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सोमवार, 10 सितंबर 2018

समीक्षा

कृति चर्चा:

नवगीत के नये प्रतिमान- सं. राधेश्याम बंधु

- संजीव सलिल
नवगीत को हिंदी समालोचना के दिग्गजों द्वारा अनदेखा किया जाने के बावजूद वह जनवाणी बनकर उनके कानों में प्रविष्ट हो गया है। फलतः, नवगीत के मूल्यांकन के गंभीर प्रयास हो रहे हैं। नवगीत की नवता-परीक्षण के प्रतिमानों के अन्वेषण का दुरूह कार्य सहजता से करने का पौरुष दिखाया है श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार राधेश्याम बंधु ने। नवगीत के नये प्रतिमानों पर चर्चा करता सम्पादकीय खंड आलोचना और सौन्दर्य बोध, वस्तुवादी वर्गीय चेतना और उसका यथार्थवाद, प्रयोगवाद और लोकधर्मी प्रयोग, इतिहासबोध: उद्भव और विकास, लोकचेतना और चुनौतियाँ, नये रूप और वस्तु की प्रासंगिकता, छंद और लय की प्रयोजनशीलता, मूल्यान्वेषण की दृष्टि और उसका समष्टिवाद, वैज्ञानिक और वैश्विक युगबोध, सामाजिक चेतना और जनसंवादधर्मिता, वैचारिक प्रतिबद्धता और जनचेतना तथा जियो और जीने दो आदि बिन्दुओं पर केन्द्रित है। यह खंड कृतिकार के गहन और व्यापक अध्ययन-मनन से उपजे विचारों के मंथन से निसृत विचार-मुक्ताओं से समृद्ध-संपन्न है। 

परिचर्चा खंड में डॉ। नामवर सिंह, डॉ। विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ। नित्यानंद तिवारी, डॉ। मैनेजर पाण्डेय, डॉ। मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह, डॉ। परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ। विमल, रामकुमार कृषक जैसे विद्वज्जनों ने हिचकते-ठिठकते हुए ही सही नवगीत के विविध पक्षों का विचारण किया है। यह खंड अधिक विस्तार पा सकता तो शोधार्थियों को अधिक संतुष्ट कर पाता। वर्तमान रूप में भी यह उन बिन्दुओं को समाविष्ट किये है जिनपर भविष्य में प्रासाद निर्मित किये का सकते हैं। 

sसमीक्षात्मक आलेख खंड के अंतर्गत डॉ। शिव कुमार मिश्र ने नवगीत पर भूमंडलीकरण के प्रभाव और वर्तमान की चुनौतियाँ, डॉ। श्री राम परिहार ने नवगीत की नयी वस्तु और उसका नया रूप, डॉ। प्रेमशंकर ने लोकचेतना और उसका युगबोध, डॉ। प्रेमशंकर रघुवंशी ने गीत प्रगीत और नयी कविता का सच्चा उत्तराधिकारी नवगीत, डॉ। वेदप्रकाश अमिताभ ने सामाजिक चेतना और चुनौतियाँ, डॉ। भारतेंदु मिश्र ने आलोचना की असंगतियाँ, डॉ। सुरेश उजाला ने विकास में लघु पत्रिकाओं का योगदान, डॉ। वशिष्ठ अनूप ने नईम के लोकधर्मी नवगीत, महेंद्र नेह ने रमेश रंजक के अवदान, लालसालाल तरंग ने कुछ नवगीत संग्रहों, डॉ। रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ ने गीत-नवगीत की तुलनात्मक रचनाशीलता तथा डॉ। राजेन्द्र गौतम ने नवगीत के जनोन्मुखी परिदृश्य पर उपयोगी आलेख प्रस्तुत किये हैं। 

विरासत खंड में निराला जी, माखनलाल जी, नागार्जुन जी, अज्ञेय जी, केदारनाथ अग्रवाल जी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी, धर्मवीर भारती जी, देवेन्द्र कुमार, नईम, डॉ। शंभुनाथ सिंह, रमेश रंजक तथा वीरेंद्र मिश्र का समावेश है। यह खंड नवगीत के विकास और विविधता का परिचायक है।
’नवगीत के हस्ताक्षर’ तथा ‘नवगीत के कुछ और हस्ताक्षर’ खंड में लेखक ने ७० तथा ६० नवगीतकारों को बिना किसी पूर्वाग्रह के उन प्रमुख नवगीतकारों को सम्मिलित किया है जिनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ उसके पढ़ने में आ सकीं। ऐसे खण्डों में नाम जोड़ने की गुंजाइश हमेशा बनी रह सकती है। इसके पूरक खंड भी हो सकते हैं और पुस्तक के अगले संस्करण में संवर्धन भी किया जा सकता है। 

बंधु जी नवगीत विधा से लम्बे समय से जुड़े हैं। वे नवगीत विधा के उत्स, विकास, वस्तुनिष्ठता, अवरोधों, अवहेलना, संघर्षों तथा प्रमाणिकता से सुपरिचित हैं। फलत: नवगीत के विविध पक्षों का आकलन कर संतुलित विवेचन, विविध आयामों का सम्यक समायोजन कर सके हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उनका निष्पक्ष और निर्वैर्य होना। व्यक्तिगत चर्चा में भी वे इस कृति और इसमें सम्मिलित अथवा बारंबार प्रयास के बाद भी असम्मिलित हस्ताक्षरों के अवदान के मूल्यांकन प्रति समभावी रहे हैं। इस सारस्वत अनुष्ठान में जो महानुभाव सम्मिलित नहीं हुए वे महाभागी हैं अथवा नहीं स्वयं सोचें और भविष्य में ऐसे गंभीर प्रयासों के सहयोगी हों तो नवगीत और सकल साहित्य के लिये हितकर होगा। 

डॉ। शिवकुमार मिश्र ने ठीक ही कहा है: ‘डॉ। राधेश्याम बंधु का यह प्रयास नवगीत को उसके समूचे विकासक्रम, उसकी मूल्यवत्ता और उसकी संभावनाओं के साथ समझने की दिशा में एक स्तुत्य प्रयास माना जायेगा।’ कृतिकार जानकारी और संपर्क के आभाव में कृति में सम्मिलित न किये जा सके अनेक हस्ताक्षरों को जड़ते हुए इसका अगला खंड प्रकाशित करा सकें तो शोधार्थियों का बहुत भला होगा। 

‘नवगीत के नये प्रतिमान’ समकालिक नवगीतकारों के एक-एक गीत तो आमने लाता है किन्तु उनके अवदान, वैशिष्ट्य अथवा न्यूनताओं का संकेतन नहीं करता। सम्भवत: यह लेखक का उद्देश्य भी नहीं है। यह एक सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह उपयोगी है। इसकी उपयोगिता में और अधिक वृद्धि होती यदि परिशिष्ट में अब तक प्रकाशित प्रमुख नवगीत संग्रहों तथा नवगीत पर केन्द्रित समलोचकीय पुस्तकों के रचनाकारों, प्रकाशन वर्ष, प्रकाशक आदि तथा नवगीतों पर हुए शोधकार्य, शोधकर्ता, वर्ष तथा विश्वविद्यालय की जानकारी दी जा सकती। 

