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गुरुवार, 9 मई 2019

नवगीत फुटपाथों पर

नवगीत:
फुटपाथों पर 
*
जो 'फुट' पर चलते 
पलते हैं 'पाथों' पर 
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर 
*
बेलाइसेंसी कारोंवालों शर्म करो
मदहोशी में जब कोई दुष्कर्म करो
माफी मांगों, सजा भोग लो आगे आ
जिनको कुचला उन्हें पाल कुछ धर्म करो
धन-दौलत पर बहुत अधिक इतराओ मत
बहुत अधिक मोटा मत अपना चर्म करो
दिन भर मेहनत कर
जो थककर सोते हैं
पड़ते छाले उनके
हाथों-पांवों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
महलों के अंदर रहकर तुम ऐश करो
किसने दिया तुम्हें हक़ ड्राइविंग रैश करो
येन-केन बचने के लिये वकील लगा
झूठे लाओ गवाह खर्च नित कैश करो
चुल्लू भर पानी में जाकर डूब मारो
सत्य-असत्य कोर्ट में मत तुम मैश करो
न्यायालय में न्याय
तनिक हो जाने दो
जनगण क्यों चुप्पी
साधे ज़ज़्बातों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
स्वार्थ सध रहे जिनके वे ही संग जुटे
उनकी सोचो जिनके जीवन-ख्वाब लुटे
जो बेवक़्त बोलते कड़वे बोल यहाँ
जनता को मिल जाएँ अगर बेभाव कुटें
कहे शरीयत जान, जान के बदले दो
दम है मंज़ूर करो, मसला सुलटे
हो मासूम अगर तो
माँगो दण्ड स्वयं
लज्जित होना सीखो
हुए गुनाहों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
८-५-२०१५

शंका समाधान- दोहा

शंका समाधान:
उसने क्यों सिरजा मुझे, मकसद जाने कौन?
जिससे पूछा वही चुप, मैं खुद तोडूँ मौन.
*
मकसद केवल एक है, मिट्टी ले आकार.
हर कंकर शंकर बने, नियति करे स्वीकार..
हाथों की रेखा कहे, मिटा न मुझको मीत.
अन्यों से ज्यादा बड़ी, खींच- सही है रीत..
**
९-५-२०१०

गीत

गीत:
संजीव
*
आन के स्तन न होते, किस तरह तन पुष्ट होता
जान कैसे जान पाती, मान कब संतुष्ट होता?
*
पय रहे पी निरन्तर विष को उगलते हम न थकते
लक्ष्य भूले पग भटकते थक गये फ़िर भी न थकते
मौन तकते हैं गगन को कहीँ क़ोई पथ दिखा दे
काश! अपनापन न अपनोँ से कभी भी रुष्ट होता
*
पय पिया संग-संग अचेतन को मिली थी चेतना भी
पयस्वनि ने कब बतायी उसे कैसी वेदना थी?
प्यार संग तकरार या इंकार को स्वीकार करना
काश! हम भी सीख पाते तो मनस परिपुष्ट होता
*
पय पिला पाला न लेकिन मोल माँगा कभी जिसने
वंदनीया है वही, हो उऋण उससे कोई कैसे?
आन
भी वह, मान भी वह, जान भी वह, प्राण भी वह
खान ममता की न होती, दान कैसे तुष्ट होता?
*
६-५-२०१४

गीत जैसा किया है

एक रचना:
संजीव 

जैसा किया है तूने 
वैसा ही तू भरेगा
.
कभी किसी को धमकाता है
कुचल किसी को मुस्काता है
दुर्व्यवहार नायिकाओं से
करता, दानव बन जाता है
मार निरीह जानवर हँसता
कभी न किंचित शर्माता है
बख्शा नहीं किसी को
कब तक बोल बचेगा
.
सौ सुनार की भले सुहाये
एक लुहार जयी हो जाए
अगर झूठ पर सच भारी हो
बददिमाग रस्ते पर आये
चक्की पीस जेल में जाकर
ज्ञान-चक्षु शायद खुल जाए
साये से अपने खुद ही
रातों में तू डरेगा
**
६.५.२०१५

