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सोमवार, 1 जुलाई 2019

अचल धृति छंद

रसानंद दे छंद नर्मदा ३६ : अचल धृति छंद
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी तथा वासव छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए अचल धृति छंद से
अचल धृति छंद
संजीव
*
छंद विधान: सूत्र: ५ न १ ल, ५ नगण १ लघु = ५ (१ + १ +१ )+१ = हर पद में १६ लघु मात्रा, १६ वर्ण
उदाहरण:
१. कदम / कदम / पर ठ/हर ठ/हर क/र
ठिठक / ठिठक / कर सि/हर सि/हर क/र
हुलस / हुलस / कर म/चल म/चल क/र
मनसि/ज सम / खिल स/लिल ल/हर क/र
२. सतत / अनव/रत प/थ पर / पग ध/र
अचल / फिसल / गर सँ/भल ठि/ठकक/र
रुक म/त झुक / मत चु/क मत / थक म/त
'सलिल' / विहँस/कर प्र/वह ह/हरक/र
३. खिल-खिल ख़िलक़र मुकुलित मनसिज
हिलमिल झटपट चटपट सरसिज
सचल-अचल सब जग कर सुरभित
दिन कर दिनकर सुर - नर प्रमुदित
***

पीयूषवर्ष छंद

एक बहर दो ग़ज़लें
बहर - २१२२ २१२२ २१२
छन्द- महापौराणिक जातीय, पीयूषवर्ष छंद
*
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
बस दिखावे की तुम्हारी प्रीत है
ये भला कोई वफ़ा की रीत है
साथ बस दो चार पल का है यहाँ
फिर जुदा हो जाए मन का मीत है
ज़िंदगी की असलियत है सिर्फ़ ये
चार दिन में जाए जीवन बीत है
फ़िक्र क्यों हो इश्क़ के अंजाम की
प्यार में क्या हार है क्या जीत है
कब ख़लिश चुक जाए ये किसको पता
ज़िंदगी का आखिरी ये गीत है.
*
संजीव
हारिए मत, कोशिशें कुछ और हों
कोशिशों पर कोशिशों के दौर हों
*
श्याम का तन श्याम है तो क्या हुआ?
श्याम मन में राधिका तो गौर हों
*
जेठ की गर्मी-तपिश सह आम में
पत्तियों संग झूमते हँस बौर हों
*
साँझ पर सूरज 'सलिल' है फिर फ़िदा
साँझ के अधरों न किरणें कौर हों
*
'हाय रे! इंसान की मजबूरियाँ / पास रहकर भी हैं कितनी दूरियाँ' गीत इसी बहर में है।

लघु कथा विजय दिवस

लघु कथा
विजय दिवस
*
करगिल विजय की वर्षगांठ को विजय दिवस के रूप में मनाये जाने की खबर पाकर एक मित्र बोले-
'क्या चोर या बदमाश को घर से निकाल बाहर करना विजय कहलाता है?'
''पड़ोसियों को अपने घर से निकल बाहर करने के लिए देश-हितों की उपेक्षा, सीमाओं की अनदेखी, राजनैतिक मतभेदों को राष्ट्रीयता पर वरीयता और पड़ोसियों की ज्यादतियों को सहन करने की बुरी आदत (कुटैव या लत) पर विजय पाने की वर्ष गांठ को विजय दिवस कहना ठीक ही तो है. '' मैंने कहा.
'इसमें गर्व करने जैसा क्या है? यह तो सैनिकों का फ़र्ज़ है, उन्हें इसकी तनखा मिलती है.' -मित्र बोले.
'''तनखा तो हर कर्मचारी को मिलती है लेकिन कितने हैं जो जान पर खेलकर भी फ़र्ज़ निभाते हैं. सैनिक सीमा से जान बचाकर भाग खड़े होते तो हम और आप कैसे बचते?''
'यह तो सेना में भरती होते समय उन्हें पता रहता है.'
पता तो नेताओं को भी रहता है कि उन्हें आम जनता-और देश के हित में काम करना है, वकील जानता है कि उसे मुवक्किल के हित को बचाना है, न्यायाधीश जनता है कि उसे निष्पक्ष रहना है, व्यापारी जनता है कि उसे शुद्ध माल कम से कम मुनाफे में बेचना है, अफसर जानता है कि उसे जनता कि सेवा करना है पर कोई करता है क्या? सेना ने अपने फ़र्ज़ को दिलो-जां से अंजाम दिया इसीलिये वे तारीफ और सलामी के हकदार हैं. विजय दिवस उनके बलिदानों की याद में हमारी श्रद्धांजलि है, इससे नयी पीढी को प्रेरणा मिलेगी.''
प्रगतिवादी मित्र भुनभुनाते हुए सर झुकाए आगे बढ़ गए..
जुलाई 29, 2009
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सवाई /समान छंद


छंद सलिला:
सवाई /समान छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १६-१६, पदांत गुरु लघु लघु ।
लक्षण छंद:
हर चरण समान रख सवाई / झूम झूमकर रहा मोह मन
गुरु लघु लघु ले पदांत, यति / सोलह सोलह रख, मस्त मगन
उदाहरण:
१. राय प्रवीण सुनारी विदुषी / चंपकवर्णी तन-मन भावन
वाक् कूक सी, केश मेघवत / नैना मानसरोवर पावन
सुता शारदा की अनुपम वह / नृत्य-गान, शत छंद विशारद
सदाचार की प्रतिमा नर्तन / करे लगे हर्षाया सावन
२. केशवदास काव्य गुरु पूजित,/ नीति धर्म व्यवहार कलानिधि
रामलला-नटराज पुजारी / लोकपूज्य नृप-मान्य सभी विधि
भाषा-पिंगल शास्त्र निपुण वे / इंद्रजीत नृप के उद्धारक
दिल्लीपति के कपटजाल के / भंजक- त्वरित बुद्धि के साधक
३. दिल्लीपति आदेश: 'प्रवीणा भेजो' नृप करते मन मंथन
प्रेयसि भेजें तो दिल टूटे / अगर न भेजें_ रण, सुख भंजन
देश बचाने गये प्रवीणा /-केशव संग करो प्रभु रक्षण
'बारी कुत्ता काग मात्र ही / करें और का जूठा भक्षण
कहा प्रवीणा ने लज्जा से / शीश झुका खिसयाया था नृप
छिपा रहे मुख हँस दरबारी / दे उपहार पठाया वापिस
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिभंगी, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, समान, सरस, सवाई, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