ग्रन्थ का मुद्रण स्पष्ट, आवरण आकर्षक, बँधाई मजबूत और मूल्य सामग्री की प्रचुरता और गुणवत्ता के अनुपात में अल्प है। पाठ्यशुद्धि की ओर सजगता ने त्रुटियों के लिये स्थान लगभग नहीं छोड़ा है।
१५.६.२०१५
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समीक्ष्य संकलन- नवगीत के नये प्रतिमान, संपादक- राधेश्याम बंधु, प्रकाशक- कोणार्क प्रकाशन, बी-3/163 यमुना विहार, दिल्ली-110053, प्रथम संस्करण-२०१२, मूल्य- ५०० रूपये , पृष्ठ- ४६४, परिचय- संजीव सलिल।

समीक्षा

समीक्षा:

प्यास के हिरन- राधेश्याम बंधु

- संजीव सलिल
नवगीतों और छंदानुशासन को सामान कुशलता से साध सकने की रूचि, सामर्थ्य और कौशल जिन हस्ताक्षरों में है उनमें से एक हैं राधेश्याम बंधु जी।  बंधु जी के नवगीत संकलन 'प्यास के हिरन' के नवगीत मंचीय दबावों में अधिकाधिक व्यावसायिक होती जाती काव्याभिव्यक्ति के कुहासे में सांस्कारिक सोद्देश्य रचित नवगीतों की अलख जगाता है। नवगीतों को लोक की अभिव्यक्ति का माध्यम माननेवालों में बंधु जी अग्रणी हैं। वे भाषिक और पिन्गलीय विरासत को अति उदारवाद से दूषित करने को श्रेयस्कर नहीं मानते और पारंपरिक मान्यताओं को नष्ट करने के स्थान पर देश-कालानुरूप अपरिहार्य परिवर्तन कर लोकोपयोगी और लोकरंजनीय बनाने के पथ पर गतिमान हैं।  

बंधु जी के नवगीतों में शब्द-अर्थ की प्रतीति के साथ लय की समन्विति और नादजनित आल्हाद की उपस्थिति और नियति-प्रकृति के साथ अभिन्न होती लोकभावनाओं की अभिव्यक्ति का मणिकांचन सम्मिलन है। ख्यात समीक्षक डॉ. गंगा प्रसाद विमल के अनुसार’ बंधु जी में बडबोलापन नहीं है, उनमें रूपक और उपमाओं के जो नये प्रयोग मिलते हैं उनसे एक विचित्र व्यंग्य उभरता है।  वह व्यंग्य जहाँ स्थानिक संबंधों पर प्रहार करता है वहीं वह सम्पूर्ण व्यवस्था की विद्रूपता पर भी बेख़ौफ़ प्रहार करता है।  बंधु जी पेशेवर विद्रोही नहीं हैं, वे विसंगत के प्रति अपनी असहमति को धारदार बनानेवाले ऐसे विद्रोही हैं जिसकी चिंता सिर्फ आदमी है और वह आदमी निरंतर युद्धरत है।’

प्यास के हिरन (२३ नवगीत), रिश्तों के समीकरण (२७ नवगीत) तथा जंग जारी है (७ नवगीत) शीर्षक त्रिखंदों में विभक्त यह नवगीत संकलन लोक की असंतुष्टि, निर्वाह करते रहने की प्रवृत्ति और अंततः परिवर्तन हेतु संघर्ष की चाह और जिजीविषा का दस्तावेज है।  ये गीति रचनाएँ न तो थोथे आदर्श का जय घोष करती हैं, न आदर्शहीन वर्तमान के सम्मुख नतमस्तक होती हैं, ये बदलाव की अंधी चाह की मृगतृष्णा में आत्माहुति भी नहीं देतीं अपितु दुर्गन्ध से जूझती अगरुबत्ती की तरह क्रमशः सुलगकर अभीष्ट को इस तरह पाना चाहती हैं कि अवांछित विनाश को टालकर सकल ऊर्जा नवनिर्माण हेतु उपयोग की जा सके।
   
बाजों की 
बस्ती में, धैर्य का कपोत फँसा 
गली-गली अट्टहास, कर रहे बहेलिये, आदमकद 
टूटन से, रोज इस तरह जुड़े 
सतही समझौतों के प्यार के लिए जिए, उत्तर तो 
बहरे हैं, बातूनी प्रश्न
उँगली पर ठहर गये, पर्वत से दिन, गुजरा 
बंजारे सा एक वर्ष और, चंदा तो बाँहों में 
बँध गया, किन्तु 
लुटा धरती का व्याकरण, यह 
घायल सा मौन 
सत्य की पाँखें नोच रहा है ...  

आदि-आदि पंक्तियों में गीतकार पारिस्थितिक वैषम्य और विडम्बनाओं के शब्द चित्र अंकित करता है।     
साधों के 
कन्धों पर लादकर विराम 
कब तक तम पियें, नये 
सूरज के नाम?, ओढ़ेंगे 
कब तक हम, अखबारी छाँव?
आश्वासन किस तरह जिए?
चीर हरणवाले 
चौराहों पर, मूक हुआ 
क्यों युग का आचरण? 
आश्वासन किस तरह जिए? 
नगरों ने गाँव डस लिये
कल की मुस्कान हेतु 
आज की उदासी का नाम ताक न लें?
मैंने तो अर्पण के 
सूर्य ही उगाये नित 
जाने क्यों द्विविधा की 
अँधियारी घिर आती, हम 
उजाले की फसल कैसे उगाये? 
अपना ही खलिहान न देता 
क्यों मुट्ठी भर धान

जैसी अभिव्यक्तियाँ जन-मन में उमड़ते उन प्रश्नों को सामने लाती हैं जो वैषम्य के विरोध की मशाल बनकर सुलगते ही नहीं शांत मन को सुलगाकर जन असंतोष का दावानल बनाते हैं।          
जो अभी तक 
मौन थे वे शब्द बोलेंगे 
हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे
धूप बनकर 
धुंध में भी साथ दो तो 
ज़िन्दगी का व्याकरण कुछ 
सरल हो जाए बाबा की अनपढ़ 
बखरी में शब्दों का सूरज ला देंगे
अनब्याहे फासले 
ममता की फसलों से पाटते चलो, परिचय की 
शाखों पर, संशय की अमरबेल मत पालो
मैं विश्वासों को चन्दन कर लूँगा 

आदि में जन-मन की आशा-आकांक्षा, सपने तथा विश्वास की अभिव्यक्ति है। यह विश्वास ही जनगण को सर्वनाशी विद्रोह से रोककर रचनात्मक परिवर्तन की  ओर उन्मुख करता है। क्रांति की भ्रान्ति पालकर जीती प्रगतिवादी कविता के सर्वथा विपरीत नवगीत की यह भावमुद्रा लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिये सक्षम व्यवस्था का आव्हान करती है।  

बंधु जी के नवगीत सरस श्रृंगार-सलिला में अवगाहन करते हुए मनोरम अभिव्यक्तियों से पाठक का मन मोहने में समर्थ हैं 

यादों के 
महुआ वन
तन-मन में महक उठे 
आओ! हम बाँहों में
गीत-गीत हो जायें

तुम महकते द्वीप की मुस्कान 
हम भटकते प्यार के जलयान 
क्यों न हम-तुम मिल 
छुअन के छंद लिख डालें? 
क्यों न आदिम गंध से
अनुबंध लिख डालें
आओ, हम-तुम मिल 
प्यार के गुणकों से 
रिश्तों के समीकरण
हल कर लें
दालानों की 
हँसी खनकती, बाजूबंद हुई 
आँगन की अठखेली बोली
नुपुर छंद हुई, चम्पई इशारों से 
लिख-लिख अनुबंध 
एक गंध सौंप गयी
सौ-सौ सौगंध, खिड़की में 
मौलश्री, फूलों का दीप धरे 
कमरे का खालीपन
गंध-गीत से भरे 
नयनों में 
इन्द्रधनुष, अधरोंपर शाम 
किसके स्वागत में ये मौसमी प्रणाम? 
जैसी मादक-मदिर अभिव्यक्तियाँ किसके मन को न मोह लेंगी? 

