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बुधवार, 13 मार्च 2019

बुंदेली रचनाएँ: संजीव

बुंदेली नवगीत 
*
१. नाग, साँप, बिच्छू भय ठाँड़े 
  • *
    नाग, साँप, बिच्छू भय ठाँड़े,

    धर संतन खों भेस।
    *
    हात जोर रय, कान पकर रय,
    वादे-दावे खूब।
    बिजयी हो झट कै दें जुमला,
    मरें नें चुल्लू डूब।।
    की को चुनें, नें कौनउ काबिल, 
    सरम नें इनमें लेस।
    *
    सींग मार रय, लात चला रय, 
    फुँफकारें बिसदंत।
    डाकू तस्कर चोर बता रय, 
    खुद खें संत-महंत।
    भारत मैया हाय! नोच रइ
    इनैं हेर निज केस।
    *
    जे झूठे, बे लबरा पक्के, 
    बाकी लुच्चे-चोर।
    आपन मूँ बन रय रे मिट्ठू, 
    देख ठठा रय ढोर।
    टी वी पे गरिया रय
    भत्ते बढ़वा, लोभ असेस।
    ***
    २. राम रे!
  • *
    राम रे! 
    कैसो निरदै काल?
    *
    भोर-साँझ लौ गोड़ तोड़ रए 
    कामचोर बे कैते। 
    पसरे रैत ब्यास गादी पै 
    भगतन संग लपेटे। 
    काम पुजारी गीता बाँचें 
    गोपी नचें निढाल-
    आँधर ठोंके ताल 
    राम रे! 
    बारो डाल पुआल। 
    राम रे! 
    कैसो निरदै काल?
    *
    भट्टी देह, न देत दबाई
    पैलउ माँगें पैसा। 
    अस्पताल मा घुसे कसाई 
    थाने अरना भैंसा। 
    करिया कोट कचैरी घेरे 
    बकरा करें हलाल-
    बेचें न्याय दलाल 
    राम रे !
    लूट बजा रए गाल। 
    राम रे! 
    कैसो निरदै काल?
    *
    झिमिर-झिमिर-झम बूँदें टपकें 
    रिस रओ छप्पर-छानी। 
    दागी कर दई रौताइन की 
    किन नें धुतिया धानी?
    अँचरा ढाँके, सिसके-कलपे 
    ठोंके आपन भाल 
    राम रे !
    जीना भओ मुहाल। 
    राम रे! 
    कैसो निरदै काल?
  • ***
  • ३. हम का कर रए
  • हम का कर रए?
    जे मत पूछो,
    तुम का कर रए
    जे बतलाओ?
    *
    हमरो स्याह सुफेद सरीखो
    तुमरो धौला कारो दीखो
    पंडज्जी ने नोंचो-खाओ
    हेर सनिस्चर भी सरमाओ
    घना बाज रओ थोथा दाना
    ठोस पका
    हिल-मिल खा जाओ
    हम का कर रए?
    जे मत पूछो,
    तुम का कर रए
    जे बतलाओ?
    *
    हमरो पाप पुन्न सें बेहतर
    तुमरो पुन्न पाप सें बदतर
    होते दिख रओ जा जादातर
    ऊपर जा रओ जो बो कमतर
    रोन न दे मारे भी जबरा
    खूं खें आँसू
    चुप पी जाओ
    हम का कर रए?
    जे मत पूछो,
    तुम का कर रए
    जे बतलाओ?
  • ***
  • अभिनव प्रयोग:

  • ४. होरा भूँज रओ
    *
    होरा भूँज रओ छाती पै 

    आरच्छन जमदूत 

    पैदा होतई बनत जा रए 

    बाप बाप खें, पूत 

    *

    लोकनीति बनबास पा रई 

    राजनीति सिर बैठ 

    नाच नचाउत नित तिगनी खों 

    घर-घर कर घुसपैठ 

    नाम आधुनिकता को जप रओ 

    नंगेपन खों भूत 

    *

    नींव बगैर मकान तान रय  

    भौत सयाने लोग 

    त्याग-परिस्रम खों तलाक दें

    मनो चाह रय भोग 

    फूँक रए रे, मिली बिरासत 

    काबिल भए सपूत 

    *

    ईंट-ईंट में खेंच दिवारें 

    तोड़ रए हर जोड़ 

    लाज-लिहाज कबाड़ बता रए 

    बेसरमी हित होड़ 

    राह बिसर कें राह दिखा रओ 

    सयानेपन खों भूत

    **
    • *
    • भारतवारे बड़े लड़ैया
      बिनसें हारे पाक सियार
      .
      घेर लओ बदरन नें सूरज
      मचो सब कऊँ हाहाकार
      ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
      कौनौ आ करियो उद्धार
      बही बयार बिखर गै बदरा
      धूप सुनैरी कहे पुकार
      सीमा पार छिपे बनमानुस
      कबऊ न पइयो हमसें पार
      .
      एक सिंग खों घेर भलई लें
      सौ वानर-सियार हुसियार
      गधा ओढ़ ले खाल सेर की
      देख सेर पोंके हर बार
      ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
      करो सेर नें पल मा वार
      पोल खुल गयी, हवा निकर गयी
      जान बखस दो करें पुकार
      .
      (प्रयुक्त छंद: आल्हा, रस: वीर, भाषा रूप: बुंदेली)
  • ५. भारतवारे बड़े लड़ैया
  • *
  • कओ बाद में, सोचो पैले।
  • मन झकास रख, कपड़े मैले।। 
  • *
  • रैदासों सें कर लई यारी।
  • रुचें नें मंदिर पंडित थैले।।
  • *
  • शीश नबा लओ, हो गओ पूजन।
  • तिलक चढ़ोत्री?, ठेंगा लै ले।।
  • *
  • चाहत हो पीतम सें मिलना?
  • उठो! समेटो, नाते फैले।।
  • *
  • जोड़ मरे, जा रए छोड़कर
  • लिए मनुज तन, बे थे बैले।।
  • ***

      • ९.बुन्देली नवगीत :
    • जुमले रोज उछालें
      *
      संसद-पनघट
      जा नेताजू
      जुमले रोज उछालें।
      *
      खेलें छिपा-छिबौउअल,
      ठोंके ताल,
      लड़ाएं पंजा।
      खिसिया बाल नोंच रए,
      कर दओ
      एक-दूजे खों गंजा।
      खुदा डर रओ रे!
      नंगन सें
      मिल खें बेंच नें डालें।
      संसद-पनघट
      जा नेताजू
      जुमले रोज उछालें।
      *
      लड़ें नई,मैनेज करत,
      छल-बल सें
      मुए चुनाव।
      नूर कुस्ती करें,
      बढ़ा लें भत्ते,
      खेले दाँव।
      दाई भरोसे
      मोंड़ा-मोंडी
      कूकुर आप सम्हालें। 
      संसद-पनघट
      जा नेताजू
      जुमले रोज उछालें।
      *
      बेंच सिया-सत,
      करें सिया-सत।
      भैंस बरा पे चढ़ गई।
      बिसर पहाड़े,
      अद्धा-पौना
      पीढ़ी टेबल पढ़ रई। 
      लाज तिजोरी
      फेंक नंगई
      खाली टेंट खंगालें।
      संसद-पनघट
      जा नेताजू
      जुमले रोज उछालें।
      *
      भारत माँ की
      जय कैबे मां
      मारी जा रई नानी।
      आँख कें आँधर
      तकें पड़ोसन
      तज घरबारी स्यानी।
      अधरतिया मदहोस
      निगाहें मैली
      इत-उत-डालें।
      संसद-पनघट
      जा नेताजू
      जुमले रोज उछालें।
      *
      पाँव परत ते
      अंगरेजन खें,
      बाढ़ रईं अब मूँछें।
      पाँच अंगुरिया
      घी में तर 
      सर हाथ
      फेर रए छूँछे।
      बचा राखियो
      नेम-धरम खों
      बेंच नें
      स्वार्थ भुना लें।
      ***
  • बुन्देली मुक्तिका:
  • हमाये पास का है?.
  • *
  • हमाये पास का है जो तुमैं दें?
  • तुमाये हात रीते तुमसें का लें?
  • आन गिरवी बिदेसी बैंक मां है
  • चोर नेता भये जम्हूरियत में।।
  • रेत मां खे रए हैं नाव अपनी
  • तोड़ परवार अपने हात ही सें।।
  • करें गलती न मानें दोष फिर भी
  • जेल भेजत नें कोरट अफसरन खें।।
  • भौत है दूर दिल्ली जानते पै
  • हारियो नें 'सलिल मत बोलियों टें।।
  • ***
  • बुंदेली दोहा सलिला 


