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गुरुवार, 15 सितंबर 2016

muktak

मुक्तक 
नित्य प्रात हो जन्म, सूर्य सम कर्म करें निष्काम भाव से। 
संध्या पा संतोष रात्रि में, हो विराम नित नए चाव से।। 
आस-प्रयास-हास सँग पग-पग, लक्ष्य श्वास सम हो अभिन्न ही -
मोह न व्यापे, अहं न घेरे, साधु हो सकें प्रिय! स्वभाव से।।
***

बुधवार, 14 सितंबर 2016

muktak

मुक्तक 
*
काश! कभी हम भी सुधीर हो पाते 
संघर्षों में जीवन-जय गुंजाते
गगन नापते, बूझ दिशा अनबूझी 
लौट नीड पर ग़ज़लें-नगमे गाते
*
सोच को विस्तार देते जाइए
भाव को संसार देते जाइये
गीत का यदि आचमन कर सकें तो
'सलिल'-संग हर शब्द में मुस्काइये
*
काण्ड सुन्दर हो, तभी घर, घर रहे
साथ मनहर हो, मधुर हर स्वर रहे
सृजन के संसार में वैराग्य संग-
प्रेम का पाथेय भी उर में रहे
*
माँ मरती ही नही, जिया करती है संतानों में
श्वास-आस अपने -सपने कब उसे भूल पाते हैं
हो विदेह वह साथ सदा, संकट में संबल देती-
धन्य वही सुत जो मैया के गुण आजीवन गाते
*
सुर जीत रहे तो अ-सुर हार कर खुद बाहर हो जायेंगे
गीत-गुहा में स-सुर साधना कर नवगीत सुनाएँगे
हर दिन होता जन्म दिवस है, नींद मरण जो मान रहे
वे सूरज सँग जाग, करें श्रम, अपनी मन्ज़िल पाएँगे
*

समस्या पूर्ति

समस्या पूर्ति 
किसी अधर पर नहीं 
*
किसी अधर पर नहीं शिवा -शिव की महिमा है 
हरिश्चन्द्र की शेष न किंचित भी गरिमा है 
विश्वनाथ सुनते अजान नित मन को मारे
सीढ़ी , सांड़, रांड़ काशी में, नहीं क्षमा है
*
किसी अधर पर नहीं शेष है राम नाम अब
राजनीति हैं खूब, नहीं मन में प्रणाम अब
अवध सत्य का वध कर सीता को भेजे वन
जान न पाया नेताजी को, हैं अनाम अब
*
किसी अधर पर नहीं मिले मुस्कान सुहानी
किसी डगर पर नहीं किशन या राधा रानी
नन्द-यशोदा, विदुर-सुदामा कहीं न मिलते
कंस हर जगह मुश्किल उनसे जान बचानी
*
किसी अधर पर नहीं प्रशंसा शेष की
इसकी, उसकी निंदा ही हो रही न किसकी
दलदल मचा रहे हैं दल, संसद में जब-तब
हुआ उपेक्षित सुनता कोई न सिसकी
*
किसी अधर पर नहीं सोहती हिंदी भाषा
गलत बोलते अंग्रेजी, खुद बने तमाशा
माँ को भूले। पैर पत्नी के दबा रहे हैं
जिनके सर पर है उधार उनसे क्या आशा?
*
किसी अधर पर नहीं परिश्रम-प्रति लगाव है
आसमान पर मँहगाई सँग चढ़े भाव हैं
टैक्स बढ़ा सरकारें लूट रहीं जनता को
दुष्कर होता जाता अब करना निभाव है
*
किसी अधर पर नहीं शेष अब जन-गण-मन है
स्त्री हो या पुरुष रह गया केवल तन है
माध्यम जन को कठिन हुआ है जीना-मरना
नेता-अभिनेता-अफसर का हुआ वतन है
*

हास्य गीत

एक रचना 
*
छंद बहोत भरमाएँ 
राम जी जान बचाएँ 
*
वरण-मातरा-गिनती बिसरी 
गण का? समझ न आएँ 
राम जी जान बचाएँ 
*
दोहा, मुकतक, आल्हा, कजरी, 
बम्बुलिया चकराएँ 
राम जी जान बचाएँ 
*
कुंडलिया, नवगीत, कुंडली, 
जी भर मोए छकाएँ 
राम जी जान बचाएँ 