त्रिभंगी छंद


छंद सलिला:
त्रिभंगी छंद
संजीव
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छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत गुरु, चौकल में पयोधर (लघु गुरु लघु / जगण) निषेध।
लक्षण छंद:
रच छंद त्रिभंगी / रस अनुषंगी / जन-मन संगी / कलम सदा
दस आठ आठ छह / यति गति मति सह / गुरु पदांत कह / सुकवि सदा
उदाहरण:
१. भारत माँ परायी / जग से न्यारी / सब संसारी नमन करें
सुंदर फुलवारी / महके क्यारी / सत आगारी / चमन करें
मत हों व्यापारी / नगद-उधारी / स्वार्थविहारी / तनिक डरें
हों सद आचारी / नीति पुजारी / भू सिंगारी / धर्म धरें
२. मिल कदम बढ़ायें / नग़मे गायें / मंज़िल पायें / बिना थके
'मिल सकें हम गले / नील नभ तले / ऊग रवि ढ़ले / बिना रुके
नित नमन सत्य को / नाद नृत्य को / सुकृत कृत्य को / बिना चुके
शत दीप जलाएं / तिमिर हटायें / भोर उगायें / बिना झुके
३. वैराग-राग जी / तुहिन-आग जी / भजन-फाग जी / अविचल हो
कर दे मन्वन्तर / दुःख छूमंतर / शुचि अभ्यंतर अविकल हो
बन दीप जलेंगे / स्वप्न पलेंगे / कर न मलेंगे / उन्मन हो
मिल स्वेद बहाने / लगन लगाने / अमिय बनाने / मंथन हो
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिभंगी, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

