर के गीतों की पंक्तियाँ वर्तमान टूटते-बिखरते परिवार और समाज में निरंतर शक्तिशाली होती स्त्री और बिखरते पुरुष के परिदृश्यों को शब्दित करती दिखती हैं। इसकी एक और बानगी देखें -

हर बार
मेरी हार,
मुझको सहज ही स्वीकार
मेरी हार!
केंद्र बन कर रहूँ
फिर भी परिधियों से दूर,
छू न पाऊँ तुम्हें
आकुल प्राण हों मजबूर,
एक आँगन में मिलें हम-
पर न ढह पाए
निगोड़ी बीच की दीवार।

अब तो यह दीवार आँगन तक नहीं रही, कमरे और बिस्तर तक आ पहुँची है। समय पूर्व समय की व्यथा-कथा कहते भ्रमर के गीत भविष्यवाणी करते प्रतीत होते हैं-

ह्रदय का हिमखंड पिघले
पिघलकर जम जाय
धमनियों में रक्त दौड़े
दौड़कर थम जाय
इस व्यथा को तुम न समझो
डुबाता ही रहे मुझको
ज़िंदगी का ज्वार

पराजित हताश नायक की देवदासाना मन:स्थिति जीवन को आनंद से दर्द, बेइंतिहा दर्द की और ले जाती हैं जहाँ कोई आशा, कोई संभावना, कोई सपना शेष नहीं रहता -

ज़िंदगी जीने का दर्द

एक प्याला ज़हर का
जो मौत की रानी के हाथ
बाखुशी हम पी रहे हैं
गो हमें पीने का दर्द

उर्दू के ग्रह में रचनाकर्म करने के बाद भी भ्रमर के गीतों में अपवाद को छोड़कर उर्दू को जगह नहीं मिल सकी जबकि संस्कारित हिंदी के आँचल में देशज शब्द  यत्र-तत्र किलोल करते मिलते हैं। तलैया, बिछलन, परेखा, पारस, चिनगी, पुतरियन, चनरमा,आखर, अगोरते, चँदवे, पिछवाड़े, टिकोरे, पलरों, गेह, छीन, तिरी, पाहुन तिरते, बिज्जुलेखा, कमरी, हिरण, लजवन्ती, बदरी, पियरी, हिय, जुन्हैया, सँझवाती जैसे शब्द पूरी स्वाभाविकता के साथ प्रयुक्त ही नहीं हुए हैं अपितु कथ्य को जीवंत और हृद्स्पर्शी बना सके हैं।

पुनरुक्ति अलंकार भ्रमर जी को प्रिय है। कुछ शब्द जिन्हें प्रयोग किया गया- रोम रोम, झुक झुक, धीरे धीरे, पोर पोर, झर झर, रंध्र रंध्र, संग संग, गुच्छ गुच्छ, जनम जनम, जग जग, बहका बहका, दर दर, सोई सोई, खोई खोई, गली गली, थोड़ी थोड़ी, मह मह, आदि अनेक शब्दों सा प्रयोग कथ्य को बल देने अथवा सरस बनाने हेतु किया गया है।

भ्रमर जी को शब्द युग्म प्रयोग में भी महारत हासिल है। वन उपवन, घर बाहर, भूली बिसरी, तन मन, घर बार, उजली धुली, रिम झिम, काम काज, सांझ सकारे, होरी चौताला, जब तब, फता पुराना, जनम मरन, दृश्य अदृश्य, रंग अंग, जहाँ तहाँ, दुःख सुख आदि कुछ ऐसे ही शब्द युग्म हैं।  