मोहन छंद


छंद सलिला:
मोहन छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति ५-६-६-६, चरणांत गुरु लघु लघु गुरु
लक्षण छंद:
गोपियाँ / मोहन के / संग रास / खेल रहीं
राधिका / कान्हा के / रंग रंगी / मेल रहीं
पाँच पग / छह छह छह / सखी रखे / साथ-साथ
कहीं गुरु / लघु, लघु गुुरु / कहीं, गहें / हाथ-हाथ
उदाहरण:
१. सुरमयी / शाम मिले / सजन शर्त / हार गयी
खिलखिला / लाल हुई / चंद्र देख / भाग गयी
रात ने / जाल बिछा / तारों के / दीप जला
चाँद को / मोह लिया / हवा बही / हाय छला

२. कभी खुशी / गम कभी / कभी छाँव / धूप कभी
नयन नम / करो न मन / नमन करो / आज अभी
कभी तम / उजास में / आस प्यास / साथ मिले
कभी हँस / प्रयास में / आम-खास / हाथ मिले
३. प्यार में / हार जीत / जीत हार / प्यार करो
रात भी / दिवस लगे / दिवस रात / प्यार वरो
आह भी / वाह लगे / डाह तजो / चाह करो
आस को / प्यास करो / त्रास सहो / हास करो
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

संपदा छंद


छंद सलिला:
संपदा छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति ११-१२, चरणांत लघु गुरु लघु (जगण/पयोधर)
लक्षण छंद:
शक्ति-शारदा-रमा / मातृ शक्तियाँ सप्राण
सदय हुईं मनुज पर / पीड़ा से मुक्त प्राण
ग्यारह-बारह सुयति / भाव सरस लय निनाद
मधुर छंद संपदा / अंत जगण का प्रसाद
उदाहरण:
१. मीत! गढ़ें नव रीत / आओ! करें शुचि प्रीत
मौन न चाहें और / गायें मधुरतम गीत
मन को मन से जोड़ / समय से लें हम होड़
दुनिया माने हार / सके मत लेकिन तोड़
२. जनता से किया जो / वायदा न भूल आज
खुद ही बनाया जो / कायदा न भूल आज
जनगण की चाह जो / पूरी कर वाह वाह
हरदम हो देश का / फायदा न भूल आज
३. मन मसोसना न मन / जो न सही, वह न ठान
हैं न जन जो सज्जन / उनको मत मीत मान
धन-पद-बल स्वार्थ का / कलम कभी कर न गान-
निर्बल के परम बल / राम सत्य 'सलिल' मान.
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

दोहा दुनिया २

दोहा दुनिया
*
छिपी वाह में आह है, इससे बचना यार.
जग-जीवन में लुटाना, बिना मोल नित प्यार.
*
वह तो केवल बनाता, टूट रहे हम आप.
अगर न टूटें तो कहो, कैसें सकते व्याप?
*
बिंदु सिन्धु हो बिखरकर, सिन्धु सिमटकर बिंदु.
तारे हैं अगणित मगर, सिर्फ एक है इंदु..
*
जो पैसों से कर रहा, तू वह है व्यापार.
माँ की ममता का दिया, सिला कभी क्या यार.
*
बहिना ने तुझको दिया, प्रतिपल नेह-दुलार.
तू दे पाया क्या उसे?, कर ले तनिक विचार

दोहा दुनिया

दोहा दुनिया
*
पत्नी ने तन-मन लुटा, किया तुझे स्वीकार.
तू भी क्या उस पर कभी सब कुछ पाया वार?
*
अगर नहीं तो यह बता, किसका कितना दोष.
प्यार न क्यों दे-ले सका, अब मत हो मदहोश..
*
बने-बनाया कुछ नहीं, खुद जाते हम टूट.
दोष दे रहे और को, बोल रहे हैं झूठ.
*
वह क्यों तोड़ेगा कभी, वह है रचनाकार.
चल मिलकर कुछ रचें हम, शून्य गहे आकार..
*
अमर नाथ वह मर्त्य हम, व्यर्थ बनते मूर्ति
पूज रहे बस इसलिए, करे स्वार्थ की पूर्ति
*
विचारणीय : अगर न होता काश तो.......
संजीव 'सलिल'
नहीं बरसता 'सलिल' तो, ना होता अवकाश.
कहिये क्यों हम देखते, झट सिर पर आकाश?.
रवि शशि दीपक बल्ब भी, हो जाते बेकार-
गहन तिमिर में किस तरह, मिलता कहें प्रकाश?.
धरना देता अतिथि जब, अनचाहा चढ़ शीश.
मन ही मन कर जोड़कर, कहते अब जा काश..
*

