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सोमवार, 13 अगस्त 2018

ॐ doha shatak shashi tyagi

ॐ 
मुझमें मैं मरता गया
दोहा शतक
शशि त्यागी 





















जन्म तिथि व स्थान: २८ मार्च १९५९, नई दिल्ली।
आत्मजा: स्व. श्रीमती जयवती-स्व. श्री उमराव सिंह त्यागी।
जीवन साथी: श्री गिरीश त्यागी।
काव्य गुरु का नाम: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'। 
शिक्षा: एम. ए. हिन्दी, बी. एड, गायन प्रभाकर, बोम्बे आर्ट। 
संप्रति: अध्यापिका दिल्ली पब्लिक स्कूल, मुरादाबाद।  
लेखन विधा: दोहा, कविता, गीतिका , मुक्तक, कविताएँ , हाइकु, पिरामिड, चोका, लेख, साहित्य-ध्वन्यांकन  आदि। 
प्रकाशित कार्य: साझा संकलन- वर्ण पिरामिड- अथ से इति,शत हाइकुकार -शताब्दी वर्ष, ताँका की महक, अंतर्राष्ट्रीय ई मैगजी़न "प्रयास" कनाडा से प्रकाशित पत्रिका में रचनाएँ। 
उपलब्धि: भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा कविता हेतु प्राप्त बधाई पत्र,पिरामिड भूषण,सारस्वत सम्मान, सारस्वत सम्मान, सर्व भाषा" सम्मान, छंद मुक्त श्री, मंच उद्घोषिका, हिन्दी काव्य रत्न"सम्मान, काव्य धारा - काव्य श्री" सम्मान आदि । 
संपर्क:  ३८ अमरोहा ग्रीन, जोया मार्ग, अमरोहा २४४२२१  उत्तर प्रदेश।   
चलभाष: ९०४५१७२४०२।  
ईमेल: shashityagi283@gmail.com
*
शशि त्यागी जी अध्यापिका और गृह-स्वामिनी है। उनके व्यक्तित्व में विनम्रता, शालीनता, अनुशासन और आदर्श का सम्मिलन होना स्वाभाविक है। उन्हें भली-भांति विदित है कि भारतीय समाज के जीवन मूल्य श्रेष्ठ और अनुकरणीय हैं। भारतीय परिवारों को पश्चिमी शिक्षा प्रणाली द्वारा किये जा रहे मूल्य-ह्रास से बचने के लिए वे परिवारजनों को एक साथ समय बिताने और हँसी-ठिठोली करने का परामर्श ठीक ही देती हैं। 
हँसी-ठिठोली ही भली, बिखरे हों सब रंग। 
कुछ पल सभी बिताइए, जीवन संगी संग।।
केवल भौतिक विकास को सब कुछ मानने की भूल का दुष्परिणाम निम्न दोहे में इंगित है-
पढ़ा-लिखा संतान को, भेज दिया परदेस। 
सेवा करने के लिए, किसको दें आदेश।।
धन, शिक्षा और शक्ति की अधिष्ठात्री नारी को मानकर उसका और कन्या का पूजन करने के बाद भी भारत में कन्या-भ्रूण हत्या की कुप्रथा है। शशि जी कन्या को सुख-समृद्धि का पर्याय मानकर उसकी रक्षा हेतु आव्हान करती हैं -  
कन्या भ्रूण बचाइए, बेटी घर की  शान।
घर खुशहाली लाइए, सुख-समृद्धि पहचान।।
सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा शशि जी का वैशिष्ट्य है। सामयिक विसंगतियों के अन्वेषण और निराकरण के प्रति वे सजग हैं। उर्वरकों का अत्यधिक प्रयोग किये जाने के कारण फसलों में घातक रसायन बढ़ने का उपाय जैविक खाद का उपयोग आवश्यक है-  
ज़हरीली फसलें हुईं, भले बढ़ा उत्पाद। जीवन-रक्षा के लिए, अब दो जैविक खाद।।
शशि जी सामान्यत: अमिधा में बात कहती हैं। इसका कारण उनका बाल-शिक्षा से जुड़ाव है। प्रकृति से जुड़े घटनाक्रम को सम्यक बिंब-प्रतीकों के द्वारा व्यक्त करना उनका वैशिष्ट्य है।
दिन मारा-मारा फिरे, रोती दुखिया रात।
ऊषा-संध्या मौन हैं, करें न मन की बात।।
हिंदी पद्य की विविध विधाओं में हाथ आजमा रही शशि जी के दोहे भाषिक प्रवाह संपन्न हैं। लय की समझ उनमें है। उनका शब्द-भण्डार समृद्ध है। उनकी दोहा यात्रा अबाध गति से बढ़कर हिंदी वांग्मय को समृद्ध करेगी।*
मन में तू ही तू रमा, लागी मन में टेर।
मुझमें मैं मरता गया, लगी नहीं कुछ देर।।१ 
धीरज धारण कीजिए, धर मन में संतोष।
सहसा ही भर सकेगा, जीवन रूपी कोष।।२ 
सच को धारण कीजिए, सच है ईश समान।
तर जाए भव सिंधु भी, बाकी ईश-विधान।।३ 
झूठ कभी मत बोलना, झूठ कुकर्म समान।
अपने मन में तोलकर, करना विष का पान।।४ 
झूठ न मन को सोहता, नहीं झूठ का काम।
कलयुग के बाजार में, बिकता है बिन दाम।।५ 
भोले बालक चिन दिए, मुगलों ने ली हाय। 
धर्म बचने हो गए, गुरु गोविंद सहाय।। ६  
पाँचों प्यारों ने गही, हाथों में तलवार। 
सिक्ख समर्पण झलकता, धर्म हेतु हर बार।। ७  
सदा गवाही दे रहा, जलियाँवाला बाग। 
आज़ादी की बलि चढ़ा, देश धर्म अनुराग।।  ८  
डायर निर्दय दनुज था, अत्याचार अशेष। 
सत्य प्रमाणित कर रहे, कारतूस-अवशेष।। ९  
आजादी की नींव हैं, त्याग-शौर्य-बलिदान। 
आजादी अनमोल है, नौजवान लें जान।।१०  
घोर कलयुगी काल में, हीरे-मोती मान। 
मनभावन सुख दे सदा, अविकारी संतान।। ११  
नोंक-झोंक लगती भली, जीवन साथी-साथ। 
इक दूजे को छेड़ते, ले हाथों में हाथ।। १२  
हँसी-ठिठोली ही भली, बिखरे हों सब रंग। 
कुछ पल सभी बिताइए, जीवन संगी संग।। १३  
हँस घर आए अतिथि का, खूब कीजिए मान। 
स्नेह-कीर्ति से घर चले, यही लीजिए जान।। १४  
जीवन में उल्लास हो, रख मन में विश्वास। 
निश्चित ही फल मिलेगा, जिसको जिसकी आस।।१५  
अंग-अंग में प्रभु रमा, शुचि गंगा माँ गाय। 
नित इनकी सेवा करो, मन कोमल हो जाय।। १६  
जून माह घर यों लगे, ज्यों शीतल जल कूप। 
तन को शीतलता मिले, मन के हो अनुरूप।। १७  
धरती-अंबर डोलते, अंधड़ करता भीत। 
घड़ा भरे दुष्कर्म का, फूटे यह है रीत।। १८  
पढ़ा-लिखा संतान को, भेज दिया परदेस। 
सेवा करने के लिए, किसको दें आदेश।। १९  
पढ़-लिखकर उन्नति करे, करे देश हित काम। 
क्षेत्र सभी विकसित करे, करे देश का नाम।।२० 
पूजा को दो हाथ जुड़, दृग से अश्रु बिखेर
रीति-नीति जाने बिना, मगन हुए हरि-टेर
हवन हुआ घर में सदा, जब तक माँ में श्वास।
मैं आहुति देती रही, पूजा भाव न ख़ास
अंतर्मन में ही किया, मैंने दीप्त चिराग।
सहज-सरल जीवन जिया, सह अनुराग-विराग
कष्ट सहे हँसकर नगर, कभी न मानी हार
माथ टिकाया चाह बिन, नहीं किसी दर-द्वार
जो पाया झेला विहँस, मन ने चुप रह आप।                                                                                      मात-पिता-गुरुवर चरण, पा मिटा आप सब ताप
मन की मन में ही रखी, सच्ची-सीधी बात। बचपन में माँ थी गुरु, ज्यों दीपक में बात
गाया करती गीत- 'मैं, पूजूँगी निज मात
दयानंद-बिटिया नहीं, पत्थर पूजूँ तात'।।
माना घूँघट में सहज, छिप जाती है लाज। लुकी-छिपी कलियाँ विहँस, झुक जातीं किस काज आभारी प्रभु की सदा, गुरु-दर्शन पा धन्य।
हम लघु गुरु-सानिन्ध्य में, गुरुता गहें अनन्य।।
रह जिनके सत्संग में, लघुता हो न प्रतीत।
वही युग-पुरुष, धन्य हम, शीश झुकाएँ नीति
निशि-दिन सुमिरन कीजिए, लीजै हरि का नाम। 
हरख-हरख जस गाइए, सुधरें बिगड़े काम।। ३१  
विकल प्रतीक्षा कर रहे, अमलतास के पेड़। 
कब लाओगे घट भरे, पूछे प्यासी मेड़।। ३२  
बिन बरसे मत खींचना, इंद्रधनुष की रेख। 
मानव-मन पुलकित हुआ, अंबर मेघा देख।। ३३  
रूठे सुजन मनाइए, बढ़े प्रीत दिन-रैन। 
तम में दीप जलाइए, भरें ज्ञान से नैन।। ३४  
मीठी वाणी जग सुने, मन में लेकर हर्ष। 
बचपन में सुन-पढ़-गुने, जो वह दे उत्कर्ष।। ३५  
कन्या भ्रूण बचाइए, बेटी घर की  शान।
घर खुशहाली लाइए, सुख-समृद्धि पहचान।। ३६ 
सुत-वधु होतीं सुता सम, इनको दो सम्मान।
सेतु मानिए देहरी, करें नहीं अपमान।।३७ 
बेटी को माता-पिता, दें अधिकाधिक मान।
देस पराये आ गयी, रखी पल-पल ध्यान।।३८ 
मुगलों ने घूँघट दिया, शिक्षा का कर नाश।
पढ़ी-लिखी नारी हुई, अनपढ़ सत्यानाश।।३९ 
झाँसी-रानी ने रखा, घूँघट कोसों दूर।
घर-घर दुर्गा चाहिए, नहीं चाहिए हूर।।४० 
लंबा घूँघट काढ़ के, नैना रही तरेर ।
ले चल बाहर घुमाने, अगर चाहता खैर।।४१ 
कपटी को क्या देखता, अपने मन को देख।
कपट न मन पर छा सके, खींच लक्ष्मण रेख।।४२ 
मानव करता क्रोध जब, बुद्धि तुरत हो भ्रष्ट।
साध न पाता मनुज यदि, खुद को खुद दे कष्ट।।४३ 
नया जमाना आ गया, नारी करती काम।
नव युग में छा रहा है, अब नारी का नाम।।४४ 
दिन मारा-मारा फिरे, रोती दुखिया रात।
ऊषा-संध्या मौन हैं, करें न मन की बात।।४५ 
इकलौती संतान से, बहुत लड़ाया लाड़।
ज्ञानी हो वह इसलिए, माँ ने तोड़े हाड़।।४६ 
मीठा जल मिलता नहीं, अगर न गहरा कूप।
मन में गहराई रखें, बनना यदि मनु-भूप।।४७ 
सब जन मिलकर बैठिए, खुश रहिए दिन-रात।
हँस बोलें सँग-साथ रह, करिए मन की बात।।४८ 
सुख में सब साथी मिले, है यह जग की रीत।
बुरे समय में साथ दे, जो वह सच्चा मीत।।४९ 
करो भूल-वश भी नहीं, नारी का अपमान।
मानें सदा समान ही, तब पाएँ सम्मान।।५० 
अमरोहा के आम भी, होते हैं कुछ खास।
रास न आए जो रखें, खींच उसी की रास।।५१
मिटा रहा मधुमेह नित, जीवन के अरमान। जीभ चटोरी हो गई, कड़वी हुई ज़ुबान।।५२ ज़हरीली फसलें हुईं, भले बढ़ा उत्पाद। जीवन-रक्षा के लिए, अब दो जैविक खाद।। ५३ हाथ जोड़ विनती करे, वृक्ष मनुज मत काट। क्षुधा मिटा कर छाँह दे, विटप टेप जब बाट।।५४ मानव-मन कपटी हुआ, दया न किंचित शेष। पौध लगाए; वृक्ष हो, काटे पीर अशेष।।५५ तप्त सूर्य तपती धरा, तृषित विकल अति त्रस्त। बाट जोहती मेघ की, आ-बरसे हो मस्त।। ५६ सूरज उदय जब भी हुआ, किया तिमिर का नाश। जो जागृत संजीव हो, फैले ज्ञान प्रकाश।। ५७ चुनरी में तारे जड़े, ओढ़े थी जो रात। सोने का रथ देखकर, चली गई वह प्रात।।५८
दावत में आए सभी, ख़ास रहे या आम।
खास-खास ने ख़ास चख, दिए आम को आम।।५९  
पात दिया तालाब फिर, ताने भवन-मकान।
बरसाती पानी भरा, डूबी हाय! दुकान।।६० 
हाथ जोड़ जग कर रहा, अच्छे दिन की आस।
राम-राज होगा कभी, रखो अटल विश्वास।।६१  
आया समय प्रयास का, भारत बने अखण्ड।
बन जाएगा विश्व-गुरु, सब श्रम करो प्रचण्ड।।६२  
घने मेघ की छाँव में, झिलमिल करता ताल।
खिले कमल पुलकित हुआ, हर्षाया तत्काल।।६३  
तन-मन को दूषित करे, जीवन करे खराब।
साँसों का दुश्मन विकट, गुटका, नशा शराब।।६४ 
आतंकी ही खेलते, खूनी होली रोज़।
कैसे इनका नाश हो, इसका हल मिल खोज।।६५  
दुश्मन घुसकर कर रहे, सरहद भीतर वार।
सेना को दो छूट अब, तभी मिटेगी रार।।६६ 
गरज-गरज घन बज रहे, आते सावन रात। साजन है परदेश में, यादों की बरसात।।६७
जलती बाती पूछती, तुम क्यों रोए मोम।
मनबसिया की पीर लख, रो; हो जाऊं होम।। ६८
सूरज रथी चमक रहा,सूरज के ही साथ । रथ पर बैठ उदित हुआ,रश्मि डोर ले हाथ।।६९
बचपनवाले खेल सब, कहाँ खो गए आज।
घर के अंदर खेलते,वायु को मोहताज।।७० 
झूठ बिना गाड़ी चला, जाना यद्यपि दूर।
भरम टूट ही जाएगा, होकर चकनाचूर।।७१
रक्षा करिए जीव की, रखिए सबका ध्यान।
स्वामी-भक्त सदा रहे, धोखा करे न श्वान।।७२
बचपन अब भोला नहीं, सरल नहीं आचार।
दुर्व्यसनों में पड़ करे, दानव सा व्यवहार।।७३
ईश्वर ने जल दिया है, बिन माँगे; बिन मोल।
कैसी मानव सभ्यता, बेचे जल ले मोल।।७४
खड़े एक ही ध्वज तले, संविधान है एक। 
कदम बढ़ाएँ साथ हम, रखें इरादे नेक।।७५ 
प्यासा व्याकुल हो फिरे, करता सोच-विचार।
हाथ बिना दुख भोगता, है अपंग लाचार।।७६  
शांत चित्त से वह मिले, मन में जिसका वास।
निशि-दिन उसे पुकार ले, ईश मिलन की आस।।७७
दया-क्षमा न बिसारिए, होती जन से भूल।
ईश-मगन हो जाइए, कट जाएंगे शूल।।७८
जैसी संगति बैठिए, वैसा हो व्यवहार।
संतन के ढिग बैठिए, प्रभु के हों दीदार।।७९
माया के जंजाल में, मन मत भटका मीत।
राम-नाम नित सुमिरकर, भव से तर कर प्रीत।।८०
श्यामा प्रिय घनश्याम को, ब्रज की शोभा श्याम।
अधर मधुर मुरली धरी, सुने धेनु अविराम।।८१
बच्चा-बच्चा देश का, रोज़ करेगा योग।
तन-मन में बल-सत्यता, रहे न आए रोग।।८२
बदला औरँगजे़ब का, काम और अंदाज। 
वह था गर्दन काटता, यह बलदानी आज।।८३
था न अनाड़ी; बन चला, नीरज सीधी चाल।
गीतों में रमता गया, खप जीवन-जंजाल।।८४ 

