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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

पराक्रम और शहादत: कायस्थों की विरासत

पराक्रम और शहादत: कायस्थों की विरासत
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बुद्धिजीवी माने जा रहे कायस्थजन मूलत: जुझारू रहे हैं। वे अपने प्राण संकट में डालकर देश, समाज और मानवता की रक्षा करने के लिए ख्यात रहे हैं। इसका प्रमाण उनके कुलनाम हैं। कुछ कुलनामों का अर्थ जानें-
वर्मा, वर्मन, बर्मन: संस्कृत की 'वर्म' धातु से बना अर्थ दूसरों की रक्षा करने वाला, दूसरों के लिए जान देनेवाला।
सक्सेना; शक सेनाओं का संहार कर देश की रक्षा करनेवाले।
भटनागर: भट अर्थात वीर, जुझारू, नागर अर्थात सभ्य, सुसंस्कृत।
श्रीवास्तव: वास्तव में श्री (भुजबल, बुद्धिबल, धनबल) रखने वाले।
खरे: ईमानदारी पूर्ण आचरण करनेवाले।
अम्बष्ट: युद्ध की अधिष्ठात्री अम्बा देवी को उपास्य माननेवाले।
निगम: आगम और निगम ग्रंथों के विद्वान्।
माथुर: मथुरा क्षेत्र के स्वामी।
कुलश्रेष्ठ: जिनके कुल श्रेष्ठ अर्थात द्विज (ब्रह्म और युद्धविद्या में निपुण) हो।
सूर्यध्वज: वे जिनके यश की किरणें सूर्य के प्रकाश की तरह फैली हों।
गौड़: सेना के अन्य (गौड़) कार्य जैसे आयुध प्रदाय, चिकित्सा आदि करना।
कर्ण: महावीर कर्ण की तरह पराक्रमी और दानी।
वाल्मीकि: शब्दार्थ दीमक की बांबी, भावार्थ दीमक की तरह दुश्मन को नष्ट होने तक न छोड़नेवाले।
सरकार: जो किसी शासन की तरह सुरक्षा और शांति बनाये रख सकें।
विश्वास: जिनके वीरता पर उनके आश्रित भरोसा करें।
चौधरी: जो मुखिया की तरह आश्रितों की रक्षा करें।
राय (रे अंगरेजी रूप): जिनसे शासक परामर्श करते थे।
दे (डे अंगरेजी रूप): दानवीर।
मित्र: सबका हित करनेवाला।
चंद्र: चंद्र को इष्ट माननेवाले, अपने लोगों में प्रमुख।
भद्रधर: सज्जनों को आश्रय देनेवाले।
सेनगुप्त; जिनके सैन्य बल की जानकारी गुप्त हो।
कुंद: कुबेर की नौ निधियों में से एक अर्थात समृद्धिवान।
कुंडु: कुंड अर्थात तालाब की तरह सबको तृप्त करनेवाला।
दास: ईश्वरभक्त।
नंदन: पुत्र की तरह सबका प्रिय।
घोष: जिसकी सामर्थ्य की जय-जयकार होती है।
बसु (बोस): वसु अर्थात पृथ्वी के स्वामी या देव।
दत्त: भगवान् से प्राप्त विशेष मानव।
नाग: सर्प की तरह आक्रामक और बदला लेने वाला।
मलिक: मालिक का देशज रूप।
देव: पूज्य, मान्य।
भद्र: सज्जन।
पाल: पालवाली नावों के स्वामी, पालन करनेवाला। ७७५ ईस्वी से ११६१ ईस्वी तक बंगाल और मगध के शासक।
साहा: शाह का देशज रूप।
नंदी नंद अर्थात राजा का प्रतिनिधि।
नाथ: स्वामी।
चक्रवर्ती: परम पराक्रमी।
गुहा: विष्णु की तरह छिपकर युद्ध करनेवाला।
कर: हाथ की तरह सबके काम आनेवाला।
प्रधान: मुखिया, सबसे बड़ा।
सिन्हा, सिंह: शेर की तरह बहादुर।
वैद्य: रोग से प्राणरक्षा करने की विद्या जाननेवाला।
चित्रे: सगुन ब्रम्ह के उपासक।
सुले: भविष्य बताने, बनाने, बदलने में सक्षम।
राजे: राज्य करनेवाले।
ठाकरे: ठाकुर यानी स्वामी का संशोधित रूप।
चंद्रसेनी / चंद्र प्रभु: चन्द्रमा को इष्ट माननेवाले सैन्य दल के स्वामी।
राव: प्रमुख।
पटनायक: प्रमुख नायक।
मुंशी:लिखा-पढ़ी करनेवाला।
राय , रायज़ादा: विद्वान् जिनसे शासक राय लेता था।
कानूनगो: कानून जानने और बनाने वाला।
पाटस्कर: नदी तट पर कर लेनेवाला।
मोहंती: ईशभक्त।
बरियार, वाडियार: बलवान।
देशपांडे: देश अर्थात स्थान का मुखिया।
कुलकर्णी: कर्ण के कुल के तरह अर्थात वीर और दानी।
कोटनीस: कोट अर्थात किले का प्रमुख।
फडणवीस: फड़ अर्थात लेन-देन के स्थान का स्वामी।
चिटणवीस: लिखित राजाज्ञा जारी करने के अधिकारी।
समर्थ: सक्षम।
जयवंत: विजयी रहनेवाले।
अस्थाना: बहुत गहराई रखनेवाले।
अधौलिया: आधा औलिया, वीतरागी।
प्रसाद: ईश्वर से प्राप्त वरदान की तरह सबकी मनोकामना पूरी करनेवाले।
कायस्थ, पुरकायस्थ: जिनकी काया में ईश्वर स्थित है भावार्थ पूज्य।
बिसारिया, बरूआ, मिरासी: निरभिमानी, वीतरागी।
दलेला: सिपाहियों को दंड देनेवाले।
जौहरी: परख करनेवाले।
अधिकारी: राज्याधिकार रखनेवाले।
पांडे: पूज्य।
अग्निहोत्री: अग्निहोत्र करनेवाले।
कर्णिक, करणीगर, मुंशी: लेखक, लिपिक।
श्रेष्ठ: उत्तम।
सारंग: उत्तम कलाकार।
बख्शी: जिनकी प्रबंध योग्यता से प्रभावित होकर उन्हें जागीरें अथवा लगान बख्श दिया गया।
कश्यप: कायस्थों का गोत्र जिनके पूर्वज कश्यप ऋषि से शिक्षित हुए।
बल्लभ जी, बल्लभी: कृष्ण भक्त बल्लभाचार्य पंथ के अनुयायी।
शास्त्री: शास्त्र में निपुण।
आलिम: विद्वान, पंडित।
फ़ाज़िल: गुणी, विद्वान्।
कामिल: ज्ञाता, सिद्ध।

कुलनामों से कायस्थों के गुणों विद्वता, शौर्य, दानशीलता, प्रबंधन। कलाप्रेम आदि की जानकारी होती है। वे राग और विराग दोनों में प्रवीण होते हैं। वे हर काल में अपने देश और समग्र समाज के लिए आत्मोत्सर्ग करते रहे हैं। दशरथ के महामंत्री सुमंत्र, रावण के वैद्य सुषेण, नंद वंश व चन्द्रगुप्त मौर्य के महामात्य राक्षस, से लेकर आधुनिक काल के क्रांतिकारियों वीरेंद्र कुमार घोष, उल्लासकर दत्त, पुलिनबिहारी दास, शैलेन्द्रनाथ घोष, रास बिहारी बोस, राजकुमार सिन्हा, महर्षि अरविन्द घोष, यतीन्द्रनाथ दास, सुभाष चंद्र बोस, जयप्रकाश नारायण, प्रभावती नारायण आदि का सूर्य-पराक्रम इतिहास की थाती है। भारतीय सेना को नेतृत्व देनेवाले सुयोग्य सेनानायक लेफ्टिनेंट जनरल श्रीनिवास कुमार सिन्हा का योगदान अविस्मरणीय है।