बुधवार, 8 मई 2019

बाङ्ग्ला-हिंदी भाषा सेतु

बाङ्ग्ला-हिंदी भाषा सेतु:
पूजा गीत
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
*
जीवन जखन छिल फूलेर मतो
पापडि ताहार छिल शत शत।
बसन्ते से हत जखन दाता
रिए दित दु-चारटि तार पाता,
तबउ जे तार बाकि रइत कत
आज बुझि तार फल धरेछे,
ताइ हाते ताहार अधिक किछु नाइ।
हेमन्ते तार समय हल एबे
पूर्ण करे आपनाके से देबे
रसेर भारे ताइ से अवनत।
*
पूजा गीत: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव
*
फूलों सा खिलता जब जीवन
पंखुरियां सौ-सौ झरतीं।
यह बसंत भी बनकर दाता
रहा झराता कुछ पत्ती।
संभवतः वह आज फला है
इसीलिये खाली हैं हाथ।
अपना सब रस करो निछावर
हे हेमंत! झुककर माथ।
*

रविवार, 5 मई 2019

ओशो चिंतन: दोहा मंथन १.

ओशो चिंतन: दोहा मंथन १.
लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।
रीति का मजा खूब लो
*
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ।
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप।
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल।
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल।
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र।
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम।
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम।
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष।
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास।
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त?
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात।
मोर नाचता; पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन।
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद।
मानव ले; तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग।
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक।
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखिए इसको ताक।।
पंख मोर के; किंतु है, मादा पंख-विहीन।
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार।
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश।
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।'
मुनि कठोर पाबंद हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम।
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल।
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
५-५-२०१८, १८.२०

दोहा मुक्तक

दोहा मुक्तक
लता-लता पर छा रहा, नव वासंती रंग। 
ताल ताल में दे रहीं, मछली सहित तरंग।। 
नेह-नर्मदा में नहा, भ्रमर-तितलियाँ मौन-
कली-फूल पी मस्त हैं, मानो मद की भंग।। 
५.५.२०१८

छंद प्रश्नोत्तरी

छंद प्रश्नोत्तरी:
*
आपका परिचय: नाम, जन्म दिनांक-स्थान, जन्म तिथि, शिक्षा, लेखन विधा, प्रकाशित पुस्तकें, उपलब्धि, डाक का पता, चलभाष, ईमेल . 
*
प्र.१. छंद क्या है?
प्र २. छंद का उद्भव कब, कैसे, कहाँ और क्यों हुआ?
प्र ३. छंद के तत्व क्या हैं??
प्र.४. छंद की विशेषता क्या है?
प्र.५. छंद के कितने प्रकार हैं?
प्र. ६. छंद सृजन लेखन का उद्देश्य क्या है?
प्र. ७. छंद निर्माण का आधार क्या है?
प्र. ८. छंद का मानव मन पर प्रभाव होता है या नहीं?
प्र. ९. छंद का शब्दगत / पंक्तिगत आकार क्या होना चाहिए?
प्र. १०.छंद और लय का क्या संबंध है?
प्र. ११. छंद को वेद का पैर क्यों कहा गया?
प्र. १२. हिंदी को छंद की विरासत कब, कहाँ से, कैसे मिली?
प्र. १३. छंद का काव्य में क्या स्थान है?
प्र. १४. छंदमुक्ति क्यों और कैसे?
प्र. १५. छंदहीनता क्या है?
प्र. १६. छंदयुक्तता, छंदमुक्तता और छंद हीनता में क्या अंतर है?
प्र. १७. छंद का काव्य के कथ्य पर क्या प्रभाव होता है?
प्र. १८. छंद और लोक काव्य का क्या सम्बन्ध है?
प्र. १९. छंद का कविता, खंड काव्य और महाकाव्य पर प्रभाव क्या और कितना होता है?
प्र. २०. छंद-आयात क्यों और कितना?
प्र. २१. आयातित छंद विधान में परिवर्तन क्यों और कितने?
प्र. २२. भारतीय और अभारतीय छंदों में अंतर क्या है?
प्र. २३. छंद पर भाषिक बदलावों का प्रभाव क्या और कितना है?
प्र. २४. छंद-विधान रूढ़ हो या लचीला और क्यों?
प्र. २५. नए छंद-निर्माण के सम्बन्ध में विचार?
***
संपर्क: संजीव, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil .sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४.