भूल नहीं पाए कभी, पीड़ा दुःख संताप।  
हर गुबार; हर कारवां, करता आज विलाप।।८५ 
अब न आदमी; आदमी, बाकी केवल पीर।
नीर पूछता है कहाँ, नीरज हुआ अधीर।। ८६ 
सर्प सरीखी दौड़ती, झटपट बुल्लेट रेल। 
भारत आगे बढ़ रहा, देखो रेलम-पेल।। ८७ 
मुरली सुन राधा चलीं, बैठी यमुना तीर।
कान्हा की छवि देखतीं, कालिंदी के  नीर।।८८ 
जग का उद्गम प्रेम है, जिससे उपजे सृष्टि ।
जीवन के इस चक्र में, यही सत्य की दृष्टि।।८९    
हमें सुहाते अब नहीं, प्रेम-प्रीत के गीत। 
घर-घर में पल-पुस रही, राजनीति की रीत।९० 
पल-पल गाय पुकारती, हे गिरिधारी श्याम!।
अपलक देखे जहाँ भी, वहीं दिख रहे श्याम।।९१  
पिता और गुरु धन्य हैं, जो दिखलाते राह । 
बिन उनके आशीष के, जीवन बनता आह ।।९२   
जनगण अब भी कर रहा, राम राज की आस। 
करे आचरण राम सा, होगा तभी विकास।।९३ 
बदली-बदली सी लगी, बदली गीले नैन। 
तपित पथिक को छाँव दे, सैनिक-सुमिरे सैन।।९४ 
सहज मार्ग ही सरल है, देखूँ नैना मूँद।
गुरु-हरिकृपा सुमिर भरें, नयन अश्रु की बूँद। ९५   
झर-झर नैना बरसते,लगी ईश की आस।
दे दर्शन सिय-राम जी, करें ह्रदय में वास।।९६  
अपनी संस्कृति-सभ्यता, सब दुनिया में श्रेष्ठ। 
छोटे रहें दिलार पा, मान पा रहे ज्येष्ठ।।९७ 
तन-मन झूला झूलता, माया मिली न राम। 
'शशि' जग मन को थाम ले, हल होंगे सब काम।। ९८ 
सैनिक सीमा पर खड़ा, हरदम सीना तान। 
तनिक न बैरी से डरे, मसले चींटी मान।। ९९ 
आतंकी इस देश से, कभी न लेना बैर। 
करा देंगे वीर तुझे, तुरत जहन्नुम सैर।।१००
गरमी के मौसम भली,लगे यह सूझबूझ। 
पानी की पूर्ति करे,खरबूजा तरबूज़।। 
मधुमेह नित बुझा रहा,जीवन के अरमान। 
जीभ चटोरी हो गई, कड़वी हुई ज़ुबान।। 
ज़हरीली खेती हुई,बढ़ा अधिक उत्पाद। 
बच जाए जीवन करो,प्रयोग जैविक खाद।। 
 हाथ जोड़ विनती करे,कहे न काटो मोय। 
क्षुधित की क्षुधा को हरे,विटप फलित जब होय।। 
हाथ पेड़ को काटते,तब कुल्हाड़ी रोय। 
आरी कहती पेड़ से,मेरा दोष न कोय।। 
मानव अब कपटी भया,मन में दया न को
***   



मुख डुबोय जल पी रहा, करके सोच विचार।
हाथ जल में डुबो रहा, अंजुलि को लाचार।।    
भोला बालक कर रहा,पशुवत है लाचार।
खुद ही अनुभव कर रहा, पशुओं का आचार।।   
देखकर मन द्रवित हुआ,रोग का कर उपचार।
पर पीड़ा अवगत हुआ,कर उस पर उपकार।।  
राम-नाम रसना रटे,हिय लगन लग जाय।
राम नाम की नाव से, यह जीवन तर जाय।। 
हर पल हरि का भजन कर,मन को मत भटकाय।
राम नाम जो जन जपे,भव सागर तर जाय।।      
मन को हल्का राखिए,भजे राम ही राम।
भव सागर तर जाइए,हिय धर हरि का नाम।।   
लकुटि कमरिया लै चले,दौड़े ग्वाल-बाल।
मधुर मुरलिया हाथ में,हिय पहनी बनमाल।। 
सिर पर धर मटकी धरी, दधि लिए चली नार।
कंकड़ से फोड़ मटकी, भीगे चुनरी हार।। 
यशोदा के घर-आँगना,घुटरुनि चले श्याम।
कंचन सी चमके धरा,सजा नंद कौ धाम।।      
मुख से फेन निकालता,सागर तट तक धाय। 

कण बालू के सोखता, अपनी प्यास बुझाय।।  
गरमी के मौसम भली,लगे यह सूझबूझ। पानी की पूर्ति करे,खरबूजा तरबूज़।।
हाथ पेड़ को काटते,तब कुल्हाड़ी रोय। आरी कहती पेड़ से,मेरा दोष न कोय।।
भोला बचपन खेलता, माटी में मुस्काय।/मुस्कात।
रज स्वदेश की चूमता, तनिक युवा हो जाय/जात।।  
बैठ अकेला ताकता, भौंकत रहे श्वान।
चोरों से रक्षा करता, रखे घर का ध्यान।।  
*
ऐसी ज़िंदगी जिए घुल गयी सबाब में,
पीड़ा से भरा हुआ पैमाना आप थे ।

गुनगुना रही ज़मी और गा रहा है जहाँ,
गीत सदा चाहत के गूँजेंगे यहाँ-वहाँ,
आदमी सा आदमी दिखता अब यहाँ नही,
नीरज जीवन संगीत छोड़ गए तुम कहाँ ।

लँगड़ा खासा बिक रहा,चौंसा बिकता आम।
आम की दावत में रखे,खास सभी थे आम।।  
आम-आम चिल्ला रहा,जन-मन भाता खास।
खास सभी को सोहता,आम ही बिकता खास।। 
मुंबई के अल्फाँसो, ठेले सजते खास।
चाकू से कटते रहे, जो थे खासम खास।।५६
आप मेरे आदरेय गुरुवर हैं, मैं अबोध शिष्या ! अकिंचन
मैं ईश्वर की आभारी हूँ जो इस विराट विश्व में आप के दर्शन हुए और मेरी लेखनी भी धन्य हुई।आपका बड़प्पन है जो आप हमें बड़ा होने का अभास करा रहें । जिसके सानिध्य में कोई स्वयं को छोटा न समझे वही बड़ा है ,वही महान है, वही युग पुरुष है ।