कैप्टन नीलकंठन जयचंद्रन नायर
मराठा बटालियन में शामिल नीलकंठन जयचंद्रन नायर को 1993 में नागा विद्रोहियों से सामना करने के लिए नागालैंड भेजा गया था। वहाँ उन्होंने अपनी आहुती देकर पूरे बटालियन को सफलतापूर्वक उपलब्ध कराया था। इनकी हिम्मतुरी को अभी भी लोग याद करते हैं।

अर्जुन कुमार वैद्य

महावीर चक्र से सम्मानित अर्जुन कुमार वैद्य देश के सच्चे वीर हैं। को कई मौकों पर देश को अपनी सेवा दी। पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ और ऑपरेशन ब्लू स्टार में वह काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

कैप्टन अनुज नायर
आन्दोलन को रोकना।

देश के बुर सैनिक कैप्टन अनुज (पिता श्री इस दौरान। नायर) को 1999 के कारगिल युद्ध में सबसे ऊंची घाटी को अपने कब्ज़े में लेने को कहा गया था। वे अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहे थे, तभी पाकिस्तानी सैनिकों ने उनके शरीर को भेद दिया, फिर भी कैप्टन ने अंतिम सांसों तक अपना टार्गेट पूरा कर लिया। LOC फ़िल्म में सैफ़ अली ख़ान ने इनका रोल किया था।

पुलवामा हैड कॉन्स्टेबल संजय सिन्हा बिहार, हैड कॉन्स्टेबल नारायण लाल रेजिस्टेंट, कॉन्स्टेबल सुदीप बिस्वास पश्चिम बंगाल,



नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम 'जानकीनाथ बोस' और माँ का नाम 'प्रभावती' था।



कायस्थों में सैन्य परंपरा के वाहक लेफ्टिनेंट जनरल श्रीनिवास कुमार सिन्हा

जनरल लेफ्टिनेंट श्रीनिवास कुमार सिन्हा (7.1.1 926-17.11.2016 ) ने भारतीय सेना के उपसेना प्रमुख (1.1.1 983-1.6.19 83 ) सेवा निवृत्ति पद से के बाद में में में राज्यपाल असम (1 997- २०३००) और राज्यपाल जम्मू-कश्मीर (२००३-२००८) के रूप में उल्लेखनीय कार्य किया । बिहार के पहले पुलिस महानिरीक्षक मिथिलेश कुमार सिन्हा के बेटे और ब्रिटिश भारत के पहले महानिरीक्षक अलख कुमार सिन्हा के पोते श्रीनिवास कुमार सिन्हा का जन्म १ जनवरी १ ९ २६ को पटना में हुआ था। वे 1 9 43 में पटना विश्वविद्यालय से आनर्स के साथ स्नातक उपाधि प्राप्त कर अधिकारी प्रशिक्षण विद्यालय, बेलगाम से श्रेष्ठ कैडेट के रूप में उत्तीर्ण होने के बाद में भारतीय सेना में 5 गोरखा राइफल्स (न्यू मेजर्स) में 1 सितंबर 1 955 को कप्तान बने। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा, इंडोनेशिया में और भारत के स्वतंत्र होने के बाद, कश्मीर नगालैंड और मणिपुर में दो आतंकवाद विरोधी अभियानों में भाग लिया गया। सिन्हा के चार बच्चे मीना, यशवर्धन, मृणालिनी और मनीषा हैं। मृणालिनी और मनीषा दोनों इतिहासकार हैं। मृणालिनी सिन्हा मिशिगन विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में एलिस फ्रीमैन पालर प्रोफेसर हैं। मनीषा सिन्हा कनेक्टिकटविश्वविद्यालय में अमेरिकी इतिहास में ड्रेपर चेयर हैं।

सिन्हा ने यूनाइटेड पेरू के संयुक्त सेवा स्टाफ कॉलेज में, भारत में डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेजमें १ ९ ६२ में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। उन्होंने सेना में सक्रिय कमान के सभी स्तरों को पलटन से लेकर विंग आर्मी तक रखा था। उन्हें ९ जून १ ९ ६५ को लेफ्टिनेंट-कर्नल के रूप में प्रस्तुत करना हो गया है। उन्होंनेलद्दाखमेंएकबटालियन,मणिपुरमें एक ब्रिगेड,असममें एक पर्वत प्रभाग,जम्मूमें एक पैदल सेना प्रभाग,पंजाबमें एक वाहिनीऔरपश्चिमी सेना की कमान संभाली । उन्होंने प्रमुख कर्मचारियों और निदेशक पदों का आयोजन किया। उन्होंने सेना मुख्यालय में निदेशक, सैन्य खुफिया , एडजुटेंट जनरल और वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के रूप में कार्य किया । उन्होंने महू और स्टाफ कॉलेज, वेलिंगटन में प्रशिक्षक के रूप में भी काम किया । अपने आर्मी करियर के दौरान वे पहले दिन सेज-कश्मीर से जुड़े रहे। अक्टूबर १ ९ ४११ में दिल्ली से श्रीनगर तक बड़े पैमाने पर एयरलिफ्ट के आयोजन में वे एक जूनियर स्टाफ ऑफिसर के रूप में शामिल थे। १ ९ ४ ९ में, उन्हें संयुक्त राष्ट्र द्वारा बुलाई गई बैठक में कश्मीर में संघर्ष विराम रेखा के परिसीमन पर भारतीय अभ्यावेदन का सचिव नियुक्त किया गया है। भारत-पाकिस्तान युद्ध १ ९ में २ में उन्होंने अपने पराक्रम का प्रदर्शन किया। उन्होंने १ ९ १२ में किया युद्ध के लिए मानवाधिकारों के आवेदन पर एक सम्मेलन के लिए इटली में भारतीय अधिकारियों की अगुवाई की । उन्हें १ ९ १३ में परम विशिष्ट सेवादल से सम्मानित किया गया किया गया था। 2 दिसंबर को भारत के राष्ट्रपति का मानद एडीसी बनाया गया था। उ न् ने गोरखा ब्रिगेड के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया। प्रसिद्ध दक्षिण अमेरिकी विशेषज्ञ स्टीफन एफ। कोहेन द्वारा अमेरिका में एक प्रकाशन में , उन्हें भारत के सबसे उत्कृष्ट पोस्ट-फ्रीडम जनरलों में से एक के रूप में उद्धृत किया गया है।


कायस्थों की कहानी

संजय निरूपम

हाल ही में महाराष्ट्र के जाने के साथ समाज सेवक और लेखक-पत्रकार प्रबोधनकर ठाकरे की आत्मकथा के एक पृष्ठों की कुछ पंक्तियों की चर्चा हुई, जिस पर राजनीतिक घमासान हो गया है। प्रबोधनकर ठाकरे का मूल नाम केशव सीताराम ठाकरे है। वे शिवसेना के सर्वोच्च नेता बाला साहेब ठाकरे के पिता हैं। में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उनका समाज मूलत: महाराष्ट्र का नहीं है और हजारों साल पहले मगध से आया है। वाया चित्तलगढ़ और भोपाल होते हैं। यह जानकारी कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने दी। इनका उद्देश्य यह साबित करना था कि ठाकरे परिवार मूलत: अप्रवासी है और उस पर भी द्विआधारी।
जाहिर है इस पर बवाल होना था क्योंकि मुंबई में रहने वाले अप्रवासी बिहारियों को सशक्त लक्षित बनाने वाले ठाकरे परिवार के लोग अगर मूलत: बिहार के हैं। और यह निष्कर्ष किसी साधारण शोधकर्ता के शोध में उपलब्ध नहीं है, लेकिन आज के उद्धव और राज ठाकरे के विद्वान दादा प्रबोधनकर ठाकरे के लेखन में उपलब्ध है, तो यह अस्वीकार करना मुश्किल है। उन्होंने कहा कि यह उनके समाज के बारे में सही है, परिवार के बारे में नहीं। समाज और परिवार को कितना अलग किया जा सकता है, यह एक अनुत्तरित प्रश्न है।