समीक्षा 'अप्प दीपो भव'

कृति चर्चा-
'अप्प दीपो भव' प्रथम नवगीतिकाव्य
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण- अप्प दीपो भव, कुमार रवीन्द्र, नवगीतीय प्रबंध काव्य, आवरण बहुरंगी,सजिल्द जेकेट सहित, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन के ३९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, रचनाकार संपर्क- क्षितिज ३१०, अर्बन स्टेट २ हिसार हरयाणा ०१६६२२४७३४७]
*
'अप्प दीपो भव' भगवान बुद्ध का सन्देश और बौद्ध धर्म का सार है। इसका अर्थ है अपने आत्म को दीप की तरह प्रकाशवान बनाओ। कृति का शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित विशेष चित्र से कृति का गौतम बुद्ध पर केन्द्रित होना इंगित होता है। वृक्ष की जड़ों के बीच से झाँकती मंद स्मितयुक्त बुद्ध-छवि ध्यान में लीन है। कृति पढ़ लेने पर ऐसा लगता है कि लगभग सात दशकीय नवगीत के मूल में अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाओं से संपृक्तता के मूल और अचर्चित मानक की तरह नवगीतानुरूप अभिनव कहन, शिल्प तथा कथ्य से समृद्ध नवगीति काव्य का अंकुर मूर्तिमंत हुआ है।
कुमार रवीन्द्र समकालिक नव गीतकारों में श्रेष्ठ और ज्येष्ठ हैं। नवगीत के प्रति समीक्षकों की रूढ़ दृष्टि का पूर्वानुमान करते हुए रवीन्द्र जी ने स्वयं ही इसे नवगीतीय प्रबंधकाव्य न कहकर नवगीत संग्रह मात्र कहा है। एक अन्य वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना जी ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा आयोजित संगोष्ठी में इसे 'काव्य नाटक' कहा है । अष्ठाना जी के अनुसार रचनाओं की प्रस्तुति नवगीत के शिल्प में तो है किन्तु कथ्य और भाषा नवगीत के अनुरूप नहीं है। यह स्वाभाविक है। जब भी कोई नया प्रयोग किया जाता है तो उसके संदर्भ में विविध धारणाएँ और मत उस कृति को चर्चा का केंद्र बनाकर उस परंपरा के विकास में सहायक होते हैं जबकि मत वैभिन्न्य न हो तो समुचित चर्चा न होने पर कृति परंपरा का निर्माण नहीं कर पाती।
एक और वरिष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल जी इसे नवगीत संग्रह कहा है। सामान्यत: नवगीत अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण होने के कारण मुक्तक काव्य संवर्ग में वर्गीकृत किया जाता है। इस कृति का वैशिष्ट्य यह है कि सभी गीत बुद्ध के जीवन प्रसंगों से जुड़े होने के साथ-साथ अपने आपमें हर गीत पूर्ण और अन्यों से स्वतंत्र है। बुद्ध के जीवन के सभी महत्वपूर्ण प्रसंगों पर रचित नवगीत बुद्ध तथा अन्य पात्रों के माध्यम से सामने आते हुए घटनाक्रम और कथावस्तु को पाठक तक पूरी संवेदना के साथ पहुँचाते हैं। नवगीत के मानकों और शिल्प से रचनाकार न केवल परिचित है अपितु उनको प्रयोग करने में प्रवीण भी है। यदि आरंभिक मानकों से हटकर उसने नवगीत रचे हैं तो यह कोई कमी नहीं, नवगीत लेखन के नव आयामों का अन्वेषण है।
काव्य नाटक साहित्य का वह रूप है जिसमें काव्यत्व और नाट्यत्व का सम्मिलन होता है। काव्य तत्व नाटक की आत्मा तथा नाट्य तत्व रूप व कलेवर का निर्माण करता है। काव्य तत्व भावात्मकता, रसात्मकता तथा आनुभूतिक तीव्रता का वाहक होता है जबकि नाट्य तत्व कथानक, घटनाक्रम व पात्रों का। अंग्रेजी साहित्य कोश के अनुसार ''पद्य में रचित नाटक को 'पोयटिक ड्रामा' कहते हैं। इनमें कथानक संक्षिप्त और चरित्र संख्या सीमित होती है। यहाँ कविता अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर अपने आपको नाटकीयता में विलीन कर देती है।१ टी. एस. इलियट के अनुसार कविता केवल अलंकरण और श्रवण-आनंद की वाहक हो तो व्यर्थ है।२ एबरकोम्बी के अनुसार कविता नाटक में पात्र स्वयं काव्य बन जाता है।३ डॉ. नगेन्द्र के मत में कविता नाटकों में अभिनेयता का तत्व महत्वपूर्ण होता है।४, पीकोक के अनुसार नाटकीयता के साथ तनाव व द्वंद भी आवश्यक है।५ डॉ. श्याम शर्मा मिथकीय प्रतीकों के माध्यम से आधुनिक युगबोध व्यंजित करना काव्य-नाटक का वैशिष्ट्य कहते हैं६ जबकि डॉ. सिद्धनाथ कुमार इसे दुर्बलता मानते हैं।७. डॉ. लाल काव्य नाटक का लक्षण बाह्य संघर्ष के स्थान पर मानसिक द्वन्द को मानते हैं।८.