***

फूल खिलते ही फ़िज़ा महक जाती है,
सुमनों के खिलने से ऋतुएँ हर्षाती हैं।
बहारों की प्रतीक्षा में शीत गात कंपाती है,
कोहरे की चादर भी खुद उतर जाती है।
ऋतुराज में तब पुष्पों से बहार आती है।
प्रकृति नटी भी खुलकर खिलखिलाती है।
भला पर्दों में कौन रखता है खिले सुमनों को
खिले गुमचों से फिज़ाओं को महक जाने दो।

रविवार, 12 अगस्त 2018

laghukatha nav vidhan aur moolya

लेख-
लघुकथा: नव विधान और मूल्य

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारतीय लघुकथा का उद्गम व् उपयोगिता -
भारतीय लघुकथा का उद्गम आदिवासियों में प्रचलित वाचिक लोक कथाओं में है। कालान्तर में यही तथा अन्य कथाएँ तत्कालीन भाषाओँ पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत आदि में कही-सुनी जाती रहीं। 'लघु' अर्थात देखने में छोटी, 'कथा' अर्थात जो कही जाए, जिसमें कहने योग्य बात हो, बात ऐसी जो मन से निकले और मन तक पहुँच जाए। यह बात कहने का कोई उद्देश्य भी होना चाहिए। उद्देश्य की विविधता लघु कथा के वर्गीकरण का आधार बनी। यथा, उपदेश कथा, दृष्टान्त कथा, वार्ता, आख्यायिका, उपाख्यान, पशु कथा, अवतार कथा, संवाद कथा, व्यंग्य कथा, काव्य कथा, गीति कथा, लोक कथा, पर्व कथा आदि की समृद्ध विरासत संस्कृत, भारतीय व विदेशी भाषाओँ के वाचिक और लिखित साहित्य में प्राप्त है। गूढ़ से गूढ़ और जटिल से जटिल प्रसंगों को इन कथन के माध्यम से सरल-सहज बनाकर समझाया गया। पंचतंत्र, हितोपदेश, बेताल कथाएँ, अलीबाबा, सिंदबाद आदि की कहानियाँ मन-रंजन के साथ ज्ञानवर्धन के उद्देश्य को लेकर कही-सुनी और लिखी-पढ़ी गयीं। धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवचनों में गूढ़ सत्य को कम शब्दों में सरल बनाकर प्रस्तुत करने की परिपाटी सदियों तक परिपुष्ट हुई। 

दुर्भाग्य से दुर्दांत विदेशी हमलावरों ने विजय पाकर भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं का विनाश लगातार लंबे समय तक किया। इस दौर में कथा साहित्य धार्मिक पूजा-पर्वों में कहा-सुना जाकर जीवित तो रहा पर उसका उद्देश्य भयभीत और संकटग्रस्त जन-मन में शुभत्व के प्रति आस्था बनाये रखकर, जिजीविषा को जिलाये रखना था। बहुधा घर के बड़े-बुजुर्ग इन कथाओं को कहते, उनमें किसी स्त्री-पुरुष के जीवन में आये संकटों-कष्टों के कारण शक्तियों की शरण में जाने, उपाय पूछने और तदनुसार आचरण में सुधार करने पर दैवीय शक्तियों की कृपा से संकट पर विजयी होने का संदेश होता था। ऐसी कथाएँ शोषित-पीड़ित ही नहीं सामान्य या सम्पन्न मनुष्य में भी अपने आचरण में सुधार, सद्गुणों व पराक्रम में वृद्धि, एकता, सुमति या खेती-सड़क-वृक्ष या रास्तों की स्वच्छता, दीन-हीन की मदद, परोपकार, स्वाध्याय आदि की प्रेरणा का स्रोत बनता था। ये लघ्वाकारी कथाएँ महिलाओं या पुरुषों द्वारा अल्प समय में कह-सुन ली जाती थीं, बच्चे उन्हें सुनते और इस तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जीवन मूल्य पहुँचते रहते। देश, काल, परिस्थिति, श्रोता-वक़्ता, उद्देश्य आदि के अनुसार कथावस्तु में बदलाव होता रहता और देश के विविध भागों में एक ही कथा के विविध रूप कहे-सुने जाते किन्तु सबका उद्देश्य एक ही रहता। आहत मन को सांत्वना देना, असंतोष का शमन करना, निराश मन में आशा का संचार, भटकों को राह दिखाना, समाज सुधार या राष्ट्रीय स्वाधीनता के कार्यक्रमों हेतु जन-मन को तैयार करना कथावाचक और उपदेशक धर्म की आड़ में करते रहे। फलत:, राजनैतिक पराभव काल में भी भारतीय जन मानस अपना मनोबल, मानवीय मूल्यों में आस्था और सत्य की विजय का विश्वास बनाये रह सका। 

आधुनिक हिंदी का उद्भव काल  
कालान्तर में आधुनिक हिंदी ने उद्भव काल में पारंपरिक संस्कृत, लोक भाषाओँ और अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य की उर्वर विरासत ग्रहण कर विकास के पथ पर कदम रखा। विद्वानों और जन सामान्य के सहज आवागमन ने भाषिक आदान-प्रदान को सुदृढ़ किया। मुग़ल आक्रांताओं की अरबी-फ़ारसी और भारतीय मजदूर-किसानों की भाषा के मिलन से लश्करी का जन्म सैन्य छवनियों में हुआ जो रेख्ता और उर्दू के रूप में विकसित हुई। राजघरानों, जमींदारों तथा समृद्ध जनों में अंग्रेजी शिक्षा तथा विदेश जाकर उपाधियाँ ग्रहण करने पर अंग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा। शासन की भाषा अंग्रेजी होने से उसे श्रेष्ठ माना जाने लगा।अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों के मन में अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति की विरासत के प्रति हीनता का भाव सुनियोजित तरीके से पैदा किया गया। स्वतंत्रता के प्रयास सशस्त्र तथा अहिंसक दोनों तरीकों से किये जाते रहे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के आकस्मिक रूप से लापता होने पर स्वन्त्रता प्राप्ति का पूर्ण श्रेय गाँधी जी के नेतृत्व में चले सत्याग्रह को मिला। फलत:, कोंग्रेस सत्तारूढ़ हुई। श्री नेहरू के व्यक्तित्व में अंग्रेजी राजतंत्र और साम्यवादी व्यवस्था के प्रति विकट सम्मोहन ने स्वातंत्र्योत्तर काल में इन दोनों तत्वों को सत्ता और साहित्य में सहभागी बना दिया जबकि भारतीय सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले तत्व पारस्परिक फूट के कारण बलिपंथी होते हुए भी पिछड़ गए। 

सत्ता और साहित्य की बंदरबाँट 
सत्ता समीकरणों को चतुरता से साधते हुए आम चुनावों में विजयी कोंग्रेस ने साम्यवादियों को शिक्षा प्रतिष्ठानों में स्थान दिया । इस केर-बेर के संग ने शिक्षा संस्थानों और साहित्य में अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्यवादी विचारों के अनुरूप सृजन और समीक्षा के मानक थोप दिए। उन्होंने लघु कथा, व्यंग्य लेख, नवगीत, फिल्म निर्माण आदि क्षेत्रों में सामाजिक वर्गीकरण, विभाजन, शोषण, टकराव, वैषम्य, पीड़ा, दर्द, दुःख और पतन को केंद्र में रखकर रचनाकर्म किया ताकि समाज के विविध वर्ग आपस में लड़ें और वे हँसिया-हथौड़ा चलाकर सत्ता पा सकें। यह निर्विवाद है कि भारतीय जन मानस चिरकाल से सात्विक, आस्थावान, अहिंसक, सहिष्णु, उत्सवधर्मी तथा रचनात्मक प्रवृत्तिवाला है। अशिक्षाजनित सामाजिक प्रदूषण काल में छुआछूत, सती प्रथा, पर्दा प्रथा और ब्राम्हणों द्वारा धर्म की आड़ में खुद को सर्वश्रेष्ठ बनाये रखने के प्रयास में दलितवर्ग को निम्न बताने जैसी बुराइयों के पनपने पर उनके निराकरण के प्रयास सतत होते रहे किंतु विदेशी शासन ने इन्हें असफल कर समाज को विभाजित किया। 