वास्तव में इस तर्क को काटने के लिए ठाकरे परिवार के पास कोई तथ्य नहीं है। इसलिए कुतर्कों का सहारा लिया जा रहा है। तो सच क्या है? ठाकरे परिवार की सामाजिक और जातिगत पृष्ठभूमि क्या है? उत्तर भारत में जो कायस्थ जाति है, उसे महाराष्ट्र में सीकेपी कहते हैं। अर्थात चंद्रसेन कायस्थ अधिभूत। ठाकरे परिवार सीकेपी है। प्रबोधनकर ठाकरे ने अपनी आत्मकथा में इसी सीकेपी समाज के अनवरत विस्थापन की कथा सुनाई है। एक कथा के अनुसार चंद्रसे नाम की एक महारानी थे। जिन दिनों वह गर्भवती थी, उनके पति की हत्या कर दी गई थी। कब, कहां और किसने, इस पर अलग-अलग मत हैं। पति की हत्या के बाद महारानी चंद्रसे ने विस्थापन का सहारा लिया। उन्हीं के वंशज सीकेपी हैं। पुराणों में चंद्रसे को देवी माना गया है।

प्रबोधनकर ने लिखा है कि उनका समाज राजा महापद्मनंद के जमाने में मगध में रहता था। यह दो हजार साल से ज्यादा पुरानी बात है। वह चंद्र गुप्त काल है। चंद्र गुप्त से पहले मगध पर नंद वंश का राज था। नंद वंशगतचारों और कुशासन के लिए कुख्यात था। केवल चाणक्य ने चंद्र गुप्त का सृजन किया था। प्रबोधनकर लिखते हैं कि नंद वंश के राजा के अत्याचारों से त्रस्त होकर उनका समाज मगध से विष्णु हुआ।] फिर प्रकारांतर में चित्तौड़गढ़, भोपाल होते हुए महाराष्ट्र पहुंचे। हो सकता है महारानी चंद्रसे पर हुई जुल्मों की कहानी प्रबोधनकर के इस शोध का आधार हो। सीकेपी महाराष्ट्र का एक शिक्षित, बुद्धिजीवी और सभ्य समाज माना जाता है। बड़े लेखक, पत्रकार और प्रशासक इस समाज ने दिए हैं। इसी समाज के जनरल अरुण कुमार वैद्य भी थे।

उत्तर भारत में अच्छी तादाद में पाए जाने वाले कायस्थ समाज और सीकेपी में काफी समानता है। दोनों समाज अपनी बुद्धिजीविता और प्रशासनिक कौशल के लिए जाना जाता है। इन्हीं कायस्थों की एक शाखा में सीकेपी है। लेकिन कायस्थ जाति की मूल भूमि ऐतिहासिक तौर पर मगध प्रांत का वह क्षेत्र है, जो आज बिहार उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है। चाहे महाराष्ट्र हो या बंगाल या उड़ीसा या असम या राज्य-मध्य प्रदेश, यहां के कायस्थ मूलत: उत्तर भारत से राहत रखते हैं। आज उनके उपनाम भिन्न हैं, पर उनकी फितरत समान है। कहते हैं, ब्रह्मा की काया से उत्पन्न हुए कायस्थ थे। उनके आराध्य देवता चित्रगुप्त हैं। पुराणों के अनुसार भगवान चित्रगुप्त स्वर्ग के मुनीम थे। वे मनुष्य जाति के पाप-पुण्य का हिसाब रखते थे।उनके वंशज भी परंपरा से हिसाब-किताब रखने का काम करते रहे हैं। पुराने जमाने के तमाम राजाओं के पास मुनीमगिरी करने के लिए जो वर्ग सबसे पसंदीदा था, समान कायस्थ समाज है। मगध काल में इसे पहली मान्यता मिली। फिर मुगलों के जमाने में और अंग्रेजों के शासनकाल में यह समाज विश्वसनीय प्रशासक बनकर सामने आ गया। सम्राट अकबर के मंत्री टोडरमल इसी समाज के थे। उन्हें मुंशी जी ने कहा था। साहित्य के योग पर आरूढ़ होने के बाद भी धनपत राय को मुंशी प्रेमचंद के नाम से जाना गया।

लिखने-पढ़ने, हिसाब-किताब और सभ्य और सभ्य आदित्य नफासत की जिंदगी जीने के लिए मशहूर कायस्थ समाज ने देश को कई महापुरुष दिए हैं। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ। राजेंद प्रसाद, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, जयप्रकाश नारायण, सच्चिदानंद सिन्हा, हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा इत्यादि। नेता जी सुभाष चंद बोस और ज्योति बसु बंगाल के कायस्थ थे। उड़ीसा के पटनायक मूलत: कायस्थ समाज के हैं। चाहे वे जेबी पटनायक हों या बीजू पटनायक।

आधुनिक कायस्थ समाज का मूल उद्भव स्थल क्या है? इस पर शोध हुआ है और अभी भी है। इस समाज की फितरत के दो पहलुओं को समझा जाए तो स्वयं स्पष्ट हो जाता है। एक तो यह समाज नौकरीपेशा है। दूसरा, इसकी घुमंतू प्रवृत्ति है। जैसे आज के अफसर सदा तबादले के शिकार होते रहे हैं, उसी तरह उस जमाने के कायस्थ या तो स्वयं एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते थे या उन्हें भेजा जाता था। या वे पड़ोसी राज्यों द्वारा मंगवा गए थे। मगढ़ के कायस्थ अपनी प्रशासनिक क्षमता के लिए कलिंगा बुलवाए गए हैं, जो आज के पटनायक और नंदा के तौर पर जाने जा रहा है। प्रागैतिहासिक काल के बाद आधुनिक प्रशासन का पहला ऐतिहासिक दस्तावेज मगध काल में मिलता है। राजधानी पाटलिपुत्र था, जो आज का पटना है।उस जमाने में नक्शे पर दिल्ली और मुंबई पर तो राष्ट्रीय महत्व पाटलिपुत्र का था। तमाम राष्ट्रीय घटनाओं का केंद व आकर्षण पटना था। वहाँ लोग काम की तलाश में जाते थे और वहाँ से भारत की दूसरी रियासतों में भी जाते थे।


आज भी देशभर में अफ़सरों की कुल संख्या में अधिकांश कायस्थ ही हैं। और कायस्थों में भी बड़ी संख्या में नौकरीपेशा लोगों की है। व्यवसाय या खेती कायस्थों की फितरत में बहुत कम ही रही है। यह समाज की हर दूसरी पीढ़ी अपने गाँव या शहर को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर सौ-सद के लिए बस जाने के लिए विख्यात है। यही कारण है कि पाकिस्तान में भी कायस्थ पाए जाते हैं। धर्मांतरित मुस्लिमों में भी कायस्थों की एक अलग धारा है। दक्षिण भारत में भी नायर उपनाम के कायस्थ पाए जाते हैं। लेकिन शोध किया जाए तो सबके मूल में मगध का कनेक्शन मिलता है। मसलन प्रसिद्ध पत्रकार प्रीतिश नंदी बंगाली कायस्थ हैं, पर उनका मूल गांव भागलपुर है। जिन कायस्थों को बिहार या यूपी में मुंशी कहा जाता है, वे बंगाल में दासमुंशी के नाम से जाने गए।




गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

लेख- कैकेयी

शोधलेख: 
मानव जाति की गौरव नारी रत्न महारानी कैकेयी 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संयोजक विश्व कायस्थ समाज, पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अभाकाम  / राकाम 
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कहते हैं 'मनुज बली नहीं होत है समय होत बलवान' समय की बलिहारी कि मानव सभ्यता की सर्वकालिक महानतम नारियों में से एक कैकेयी मैया की गौरव गाथा से उन्हीं का कायस्थ कुल अपरिचित हैं। माँ की उपेक्षा करनेवाली जाति कभी फूलती-फलती नहीं। कायस्थों ने आदि माता द्वय नंदिनी-इरावती और कैकेयी की उपेक्षा निरंतर पीढ़ी-दर-पीढ़ी की है। यह एक बड़ा कारण है कि किसी समय भारत के अधिकांश भाग पर राज्य करने वाले कायस्थ आज संसद और विधान सभाओं में एक-एक स्थान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस संक्षिप्त आलेख में महामाता कैकेयी की कथा से परिचित करने का प्रयास है। आचार्य डॉ. मुंशीराम शर्मा 'सोम' ने कैकेयी को रामायण का आदि-अंत और सार माना है। 

कैकेयी और कायस्थ 

कैकेयी के कायस्थ होने का प्रमाण ऋग्वेद में मिलता है-
स्वायुधरचवस सुरणार्थं चतु: समुद्र वरुणारथीणाम। 
चकृत्वशस्यभूरिवाणस्यम्यं चित्रवृशणरविंदा: ।।  [ऋग्वेद  १०-४७-४८२]
एक अन्य प्रमाण शब्दकल्पद्रुम काण्ड ६ से प्रस्तुत है- 
वाहयौश्चक्षत्रियं जाता: कायस्थ जगतीतले। 
चित्रगुप्त: स्थिति: स्वर्गे चित्रोहि भूमण्डले।। 
चैत्रस्थ: सुतस्तस्म यशस्वी कुल दीपक:। 
ऋषि वंशे समुद्गते गौतमो नाम सतम:।।
तस्य शिष्यों महाप्रशश्चित्रकूटा  चलाधिया:।।   

मातृकुल 

चंद्र के पुत्र 'विधु' व् पुत्रवधु इला की संततियों से चंद्र वंश आगे बढ़ा। इला-बुध से पुरुरवा तथा पुरुरवा-उर्वशी से आयु उत्पन्न हुआ जिनके पुत्र नहुष तथा पेटर ययाति हुए। ययाति की दो पत्नियां देवयानी तथा शर्मिष्ठा हुईं। शर्मिष्ठा के पुत्र अनु की इक्कीसवीं पीढ़ी में महामानस का जन्म हुआ। आगे इसी वंश में महादानी राजा शिवि के चार पुत्र विषदर्भ, कैकेय, मदर तथा सौवीर हुए। कैकेय का राज्य पश्चिमोत्तर भारत में सिंधु नद की पश्चिमी सहायक नदी कुर्मी के किनारे निचले भीग में बन्नू की दून में था। इस राज्य का नाम वैदिक काल में 'कूर्म' रहा है। इसका ऊपरी भाग आज भी 'कुर्रम' तथा निचला भाग 'बन्नू' कहलाता है। इसी की सीध में पूर्व में कैकय जनपद था। यह आधिनिक झेलम, गुजरात तथा शाहपुर जिलों का केंद्रीय भाग [अब पाकिस्तान में] है। वाल्मीकि रामायण में सर्ग ३८ श्लोक १६ में शरदण्डा नदी पार करने का वर्णन है। यही नदी प्राचीन काल में शराबती कुरुक्षेत्र की 'चित्तांग  नदी' कहलाती रही है। अयोध्या तथा कैकेय राज्यों के मध्य व्यापारिक संबंध थे। 

कैकय नरेश कैकेय की सुरूपवती कन्या को 'सुरूपा' नाम उचित ही दिया गया। विवाह पश्चात वधुओं की उनके मायके के नाम से  पुकारने की प्रथा आज भी है जैसे मैनपुरीवाली चची, बनारसवाली भाभी आदि। तत्कालीन प्रथानुसार कोसल राजकुमारी को विवाह पश्चात् अयोध्या में 'कौसल्या' तथा कैकय राजकुमारी को 'कैकेयी' संबोधन मिले, यही प्रसिद्ध होते गए और उनके मूल नाम विस्मृत हो गए। कैकेय पुत्री कैकेयी  का विवाह सूर्यवंशी पराक्रमी अयोध्यापति  दशरथ से हुआ। दशरथ की तीन प्रमुख क्रमश: रानियाँ कौशल्या (कोशलनरेश की पुत्री), कैकेयी तथा सुमित्रा हुईं।  'पद्म पुराण' के अनुसार भरत की माता का नाम सुरूपा है। 'पउम चरिउ' के अनुसार कैकेयी का ही नाम सुमित्रा भी है। संभवत: विवाह पश्चात् कैकेयी के सद्गुणों को देखते हुए उन्हें सुरूपा तथा सुमित्रा कहा गया। वे परम लावण्यमयी, परम विदुषी, मिलनसार, मिठभाषिणी, वीरांगना, दूरदर्शी तथा आत्मोत्सर्ग हेतु उद्यत रहनेवाली युग निर्मात्री नारी रत्न रहीं है। 

कैकेयी का आत्मोत्सर्ग और दशरथ से  विवाह 

आज के संयुक्त राष्ट्र संघ की तरह वैदिक काल में विविध देशों, प्रदेशों और संस्कृतियों में टकराव, युद्ध और रक्तपात टालकर सामन्यजस्य और सद्भाव बनाये रखने के लिए एक कुल (संघ) कार्यरत था। दशरथ तथा कैकेय दोनों ही इसके सदस्य थे। भगवान् परशुराम की शिष्य कैकेयी अचूक बाण विद्या, रथ सञ्चालन, युद्धनीति निर्माण आदि की धनी थी। वह विवाहपूर्व भी शिकार पर जाती थी तथा भयानक हिंस्र पशुओं से जूझती थी। उसके साहस व पराक्रम की कथाएं दूर-दूर तक कही-सुनी जाती थीं। देवासुर संग्राम में असुरों पर जय पाकर दशरथ भी प्रसिद्ध हो चुके थे। कैकेयी विवाह के समय किश्री थीं जबकि दशरथ अधेड़ और पूर्व विवाहित। दशरथ में एक दोष विलासी होना था जबकि कैकेयी तपस्विनी की तरह संयमी थीं। रक्ष संस्कृति के विस्तार को रोककर देव संस्कृति की सुरक्षा और विकास के लिए भविष्य में एक पराक्रमी राजकुमार की आवश्यकता को देखते हुए त्रिकाल दर्शी ऋषियों ने एक योजना तैयार की। दशरथ के वृद्ध होने के पूर्व उस राजकुमार को उनकी विरासत मिले और वह पिता का स्थान लेकर राक्षसों  का दमन करे। दशरथ विवाहित किंतु निस्संतान थे। उनकी पत्नी कौसल्या सामान्य सरल हृदया स्त्री थीं। वे किसी पुत्र को रणनीति विशारद नहीं बना सकती थीं। पर्याप्त मनमंथन पश्चात्  ऋषियों ने कैकेयी व्दशरथ के  विवाह से उत्पन्न संतान में यह संभावना देखकर योजना बनाई। कैकेय अपनी सुलक्षणा पुत्री को अधेड़ अवस्था से दशरथ के साथ ब्याने को तैयार नहीं थे किन्तु कैकेयी को यह ज्ञात होने पर उसने अपने देश और संस्कृति के संरक्षण हेतु इस प्रस्ताव को स्वीकृति देकर आत्मोत्सर्ग का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। दशरथ ने कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कैकेयी के पुत्र को अवधनरेश बनाने का वचन दिया। 