मूँड़ पिरा रओ, नींद घेर रई 
रहम न तनक दिखाएँ 
राम जी जान बचाएँ 

कर कागज़ कारे हम हारे 
नैना नीर बहाएँ 
राम जी जान बचाएँ 
*
ग़ज़ल, हाइकू, शे'र डराएँ 
गीदड़-गधा बनाएँ 
राम जी जान बचाएँ 
*
ऊषा, संध्या, निशा न जानी 
सूरज-चाँद चिढ़ाएँ 
राम जी जान बचाएँ 
*
हाइकू गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*
मुक्तक
हिंदी का उद्घोष छोड़, उपयोग सतत करना है
कदम-कदम चल लक्ष्य प्राप्ति तक संग-संग बढ़ना है
भेद-भाव की खाई पाट, सद्भाव जगाएँ मिलकर
गत-आगत को जोड़ सके जो वह पीढ़ी गढ़ना है
*
गीत
*
देश-हितों हित
जो जीते हैं
उनका हर दिन अच्छा दिन है।
वही बुरा दिन
जिसे बिताया
हिंद और हिंदी के बिन है।
*
अपने मन में
झाँक देख लें
क्या औरों के लिए किया है?
या पशु, सुर,
असुरों सा जीवन
केवल निज के हेतु जिया है?
क्षुधा-तृषा की
तृप्त किसी की,
या अपना ही पेट भरा है?
औरों का सुख छीन
बना जो धनी
कहूँ सच?, वह निर्धन है।
*
जो उत्पादक
या निर्माता
वही देश का भाग्य-विधाता,
बाँट, भोग या
लूट रहा जो
वही सकल संकट का दाता।
आवश्यकता
से ज्यादा हम
लुटा सकें, तो स्वर्ग रचेंगे
जोड़-छोड़ कर
मर जाता जो
सज्जन दिखे मगर दुर्जन है।
*
बल में नहीं
मोह-ममता में
जन्मे-विकसे जीवन-आशा।
निबल-नासमझ
करता-रहता
अपने बल का व्यर्थ तमाशा।
पागल सांड
अगर सत्ता तो
जन-गण सबक सिखा देता है
नहीं सभ्यता
राजाओं की,
आम जनों की कथा-भजन है
***
हिंदी दिवस २०१६

शनिवार, 10 सितंबर 2016

नवगीत

एक रचना
कौन हैं हम?
*











*
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि  हैं आत्मा चिरन्तन??
*
        स्नेह सलिला नर्मदा हैं।
          सत्य-रक्षक वर्मदा हैं।
           कोई माने या न माने
          श्वास सारी धर्मदा हैं।
जान या
मत जान लेकिन
मित्र है साहस-प्रभंजन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि  हैं आत्मा चिरन्तन??
*
       सभ्यता के सिंधु हैं हम,
     भले लघुतम बिंदु हैं हम।
        गरल धारे कण्ठ में पर
     शीश अमृत-बिंदु हैं हम।
अमरकंटक-
सतपुड़ा हम,
विंध्य हैं सह हर विखण्डन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि  हैं आत्मा चिरन्तन??
*
         ब्रम्हपुत्रा की लहर हैं,
     गंग-यमुना की भँवर हैं।
     गोमती-सरयू-सरस्वति
अवध-ब्रज की रज-डगर हैं।
बेतवा, शिव-
नाथ, ताप्ती,
हमीं क्षिप्रा, शिव निरंजन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि  हैं आत्मा चिरन्तन??
*
        तुंगभद्रा पतित पावन,
       कृष्णा-कावेरी सुहावन।
        सुनो साबरमती हैं हम,
   सोन-कोसी-हिरन भावन।
व्यास-झेलम,
लूनी-सतलज
हमीं हैं गण्डक सुपावन।
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि  हैं आत्मा चिरन्तन??
*
           मेघ बरसे भरी गागर,
        करी खाली पहुँच सागर। 
       शारदा, चितवन किनारे-
        नागरी लिखते सुनागर। 
हमीं पेनर
चारु चंबल 
घाटियाँ हम, शिखर- गिरिवन
कौन हैं हम?
देह नश्वर,
या कि  हैं आत्मा चिरन्तन??
*****
१०-९-२०१६ 