भारतीय परंपरा में काव्य दृश्य और श्रव्य दो वर्गों में वर्गीकृत है। दृश्य काव्य मंचित किए जा सकते हैं। दृश्य काव्य में परिवेश, वेशभूषा, पात्रों के क्रियाकलाप आदि महत्वपूर्ण होते हैं। विवेच्य कृति में चाक्षुष विवरणों का अभाव है। 'अप्प दीपो भव' को काव्य नाटक मानने पर इसकी कथावस्तु और प्रस्तुतीकरण को रंगमंचीय व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में भी आकलित करना होगा। कृति में कहीं भी रंगमंच संबंधी निर्देश या संकेत नहीं हैं। विविध प्रसंगों में पात्र कहीं-कहीं आत्मालाप तो करते हैं किन्तु संवाद या वार्तालाप नहीं हैं। नवगीतकार द्वारा पात्रों की मन: स्थितियों को सूक्ष्म संकेतों द्वारा इंगित किया गया है। कथा को कितने अंकों में मंचित किया जाए, कहीं संकेत नहीं है। स्पष्ट है कि यह काव्य नाटक नहीं है। यदि इसे मंचित करने का विचार करें तो कई परिवर्तन करना होंगे। अत:, इसे दृश्य काव्य या काव्य नाटक नहीं कहा जा सकता।
श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। पद्य, गद्य और चम्पू श्रव्यकाव्य हैं। गत्यर्थक में 'पद्' धातु से निष्पन ‘पद्य’ शब्द गति प्रधान है। पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पद्यकाव्य के दो उपभेद महाकाव्य और खण्डकाव्य हैं। खण्डकाव्य को ‘मुक्तकाव्य’ भी कहते हैं। खण्डकाव्य में महाकाव्य के समान जीवन का सम्पूर्ण इतिवृत्त न होकर किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है— खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। – साहित्यदर्पण।
कवित्व व संगीतात्मकता का समान महत्व होने से खण्डकाव्य को ‘गीतिकाव्य’ भी कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना के कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है। इस निकष पर 'अप्प दीपो भव' नव गीतात्मक गीतिकाव्य है। संस्कृत में गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में प्राप्त होता है। प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य मेघदूत है। मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतंत्र होता है। इसके उदाहरण अमरूकशतक और भतृहरिशतकत्रय हैं। संगीतमय छन्द व मधुर पदावली गीतिकाव्य का लक्षण है। इन लक्षणों की उपस्थित्ति 'अप्प दीपो भव' में देखते हुए इसे नवगीति काव्य कहना उपयुक्त है। निस्संदेह यह हिंदी साहित्य में एक नयी लीक का आरम्भ करती कृति है।
हिंदी में गीत या नवगीत में प्रबंध कृति का विधान न होने तथा प्रसाद कृत 'आँसू' तथा बच्चन रचित 'मधुशाला' के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण कृति न लिखे जाने से उपजी शून्यता को 'अप्प दीपो भव' भंग करती है। किसी चरिते के मनोजगत को उद्घाटित करते समय इतिवृत्तात्मक लेखन अस्वाभाविक लगेगा। अवचेतन को प्रस्तुत करती कृति में घटनाक्रम को पृष्ठभूमि में संकेतित किया जाना पर्याप्त है। घटना प्रमुख होते ही मन-मंथन गौड़ हो जाएगा। कृतिकार ने इसीलिये इस नवगीतिकाव्य में मानवीय अनुभूतियों को प्राधान्य देने हेतु एक नयी शैली को अन्वेषित किया है। इस हेतु लुमार रवीन्द्र साधुवाद के पात्र हैं।