मामा भांजा मंदिर

बस्तर में गंगयुगीन स्थापत्य की अनुपम विरासत – मामा भांजा मंदिर 
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बस्तर के इतिहास में सर्वाधिक उपेक्षा गंग शासकों को प्राप्त हुई है यद्यपि दो सौ वर्ष से कुछ अधिक समय तक (498 – 702 ई.) इस राजवंश का दण्डकारण्य वनांचल में आधिपत्य रहा है। सर्वप्रथम बस्तर की प्राचीनतम संदर्भ कृति बस्तर भूषण (1908) से उद्धरण लेते हैं जहाँ केदारनाथ ठाकुर गंग राजवंश के बारे में उल्लेख करते हैं - “लोगों का कथन है कि जगन्नाथ पुरी के राजा गंगवंशीय थे। उनके छ: औरस संताने थी तथा एक दासीपुत्र था। किसी कारणवश राजा ने औरस पुत्रों को राजगद्दी न दे कर दासीपुत्र को दे दिया। परिणामस्वरूप ये छहों राजकुमार इधर उधर विचरण करने लगे तथा उनमे से एक बस्तर में आ कर बारसूर में राज्य करने लगा। उनके साथ बहुत से विद्वान कारीगर तथा अन्य लोग आये। बारसूर आ कर वह मंदिर बनवाने लगा। उस समय बारसूर बहुत ही बड़ा शहर था; क्योंकि वर्तमान बारसूरगढ के आसपास पूर्व, दक्षिण और पश्चिम तीनो ओर चार चार कोस की दूरी पर अच्छे मंदिर और तालाब बने हुए हैं”। डॉ. हीरालाल शुक्ल (एतिहासिक समारम्भ और बस्तर के नल) मानते हैं कि गंगों ने पाँचवी शताब्दी के अंत में इस क्षेत्र में पदार्पण किया होगा; क्योंकि यही वह अवधि है जब कि स्कन्द वर्मा के पश्चात नल अत्यधिक दुर्बल हो जाते हैं और लगभग दो सौ वर्षों तक वे अंधकार में रहते है।
गंग राजाओं के सम्बन्ध में क्रमवार जानकारियाँ अब भी उपलब्ध नहीं हैं। प्राचीनतम ज्ञात गंग राजा हैं इन्द्रवर्मन प्रथम (537 ई.) जिन्होंने जिरजिंगी दानपत्र (537 ई.) जारी किया था तथा स्वयं वे त्रिकलिंगाधिपति की उपाधि धारण करते थे। उल्लेखनीय है कि त्रिकलिंग के अंतर्गत बस्तर का पर्वतीय क्षेत्र, कोरापुट तथा कालाहाण्डी के क्षेत्र प्रमुखता से आते थे। पोन्नुतुरु दानपत्र (562 ई.) के आधार पर अगले ज्ञात गंग शासक हैं सामंतवर्मन; इस काल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होता है कि इन्होंने दंतपुर को छोड कर सौम्यवन को राजधानी बनाया था। नरसिंहपल्ली ताम्रपत्र (577 ई.) तथा उरलाम दानपत्र (578 ई.) के आधार पर कहा जा सकता है कि अगले ज्ञात गंगवंशी राजा थे हस्तिवर्मन। उपलब्ध साक्ष्य यह संकेत देते हैं कि हस्तिवर्मन का काल युद्धों से भरा रहा तथा उन्हें किसी अरातिसंध के साथ निरंतर युद्धरत रहना पड़ा था। इसके पश्चात इन्द्रवर्मन द्वितीय की जानकारी अच्युतपुरम तथा पारलाखिमेण्डी दानपत्र के आधार पर ज्ञात होती है। अस्पष्ट और आधी अधूरी जानकारियों के बीच तेकाली पत्र (652 ई.) के आधार पर इन्द्रवर्मन तृतीय, चिकाकोल पत्र (681 ई.) के आधार पर देवेन्द्रवर्मन प्रथम तथा धर्मलिंगेश्वर दानपत्र (702 ई.) के आधार पर अनंतवर्मन की जानकारी प्राप्त होती है। इसके पश्चात लगभत 760 ई. तक का समय धीरे धीरे व्यवस्थापरिवर्तन का काल बन गया और दक्षिण से आ कर नागों ने बस्तर क्षेत्र पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया [एतिहासिक समारम्भ और बस्तर के नल]।
गंग राजाओं का बस्तर में कितना और किस तरह का प्रभाव रहा यह विषय अभी किसी इतिहासकार ने नहीं छुवा है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नल राजाओं (ईसा पूर्व 600 से 760 ई. तक) की अशक्तता के कारण बिना किसी बड़े प्रतिरोध के गंग राजवंश जो कि जगन्नाथपुरी से अग्रसारित हुआ था ने दण्ड़क वन क्षेत्र में “बाल सूर्य” (वर्तमान बारसूर) नगर की स्थापना की। गंग-शासकों ने अनेकों मंदिर, तालाब बनवाये। आज का बारसूर ग्राम अपने खंड़हरों को सजोए अतीत की ओर झांकता प्रतीत होता है। जंगल और ग्रामीण बस्तियों में सिमट कर रह गयी अतीत की यह राजधानी उन शासकों को तलाशती है, जिन्हे सभ्यता की इबारत लिखनी थी वे अपने पीछे आदिमता का साम्राज्य कैसे छोड़ गये? इसी प्रश्न के साथ बारसूर की गंगवंशीय प्रमुख विरासत अर्थात मामा-भांजा मंदिर पर बात करते हैं। मामा-भांजा मंदिर; यह नाम सुनने वालों को विचित्र लगता है। वस्तुत: इस मंदिर का नाम इससे जुड़ी दंतकथा के कारण है। कहते हैं कि गंगवंशीय राजा का कोई भांजा उत्कल देश से कारीगरों को बुलवा कर इस मंदिर को बनवा रहा था। मंदिर की सुन्दरता ने राजा के मन में जलन की भावना भर दी। इस मंदिर के स्वामित्व को ले कर मामा-भांजा में युद्ध हुआ। मामा को जान से हाँथ धोना पड़ा। भाँजे ने पत्थर से मामा का सिर बनवा कर मंदिर में लगवा दिया फिर भीतर अपनी मूर्ति भी रखवा दी।
उपरोक्त कथा के आलोक में इस मंदिर का बारीकी से प्रेक्षण करते हैं। मंदिर के स्थापत्य पर बहुत विस्तार से डॉ. कामता प्रसाद वर्मा ने कार्य किया है। उनकी शोध कृति “बस्तर की स्थापत्य कला” से प्राप्त विवरणों को विवेचित किया जाये तो कह सकते हैं कि इस मंदिर के भूविन्यास में गर्भगृह तथा अर्ध मंडप निर्मित हैं। मामा-भांजा मंदिर पूर्वाभिमुख है। इसके मंदिर का गर्भगृह आयताकार है जो पूर्व-पश्चिम में 3.10 मीटर लम्बा और 2.80 मीटर चौडा है। गर्भमंदिर के चारो कोनों में एक एक भित्तिस्तम्भ स्थापित हैं जो वर्गाकार (40X40 सेंमी) है। मध्य के अर्ध-भित्ति स्तम्भ अलंकृत है। इस प्रकार गर्भगृह की एक भित्ति में दो भित्तिस्तम्भों के मध्य में एक अलंकृत अर्धभित्ति स्तम्भ तथा उसके दोनो तरफ सर्पयुग्म, कीर्तिमुख तथा जंजीर सहित घंटी का अलंकरण है। गर्भगृह के वितान में कमलपुष्प खिला हुआ तथा अलंकृत है जिसमे तीन परतों में पंखुडियाँ निर्मित हैं। मंदिर की पश्चिमी भित्ति के सहारे ललितासन में द्विभुजी गणेश प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा के बायी ओर चतुर्भुजी नरसिंह की प्रतिमा रखी हुई है। ये दोनो ही प्रतिमायें बाद में रखी हुई प्रतीत होती हैं। गर्भगृह की द्वार शाखा के ललाट बिम्ब में चतुर्भुजी गणेश बैठे हुए प्रदर्शित हैं। इस मंदिर का अंतराल आयताकार है, इसके चारो कोनों मे एक एक अलंकृत भित्तिस्तम्भ हैं। मंदिर के शिखर में मध्यरथ, अनुरथ तथा कोणरथ स्पष्ट रूप से विभाजित हैं। इन तीनो रथो में उपर से नीचे तक जालिकावत अलंकरण हैं। शिखर के पूर्वीभाग में अर्धकमलपुष्प आकृति के मध्य एक मानवमुख निर्मित है। संभवत: इसी मुखाकृति के कारण ही वह दंतकथा प्रचलित है जिसके कारण इस मंदिर का नाम मामाभांजा मंदिर पडा। शिखर के उपरी भाग में चारो दिशाओं में एक एक योगी की चतुर्भुजी प्रतिमा स्थापित है जिसके उपरी दायें हाथ में त्रिशूल दिखाई पडता है तो दायाँ हाथ वरद मुद्रा में है। योगी के सिर पर पगडी बंधी हुई है। मंदिर के सामने बायें कोने में एक तेलुगू भाषा में लिखा प्रस्तर स्तम्भ जमीन में गडा हुआ है।
पुरातत्व विभाग ने इस स्थल को घेर कर संतोषजनक पुनरुद्धार कार्य किये हैं। तथापि इस मंदिर के विषय में विशेषज्ञों से बहुत कुछ कहा-सुना जाना अभी शेष है। मंदिर से तेलुगुलिपि में लिखे गये प्रस्तर स्तम्भ का क्या सम्बन्ध है इस पर सभी विवरण और विद्वान मौन हैं। यह मंदिर नागों की स्थापत्यकला के भी बहुत करीब है तथा चन्द्रादित्य मंदिर की संरचना से बहुत साम्यता रखता है। तो क्या नागों ने गंगों की विरासत को ही आगे बढाया अथवा मामा-भांगा मंदिर का कोई सम्बन्ध नागों से भी है? संरचात्मक समकालीनता को आधार बना कर डॉ. कामता प्रसाद वर्मा इस मंदिर का निर्माणकाल 1060 ई. के लगभग मानते हैं। यह कालखण्ड तो बस्तर में नाग सत्ता का ही था। बहुत से सवाल उठते हैं जिसके उत्तर बस्तर के अतीत को समझने की दृष्टि से बहुत आवश्यक हैं।