    *

    जब लौं बऊ-दद्दा जिए, भगत रए सुत दूर

    अब काए खों कलपते?, काए हते तब सूर?
    *
    खूबई तौ खिसियात ते, दाबे कबऊं न गोड़
    टँसुआ रोक न पा रए, गए डुकर जग छोड़
    *
    बने बिजूका मूँड़ पर, झेलें बरखा-घाम
    छाँह छीन काए लई, काए बिधाता बाम
    *
    ए जी!, ओ जी!, पिता जी, सुन खें कान पिराय
    'बेटा' सुनबे खों जिया, हुड़क-हुड़क अकुलाय

    • १०. मुक्तिका बुंदेली में

  • *
    पाक न तन्नक रहो पाक है?
    बाकी बची न कहूँ धाक है।।
    *
    सूपनखा सें चाल-चलन कर
    काटी अपनें हाथ नाक है।।
    *
    कीचड़ रहो उछाल हंस पर
    मैला-बैठो दुष्ट काक है।।
    *
    अँधरा दहशतगर्द पाल खें
    आँखन पे मल रओ आक है।।
    *
    कल अँधियारो पक्का जानो
    बदी भाग में सिर्फ ख़ाक है।।
    *
    पख्तूनों खों कुचल-मार खें
    दिल बलूच का करे चाक है।।
    *
     

क्षणिका मौन

क्षणिका
मौन
*
बिन बोले ही बोलता
सुन सकते
हर बात।
दिन हो
चाहे रात
फर्क इसे पड़ता नहीं।
बोलो
हो तुम कौन
कभी नहीं यह पूछता?
वन-पर्वत या
हो शहर
बतियाता है मौन।
***
संवस

दोहा-सोरठा गीत

दोहा-सोरठा गीत 
बुधवार, १३-३-२०१९ 
*
ख़ास-ख़ास मिल लड़ रहे,
कहते आम चुनाव। 
नूराकुश्ती सियासत,
ऐक्य संग अलगाव।।
*
पाने रोटी-दाल,
आम आदमी जूझता।
जनता का दुःख-दर्द,
नेता कभी न बूझता।
सुविधाएँ दे त्याग,
मार्ग न उसको सूझता।
मिटती कभी न दूरियाँ
दूर न हो भटकाव।
ख़ास-ख़ास मिल लड़ रहे
कहते आम चुनाव।।
*
वादे रखें न याद,
दावे झूठे कर रहे।
जन-हितकारी मूल्य
बिन मारे ही मर रहे।
इसकी टोपी छीन,
उसके सिर पर धर रहे।
केर-बेर का संग ही
दिखला रहा प्रभाव।
ख़ास-ख़ास मिल लड़ रहे
कहते आम चुनाव।।
*
संवस

दोहा

दोहा 
जब भी पाओ समय तो, करलो तनिक विनोद.
'सलिल' भूलकर फ़िक्र सब, हो आमोद-प्रमोद..
*
'सलिल' बड़ों ने सच कहा, न दो किसी को दोष. 
बढ़ो सतत निज राह पर, मन में रख संतोष..
*