आधुनिक लघु कथा की पृष्ठ भूमि
स्वतंत्रता के पश्चात बहुमत पाने में असफल साम्यवादियों ने यही तरीका अपनाया और एक ओर नक्सलवाद जैसे आंदोलन और दूसरी ओर अपनी विचारधारा के साहित्यिक मानक बनाकर उनके अनुरूप साहित्य की रचना कर समाज को पराभव में लेने का कुचक्र रचा पर पूरी तरह सफल न हो सके। ऐसे साहित्यकारों और समीक्षकों ने भारतीय वांग्मय की सनातन विरासत और परंपरा को हीन, पिछड़ा, अवैज्ञानिक और अनुपयुक्त कहकर अंग्रेजी साहित्य की दुहाई देते हुए, उसकी आड़ में साम्यवादी विचारधारा के अनुकूल जीवनमूल्यों को विविध विधाओं का मानक बता दिया। फलत:, रचनाकर्म का उद्देश्य समाज में व्याप्त शोषण, टकराव, बिखराव, संघर्ष, टूटन, फुट, विसंगति, विडंबना, असंतोष, विक्षोभ, कुंठा, विद्रोह आदि का शब्दांकन मात्र हो गया। उन्होंने देश में हर क्षेत्र में हुई उल्लेखनीय प्रगति, सद्भाव, एकता, साहचर्य, सहकारिता, निर्माण, हर्ष, उल्लास, उत्सव आदि की जान-बूझकर अनदेखी और भिन्न विचारधारा के साहित्यकारों का दमन और उपेक्षा भी की। इस पृष्ठभूमि में आधुनिक लघुकथा का विकास हुआ।  
लघुकथा और शार्ट स्टोरी 
अंग्रेजी साहित्य में गद्य (प्रोज) के अंतर्गत उपन्यास (नावेल), निबन्ध (एस्से), कहानी (स्टोरी), व्यंग्य (सैटायर), लघुकथा (शार्ट स्टोरी), गल्प (फिक्शन), संस्मरण (मेमायर्स), आत्मकथा (ऑटोबायग्राफी) आदि प्रमुख हैं। अंग्रेजी की कहानी लघु उपन्यास की तरह तथा शार्ट स्टोरी सामान्यत:६-७ पृष्ठों तक की हो सकती है। हिंदी लघु कथा का आकार सामान्यत: कुछ वाक्यों से लेकर एक-डेढ़ पृष्ठ तक होता है। स्पष्ट है कि शार्ट स्टोरी और लघुकथा सर्वथा भिन्न विधाएँ हैं। 'शॉर्ट स्टोरी' छोटी कहानी हो सकती है पर वह 'लघुकथा' नहीं हो सकती। हिंदी साहित्य में विधाओं का विभाजन आकारगत नहीं अन्तर्वस्तु या कथावस्तु के आधार पर होता है। उपन्यास सकल जीवन या घटनाक्रम को समाहित करता है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, वातावरण, भाषा शैली आदि हैं। कहानी जीवन के काल विशेष या घटना विशेष से जुड़े प्रभावों पर केंद्रित होती है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र चित्रण, कथोपकथन, उद्देश्य तथा भाषा शैली हैं। लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित प्रसंग और उसके प्रभाव पर केंद्रित होती है। प्रसिद्ध समीक्षक लक्ष्मीनारायण लाल ने लघु कथा और कहानी में तात्विक दृष्टि से कोई अंतर न मानते हुए व्यावहारिक रूप से आकारगत अंतर स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'लघुकथा में भावनाओं का उतना महत्व नहीं है जितना किसी सत्य का, किसी विचार का विशेषकर उसके सारांश का महत्व है।'
लघुकथा क्या है?, अंधों का हाथी ?
सन १९८४ में सारिका के लघु कथा विशेषांक में राजेंद्र यादव ने 'लघुकथा और चुटकुला में साम्य' इंगित करते हुए लघुकथा लेखन को कठिन बताया। मनोहरश्याम जोशी ने' लघु कथाओं को चुटकुलों और गद्य के बीच' सर पटकता बताया। मुद्राराक्षस के अनुसार 'लघु कथा ने साहित्य में कोई बड़ा स्थान नहीं बनाया'। शानी भी 'लघुकथाओं को चुटकुलों की तरह' बताया। इसके विपरीत पद्म श्री लक्ष्मीनारायण लाल ने लघुकथा को लेखक का 'अच्छा अस्त्र' कहा है। सरला अग्रवाल के शब्दों में 'लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना की टीस और कचोट को बहुत ही गहनता के साथ उद्घाटित किया जाता है।' प्रश्न उठता है कि टीस के स्थान पर रचना हर्ष और ख़ुशी को उद्घाटित करे तो वह लघु कथा क्यों न होगी? गीत सभी रसों की अभिव्यक्ति कर सकता है तो लघुकथा पर बन्धन क्यों? डॉ. प्रमथनाथ मिश्र के मत में लघु कथा 'सामाजिक बुराई के काले-गहरे बादलों के बीच दबी विद्युल्लता की भाँति है जो समय-बेसमय छटककर पाठकों के मस्तिष्क पर एक तीव्र प्रभाव छोड़कर उनके सुषुप्त अंत:करण को हिला देती है।' सामाजिक अच्छाई के सफेद-उजले मेघों के मध्य दामिनी क्यों नहीं हो सकती लघुकथा? रमाकांत श्रीवास्तव लिखते हैं 'लघुकथा का नि:सरण ठीक वैसे ही हुआ है जैसे कविता का। अत: वह यथार्थपरक कविता के अधिक निकट है, विशेषकर मुक्त छंद कविता के।' मुक्तछंद कविता से हिंदी पाठक के मोहभंग काल में उसी पथ पर ले जाकर लघुकथा का अहित करना ठीक होगा या उसे लोकमंगल भाव से संयुक्त रखकर नवगीत की तरह नवजीवन देना उपयुक्त होगा? कृष्णानन्द 'कृष्ण' लघुकथा लेखक के लिए 'वैचारिक पक्षधरता' अपरिहार्य बताते हैं। एक लघुकथा लेखक के लिए किसी विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी क्यों हो? कथ्य और लक्ष्य की आवश्यकतानुसार विविध लघुकथाओं में विविध विचारों की अभिव्यक्ति प्रबंधित करना कैसे ठीक हो सकता है? एक रचनाकार को किसी राजनैतिक विचारधारा का बन्दी क्यों होना चाहिए? रचनाकार का लक्ष्य लोक-मंगल हो या राजनैतिक स्वार्थपूर्ति? 
'हिंदी लघुकथा को लेखन की पुरातन दृष्टान्त, किस्सा या गल्प शैली में अवस्थित रहना है या कथा लेखन की वर्तमान शैली को अपना लेना है- तय हो जाना चाहिए' बलराम अग्रवाल के इस मत के सन्दर्भ में कहना होगा कि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा के स्वरूप में अंतिम निर्णय करने का अधिकार पाठक और समय के अलावा किसी का नहीं हो सकता। तय करनेवालों ने तो गीत के मरण की घोषणा कर दी थी किंतु वह पुनर्जीवित हो गया। समाज किसी एक विचार या वाद के लोगों से नहीं बनता। उसमें विविध विचारों और रुचियों के लोग होते हैं जिनकी आवश्यकता और परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, तदनुसार साहित्य की हर विधा में रचनाओं का कथ्य, शल्प और शैली बदलते हैं। लघुकथा इसका अपवाद कैसे हो सकती है? लघुकथा को देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष्य होने के लिए विविधता को ग्रहण करना ही होगा। पुरातन और अद्यतन में समन्वय से ही सनातन प्रवाह और परंपरा का विकास होता है।
अवध नारायण मुद्गल उपन्यास को नदी, कहानी को नहर और लघुकथा को उपनहर बताते हुए कहते हैं कि जिस बंजर जमीन को नहरों से नहीं जोड़ा जा सकता उसे उपनहरों से जोड़कर उपजाऊ बनाया जा सकता है। यदि उद्देश्य अनछुई अनुपजाऊ भूमि को उर्वर बनाना है तो यह नहीं देखा जाता कि नहर बनाने के लिए सामग्री कहाँ से लाई जा रही है और मजदूर किस गाँव, धर्म राजनैतिक विचार का है? लघुकथा लेखन का उद्देश्य उपन्यास और कहानी से दूर पाठक और प्रसंगों तक पहुँचना ही है तो इससे क्या अंतर पड़ता है कि वह पहुँच बोध, उपदेश, व्यंग्य, संवाद किस माध्यम से की गयी? उद्देश्य पड़ती जमीन जोतना है या हलधर की जाति-पाँति देखना?
लघुकथा के रूप-निर्धारण की कोशिशें
डॉ. सतीश दुबे मिथक, व्यंग्य या संवेदना के स्तरों पर लघुकथाएँ लिखी जाने का अर्थ हर शैली में अभिव्यक्त होने की छटपटाहट मानते हैं। वे लघुकथा के तयशुदा स्वरूप में ऐसी शैलियों के आने से कोई खतरा नहीं देखते। यह तयशुदा स्वरूप साध्य है या साधन? यह किसने, कब और किस अधिकार से तय किया? यह पत्थर की लकीर कैसे हो सकता जिसे बदला न जा सके? यह स्वरूप वही है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप और पाठक की रूचि के अनुसार लघुकथा का जो स्वरूप उपयुक्त होगा वह जीवित रहेगा, शेष भुला दिया जाएगा। लघुकथा के विकास के लिए बेहतर होगा कि हर लघुकथाकार को अपने कथ्य के उपयुक्त शैली और शिल्प का संधान करने दिया जाए। उक्त मानक थोपने के प्रयास और मानकों को तोडनेवाले लघुकथाकारों पर सुनियोजित आक्रमण तथा उनके साहित्य की अनदेखी करने की विफल कोशिशें यही दर्शाती हैं कि पारंपरिक शिल्प और शैली से खतरा अनुभव हो रहा है और इसलिए विधान के रक्षाकवच में अनुपयुक्त और आयातित मानक थोपे जाते रहे हैं। यह उपयुक्त समय है जब अभिव्यक्ति को कुंठित न कर लघुकथाकार को सृजन की स्वतंत्रता मिले।
सृजन की स्वतंत्रता और सार्थकता
पारंपरिक स्वरूप की लघुकथाओं को जन स्वीकृति का प्रमाण यह है कि समीक्षकों और लघुकथाकारों की समूहबद्धता, रणनीति और नकारने के बाद भी बोध कथाओं, दृष्टान्त कथाओं, उपदेश कथाओं, संवाद कथाओं आदि के पाठक श्रोता घटे नहीं हैं। सच तो यह है कि पाठक और श्रोता कथ्य को पढ़ता और सराहता या नकारता है, उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि समीक्षक उस रचना को किस खाँचे में वर्गीकृत करता है। समय की माँग है कि लघुकथा को स्वतंत्रता से सांस लेने दी जाए। नामवर सिंह भारतीय लघुकथाओं को पश्चात्य लघुकथाओं का पिछलग्गू नहीं मानते तथा हिंदी लघुकथाओं को निजत्व और विराट भावबोध से संपन्न मानते हैं। हिंदी भाषा जिस जमीन पर विकसित हुई उसकी लघुकथा उस जमीन में आदि काल से कही-सुनी जाती लघुकथा की अस्पर्श्य कैसे मान सकती है?
सिद्धेश्वर लघुकथा को सर्वाधिक प्रेरक, संप्रेषणीय, संवेदनशील और जीवंत विधा मानते हुए उसे पाठ्यक्रम में स्थान दिए जाने की पैरवी करते है जिससे हर लघुकथाकार सहमत होगा किन्तु जन-जीवन में कही-सुनी जा रही देशज मूल्यों, भाषा और शिल्प की लघुकथाओं की वर्जना कर केवल साम्यवादी विचारधारा को प्रोत्साहित करती लघुकथाओं का चयन पाठ्यक्रम में नहीं किया जा सकता। इसलिए लघुकथा के रूढ़ और संकीर्ण मानकों को परिवर्तित कर हिंदी भाषी क्षेत्र की सभ्यता-संस्कृति और जन मानस के आस्था-उल्लास-नैतिक मूल्यों के अनुरूप रची तथा राष्ट्रीयता को बढ़ावा देती लघु कथाओं को हो चुना जाना उपयुक्त होगा। तारिक असलम 'तनवीर' लिजलिजी और दोहरी मानसिकता से ग्रस्त समीक्षकों की परवाह करने के बजाय 'कलम की ताकत' पर ध्यान देने का मश्वरा देते हैं।
डॉ. कमलकिशोर गोयनका, कमलेश भट्ट 'कमल' को दिए गए साक्षात्कार में लघुकथा को लेखकविहीन विधा कहते हैं। कोई बच्चा माँ विहीन कैसे हो सकता है। हर बच्चे का स्वतंत्र अस्तित्व और विकास होने पर भी उसमें जीन्स माता-पिता के ही होते हैं। इसी तरह लघुकथा भी लघुकथाकार तथा उसके परिवेश से अलग होते हुए भी उसका प्रतिनिधित्व करती है। लघुकथाकार रचना में सतही तौर पर न दिखते हुई भी पंक्ति-पंक्ति में उसी तरह उपस्थित होता है जैसे रोटी में नमी के रूप में पानी या दाल में नमक। अत:, स्पष्ट है कि हिंदी की आधुनिक लघुकथा को अपनी सनातन पृष्ठभूमि तथा आधुनिक हिंदी के विकास काल की प्रवृत्तियों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करते हुए भविष्य के लिए उपयुक्त साहित्य सृजन के लिए सजग होना होगा। लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में अपने कथ्य और लक्ष्य पाठक वर्ग को केंद्र में रखकर लिखी जाय और व्यवस्थित अध्ययन की दृष्टि से उसे वर्गीकृत किया जाए किन्तु किसी वर्ग विशेष की लघुकथा को स्वीकारने और शेष को नकारने की दूषित प्रथा बन्द करने में ही लघुकथा और हिंदी की भलाई है। लघुकथा को उद्यान के विविध पुष्पों के रंग और गन्ध की तरह विविधवर्णी होने होगा तभी वह जी सकेगी और जीवन को दिशा दे सकेगी।
लघुकथा के तत्व
कुंवर प्रेमिल कथानक, प्रगटीकरण तथा समापन को लघुकथा के ३ तत्व मानते हैं। वे लघुकथा को किसी बंधन, सीमा या दायरे में बाँधने के विरोधी हैं। जीवितराम सतपाल के अनुसार लघुकथा में अमिधा, लक्षणा व व्यंजना शब्द की तीनों शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। वे लघुकथा को बरसात नहीं फुहार, ठहाका नहीं मुस्कान कहते हैं। गुरुनाम सिंह रीहल कलेवर और कथनीयता को लघुकथा के २ तत्व कहते हैं। मोहम्मद मोइनुद्दीन 'अतहर' के अनुसार भाषा, कथ्य, शिल्प, संदर्भगत संवेदना से परिपूर्ण २५० से ५०० शब्दों का समुच्चय लघुकथा है। डॉ. शमीम शर्मा के अनुसार लघुकथा में 'विस्तार के लिए कोई स्थान नहीं होता। 'थोड़े में अधिक' कहने की प्रवृत्ति प्रबल है। सांकेतिक एवं ध्वन्यात्मकता इसके प्रमुख तत्व हैं। अनेक मन: स्थितियों में से एक की ही सक्रियता सघनता से संप्रेषित करने का लक्ष्य रहता है।'