विमर्श: साईं और स्वरूपानंद जी

विमर्श: 
साईं और स्वरूपानंद जी 
संजीव
*
स्वामी स्वरूपानंद द्वारा उठायी गयी साईं संबंधी आपत्ति मुझे बिलकुल ठीक प्रतीत होती है। एक सामान्य व्यक्ति के नाते मेरी जानकारी और चिंतन के आधार पर मेरा मत निम्न है:

१. सनातन: वह जिसका आदि अंत नहीं है अर्थात जो देश, काल, परिस्थिति का नियंत्रण-मार्गदर्शन करने के साथ-साथ खुद को भी चेतन होने के नाते परिवर्तित करता रहता है, जड़ नहीं होता इसी लोए सनातन धर्म में समय-समय पर देवी-देवता , पूजा-पद्धतियाँ, गुरु, स्वामी ही नहीं दार्शनिक विचार धाराएं और संप्रदाय भी पनपते और मान्य होते रहे हैं।
२. देवता: वेदों में ३३ प्रकार के देवता (१२ आदित्य, १८ रूद्र, ८ वसु, १ इंद्र, और प्रजापति) ही नहीं श्री देवी, उषा, गायत्री आदि अन्य अनेक और भी वर्णित हैं। आत्मा सो परमात्मा, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर सो शंकर, कंकर-कंकर में शंकर, शिवोहं, अहम ब्रम्हास्मि जैसी उक्तियाँ तो हर कण को ईश्वर कहती हैं। आचार्य रजनीश ने खुद को ओशो कहा और आपत्तिकर्ताओं को उत्तर दिया कि तुम भी ओशो हो अंतर यह है की मैं जानता हूँ कि मैं ओशो हूँ, तुम नहीं जानते। अतः साईं को कोई साईं भक्त भगवान माँने और पूजे इसमें किसी सनातन धर्मी को आपत्ति नहीं हो सकती।
३. रामायण महाभारत ही नहीं अन्य वेद, पुराण, उपनिषद, आगम, निगम, ब्राम्हण ग्रन्थ आदि भी न केवल इतिहास हैं न आख्यान या गल्प। भारत में सृजन दार्शनिक चिंतन पर आधारित रहा है। ग्रंथों में पश्चिम की तरह व्यक्तिपरकता नहीं है, यहाँ मूल्यात्मक चिंतन प्रमुख है। दृष्टान्तों या कथाओं का प्रयोग किसी चिंतनधारा को आम लोगों तक प्रत्यक्ष या परोक्षतः पहुँचाने के लिए किया गया है। अतः सभी ग्रंथों में इतिहास, आख्यान, दर्शन और अन्य शाखाओं का मिश्रण है। 
देवताओं को विविध आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा: जन्मा - अजन्मा, आर्य - अनार्य, वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक, सतयुगीन - त्रेतायुगीन - द्वापरयुगीन कलियुगीन, पुरुष देवता - स्त्री देवता आदि।