विमर्श धर्म

चिंतन सलिला:
धर्म
संजीव 'सलिल'
*
आत्मीय!
वन्दे मातरम.
महाभारतकार के अनुसार 'धर्मं स: धारयेत' अर्थात वह जो धारण किया जाए वह धर्म है.
प्रश्न हुआ: 'क्या धारण किया जाए?'
उत्तर: 'वह जो धारण करने योग्य है.'
प्रश्न: 'धारण करने योग्य है क्या है?
उत्तर: वह जो श्रेष्ठ है?
प्रश्न: श्रेष्ठ क्या है?
उत्तर वह जो सबके लिए हितकर है.
डॉ. राम मनोहर लोहिया के अनुसार धर्म लंबे समय की राजनीति और राजनीति तत्कालीन समय का धर्म है.
उक्तानुसार धर्म सदैव प्रासंगिक और सर्वोपयोगी होता है अर्थात जो सबके लिए नहीं, कुछ या किसी के लिए हितकर हो वह धर्म नहीं है.
साहित्य वह जो सबके हित सहित हो अर्थात व्यापक अर्थ में साहित्य ही धर्म और धर्म ही साहित्य है.
साहित्य का सृजन अक्षर से होता है. अक्षर का उत्स ध्वनि है. ध्वनि का मूल नाद है... नाद अनंत है... अनंत ही ईश्वर है.
इस अर्थ में अक्षर-उपासना ही धर्मोपासना है. इसीलिये अक्षर-आराधक को त्रिकालदर्शी, पूज्य और अनुकरणीय कहा गया, उससे समाज का पथ-प्रदर्शन चाह गया, उसका शाप अनुल्लन्घ्य हुआ. अकिंचन गौतम के शाप से देवराज इंद्र भी न बच सका.
धर्म समय-सापेक्ष है. समय परिवर्तन शील है. अतः, धर्म भी सतत गतिशील और परिवर्तन शील है, वह जड़ नहीं हो सकता.
पञ्च तत्व की देह पञ्चवटी में पीपल (ब्रम्हा, नीम (शक्ति, रोगाणुनाशक, प्राणवायुदाता), आंवला (हरि, ऊर्जावर्धक ), बेल (शिव, क्षीणतानाशक ) तथा तथा आम (रसवर्धक अमृत) की छाया में काया को विश्राम देने के साथ माया को समझने में भी समर्थ हो सकती थी.
मन के अन्दर जाने का स्थान ही मन्दिर है. मन मन्दिर बनाना बहुत सरल है किन्तु सरल होना अत्यंत कठिन है. सरलता की खोज में मन्दिर में मन की तलाश ने मन को ही जड़ बना दिया.
शिव वही है जो सत्य और सुन्दर है. असत्य या असुंदर शिव नहीं हो सकता. शिव के प्रति समर्पण ही 'सत' है.
शिव पर शंका का परिणाम सती होकर ही भोगना पड़ता है. शिव अर्थात सत्य पर संदेह हो तो मन की शांति छिन जाती है और तन तापदग्धता भोगता ही है.
शिव पर विश्वास ही सतीत्व है. शंकर शंकारि (शंका के शत्रु अर्थात विश्वास) है. विश्वास की संगिनी श्रद्धा ही हो सकती है. तभी तो तुलसी लिखते हैं: 'भवानी-शंकरौ वन्दे श्रृद्धा-विश्वास रूपिणौ' किसी भी काल में श्रृद्धा और विश्वास अप्रासंगिक कैसे हो सकते हैं?
जिसकी सत्ता किसी भी काल में समाप्त न हो वही तो महाकाल हो सकता है. काल से भी क्षिप्र होने पर ही वह काल का स्वामी हो सकता है. उसका वास क्षिप्रा तीर पर न हो तो कहाँ हो?
शिव सृजन से नाश और नाश से सृजन के महापथ निर्माता हैं. श्रृद्धा और विश्वास ही सम्मिलन की आधार भूमि बनकर द्वैत से अद्वैत की ओर ले जाती हैं. श्रृद्धा की जिलहरी का विस्तार और विश्वास के लिंग की दृढ़ता से ही नव सृजन की नर्मदा (नर्मम ददाति इति नर्मदा जो आत्मिक आनंद दे वह नर्मदा है) प्रवाहित होती है.
संयम के विनाश से सृजन का आनंद देनेवाला अविनाशी न हो तो और कौन होगा? यह सृजन ही कालांतर में सृजक को भस्म कर देगा (तेरा अपना खून ही आखिर तुझमें आग लगाएगा).
निष्काम शिव काम क्रीडा में भी काम के वशीभूत नहीं होते, काम को ह्रदय पर अधिकार करने का अवसर दिए बिना क्षार कर देते हैं किन्तु रति (लीनता अर्थात पार्थक्य का अंत) की प्रार्थना पर काम को पुनर्जीवन का अवसर देते हैं. निर्माण में नाश और नाश से निर्माण ही शिवत्व है.
इसलिए शिव अमृत ग्रहण न करने और विषपायी होने पर भी अपराजित, अडिग, निडर और अमर हैं. दूसरी ओर अमृत चुराकर भागनेवाले शेषशायी अमर होते हुए भी अपराजित नहीं रणछोड़ हैं.
सतीनाथ सती को गँवाकर किसी की सहायता नहीं कहते स्वयं ही प्रलय के वाहक बन जाते हैं जबकि सीतानाथ छले जाकर याचक हो जाते हैं. सती के तप का परिणाम अखंड अहिवात है जबकि सीता के तप का परिणाम पाकर भी खो देना है.
सतीनाथ मर्यादा में न बंधने के बाद भी मर्यादा को विस्मृत नहीं करते जबकि सीतानाथ मर्यादा पुरुषोत्तम होते हुए भी सीता की मर्यादा की रक्षा नहीं कर पाते.
शिव रात्रि की प्रासंगिकता अमृत और गरल के समन्वय की कला सीखकर जीने में है.
शेष अशेष...
१३-३-१३ 