बलराम अग्रवाल के अनुसार कथानक और शैली लघुकथा के अवयव हैं, तत्व नहीं। वे वस्तु को आत्मा, कथानक को हृदय, शिल्प को शरीर और शैली को आचरण कहते हैं। योगराज प्रभाकर लघु आकार और कथा तत्व को लघुकथा के तत्व बताते हैं। उनके अनुसार किसी बड़े घटनाक्रम में से क्षण विशेष को प्रकाशित करना, लघुकथा लिखना है। कांता रॉय लघुकथा के १५ तत्व बताती है जो संभवत: योगराज प्रभाकर द्वारा सुझाई १५ बातों से नि:सृत हैं- कथानक, शिल्प, पंच, कथ्य, भूमिका न हो, चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्त, बोध-नीति-शिक्षा न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो, शैली तथा सामाजिक महत्व । नया लघुकथाकार और पाठक क्या करे? बलराम अग्रवाल कथानक को तत्व नहीं मानते, कांता रॉय मानती हैं। 
डॉ. हरिमोहन के अनुसार लघुकथा विसंगतियों से जन्मी तीखे तेवर वाली व्यंग्य परक विधा है तो डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार 'घटना की प्रस्तुति मात्र'। अशोक लव 'संक्षिप्तता में व्यापकता' को लघुकथा का वैशिष्ट्य कहते हैं तो विक्रम सोनी 'मूल्य स्थापन' को। कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। यही स्थिति लघुकथा और लघुकथाकारों की है 'जितने मुँह उतनी बातें'। 
लघुकथा के तत्व 
मेरे अनुसार उक्त तथा अन्य सामग्री का अध्ययन से स्पष्ट होता है कि लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इन में से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुडी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी। इस ३ तत्वों का प्रयोग कर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है। योगराज प्रभाकर तथा कांता रॉय इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं। 
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघ्यकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो। 
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों के चरित्र-चित्रण नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है। शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं। 
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है। एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है। कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है। सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है। व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा? व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है। *: 
सन्दर्भ-
१. सारिका लघुकथा अंक १९८४, २. अविरल मंथन लघुकथा अंक सितंबर २००१, संपादक राजेन्द्र वर्मा, ३. प्रतिनिधि लघुकथाएं अंक ५, २०१३, सम्पादक कुंवर प्रेमिल, ४. तलाश, गुरुनाम सिंह रीहल, ५. पोटकार्ड, जीवितराम सतपाल, ६. लघुकथा अभिव्यक्ति अक्टूबर-दिसंबर २००७, ७. 

  

laghu katha: fark sw. vishnu prabhakar

लघुकथा
फ़र्क 
स्व. विष्णु प्रभाकर 
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उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए, जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे ! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, "उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।"
उसने उत्तर दिया,"जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?" और मन-ही-मन कहा - ''मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझमें है।''
वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
उस दिन ईद थी। उसने उन्हें 'मुबारकबाद' कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोले - "इधर तशरीफ़ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।"
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा-- "बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफ़ी चाहता हूँ।"
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलाँचें भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक-साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा - "ये आपकी हैं?"
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया - "जी हाँ, जनाब! हमारी हैं। जानवर हैं, फ़र्क करना नहीं जानते।"
***

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

bundeli navgeet

बुन्देली नवगीत :
जुमले रोज उछालें 
*
संसद-पनघट 
जा नेताजू 
जुमले रोज उछालें।
*
खेलें छिपा-छिबौउअल,
ठोंके ताल,
लड़ाएं पंजा।
खिसिया बाल नोंच रए,
कर दओ
एक-दूजे खों गंजा।
खुदा डर रओ रे!
नंगन सें
मिल खें बेंच नें डालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
लड़ें नई,मैनेज करत,
छल-बल सें
मुए चुनाव।
नूर कुस्ती करें,
बढ़ा लें भत्ते,
खेले दाँव।
दाई भरोसे
मोंड़ा-मोंडी
कूकुर आप सम्हालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
बेंच सिया-सत,
करें सिया-सत।
भैंस बरा पे चढ़ गई।
बिसर पहाड़े,
अद्धा-पौना
पीढ़ी टेबल पढ़ रई।
लाज तिजोरी
फेंक नंगई
खाली टेंट खंगालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
भारत माँ की
जय कैबे मां
मारी जा रई नानी।
आँख कें आँधर
तकें पड़ोसन
तज घरबारी स्यानी।
अधरतिया मदहोस
निगाहें मैली
इत-उत-डालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
पाँव परत ते
अंगरेजन खें,
बाढ़ रईं अब मूँछें।
पाँच अंगुरिया
घी में तर
सर हाथ
फेर रए छूँछे।
बचा राखियो
नेम-धरम खों
बेंच नें
स्वार्थ भुना लें।
***
salil.sanjiv@gmail.com
९४२५१८३२४४
#divyanarmada
#हिंदी_ब्लॉगर

geet

गीत geet 
.
कह रहे सपने कथाएँ
.
सुन सको तो सुनो इनको
गुन सको तो गुनो इनको
पुराने हों तो न फेंको
बुन सको तो बुनो इनको
छोड़ दोगे तो लगेंगी
हाथ कुछ घायल व्यथाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कर परिश्रम वरो फिर फिर
डूबना मत, लौट तिर तिर
साफ होगा आसमां फिर
मेघ छाएँ भले घिर घिर
बिजलियाँ लाखों गिरें
हम नशेमन फिर भी बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.
कभी खुद को मारना मत
अँधेरों से हारना मत
दिशा लय बिन गति न वरना
प्रथा पुरखे तारना मत
गतागत को साथ लेकर
आज को सार्थक बनाएँ
कह रहे सपने कथाएँ
.................
salil.sanjiv@gmail.com
९४२५१८३२४४
#हिंदी_ब्लॉगर

muktika

मुक्तिका
*
'सलिल' को दे दर्द अपने, चैन से सो जाइए.
नर्मदा है नेह की, फसलें यहाँ बो जाइए.
.
चंद्रमा में चाँदनी भी और धब्बे-दाग भी.
चन्दनी अनुभूतियों से पीर सब धो जाइए.
.
होश में जब तक रहे, मैं-तुम न हम हो पाए थे.
भुला दुनिया मस्त हो, मस्ती में खुद खो जाइए.
.
खुदा बनने था चला, इंसा न बन पाया 'सलिल'.
खुदाया अब आप ही, इंसान बन दिखलाइए.
.
एक उँगली उठाता है, जब भी गैरों पर सलिल'
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए.

navgeet

नवगीत :
संजीव 
*
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ 
ना दैहौं तन्नक काऊ 
*
बम भोले है अपनी जनता 
देती छप्पर फाड़ के.
जो पाता वो खींच चीथड़े 
मोल लगाता हाड़ के.
नेता, अफसर, सेठ त्रयी मिल 
तीन तिलंगे कूटते. 
पत्रकार चंडाल चौकड़ी 
बना प्रजा को लूटते. 
किससे गिला शिकायत शिकवा 
करें न्याय भी बंदी है.
पुलिस नहीं रक्षक, भक्षक है 
थाना दंदी-फंदी है. 
काले कोट लगाये पहरा 
मनमर्जी करते भाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ 
ना दैहौं तन्नक काऊ 
*
पण्डे डंडे हो मुस्टंडे 
घात करें विश्वास में.
व्यापम झेल रहे बरसों से 
बच्चे कठिन प्रयास में.
मार रहे मरते मरीज को 
डॉक्टर भूले लाज-शरम. 
संसद में गुंडागर्दी है 
टूट रहे हैं सभी भरम. 
सीमा से आतंक घुस रहा 
कहिए किसको फ़िक्र है?
जो शहीद होते क्या उनका 
इतिहासों में ज़िक्र है? 
पैसे वाले पद्म पा रहे 
ताली पीट रहे दाऊ 
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ 
ना दैहौं तन्नक काऊ 
*
सेवा से मेवा पाने की 
रीति-नीति बिसरायी है.
मेवा पाने ढोंग बनी सेवा 
खुद से शरमायी है.
दूरदर्शनी दुनिया नकली 
निकट आ घुसी है घर में. 
अंग्रेजी ने सेंध लगा ली 
हिंदी भाषा के स्वर में. 
मस्त रहो मस्ती में, चाहे 
आग लगी हो बस्ती में.
नंगे नाच पढ़ाते ऐसे 
पाठ जां गयी सस्ते में. 
आम आदमी समझ न पाये 
छुरा भौंकते हैं ताऊ 
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ 
ना दैहौं तन्नक काऊ 
*
salil.sanjiv@gmail.com 
९४२५१८३२४४ 
#दिव्यनर्मदा 
#हिंदी+ब्लॉगर