४. बाली, शंबूक, बर्बरीक, अश्वत्थामा, दुर्योधन जैसे अन्य भी अनेक प्रसंग हैं किन्तु इनका साईं से कुछ लेना-देना नहीं है। इनपर अलग-अलग चर्चा हो सकती है। राम और कृष्ण का देवत्व इन पर निर्भर नहीं है।
५. बुद्ध और महावीर का सनातन धर्म से विरोध और नव पंथों की स्थापना लगभग समकालिक होते हुए भी बुद्ध को अवतार मानना और महावीर को अवतार न मानना अर्थात बौद्धों को सनातनधर्मी माना जाना और जैनियों को सनातन धर्मी न माना जाना भी साईं से जुड़ा विषय नहीं है और पृथक विवेचन चाहता है।
६. अवतारवाद के अनुसार देवी - देवता कारण विशेष से प्रगट होते हैं फिर अदृश्य हो जाते हैं, इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वे नष्ट हो जाते हैं। वे किसी वाहन से नहीं आते - जाते, वे शक्तियां रूपांतरित या स्थानांतरित होकर भी पुनः प्रगट होती हैं, एक साथ अनेक स्थानों पर भी प्रगट हो सकती हैं। यह केवल सनातन धर्म नहीं इस्लाम, ईसाई आय अन्य धर्मों में भी वर्णित है। हरि अनंत हरि कथा अनंता, उनके रूप भी अनंत हैं, प्रभु एक हैं वे भक्त की भावनानुसार प्रगट होते हैं, इसीलिए एक ईश्वर के भी अनेक रूप हैं गोपाल, मधुसूदन, श्याम, कान्हा, मुरारी आदि। इनके मन्त्र, पूजन विधि, साहित्य, कथाएं, माहात्म्य भी अलग हैं पर इनमें अंतर्विरोध नहीं है। सत्यनारायण, शालिग्राम, नृसिंह और अन्य विष्णु के ही अवतार कहे गये हैं।
७. गौतमी, सरस्वती और ऐसे ही अनेक अन्य प्रकरण यही स्थापित करते हैं की सर्व शक्तिमान होने के बाद भी देवता आम जनों से ऊपर विशेषधिकार प्राप्त नहीं हैं, जब वे देह धारण करते हैं तो उनसे भी सामान्य मनुष्यों की तरह गलतियां होती हैं और उन्हें भी इसका दंड भोगना होता है। 'to err is human' का सिद्धांत ही यहाँ बिम्बित है। कर्मफलवाद गीता में भी वर्णित है।
८. रामानंद, नानक, कबीर, चैतन्य, तुलसी, सूर, कबीर, नानक, मीरा या अन्य सूफी फकीर सभी अपने इष्ट के उपासक हैं। 'राम ते अधिक राम के दासा'… सनातन धर्मी किसी देव के भाकर से द्वेष नहीं करता। सिख का अस्तित्व ही सनातन की रक्षा के लिए है, उसे धर्म, पंथ, सम्प्रदाय कुछ भी कहें वह "ॐ" ओंकार का ही पूजक है। एक अकाल पुरुख परमब्रम्ह ही है। सनातन धर्मी गुरुद्वारों को पूजास्थली ही मानता है। गुरुओं ने भी राम,कृष्णादि को देवता मन कर वंदना की है और उनपर साहित्य रचा है।
९. वाल्मीकि को रामभक्त और आदिकवि के नाते हर सनातनधर्मी पूज्य मानता है। कोई उनका मंदिर बनाकर पूजे तो किसी को क्या आपत्ति? कबीर, तुलसी, मीरा की मूर्तियां भी पूजा ग्रहों और मंदिरों में मिल जायेंगी।
१०. साईं ईश्वरतत्व के प्रति नहीं साईं को अन्य धर्मावलम्बियों के मंदिरों, पूजाविधियों और मन्त्रों में घुसेड़े जाने का विरोध है। नमाज की आयात में, ग्रंथसाहब के सबद में, बाइबल के किसी अंश में साईं नाम रखकर देखें आपको उनकी प्रतिक्रिया मिल जाएगी। सनातन धर्मी ही सर्वाधिक सहिष्णु है इसलिए इतने दिनों तक झेलता रहा किन्तु कमशः साईं के नाम पर अन्य देवी-देवताओं के स्थानों पर बेजा कब्ज़ा तथा मूल स्थान पर अति व्यावसायिकता के कारन यह स्वर उठा है।
अंत में एक सत्य और स्वरूपानंद जी के प्रति उनके कांग्रेस मोह और दिग्विजय सिंग जैसे भ्रष्ट नेताओं के प्रति स्नेह भाव के कारण सनातनधर्मियों की बहुत श्रद्धा नहीं रही। मैं जबलपुर में रहते हुए भी आज तक उन तक नहीं गया। किन्तु एक प्रसंग में असहमति से व्यक्ति हमेशा के लिए और पूरी तरह गलत नहीं होता। साईं प्रसंग में स्वरूपानंद जी ने सनातनधर्मियों के मन में छिपे आक्रोश, क्षोभ और असंतोष को वाणी देकर उनका सम्मान पाया है। यह दायित्व साइभक्तों का है की वे अपने स्थानों से अन्य देवी-देवताओं के नाम हटाकर उन्हें साईं को इष्ट सादगी, सरलता और शुचितापरक कार्यपद्धति अपनाकर अन्यों का विश्वास जीतें। चढोत्री में आये धन का उपयोग स्थान को स्वर्ण से मरहने के स्थान पर उन दरिद्रों के कल्याण के लिए हो जिनकी सेवा करने का साईं ने उपदेश दिया। अनेक इत्रों के बयां पढ़े हैं की वे स्वरूपानंद जी के बीसियों वर्षों से भक्त हैं पर साईं सम्बन्धी वक्तव्य से उनकी श्रद्धा नष्ट हो गयी। ये कैसा शिष्यत्व है जो दोहरी निष्ठां ही नहीं रखता गुरु की कोई बात समझ न आने पर गुरु से मार्गदर्शन नहीं लेता, सत्य नहीं समझता और उसकी बरसों की श्रद्धा पल में नष्ट हो जाती है?
अस्तु साईं प्रसंग में स्वरूपानंद जी द्वारा उठाई गयी आपत्ति से सहमत हूँ। 

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
नहीं कार्य का अंत है, नहीं कार्य में तंत। माया है सारा जगत, कहते ज्ञानी संत।।
*
आता-जाता कब समय, आते-जाते लोग। जो चाहें वह कार्य कर, नहीं मनाएँ सोग।।
*
अपनी-पानी चाह है, अपनी-पानी राह। करें वही जो मन रुचे, पाएँ उसकी थाह।।
*
एक वही है चौधरी, जग जिसकी चौपाल। विनय उसी से सब करें, सुन कर करे निहाल।।
*
जीव न जग में उलझकर, देखे उसकी ओर। हो संजीव न चाहता, हटे कृपा की कोर।।
*
मंजुल मूरत श्याम की, कण-कण में अभिराम। देख सके तो देख ले, करले विनत प्रणाम।।
*
कृष्णा से कब रह सके, कृष्ण कभी भी दूर।
उनके कर में बाँसुरी, इनका मन संतूर।।
*
अपनी करनी कर सदा, कथनी कर ले मौन। किस पल उससे भेंट हो, कह पाया कब-कौन??
*
करता वह, कर्ता वही, मानव मात्र निमित्त। निर्णायक खुद को समझ, भरमाता है चित्त।।
*
चित्रकार वह; दृश्य वह, वही चित्र है मित्र।
जीव समझता स्वयं को, माया यही विचित्र।।
*
बिंब प्रदीपा ज्योति का, सलिल-धार में देख।
निज प्रकाश मत समझ रे!, चित्त तनिक सच लेख।।
***
३०.६.२०१८, ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४