शिव (समानिका) छंद

छंद सलिला:
शिव (समानिका) छंद
संजीव
*
लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, ३ री, ६ वी, ९ वी मात्र लघु, मात्रा बाँट ३-३-३-२, चरणान्त लघु लघु गुरु (सगण), गुरु गुरु गुरु (मगण) या लघु लघु लघु (नगण), तीव्र प्रवाह।
लक्षण छंद:
शिव-शिवा रहें सदय, रूद्र जग करें अभय
भक्ति भाव से नमन, माँ दया मिले समन
(संकेत: रूद्र = ११ मात्रा, समन = सगण, मगण, नगण)
उदाहरण:
१. हम जहाँ रहें सनम, हो वहाँ न आँख नम
कुछ न याद हो 'सलिल', जब समीप आप-हम
२. आज ना अतीत के, हार के न जीत के
आइये रचें विहँस, मीत! गीत प्रीत के
नीत में अनीत में, रीत में कुरीत में
भेद-भाव कर सकें, गीत में अगीत में

३. आप साथ हों सदा, मोहती रहे अदा
एक मैं नहीं रहूँ, आप भी रहें फ़िदा

४. फिर चुनाव आ रहे, फिर उलूक गा रहे
मतदाता आज फिर, हाय ठगे जा रहे
केर-बेर साथ हैं, मैल भरे हाथ हैं
झूठ करें वायदे, तोड़ें खुद कायदे
सत्ता की चाह है, आपस में डाह है
रीति-नीति भूलते, सपनों में झूलते
टीप: श्यामनारायण पाण्डेय ने अभिनव प्रयोग कर शिव छंद को केवल ९ वीं मात्रा लघु रखकर रचा है. इससे छंद की लय में कोई अंतर नहीं आया. तदनुसार प्रस्तुत है उदाहरण ४.
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)