bhavanjali

प्रिय पुष्पा जिज्जी!
सादर प्रणाम सहित 
भावांजलि 
*







*
शत-शत वंदन 
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*
ओंकारित होकर मुस्काओ
जीवन की जय-जय गुंजाओ
महके स्नेह-सुरभि दस दिश में
ममतामय नर्मदा बहाओ
पुष्पाओ तो हो
जग मधुवन
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*
अंशुमान अँगना उजियारे
आशुतोष उपकृत, मन वारे
सोनल तुमसे गहे विरासत
मृदुल मेघना जाती वारे
आशा-किरण
साधनामय मन
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*
पूनम की सुषमा है तुमसे
अर्णव-श्रेया झूमे-हुमसे
राजिव-संजिव नज़र उतारें
आरोही कैयां में हुलसे
भाव सलिल
लहरों का गुंजन
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*

navgeet

एक रचना -
कौन?
*
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
खुशियों की खेती अनसिंचित, 
सिंचित खरपतवार व्यथाएँ। 
*
खेत 
कारखाने-कॉलोनी 
बनकर, बिना मौत मरते हैं।
असुर हुए इंसान,
 न दाना-पानी खा,
दौलत चरते हैं। 
वन भेजी जाती सीताएँ, 
मन्दिर पुजतीं शूर्पणखाएँ। 
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
गौरैयों की देखभाल कर 
मिली बाज को जिम्मेदारी। 
अय्यारी का पाठ रटाती,
पैठ मदरसों में बटमारी। 
एसिड की शिकार राधाएँ 
कंस जाँच आयोग बिठाएँ। 
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
रिद्धि-सिद्धि, हरि करें न शिक़वा,
लछमी पूजती है गणेश सँग। 
'ऑनर किलिंग' कर रहे  दद्दू 
मूँछ ऐंठकर, जमा रहे रंग। 
ठगते मोह-मान-मायाएँ 
घर-घर कुरुक्षेत्र-गाथाएँ। 
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
हर कर्तव्य तुझे करना है, 
हर अधिकार मुझे वरना है।
माँग भरो, हर माँग पूर्ण कर 
वरना रपट मुझे करना है। 
देह मात्र होतीं वनिताएँ 
घर को होटल मात्र बनाएँ। 
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
दोष न देखें दल के अंदर, 
और न गुण दिखते दल-बाहर। 
तोड़ रहे कानून बना, सांसद,   
संसद मंडी-जलसा घर।  
बस में हो तो साँसों पर भी 
सरकारें अब टैक्स लगाएँ। 
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*****
९-८-२०१६ 
गोरखपुर दंत चिकित्सालय 
जबलपुर 
*

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

व्यंग्य कविता

व्यंग्य रचना-
बाबू  और यमराज
सुरेश उपाध्याय













दफ्तर का एक बाबू मरा
सीधा नरक में जाकर गिरा
न तो उसे कोई दुःख हुआ
ना वो घबराया
यों ही ख़ुशी में झूम कर चिल्लाया
वाह, वाह क्या व्यवस्था है?
क्या सुविधा है?
क्या शान है?
नरक के निर्माता! तू कितना महान है?
आँखों में क्रोध लिए यमराज प्रगट हुए, बोले-
'नादान!  यह दुःख और पीड़ा का दलदल भी
तुझे शानदार नज़र आ रहा है?
बाबु ने कहा -
'माफ़ करें यमराज
आप शायद नहीं जानते
की बन्दा सीधे हिंदुस्तान से आ रहा है।
***