शनिवार, 29 जून 2019

पद

पद 
छंद: दोहा.
*
मन मंदिर में बैठे श्याम।।
नटखट-चंचल सुकोमल, भावन छवि अभिराम।
देख लाज से गड़ रहे, नभ सज्जित घनश्याम।।
मेघ मृदंग बजा रहे, पवन जप रहा नाम।
मंजु राधिका मुग्ध मन, छेड़ रहीं अविराम।।
छीन बंसरी अधर धर, कहें न करती काम।
कहें श्याम दो फूँक तब, जब मन हो निष्काम।।
चाह न तजना है मुझे, रहें विधाता वाम।
ये लो अपनी बंसरी, दे दो अपना नाम।।
तुम हो जाओ राधिका, मुझे बना दो श्याम।
श्याम थाम कर हँस रहे, मैं गुलाम बेदाम।।
***
२९.६.२०१२, ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४

सड़गोड़ासनी

सड़गोड़ासनी: 
जनम भओ किस बिरिया
बुंदेली छंद, विधान: मुखड़ा १५-१६, ४ मात्रा पश्चात् गुरु लघु अनिवार्य,
अंतरा १६-१२, मुखड़ा-अन्तरा सम तुकांत . 

जनम भओ किस बिरिया? सोचो 
मरण हुआ कब जानो? 

*
जब-जब सत्य प्रतीति हुई तब
कह-कह नित्य बखानो.
*
जब-जब सच ओझल हो प्यारे!
निज करनी अनुमानो.
*
चलो सत्य की डगर पकड़ तो
मीत न अरि कुछ मानो.
*
देख तिमिर मत मूँदो नयना
अंतर-दीप जलानो.
*
तन-मन-देश न मलिन रहे मिल
स्वच्छ करेंगे ठानो.
*
ज्यों की त्यों चादर तब जब
जग सपना विहँस भुलानो.
***
२९.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तिका

समस्यापूर्ति 
प्रदत्त पंक्ति- मैं जग को दिल के दाग दिखा दूँ कैसे - बलबीर सिंह।
*
मुक्तिका:
(२२ मात्रिक महारौद्र जातीय राधिका छंद) 
मैं जग को दिल के दाग, दिखा दूँ कैसे?
अपने ही घर में आग, लगा दूँ कैसे?
*
औरों को हँसकर सजा सुना सकता हूँ
अपनों को खुद दे सजा, सजा दूँ कैसे?
*
सेना को गाली बकूँ, सियासत कहकर
निज सुत सेना में कहो, भिजा दूँ कैसे?
*
तेरी खिड़की में ताक-झाँक कर खुश हूँ
अपनी खिड़की मैं तुझे दिखा दूँ कैसे?
*
'लाइक' कर दूँ सब लिखा, जहाँ जो जिसने
क्या-कैसे लिखना, कहाँ सिखा दूँ कैसे?
*

गीत

गीत:
कहे कहानी, आँख का पानी.
*
कहे कहानी, आँख का पानी.
की सो की, मत कर नादानी...
*

बरखा आई, रिमझिम लाई.
नदी नवोढ़ा सी इठलाई..
ताल भरे दादुर टर्राये.
शतदल कमल खिले मन भाये..
वसुधा ओढ़े हरी चुनरिया.
बीरबहूटी बनी गुजरिया..
मेघ-दामिनी आँख मिचोली.
खेलें देखे ऊषा भोली..
संध्या-रजनी सखी सुहानी.
कहे कहानी, आँख का पानी...
*
पाला-कोहरा साथी-संगी.
आये साथ, करें हुडदंगी..
दूल्हा जाड़ा सजा अनूठा.
ठिठुरे रवि सहबाला रूठा..
कुसुम-कली पर झूमे भँवरा.
टेर चिरैया चिड़वा सँवरा..
चूड़ी पायल कंगन खनके.
सुन-गुन पनघट के पग बहके.
जो जी चाहे करे जवानी.
कहे कहानी, आँख का पानी....
*
अमन-चैन सब हुई उड़न छू.
सन-सन, सांय-सांय चलती लू..
लंगड़ा चौसा आम दशहरी
खाएँ ख़ास न करते देरी..
कूलर, ए.सी., परदे खस के.
दिल में बसी याद चुप कसके..
बन्ना-बन्नी, चैती-सोहर.
सोंठ-हरीरा, खा-पी जीभर..
कागा सुन कोयल की बानी.
कहे कहानी, आँख का पानी..
***
२९-६-२०१०
*