षट्पदी- शुभप्रभात

'शुभ प्रभात'
---संजीव 'सलिल'
खिड़की पर बैठी हुई, मीत गुनगुनी धूप.
'शुभ प्रभात' कह रही है, तुमको हवा अरूप.
चूँ-चूँ कर चिड़िया कहे: 'जगो, हो गयी भोर.
आलस छोडो कह रही है मैया झकझोर.
खड़ी द्वार पर सफलता, उठो, मिलाओ हाथ.
'सलिल' परिश्रम जो करे, किस्मत उसके साथ.
***

नवगीत: ऊषा को लिए बाँह में

नव गीत:
ऊषा को लिए बाँह में
संजीव 'सलिल'
*
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल
कहीं पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
शिशु शशि शशीश शीश पर
शशिमुखी विलोकती.
रति-मति रतीश-नाश को
किस तरह रोकती?
महाकाल ही रक्षा करें
लेकर पनाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
१२.३.२०१७ 

होली के रंग छंदों के संग

: होली के रंग छंदों के संग :
संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
हुरियारों पे शारद मात सदय हों, जाग्रत सदा विवेक रहे
हैं चित्र जो गुप्त रहे मन में, साकार हों कवि की टेक रहे
हर भाल पे, गाल पे लाल गुलाल हो शोभित अंग अनंग बसे
मुॅंह काला हो नापाकों का, जो राहें खुशी की छेंक रहे
0
चले आओ गले मिल लो, पुलक इस साल होली में
भुला शिकवे-शिकायत, लाल कर दें गाल होली में
बहाकर छंद की सलिला, भिगा दें स्नेह से तुमको
खिला लें मन कमल अपने, हुलस इस साल होली में
0
करो जब कल्पना कवि जी रॅंगीली ध्यान यह रखना
पियो ठंडाई, खा गुझिया नशीली होश मत तजना
सखी, साली, सहेली या कि कवयित्री सुना कविता
बुलाती लाख हो, सॅंग सजनि के साजन सदा सजना
0
नहीं माया की गल पाई है अबकी दाल होली में
नहीं अखिलेश-राहुल का सजा है भाल होली में
अमित पा जन-समर्थन, ले कमल खिल रहे हैं मोदी
लिखो कविता बने जो प्रेम की टकसाल होली में
0
ईंट पर ईंट हो सहयोग की इस बार होली में
लगा सरिए सुदृढ़ कुछ स्नेह के मिल यार होली में
मिला सीमेंट सद्भावों की, बिजली प्रीत की देना
रचे निर्माण हर सुख का नया संसार होली में
0
न छीनो चैन मन का ऐ मेरी सरकार होली में
न रूठो यार लगने दो कवित-दरबार होली मे
मिलाकर नैन सारी रैन मन बेचैन फागुन में
गले मिल, बाॅंह में भरकर करो सत्कार होली में
0
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी मोहे बरजो न राधिका
आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो मुॅंह ही न फेर ले साॅंसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाॅंवरे से साॅंवरे की कामना भी बाॅंवरी
बैन से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका
=========================