बुद्ध को विष्णु का अवतार स्वीकारे जाने पर भी पर स्व. मैथिलीशरण गुप्त रचित यशोधरा खंडकाव्य के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण काव्य कृति नहीं है जबकि महावीर को विष्णु का अवतार न माने जाने पर भी कई कवत कृतियाँ हैं। कुमार रवीन्द्र ने बुद्ध तथा उनके जीवन काल में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करनेवाले पात्रों में अंतर्मन में झाँककर तात्कालिक दुविधाओं, शंकाओं, विसंगतियों, विडंबनाओं, उनसे उपजी त्रासदियों से साक्षात कर उनके समाधान के घटनाक्रम में पाठक को संश्लिष्ट करने में सफलता पाई है। तथागत ११, नन्द ५, यशोधरा ५, राहुल ५, शुद्धोदन ५, गौतमी २, बिम्बसार २, अंगुलिमाल २, आम्रपाली ३, सुजाता ३, देवदत्त १, आनंद ४ प्रस्तुतियों के माध्यम से अपने मानस को उद्घाटित करते हैं। परिनिर्वाण, उपसंहार तथा उत्तर कथन शीर्षकान्तार्गत रचनाकार साक्षीभाव से बुद्धोत्तर प्रभावों की प्रस्तुति स्वीकारते हुए कलम को विराम देता है।
गृह त्याग पश्चात बुद्ध के मन में विगत स्मृतियों के छाने से आरम्भ कृति के हर नवगीत में उनके मन की एक परत खुलती है. पाठक जब तक पिछली स्मृति से तादात्म्य बैठा पाए, एक नयी स्मृति से दो-चार होता है। आदि से अंत तक औत्सुक्य-प्रवाह कहीं भंग नहीं होता। कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी मन:स्थिति को शब्दित करने में कुमार रवीन्द्र को महारथ हासिल है। जन्म, माँ की मृत्यु, पिता द्वारा भौतिक सुख वर्षा, हंस की प्राण-रक्षा, विवाह, पुत्रजन्म, गृह-त्याग, तप से बेसुध, सुजाता की खीर से प्राण-रक्षा, भावसमाधि और बोध- 'गौतम थे / तम से थे घिरे रहे / सूर्य हुए / उतर गए पल भर में / कंधों पर लदे-हुए सभी जुए', 'देह के परे वे आकाश हुए', 'दुःख का वह संस्कार / साँसों में व्यापा', 'सूर्य उगा / आरती हुई सॉंसें', ''देहराग टूटा / पर गौतम / अन्तर्वीणा साध न पाए', 'महासिंधु उमड़ा / या देह बही / निर्झर में' / 'सभी ओर / लगा उगी कोंपलें / हवाओं में पतझर में', 'बुद्ध हुए मौन / शब्द हो गया मुखर / राग-द्वेष / दोनों से हुए परे / सड़े हुए लुगड़े से / मोह झरे / करुना ही शेष रही / जो है अक्षर / अंतहीन साँसों का / चक्र रुका / कष्टों के आगे / सिर नहीं झुका / गूँजे धम्म-मन्त्रों से / गाँव-गली-घर / ऋषियों की भूमि रही / सारनाथ / करुणा का वहीं उठा / वरद हाथ / क्षितिजों को बेध गए / बुद्धों के स्वर'
गागर में सागर समेटती अभिव्यक्ति पाठक को मोहे रखती है। एक-एक शब्द मुक्तामाल के मोती सदृश्य चुन-चुन कर रखा गया है। सन्यस्त बुद्ध के आगमन पर यशोधरा की अकथ व्यथा का संकेतन देखें 'यशोधरा की / आँख नहीं / यह खारे जल से भरा ताल है... यशोधरा की / देह नहीं / यह राख हुआ इक बुझा ज्वाल है... यशोधरा की / बाँह नहीं / यह किसी ठूँठ की कटी डाल है... यशोधरा की / सांस नहीं / यह नारी का अंतिम सवाल है'। अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द शक्ति की जय-जयकार करती ऐसी अभिव्यक्तियों से समृद्ध-संपन्न पाठक को धन्यता की प्रतीति कराती है। पाठक स्वयं को बुद्ध, यशोधरा, नंद, राहुल आदि पात्रों में महसूसता हुआ सांस रोके कृति में डूबा रहता है।
कुमार रवींद्र का काव्य मानकों पर परखे जाने का विषय नहीं, मानकों को परिमार्जित किये जाने की प्रेरणा बनता है। हिंदी गीतिकाव्य के हर पाठक और हर रचनाकार को इस कृति का वाचन बार-बार करना चाहिए।
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संदर्भ- १. दामोदर अग्रवाल, अंग्रेजी साहित्य कोश, पृष्ठ ३१४।२. टी. एस. इलियट, सलेक्ट प्रोज, पृष्ठ ६८। ३. एबरकोम्बी, इंग्लिश क्रिटिक एसेज, पृष्ठ २५८। ४. डॉ. नगेंद्र, अरस्तू का काव्य शास्त्र, पृष्ठ ७४। ५. आर. पीकोक, द आर्ट ऑफ़ ड्रामा, पृष्ठ १६०। ६. डॉ. श्याम शर्मा, आधुनिक हिंदी नाटकों में नायक, पृष्ठ १५५। ७. डॉ. सिद्धनाथ कुमार, माध्यम, वर्ष १ अंक १०, पृष्ठ ९६। ८. डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच, पृष्ठ १०। ९.
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर २००१
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दोहा दुनिया