रचना-प्रतिरचना राकेश खण्डेलवाल-संजीव

रचना-प्रतिरचना 
राकेश खण्डेलवाल-संजीव 
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है 
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
अभय दान जो मांगा करते उन हाथों में शक्ति नहीं है
पाना है अधिकार अगर तो कमर बांध कर लड़ना होगा
कौन व्यवस्था का अनुयायी? केवल हम हैं या फिर तुम हो
अपना हर संकल्प हमीं को अपने आप बदलना होगा
मूक समर्थन कृत्य हुआ है केवल चारण का भाटों का
विद्रोहों के ज्वालमुखी को फिर से हमें जगाना होगा
रहे लुटाते सिद्धांतों पर और मानयताओं पर् अपना
सहज समर्पण कर दे ऐसा पास हमारे ह्रदय नहीं है
अपराधी है कौन दशा का ? जितने वे हैं उतने हम है
हमने ही तो दुत्कारा है मधुमासों को कहकर नीरस
यदि लौट रही स्वर की लहरें कंगूरों से टकरा टकरा
हम क्यों हो मौन ताकते हैं उनको फिर खाली हाथ विवश
अपनी सीमितता नजरों की अटकी है चौथ चन्द्रमा में
रह गयी प्रतीक्षा करती ही द्वारे पर खड़ी हुई चौदस
दुर्गमता से पथ की डरकर जो ्रहे नीड़ में छुपा हुआ
र्ग गंध चूमें आ उसको, ऐसी कोई वज़ह नहीं है
द्रोण अगर ठुकरा भी दे तो एकलव्य तुम खुद बन जाओ
तरकस भरा हुआ है मत का, चलो तीर अपने संधानो
बिना तुम्हारी स्वीकृति के अस्तित्व नहीं सुर का असुरों का
रही कसौटी पास तुम्हारे , अन्तर तुम खुद ही पहचानो
पर्वत, नदिया, वन उपवन सब गति के सन्मुख झुक जाते हैं
कोई बाधा नहीं अगर तुम निश्चय अपने मन में ठानो
सत्ताधारी हों निशुम्भ से या कि शुम्भ से या रावण से
बतलाता इतिहास राज कोई भी रहता अजय नहीं है.
***
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
बिना विचारे कदम उठाना, क्या खुद लाना प्रलय नहीं है?
*
सुर-असुरों ने एक साथ मिल, नर-वानर को तंग किया है
इनकी ही खातिर मर-मिटकर नर ने जब-तब जंग किया है
महादेव सुर और असुर पर हुए सदय, नर रहा उपेक्षित
अमिय मिला नर को भूले सब, सुर-असुरों ने द्वन्द किया है
मतभेदों को मनभेदों में बदल, रहा कमजोर सदा नर
चंचल वृत्ति, न सदा टिक सका एक जगह पर किंचित वानर
ऋक्ष-उलूक-नाग भी हारे, येन-केन छल कर हरि जीते
नारी का सतीत्व हरने से कब चूके, पर बने पूज्यवर
महाकाल या काल सत्य पर रहा अधिकतर सदय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
अपराधी ही न्याय करे तो निरपराध को मरना होगा
ताकतवर के अपराधों का दण्ड निबल को भरना होगा
पूँजीपतियों के इंगित पर सत्ता नाच नाचती युग से
निरपराध सीता को वन जा वनजा बनकर छिपना होगा
घंटों खलनायक की जय-जय, युद्ध अंत में नायक जीते
लव-कुश कीर्ति राम की गायें, हाथ सिया के हरदम रीते
नर नरेंद्र हो तो भी माया-ममता बैरन हो जाती हैं
आप शाप बन अनुभव पाता-देता पल-पल कड़वे-तीते
बहा पसीना फसल उगाए जो वह भूखा ही जाता है मर
लोभतंत्र से लोकतंत्र की मृत्यु यही क्या प्रलय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
कितना भी विपरीत समय हो, जिजीविषा की ही होगी जय
जो बाकी रह जायें वे मिल, काम करें निष्काम बिना भय
भीष्म कर्ण कृप द्रोण शकुनि के दिन बीते अलविदा उन्हें कह
धृतराष्ट्री हर परंपरा को नष्ट करे नव दृष्टि-धनञ्जय
मंज़िल जय करना है यदि तो कदम-कदम मिल बढ़ना होगा
मतभेदों को दबा नींव में, महल ऐक्य का गढ़ना होगा
दल का दलदल रोक रहां पथ राष्ट्रीय सरकार बनाकर
विश्व शक्तियों के गढ़ पर भी वक़्त पड़े तो चढ़ना होगा
दल-सीमा से मुक्त प्रमुख हो, सकल देश-जनगण का वक्ता
प्रत्यारोपों-आरोपों के समाचार क्या अनय नहीं है?
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
२९-६-२०१६

गीत

एक रचना 
*
चाँदनी में नहा 
चाँदनी महमहा 
रात-रानी हुई 
कुछ दीवानी हुई
*
रातरानी खिली
मोगरे से मिली
हरसिंगारी ग़ज़ल
सुन गया मन मचल
देख टेसू दहा
चाँदनी में नहा
*
रंग पलाशी चढ़ा
कुछ नशा सा बढ़ा
बालमा चंपई
तक जुही मत मुई
छिप फ़साना कहा
चाँदनी में नहा
*
२९-६-२०१६

दोहा नीति का

एक दोहा नीति का अपने विचार लिखें.
ज्ञानवती दीक्षित:
एक अच्छा सा श्लोक पढा।आपको भी पढवाती हूँ ।
व्याघ्रानां महत् निद्रा, सर्पानां च महद् भयम् ।
ब्राह्मणानाम् अनेकत्वं, तस्मात् जीवन्ति जन्तवः ।।
.
शेरों को नींद बहुत आती है, सांपों को डर बहुत लगता है, और ब्राह्मणों में एकता नही है, इसीलिए सभी जीव जी रहे है ।
.
नाहर को निंदिया बहुत, नागराज भयभीत।
फूट विप्र में हुई तो, गयी जिंदगी जीत।। -सलिल
***

बुन्देली मुक्तिका

बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
संजीव
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए। 
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
*