बंधु जी का वैशिष्ट्य सहज-सरल भाषा और सटीक शब्दों का प्रयोग है। वे न तो संस्कृतनिष्ठता को आराध्य मानते हैं, न भदेसी शब्दों को ठूँसते हैं, न ही उर्दू या अंग्रेजी के शब्दों की भरमार कर अपनी विद्वता की धाक जमाते हैं। इस प्रवृत्ति के सर्वथा विपरीत बंधु जी नवगीत के कथ्य को उसके अनुकूल शब्द ही नहीं बिम्ब और प्रतीक भी चुनने देते हैं। उनकी उपमाएँ और रूपक अनूठेपन का बाना खोजते हुए अस्वाभाविक नहीं होते। धूप-धिया, चितवन की चिट्ठी, याद की मुंडेरी, शतरंजी शब्द, वासंती सरगम, कुहरे की ओढ़नी, रश्मि का प्रेमपत्र आदि कोमल-कान्त अभिव्यक्तियाँ नवगीत को पारंपरिक वीरासा से अलग-थलग कर प्रगतिवादी कविता से जोड़ने के इच्छुक चंद जनों को भले ही नाक-भौं चढ़ाने के लिये  विवश कर दे अधिकाँश सुधि पाठक तो झूम-झूम कर बार-बार इनका आनंद लेंगे।  नवगीत लेखन में प्रवेश कर रहे मित्रों के लिए यह नवगीत संग्रह पाठ्य पुस्तक की तरह है। हिंदी गीत लेखन में उस्ताद परंपरा का अभाव है, ऐसे संग्रह एक सीमा तक उस अभाव की पूर्ति करने में समर्थ हैं।  

रिश्तों के इन्द्रधनुष, शब्द पत्थर की तरह आदमी की भीड़ में शीर्षक ३ मुक्तिकाएँ (हिंदी गज़लें) तथा 'आदमी' शीर्षक एकमात्र मुक्तक की उपस्थिति चौंकाती है।  इससे संग्रह की शोभा नहीं बढ़ती। तमसा के तट पर, मेरा सत्य हिमालय पर नवगीत अन्य सम्मिलित, नवगीतों की सामान्य लीक से हटकर हैं। सारतः यह नवगीत संग्रह बंधु जी की सृजन-सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज होने के साथ-साथ आम पाठक के लिये रस की गागर भी है।   
११.५.२०१५ 
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नवगीत संग्रह- प्यास के हिरन, रचनाकार- राधेश्याम बंधु, प्रकाशक- पराग प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-१९९८, मूल्य- रूपये ४०, पृष्ठ ९४,  परिचय- संजीव सलिल

समीक्षा

कृति चर्चा:

एक गुमसुम धूप- राधेश्याम बंधु

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
नवगीत को ‘स्व’ से ‘सर्व’ तक पहुँचाकर समाज कल्याण का औजार बनाने के पक्षधर हस्ताक्षरों में से एक राधेश्याम बंधु की यह कृति सिर्फ पढ़ने नहीं, पढ़कर सोचने और सोचकर करनेवालों के लिये बहुत काम की है-

बाबा की, अनपढ़ बखरी में
शब्दों का सूरज ला देंगे

जो अभी तक मौन थे 
वे शब्द बोलेंगे 

जीवन केवल 
गीत नहीं है 
गीता की है प्रत्याशा 

चाहे थके पर्वतारोही 
धूप शिखर पर चढ़ती रहती

इन नवाशा से भरपूर नवगीतों से मुर्दों में भी प्राण फूँकने का सतत प्रयास करते बंधु जी के लिये लेखन शगल नहीं धर्म है। वे कहते हैं- ‘जो काम कबीर अपनी धारदार और मार्मिक छान्दस कविताओं से कर सके, वह जनजागरण का काम गद्य कवि कभी नहीं कर सकते...जागे और रोवे की त्रासदी सिर्फ कबीर की नहीं है बल्कि हर युग में हर संवेदनशील ईमानदार कवि की रही है। गीत सदैव जनजीवन और जनमानस को यदि आल्हादित करने का सशक्त माध्यम रहा है तो तो वह जन जागरण के लिए आम आदमी को आंदोलित करनेवाला भी रहा है।’

कोलाहल हो 
या सन्नाटा 
कविता सदा सृजन करती है 

यह कहनेवाला गीतकार शब्द की शक्ति के प्रति पूरी तरह आश्वस्त है-

जो अभी 
तक मौन थे 
वे शब्द बोलेंगे 

नवगीत के बदलते कलेवर पर प्रश्नचिन्ह उपस्थित करनेवालों को उनका उत्तर है- 

शब्दों का  
कद नाप रहे जो
वक्ता ही बौने होते हैं। 

शहर का नकली परिवेश उन्हें नहीं सुहाता- 

शहरी शाहों 
से ऊबे तो 
गीतों के गाँव चले आये

किन्तु विडम्बना यह कि गाँव भी अब गाँव से न रहे- 

गाँवों की 
चौपालों में भी 
होरीवाला गाँव कहाँ?

वातावरण बदल गया है- 

पल-पल 
सपनों को महकाती 
फूलों की सेज कसौली है 

कवि चेतावनी देता है- 

हरियाली मत 
हरो गंध की 
कविता रुक जाएगी।  

कवि को भरोसा है कल पर- 

अभी परिंदों 
में धड़कन है 
पेड़ हरे हैं जिंदा धरती 
मत उदास 
हो छाले लखकर 
ओ  माझी! नदिया कब थकती?

 डॉ. गंगाप्रसाद विमल ठीक ही आकलन करते हैं-
"राधेश्याम बंधु ऐसे जागरूक कवि हैं जो अपने साहित्यिक सृजन द्वारा बराबर उस अँधेरे से लड़ते रहे हैं जो कवित्वहीन कूड़े को बढ़ाने में निरत रहा है।" 

नवगीतों में छ्न्दमुक्ति के नाम पर छंदहीनता का जयघोष कर कहन को तराशने का श्रम करने से बचने की प्रवृत्तिवाले कलमकारों के लिये बंधु जी के छांदस अनुशासन से चुस्त-दुरुस्त नवगीत एक चुनौती की तरह हैं। बंधु जी के सृजन-कौशल का उदहारण है नवगीत-‘वेश बदल आतंक आ रहा'।  सभी स्थाई तथा पहला व तीसरा अंतरा संस्कारी तथा आदित्य छंदों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं जबकि दूसरा अंतरा संस्कारी छंद में है। 

जो रहबर
खुद ही सवाल हैं
वे क्या उत्तर देंगे?
पल-पल चुभन बढ़ानेवाले
कैसे पीर हरेंगे?