दोहा दुनिया 
*
सरहद पर सर काट कर, करते हैं हद पार
क्यों लातों के देव पर, हों बातों के वार?
*
गोस्वामी से प्रभु कहें, गो स्वामी मार्केट
पिज्जा-बर्जर भोग में, लाओ न होना लेट
*
भोग लिए ठाकुर खड़ा, करता दंड प्रणाम
ठाकुर जी मुस्का रहे, आज पड़ा फिर काम
*
कहें अजन्मा मनाकर, जन्म दिवस क्यों लोग?
भले अमर सुर, मना लो मरण दिवस कर सोग
*
ना-ना कर नाना दिए, है आकार-प्रकार
निराकार पछता रहा, कर खुद के दीदार
*

मुक्तिका

मुक्तिका
*
वार्णिक छंद: अथाष्टि जातीय छंद 
मात्रिक छंद: यौगिक जातीय विधाता छंद 
1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2. 
मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन।
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम।।
*
दियों में तेल या बाती नहीं हो तो करोगे क्या?
लिखोगे प्रेम में पाती नहीं भी तो मरोगे क्या?
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बुलाता देश है, आओ! भुला दो दूरियाँ सारी
बिना गंगा बहाए खून की, बोलो तरोगे क्या?
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पसीना ही न जो बोया, रुकेगी रेत ये कैसे?
न होगा घाट तो बोलो नदी सूखी रखोगे क्या?
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परों को ही न फैलाया, नपेगा आसमां कैसे?
न हाथों से करोगे काम, ख्वाबों को चरोगे क्या?
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न ज़िंदा कौम को भाती कभी भी भीख की बोटी
न पौधे रोप पाए तो कहीं फूलो-फलोगे क्या?
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५-५-२०१७
इस बह्र में कुछ प्रचलित गीत
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१. तेरी दुनिया में आकर के ये दीवाने कहाँ जाएँ
मुहब्बत हो गई जिनको वो परवाने कहाँ जाएँ
२. मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता
३. चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों
४. खुदा भी आसमाँ से जब जमीं पर देखता होगा
५. सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगेे
६. कभी तन्हाइयों में भी हमारी याद आएगी
७. है अपना दिल तो अावारा न जाने किस पे आएगा
८. बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है
९. सजन रे! झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है

नवगीत

दोहा
*
कविता का है मूल क्या?, और आप हैं कौन?
उत्तर दोनों प्रश्न का, 'सलिल' एक है- 'मौन'..
*
नवगीत:
संजीव 
*
जिन्स बना 
बिक रहा आजकल 
ढाई आखर
.
दाँत दूध के टूट न पाये
पर वयस्क हैं.
नहीं सुंदरी नर्स इसलिए
अनमयस्क हैं.
चूस रहे अंगूठा लेकिन
आँख मारते
बाल भारती पढ़ न सके
डेटिंग परस्त हैं
हर उद्यान
काम-क्रीड़ा हित
इनको बाखर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
मकरध्वज घुट्टी में शायद
गयी पिलायी
वात्स्यायन की खोज
गर्भ में गयी सुनायी
मान देह को माटी माटी से
मिलते हैं
कीचड किया, न शतदल कलिका
गयी खिलायी
मन अनजाना
तन इनको केवल
जलसाघर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
४.५.२०१५