१२.३.२०१७ 

नवगीत तुम

नवगीत:
सरहद
*
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सरहद पार
गया मैं लेने।
*
उठा हुआ सर
हद के पार
चला आया तब
अनजाने का
हाथ थाम कर।
मैं बहुतों के
साथ गया था
तुम आईं थीं
निपट अकेली।
किन्तु अकेली
कभी नहीं थीं,
सँग आईं
बचपन-यौवन की
यादें अनगिन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, पहुँच गया
मैं खुद को देने।
*
था दहेज भी
मैके की
शुभ परम्पराओं
शिक्षा, सद्गुण,
संस्कार का।
ले पतवारें
अपनेपन की
नाव हमें थी
मिलकर खेनी।
मतभेदों की
खाई, अंतरों के
पर्वत लँघ
मधुर मिलन के
सपने बुन-बुन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, संग हुए हम
अंतर खोने।
*
खुद को खोकर
खुद को पाकर
कही कहानी
मन से मन ने,
नित मन ही मन।
खन-खन कंगन
रुनझुन पायल
केश मोगरा
लटें चमेली।
शंख-प्रार्थना
दीप्ति-आरती
सांध्य-वंदना ,
भुवन भारती
हँसी कीर्ति बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, मिली राजश्री
सार्थक होने।
*
भवसागर की
बाधाओं को
मिल-जुलकर
था हमने झेला
धैर्य धारकर।
सावन-फागुन
खुशियाँ लाये
सोहर गूँजे
बजी ढोलकी।
किलकारी
पट्टी पूजन कर,
धरा नापने
नभ को छूने
बढ़ी कदम बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, अँगना खेले
मूर्त खिलौने।
*
देख आँख पर
चश्मे की
मोहिनी हँसे हम,
धवल केश की
आभा देखें।
नव पीढ़ी
दौड़े, हम थकते
शांति अंजुला
हुई सहेली।
अन्नपूर्णा
कम साधन से
अधिक लक्ष्य पा
अर्थशास्त्र को
करतीं सार्थक।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सपने देखे
संग सलोने।
***

१२.३.२०१६ 

भव छंद

छंद सलिला:
भव छंद
संजीव
* लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु गुरु या गुरु
लक्षण छंद:
एकादश पग रखो, भवसिंधु पार करो
चरण आदि मन चाहा, चरण अंत गुरु से हो
उदाहरण:
१. आशा का बीज बो, कोशिश से फसल लो
श्रम सीकर नर्मदा, भव तारें वर्मदा
२. सूर्य चन्द्र सितारा, सकल जगत निखारा
भव को जब निहारा, खुद को भी बिसारा
रूप-रंग सँवारा, असुंदर न गवारा
सच जिसने बिसारा, रण न लड़ रण हारा
३. समय शिला पर लिखो, सबसे आगे दिखो
शब्द नये उकेरो, नव उजास बिखेरो
४. नित्य हरि गुण गाओ, मन में शांति पाओ
छन्दों में मन रमा, कष्टों को दो भुला
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
१२.३.२०१४ 

कुण्डलिया

कुण्डलिया 
संजीव 'सलिल' 
हिंदी की जय बोलिए, हो हिंदीमय आप. 
हिंदी में नित कार्य कर, सकें विश्व में व्याप.. 
सकें विश्व में व्याप, नाप लें सकल ज्ञान का. 
नहीं व्यक्ति का, बिंदु 'सलिल' राष्ट्रीय आन का..
नेह-नरमदा नहा बोलिए होकर निर्भय.
दिग्दिगंत में गूज उठे, फिर हिंदी की जय..
*

मंगलवार, 12 मार्च 2019

मुक्तक

मुक्तक
सूरज चमक रहा माथे पर, बिखरी धूप कपोलों पर
नव विचार कर रहे सवारी, बहते पवन-झकोरों पर
शांत सलिल में बिंबित रवि-छवि, लहर-लहर सिंदूरी कर
कांति नई पाकर कांता से, हो कविता दृग-कोरों पर
*
क्षणिका
*
जानेमन
अब तक रही
क्यों दुश्मने-जां हो गई?
चैन उसके बिन न था
बेचैनियाँ क्यों बो रही?
आस मेरी
प्यास मेरी
श्वास की दुश्मन बनी
हास को छोड़ा नहीं
संत्रास फिर-फिर बो गई।
*
अठ सलल सवैया
११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११
*
जय हिंद कहें, सब संग रहें, हँस हाथ गहें, मिल जीत वरें हम
अरि जूझ थकें, हथियार धरें, अरमान यही, कबहूँ न डरें हम
मत-भेद भले, मन-भेद नहीं, हम एक रहे, सच नेक रहें हम
अरि मार सकें, रण जीत तरें, हँस स्वर्ग वरें, मर न मरें हम
*