अवंतीबाई

महारानी अवन्तीबाई की बलिदानगाथा
रानी का जन्म- 16 अगस्त 1831
बलिदान दिवस- 20 मार्च 1858
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
अंग्रेजों से लोहा लेकर, डटकर करी लड़ाई थी।।
मनकेड़ी सिवनी जिला में, जन्म हुआ था रानी का।
पिता जुझारसिंह थे इनके, इनका न कोई सानी था।।
गोला भाला तीर चलाना, बचपन में ही सीख लिया।
संग पिता के जाकर जंगल, शेरों का 'शिकार किया।।
सोलह बरस की उम्र में राजा, विक्रमदित्य से ब्याह हुआ।
रामगढ़ जो मंडला जिले का, रानी का ससुराल हुआ।।
जन्म दिया था दो बच्चों को, अपनी कोख से रानी ने।
सींची ममता अरु करूणा भी, रानी जी की वाणी ने।।
रानी की वाणी के भीतर, दया प्रेम करूणाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
अंग्रेजों की कुटिल चाल से, राजा जब विक्षिप्त हुये।
शीघ्र राज्य में लाकरके तब, तहसीलदार नियुक्त किये।।
शोक गहन ये सह न पाये, राजा फिर बीमार हुये।
छोड़ गये माया नगरी को, असमय स्वर्ग सिधार गये।।
रानी ने साहस का परिचय, देकर राज्य सम्हाल लिया।
प्रजाजनों के बीच में जाकर, दयाभाव संचार किया।।
तभी क्रूर अंग्रेजों ने फिर, राज्य पे धावा बोल दिया।
रानी ने तलवार खींच ली, और मोर्चा खोल दिया।।
कफन बांधकर सिर पर निकली, रानी न सकुचाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
शंकर शाह मंडला शासक का, बेटा था, रघुनाथ शाह।
पिता पुत्र को बांध तोप से, अंग्रेजों ने दिया उड़ाय।।
रानी ने फिर बिगुल बजा दी, गुप्त संदेशा दिया भिजाय।
चूड़ी कंगन बिंदी माला, जमीदारो को दी पंहुचाय।।
रक्षा करलो देश की या तो, या चूड़ी पहनों घर जाय।
पौरूष जागा जमीदारों का, सेना अपनी लिया सजाय।।
तट पर फिर खरमेर नदी के, अंग्रेजों से युध्द हुआ।
जीत मिलेगी रणकौशल से, रानी के ये सिद्ध हुआ।।
छापामार युध्द में माहिर, नीति जो अपनाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
अठ्ठारह सौ सनतावन सन, की ही ये जो बात थी।
राजमहल को छोड़ के निकली, धरी खड्ग ले हाथ थी।।
सम्मुख खड़ी सेना अंग्रेजी, रानी ने हुंकार भरी।
रणबांकुरी जंग में कूदी, जग ने जयजयकार करी।।
रणचण्डी का रूप धरी और, सिर अंग्रेजों का काटी।
पुण्यभूमि भारतभूमि की, धन्य हुई थी फिर माटी।।
तलवार चमकती थी चमचम, बिजली सा परचम लहराती।
काट काट कर सिर दुश्मन का, दुनिया को वो समझाती।।
कांपे दुश्मन थर थर थर थर, सोचे अंत बिदाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
एक हाथ में बंदूक लेकर, एक हाथ में लिये लगाम।
चढ घोड़े पर वार कर रही, दुश्मन छोड़े प्राण तमाम।।
सनसनसन गोली की चींखे, अंग्रेजों के कांपे प्राण।
दन दन दन बंदूकें चलती, पल पल पल लेती थी जान।।
अंग्रेजी सेना चक्कर खा गई, रण कौशल रानी का देख।
धड़ से सिर फिर गिरे धड़ाधड़, करो कल्पना पढ़ो जो लेख।।
अंग्रेजों के पांव के नीचे, की धरती फिर फिसल गई।
रानी लड़ी छत्राणी जैसे, और दुश्मन की बलि दई।।
अंग्रेजों की हवा निकल गयी, ऐसी चोट लगाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
दूर फिरंगी हो जाना तुम, तेरी अब तो खैर नहीं।
छोड़ धरा मेरी तू छोड़ अब, लेना हमसे बैर नहीं।।
वाडिंगटन के घोड़े को, रानी ने मार गिराया था।
हाथ जोड़कर प्राण की रक्षा, के खातिर रिरियाया था।।
उस गोरे कप्तान को फिर, रानी ने जीवनदान दिया।
साथ में उसके बेटे को भी, जबलपुर प्रस्थान किया।
रामगढ़ से मंडला तक रानी, ने गढ़ का विस्तार किया।।
शाहपुर, बिछिया व घोघरी, की सीमा को पार किया।।
निज धरती, अभिमान, शान, सम्मान की जोत जलाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
खाकर मुंह की इक नारी से, वाडिंगटन हैरान हुआ।
बारह मास के अंदर में फिर, सेना ले प्रस्थान हुआ।।
बड़ी भयंकर हुयी लड़ाई, दोनों ओर से जान गयी।
चारों ओर से घिर आई थी, रानी तत्क्षण जान गई।।
दुर्ग को चारों ओरों से जब, अंग्रेजों ने घेर लिया।
गुप्त मार्ग से रानी जी ने, सेना का मुख फेर दिया।।
सेना के संग रानी ने तब, जंगल ओर पड़ाव किया।
पीछे पीछे वाडिंगटन की, सेना ने घेराव किया।।
रानी दुर्गावती के जैसे ही, लड़कर दिखलाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर लड़ी अवन्तीबाई थी।।
घर के ही गद्दारों ने जब, अंग्रेजो का साथ दिया।
भेद बताकर रानीजी का, रानी को ही मात दिया।।
न्यौता आत्मसर्मपण का फिर, वाडिंगटन ने भिजवाया।
मरने की बातें लड़कर ही, रानी के मुख से आया।।
ये! वाडिंगटन तेरे जैसा, रानी के रगो में खून नहीं।
जीवनदान दिया था तुझको, क्या तुझको मालूम नहीं।।
केप्टन वाडिंगटन लेफ्टीनेंट,वार्टन और थे काकवार्न।
सेना संग नरेश की रीवा, मिलकर करने लगी प्रहार।।
रानी संग मुठ्ठी भर सेना, मुश्किल में घिर आई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर, लड़ी अवन्तीबाई थी।।
बायें हाथ लगी गोली तो, हाथ से बंदूक छूट गयी।
उमरावसिंह लोधी से बोली, आस जीत की टूट गयी।।
जान फिरंगी के हाथों के भय से खंजर खीच लिया।
निज हाथों से ही मरकर, धरती को लहू से सींच दिया।।
जान हथेली पर लेकरके, हुई शहीद बलिदानी थी।
मिट गई मातृभूमि के खातिर, आजादी जो लानी थी।।
गोद में भारतमां की गिरकर, चिर निद्रा में सो गयी।
यूं तो मरना था इक दिन पर, अमर वो मरकर हो गयी।।
जिस माटी में जन्म लिया, उस पर मिटना सिखलाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर लड़ी अवन्तीबाई थी।।
नाम अमर कर गई वंश का, गढ़ मंडला की रानी थी।
न्यौछावर कर प्राण देश पर, सम्बल जिसकी वाणी थी।।
जनम जनम तक याद रखेगें, रानी के बलिदान को।
देशभक्ति का पाठ पढ़याा, देकर अपने प्राण को।।
इस बलिदान की गाथा को हर, भारत वासी याद करे।
विरांगना फिर जनमें ऐसी, ईश्वर से फरियाद करे।।
सुनकर रानी की गाथा को, आंखें जिनकी नहीं सजल।
'सरल' गरल लेकर है कहता, उन्हे पिला दो आज गरल।।
धरती रोई, अंबर रोया, रोई सब तरूणाई थी।
मातृभूमि की आन की खातिर लड़ी अवन्तीबाई थी।।
-साहेबलाल दशरिये "सरल"
8989800500