गीत: आँख का पानी

गीत: आँख का पानी...
--संजीव 'सलिल'
*
कहे कहानी, आँख का पानी.
की सो की, मत कर नादानी...
बरखा आई, रिमझिम लाई.
नदी नवोढ़ा सी इठलाई..
ताल भरे दादुर टर्राये.
शतदल कमल खिले मन भाये..
वसुधा ओढ़े हरी चुनरिया.
बीरबहूटी बनी गुजरिया..
मेघ-दामिनी आँख मिचोली.
खेलें देखे ऊषा भोली..
संध्या-रजनी सखी सुहानी.
कहे कहानी, आँख का पानी...
पाला-कोहरा साथी-संगी.
आये साथ, करें हुडदंगी..
दूल्हा जाड़ा सजा अनूठा.
ठिठुरे रवि सहबाला रूठा..
कुसुम-कली पर झूमे भँवरा.
टेर चिरैया चिड़वा सँवरा..
चूड़ी पायल कंगन खनके.
सुन-गुन पनघट के पग बहके.
जो जी चाहे करे जवानी.
कहे कहानी, आँख का पानी....
अमन-चैन सब हुई उड़न छू.
सन-सन, सांय-सांय चलती लू..
लंगड़ा चौसा आम दशहरी
खाएँ ख़ास न करते देरी..
कूलर, ए.सी., परदे खस के.
दिल में बसी याद चुप कसके..
बन्ना-बन्नी, चैती-सोहर.
सोंठ-हरीरा, खा-पी जीभर..
कागा सुन कोयल की बानी.
कहे कहानी, आँख का पानी..

शुक्रवार, 28 जून 2019

समीक्षा काल है संक्रांति का -भगवत दुबे

पुस्तक चर्चा-
संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवी की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेद नात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधर, आपदा निवारण व् शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं। इंजीनियर्स फॉर्म (भारत) के महामंत्री के अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सथक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं। अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प ले साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के रपति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिप माल दो
जगो, उठो।'
उठो सूरज, जागो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिम उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ते फूल।'
गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'में हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवी ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'
पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री
समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायेन दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
कवी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
आचार्य भगवत दुबे
महामंत्री कादंबरी
पिसनहारी मढ़िया के निकट
जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५

दोहा मुक्तिका

दोहा मुक्तिका:
काम न आता प्यार 
काम न आता प्यार यदि, क्यों करता करतार।। 
जो दिल बस; ले दिल बसा, वह सच्चा दिलदार।। 
*
जां की बाजी लगे तो, काम न आता प्यार।
सरहद पर अरि शीश ले, पहले 'सलिल' उतार।।
*
तूफानों में थाम लो, दृढ़ता से पतवार।
काम न आता प्यार गर, घिरे हुए मझधार।।
*
गैरों को अपना बना, दूर करें तकरार।
कभी न घर में रह कहें, काम न आता प्यार।।
*
बिना बोले ही बोलना, अगर हुआ स्वीकार।
'सलिल' नहीं कह सकोगे, काम न आता प्यार।।
*
मिले नहीं बाज़ार में, दो कौड़ी भी दाम।
काम न आता प्यार जब, रहे विधाता वाम।।
*
राजनीति में कभी भी, काम न आता प्यार।
दाँव-पेंच; छल-कपट से, जीवन हो निस्सार।।
*
काम न आता प्यार कह, करें नहीं तकरार।
कहीं काम मनुहार दे, कहीं काम इसरार।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

दोहा संवाद

दोहा सलिला: 
*
हर्ष; खुशी; उल्लास; सुख, या आनंद-प्रमोद। 
हैं आकाश-कुसुम 'सलिल', अब आल्हाद विनोद।।
*
कहीं न हैपीनेस है, हुआ लापता जॉय।
हाथों में हालात के, ह्युमन बीइंग टॉय।।
*
एक दूसरे से मिलें, जब मन जाए झूम।
तब जीवन का अर्थ हो, सही हमें मालूम।।
*
मेरे अधरों पर खिले, तुझे देख मुस्कान।
तेरे लब यदि हँस पड़ें, पड़े जान में जान।।
*
तू-तू मैं-मैं भुलकर, मैं तू हम हों मीत।
तो हर मुश्किल जीत लें, यह जीवन की रीत।।
*
श्वास-आस संबंध बो, हरिया जीवन-खेत।
राग-द्वेष कंटक हटा, मतभेदों की रेत।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
दोहा संवाद:
बिना कहे कहना 'सलिल', सिखला देता वक्त।
सुन औरों की बात पर, कर मन की कमबख्त।।
*
आवन जावन जगत में,सब कुछ स्वप्न समान।
मैं गिरधर के रंग रंगी, मान सके तो मान।। - लता यादव
*
लता न गिरि को धर सके, गिरि पर लता अनेक।
दोहा पढ़कर हँस रहे, गिरिधर गिरि वर एक।। -संजीव
*
मैं मोहन की राधिका, नित उठ करूँ गुहार।
चरण शरण रख लो मुझे, सुनकर नाथ पुकार।। - लता यादव
*
मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
कहे राधिका साधिका, कर मत मुझे वियुक्त।। -संजीव
*
ना मैं जानूँ साधना, ना जानूँ कुछ रीत।
मन ही मन मनका फिरे,कैसी है ये प्रीत।। - लता यादव
*
करे साधना साधना, मिट जाती हर व्याध।
करे काम ना कामना, स्वार्थ रही आराध।। -संजीव
*
सोच सोच हारी सखी, सूझे तनिक न युक्ति ।
जन्म-मरण के फेर से, दिलवा दे जो मुक्ति।। -लता यादव
*
नित्य भोर हो जन फिर, नित्य रात हो मौत।
तन सो-जगता मन मगर, मौन हो रहा फौत।। -संजीव
*
वाणी पर संयम रखूँ, मुझको दो आशीष।
दोहे उत्तम रच सकूँ, कृपा करो जगदीश।। -लता यादव
*
हरि न मौन होते कभी, शब्द-शब्द में व्याप्त।
गीता-वचन उचारते, विश्व सुने चुप आप्त।। -संजीव
*
२८-६-२०१८, ७९९९५५९६१८