कैकेयी के वरदान 

विवाह पश्चात् उसने दशरथ को फिर युद्ध की और उन्मुख करने के लिए खुद उनके साथ युद्धक्षेत्र में जाना आरंभ किया वह दशरथ के रथ का अति निपुणता से रथ सञ्चालन करती और अवसर पर शस्त्र प्रहार कर उनके प्राण भी बचाती। एक देवासुर संग्राम में दशरथ के रथ के चक्र की धुरी निकल गयी। कैकेयी ने आव देखा न ताव, तत्क्षण लौह कवच से ढँकी अपनी अँगुली लगाकर चके को निकलने से रोक लिया और दूसरे हाथ से रथ चलाती रही। इससे उसकी प्रत्युत्पन्नमति, धीरज, साहस और बलिदान भाव का परिचय मिलता है। दशरथ लड़ते रहे कैकेयी मुंह में वल्गा थाम एक हाथ की अंगुली धुरी में फँसाये, दूसरे हाथ से अस्त्र देती रही। युद्ध जीतने पर दशरथ का ध्यान उनकी और गया। वे भावविवहल हो गए। कैकेयी ने न केवल उनके प्राण बचाये थे अपितु विजय भी दिलाई थी। उन्होंने कैकेयी को मनचाहे वरदान दिए  पैट कैकेयी ने कुछ न चाहा, बहुत आग्रह किये जाने पर कैकेयी ने दशरथ का मान रखते हुए वरदान भविष्य के लिए रख लिए। 

कैकेयी और दशरथ पुत्र 

कैकेयी की कीर्ति पताका सर्वत्र फहरा रही थी। परोक्षत: अयोध्या का राज्य सञ्चालन भी उसी के हाथों में था। इस पर भी वह सौतिया डाह से मुक्त अन्य दोनों रानियों को बड़ी-छोटी बहिन मानकर पूर्ण समर्पण भाव से दायित्व निर्वहन करती रही। दशरथ में विलासजनित दुर्बलता को देखते हुए श्रृंगी ऋषि को उपचार हेतु नियुक्त किया गया। उनके उपचारों से दशरथ पूण: स्वस्थ हुए। श्रृंगी ऋषि ने तीनों रानियों को भी दिव्य औषधियों का सेवन कराया। कैकेयी में ईर्ष्या भाव होता तो वह वरदानों का प्रयोग कर अपने सिवाय किसी रानी को संतान न प्राप्त होने देती किंतु वह इस सबसे बहुत ऊपर थीं। संतान होने पर भी उसने केवल अपने पुत्र को शिक्षित नहीं किया अपितु तीनों रानियों के चारों पुत्रों को समान मानते हुए शास्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दी और दिलवाई। यही नहीं उसने ऋषि विश्वामित्र द्वारा राक्षसों के आतंक से मुक्ति के लिए राजकुमार माँगे जाने पर दशरथ के मन कर देने पर भी उन्हें सहमत कराया, अपने पुत्र के स्थान पर यह अनुभव और यश पाने का अवसर कौसल्या पुत्र राम को दिया। इस सबसे स्पष्ट है की कैकेयी का मन निर्मल और वृत्ति तापसी थी। वह दशरथ को आत्मकेंद्रित होकर पुत्रों को संघर्ष से दूर रखने के पक्ष में न थी क्योंकि उसने विवाह देव संस्कृति की रक्षा और रक्ष संस्कृति के नाश हेतु ही किया था। यदि दशरथ अपने मन की कर पाते तो यह उद्देश्य पूर्ण न होता। ऋषि मंडल दशरथ से निराश हो रहा था। 

कैकेयी का आत्म-बलिदान

सद्गुणों से संपन्न दशरथ पुत्र कैशौर्य से तरुणाई की और बढ़ रहे थे। वीतरागी राजा जनक की पुत्रियों से उनके विवाह कराकर ऋषिमण्डल दो पुत्रों को राक्षसों से युद्ध हेतु भेजकर शेष दो पुत्रों को अयोध्या की सुरक्षा व्यवस्था में लगाए रखना चाहते थे। दशरथ अब आत्म केंद्रित हो अपने कुल के साथ शांति का जीवन जीना चाहते थे। ऐस होने पर रक्ष-सेना देवलोक को ध्वंस करने लगती। ऋषियों ने फिर कैकेयी की सहायता चाही। दशरथ ने महामंत्री सुमंत्र (कायस्थ) से विमर्श कर ज्येष्ठ पुत्र राम के राज्याभिषेक की तैयारी की। उन्होंने समय वह चुना जब भरत और शत्रुघ्न कैकय देश (ननिहाल) गए थे। कैकेयी को सूचना तक नहीं दी गयी। ऋषि मंडल ने मंथरा के माध्यम से कैकेयी को पूरी योजना सूचित की। यह कैकेयी की अग्निपरीक्षा की घड़ी थी, पति का साथ देकर स्वार्थ साधे या पति को रोककर देव संस्कृति की दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करे। बलिपंथी कैकेयी ने वही किया जो विवाह पूर्व किया था, निजी हित पर देश और संस्कृति के हित को वरीयता देना। उसने दशरथ को मनाना चाहा, न मानने पर वरदानों का उपयोग किया। दशरथ विवाह पूर्व दिए गए वचन (वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय संधि की तरह) को भंग कर रहे थे। वे कैकेयी को अँधेरे में रखकर ऋषिमण्डल की योजना को विफल करने का कारण बन रहे थे। इससे समूची देव संस्कृति के नाश होने का खतरा आसन्न था चूंकि लंकापति रावण देव लोक को घेरकर (जैसे चीन भारत को घेर रहा है) नाश करने की योजना पर दिन-ब-दिन काम कर रहा था। कैकेयी ने संस्कृति और देश पर आये खतरे को टालने के लिए खुद की प्रतिष्ठा और मान को निछावर करते हुए वर माँग लिए। 

मूल्यांकन 

राम को ऋषिमण्डल की योजना की कुछ जानकारी विश्वामित्र से मिल गयी थी। वे कैकेयी के त्याग से अवगत थे। इसलिए कैकेयी द्वारा वदान लिए जाने पर भी वे न केवल कैकेयी के प्रति विनयशील और आज्ञा पालक बने रहे अपितु पितृभक्त होते हुए भी दशरथ के विरोध की अनदेखी कर वन चले गए। दुर्भाग्य से दशरथ का आकस्मिक निधन हो गया। शेष दोनों रानियों या तीनों राजकुमारों से ऋषि मंडल की योजना गुप्त रखी गयी थी। फलत:, वे कैकेयी के त्याग को न जान सके। अज्ञानता के कारण ही भारत ने कैकेयी को आरोपित और लांछित किया। दशरथ निधन के बाद भी चित्रकूट में मिलने पर राम ने सगी माँ कौसल्या से भी पहले कैकेयी से भेंट की। दोनों रानियों ने सौत होते हुए भी कैकेयी से कभी गिला-शिकवा नहीं किया। यहाँ तक कि कर्मव्रती कैकेयी दे दशरथ के निधन के बाद राजमहल छोड़कर नंदी ग्राम में उसी भरत के साथ निवास कर राज्य सञ्चालन में मदद की जो उन्हें दोषी समझ रहा था जबकि शेष दोनों रानियां और सीता की तीनों बहिनें राजमहल में थीं। राम की वन यात्रा, सीता हरण और लंका युद्ध के समाचार कैकेयी को मिलते रहे थे। वह फिर शास्त्र धारण कर या अयोध्या की सेना भेजकर युद्ध का निर्णय करा सकती थी किन्तु तब राम को यश नहीं मिलता। उन्होंने धैर्य के साथ ऋषि मंडल की योजना को क्रियान्वित होने  यश पाने दिया। रावण-वध के पश्चात् अयोध्या लौटने पर राम फिर कौसल्या से पहले कैकेयी से मिले और कृतज्ञता ज्ञापित की चूँकि वे कैकेयी की बलिदानी भूमिका से अवगत थे। 