dopadi-doha

दोपदी
*
अब न ललक फूल की बाकी रही
आदमी fool हो गया शायद
*
फूल कर कुप्पा प्रशंसा से हुए
सु-मन ने काँटा चुभा पिचका दिया
*
*
दोहा सलिला
*
गौ भाषा को दोह ले, दोहा दुग्ध समान
गागर में सागर भरे, पढ़-समझें मतिमान
*
बात मर्म की कह रहा, सुनिये धरकर धीर
शाह भिखारी ही मिले, मिले अमीर फ़क़ीर
*
पैर उठाये है 'सलिल', जब तक सर का भार
सर अकड़ा है गर्व से, सर पर सर बलिहार
*
रूप चन्द्र का निरखकर, सविता क्यों सन्तप्त?
दर्शन राम किशोर के, कर हो जाए तृप्त
*
लता विटप तरु धन्य हैं, प्रीत करें मिथिलेश
सींच 'सलिल' कर दूर दें, मन में व्यथा अशेष
*
तुम रखते ही हो नहीं, सूखा हुआ गुलाब
इसीलिये भारी लगे, तुम्हें किताब जनाब
*
दूर न दर्शन रह गये, मोबाइल में देख
अब उर में खिंचती नहीं, है यादों की रेख
*
क्या जवाब दूँ बतायें, नहीं रहा कुछ सूझ
मौन हुई मति क्यों कहें, बात न आती बूझ
*
मौन न हों मति सोचकर, दोहा लिख लें एक
मन से मन की बात हो, दोहे में सविवेक
*
६.९.२०१६

सोमवार, 5 सितंबर 2016

गुरु वंदन

मेरे गुरु, अग्रजवत श्री सुरेश उपाध्याय जी 
शत-शत वंदन    


दोहा मुक्तिका


*
गुरु में भाषा का मिला, अविरल सलिल प्रवाह 
अँजुरी भर ले पा रहा, शिष्य जगत में वाह 
*
हो सुरेश सा गुरु अगर, फिर क्यों कुछ परवाह? 
अगम समुद में कूद जा, गुरु से अधिक न थाह 
*
गुरु की अँगुली पकड़ ले, मिल जाएगी राह 
लक्ष्य आप ही आएगा, मत कर कुछ परवाह 
*
गुरु समुद्र हैं ज्ञान का, ले जितनी है चाह
नेह नर्मदा विमल गुरु, ज्ञान मिले अवगाह *
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह 
*  
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
***

geet

एक रचना
*
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का
पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर-
निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर
कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी
कहाँ सुधारी हैं? 
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
भाँग कुएँ में
घोल, हुए मदहोश सभी,
किसके मन में
किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे
पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें
मति गई मारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
एक अँगुली जब
तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं
आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे
थी भरमाई।
सोचें क्या-कब
हमने दशा सुधारी है?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
जैसा भी है
तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है
बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन,
सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी
जिसमें कुछ खुद्दारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
कौन सुधारे किसको?
आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी,
न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला,
सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी
सारे जग से न्यारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*


११-८-२०१६



ganesh vandana

प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) -संजीव 'सलिल'

II ॐ  श्री गणधिपतये नमः II


== प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) ==



हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
*
प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..



प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
*
ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..



प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
*
जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..

जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..

श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..

नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..

रविवार, 4 सितंबर 2016

samiksha

पुस्तक चर्चा
काल है संक्रांति का - एक सामयिक और सशक्त काव्य कृति 
- अमरेन्द्र नारायण 
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com] 

*  
               आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के स्वामी हैं।  वे एक सम्माननीय अभियंता, एक सशक्त साहित्यकार, एक विद्वान अर्थशास्त्री, अधिवक्ता और एक प्रशिक्षित पत्रकार हैं। जबलपुर के सामाजिक जीवन में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी यही बहुआयामी प्रतिभा उनकी नूतन काव्य कृति 'काल है संक्रांति का' में लक्षित होती है।  संग्रह की कविताओं में अध्यात्म, राजनीति, समाज, परिवार, व्यक्ति सभी पक्षों को भावनात्मक स्पर्श से संबोधित किया गया है। समय के पलटते पत्तों और सिमटते अपनों के बीच मौन रहकर मनीषा अपनी बात कहती है-
'शुभ जहाँ है, उसीका उसको नमन शत 
जो कमी मेरी कहूँ सच, शीश है नत। 