इन गीतों को नवगीत न कहा जाए तो किन्हें कहा जाए? वैचारिक प्रतिबद्धता के पक्षधर समीक्षक अपने विधानों और पैमानों की लाख दुहाई देते रहें, मेरे लिए नवता की इससे बड़ी पहचान नहीं है कि वह रचनाकाल के बाद हर दशक के साथ अधिक से अधिकतर और अधिकतम प्रासंगिक होती जाए। रवींद्र भ्रमर के गीत  न तो छद्म भूख और अभावों का ढिंढोरा पीटते हैं, न ही ए.सी. में रहकर 'वह तोड़ती पत्थर' की दुहाई देते हैं। ये गीत स्त्री विमर्श के खोखले नारे भी नहीं गुँजाते तथापि गीतों के नाईक-नायिका की अनुभूतियों की सटीक अभिव्यक्ति के माध्यम से नर-नारी के निरंतर बदलते रिश्ते और परिस्थिति को उद्घाटित करते हैं। इसलिए वे नारी अधिकारों के प्रचारक न होते भी उसकी पैरवी कर पाते हैं और पुरुष वर्चस्व का विरोध किये बिना, उसके ह्रास को इंगित करते जाते हैं। ये गीत ज़िन्दगी की आँख में आँख डालकर तत्कालीन परिस्थितियों के गर्भ से भविष्य की आहट को अनुभव कर पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त कर पाते हैं। रवींद्र भ्रमर के कतिपय गीतों में वर्णित नायक और नायिका काश फिर एक-दूसरे से कह सकें-

चाँद अभी बाकी है गलने को
रात बहुत व्याकुल है प्राणों में ढलने को
पलकों को नींद नहीं भाये
आँखों में परदेशी मीत हैं समाये

संदर्भ :
१. क्रोचे, अस्थेटिकल हिस्टोरिकल समरी पृष्ठ २५५,
२. वाचिक लोक गीत परंपरा का काव्य शास्त्रीय विश्लेषण कृपाराम रचित 'हिततरंगिणी"

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 सांझ तलैया, जल दर्पण, पारा मन, दिशा बाहुपाश जैसे

दोहा : अवध में कोरोना

दोहा सलिला
आओ यदि रघुवीर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गले न मिलना भरत से, आओ यदि रघुवीर
धर लेगी योगी पुलिस, मिले जेल में पीर
कोरोना कलिकाल में, प्रबल- करें वनवास
कुटिया में सिय सँग रहें, ले अधरों पर हास

शूर्पणखा की काटकर, नाक धोइए हाथ
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, तीर मारकर नाथ

भरत न आएँ अवध में, रहिए नंदीग्राम
सेनेटाइज शत्रुघन, करें- न विधि हो वाम

कैकई क्वारंटाइनी, कितने करतीं लेख
रातों जगें सुमंत्र खुद, रहे व्यवस्था देख

कोसल्या चाहें कुसल, पूज सुमित्रा साथ
मना रहीं कुलदेव को, कर जोड़े नत माथ

देवि उर्मिला मांडवी, पढ़ा रहीं हैं पाठ
साफ-सफाई सब रखें, खास उम्र यदि साठ

श्रुतिकीरति जी देखतीं, परिचर्या हो ठीक
अवधपुरी में सुदृढ़ हो, अनुशासन की लीक

तट के वट नीचे डटे, केवट देखें राह
हर तब्लीगी पुलिस को, सौंप पा रहे वाह

मिला घूमता जो पिटा, सुनी नहीं फरियाद
सख्ती से आदेश निज, मनवा रहे निषाद

निकट न आते, दूर रह वानर तोड़ें फ्रूट
राजाज्ञा सुग्रीव की, मिलकर करो न लूट

रात-रात भर जागकर, करें सुषेण इलाज
कोरोना से विभीषण, ग्रस्त विपद में ताज

भक्त न प्रभु के निकट हों, रोकें खुद हनुमान
मास्क लगाए नाक पर, बैठे दयानिधान

कौन जानकी जान की, कहो करे परवाह?
लव-कुश विश्वामित्र ऋषि, करते फ़िक्र अथाह

वध न अवध में हो सके, कोरोना यह मान
घुसा मगर आदित्य ने, सुखा निकली जान
*
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