कैकेयी के गुप्त बलिदान से अनभिगायता तथा राम पर दैवत्व आरोपित किये जाने पर उनके प्रति अंध भक्ति भाव के करम राम के पश्चात्वर्ती  कैकेयी के चरित्र की उदात्तता को नहीं समझा तथापि कुछ मनीषियों ने सत्य जानने के प्रयास किये और कैकेयी की म्हणता को पहचाना है। पद्म श्री युग तुलसी रामकिंकर जी महाराज ने कैकेयी पर २६५ पृष्ठीय ग्रंथ की रचना की है। महाकवि इंदु सक्सेना ने कैकेई शीर्षक महाकाव्य की रचना की है। वेदप्रताप सिंह 'प्रकाश' ने  कैकेयी पर केंद्रित प्रबंध काव्य 'अनुताप' में उनका मूल्यांकन किया है। कैकेयी के मातृकुल के कायस्थ राजाओं ने कई पीढ़ियों तक कश्मीर और आस पास के क्षेत्रों पर राज्य किया। काल के दुष्प्रभाव से ब्राम्हणों ने अन्य वर्गों के साथ मिलकर कायस्थों को सत्ता-च्युत किया। कायस्थ भागकर उत्तर भारत और वहां से मध्य प्रदेश, बिहार, ब्नगल महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में पहुंचे। यह भी कहा जाता है कि 'इतिहास अपने आप को दोहराता है।' अनुमानत:: जिन कश्मीरी पंडितों को यवन आतंकवादियों ने  खदेड़ बाहर किया है, वही कश्मीरी पंडित पुरातन काल में कश्मीर से कायस्थों की राज सत्ता छिनने के कारण बने थे।

हमारा कर्तव्य 

इतिहास की बातें इतिहास तक सीमित रहने देकर आज कायस्थ समाज का अकर्तव्य अपने मूल स्वरुप को जानने और अपनी मातृ शक्तियों को प्रतिष्ठित कर पूजन एक है ताकि मातृ-आशीष से वे पुन: समृद्ध और सुखी हो सकें। कैकेयी मैया के चरित्र पर चितन-मनन कर अपनी बच्चियों का नामकरण किया जाना चाहिए। कैकेयी मैया के नाम पर पुरस्कार, अलंकरण और छात्रवृत्तियाँ स्थापित की जाना चाहिए।  

***
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१  

  