               स्वार्थ, कर्तव्यच्युति और लोभजनित राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के इस संक्रांति काल में कवि आव्हान करता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर 
आँखें रहते भी हो सूर 
संसद हो चौपालों पर 
राजनीति तज दे तंदूर 
अब भ्रान्ति टाल दो, जगो-उठो। 

               कवि माँ सरस्वती की आराधना करते हुए कहता है-
अम्ल-धवल, शुचि 
विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैयाँ 
तिमितहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा 
नाद-ताल, गति-यति खेलें तव कैयाँ
अनहद सुनवा दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!!

               अध्यात्म के इन शुभ क्षणों में वह अंध-श्रद्धा से दूर रहने का सन्देश भी देता है-
अंध शृद्धा शाप है 
आदमी को देवता मत मानिए 
आँख पर पट्टी न अपनी बाँधिए 
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए  
लक्ष्य अपना आप हैं। 

               संग्रह की रचनाओं में विविधता के साथ-साथ सामयिकता भी है। अब भी जन-मानस में सही अर्थों में आज़ादी पाने की जो ललक है, वह 'कब होंगे आज़ाद' शीर्षक कविता में दिखती है-
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
गये विदेश पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन
भाषण देतीं, पर सरकारें दे न स्की हैं राशन
मंत्री से सन्तरी तक, कुटिल-कुतंत्री बनकर गिद्ध
नोच-खा रहे भारत माँ को, ले चटखारे-स्वाद
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?

               आकर्षक साज-सज्जा से निखरते हुए इस संकलन की रचनाएँ आनन्द का स्रोत तो हैं ही, वे न केवल सोचने को मजबूर करती हैं बल्कि अकर्मण्यता दूर करने का सन्देश भी देती हैं। 

               कवि को हार्दिक धन्यवाद और बधाई। 

               गीत-नवगीत की इस पुस्तक का स्वागत है। 
***
समीक्षक परिचय- अमरेंद्र नारायण, ITS (से.नि.), भूतपूर्व महासचिव एशिया पेसिफिक टेलीकम्युनिटी बैंगकॉक , हिंदी-अंग्रेजी-उर्दू कवि-उपन्यासकार, ३ काव्य संग्रह, उपन्यास संघर्ष,  फ्रेगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स, द स्माइल ऑफ़ जास्मिन, खुशबू सरहदों के पार (उर्दू अनुवाद)संपर्क- शुभा आशीर्वाद, १०५५ रिज रोड, दक्षिण सिविल लाइन जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६०४६००, ईमेल- amarnar@gmail.com। 
==========

शनिवार, 3 सितंबर 2016

doha salila

दोहा सलिला 
कर माहात्म्य 
*
कर ने कर की नाक में, दम कर छोड़ा साथ 
कर ने कर के शीश पर, तुरत रख दिया हाथ 
*
कर ने कर से माँग की, पूरी कर दो माँग
कर ने उठकर झट भरी, कर की सूनी माँग 
*
कर न आय पर दिया है, कर देकर हो मुक्त 
कर न आय दे पर करे,  कर कर से संयुक्त 
*
कर ने कर के कर गहे, कहा न कर वह बात 
कर ने कर बात सुन, करी अनसुनी-  घात
*
कर कइयों के साथ जा, कर ले आया साथ 
कर आकर सब कुछ हुई, कर हो गया अनाथ 
*
दरवाजे पर थाप कर,  जमा लिए निज पाँव 
कर ने कर समझ नहीं, हार गया हर दाँव 
*
कार छीन कर ने किया, कर को जब बेकार
बेबस कर बस से गया, करि हार स्वीकार    
*
'दे कर',  'ले कर' कर रहे, कर-कर मिल संवाद 
कर अधिकारी से करें, कम कर की फरियाद 
*
कर-करतब दिखला करे, सर हर अवसर मीत 
रहे न कर की कैद में, 'सलिल' हार या जीत?
*
दे जवाब कर ने कहा, कर ने छोड़ लिहाज
लाजवाब कर को किया, कर ने बना रिवाज 
***