गलियों में पसरा सन्नाटा
दहशत है स्वच्छंद
सरेशाम ही हो जाते हैं
दरवाजे अब बंद

वेश बदल
आतंक आ रहा
कैसे गाँव जियेंगे?

बस्ती में कुहराम मचा है
चमरौटी की लुटी चाँदनी
मुखिया के बेटे ने लूटी
अम्मा की मुँहलगी रौशनी

जब प्रधान
ही बने लुटेरे
वे क्या न्याय करेंगे?

जब डिग्री ने लाखों देकर
नहीं नौकरी पायी
छोटू कैसे कर्ज़ भरेगा
सोच रही है माई?

जब थाने  
ही खुद दलाल हैं
वे क्या रपट लिखेंगे?

'यह कैसी सिरफिरी हवाएँ' शीर्षक नवगीत के स्थाई व अंतरे संस्कारी तथा मानव छंदों की पंक्तियों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं, ‘उनकी खातिर कौन लड़े?’ नवगीत में संस्कारी तथा दैशिक छन्दों का क्रमिक प्रयोग कर रचे गये स्थायी और अंतरे हैं-

उनकी खातिर
कौन लड़े जो
खुद से डरे-डरे?
बचपन को
बँधुआ कर डाला
कर्जा कौन भरे?

जिनका दिन गुजरे भट्टी में
झुग्गी में रातें
कचरा से पलनेवालों की
कौन सुने बातें?

बिन ब्याही
माँ, बहन बन गयी
किस पर दोष धरे?

परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार: ‘राधेश्याम बंधु प्रगीतात्मक संवेदना के प्रगतिशील कवि हैं, जो संघर्ष का आख्यान भी लिखते हैं और राग का वृत्तान्त भी बनाते हैं।  एक अर्थ में राधेश्याम बंधु ऐसे मानववादी कवि हैं कि उन्होंने अभी तक छंद का अनुशासन नहीं छोड़ा है।’ 
  

इस संग्रह के नवगीत सामयिकता, सनातनता, सार्थकता, सम्प्रेषणीयता, संक्षिप्तता, सहजता तथा सटीकता के सप्त सोपानों पर खरे हैं। बंधु जी दैनंदिन उपयोग में आने वाले आम शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे अपना वैशिष्ट्य या विद्वता प्रदर्शन के लिये क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ अथवा न्यूनज्ञात उर्दू या ग्राम्य शब्दों को खोजकर नहीं ठूँसते, उनका हर नवगीत पढ़ते ही मन को छूता है, आम पाठक को भी न तो शब्दकोष देखना होता है, न किसी से अर्थ पूछना होता है। ‘एक गुमसुम धूप’ का कवि युगीन विसंगतियों, और विद्रूपताओं जनित विडंबनाओं से शब्द-शस्त्र साधकर निरंतर संघर्षरत है। उसकी अभिव्यक्ति जमीन से जुड़े सामान्य जन के मन की बात कहती है, इसलिए ये नवगीत समय की साक्षी देते हैं।
१७.४.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - एक गुमसुम धूप, रचनाकार- राधेश्याम बंधु, प्रकाशक- कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, प्रथम संस्करण-२००८, मूल्य- रूपये १५०, पृष्ठ ९६, समीक्षक- संजीव सलिल

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

नदियाँ क्यों चुप हैं - राधेश्याम बंधु

- डॉ. परमानंद श्रीवास्तव
वरिष्ठ जनचेतना के कवि राधेश्याम बंधु के नवगीतों का यह चौथा संग्रह है ’नदियाँ क्यों चुप है ?‘ इसके पहले उनके तीन नवगीत संग्रह ’बरसो रे घन‘ , ’प्यास के हिरन‘ , ’एक गुमसुम धूप‘ और एक खण्डकाव्य ’एक और तथागत‘ भी प्रकाशित और चर्चित हो चुके हैं। ’नदियाँ क्यों चुप हैं?‘ के नवगीत अपनी प्रखर अन्तर्वस्तु और सहज शिल्प के कारण पठनीय भी हैं और एक बड़े पाठक समुदाय तक पहुँचने में सक्षम भी हैं। इसके पहले राधेश्याम बंधु द्वारा सम्पादित ’नवगीत और उसका युगवोध‘ के माध्यम से ’नवगीत‘ को लेकर सघन विचार-मंथन भी हो चुका है और उसकी परम्परा को निराला और नागार्जुन से जोड़ने की बात भी की गयी है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि समय का दंश इन गीतों में प्रकट है। कवि की दृष्टि में आज ’रिश्तों की नदियाँ‘ सूख गयी हैं। महानगरों में अमानवीयकरण ने व्यवहार में एक ठंढेपन को जन्म दिया है। ज्यों-ज्यों नगर महान हो रहे हैं, नदियाँ सूख रही हैं। यह केवल पर्यावरण का संकट नहीं है बल्कि सामाजिक रिश्तों के छीजने का संकट भी है।
राधेश्याम बंधु मानवीय रिश्तों की भाषा में नदियों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं -
’दादी सी दुबली, गरीब हैं, नदियाँ बहुत उदास,
सबकी प्यास बुझातीं उनकी, कौन बुझाये प्यास ?‘

इसी तरह वे भ्रष्ट व्यवस्था की ओर भी इंगित करते हुए कहते हैं- नहरे तो हैं लेकिन वे फाइलों में ही बहती हैं। अब पानी बोतलों में बिकता है। अब तो प्यासी नदी भी बादलों को टेरती है -
’प्यासी नदी रेत पर तड़पे , अब तो बादल आ।‘
मुंह उचकाये बछिया टेरे , अब तो बादल आ।‘
दादी की गुड़गुड़ी बुलाये ,
अब तो बादल आ।‘

पर्यावरण दिवस पर वृक्षारोपण केवल रस्म नहीं है बल्कि कवि की लोकचेतना की दृष्टि से हार्दिक कामना भी है कि हर आँगन में हरियल पेड़ रोपे जांय, रिश्तों की बगिया मुरझाने न पाये, आँगन की तुलसी एक अम्मा की हर अरदास पहुँचे। साथ ही सफेदपोश बादलों की झूठी हमदर्दी पर भी कवि व्यंग्य करते हुए कहता है -
’बादल भी हो गये सियासी , दर्द नहीं सुनते ,
लगते हैं ये मेघदूत , पर प्यास नहीं हरते,
पानी औ गुड़धानी देंगे ,
फिर - फिर हैं कहते।‘

 यह कैसी बिडम्बना है कि सामाजिक प्रदूषण के प्रभाव से अब बादल भी अछूते नहीं हैं और अब बादल भी तस्कर हो गये हैं। उनसे भी अब प्यास नहीं बुझती। बल्कि उनके शोरगुल से लोगों की नींद ही खराब होती है -
’बदरा सारी रात जगाते,
फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती।‘

 इनके अतिरिक्त ’बरखा की चाँदनी‘ जैसे गीत कवि - दृष्टि के सार्थक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यहाँ भी रिश्ते अर्थवान हैं-
’कभी उतर आँगन में , निशिगंधा चूमती,
कभी खड़ी खिड़की पर, ननदी सी झांकती।
 करती रतजगा कभी, गुमसुम सी रेत पर,
 बरखा की चाँदनी, फिरती मुंडेर पर।‘