बुंदेली कथा

बुंदेली कथा ४
बाप भलो नें भैया
*
एक जागीर खों जागीरदार भौतई परतापी, बहादुर, धर्मात्मा और दयालु हतो।
बा धन-दौलत-जायदाद की देख-रेख जा समज कें करता हतो के जे सब जनता के काजे है।
रोज सकारे उठ खें नहाबे-धोबे, पूजा-पाठ करबे और खेतें में जा खें काम-काज करबे में लगो रैत तो।
बा की घरवाली सोई सती-सावित्री हती।
दोउ जनें सुद्ध सात्विक भोजन कर खें, एक-दूसरे के सुख-सुबिधा को ध्यान धरत ते।
बिनकी परजा सोई उनैं माई-बाप घाई समजत ती।
सगरी परजा बिनके एक इसारे पे जान देबे खों तैयार हो जात ती ।
बे दोउ सोई परजा के हर सुख-दुख में बराबरी से सामिल होत ते।
धीरे-धीरे समै निकरत जा रओ हतो।
बे दोउ जनें चात हते के घर में किलकारी गूँजे।
मनो अपने मन कछु और है, करता के कछु और।
दोउ प्रानी बिधना खें बिधान खों स्वीकार खें अपनी परजा पर संतान घाई लाड़ बरसात ते।
कैत हैं सब दिन जात नें एक समान।
समै पे घूरे के दिन सोई बदलत है, फिर बे दोऊ तो भले मानुस हते।
भगवान् के घरे देर भले हैं अंधेर नईया।
एक दिना ठकुरानी के पैर भारी भए।
ठाकुर जा खबर सुन खें खूबई खुस भए।
नौकर-चाकरन खों मूं माँगा ईनाम दौ।
सबई जनें भगबान सें मनात रए के ठकुराइन मोंड़ा खें जनम दे।
खानदान को चराग जरत रए, जा जरूरी हतो।
ओई समै ठाकुर साब के गुरु महाराज पधारे।
उनई खों खुसखबरी मिली तो बे पोथा-पत्रा लै खें बैठ गए।
दिन भरे कागज कारे कर खें संझा खें उठे तो माथे पे चिंता की लकीरें हतीं।
ठाकुर सांब नें खूब पूछी मनो बे इत्त्तई बोले प्रभु सब भलो करहे।
ठकुराइन नें समै पर एक फूल जैसे कुँवर खों जनम दओ।
ठाकुर साब और परजा जनों नें खूबई स्वागत करो।
मनो गुरुदेव आशीर्बाद देबे नई पधारे।
ठकुराइन नें पतासाजी की तो बताओ गओ के बे तो आश्रम चले गै हैं।
दोऊ जनें दुखी भए कि कुँवर खों गुरुदेव खों आसिरबाद नै मिलो।
धीरे-धीरे बच्चा बड़ो होत गओ।
संगे-सँग ठाकुर खों बदन सिथिल पडत गओ।
ठकुराइन नें मन-प्राण सें खूब सबा करी, मनो अकारथ।
एक दिना ठाकुर साब की हालत अब जांय के तब जांय की सी भई।
ठकुअराइन नें कारिन्दा गुरुदेव लिंगे दौड़ा दओ।
कारिन्दा के संगे गुरु महाराज पधारे मनो ठैरे नईं।
ठकुराइन खों समझाइस दई के घबरइयो नै।
जा तुमरी कठिन परिच्छा की घरी है।
जो कछू होनी है, बाहे कौउ नई रोक सकहे।
कैत आंय धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपातकाल परखहहिं चारी।
हम जानत हैं, तुम अगनी परिच्छा सें खरो कुंदन घाईं तप खें निकरहो।
ठाकुर साब की तबियत बिगरत गई।
एक दिना ठकुराइन खों रोता-बिलखता छोर के वे चल दए ऊ राह पे, जितै सें कोऊ लौटत नईया।
ठाकुर के जाबे के बाद ठकुराइन बेसुध से हतीं।
कुँवर के सर पे से ठाकुर की छाया हट गई।
ठकुराइन को अपनोंई होस नई हतो।
दो दोस्त चार दुसमन तो सबई कोइ के होत आंय।
ठाकुर के दुसमनन नें औसर पाओ।
'मत चूके चौहान' की मिसल याद कर खें बे औरें कुँवर साब के कानें झूठी दिलासा देबे के बहाने जुट गए।
कुँवर सही-गलत का समझें? जैसी कई ऊँसई करत गए।
हबेली के वफादारों ने रोकबे-टोकबे की कोसिस की।
मनो कुँवर नें कछू ध्यान नें दऔ।
ठकुराइन दुःख में इत्ती डूब गई के खुदई के खाबे-पीबे को होस नई रओ।
मूं लगी दाई मन-पुटिया के कछू खबा दे ती।
ऊ नें पानी नाक सें ऊपर जात देखो तो हिम्मत जुटाई।
एक दिना ठकुराइन सें कई की कुँवर साब के पाँव गलत दिसा में मुड़ रए हैं।
ठकुराइन नें भरोसा नई करो, डपट दओ।
हवन करत हाथ जरन लगे तो बा सोई चुप्पी लगा गई।
कुँवर की सोहबत बिगरत गई।
बे जान, सराब और कोठन को सौक फरमान लगे।
दाई सें चुप रैत नई बनो।
बाने एक रात ठकुराइन खों अपने मूड की सौगंध दै दी।
ठकुराइन नें देर रात लौ जागकर नसे की हालत में लौटते कुंवर जू खें देखो।
बिन्खों काटो तो खून नई की सी हालत भई।
बे तो तुरतई कुँवर जू की खबर लओ चाहत तीं मनो दाई ने बरज दऔ।
जवान-जहान लरका आय, सबखें सामनू कछू कहबो ठीक नईया।
दाई नें जा बी कई सीधूं-सीधूं नें टोकियो।
जो कैनें होय, इशारों-इशारों में कै दइयो ।
मनो सांप सोई मर जाए औ लाठी सोई नै टूटे।
उन्हें सयानी दाई की बात ठीकई लगी।
सो कुँवर के सो जाबै खें बाद चुप्पै-चाप कमरे माँ जा खें पर रईं।
नींद मनो रात भरे नै आई।
पौ फटे पे तनक झपकी लगी तो ठाकुर साब ठांड़े दिखाई दए।
बिन्सें कैत ते, "ठकुराइन! हम सब जानत आंय।
तुमई सम्हार सकत हो, हार नें मानियो।"
कछू देर माँ आँख खुल गई तो बे बिस्तर छोड़ खें चल पडीं।
सपरबे खें बाद पूजा-पाठ करो और दाई खों भेज खें कुँवर साब को कलेवा करबे खों बुला लओ।
कुँवर जू जैसे-तैसे उठे, दाई ने ठकुराइन को संदेस कह दौ।
बे समझत ते ठकुराइन खों कच्छू नें मालुम ।
चाहत हते कच्छू मालून ने परे सो दाई सें कई अब्बई रा रए।
और झटपट तैयार को खें नीचे पोंच गई, मनो रात की खुमारी बाकी हती।
बे समझत हते सच छिपा लओ, ठकुराइन जान-बूझ खें अनजान बनीं हतीं।
कलेवा के बाद ठकुराइन नें रियासत की समस्याओं की चर्चा कर कुँवर जू की राय मंगी।
बे कछू जानत ना हते तो का कैते? मनो कई आप जैसो कैहो ऊँसई हो जैहे।
ठकुराइन नें कई तीन-चार काम तुरतई करन परहें।
नई तें भौतई ज्यादा नुक्सान हो जैहे। 
कौनौ एक आदमी तो सब कुछ कर नई सकें।
तुमाए दोस्त तो भौत काबिल आंय, का बे दोस्ती नई निबाहें?
कुँवर जू टेस में आ खें बोले काय न निबाहें, जो कछु काम दैहें जी-जान सें करहें।
ठकुराइन नें झट से २-३ काम बता दए।
कुँवर जू नें दस दिन खों समै चाओ, सो बाकी हामी भर दई।
ठाकुर साब के भरोसे के आदमियां खों बाकी के २-३ काम की जिम्मेवारी सौंप दई गई। 
ठकुराइन ने एक काम और करो ।
कुँवर जू सें कई ठाकुर साब की आत्मा की सांति खें काजे अनुष्ठान करबो जरूरी है।
सो बे कुँवर जू खों के खें गुरु जी के लिंगे चल परीं और दस दिन बाद वापिस भईं।
जा बे खें पैले जा सुनिस्चित कर लाओ हतो के ठाकुर साब के आदमियों को दए काम पूरे हो जाएँ।
जा ब्यबस्था सोई कर दई हती के कुँवर जु के दोस्त मौज-मस्ती में रए आयें और काम ने कर पाएँ।
बापिस आबे के एक दिन बाद ठकुराइन नें कुँवर जू सें कई बेटा! टमें जो का दए थे उनखों का भओ? 
जा बीच कुँवर जू नसा-पत्ती सें दूर रए हते।
गुरु जी नें उनैं कथा-कहानियां और बार्ताओं में लगा खें भौत-कछू समझा दौ हतो।
अब उनके यार चाहत थे के कुंअर जू फिर से रा-रंग में लग जाएं।
कुँवर जू कें संगे उनके सोई मजे हो जात ते।
हर्रा लगे ने फिटकरी रंग सोई चोखो आय।
ठकुराइन जानत हतीं के का होने है?
सो उन्ने बात सीधू सीधू नें कै। 
कुँवर कू सें कई तुमाए साथ ओरें ने तो काम कर लए हूहें।
ठाकुर साब के कारिंदे निकम्मे हैं, बे काम नें कर पायें हुइहें।
पैले उनसें सब काम करा लइयो, तब इते-उते जइओ। 
कुंवर मना नें कर सकत ते काये कि सब कारिंदे सुन रए ते।
सो बे तुरतई कारिंदों संगे चले गए। 
कारिंदे उनें कछू नें कछू बहनों बनाखें देर करा देत ते।
कुँवर जू के यार-दोस्तों खें लौतबे खें बाद कारिंदे उनें सब कागजात दिखात ते।
कुँवर जू यारों के संगे जाबे खों मन होत भए भी जा नें पात ते।
काम पूरो हो जाबे के कारन कारिंदों से कछू कै सोई नें सकत ते।
दबी आवाज़ में थकुराइअन सें सिकायत जरूर की।
ठकुराइन नें समझाइस दे दई, अब ठाकुर साब हैं नईंया।
हम मेहरारू जा सब काम जानत नई।
तुमै सोई धीरे-धीरे समझने-सीखने में समै चाने।
देर-अबेर होत बी है तो का भई?, काम तो भओ जा रओ है। 
तुमें और कौन सो काम करने है? 
कुंअर जू मन मसोस खें रए जात हते।
अब ठकुराइन सें तो नई कए सकत ते की दोस्तन के सात का-का करने है?
दो-तीन दिना ऐंसई निकर गए। 
एक दिना ठकुराइन नें कई तुमाए दोस्तन ने काम करई लए हूहें।
मनो कागजात लें खें बस्ता में धार दइयो।
कुँवर नें सोची साँझा खों दोस्त आहें तो कागज़ ले लैहें और फिर मौज करहें।
सो कुँवर जू नें झट सें हामी भर दई।
संझा को दोस्त हवेली में आये तो कुँवर जू नें काम के बारे में पूछो।
कौनऊ नें कछू करो होय ते बताए?
बे एक-दूसरे को मूं ताकत भए, बगलें झांकन लगे।
एक नें झूठोबहानों बनाओ के अफसर नई आओ हतो।
मनो एक कारिंदे ने तुरतई बता दओ के ओ दिना तो बा अफसर बैठो हतो।
कुँवर जू सारी बात कोऊ के बताए बिना समझ गै।
करिन्दन के सामने दोस्तन सें तो कछू नें कई।
मनो बदमजगी के मारे उन औरों के संगे बी नई गै।
ठकुरानी नें दोस्तों के लानें एकऊ बात नें बोली।
जाईकई कौनौ बात नईयाँ बचो काम तुम खुदई कर सकत हो।
कौनऊ मुस्किल होय तो कारिंदे मदद करहें। 
कुँवर समझ गए हते के दोस्त मतलब के यार हते। 
धीरे-धीरे बिन नें दोस्तन की तरफ धान देना बंद कर दौ।
ठकुराइन नें चैन की सांस लई।
***