chintan gurudev

स्वतंत्र चिंतन 
"पाखण्ड और प्रलाप की ओर बढ़ते कदम"
महाकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1928 में उस समय के चीन के नेता लियां-ची-चाओ से कहा था कि "अंग्रेज और यूरोपियन एशिया छोड़ कर चले जाएंगे, इस बात का पूर्वाभास मैं देख रहा हूँ" तो चाओ ने पूछा था "क्यों बेकार छोड़ कर चले जाएंगे। हम लोग उतने शक्तिशाली कहाँ हो पाए हैं।" इस प्रश्न के उत्तर में ठाकुर ने कहा "एशिया में सर्वत्र जागरण हो चुका है। गृहस्थ जब तक सोता रहता है तभी तक चोरों-तस्करों का सुयोग होता है। गृहस्थ जाग गया है तो तस्करों को भागना ही पड़ेगा। मैं सज्जन यूरोपियों की बात नहीं कर रहा हूँ। उनमें से अनेक वंदनीय हैं,परन्तु उनमें जो चोर और तस्कर हैं वे तभी तक लूटपाट कर सकते थे जब तक हम सोये हुए थे।अब वह सब नहीं चलेगा। किन्तु जाने से पहले वे हमें परेशान करने की पूरी व्यवस्था करके जाएंगे।जापान विज्ञान और शिल्प में अग्रसर है। परन्तु इसी के साथ वे उसे दस्युमंत्र अर्थात साम्राज्यवादी राष्ट्र की शिक्षा देते जा रहे हैं वही उसका सर्वनाश करेगी। भारत वर्ष में भी साम्प्रदायिकता और प्रादेशिकता की शिक्षा जोर शोर से दे रहे हैं। भारतवर्ष में जातिभेद कालधर्म के प्रभाव से क्रमशः क्षीण हो जाता, किन्तु क्या जनगणना, क्या अदालत में, शपथ पत्र में या अन्यत्र भी इस जाति भेद को अंग्रेज दिन-प्रति दिन प्रबलतर करते जारहे हैं और इसके द्वारा ही जाति-जाति में विच्छेद घटित होगा। हमारे भीतर भी कुछ ऐसे बुद्धिहीन हैं जो इसमें घृताहुति देंगे। चीन के बारे में भी मुझे कुछ ऐसा ही भय लग रहा है।" "नहीं, लियां-ची-चाओ का कहना था कि "चीन में जातिभेद नहीं है। सर्वत्र एक वर्णमाला के अधीन हमारी भाषा है। धर्म और सम्प्रदाय को लेकर हम कभी गोलमाल नहीं करते। ऐसी हालत में वे हमारा क्या कर लेंगे।" इस पर गुरुदेव बोले थे "तब शायद राजनीति के रास्ते से वे चीन में ऐसी आग लगा देंगे कि चीन दुर्बल होकर रहेगा। जापान, चीन और भारत को दुर्बल रख पाने में ही इन दस्युओं को किसी खतरे की संभावना नहीं रहेगी।"(बंगला साप्ताहिक, 6 नवम्बर 1948)।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इस चिन्तन को आचार्य क्षितिमोहन सेन ने स्पष्ट किया। कुबेरनाथ राय ने अपनी "चिन्मय भारत" पुस्तक के पृष्ठ तीन पर इसका उल्लेख किया है कि "आज हम देख रहे हैं कि कवि का दुःस्वप्न सही था। जापान को दस्युमंत्र(साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद) की दीक्षा दे कर उसे चीन और भारत से विच्छिन्न कर दिया। चीन के दोनों दलों के मूलमंत्र (राष्ट्रवाद और मार्क्सवाद) यूरोप से ही प्राप्त हुए हैं। भारत छोड़ने से पहले अंग्रेज साम्प्रदायिकता की आग लगा कर देश को विभक्त कर गए। खण्डित भारत में भी हिन्दू को हिन्दू परेशान करता रहे, इसके लिए प्रादेशिकता के बीज बो गये। प्रदेश के भीतर भी शांति न रहे इसके लिए अनुसूचित 'गैर अनुसूचित" इत्यादि नाना प्रकार के बिष बीज बो गये। वे ग्राम दहन कारी दस्यु तो चले गए, परन्तु गांव में सौ सौ बाघ छोड़ गए। स्वार्थपरता , संकीर्णता और दम्भ के दांत बाघों के दांतों से भी ज्यादा तेज होते हैं। हमारे घर से बाहर हो जाने पर भी वे अपने शत-शत उत्तराधिकारी छोड़ गए हैं। हम कहां-कहां सम्हाल पाएंगे।" स्वर्गीय डा.राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि "मार्क्सवाद यूरोप द्वारा एशिया को पहनाई गयी आखिरी बेड़ी है जिसे हमें तोडना होगा।" स्वर्गीय कुबेरनाथ राय कह गए हैं कि "1947 के बाद हमारे प्रातः स्मरणीय भाग्यविधाताओं एवं उनके अनुचर हमारे विद्या और वाङ्ग्मय के पीठासीन आचार्यों ने अपने को ब्रिटिश राज्य का योग्य उत्तराधिकारी सिद्ध किया है,क्योंकि ये दोनों उनके द्वारा प्रदत्त आँखों से ही देखते हैं। ऐसे में अपनी असली आँख क्या है इसकी जानकारी जरूरी है। चश्मा यदि जरूरी हो तो एतराज नहीं है, परन्तु चश्में के भीतर निजी आँख ही होनी चाहिए।" अपनी इस स्थापना को बल प्रदान करने के लिए कुबेरनाथ राय डाक्टर श्यामाचरण दुबे के साथ अपनी एक चर्चा का उल्लेख करते हैं कि एक अनौपचारिक बातचीत में डाक्टर दुबे ने उनसे एक विदेशी पुस्तक की चर्चा की जिसके आधे निबंध लेखक विदेशी और आधे लेखक भारतीय थे। दिलचस्प बात यह थी कि विदेशी लेखकों ने अपने शोधपत्रों में अपनी स्थापनाओं के प्रमाण में मनुस्मृति, महाभारत, गीता और धम्मपद आदि का आश्रय लिया था तो भारतीय लेखकों में ये स्रोत सर्वथा नहीं तो प्रायः अनुपस्थित थे और इसकी जगह पर मार्क्स, दुखीम, बेवर, ग्रामची आदि मौजूद थे। इसमें जो दो बातें सामने आती हैं उनमें से पहली तो यह है कि भारतीय लेखकों को अपने देशी स्रोतों की प्रामाणिकता एवं युक्ति पर विश्वास नहीं है अथवा देशी विद्वानों का अपने वांगमय में कोई अभिनिवेश नहीं है। डाक्टर दुबे ने व्यंग्य में कहा था-"अब हिंदू धर्म क्या है, इसे विदेशी लेखक जब अंग्रेजी में समझायेंगे तभी हम समझ पाएंगे।"
भारतीय चिन्तन और धर्म को पश्चिमी चश्में और पश्चिमी आँखों से देखने और पश्चिमी बुद्धि से समझने का ही क्या यह दुष्परिणाम नहीं है कि हम भारत के शाश्वत सनातन धर्म को मजहब और यूरोप के मजहब को धर्म समझने लगे हैं ? इस संदर्भ में श्री कुबेर राय की राय उधार लूं तो बात यह हुई कि "भारतीय धर्म और पैगम्बर प्रदत्त मजहब या "रिलीजन" में एक और बड़ा बुनियादी अंतर है। एक बड़ा ही विलक्षण और बड़ा ही महत्वपूर्ण अंतर है, वह यह कि भारतीय धर्म में सिर स्वतन्त्र है, मस्तिष्क और प्रज्ञा को मुक्त रखा गया है, परन्तु सिर के नीचे हाथ-पांव जननेन्द्रियां,उदर को बांधने की चेष्टा की गयी है। इसके प्रतिकूल अन्य मजहबों में हाथ-पांव जननेन्द्रियां, उदर स्वतंत्र हैं, परन्तु सिर को कठोरतम अनुशासन में बांधा गया है और मुक्त चिन्तन की कोई गुंजाइश नहीं है। भारतीय धर्म-साधना में आचरण अनुशासनबद्ध है और चिन्तन स्वतंत्र है।
भारत अर्थात हम भारत के लोगों पर इस समय किया जा रहा बौद्धिक और सांस्कृतिक आक्रमण अप्रत्याशित नहीं है। इनके प्रति अनजान बनने का आत्मघाती प्रयास लज्ज़ाजनक है। हम अपने प्रति अपने चिन्तन, जीवन दर्शन, अपनी परम्परा और जिजीविषा के प्रति अपराधबोध से ग्रस्त हैं, नहीं तो हमने श्री अरविन्द की चेतावनी पर ध्यान दिया होता। हम और हमारा देश अपनी देशी मूल से कटते जा रहे हैं। हम अपनी अस्मिता को लेकर वाचाल हो गए हैं। हमारे जीवन का "छन्द" भंग हो गया। उसकी मात्राएं, उसका स्वर और उसका अनुस्वार असंतुलित हो गया है। हमारा जीवन संगीत बेसुरा और हमारी जीवन कविता अकविता बन गई है।
हमारे वासुदेव कृष्ण ने भारतीय जीवन की छंदबद्धता का महत्व बताने-समझाने के लिए ही अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहा था कि "वेदों में मैं सामवेद हूँ, अर्थात मैं जीवन का "छन्द" हूँ।" श्री कुबेरनाथ राय चिन्मय भारत में इसकी चर्चा करते हैं कि "वस्तुतः प्रत्येक सही कर्म या रचना में एक "छन्द" एक "छंदोबद्ध रूप" या आकृति रहती है। यह छन्द चाहे प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष। बिना इसके रचना में सुडौलता (सही अनुपात) नहीं आ पाती है। हर क्रिया में पद्धति का एक "प्रारूप" (फार्म) बनता है। वही उसका "छन्द" है। अतः इस वृहत्तर अर्थ में "साम" या "छन्द" की अनिवार्यता स्वीकार करनी पड़ती है।---गत महायुद्ध में जर्मनी बिल्कुल ध्वस्त हो गया था। जब जर्मनी के पुनः निर्माण का प्रश्न आया तो उस देश के प्रसिद्ध अस्तित्ववादी दार्शनिक स्पर्स ने जीवन निर्माण का दर्शन प्रस्तुत करते हुए कहा था: "उल्टा हाथ लगाओ। यह जान लो कि "विद्रोह" और "अवज्ञा" से कम प्रतिष्ठित नहीं है निष्ठा, "वफादारी" और "समर्पण" । "छन्द" की ओर लौटो।" जर्मनी ने निष्ठा और समर्पण के मूल्य को पहचाना "छन्द" स्थापित हुआ और जर्मनी पुनः सिर उठाकर खड़ा हो गया। हर बात में विद्रोह और छन्द-विमुखता का एकान्त समर्थन कभी रचनात्मक नहीं हो सकता। विद्रोह का शास्त्र शब्दों के घटाजाल से चाहे कितना भी आकर्षक क्यों न बनाया जाए, इसका विस्फरण कुछ समय के लिए भले ही हलचल पैदा कर दे, परन्तु इससे कोई रचनात्मक उपलब्धि नहीं होती।" अब क्या हो गया है हमें ? यही कि आज हम पाखण्डी हो गए हैं। हम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगमन और उत्पाद, उनके आर्थिक और सांस्कृतिक आक्रमण और "बहुराष्ट्रीय बहू" का तो सार्वजनिक विरोध करते हैं लेकिन व्यक्तिगत जीवन में कोला गटकते हमें कोई शर्म-संकोच नहीं होता।
हमारा ध्यान इस ओर जाता ही नहीं कि हमारी जिह्वा का स्वाद हमारे शब्दों, सम्बोधनों, संस्कारों और जीवन को बर्बाद कर देगा। वात्सल्यमय, ममतामय और संवेदनशील "माँ" शब्द की जगह "मम्मी" और पिता की जगह "पापा" शब्द सम्बोधन से हमें चोट लगना बंद हो गया है। हर आम और ख़ास आदमी इसकी निन्दा तो करता है, लेकिन इसका निषेध कोई नहीं करता। देश के साधू-संत भी स्वयं के लिए "सेन्ट" सम्बोधन से गौरवान्वित होने लगे हैं। अधिकांश सन्तों का ध्यान अब आध्यात्म, ज्ञान और भक्तिमय दिव्यता पर नहीं साधनों और सुविधाओं एवं भौतिक भव्यता पर लगा हुआ दिखाई देता है। वे अपने शिष्यों-भक्तों के अभारतीय सम्बोधनों को सुनकर उन्हें रोकते-टोकते भी नहीं। वहां भी "शुभम्-सवागतम_" शब्दों को अब "टाटा" -"वेलकम" शब्दों ने धकिया दिया है। संतों के आश्रमों के भी इस रोग की चपेट में आ जाने से भारतीय आत्मसत्ता और अस्मिता बहुत ही आहत हो रही है। उसे उसका अंतिम कवच भी टूटता दिखाई दे रहा है।
हम विदेशों में जाते हैं तो वहां रह रहे भारतीय मूल के लोगों को यह सलाह देते हैं कि "ठीक है वहां की भाषा का प्रयोग किये बिना काम नहीं चलता तो बोलो वहां की भाषा, किन्तु अपने घर वापस आ कर परिवार में बच्चों, आगंतुकों-अतिथियों और घर वालों के साथ अपनी भाषा का प्रयोग तो कर ही सकते हो, करना भी चाहिए।" हमारी सलाह वे मानते भी हैं और अपने घर में अपनी मूल देशी भाषा का प्रयोग करते भी हैं, वहीं जन्में उनके बच्चे भी अपनी मातृ (माँ की) भाषा में बात करते हैं। लेकिन यहां, अपने देश में अपनी भाषा को हीनता का पर्याय मानकर अंग्रेजी बोलने को प्रगतिशील और आधुनिक होना माना जाता है। हम अपने दुधमुहें बच्चों को आकाश दिखाते हैं तो उस पर उगे तारों-नक्षत्रों को "तारे-सितारे" न कहकर "स्टार" कहने के लिए उन्हें प्रेरित करते हैं। विदेशी चोर और तस्कर हमारे राष्ट्र और लोकधर्म पर डाका डाल रहे हैं और हम हैं कि अपनी भाषा और बोली बोलने में भी लजाते हैं। माँ को "मम्मी" और पिता को "पापा" सम्बोधन सुनकर हमें सुखानुभूति होती है कि हमारे बेटे-बेटियां अंग्रेजी बोलते हैं। इतनी चेतावनियों, इनकी सलाहों और इतने अनुभवों के बाद भी हम अपनी आत्मसत्ता में स्थित न होकर पश्चिमी जूठन को भगवान् के प्रसाद की तरह खाते हैं और इस जूठन-जेवन में आधुनिक होने की गौरवानुभूति करते हैं। विदेशी भाषा, विदेशी विचार, विदेशी चरित्र, विदेशी पहनावा, विदेशी खानपान और विदेशी सम्बोधन को हमने हमारे देशी प्राण-धर्म का प्राण हरण करने की पूरी छूट दे रखी है। स्वदेशी और देशीपन केवल भाषणों-प्रवचनों और राजनीतिक रणनीति तक सिमट कर रह गया है।
मौका मिलते ही हम विदेशी चमक-दमक, विदेशी विचार, विदेशी उत्पाद और विदेशी व्यक्तियों की परिक्रमा करने लगते हैं कि जैसे हमारे पास कभी कुछ था ही नहीं, जैसे हमारे पास आज भी कुछ नहीं है और यदि इन्हें नहीं पकड़ा तो कल भी कुछ नहीं रहेगा। अपने विषय में यह अविश्वास, अपने प्रति यह अनास्था, यह असंयम, हमारा यह आतंकित भविष्य और हमारी यह परावलम्बिता हमारे भारत देश को काया-वाचा-मनसा गुलाम बना रही है। यदि हम समय रहते चेते-जागे नहीं, यदि हमने अपने श्रेष्ठ पुरुषों की चेतावनियों पर कान नहीं दिया, यदि हमने उनके अनुभवों और अनुभूतियों को आत्मसात नहीं किया और यदि स्वयं को विदेशी चश्में और विदेशी आँखों से देखने के लिए हम इसी तरह अपनी देशी आँख फाड़ लेते रहे तो न तो हमारी आत्मसत्ता शेष रहेगी और न अस्मिता। फिर हमारा भारत वह भारत नहीं रहेगा जिसका विधाता ने बड़ी जतन और विशिष्ट रूप से विश्व कल्याण के लिए सृजन किया है। शेष रह जाएगा केवल पाखण्ड, केवल प्रलाप, केवल प्रवचन, केवल खुशफहमी और भारतीय होने की गलतफहमी। "वयं राष्ट्रे जाग्रयामः पुरोहिता" की वेद ऋचा का आह्वान यदि हमारे संतों, नेताओं, माताओं, अध्यापकों, विज्ञानियों, व्यवसायियों और किसानों ने न सुना-माना तो यह प्रश्न हमसे कोई और पूछेगा कि हम क्यों मरे-मिटे से नाम शेष होने की ओर बढ़ रहे हैं। और हमारे पास इसका कोई उत्तर नहीं होगा।

प्रस्तुति-पं. कृष्ण मोहन शास्त्री 'मनोज'

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

नवगीत:
संजीव 
*
दुनिया रंग रँगीली 
बाबा 
दुनिया रंग रँगीली रे!
*
धर्म हुआ व्यापार है
नेता रँगा सियार है
साध्वी करती नौटंकी
सेठ बना बटमार है
मैया छैल-छबीली
बाबा
दागी गंज-पतीली रे!
*
संसद में तकरार है
झूठा हर इकरार है
नित बढ़ते अपराध यहाँ
पुलिस भ्रष्ट-लाचार है
नैतिकता है ढीली
बाबा
विधि-माचिस है सीली रे!
*
टूट रहा घर-द्वार है
झूठों का सत्कार है
मानवतावादी भटके
आतंकी से प्यार है
निष्ठां हुई रसीली
बाबा
आस्था हुई नशीली रे!
***