 कभी-कभी तनावग्रस्त जिन्दगी की जटिलतायें और बेचैनियाँ इतनी असह्य हो उठती हैं कि चाँदनी भी बेचैन लगने लगती है -
’लेटी है बेचैन चाँदनी, पर आंखों में नींद कहाँ ?
आंखें जब रतजगा करें तो, सपनों की उम्मीद कहाँ ?‘

 इसी तरह ’यादों की निशिगंधा‘ गीत की ये पंक्तियाँ रिश्तों की असंगतियों को आत्मीयता की लय से सुलझा लेने का सुझाव कुछ इस प्रकार देती हुई प्रतीत होती हैं -
’चाहो तो बांहों को, हथकड़ी बना लेना,
मौन के कपोलों पर, सन्धिपत्र लिख देना।
 महुआ - तन छेड़-छेड़, इठलाती चाँदनी,
 पिछवाड़े बेला संग, बतियाती चाँदनी।‘

इसी संग्रह के एक गीत ’चाँदनी को धूप मैं कैसे कहूं ?‘ मे राधेश्याम बंधु रागात्मक संवेदना की तीव्रता को प्रकट करने के लिए कुछ विरोधाभाषी शब्दों का सहारा लेते हैं और इस प्रकार वाक्य के कुछ टुकड़े भाषा का संगीत रचते हुए प्रतीत होते हैं-
’तुम मिले तो गंध की चर्चा हुई,
प्यार के सौगंध की चर्चा हुई,
चाँदनी जो नहीं मेरी हो सकी,
रूप के अनुबंध की चर्चा हुई।‘

कभी-कभी असंगति में संगति की तलाश भी जिन्दगी के कुछ नये आयाम खोलती है। ऐसे में किसी का मौन भी जब मादक लगने लगे तो उसका बोलना कितना आकर्षक होगा ? फिर उसके चित्र की मोहकता, पत्र की रोचकता भी जीवन को अर्थवान बनाने में कितनी सहायक हो सकती है? इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि का प्रकृति- राग कितना अर्थपूर्ण है-
’कभी पलाशों के उत्सव में, कोकिल बन गाते,
कभी जुही, गुलनार, केतकी, के संग इठलाते।‘

राधेश्याम बंधु द्वारा निर्मित फिल्म ’रिश्ते‘ में उनका एक गीत ’कभी हंसाते कभी रूलाते‘ टाइटिल सांग के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यहाँ भी यथार्थ के साथ सघन लयात्मकता विद्यमान है-
’सम्बोधन बेकार हो गये,
बेमानी सब प्यार हो गये,
माली ही जब बगिया लूटे,
रिश्ते सब व्यापार हो गये।‘

यह आज के आधुनिकतावादी और उपभोक्तावादी समाज की कैसी विडम्बना है कि जहाँ व्यक्ति की हर चीज बिकाऊ है। ऐसे में कवि संकल्प करता है कि चाहे जो भी हो, ’हम कलम बिकने न देंगे‘ और शायद सच्चे कवि की यही पहचान भी है। राधेश्याम बंधु की काव्ययात्रा में कई नये प्रस्थान आते हैं। पर मूल संवेदना गीत-संवेदना ही है। उनके गीतों में कहीं महाभारत का प्रसंग है तो कहीं निठारी-काण्ड के प्रति आक्रोश भी है। यूरिया - बोफोर्स के घुटालों के प्रसंग कविता को राजनीतिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं। वहीं बुध्द, गांधी, नानक के संदर्भ धर्म निरपेक्ष संवेदना का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। इसी भारत की आजादी और उसकी अस्मिता का सवाल भी है। इसलिए कवि कहता है-
’चाहे सब दुनिया बिक जाये,
हम तक़दीर नहीं बेचेंगे,
जब तक तन में लहू शेष है,
हम कश्मीर नहीं बेचेंगे।‘

ये पंक्तियाँ हमारे इस विश्वास को मजबूत बनाती हैं कि यदि देश है तो हम है और यदि हम हैं तो देश है। मैं आशा करता हूं कि राधेश्याम बंधु का यह ’नदियाँ क्यों चुप हैं ?‘ नवगीत संग्रह, नवगीत को व्यक्ति प्रदान करेगा और पाठकों से संवाद बनाने में भी सफल होगा।
२७.१०.२०१२ 
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नवगीत संग्रह- नदियाँ क्यों चुप हैं, रचनाकार- राधेश्याम बन्धु, प्रकाशक- कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०११ , मूल्य-रू. १५०/-, पृष्ठ-११२, समीक्षा लेखक- डॉ. परमानंद श्रीवास्तव।

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पुस्तक चर्चा:

रेत की व्यथा कथा- राम सेंगर

- रामशंकर वर्मा
१९४५ में जिला-हाथरस में जन्मे और वर्तमान में कटनी, मध्यप्रदेश की भूमि से साहित्य जगत को अपने नवगीतों से समृद्ध करने वाले राम सेंगर हिन्दी नवगीत के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे देश के उन गिने-चुने नवगीतकारों में से एक हैं, जिनके नवगीत डा॰ शम्भुनाथ सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत दशक-२’ व ‘नवगीत अर्द्धशती’ में स्थान पाने में समर्थ हो सके। नवगीत के चरणबद्ध विकास और उसके चरित्र में शिल्प, कथ्य, भाशा, युगबोध के बरक्स हुए परिर्वतनों को जानने के लिए नवगीत के प्रारम्भिक दौर के नवगीतकारों के नवगीतों पर पाठचर्या करना अनेक कारणों से उपयोगी है। स्वराजकामी भारतीय जनमानस ने जिन अच्छे दिनों की चाह में कन्धे से कन्धे मिलाकर विदेशी सत्ता से लोहा लिया, उसके राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विचलन, विखण्डन, स्वप्नभंग की अच्छी पड़ताल उनके नवगीतों में की गयी है। 

‘रेत की व्यथा कथा’ उद्भावना प्रकाशन से आने के पूर्व ‘शेष रहने के लिए-१९८६’, ‘जिरह फिर कभी होगी-२००१’ ‘एक गैल अपनी भी-२००९ तथा ‘ऊॅंट चल रहा है-२००९ जैसे उनके नवगीत संग्रह
 साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। 
               
‘रेत की व्यथा कथा’ में संकलित १०४ नवगीत कथ्य, भाषा-शैली, शब्द-विन्यास और शिल्प के स्तर पर उनकी परिपक्व पकड़ के साक्षी हैं। लोकसम्पृक्ति से आच्छादित आस-पास बिखरे विषयों पर उनकी पर्यवेक्षण दृष्टि बहुआयामी है। नयी पीढ़ी के गाँव से शहरों में विस्थापन के फलस्वरूप सामाजिक ताने-बाने की टूट-फूट की विडम्बना कितनी जीवंत हो उठी है इन पंक्तियों में-
ताराचंद, लोकमन, सुखई
गाँव छोड़ कर चले गये
गाँव, गाँव-सा रहा न भैया
रहते तो मर जाते। 
टुकड़े-टुकड़े बिकीं ज़मीनें
औने-पौने ठौर बिके
जीने के आसार रहे जो
चलती बिरियाँ नहीं दिखे
डब-डब आँखों से देखे
बाजों के टूटे पाते।                         

पलायन की बेबसी इन पंक्तियों में कितनी मार्मिक और सहजोर हो उठी है-
गाँव का 
खॅंडहरनुमा घर
एक हिस्सा था
खुशी से छोड़ आये। 

गाँव हमारा वृन्दावन था
इसी धीर नदिया के तीरे।
हैरत में हैं, कहाँ गया वह
लेश नहीं पहचान बची रे।
उजड़ गये रोजी-रोटी में
ख़ाकनसीनों के सब टोले।

पदलिप्सा और चाटुकारिता के विद्रूप समय में स्वयंभू सत्ताधीशों की हाँ में हाँ मिलाने की प्रवत्ति पर कटाक्ष कितना सटीक है इस नवगीत में। 
सुनो भाई!
तुम कहो सो ठीक
लो हम
कीच को कहते मलाई! 