दोहा

दोहा 
*
गौ माता है, महिष है असुर, न एक समान
नित महिषासुर मर्दिनी का पूजन यश-गान

करते हम चिरकाल से, देख सके तो देख
मिटा पुरानी रेख मत, कहीं नई निज रेख
*

रुद्ध द्वार पर दीजिए दस्तक, इतनी बार 
जो हो भीतर खोल दे, खुद ही हर जिद हार
*
अपने राम जहाँ रहें, वहीं रामपुर धाम 
शब्द ब्रम्ह हो साथ तो, क्या नगरी क्या ग्राम ?
*

कार्यशाला 
दोहा वार्ता 
*
छाया शुक्ला 
सम्बन्धों के मूल्य का, कौन करे भावार्थ ।
अब बनते हैं मित्र भी, लेकर मन मे स्वार्थ ।।
*
संजीव
बिना स्वार्थ तृष्णा हरे, सदा सलिल की धार
बिना मोह छाया करे, तरु सर पर हर बार
संबंधों का मोल कब, लें धरती-आकाश
पवन-वन्हि की मित्रता, बिना स्वार्थ साकार
*

कुण्डलिया

कुण्डलिया  
*
रूठी राधा से कहें, इठलाकर घनश्याम 
मैंने अपना दिल किया, गोपी तेरे नाम 
गोपी तेरे नाम, राधिका बोली जा-जा 
काला दिल ले श्याम, निकट मेरे मत आ, जा
झूठा है तू ग्वाल, प्रीत भी तेरी झूठी
ठेंगा दिखा हँसें मन ही मन, राधा रूठी
*
कुंडली
कुंडल पहना कान में, कुंडलिनी ने आज
कान न देती, कान पर कुण्डलिनी लट साज
कुण्डलिनी लट साज, राज करती कुंडल पर
मौन कमंडल बैठ, भेजता हाथी को घर
पंजा-साइकिल सर धुनते, गिरते जा दलदल
खिला कमल हँस पड़ा, पहन लो तीनों कुंडल
***

नव गीत

:नव गीत
संजीव 'सलिल'
*
पीढ़ियाँ
अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*

छोड़ निज
जड़ बढ़ रही हैं.
नए मानक गढ़ रही हैं.
नहीं बरगद बन रही ये-
पतंगों
सी चढ़ रही हैं.
चाह लेने की असीमित-
किन्तु देने की
कंगाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
नेह-नाते हैं पराये.
स्वार्थ-सौदे नगद भाये.
फेंककर तुलसी
घरों में-
कैक्टस शत-शत उगाये..
तानती हैं हर प्रथा पर
अरुचि की झट
से दुनाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
भूल देना-पावना क्या?
याद केवल चाहना क्या?
बहुत
जल्दी 'सलिल' इनको-
नहीं मतलब भावना क्या?
जिस्म की
कीमत बहुत है.
रूह की है फटेहाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
**********************
२५-४-२०१०

मुक्तिका

प्रयोगात्मक मुक्तिका:
जमीं के प्यार में...
संजीव 'सलिल'
*
जमीं के प्यार में सूरज को नित आना भी होता था.
हटाकर मेघ की चिलमन दरश पाना भी होता था..
उषा के हाथ दे पैगाम कब तक सब्र रवि करता?
जले दिल की तपिश से भू को तप जाना भी होता था..
हया की हरी चादर ओढ़, धरती लाज से सिमटी.
हुआ जो हाले-दिल संध्या से कह जाना भी होता था..
बराती थे सितारे, चाँद सहबाला बना नाचा.
पिता बादल को रो-रोकर बरस जाना भी होता था..
हुए साकार सपने गैर अपने हो गए पल में.
जो पाया वही अपना, मन को समझाना भी होता था..
नहीं जो संग उनके संग को कर याद खुश रहकर.
'सलिल' नातों के धागों को यूँ सुलझाना भी होता था..
न यादों से भरे मन उसको भरमाना भी होता था.
छिपाकर आँख के आँसू 'सलिल' गाना भी होता था..
हरेक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
जहाँ खुद से मिले खुद 'सलिल' अफसाना भी होता था..
****
२५-४-२०११

गीत

गीत  
.
कह रहे सपने कथाएँ
.
सुन सको तो सुनो इनको
गुन सको तो गुनो इनको
पुराने हों तो न फेंको
बुन सको तो बुनो इनको
छोड़ दोगे तो लगेंगी
हाथ कुछ घायल व्यथाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कर परिश्रम वरो फिर फिर
डूबना मत, लौट तिर तिर
साफ होगा आसमां फिर
मेघ छाएँ भले घिर घिर
बिजलियाँ लाखों गिरें
हम नशेमन फिर भी बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कभी खुद को मारना मत
अँधेरों से हारना मत
दिशा लय बिन गति न वरना
प्रथा पुरखे तारना मत
गतागत को साथ लेकर
आज को सार्थक बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.................

मुक्तिका

मुक्तिका 
*
हँस इबादत करो
मत अदावत करो
मौन बैठें न हम
कुछ शरारत करो
सो लिए हैं बहुत
जग बगावत करो
फिर न फेरो नजर
मिल इनायत करो
आज शिकवे भुला
कल शिकायत करो
फेंक चलभाष हँस
खत किताबत करो
मन को मंदिर कहो
दिल अदालत करो
मुझसे मत प्रेम की
तुम वकालत करो
बेहतरी का कदम
हर रवायत करो
२५-४-२०१७
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चंद्रायण छंद

छंद सलिला:
चंद्रायण छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), ६ वीं से १० वीं मात्रा रगण, ८ वीं से ११ वीं मात्रा जगण, यति ११-१०।
लक्षण छंद:
मंजुतिलका छंद रचिए हों न भ्रांत
बीस मात्री हर चरण हो दिव्यकांत
जगण से चरणान्त कर रच 'सलिल' छंद
सत्य ही द्युतिमान होता है न मंद
लक्ष्य पाता विराट
उदाहरण:
१. अनवरत राम राम, भक्तजन बोलते
जो जपें श्याम श्याम, प्राण-रस घोलते
एक हैं राम-श्याम, मतिमान मानते
भक्तगण मोह छोड़, कर्तव्य जानते
२. सत्य ही बोल यार!, झूठ मत बोलना
सोच ले मोह पाल, पाप मत ओढ़ना
धर्म है त्याग राग, वासना जीतना
पालना द्वेष को न, क्रोध को छोड़ना

३. आपका वंश-नाम!, है न कुछ आपका
मीत-प्रीत काम-धाम, था न कल आपका
आप हैं अंश ईश, के इसे जान लें
ज़िंदगी देन देव, से मिली मान लें

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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

दोहा / घनाक्षरी

एक दोहा
संजीव
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मैं-तुम बिसरायें कहें, हम सम हैं बस एक.
एक प्रशासक है वही, जिसमें परम विवेक..
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एक घनाक्षरी
पारस मिश्र, शहडोल..
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फूली-फूली राई, फिर तीसी गदराई. बऊराई अमराई रंग फागुन का ले लिया.
मंद-पाटली समीर, संग-संग राँझा-हीर, ऊँघती चमेली संग फूँकता डहेलिया..
थरथरा रहे पलाश, काँप उठे अमलतास, धीरे-धीरे बीन सी बजाये कालबेलिया.
आँखिन में हीरकनी, आँचल में नागफनी, जाने कब रोप गया प्यार का बहेलिया..
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