९-८-२०१७
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#हिंदी_ब्लॉगर
#दिव्यनर्मदा

दोहा पाठशाला २

दोहा पाठशाला २ 
दोहा है रस-कोष
रसः काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला अलौकिक आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस को साहित्य की आत्मा तथा ब्रम्हानंद सहोदर रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं। 
विभिन्न संदर्भों में रस का अर्थ: एक प्रसिद्ध सूक्त है- 'रसौ वै स:' अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनंद है। 'कुमारसंभव' में प्रेमानुभूति, पानी, तरल और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृति' मदिरा के लिए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चौबीस गुणों में एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय। स्वाद, रुचि और इच्छा के अर्थ में भी कालिदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'रघुवंश', आनंद व प्रसन्नता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में किसी कविता की भावभूमि को रस कहते हैं। रसपूर्ण वाक्य को काव्य कहते हैं।
भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुर्वेद' में शरीर के संघटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणि को रसरत्न कहते हैं। मान्यता है कि पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उत्तररामचरित' में इसके लिए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भर्तृहरि काव्यमर्मज्ञ को रससिद्ध कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रसप्रबन्ध' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
रस प्रक्रिया: विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से मानव-ह्रदय में रसोत्पत्ति होती है। ये तत्व ह्रदय के स्थाई भावों को परिपुष्ट कर आनंदानुभूति करते हैं। रसप्रक्रिया न हो मनुष्य ही नहीं सकल सृष्टि रसहीन या नीरस हो जाएगी। संस्कृत में रस सम्प्रदाय के अंतर्गत इस विषय का विषद विवेचन भट्ट, लोल्लट, श्न्कुक, विश्वनाथ कविराज, आभिंव गुप्त आदि आचार्यों ने किया है। रस प्रक्रिय के अंग निम्न हैं-
१. स्थायी भाव- मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस श्रृंगार हास्य करुण रौद्र वीर भयानक वीभत्स अद्भुत शांत वात्सल्य
स्थायी भाव रति हास शोक क्रोध उत्साह भय घृणा विस्मय निर्वेद संतान प्रेम
२. विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार अ. आलंबन व आ. उद्दीपन हैं। ‌
अ. आलंबन: आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌श्रृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
आ. उद्दीपन विभाव- आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। कभी-कभी प्रकृति भी उद्दीपन का कार्य करती है। यथा पावस अथवा फागुन में प्रकृति की छटा रस की सृष्टि कर नायक-नायिका के रति भाव को अधिक उद्दीप्त करती है। न सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
३. अनुभावः आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना या हास्य रसाधीन व्यक्ति का जोर-जोर से हँसना, नाईक के रूप पर नायक का मुग्ध होना आदि। 
४. संचारी (व्यभिचारी) भावः आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रसों पर दोहा 
श्रृंगार: स्थाई भाव रति, आलंबन विभाव नायक-नायिका, उद्दीपन विभाव एकांत, उद्यान, शीतल पवन, चंद्र, चंद्रिकाक आदि। अनुभाव कटाक्ष, भ्रकुटि-भंग, अनुराग-दृष्टि आदि । संचारी भाव उग्रता, मरण, आलस्य, जुगुप्सा के आलावा शेष सभी।
संयोग श्रृंगार: नायक-नायिका का सामीप्य या मिलन।
।।चली मचलती-झूमती, सलिला सागर-अंक। द्वैत मिटा अद्वैत वर, दोनों हुए निशंक।। 
वियोग श्रृंगार: नायक-नायिका का दूर रह के मिलन हेतु व्याकुल होना। 
।।चंद्र चंद्रिका से बिछड़, आप हो गया हीन। खो सुरूप निज चाँदनी, हुई चाँद बिन दीन ।।
हास्य : स्थाई भाव विकृत रूप या वाणीजनित विकार। आलंबन विकृत वस्तु या व्यक्ति। अनुभव आँखें मींचना, मुँह फैलाना आदि। संचारी भाव निद्रा, आलस्य, चपलता, उद्वेग आदि। 
।।दफ्तर में अफसर कहे, अधीनस्थ को फूल। फूल बिना घर गए तो, कहे गए खुद फूल।।
(फूल = मूर्ख, पुष्प)
व्यंग्य: स्थाई भाव विकृत रूप या वाणीजनित विकार। आलंबन विकृत वस्तु या व्यक्ति। अनुभव आँखें मींचना, मुँह फैलाना, तिलमिलाना आदि। संचारी भाव निद्रा, आलस्य, चपलता, उद्वेग आदि। 
।।वादा कर जुमला बता, झट से जाए भूल। जो नेता वह हो सफल, बाकी फाँकें धूल।। 
करुण रस: स्थाई भाव शोक, दुःख, गम। आलंबन मृत या घायल व्यक्ति, पतन, हार। उद्दीपन मृतक-दर्शन, दिवंगत की स्मृति, वस्तुएँ, चित्र आदि। अनुभाव धरती पर गिरना, विलाप, क्रुन्दन, चीत्कार, रुदन आदि। संचारी भाव निर्वेद, मोह, अपस्मार, विषाद आदि। 
।।माँ की आँखों से बहें, आँसू बन जल-धार। निज पीड़ा को भूलकर, शिशु को रही निहार।।
रौद्रः स्थाई भाव क्रोध, गुस्सा। आलंबन अपराधी, दोषी आदि। उद्दीपन अपराध, दुष्कृत्य आदि। अनुभाव कठोर वचन, डींग मारना, हाथ-पैर पटकना। संचारी भाव अमर्ष, मद, स्मृति, चपलता,गर्व, उग्रता आदि। 
।।शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌. जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।।
वीरः स्थाई भाव उत्साह, वीरता। आलंबन शत्रु याचक, धर्म, कर्तव्य आदि। आश्रय उत्साही, वीर आदि। उद्दीपन रण-वाद्य, यशेच्छा, धर्म-ग्रंथ, कर्तव्य-बोध, रुदन आदि। अनुभाव भुजा फडकना, नेत्र लाल होना, मुट्ठी बाँधना, ताल ठोंकना, मूँछ उमेठना, उदारता, धर्म-रक्षा, सांत्वना आदि। संचारी भाव उत्सुकता, संतोष, हर्ष, शांति, धैर्य, हर्ष आदि। 
।।सीमा में बैरी घुसा, उठो, निशाना साध। ह्रदय वेध दो वीर तुम, मृग मारे ज्यों व्याध।।
भयानकः स्थाई भाव भय, डर आदि। आलंबन प्राणघातक प्राणी शेर आदि। उद्दीपन आलंबन की हिंसात्मक चेष्टा, डरावना रूप आदि। अनुभाव शरीर कांपना, पसीना छूटना, मुख सूखना आदि। संचारी भाव देनी, सम्मोह आदि। 
।। लपट कराल गगन छुएँ, दसों दिशाएँ तप्त। झुलस जले खग वृंद सब, जीव-जंतु संतप्त।। 
वीभत्सः स्थाई भाव जुगुप्सा, घृणा आदि। आलंबन दुर्गंधमय मांस-रक्त, घृणित पदार्थ। उद्दीपन घृणित वस्तुएँ व रूप। अनुभाव नाक=भौं सिकोड़ना, मुँह बनाना, नाक बंद करना आदि। संचारी भाव आवेग, शंका, मोह आदि। 
।। हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध। हँसते जन-का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।।
अद्भुतः स्थाई भाव विस्मय, आश्चर्य, अचरज। आलंबन आश्चर्यजनक वस्तु, घटना आदि। उद्दीपन अलौकिकतासूचक तत्व। अनुभव प्रशंसा, रोमांच, अश्रु आदि। संचारी भाव हर्ष, आवेग, त्रास आदि। 
।। खाली डब्बा दिखाया, पलटा पक्षी-फूल। उड़े-हाथ में देख सब, चकित हुए क्या मूल।। 
शांतः स्थाई भाव निर्वेद। आलंबन ईश-चिंतन, वैराग, नश्वरता आदि। उद्दीपन सत्संग, पुण्य, तीर्थ-यात्रा आदि। अनुभाव समानता, रोमांच, गदगद होना। संचारी भाव मति, हर्ष, स्मृति आदि। 
।।घर में रह बेघर हुआ, सगा न कोई गैर। श्वास-आस जब तक रहे, कर प्रभु सँग पा सैर।। 
वात्सल्यः स्थाई भाव ममता। आलंबन शिशु आदि। उद्दीपन शिशु से दूरी। अनुभाव शिशु का रुदन। संचारी भाव लगाव। 
।। छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल। पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल।।
भक्तिः स्थाई भाव ईश्वर से प्रेम। आलंबन मूर्ति, चित्र आदि। उद्दीपन अप्राप्ति। अनुभाव सांसारिकता। संचारी भाव आकर्षण।
।।करुणासींव करें कृपा, चरण-शरण यह जीव। चित्र गुप्त दिखला इसे, करिए प्रभु संजीव।। 
विरोध: स्थायी भाव आक्रोश। आलंबन कुव्यवस्था, अवांछनीय तत्व। उद्दीपन क्रूर व्यवहार। अनुभाव सुधर या परिवर्तन की चाह। संचारी भाव दैन्य, उत्साहहीनता, शोक, भय, जड़ता, संताप आदि। (श्री रमेश राज, अलीगढ़ प्रणीत नया रस) 
दोहा लेखन के सूत्र:
१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं।
२. हर पद में दो चरण होते हैं। 
३. विषम (१-३) चरण में १३-१३ तथा सम (२-४) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. विषम चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है। कबीर, तुलसी, बिहारी जैसे कालजयी दोहकारों ने ग्यारहवीं मात्रा लघु रखे बिना भी अनेक उत्तम दोहे कहे हैं। 
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं। 
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि जैसे देशज क्रिया रूपों का उपयोग न करें। 
८. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए। 
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग न करें।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके। 
१२. दोहे में कारक का प्रयोग कम से कम हो। 
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें। 
१४. दोहा सम तुकांत छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है। 
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता। 
१६. दोहा में एक ही शब्द को भिन्न-भिन्न मात्रा भर में प्रयोग किया जा सकता है बशर्ते उतनी कुशलता हो। यथा कैकेई ६, कैकई ५, कैकइ ४ के रूप में तुलसीदास जी ने प्रयोग किया है। 
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muktak

मुक्तक सलिला:
आशा कुसुम, लता कोशिश पर खिलते हैं 
सलिल तीर पर, हँस मन से मन मिलते हैं 
नातों की नौका, खेते रह बिना थके-
लहरों जैसे बिछुड़-बिछुड़ हम मिलते हैं 
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पाठ जब हमको पढ़ाती जिंदगी।
तब न किंचित मुस्कुराती जिंदगी।
थाम कर आगे बढ़ाती प्यार से-
'सलिल' मन को तब सुहाती जिंदगी.
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केवल प्रसाद सत्य है, बाकी तो कथा है
हर कथा का भू-बीज मिला, हर्ष-व्यथा है
फैला सको अँजुरी, तभी प्रसाद मिलेगा
पी ले 'सलिल' चुल्लू में यही सार-तथा है
तथा = तथ्य,
प्रयोग: कथा तथा = कथा का सार
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आँखों में जिज्ञासा, आमंत्रण या वर्जन?
मौन धरे अधरों ने पैदा की है उलझन
धनुष भौंह पर तीर दृष्टि के चढ़े हुए हैं-
नागिन लट मोहे, भयभीत करे कर नर्तन
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