बडे़ लोग हैं
बात-बात में
भारी बतरस घोलें। 
...
बड़े लड़ाके चार कान के
कहें तवे को आरसी।

विकास की दौड़ में मानवनिर्मित संरचनाओं में मृत्यु की असामयिक त्रासदी झेलने का विम्ब उकेरने में वे सिद्धहस्त हैं-             
डूब गया शिवदान 
नहर में
हुई बावरी माई। 

नवगीतों में वर्ण्य विषय की अछोर विविधता है उनके पास। पूँजीवादी  चलन में संकुल परिवारों से अलग-थलग पड़े बुर्जुगों का एकाकीपन, असहायता, घुटन को चित्रित करते हुए वे कहते हैं-

अच्छा ही हुआ
सब भूल गये।
...
नातों का विम्ब लगे
जिसका परिवार नाम
टूटता हुआ। 
...
कठिन समय ने
खाल उतारी
कैसे कैसे पापड़ बेले
बचे समर में निपट अकेले
...
पर इस एकाकीपन में भी अटूट जिजीविषा के सहारे सकारात्मक दैनिकचर्या के अद्भुत विम्ब भी हैं उनके पास-

इकली है तो क्या 
प्रसन्नमन
जीती जमुना बाई।  
...
कोठरी में 
क्या करे ठुकठुक!
आ, तुझे गा लूँ अगाये दुख!     
...
आम दिनों की तरह आज भी
जागे नौ के बाद। 
...
फूट रहे हैं
साँस-साँस में
गीत सृजन के
भले अकेला हूँ 
पर, मुझमें 
सृष्टि समाई है। 

उनके वर्ण्य विषय यथार्थ के मजबूत माँझे में बॅंधकर समकालीन युगबोध के विस्तृत नभ का भ्रमण कराते हैं। यांत्रिक और मानसिक तकनीक के दोधारे वार के फलस्वरूप ठेठ गाँवों के पुश्तैनी शिल्प, कुटीर-धन्धों का विनाश, आग्रही जातीयता के दुष्परिणाम, वैमनस्य, विवषता, संकीर्णता, घुन्नापन, भेदभाव, जैसी विकृत मनोवृत्तियॉं का चित्रण बखूबी उन्होंने किया है। लालफीताशाही, स्वार्थ, बाजारवाद, मॅंहगाई के बीच कम ही सही सहज रोमांस की प्रतीतियों को भी स्वर दिया है-

दूर किसी पर्वत पर
खिंची रजत रेखा-सा
झिलमिला रहा
पहला प्यार।
...
फिर दिखी हो!
कड़क सुन सौदामिनी की जागते हैं
रात, सपने में। 
                        
पुष्ट नवगीत में सूत्रवाक्य की तरह का अर्थवान, सम्प्रेषणीय, लययुक्त मुखडा उसके आकर्षण, स्वीकार्यता में अनायास वृद्धि और आगे के अन्तरों के प्रति सहज जिज्ञासा उत्पन्न करता है। इस दृष्टि से संकलन के अधिकांश मुखड़े अद्भुत हैं-

हॅंसी-ठट्ठा ज़िन्दगी का
चले अपने साथ।
...
कल अपने भी दिन आयेंगे।
...
दिल रखने को नहीं छिपाई
मन की कोई बात।
...
बदल गये परिप्रेक्ष्य
कालगति
हम ही बदल न पाये। 
...
सबकी जय-जयकार
बिरादर
सबकी जय-जयकार।
...
हम हिरन के साथ हैं
वे भेड़ियों के साथ
...
कठिन समय ने खाल उतारी।
...
चरखा कात रही हैं अम्मा
दोनों हाथ साधते लय को।
...
चबूतरा बढ़ई टोले का
जुड़ी हुई चौपाल।                       
...
जन से कटे, मगन नभचारी
देख रहे हैं नब्ज़ हमारी।
...
ग़लत आउट दे दिया
आउट नहीं थे,
रिव्यू देखें....
सरासर ‘नो बाल’ है। 
...
चलो, छोड़ो कुर्सियों को
यहीं
इस दहलीज पर ही बैठ कर
दो बात करते हैं। 
...
गीत या नवगीत 
जो भी लिख!
आदमी के पक्ष में ही दिख!
...
चढ़ी बाँस पर नटनी भैया
अब क्या घूँघट काढ़े।
...
ऐसे बैठे हैं ज्यों
मुँह में
गोबर भरा हुआ हो।
इनके अतिरिक्त अन्य नवगीतों के मुखड़ों में भी कहीं-कहीं मुहावरों का प्रयोग, संक्षिप्तता, गेयता, प्रवाह का निर्वाह उनके जैसे बड़े कद के नवगीतकार के सर्वथा अनुरूप है।   
                    
७० वर्षों का अकूत जीवन अनुभव, दर्षन उनके नवगीतों में अविच्छिन्न रूप से विद्यमान है। समय का खुरदुरापन व्यक्त करने में उन्होंने कहीं कोताही नहीं की है। लोक में प्रचलित शब्दों के संरक्षण में भी कवि की महती भूमिका निर्विवाद है। बघेली और ब्रजभाषा के आँचलिक शब्दों का बेहद संजीदगी और करीने से प्रयोग उनके विपुल शब्द भण्डार का धनी होने का संकेत है। ऐसे शब्दों का अर्थ जानने के लिए मुझे उनसे फोन पर सम्पर्क करना पड़ा। शब्दकोशों भाशा के प्रति पाठकों के जुड़ाव और जिज्ञासा जगाने की यह चातुरी और कौशल विरले नवगीतकारों के पास है। 

धन्धे-टल्ले, जॉंगर, कीचकॉंद, घूमनियॉं टिकुरी, इकहड़ पहलवानी, झाऊ, झोल, हिलगंट, जगार, झाँझर, लाठ, घरपतुआ, डूँगरी-डबरे, खिसलपट्टी, मलीदा, गोड़गुलामी, सतनजा, गम्मत, गुन्ताड़े, अलसेट, तखमीने, घीसल, नरदे, चरावर, ठोप, गहगहा, टिटिहारोर, लवे लोहित, ग्यारसी, औझपा, निमकौड़ी, छाहुर, तकुआ-पोनी-पिंदिया आदि शब्दों का सटीक चयन ऐसा ही प्रयत्न है।   

नवगीतों में शिल्प, मुखड़े, अंतरे, विम्ब विधान, संक्षिप्तता, युगसापेक्षता, लय, छन्दानुशा
सन, आदि तत्व उसे गीत से प्रथक संज्ञा देने में समर्थ होते हैं। संवेदना तो गीत से विरासत में मिली ही है। गाँव की दोहपर में लोकजीवन के क्रियाकलाप, हॅंसी-ठिठौली, चौपालों की गपशप, ताल में सिंघाड़े तोड़ने, अलाव तापने जैसे अनेक विम्ब अनूठे बन पड़े हैं-  
                   