स्त्री

मुखपुस्तकी गपशप
- पायल शर्मा
women are like vehicles, everyone appreciate the outside beauty, but the inner beauty is embraced by her owner
*
संजीव
'स्त्री वाहन नहीं, संस्कृति की वाहक है.
मानव मूल्यों की स्त्री ही तो चालक है..
वाहन की चाबी कोई भी ले सकता है.
चाबी लगा घुमा कर उसको खे सकता है.
स्त्री चाबी बना पुरुष को सदा घुमाती है.
जब जी चाहे रोके, उठा उसे दौडाती है.
विधि-हरि-हर पर शारद-रमा-उमा हावी हैं.
नव दुर्गा बन पुजती स्त्री ही भावी है'
*
नवीन चतुर्वेदी, मुम्बई
आपकी भाषा जानी पहचानी सी लगती है |
**
स्त्री सदा 'नवीन' है, पुरुष सदा प्राचीन.
'राज' करे नाराज हो, यह उँगली वह बीन..

कौन 'चतुर्वेदी' जिसे, यह चतुरा न नचाय.
भाट बने जो 'भाटिया', का ख़िताब वह पाय..

नाच इशारों पर 'सलिल', तभी रहेगी खैर.
देव न दानव बच सके, स्त्री से कर बैर..
*
नवीन चतुर्वेदी
बात करें यूँ सार की, लगती मगर अजीब |
उनका ही तो नाम है, वर्मा सलिल संजीव ||
*
बात सार की चाहता, करता जगत असार.
मतभेदों को पोसते, 'सलिल' न पालें प्यार..

है 'नवीन' जो आज वह, कल होता प्राचीन.
'राज' स्वराज विराजता, पर जनगण है दीन..
*
५.५.२०१०

जग छंद


छंद सलिला:
जग छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १० - ८ - ५, चरणान्त गुरु लघु (तगण, जगण) ।
लक्षण छंद:
कदम-कदम मंज़िल / को छू पायें / पग आज
कोशिश-शीश रखेँ / अनथक श्रम कर / हम ताज
यति दस आठ पाँच / पर, गुरु लघु हो / चरणांत
तेइस मात्री जग / रच कवि पा यश / इस व्याज
उदाहरण:
१. धूप-छाँव, सुख-दुःख / धीरज धरकर / ले झेल
मन मत विचलित हो / है यह प्रभु / का खेल
सच्चे शुभ चिंतक / को दुर्दिन मेँ / पहचान
संग रहे तम मेँ / जो- हितचिंतक / मतिमान
२. चित्रगुप्त परब्रम्ह / ही निराकार / साकार
कंकर-कंकर मेँ / बसते लेकर / आकार
घट-घटवासी हैं / तन में आत्मा / ज्यों गुप्त
जागृत देव सदैव / होते न कभी / भी सुप्त
३. हम सबको रहना / है मिलकर हर/दम साथ
कभी न छोड़ेंगे / हमने थामे / हैं हाथ
एक-नेक होँ हम / सब भेद करें/गे दूर
'सलिल' न झुकने दें/गे हम भारत / का माथ
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

कविता बच्चन

डॉ. हरिवंशराय बच्चन की यह कविता बेहद सुकून देती है :
"जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया.
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले ?
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया.
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली ?
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया.
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं ?
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं ?
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है ?
जो बीत गई सो बात गई.
मृदु मिट्टी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं.
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है ?
जो बीत गई सो बात गई."
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शनिवार, 4 मई 2019

नवगीत शीशम


शीश उठा शीशम हँसे
 
शीश उठा शीशम हँसे, बन मतदाता आम
खटिया खासों की खड़ी
हुआ विधाता वाम

धरती बनी अलाव सूरज आग उगल रहा
नेता कर अलगाव जन-आकांक्षा रौंदता
मुद्दों से भटकाव जन-शिव जहर निगल रहा
द्वेषों पर अटकाव गरिमा नित्य कुचल रहा

जनहित की खा कसम कहें सुबह को शाम
शीश उठा शीशम हँसे
लोकतंत्र नाकाम

तनिक न आती शर्म शौर्य भुनाते सैन्य का
शर्मिंदा है धर्म सुनकर हनुमत दलित हैं
अपराधी दुष्कर्म कर प्रत्याशी बन रहे
बेहद मोटा चर्म झूठ बोलकर तन रहे

वादे कर जुमला बता कहें किया है काम
नोटा चुन शीशम कहे
भाग्य तुम्हारा वाम

- संजीव वर्मा सलिल 
१ मई २०१९