सवैया अठ सलल क्षणिका

क्षणिका
*
जानेमन
अब तक रही
क्यों दुश्मने-जां हो गई?
चैन उसके बिन न था
बेचैनियाँ क्यों बो रही?
आस मेरी
प्यास मेरी
श्वास की दुश्मन बनी
हास को छोड़ा नहीं
संत्रास फिर-फिर बो गई।
*
अठ सलल सवैया
११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११
*
जय हिंद कहें, सब संग रहें, हँस हाथ गहें, मिल जीत वरें हम
अरि जूझ थकें, हथियार धरें, अरमान यही, कबहूँ न डरें हम
मत-भेद भले, मन-भेद नहीं, हम एक रहे, सच नेक रहें हम
अरि मार सकें, रण जीत तरें, हँस स्वर्ग वरें, मर न मरें हम
*

सोमवार, 11 मार्च 2019

कुंडलिया

फागुनी कुंडलिया
*
केसरिया किंशुक कुसुम, अँजुरी भर उल्लास।
फागुन फगुनाहट लिए,  अधराधर पर हास।।
अधराधर पर हास, बाँह में बाँह समाए।
अंतर से अंतर कर, अंतर दूर मिलाए।।
कली-फूल तज द्वैत, वरें अद्वैत दे जिया।
अंजुरी भर उल्लास, कुसुम किंशुक केसरिया।।
***
संजीव
११-३-२०१८

वर्ण पिरामिड

वर्ण पिरामिड
१.
'रे
नर!'
वानर
बोल पड़ा
'अभिनंदन
कर, मैं हूँ तेरा
पुरखा सचमुच।'
*
२.
है
छाया
काया से
ज्यादा लंबी,
मत समझो
महत्वपूर्ण है
केवल लंबाई ही।
*
संजीव

हाइकु

त्रिपदिक छंद
*
बेतला वन
नील नभ के नीचे
हरा सघन
*
अंगार वन
फूल उठा पलाश
होली दहन
*
विहँसा टेसू
बाधाएँ देखकर
 न हों हताश
*
औरंगा नदी
दम तोड़ती धार
रेत का घर
*
भुज भेटतीं
औरंगा सह कोयल
सखियाँ मिलीं
*
आम के बौर
महके, बौरा रहे
गौरा औ' गौर                                                                                                                                             
*
करे बेचैन
चलभाष की ध्वनि
हो ध्यान भंग
*
राज खोलता
दर्पण द्रोही नहीं
सत्य बोलता
*
चंपा महका
जूही-मन चहका
अद्वैत वरा
*
टेरें वानर
कूदकर शाखों से
आ जाओ भाई!
*
पांडित्यपूर्ण
लालित्यमयी माधुर्य
भूमि पलामू
*
विकर्षण में
आकर्षण अमित
घर-गृहस्थी
*
विद्रूपताएँ
कनेर के फूल सी
निर्गन्ध पुष्प
*
जली अँगीठी
धुआँ उड़ा कड़वा
चाय है मीठी
*
किनारे लगी
लहरों पर बढ़
जीवन-नैया
*
हिंदी-मुस्लिम
हैं तो परिपूरक
पर उन्मन
*
पावस-पाती
मेघदूत ले आया
धरा हर्षाती
*
चहचहाती
गौरैया तज मौन
हुई कविता
*
नजर आते
कहीं नहीं परिंदे
मानव दोषी
*
दिखा झुर्रियाँ
दर्पण कहे सच
मानव झूठ
*
ज्ञान-पिपासा?
गुरु हैं तृप्ति-दाता
गह शरण
*
मेघ गरजे
नाच उठे मयूर
मयूरी रीझे
*
शीश लगाओ
हिंदुस्तान की माटी
फिर जी जाओ
*
बहार पर
है बैगनबोलिया
निखार पर
*
अरुणचूर
बजाए शहनाई
उषा लजाई
*
कहें वानर
बेतला जंगल के
मैं पूर्वज
*

 




            

दोहा भाई-भतीजावाद

दोहा दुनिया 
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार 
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार 
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
***