सुनी ख़बर पर
बदहवास-सी
एक रूलाई फूटी।
डोल कुएँ में गिरा
हाथ की रस्सी सहसा छूटी। 
...
बानक से बिदका कर
सब झरहा कुत्तों को
अजगर-सी पड़ी हुई
सड़क के दलिद्दर पर
मारता कुदक्के 
यह बानर।
...
विष्णु घोंट रहा है लेई
चोटी गूँथ रही हरदेई
बच्चू बना रहा घरपतुआ
चींटे काट रहे अक्षय को।
...
सड़क-बगिया-
खेल का मैदान-बच्चे
खिसलपट्टी
चाय पीने का इधर
आनन्द ही कुछ और है। 
...
मैली धुतिया
चीकट बंडी
पहन भरी बरसात में।
चला जा रहा मगन बहोरी
ले चमरौधा हाथ में। 
...
दंगाई कहर में
जले घर के मलबे पर
बैठे हैं बीड़ी सुलगाने।
...
ऐसे बैठे हैं ज्यों
मुँह में
गोबर भरा हुआ हो।                       
...
संकलन के कई नवगीतों में वे आमजन की चिन्ता के साथ खड़े नजर आते हैं। पुश्तैनी कुटीर-उद्योग जो ग्राम्य समाज की आजीविका, शिल्प-कौशल का आधारस्तंभ थे, आयातित नीतियों और मशीनीकरण की भेंट चढ़ गये। तद्जनित विस्थापन, पलायन, बेरोजगारी जैसी विसंगतियों, विवशताओं के अनेक चित्रों से पाठक उनकी जनपक्षधरता का आकलन कर सकते हैं। 

धन्धे, टल्ले बन्द हो गये
दस्तकार के हाथ कटे।
लुहर-भट्ठियाँ फूल गयीं सब
बिना काम हौसले लटे।
बढ़ई-कोरी-धींवर टोले
टोले महज़ कहाते।
...  
हाथ-पाँव चलते हैं तब तक
खेत कमायें, ढ़ेले फोड़ें
ठौर-मढ़ैया खड़ी हो न हो
पेट काट कर पैसा जोड़ें
वक़्त बहुत आगे उड़ भागा
जो होगा देखा जायेगा
फूटा करम न भाये।
...
दबा और कुचला हरिबन्दा
बूढ़ा बाप हो गया अंधा
तेल दिये का कब तक चलता
कर्कट ने लीली महतारी
कठिन समय ने खाल उतारी।
...
रचे में बोले
न यदि मिट्टी
तुष्टि के सम्मोह की कर जाँच 
कुछ नहीं होता
करिश्मों से 
हो न जब तक भावना में ऑंच
स्वयं से, बाहर 
निकल कर 
दीन-दुनिया से न जाये छिक!
गीत या नवगीत 
जो भी लिख!
आदमी के पक्ष में ही दिख!                      
सहज सम्प्रेष्य भाषा में कहीं-कहीं लोकोक्तियों, मुहावरों के प्रयोग ने कथ्य में गजब का पैनापन दृष्टिगोचर होता है। 
चकमक दीदा
भखें मलीदा, चीरें एक
बघारें पाँच 
उद्धत को पानफूल
प्रेमी को दुतकारी 
निमकौडी़ पर
मरे न कोयल
कौआ को सब भावे चोट पाँव में
माथे मरहम, बड़े लड़ाके चार कान के
कहें तवे को आरसी...  इत्यादि।   

‘रेत की व्यथा-कथा’ नवगीतकारों की पुरानी पीढ़ी की अपनी विशिष्ट कहन, भाव-भंगिमा, लोकसम्पृक्ति पर सशक्त पकड़ का बहूमूल्य दस्तावेज है, इसका समादर किया जाना चाहिए। 
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गीत- नवगीत संग्रह - रेत की व्यथा कथा, रचनाकार- राम सेंगर, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन 
एच-५५, सेक्टर २३, राजनगर, गाजियाबाद।  प्रथम संस्करण- २०१३, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ- १३५, समीक्षा - रामशंकर वर्मा।

शनिवार, 8 सितंबर 2018

दोहा सलिला

गीत जन्म के गा रहा, हूँ मरघट में बैठ।
यम में दम हो तो करे, सुख-सपनों में पैठ।।
*
रात अमावस की मिली अंबर से उपहार।
दीप जला मैंने दिया,  उसका रूप सँवार।।
*
मरुथल मृगतृष्णा लिए, चाहे लेना भींच।
श्रम-सीकर मैंने बहा,  दिया मरुस्थल सींच।।
*
याद किसी की मन-बसी,  करती जब बेचैन।
विरह-मिलन के विषम-सम,  चरण रचूँ दिन-रैन।।
*
मन-मंदिर में जलाकर, माँ ने ममता-दीप।
जगा-किया संजीव झट,  मुस्का आँगन लीप।।
*
पापा को पा यूँ लगा, है सिर पर आकाश।
अँगुली सकता थाम फिर, गिर-उठकर मैं काश।।
*
जी में जी आया तभी,  जब जीजी के साथ।
पथ पर पग रख हँस चला, थाम हाथ में हाथ।।
*
चक्की से गेहूँ पिसा, लाया पहली बार।
माँ से सुन करते रहे, पापा प्यार-दुलार।।
*
गाय न घर में जब रही,  हुआ दूध बेस्वाद।
गोबर गुम अब यूरिया, फसल करे बरबाद।।
*
संध्या-वंदन कर हँसा, चंदा बोले रैन।
नैन मटक्का छोड़कर, घर आ जा; हो चैन।।
*
निशा-निशापति ने किया, छिप जी भरकर प्यार।
नटखट तारों से हुआ,  घर-अंबर गुलजार।।
***
8.9.2017

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

samiksha

कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.
पुस्तक चर्चा
काल है संक्रांति का - एक सामयिक और सशक्त काव्य कृति
- अमरेन्द्र नारायण
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे एक सम्माननीय अभियंता, एक सशक्त साहित्यकार, एक विद्वान अर्थशास्त्री, अधिवक्ता और एक प्रशिक्षित पत्रकार हैं। जबलपुर के सामाजिक जीवन में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी यही बहुआयामी प्रतिभा उनकी नूतन काव्य कृति 'काल है संक्रांति का' में लक्षित होती है। संग्रह की कविताओं में अध्यात्म, राजनीति, समाज, परिवार, व्यक्ति सभी पक्षों को भावनात्मक स्पर्श से संबोधित किया गया है। समय के पलटते पत्तों और सिमटते अपनों के बीच मौन रहकर मनीषा अपनी बात कहती है-
'शुभ जहाँ है, उसीका उसको नमन शत
जो कमी मेरी कहूँ सच, शीश है नत।

स्वार्थ, कर्तव्यच्युति और लोभजनित राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के इस संक्रांति काल में कवि आव्हान करता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो, जगो-उठो।
कवि माँ सरस्वती की आराधना करते हुए कहता है-
अमल-धवल, शुचि
विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैयाँ
तिमितहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा
नाद-ताल, गति-यति खेलें तव कैयाँ
अनहद सुनवा दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!!
अध्यात्म के इन शुभ क्षणों में वह अंध-श्रद्धा से दूर रहने का सन्देश भी देता है- अंध शृद्धा शाप है
आदमी को देवता मत मानिए
आँख पर पट्टी न अपनी बाँधिए
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए
लक्ष्य अपना आप हैं।
संग्रह की रचनाओं में विविधता के साथ-साथ सामयिकता भी है। अब भी जन-मानस में सही अर्थों में आज़ादी पाने की जो ललक है, वह 'कब होंगे आज़ाद' शीर्षक कविता में दिखती है-
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
गये विदेश पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन
भाषण देतीं, पर सरकारें दे न स्की हैं राशन
मंत्री से सन्तरी तक, कुटिल-कुतंत्री बनकर गिद्ध
नोच-खा रहे भारत माँ को, ले चटखारे-स्वाद
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
आकर्षक साज-सज्जा से निखरते हुए इस संकलन की रचनाएँ आनन्द का स्रोत तो हैं ही, वे न केवल सोचने को मजबूर करती हैं बल्कि अकर्मण्यता दूर करने का सन्देश भी देती हैं।
कवि को हार्दिक धन्यवाद और बधाई।
गीत-नवगीत की इस पुस्तक का स्वागत है।
***
समीक्षक परिचय- अमरेंद्र नारायण, ITS (से.नि.), भूतपूर्व महासचिव एशिया पेसिफिक टेलीकम्युनिटी बैंगकॉक , हिंदी-अंग्रेजी-उर्दू कवि-उपन्यासकार, ३ काव्य संग्रह, उपन्यास संघर्ष, फ्रेगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स, द स्माइल ऑफ़ जास्मिन, खुशबू सरहदों के पार (उर्दू अनुवाद)संपर्क- शुभा आशीर्वाद, १०५५ रिज रोड, दक्षिण सिविल लाइन जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६०४६००, ईमेल- amarnar@gmail.com।
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vimarsh 2

विमर्श: २ 
देवता कौन हैं? 
 
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना', भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, परा-प्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।

बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर- वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विष्णु-महेश) फिर डेढ़ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मंत्रों के विभिन्न देवता (उपास्य, इष्ट) हैं। प्रत्येक मंत्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार 
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करनेवाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अंतरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहनेवाले देवता।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि हैं।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व आदि) गण्य हैं।

ऋग्वेद में स्तुतियों से देवता पहचाने जाते हैं। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मावाचक करते हैं। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, संप्रदाय, अलग-अलग पूजा-पाठ बनाये गए।
धर्मशास्त्र में "तिस्त्रो देवता" (तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का का कार्य सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गई। निरुक्तकार यास्क के अनुसार,"देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत (शांति पर्व) तथा शतपथ ब्राह्मण में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं।  
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम।। 
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतंत्र माना जाता है। प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती, काली), शंकर, कृष्ण, इंद्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।
देवता का एक वर्गीकरण जन्मा तथा अजन्मा होना भी है। त्रिदेव, त्रिदेवियाँ आदि अजन्मा हैं जबकि राम, कृष्ण, बुद्ध आदि जन्मा देवता हैं इसी लिए उन्हें अवतार कहा गया है। 
देवता मानव तथा अमानव भी है। राम, कृष्ण, सीता, राधा आदि मानव, जबकि हनुमान, नृसिंह आदि अर्ध मानव हैं जबकि मत्स्यावतार, कच्छपावतार आदि अमानव हैं। 
प्राकृतिक शक्तियों और तत्वों को भी देवता कहा गया हैं क्योंकि उनके बिना जीवन संभव न होता। पवन देव (हवा), वैश्वानर (अग्नि), वरुण देव (जल), आकाश, पृथ्वी, वास्तु आदि ऐसे ही देवता हैं। 
सार यह कि सनातन धर्म (जिसका कभी आरंभ या अंत नहीं होता) 'कंकर-कंकर में शंकर' कहकर सृष्टि के निर्माण में छोटे से छोटे तत्व की भूमिका स्वीकारते हुए उसके प्रति आभार मानता है और उसे देवता कहता है।इस अर्थ में मैं, आप, हम सब देवता हैं। इसीलिए आचार्य रजनीश ने खुद को 'ओशो' कहा और यह भी कि तुम सब भी ओशो हो बशर्ते तुम यह सत्य जान और मान पाओ। 
अंत में प्रश्न यह कि हम खुद से पूछें कि हम देवता हैं तो क्या हमारा आचरण तदनुसार है? यदि हाँ तो धरती पर ही स्वर्ग है, यदि नहीं तो फिर नर्क और तब हम सब एक-दूसरे को स्वर्गवासी बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर रहे। हमारा ऐसा दुराचरण ही पर्यावरणीय समस्याओं और पारस्परिक टकराव का मूल कारण है। 
आइए, प्रयास करें देवता बनने का। 
***

vimarsh

विमर्श:
देवताओं को खुश करने पशु बलि बंद करो : हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय 
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने २०१४ में दिए एक निर्णय में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए की जानेवाली पशुबलि पर प्रतिबंध लगाते हुए कहा है कि हजारों पशुओं को बलि के नाम पर मौत के घाट उतरा जाता है। इसके लिए पशुओं को असहनीय पीड़ा सहनी पड़ती है। न्यायमूर्ति द्वय राजीव शर्मा और सुरेश्वर ठाकुर की खंडपीठ के अनुसार इस सामाजिक कुरीति को समाप्त किया जाना जरूरी है। न्यायालय ने आदेश किया है कि कोई भी पशुओं की बलि नहीं देगा।

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों के निर्णय के मुताबिक पशुओं को हो रही असहनीय पीड़ा और मौत देना सही नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या केवल देव-बलि के लिए अथवा मानव की उदरपूर्ति लिए भी? देव-बली के नाम पर मा रहे हजारों जानवर बच जाएँ और फिर मानव भोजन के नाम पर मारे जा रहे जानवरों के साथ मारे जाएँ तो निर्णय बेमानी हो जायेगा। यदि सभी जानवरों को किसी भी कारण से मारने पर प्रतिबंध है तो मांसाहारी लोग क्या करेंगे? क्या मांसाहार बंद किया जायेगा?
इस निर्णय का यह अर्थ तो नहीं है कि हिंदू मंदिर में बलि गलत और बकरीद पर मुसलमान बलि दे तो सही? यदि ऐसा है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। आप सोचें और अपनी बात यहाँ कहने के साथ संबंधित अधिकारियों, समाचार माध्यम और जनप्रतिनिधियों तक भी पहुँचाइए।

muktak

मुक्तक सलिला:
संजीव
*
मनमानी कर रहे हैं
गधे वेद पढ़ रहे हैं
पंडित पत्थर फोड़ते
उल्लू पद वर रहे हैं
*
कौन किसी का सगा है
अपना देता दगा है
छुरा पीठ में भोंकता
कहे प्रेम में पगा है
*
आप टेंट देखे नहीं
काना पर को दोष दे
कुर्सी पा रहता नहीं
कोई अपने होश में
*
भाई-भतीजावाद ने
कमर देश की तोड़ दी
धारा दीन-विकास की
धनवानों तक मोड़ दी
*
आय नौकरों की गिने
लेते टैक्स वसूल वे
मालिक बाहर पकड़ से
कहते सही उसूल है
*

सितम्बर

सितम्बर : कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र १८५०
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली,
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर
२७. निधन: राजा राम मोहन राय, विश्व पर्यटन दिवस
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस
भूल-चूक हेतु खेद है.